Show See other formatsj र न | I है ८ | ॥ RENN | “= | Ny ॥ | है के । ह. ती. ही, ह । | ' | I बम NDR यी i | | हि. |. न | की ` = | जन | मी वा च ता EE चि ~ है कक RAP He a C.F बिडी 5 | र = 0000५०० मयर पेपर बक्स ए-95, सेक्टर-5, नोएडा-20307 3 प्रथम मयूर पेपरबेक संस्करण : श्रगस्त, 988 मूल्य: .00 शान प्रिट्सँ, रोहतास नगर, शाहदरा, . दिल्ली-।0032 में मृ द्वित 9 SKANDAGUPTA (Historical Drama) by Jayshankar Prasad Price : Rs. II.00 [I35-I27,22PB-788/N] जयशंकर प्रसाद स्कंदगुप्त विक्रमादित्य इस नाट्य-रचना का आधार दो मंतव्यों पर स्थिर किया गया है; जिनके संबंध में हमें कुछ कहना है--पहला यह कि उज्जयिनी का पर-दुःखभंजक विक्रमादित्य, ग्रुप्त-वंशीय स्कंदगुप्त था और दूसरा यह कि मातृगुप्त ही दूसरा कालिदास था, जिसने “रघुवंश आदि काव्य बनाये । स्कंदगुप्त का विक्रमादित्य होना तो प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है। शिप्रा से तंबी में जल भरकर ले आने वाले और चटाई पर सोने वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य स्कंदगुप्त के ही साम्राज्य के खंडहर पर भोज के परमार पुरखों ने मालव का नवीन साम्राज्य बनाया था । परंतु मातृगुष्त के कालिदास होने में अनुमान का विशेष संबंध है । हो सकता है कि आगे चलकर कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल जाये, परंतु हमें उसके लिए कोई आग्रह नहीं। इसलिए हमने नाटक में मातगुप्त का ही प्रयोग किया है। मातृगृप्त का काश्मीर का शासन और तोरमाण का समय तो निशचित-सा है। विक्रमादित्य के मरने पर उसका दिया काश्मीर राज्य वह छोड़ देता है, और वही समय सिहल के कुमार धातुसेन का निर्धारित होता है । इस- लिए इस नाटक में धातुसेत भी एक पात्र है। बंधुवरम्मा, चक्रपालित पणे- दत्त, शर्वनाग, पृथ्वीनाग, पृथ्वीसेन, खिगिल, प्रख्यातकीति, भीमवर्म्मा (इसका शिलालेख कौशांबी में मिला है), गोविदंगुप्त आदि सभी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं । इसमें प्रपंचबुद्धि और मुद्गल कल्पित पात्र हैं । स्त्रीपात्रों में स्कंद को जननी का नाम मैंने देवकी रखा है। स्कंदगुप्त के एक शिलालेख में “हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेत' मिलता है। संभव है कि स्कंद की / arn के नाम--देवकी से ही-- कवि को यह उपमा सूझी हो । अनंतदेवी का तो स्पष्ट उल्लेख पुरगुप्त की माता के रूप में मिलता है । यही पुरगुप्त स्कंदगुप्त के बाद शासक हुआ है । देवसेना और जयमाला वास्तविक ओर काल्पनिक पात्र, दोनों हो सक्ते हैं । विजया, कमला, रामा और मालिनी जैसी किसी दूसरी नामधारिणी स्त्री की भी उत्त काल में संभावना है; तब भी ये कल्पित हैं। पात्नों की ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र की सृष्टि जहां तक संभव हो सका, नहीं होने दी गवी है, फिर भी कल्पना का अवलंव लेना ही पड़ो--केवल घटना की परंपरा ठीक करने के लिए । विक्रमादित्य जिनके नाम से विक्रमीय संवत् का प्रचार है, भारत के उस आबाल वृद्ध- परिचित, प्रसिद्ध विक्रमादित्य का ऐतिहासिक अस्तित्व कुछ विद्वान लोग स्वीकार नहीं करते। इसके कई कारण हैं। इसका कोई शिलालेख नहीं मिलता । विक्रमीय संवत् का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं है । स्वयं मालब में अति प्राचीन काल से ७क मालव संवत् का प्रचार था, जैसे ' मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये'--- इत्यादि ¦ इसलिए कुछ विद्वानों का मत हैं कि गुप्तवंशीय