स्वतंत्रता के बाद भारत का विकास कैसे हुआ? - svatantrata ke baad bhaarat ka vikaas kaise hua?

स्वतंत्रता के बाद का भारत (India After Independence)

एक नया और खंडित राष्ट्र

  • अगस्त 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो उसके सामने कई बड़ी चुनौतियाँ थीं। बँटवारे की वजह से 80 लाख शरणार्थी पाकिस्तान से भारत आ गए थे। इन लोगों के लिए रहने का इंतजाम करना और उन्हें रोजगार देना जरूरी था। इसके बाद रियासतों की समस्या थी। तकरीबन 500 रियासतें राजाओं या नवाबों के शासन में चल रही थीं। इन सभी को नए राष्ट्र में शामिल होने के लिए तैयार करना एक टेढ़ा काम था।
  • शरणार्थियों और रियासतों की समस्या पर फौरन ध्यान देना लाजिमी था। लंबे दौर में इस नवजात राष्ट्र को एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था भी विकसित करनी थी जो यहाँ के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को सबसे अच्छी तरह व्यक्त कर सके।

स्वतंत्रता के बाद भारत का विकास कैसे हुआ? - svatantrata ke baad bhaarat ka vikaas kaise hua?

  • स्वतंत्रता के बाद का भारत (India After Independence)  की आबादी काफी बड़ी थी- तकरीबन 34-5 करोड़। यह आबादी भी आपस में बँटी हुई थी। इसमें ऊँची जाति और नीची जाति, बहुल हिंदू समुदाय और अन्य धर्मों को मानने वाले भारतीय थे।
  • इस विशाल देश के लोग तरह-तरह की भाषाएँ बोलते थे, उनके पहनावों में भारी फ़र्क था, उनके खान-पान और काम-धंधों में भारी विविधता थी। इतनी विविधता वाले लोगों को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में कैसे संगठित किया जा सकता था?
  • एकता की समस्या के साथ ही विकास भी एक बड़ी समस्या थी। स्वतंत्रता के समय भारत की एक विशाल संख्या गाँवों में रहती थी।आजीविका के लिए किसान और काश्तकार बारिश पर निर्भर रहते थे। यही स्थिति अर्थव्यवस्था के गैर-कृषि क्षेत्रें की थी। अगर फसल चौपट हो जाती तो नाई, बढ़ई, बुनकर और अन्य कारीगरों की आमदनी पर भी संकट पैदा हो जाता था।
  • शहरों में फैक्ट्री मजदूर भीड़ भरी झुग्गी बस्तियों में रहते थे जहाँ शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधाओं की खास व्यवस्था नहीं थी। इस विशाल आबादी को गरीबी के चंगुल से निकालने के लिए न केवल खेती की उपज बढ़ाना जरूरी था बल्कि नए उद्योगों का निर्माण भी करना था जहाँ लोगों को रोजगार मिल सके।
  • एकता और विकास की प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलना था। अगर भारत के विभिन्न तबकों के बीच मौजूद मतभेदों को दूर न किया जाता तो वे हिंसक और बहुत खतरनाक टकरावों का रूप ले सकते थे। लिहाजा ऐसे टकराव देश के लिए मँहगे भी पड़ते थे।
  • कहीं ऊँची जाति और नीची जाति के बीच, कहीं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तो कहीं किसी और वजह से तनाव की आशंका बनी हुई थी। दूसरी तरफ, अगर आर्थिक विकास के लाभ आबादी के बड़े हिस्से को नहीं मिलते हैं तो और ज्यादा भेदभाव पैदा हो सकता था। ऐसी स्थिति में अमीर और गरीब, शहर और देहात, संपन्न और पिछड़े इलाकों का फ़र्क पैदा हो सकता था।

