संस्कार क्या है इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें? - sanskaar kya hai isake vibhinn prakaaron ka varnan karen?

संस्कार शब्द का मूल अर्थ है, 'शुद्धीकरण'।[कृपया उद्धरण जोड़ें] मूलतः संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से था जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे, किन्तु हिंदू संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना भी था। प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे। प्रत्येक संस्कार से पूर्व होम किया जाता था, किंतु व्यक्ति जिस गृह्यसूत्र का अनुकरण करता हो, उसी के अनुसार आहुतियों की संख्या, हव्यपदार्थों और मन्त्रों के प्रयोग में अलग-अलग परिवारों में भिन्नता होती थी।

इतिहास[संपादित करें]

वैदिक साहित्य में 'संस्कार' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किन्तु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र ( 200 से 500 ई.) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अन्तर मिलता है।

ॠग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इसके कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती। अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। गोपथ ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में उपनयन, गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षान्त शिक्षा मिलती है।

अर्थात् गृह्यसूत्रों से पूर्व संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारम्परिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल भट्ट ( ई. आठवीं सदी ) ने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है - पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।

व्युत्पत्ति[संपादित करें]

'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर 'संस्कार' शब्द बनता है। पूर्वाचार्यों ने संस्कार शब्द का विभिन्न अर्थों में उपयोग किया है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • हिन्दू संस्कार
  • प्रक्रमण (प्रॉसेसिंग)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • संस्कार विमर्श

संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति सम पूर्वक ‘कृन्’ धातु से ‘‘धम’’ प्रत्यय करने पर होती है। सम् + कृ + धन = संस्कार। विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में इसका उपयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। प्रसंग के अनुसार संस्कार शब्द के अर्थ, शिक्षा, संस्कृति प्रशिक्षण, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरुप, स्वभाव आदि किये जाते हैं।

धर्मशास्त्रों में इसका तात्पर्य धार्मिक द्विविध-विधान एवं क्रियाओं से लिया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्रों में संस्कार धार्मिक आधार पर किये जाने वाले उन अनुष्ठानों से है, जो व्यक्ति के शरीर, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास और शुद्धि के लिए जन्म से मृत्यु तक समयान्तर से सम्पन्न किये जाते हैं।

संस्कार शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि संस्कार दोष निस्सारणपूर्वक गुणाधान की क्रिया है। इसी प्रकार पन्चमहायज्ञों की धारणा से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए पन्चमहायज्ञ करनी चाहिए और समान रुप से संस्कारों के महत्व को स्वीकार करनी चाहिए।

संस्कारों के संख्या के विषय में धर्मशास्त्रों में एक मत नहीं है। कुछ धर्मशास्त्रों में संस्कार की संख्या सोलह मानी गयी है और कुछ में 40 गौतम धर्मसूत्र में आठ आत्मगुणों के साथ चालीस संस्कारों का विवरण मिलता है। परवर्ती स्मृतियों में सोलह संस्कार मान्य हैं। मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में संस्कारों की गणना अन्त्येश्टि के साथ है। इस प्रकार प्रामाणिक और युक्ति संगत संस्कारों में मनु द्वारा वर्णित संस्कार प्रामाणिक एवं मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक और वण्र्य हैं।

अत: उन्हीं द्वारा बताये गये संस्कार यहाँ वर्णन का विषय है। अवषिश्ट संस्कार ऐसे हैं, जो प्रतिदिन या विशिष्ट अवसरों पर किये जा सकते हैं। वे इन्हें चौदह संस्कारों के सहायक हैं। परन्तु कुछ संस्कार रघुवंशियों में विषेश रुप से प्रचलन में था।

