Devanagari Lipiदेवनागरी लिपि का जन्म और विकासभारत में तीन लिपियों के लेख मिलते हैं- सिन्धु घाटी, खरोष्ठी लिपि तथा ब्राह्मी लिपि। सिन्धु घाटी की लिपि अभी तक पूर्णत: पढ़ी नहीं गयी है। खरोष्ठी लिपि के प्रमाणों में मुख्य रूप से शहबाज गढ़ी तथा मान-सेता में खरोष्ठी के शिलालेख मिले हैं। इन दोनों का ही सम्बन्ध देवनागरी से नहीं है। Show
ब्राह्मी लिपि (Brahmi Script)तीसरी लिपि है- ब्राह्मी, 500 ई. पू. से 350 पू. में ब्राह्मी लिपि भारत में प्रायः सर्वत्र ही प्रयुक्त होती रही है। आगे चलकर इसकी दो धाराएँ हो गईं-उत्तरी और दक्षिणी। उत्तरी भारत की चार प्रमुख लिपियों में ही एक का नाम ‘प्राचीन देवनागरी है। यह प्राचीन देवनागरी लिपि ब्राह्मी लिपि की उत्तरी धारा के एक रूप ‘कुटिल-लिपि’ से विकसित मानी जाती है। यह तो केवल ब्राह्मी की लिपियों का वर्णन है। ब्राह्मी तो इससे बहुत प्राचीन होनी चाहिए। प्राचीन नागरी लिपिब्राह्मी लिपि की उत्तरी धारा की एक लिपि कुटिल लिपि से विकसित प्राचीन देवनागरी का प्रचार उत्तरी भारत में रहा है। इस लिपि का उद्भव 700 ई. के आसपास माना जाता है। आवागमन के कारण यह प्राचीन नागरी लिपि दक्षिण में भी गयी, जहाँ इसे, ‘नन्दि नागरी’ के नाम से जाना जाता था। इसका एक अन्य नाम ‘ग्रन्थम् लिपि’ भी है। वैसे दक्षिण में इसका प्रचार सोलहवीं सदी तक मिलता है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश आदि के शिलालेख इसी प्राचीन नागरी में उत्कीर्ण मिलते हैं। नवीं से बारहवीं शताब्दी तक तो यही प्राचीन नागरी लिपि प्रचलन में थी। बारहवीं शताब्दी से वर्तमान नागरी लिपि या देव नागरी लिपि का प्रचार बढ़ा। वर्तमान देवनागरी लिपि और नागरी लिपि एक ही है। इसकी प्राचीनता तथा इसके विकास के विषय में महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने ‘भारतीय प्राचीन लिपि‘ नामक ग्रन्थ में लिखा है- “दसवीं शताब्दी के उत्तरी भारत की नागरी लिपि में कुटिल लिपि के अ, आ, घ, प, य, ष और स के सिर के दो अंशों में विभक्त मिलते हैं, परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी की वर्तमान नागरी से मिलती-जुलती है और बारहवीं शताब्दी से वर्तमान नागरी बन गयी। बारहवीं शताब्दी से लगातार अब तक नागरी लिपि बहुधा एक ही रूप में चली आ रही है।” ओझा के इस लेख से स्पष्ट है कि वर्तमान देवनागरी लिपि या नागरी लिपि का उद्भव 1200 ई. के लगभग हुआ, जबकि प्राचीन नागरी लिपि 800 ई. के बाद से 1200 तक रही है। नागरी (देवनागरी) लिपि का विकासदेवनागरी लिपि के अनेक प्रमाण 700 ई. के बाद से मिलने लगते हैं। यद्यपि है यह प्राचीन नागरी लिपि, फिर भी देवनागरी के विकास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका प्रथम प्रयोग गुजरात के राजा ‘जय भट्ट’ (800 ई. के लगभग) के एक शिलालेख में हुआ है। इसके बाद राष्ट्रकूट नरेशों के कुछ शिलालेखों से पता लगता है कि उसके राज्य में भी ‘नागरी लिपि’ का प्रचार था। उधर दक्षिण में विजय नगर राज्य तथा कोंकण (बम्बई) में भी इसी