भारतीय संविधान का विकास

  • भारतीय संविधान का विकास गहरे रूप से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय आंदोलन ने संसदीय प्रजातंत्र, गुणतंत्रवाद, नागरिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक एवं सामाजिक न्याय की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया। सर्वप्रथम 1892 के एक्ट में चुनावों प्रक्रिया को अपनाया गया परंतु ये सुधार भारतीय नेताओं की दृष्टि में अपर्याप्त थे।
  • 1919 के भारत शासन अधिनियम में द्वैध शासन प्रणाली का प्रावधान लाया गया। परंतु यह भी भारतीय नेताओं के लिए असंतोषजनक था।
  • 1925 में एनी बेसेंट, तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री ने केन्द्रीय विधानमंडल में कॉमन वेल्थ ऑफ इंडिया बिल लाया। इस बिल के अनुसार भारत को अन्य डोमिनीयन राज्यों के समानांतर लाने की बात की गयी।
  • मोतीलाल नेहरू ने 1924 में केन्द्रीय विधानपरिषद में एक बिल लाया। इसके अनुसार भारतीयों के द्वारा संविधान निर्माण के अधिकार को एक राष्ट्रीय माँग घोषित किया गया।
  • 1928 की नेहरू रिपोर्ट में कुछ ऐसे प्रावधान लाए गए जिन्हें आगे भी भारतीय संविधान में अपना लिया गया। उदाहरण के लिए संसदीय व्यवस्था, मौलिक अधिकार के प्रावधान, भाषायी आधार पर राज्यों का गठन, अवशिष्ट शक्तियाँ, प्राँतों की जगह केन्द्र में निहित होना आदि।
  • सर्वप्रथम कांग्रेस ने फैजपुर अधिवेशन में यह माँग रखी कि भारतीय संविधान के निर्माण के लिए भारतीयों के द्वारा संविधान सभा का गठन किया जाना चाहिए। अगस्त 1937 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य कृपलानी की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव को स्वीकार किया।
  • यह प्रस्ताव प्राँतीय परिषदों में भेजा गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि 1937 का भारत शासन अधिनियम प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर गठित भारतीय संविधान द्वारा स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
  • सितम्बर 1937 में सत्यमूर्ति के द्वारा भी केन्द्रीय विधानपरिषद में इस तरह का प्रस्ताव रखा गया। 1940 के अगस्त प्रस्ताव में सर्वप्रथम ब्रिटिश के द्वारा यह स्वीकार किया गया कि युद्ध के बाद एक संविधान सभा का गठन होगा तथा संविधान निर्माण का अधिकार मुख्यतः भारतीयों का होगा।
  • क्रिप्स मिशन (1942) में भी यही बात दुहरायी गयी। फिर सर्वप्रथम 1946 के कैबिनेट मिशन में संविधान सभा का प्रस्ताव लाया गया। परंतु यहाँ प्रत्यक्ष निर्वाचन के बजाय अप्रत्यक्ष निर्वाचन को ही स्वीकार किया गया।
  • कैबिनेट मिशन के अनुसार प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या पर। व्यक्ति का निर्वाचन होना था और यह प्राँतीय परिषदों से होना था। संविधान सभा में कुल 389 सदस्यों का प्रावधान था। इनमें 296 सदस्य ब्रिटिश भारत से चुने जाने थे और 93 सदस्य देशी राज्यों से।