16 संस्कार के नाम

16 संस्कार के नाम 16 sanskaar ke naam संस्कार कितने प्रकार के होते हैं नाम हैं -

  1. गर्भाधान संस्कार 
  2. पुंसवन संस्कार 
  3. सीमन्तोनयन संस्कार 
  4. जातकर्म संस्कार 
  5. नामकरण 
  6. संस्कार निष्क्रमण 
  7. अन्नप्राशन मुण्डन संस्कार या 
  8. चूडाकर्म संस्कार 
  9. उपनयन संस्कार 
  10. वेदारम्भ संस्कार 
  11. केशान्त संस्कार 
  12. समावर्तन संस्कार 
  13. विवाह संस्कार 
  14. वानप्रस्थ संस्कार
  15. संन्यास संस्कार 
  16. अन्त्येाष्टि संस्कार

1. नामकरण संस्कार - बच्चा जब जन्म लेता है उस समय संस्कार सम्पन्न किया जाता है तथा शिशु को परम्परानुसार गुरुओं द्वारा यज्ञ, हवन करके विद्वान बाल को शतायु होने का आशीर्वाद देते हैं। गृहसुत्रों में बालक के जन्म के 10वें या बारहवें दिन उसका नामकरण संस्कार करने का विधान मिलता है। इसमें षिषु के जन्म नक्षत्र के अनुसार, उस मास के देवता, कुल देवता अथवा लोकविश्रुत किसी सन्त महात्यादि के नाम पर नवजात षिषु को एक विषेश संज्ञा प्रदान की जाती थी। 

प्रस्तुत संस्कार गुरु, पिता अथवा किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के द्वारा सम्पादित होता था। व्यवहार जगत के नाम (संज्ञा) का महत्व समझते हुए आर्य ऋषियों ने इस संस्कार का विधान किया था जो सर्वथा उचित है, लोक में भी प्राय: ऐसा देखा जाता है कि किसी व्यक्ति को विषेश संज्ञा से अभिहित करने से उसके प्रति किये जाने वाले व्यवहार सुगम हो जाते हैं। दषरथ पुत्रों के जन्म के 11वें दिन गुरु वशिष्ठ के द्वारा नामकरण संस्कार सम्पादित करने का प्रमाण मिलता है। 

इसी तरह सीता के पुत्रों का भी नामकरण का उल्लेख प्राप्त होता है। 

जब बच्चा ग्यारह दिन का हो जाय अथवा दसवें या बारहवें दिन नामकरण संस्कार ऋग्वेद के मन्त्रपाठ के साथ करना चाहिए। जातक को नाम जाति के अनुसार देनी चाहिए। इसके निमित्त किसी शुभ मुहूर्त में देवपूजन और यज्ञादि का आयोजन किया जाता है। ब्राम्हण ग्रन्थों, गृहसूत्रों एवं स्मृतियों आदि में नामकरण संस्कार का विस्तारपूर्व वर्णन प्राप्त होते हैं। मनु के अनुसार दसवें या ग्यारहवें दिन शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में नामकरण संस्कार का आयोजन करना चाहिए।

याज्ञवल्क्य, विश्वरूप और कल्लूक के अनुसार ग्यारहवें दिन सम्पन्न करना चाहिए। मेधातिथि ने इसे दसवें दिन सम्पन्न करने का निर्देश दिया है।30 धर्मशास्त्रों में षिषु का नाम प्राय: देवताओं नक्षत्रों आदि के नाम पर रखने का निर्देश दिया गया है।

2. उपनयन संस्कार - उपनयन संस्कार और ब्रह्मचर्य आश्रम का अत्यन्त घनिश्ठ सम्बंध है। वैदिक संहितकाल में ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्य का बड़ा ही विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। यहाँ ऐसे छात्रों का भी वर्णन मिलता है जिसका उपनयन अभी-अभी हुआ है इस काल में छात्र को ब्रह्मचारी और अध्यापक को आचार्य कहा जाता था। ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार उसका द्वितीय जन्म माना जाता था। 

उपनयन संस्कार की सम्पन्नता के साथ ही आचार्य छात्र को अपना अन्तेवासी बनाता था। इस तरह गुरु के समीप रहकर छात्र विद्याध्ययन के लिए जाता था परन्तु विद्याध्ययन के पूर्व उपनयन संस्कार का होना आवश्यक था इस तरह उपनयन संस्कार ही षिश्य को गुरु के समीप ले जाने का माध्यम था।