लिपि का प्रयोग होता था। इस दक्षिणी प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि ‘नागरी’ का आरम्भ दक्षिण में हुआ है। इतना होने पर भी यह लिपि मुख्यत: उत्तर भारत की लिपि मानी जाती है। गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में जितने भी हस्तलेख, ताम्र पत्र व शिलालेख मिले हैं, वे अधिकतर नागरी लिपि में ही हैं। यह लिपि आजकल हिन्दी (उप बोलियों-बोलियों सहित), संस्कृत, मराठी और नेपाली के लिये प्रयुक्त होती है। महाराष्ट्र में इसे ‘नागरी’ न कहकर ‘बाल बोध’ कहते हैं। इसी बाल-बोध नागरी के अ, छ, झ, न और प्र (र) वर्ण अल्प देवनागरी ने भी अपना लिये हैं। आरम्भ में देवनागरी के वर्षों पर शिरोरेखा नहीं लगाते थे। इसी प्रकार अ, घ, म, य, ष और ‘स’ के सिर दो भागों में बँटे हुए थे। बारहवीं शताब्दी से वर्तमान देवनागरी वर्गों का लेखन देखा जाये तो पता लगेगा कि इस लिपि को सुन्दर बनाने का प्रयास आज तक हो रहा है। इसीलिए आज यह सुन्दर लिपियों में मानी जाती है। छापाखाने ने तो इसके अनेक सुन्दर आकार बनाये हैं। देव नागरी का प्रभावदेवनागरी के स्वरूप पर आधुनिककाल की अनेक लिपियों का प्रभाव पड़ा है। मुख्यत: फारसी, बंगला, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी लिपियों का प्रभाव अनेक रूपों में दिखाई देता है। फारसी का न केवल लेखन पर प्रभाव पड़ा है, वरन् उससे कुछ नई ध्वनियाँ भी हिन्दी में आ गईं। इन ध्वनियों के लेखन के लिये नागरी में वर्ण के नीचे बिन्दु लगाने की व्यवस्था की गयी जिससे अलगाव हो सके। यथा-क़, ख, ग, ज, फ़, ड, ढ़ आदि का लेखन फारसी के अलगाव के लिए ही है। यह बिन्दु फारसी लिपि की देन है। मिलाकर व घसीटकर लिखने की प्रथा भी फारसी के कारण नागरी में है। बंगला लिपिबंगला लिपि भी यद्यपि नागरी लिपि से विकसित मानी जाती है, पर इसके चौकोर लेखन का प्रभाव नागरी पर पड़ा है। गुजराती लिपि भी नागरी लिपि का एक रूप है पर, यह शिरो रेखा सहित लिखी जाती है। हिन्दी लेखन में भी कुछ लोग शिरो रेखा रहित देव नागरी का प्रयोग करते हैं। यह गुजराती प्रभाव है। मराठी लिपि का प्रभावमराठी प्रभाव के कारण अ और झ के दूसरे रूप अ और झ भी नागरी में आ गये। अंग्रेजी लिपि का भी नागरी पर प्रभाव पड़ रहा है। इसी कारण अंग्रेजी ‘ओ’ के लिये ‘आ’ की मात्रा पर अर्ध चन्द्र जैसा चिह्न लगाते हैं, यथा-कॉलेज। अंग्रेजी के सभी विरामादि चिह्न (पूर्ण विराम के बिन्दु को छोड़कर) नागरी में आ गये हैं। अंग्रेजी के भाषा के वैज्ञानिक ध्वन्यात्मक चिह्न भी नागरी में आए हैं, जो भाषा-विज्ञान के ग्रन्थों में मिलते हैं। देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकतादेवनागरी लिपि में जहाँ वैज्ञानिक दृष्टि से अनेक त्रुटियाँ हैं, वहीं उसमें वैज्ञानिकता भी है। उपर्युक्त वैज्ञानिक त्रुटियों की ओर देखें तो उनमें एक त्रुटि ऐसी जो देवनागरी से अनिवार्य रूप से जुड़ी है। वह है, इसकी आक्षरिकता। पर यही आक्षरिकता देवनागरी लिपि का विशेष गुण है। क्योंकि इससे शब्दोच्चारण व लेखन में