  • सामान्य श्रेणी के सदस्यों की संख्या कुल 210 थी। इनमें कांग्रेस को कुल 199 सीटें मिलीं। 4 सिख सीटों में तीन सीटें कांग्रेस ने ले ली। उसी तरह कुछ 78 मुस्लिम आरक्षित सीटों में तीन सीटें कांग्रेस को मिली और 73 सीटें मुस्लिम लीग को। इस तरह संविधान सभा में कुल 389 सीटों में से कांग्रेस को 208 सीटें मिलीं।
  • संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर 1946 को प्रारंभ हुआ। सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष चुने गए।
  • आगे राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। परंतु इस अधिवेशन में केवल 207 सदस्यों ने भाग लिया। 76 मुस्लिम लीग के सदस्य बाहर रहे।
  • 3 जून 1947 की माउण्टबेटन योजना के तहत 15 अगस्त की भारत को स्वतंत्रता मिली तथा विभाजन का क्रियान्वयन हुआ। इसके बाद संविधान सभा एक संप्रभु निकाय बन गयी और इसने केन्द्रीय विधान मंडल का दायित्व भी अपने हाथों में ले लिया।
  • संविधान सभा से संबंधित कार्य पाँच चरणों में पूरा किया गयाः
  1. प्रथम विभिन्न समितियों ने अपनी रिपोर्टें प्रस्तुत की।
  2. बी. एन. राव संवैधानिक परामर्शदाता बने और उन्होंने विभिन्न रिपोर्टें और शोधों के आधार पर संविधान का आरंभिक प्रारूप तैयार किया।
  3. डॉ. बी.आर अम्बेडकर के अंतर्गत एक प्रारूप समिति का गठन किया गया।
  4. 26 नवम्बर 1950 को भारतीय संविधान को अधिनियमित आत्मार्पित और अंगीकृत किया गया।
  • संविधान के प्रारूप पर व्यापक वाद-विवाद किया गया तथा कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाए गए। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में कुल सदस्य संख्या 299 थी। इनमें 229 सदस्य विभिन्न प्राँतों से आए थे तथा 70 सदस्य देशी राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। सबसे अधिक सदस्य मैसूर राज्य ने भजे थे। अर्थात मैसूर के 7 प्रतिनिधि थे।
  • संसदीय सरकारः संसदीय सरकार का प्रावधान ब्रिटेन से लिया गया था जो वेस्ट मिनिस्टर मॉडल पर आधारित था। संसदीय सरकार के प्रति भारत के झुकाव का सर्वप्रमुख कारण भारत का ब्रिटेन से गहरा एवं लंबे अंतराल तक लगाव रहा था। 1919 के भारत अधिनियम तथा 1935 के भारत शासन अधिनियम पर भी संसदीय ढाँचे का गहरा प्रभाव था।
  • संसदीय प्रणाली भारतीय परिस्थितियों के अधिक अनुकूल थी क्योंकि भारत बहुभाषा-भाषी, नस्ल और संप्रदाय पर आधारित एक देश है। संसदीय प्रणाली में मंत्रिपरिषद के सदस्य आवश्यक रूप में संसद के सदस्य होते हैं तथा वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद में निहित होती है।
  • यद्यपि भारत ने संसदीय प्रणाली को अपनाया परंतु कुछ परिवर्तनों के साथ लिखित संविधान, न्यायिक पुनर्विलोकन, निर्वाचित राष्ट्रपति, उच्च सदन में सदस्यों के निर्वाचन तथा मौलिक अधिकार जैसे प्रावधान संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिए गए। मौलिक कर्तव्य का प्रावधान सोवियत रूप के संविधान से लिया गया है।
  • संघीय ढाँचेे का प्रावधान कनाडा के संविधान, आपातकालीन उपबंधों का प्रावधान जर्मनी के संविधान से, नीति निर्देशक तत्त्व आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है।