तरुणावस्था में प्रवेश करते समय उपनयन संस्कार होता है। अथर्ववेद में उपनयन शब्द का प्रयोग ब्रह्मचारी को ग्रहण करने के अर्थ में किया जाता है। मनु ने उपनयन संस्कार का समय निर्धारित करते हुए कहा है कि ब्राह्मण बालक का गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य बालक का गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करना चाहिए।

कुद विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए मनु ने बताया है कि ब्रम्हवर्चस की प्राप्ति के लिए इच्छुक ब्राह्मण का पाँचवें वर्ष में, शक्ति के लिए, इच्छुक क्षत्रिय का छठें वर्ष में और ऐश्वर्य के इच्छुक वैश्य का उपनयन संस्कार आठवें वर्ष में होना चाहिए।

वैसे उपनयन संस्कार की अन्तिम सीमा ब्राह्मण के लिए सोलह, क्षत्रिय के लिए बाईस और वैश्य के लिए चौबीस वर्ष की मानी जाती है।

धर्मशास्त्रों के नियमानुसार ब्राह्मणों को कपास की, क्षत्रियों का सन की तथा वैश्य को भेड़े के ऊन का यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।

3. गर्भाधान संस्कार - गृहस्थ होने पर सन्तान प्राप्ति हेतु बल निषेचन द्वारा गर्भ स्थापना करना गर्भाधान कहलाता है। यह संस्कार यज्ञपूर्वक सम्पन्न होता है।

4. पुंसवन संस्कार - स्त्री में गर्भाधान के चिह्न की स्थिति लक्षित होने पर दो-तीन मास में पुत्रोत्पत्ति के उद्देश्य से यज्ञपूर्वक किया जाने वाला संस्कार है।

5. सीमन्तोनयन संस्कार - गर्भ के चतुर्थ मास में गर्भ स्थिरता, पुष्टि एवं स्त्री के आरोग्य हेतु किया जाने वाला संस्कार। उक्त तीनों संस्कार शिशु जन्म से पूर्व गर्भकाल में सम्पन्न होते हैं।

6. जातकर्म संस्कार - शिशु जन्म के समय नाभि काटने से पहले बालक का जातकर्म संस्कार किया जाता है। इस संस्कार में बालक को मन्त्रोचारणपूर्वक सोने की शलाका से असमान मात्रा में घी, शहद चटाया जाता है तथा बालक की जिह्वा पर ऊँ लिखा जाता है।

7. निष्क्रमण - यह जन्म के चौथे मास में किया जाता है। ‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि शिशु का चौथे महीने में निष्क्रमण संस्कार करना चाहिए अर्थात् पिता के द्वारा शिशु को चौथे महीने में घर से बाहर ले जाकर पूर्णिमा को चन्द्रदर्शन और शुभदिन में सूर्य का दर्शन कराना चाहिए।

8. अन्नप्राशन - अन्नप्राशन के लिए छठा महीना उपयुक्त माना गया है। मनु का कथन है कि शिशु के छठे महीने में अन्नप्राशन संस्कार कराना चाहिए। तथा अपने कुल की परम्परा के अनुसार शिव, विष्णु आदि देवताओं का दर्शन पूजन आदि शुभकर्म करते हुए शिशु का विभिन्न कलाओं व शिल्पों के प्रतीकों से परिचय कराना चाहिए।

9. मुण्डन संस्कार या चूडाकर्म संस्कार - चूडा का अर्थ है ‘बाल गुच्छ’, जो मुण्डित सिर पर रखा जाता है, इसको शिखा भी कहते हैं। अत: चूडाकर्म या चूडाकरण वह कृत्य (संस्कार) है जिसमें जन्म के उपरान्त पहली बार सिर पर एक बाल-गुच्छ अर्थात् शिखा रखी जाती है। इसको मुण्डन संस्कार भी कहते हैं। मनु के अनुसार पहले या तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार करना चाहिए।