समानता बनी रहती है। आक्षरिकतावैज्ञानिक दृष्टि से आक्षरिकता उच्चारण व लेखन में एकता स्थापित करती है। अत: यह दुर्गण न होकर गुण है। उच्चारण में हम सामाजिक वर्ण का उच्चारण करते हैं, न कि स्वर और व्यंजन का अलग-अलग उच्चारण। यथा-‘रा’ को हम ‘रा’ ही बोलते हैं, न कि र् + अ। पूर्ण ध्वनित्वदेवनागरी में 4-5 ही ध्वनियों के लिपि चिन्ह नहीं हैं। इसका कारण यह है कि इन ध्वनियों का उच्चारण ही संयुक्त ध्वनियों की तरह है। यथा-न्ह, ल्ह, म्ह आदि। अत: ध्वनियों की संख्या बढ़ाने की अपेक्षा उन्हें संयुक्त रूप से लिखना ही उचित समझा गया। कहा जा सकता है कि देव नागरी में सभी ध्वनियों के लिये चिन्ह हैं। एक चिह्नतादेव नागरी में 3-4 लिपि चिन्हों को छोड़कर प्रायः सबके लिये एक ही चिन्ह है। जहाँ दो लिपि चिन्ह हैं, वह अन्य लिपियों का प्रभाव है। मात्रा प्रयोगदेव नागरी लिपि पर सबसे बड़ा आरोप मात्राओं का है। इसमें मात्राएँ वर्ण के चारों ओर लिखी जाती हैं। वस्तुत: छोटी ‘ई’ की मात्रा को छोड़कर अन्य सभी मात्राएँ जिह्वा की स्थिति के अनुरूप, ऊपर-नीचे तथा सामने या आगे हैं। अतः ये भी वैज्ञानिक हैं। भ्रामक चिन्हनागरी के तीन-चार लिपि चिन्ह स्वल्प-सा भ्रम पैदा करते हैं। वस्तुत: लिपि सीखने की वस्तु है। सीखने से उसमें कोई भ्रम नहीं रहता। कोई भी व्यक्ति ‘भ्रम’ को ‘भम्र’ नहीं पढ़ लेता। हाँ ‘ख’ तथा आधा ण् अवश्य भ्रामक हैं। अब ‘ख’ का समाधान नीचे के हिस्सों को मिलाकर तथा ‘ण’ के स्थान र ‘ण’ का प्रयोग अपनाकर कर दिया गया है। देवनागरी वर्गीकृत लिपिदेवनागरी लिपि होने से संसार में सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। इसमें पहले समस्त स्वर फिर समस्त व्यंजन हैं। इसमें भी उच्चारण व प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण पूर्ण वैज्ञानिक है। ध्वनि और उच्चारणदेव नागरी लिपि के चिन्हों के नाम ध्वनि एवं उसके उच्चारण के अनुरूप होने से पूर्ण वैज्ञानिक हैं। फारसी में अलिफ से ‘अ’, बे से ‘ब’, पे से ‘प’ तथा अंग्रेजी में बी से ‘ब’, डब्ल्यू से ‘व’ आदि बनते हैं, पर देव नागरी में ‘अ’ से अ, ‘ब’ से ‘ब’ आदि ही लिखा व समझा जाता है। एक चिन्हएक ध्वनि-देवनागरी में एक लिपि चिन्ह से एक ही ध्वनि बनती है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। रोमन लिपि में आधे से अधिक ध्वनियाँ दो-दो या अधिक ध्वनियों से बनती हैं। BH से भ, CHH से छ आदि ऐसे ही उदाहरण हैं। देवनागरी ही ऐसी लिपि है, जिसमें हस्व तथा दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग लिपि चिन्ह हैं। जैसा लिखा जाता है वैसा पढ़ा जाता है-देव नागरी लिपि में जिस स्वर को या मात्रा को जैसा लिखा जायेगा, वैसा ही सर्वदा बोला जायेगा, पर रोमन के PUT को पट और BUT को बट बोला जाता है। ध्वनियाँ एक होने पर भी उच्चारण भिन्न है। फारसी में यही निर्णय नहीं है कि मात्राओं को क्या पढ़ा जाय। कोई ‘बुलन्द’ पढ़ता है तो कोई ‘बलन्द’। अत: सु-पाठ्यता देवनागरी का सबसे बड़ा वैज्ञानिक गुण है। इसमें जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। इस प्रकार देव नागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। देवनागरी के गुण व विशेषताएँडॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार, देवनागरी पर्याप्त काल से भारतीय आर्य भाषाओं की लिपि रही है और आज भी हिन्दी, मराठी, नेपाली तथा समस्त हिन्दी बोलियों की यही लिपि है। भारत के संविधान ने जब से हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया है, तभी से देवनागरी को राष्ट्रीय लिपि का महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किया गया है। यह लिपि संस्कृत भाषा की भी एकमात्र लिपि है। सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय इसी लिपि में लिखित मिलता है। देवनागरी लिपि के गुणदेवनागरी में अनेक गुण हैं। इसके कारण उत्तर भारत की अधिकांश भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके गुण निम्नांकित हैं-
देवनागरी लिपि के दोषदेव नागरी लिपि में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ उसमें दोष भी पर्याप्त मात्रा में हैं। ये निम्नांकित हैं-
इस प्रकार देवनागरी लिपि में अनेक दोष हैं। देवनागरी लिपि के दोष-निराकरण या संशोधन या सुधारआज के वैज्ञानिक युग में आवश्यकता तो इस बात की थी कि विज्ञान आगे बढ़कर लिपि चिन्हों की अवैज्ञानिकता को दूर करता, पर अंग्रेजी के टाइपराइटरों तथा अंग्रेजी भाषा की प्राथमिक स्थिति के कारण यह सम्भव नहीं हुआ। हाँ, यह अवश्य हुआ कि इसकी त्रुटियों को सुधारने एवं नये सुझावों के लिए अनेक सरकारी और गैर सरकारी प्रयत्न किये गये। इन प्रयत्नों में सफलता प्रायः ही हाथ नहीं लगी। आगे सुधारों के इतिहास पर प्रकाश डाला जा रहा है- सर्वप्रथम महादेव गोविन्द रानाडे आदि महाराष्ट्रीय विद्वानों ने एक लिपि सुधार-समिति ‘महाराष्ट्र साहित्य परिषद‘ की स्थापना की। इसने कुछ प्रस्ताव पारित किये।
लिपि सुधार समितिहिन्दी साहित्य सम्मेलन ने एक लिपि सुधार समिति बनाई और उसने 5 अक्टूबर 1941 की बैठक में कुछ सुझाव रखे। ये सुझाव हैं-
आचार्य नरेन्द्र देव की समितिलिपि सुधार समिति के बाद 1947 ई. में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। उसने निम्नांकित सुझाव दिये-
इन सुझावों पर 1953 में विचार किया गया और कुछ संशोधन के साथ इसे स्वीकृत कर लिया गया। इन सुझावों में छोटी ‘इ’ की मात्रा को आगे लिखने तथा उसे छोटी करने का बड़ा विरोध हुआ। अत: इस सुझाव को भी छोड़ दिया गया। इसके अनुसार उत्तर प्रदेश में प्राथमिक कक्षाओं की पाठ्य पुस्तकें भी छपीं, पर इन सुझावों पर जनता ने कोई अमल नहीं किया। 1953 में ही डॉ. राधा कृष्णन की अध्यक्षता में एक परिषद् की बैठक लखनऊ में हुई। इसने कुछ मिलते-जुलते सुझाव दिये। ये हैं-