राज्यों का गठन कैसे किया जाए?

  • 1920 के दशक में स्वतंत्रता संघर्ष की मुख्य पार्टी- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस- ने आश्वासन दिया था कि जैसे ही देश आजाद हो जाएगा, प्रत्येक बड़े भाषायी समूह का अपना अलग प्रांत होगा। आजादी मिलने के बाद कांग्रेस ने इस आश्वासन को पूरा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया।
  • क्योंकि भारत धर्म के आधार पर बँट चुका था इसलिए महात्मा गांधी की तमाम इच्छाओं और प्रयासों के बावजूद यह स्वतंत्रता एक राष्ट्र को नहीं बल्कि दो राष्ट्रों को मिल रही थी। देश विभाजन के फलस्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए भीषण दंगों में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे।
  • ऐसे में यह चिंता स्वाभाविक थी कि क्या हमारा देश भाषा के आधार पर इस तरह के और बँटवारे झेल सकता था?
  • प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उप-प्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल, दोनों ही भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की नीति के विरोधी थे। विभाजन के बाद नेहरू ने कहा था कि उपद्रवकारी प्रवृत्तियाँ सिर उठा रही हैंय् जिन पर अंवफ़ुश लगाने के लिए राष्ट्र को शक्तिशाली और एकजुट होना चाहिए। वरना, जैसा कि पटेल ने कहा: इस समय भारत की पहली और आखिरी जरूरत यह है कि उसे एक राष्ट्र बनाया जाए।
  • राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली हर चीज आगे बढ़नी चाहिए और उसके रास्ते में रुकावट डालने वाली हर चीज को खारिज कर दिया जाना चाहिए। हमने यही कसौटी भाषायी प्रांतों के सवाल पर भी अपनाई है और इस कसौटी के हिसाब से हमारी राय में (इस माँग को) समर्थन नहीं दिया जा सकता।
  • क्योंकि कांग्रेस के नेता अपने वायदे से पीछे हट रहे थे इसलिए जगह-जगह असंतोष पैदा हुआ। कन्नड़भाषी, मलयालम भाषी, मराठी भाषी, सभी अपने-अपने राज्य के इंतजार में थे। सबसे गहरा असंतोष मद्रास प्रेजीडेंसी के तेलुगू भाषी जिलों में दिखाई दिया।
  • जब 1952 के आम चुनावों में नेहरू वहाँ चुनाव प्रचार के लिए गए तो लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाए और फ्हमें आंध्र चाहिएय् के नारे लगाए। उसी साल अक्तूबर में वयोवृद्ध गांधीवादी पोट्टी श्रीरामुलु तेलुगूभाषियों के हितों की रक्षा के लिए आंध्र राज्य के गठन की माँग करते हुए भूख हड़ताल पर बैठ गए। जैसे-जैसे अनशन आगे बढ़ा, बहुत सारे लोग श्रीरामुलु के समर्थन में आगे आने लगे। जगह-जगह लोग हड़ताल करने लगे और जुलूस निकालने लगे।
  • 58 दिन के अनशन के बाद 15 दिसंबर 1952 को पोट्टी श्रीरामुलु का देहांत हो गया। जैसा कि एक अखबार ने लिखा था, श्रीरामुलु के देहांत की खबर ने पूरे आंध्र को अस्त-व्यस्त कर डाला। विरोध इतना व्यापक और गहरा था कि केंद्र सरकार को आखिरकार यह माँग माननी पड़ी। इस तरह, 1 अक्तूबर 1953 को आंध्र के रूप में एक नए राज्य का गठन हुआ, जो बाद में आंध्र प्रदेश बना।
  • आंध्र की स्थापना के बाद अन्य भाषायी समुदाय भी अपने-अपने अलग राज्यों की माँग करने लगे। फलस्वरूप, एक राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया जिसने 1956 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।
  • आयोग ने सुझाव दिया कि असमिया, बंगला, उडि़या, तमिल, मलयालम, कन्नड़ और तेलुगू भाषियों के लिए अलग-अलग प्रांतों का गठन करने के उद्देश्य से जिलों और प्रांतों की सीमा को पुनः तय किया जाए।
  • उत्तर भारत के विशाल हिंदी भाषी क्षेत्र को बाँट कर कई राज्य बना दिए गए। वफ़ुछ समय बाद, 1960 में बम्बई प्रांत को मराठी और गुजराती भाषी, दो अलग राज्यों में बाँट दिया गया।
  • 1966 में पंजाब का विभाजन हुआ और हरियाणा को अलग राज्य के रूप में मान्यता दी गई। पंजाब में पंजाबी भाषियों (जिनमें से ज्यादातर सिख थे) और हरियाणा में हरियाणवी या हिंदी बोलने वालों की बहुतायत थी।

धर्मनिरपेक्षता

  • धर्मनिरपेक्षता एक आधुनिक दृष्टिकोण है। धर्म निरपेक्षता शब्द हमारे यहाँ अंग्रेजी शब्द सेक्यूलर का रूपान्तरण है। इन अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग यूरोप में 30 वर्षीय युद्ध की समाप्ति पर सन् 1648 में पहली बार हुआ और तभी इनको बौद्धिक विचारधारात्मक लोकप्रियता मिली।
  • 1851 में जार्ज जेकब हेलियोग ने सेक्यूलरिज्म शब्द गढ़ा था। धर्म निरपेक्षतावाद ने राजनीतिक दर्शन का स्वरूप 1850 में ही ग्रहण कर लिया।
  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्म निरपेक्षता शब्द काफी महत्त्वपूर्ण बन गया था खासकर, 1940 के दशक के पश्चात। इस काल में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता ढँग की जो आवृत्ति रही उसने यह निश्चित कर दिया कि राज्य द्वारा धार्मिक एकरूपता लागू करने का प्रयास न केवल निरर्थक बल्कि निरर्थक से भी बुरा होता।
  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में 1947 तक का समाज पारंपरिक रूप में ढला हुआ था तथा अधिकाँश मामलों में लोगों के जीवन में धर्म का दखल बना हुआ था।
  • फ्राँसीसी विद्वान लुई ड्यूमोंट के शब्दों में भारत में धर्म समाज का अंग है। ऐसे में भारत की राज्य नीति में यूरोपीय पद्धति की धर्म निरपेक्षता प्रणाली लागू करना दुरूह था।

स्वतंत्रता के बाद का भारत (India After Independence) में धर्म निरपेक्षता की अवधारणा की दो धारा विकसित हुईः