10. वेदारम्भ संस्कार - (वेदों का आरम्भ) वेदाध्ययन प्रारम्भ करने के पूर्व जो धार्मिक विधि की जाती है उसको ‘वेदारम्भ संस्कार’ कहते हैं। इस संस्कार के द्वारा शिष्य चारों वेदों के सांगोपांग अध्ययन के लिए नियम धारण करता है। प्रात: काल शुभमुहूर्त में आचार्य (गुरु) यज्ञादि का सम्पादन कर शिष्य को वैदिक मन्त्रों का अध्ययन आरम्भ कराता है। यह संस्कार उपनयन संस्कार वाले दिन ही या उससे एक वर्ष के अन्दर गुरुकुल में सम्पन्न होता है। वेदों के अध्ययन का आरम्भ गायत्राी मन्त्रा से किया जाता है।

11. केशान्त संस्कार - इस संस्कार में सिर के तथा शरीर के अन्य भाग जैसे दाढ़ी आदि के केश बनाए जाते हैं। गुरु के समीप रहते हुए जब बालक विधिवत् शिक्षा ग्रहण करते हुए युवा अवस्था में प्रवेश करता है गुरु उसका केशान्त संस्कार करता है।

12. समावर्तन संस्कार - (उपाधि ग्रहण करना) वेद-वेदांगों एवं सम्पूर्ण धर्म शास्त्रों का अध्ययन कर लेने एवं शिक्षा समाप्ति के पश्चात् बालक को स्नातक की उपाधि प्रदान की जाती है। इस संस्कार में गुरु शिष्य को सम्पूर्ण सामग्रियों सहित स्नान करवाता है।समावर्तन संस्कार के साथ मनुष्य के जीवन का पहला चरण अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त होता है तथा गृहस्थ आश्रम आरम्भ होता है।

13. विवाह संस्कार - मनुस्मृतिकार ने तृतीय अध्याय में लिखा है कि तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन पूर्ण करके अविलुप्त ब्रह्मचर्य स्नातक का विवाह संस्कार किया जाना चाहिए।

14. वानप्रस्थ संस्कार - केश पक जाने तथा पुत्र का पुत्र उत्पन्न हो जाने पर वानप्रस्थ संस्कार का विधान है।

15. संन्यास संस्कार - आयु के अन्तिम भाग में संन्यासी बनने के लिए यह संस्कार किया जाता है।

16. अन्त्येाष्टि संस्कार - जीवन यात्रा पूरी होने पर किया जाने वाला अन्त्येष्टि संस्कार होता है।

संस्कार क्या है यह कितने प्रकार के होते हैं?

यह सोलह संस्कार निम्नलिखित हैं- गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमंतोन्नयन संस्कार, जातकर्म, नामकरण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, कर्णवेध संस्कार, उपनयन/यज्ञोपवीत संस्कार, वेदांरभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार

संस्कारों से आप क्या समझते हैं इसका महत्व स्पष्ट कीजिए?

सनातन धर्म में संस्कारों का विशेष महत्व है। इनका उद्देश्य शरीर, मन और मस्तिष्क की शुद्धि और उनको बलवान करना है जिससे मनुष्य समाज में अपनी भूमिका आदर्श रूप मे निभा सके। संस्कार का अर्थ होता है-परिमार्जन-शुद्धीकरण। हमारे कार्य-व्यवहार, आचरण के पीछे हमारे संस्कार ही तो होते हैं

संस्कार क्या होता है?

सुसंस्कार मतलब [सं-पु.] - उत्तम या अच्छे संस्कार।

संस्कार का मूल अर्थ क्या होता है?

संस्कार बहुत ही हल्की सी चीज है जिसे पकड़ना मुश्किल नहीं है । किसी के संस्कार उसके परिवार ,समाज और एक क्षेत्र की देन होते हैं। संस्कार से सीधा मतलब ब्यक्ति के व्यवहार और व्यक्तित्व से है । जो उसके अंदर के मानवीय गुणों ईमानदारी, विनम्रता, सच्चाई,सहयोग,सम्मान,प्रेम,अनुभूति,मेलजोल ,अहिंसा को प्रदर्शित करता है ।