इस प्रकार देव नागरी लिपि में सुधार के लिए सन् 1953 तक बराबर प्रयत्न हुए और सुझाव भी दिये गये, पर इनमें 90% सुझावों पर व्यवहार नहीं हुआ। जन-शक्ति के समक्ष ये सुझाव अव्यावहारिक होकर अमान्य हो गये। सुझावों से सहमति या विमतिजहाँ तक इन सुझावों के प्रयोग पर सहमति या असहमति का प्रश्न है, वहाँ तक कहा जा सकता है कि यह प्रश्न विशुद्ध वैज्ञानिक न होकर भावात्मक भी है। ऊपर जो सुझाव दिये गये थे वे छापाखाने एवं टाइपराइटर की सुविधा के लिए थे। इन सुधारों के सुझाव के समय यह ध्यान बिल्कुल नहीं रखा गया कि इस लिपि सुधार से भाषा की दुर्गति हो जायेगी। इसमें छापेखाने की छपाई में शुद्धता भले ही बनी रहे, पत्र लेखन में इतनी कठिनाइयाँ आतीं कि भाषा की शुद्धता को बनाये रखना ही कठिन काम था। उदाहरणार्थ-‘इ’ की मात्रा को आगे लगाने का परिणाम यह होता है कि दोनों पा कालान्तर में एक हो जातीं, कोई भेद नहीं रहता, यह तो एक उदाहरण है। अन्य सुधारों में ऐसा ही होता है। इसीलिये जन सामान्य ने 90 प्रतिशत सुधारों को अमान्य कर दिया। अत: सभी इन सुधार सुझावों से असहमत हैं। नागरी लिपि का मानकीकरणनागरी लिपि का प्रयोग हिन्दी में तो होता ही है, मराठी तथा नेपाल वाले भी इसका प्रयोग करते हैं। इसे मानक रूप देने की दिशा में कई व्यक्तियों तथा संस्थाओं ने काम किए हैं किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काम केंद्रीय हिन्दी निदेशालय का है जिसने अखिल भारतीय स्तर पर विद्वानों से विचार करके सभी भारतीय भाषाओं की लिपि के रूप में उसमें कुछ नए चिह्न भी जोड़े हैं तथा उसे मानक रूप भी दिया है। जहाँ तक नागरी के मानकीकरण का सम्बन्ध है आगे दिए गए अक्षरों के दो-दो रूप हैं जिनमें से एक-एक अलग दिए गए। अक्षर अब मानक माने जाते हैं तथा काफी लोग इन्हीं का प्रयोग कर रहे हैं।
देवनागरी लिपि के गुण कौन से हैं?देवनागरी लिपि के गुण. इसके स्वर तथा व्यंजन वैज्ञानिक रीति से क्रमबद्ध रूप में हैं। ... . यह लचीली प्रकृति की है, इसलिए इसने फारसी की क़, ख, ग, ज, फ़ को अपना लिया है। ... . यह लिपि वर्णोच्चारणात्मक है, अर्थात् जिस वर्ण या अक्षर का जैसा उच्चारण होता है, वैसा ही लेखन होता है।. देवनागरी लिपि का क्या महत्व है?लिपि विहीन जन जातीय बोलियों के लिए देवनागरी सबसे उपयुक्त है। बोडो और जेभी भाषा के लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है। अरुणाचल में भी देवनागरी का व्यवहार जनजातीय बोलियों के लिए किया जा रहा है। जहां पर भी संस्कृत, प्राकृत, पाली और अपभ्रंश का अनुशीलन होता रहा है, वहां देवनागरी लिपि सुपरिचित है।
देवनागरी लिपि की सबसे प्रमुख विशेषता क्या है?देवनागरी लिपि की विशेषता. लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुसार- इस लिपि में चिह्नों के द्योतक उसके ध्वनि के अनुसार ही होते हैं और इनका नाम भी उसी के अनुसार होता है जैसे- अ, आ, ओ, औ, क, ख आदि। ... . लिपि चिह्नों की अधिकता - विश्व के किसी भी लिपि में इतने लिपि प्रतीक नहीं हैं।. देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई है?देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ये शिलालेख प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है।
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