  1. गाँधीवादी आदर्श
  2. आमूल परिवर्तनवादी धर्म निरपेक्षतावाद
  • गाँधी जी ने राजनीतिक आन्दोलन के लिए धर्म की जरूरत की खुले रूप में घोषणा की। उन्होंने कहा कि वे लोग कहते हैं कि धर्म को राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है, वे नहीं जानते कि धर्म का क्या मतलब है। उन्होंने आगे कहा कि मेरे लिए छोटी से छोटी गतिविधि भी उसी से नियंत्रित होती है जिसे मैं अपना धर्म मानता हूँ।
  • वस्तुतः राष्ट्रीय आन्दोलन का गाँधीवादी आदर्श हिन्दू लोकाचारों से गहराई से जुड़ा था, फिर भी यह धार्मिक बहुलतावाद पर आधारित था जिसमें भारत और विश्व के सभी धर्मों के प्रति समान आदर की भावना निहित थी। उनकी धार्मिक संवेदनशीलता एक सच्ची लोकतांत्रिक प्रकृति से जुड़ी थी।
  • खिलाफत आंदोलन को उनका समर्थन और बाद में इस आन्दोलन का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के रूपांतरण होना गाँधी जी की इसी संवेदनशीलता का उदाहरण है।
  • यही कारण है कि राष्ट्रवाद के गाँधीवादी आदर्श को संयुक्त धर्म निरपेक्षता या सभी धर्मों के प्रति आदर या सर्व धर्म सद्भाव के रूप में भी रखा गया है। गाँधी जी ने स्वतंत्र भारत के आदर्श राज्य को राम राज्य का नाम दिया।
  • आमूल परिवर्तनवादी धर्म निरपेक्षतावाद के प्रवर्तक वर्ग का मानना था कि लोक धर्म और नैतिक पुनरुत्थान की भाषा के स्थान पर वर्ग-संघर्ष और सामाजिक समानता की भाषा लाई जानी चाहिए।
  • इन लोगों ने एक समाजवादी, लोकतांत्रिक एवं धर्म निरपेक्ष भारत की संकल्पना प्रस्तुत की। इन्होंने यह तर्क भी दिया कि धर्म को भारतीय नागरिकों के केवल निजी जीवन तक ही सीमित रहना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बाहर कम्यूनिस्टों ने धर्म निरपेक्षता के इस मत को भरपूर समर्थन दिया।
स्वतंत्रता के बाद का भारत (India After Independence) में धर्म निरपेक्षता का विकल्पः
  • भारत की आजादी तथा विभाजन से पहले और बाद में साम्प्रदायिक हिंसा का जो लावा फूटा उसने रूढि़वादी सम्प्रदायवादियों की स्थिति को मजबूत कर दिया।
  • यहाँ तक कि राष्ट्रपति महात्मा गाँधी भी जिन्होंने राजनीतिक संगठन के लिए लोक धर्म की वैधता को हमेशा सही ठहराया था, कट्टर रूढि़वादी हिन्दू आक्रामकता की ताकत के आगे अकेले पड़ गए और अंततः 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में उनकी हत्या एक धर्मांध हिन्दू नाथू राम गोड्से ने कर दी।
  • हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने एक ऐसे राज्य की वकालत की जो केवल हिंदू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दी भाषा को प्राथमिकता दे। उन्होंने नारा उछाला हिन्दी, हिन्दू-हिन्दोस्तान। व्यवहारवादी कट्टर हिंदू भारत में उसी प्रकार का हिन्दू राज्य चाहते थे जिस प्रकार का राज्य जिन्ना ने मुसलमानों को प्रदान किया था।
  • इस मुद्दे पर कांग्रेस के अंदर भी हलचल होने लगी। ऐसे में नेहरू को अपने आमूल धर्म निरपेक्षतावाद की अवधारणा से पीछे हटना पड़ा। इन परिस्थितियों के अंतर्गत स्वतंत्र भारत के लिए धर्म निरपेक्षता का जो आदर्श अपनाया गया उसे अधिक से अधिक एक समझौता कहा जा सकता है।
  • यह समझौता कट्टर हिंदू साम्प्रदायिकता और आमूल धर्म निरपेक्षता के दो अतिवादी विपरीत ध्रुवों को टालकर किया जाना था। ऐसे में विकल्प सिर्फ गाँधीवादी आदर्श के रूप में था।
  • इस तरह स्वतंत्रता के बाद का भारत (India After Independence) का धर्म निरपेक्ष स्वरूप उस गाँधीवादी दर्शन के आधार पर ही तय किया गया जो रूढि़वादी हिन्दू अखण्डता और धर्म को आरोपित किए जाने के विरुद्ध बहुलता को प्रश्रय देता था।
  • हिन्दूवादी राज्य व्यवस्था अपना कर अल्पसंख्यकों का तथाकथित रूप से भारतीयकरण करने वाला प्रस्ताव भी इस रूप में रद्द कर दिया गया। जवाहर लाल नेहरू तथा भीमराव अम्बेडकर के प्रयासों से जो रणनीति तैयार हुई वह धार्मिक तटस्थता की थी।
  • यह नीति धार्मिक बहुलतावाद से भिन्न थी क्योंकि धार्मिक बहुलतावाद राजनीति में विभिन्न धार्मिक मूल्यों के अधिकाधिक प्रयोग का पोषक होता है जबकि धार्मिक तटस्थता का मतलब होता है प्रत्यक्ष धार्मिक प्रचार और राजनीति तथा राज्य व्यवस्था में धर्म के प्रयोग से परहेज रखना।
  • स्वतंत्रता पश्चात निर्मित नये संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता को एक मौलिक अधिकार के रूप में दर्जा दिया गया। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को सामाजिक प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्रदान करने का संकल्प व्यक्त किया गया।
  • भारतीय संविधान में धार्मिक भेदभाव नहीं बरतने का सिद्धान्त विशेष रूप से शामिल है। यह सिद्धान्त आमतौर पर लागू होता है और सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में विशेष रूप से लागू होता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 15(1) में कहा गया है कि राज्य, धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर या इनमें से किसी एक के आधार पर कोई भेदभाव नहीं बरतेगा।
  • अनुच्छेद 16(1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियुक्ति या रोजगार पाने संबंधी मामलों में सभी नागरिकों को अवसर की समानता रहेगी। इसी प्रकार अनुच्छेद 25(1) अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा स्वतंत्र व्यवहार और धर्मपालन की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। धर्म निरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान में 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया।
  • केशवानंद केस 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढाँचे का प्रतिनिधित्व करती है। अतः इसमें कोई नकारात्मक संशोधन नहीं हो सकता है।

1947 के बाद भारत में क्या परिवर्तन आये?

इस बीच भारतीयों में गाड़ियों की मांग भी काफी बढ़ी है। 1947 में जहां एक लाख लोगों में से 41 के नाम पर कार रजिस्टर्ड थी, वहीं 2020 में 2,275 भारतीयों के नाम कार या जीप रजिस्टर्ड है। इतना ही नहीं, 74 सालों में देश में बिजली की खपत भी काफी बढ़ी है। पहले प्रति व्यक्ति 16 kwh बिजली की खपत थी, जो अब बढ़कर 1,181 kwh हो गई है।

स्वतंत्रता के बाद भारत का क्या योगदान है?

देश का अपना संविधान आजादी के बाद भारत ने स्वतंत्र भारत में अपनी सबसे पहली उपलब्धि तब हासिल की जब 26 जनवरी, 1950 को हमारा अपना संविधान लागू हुआ। इसके साथ ही अंग्रेजों के जमाने का गवर्मेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट, 1935 समाप्त हो गया और भारत एक गणराज्य बना। भारत में संविधान ही सर्वोच्च है और संविधान ही संप्रभु।

आजादी के बाद भारत में विकास का कौन सा मॉडल अपनाया गया?

पंचवर्षीय योजना और भारत 1951 में शुरू की गई भारत की पहली पंचवर्षीय योजना, मुख्य रूप से कृषि, मूल्य स्थिरता, बिजली और परिवहन पर केंद्रित थी। यह हैरोड-डोमर मॉडल पर आधारित था जिसने बचत और निवेश में वृद्धि के माध्यम से भारत की आर्थिक वृद्धि को गति दी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय कृषि का तेजी से विकास हुआ क्यों?

जैसा कि हम जानते हैं कि भूमि एक दुर्लभ संसाधन है, विशेष रूप से भारत में, भूमि का कुशल उपयोग न केवल खाद्य सुरक्षा के लिए बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी से निपटने के लिए भी आवश्यक है। इसलिए, स्वतंत्रता के बाद के भारत में, मुख्य ध्यान फसल की गहनता को बढ़ाने पर था।