प्रतापी द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमा- दित्य था, उसी ने सौराष्ट्र के शकों को पराजित किया भौर प्रचलित मालव संवत् के साथ अपनी 'विक्रम' उपाधि जोड़कर विक्रमीय संवत् का प्रचार किया । परतु यह् मत निस्सार है, क्योंकि चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम तो चंद्रगुप्त था, पर उपाधि विक्रमादित्य थी । उसने सीराष्ट्र के शकोंको परा जित्न ' किया । इससे यह तात्पर्यं निकलता हैं कि शकारि होना विक्रमादित्य होने के लिए आवश्यक था । चंद्र गुप्त द्वितीय के शकारि होने का हम आगे चल- कर विवेचन करेंगे । पर चंद्रगुप्त उज्जयिनी-नाथ न होकर पाटलिपुत्र के थे । उनके शिला लेखों में गुप्त संवत् व्यवहृत हैं, तब वह् दो संवतों के अकेले भरचारक नहीं हो सकते । विक्रमादित्य उनकी उपाच थी-- नाम नहीं था । इन्हीं के लिए 'कथासरित्सागर' में लिखा है--- विक्रमादित्यइत्यासीद्राजा 2 / स्कंदगुप्त | tt आर 00१. भेळ. बे पाटलिपुत्नके'। सिकंदरसानी और आलमगीरसानी के उदाहरण पर मानना होगा कि जिसकी ऐसी उपाधि होती है, उसके पहले उस नाम का कोई व्यक्ति भी हो चकता है। चंद्रगुप्त का राज्यकाल 385-43 ई० तक माना जाता है। तब, यह भी मानना पड़ेगा कि 380 के पहले कोई विक्रमादित्य हो गया है, जिसका अनुकरण करने पर उक्त गुप्तवंशीय सञ्राट् चंद्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि से अपने को विभूषित किया । तख्तेवाही के शिलालेख का, जी गोंडोफोरस का है, काल 703 ई० है । तत्कालीन ईसाई कथाओं के आधार पर जो समय उसका निर्धारित होता है, उससे वह विक्रमीय संवत् ही ठहरता है। तब यह भी स्थिर हो जाता है कि उसं प्राचीन काल में, शक संवत् के अतिरिक्त एक संवत् का प्रचार था--और वह विक्रमीय था । मालव लोग उसके व्यवहार में 'मालव' शब्द का प्रयोग करते थे । चंद्रगुप्त का हकविजय कहा जाता हे, गुप्तवंशीय सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालव और सौराष्ट्र के पश्चिमीय क्षत्रपों को पराजित किया, जो शक थे। इसलिए यही चंद्रगुप्त विक्रमादित्य था । सौराष्ट्र में रुद्रसिंह तृतीय के बाद किसी के सिक्के नहीं मिलते; इसलिए यह माना जाता है कि इसी चंद्रगुप्त ने रुद्रासह को पराजित करके शकों को निमं,ल किथा। पर बात कुछ दूसरी है। चंद्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने ही भारत की विजय-यात्रा की थी। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आर्थ्यावत्त के विजित राजाओं में एक नाम स्ट्रदेव भी है । संभवतः यही रुद्र्देव स्वामी रुद्रसेन था, जो सोराष्ट्र का भी क्षत्रप था। तब यह विजय समुद्रगुप्त की थी, फिर चंद्र गुप्त ' ने किन शकों को निर्मूल किया ? चंद्रगुप्त का शिलालेख बेतवा और यमुना के पश्चिमी-तट पर नहीं मिला । समुद्रगुप्त के शिलालेख से प्रकट होता ह <: 3 कि उसी ने विजय-यात्रा में राजाओं को भारंतीय पद्धति के अनुसार पराजित किया । तात्पर्य, कुछ लोगों से उपहार लिया, कुछ लोगों को उनके सिहासनों पर बिठला दिया, कुछ लोगों से 'नियमित कर” लिया, स्कंदगुप्त / 3 इत्यादि । चंद्रगुप्त के पहले ही यह सब हो चुका था, वस्तुत: वे सब शासन में स्वतंत्र थे । तब कसे मान लिया जाये कि सौराष्ट्र और मालव में शकों को चंद्रगुप्त ने निर्मल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चंद्रगुप्त के किसी भी शिलालेख में नहीं मिलता ? गुप्तवंशियों की राष्ट्रनीति सफल हुई, वे भारत के प्रधान सम्राट माने जाने लगे, पर स्वयं चंद्रगुप्त का समकालीन नरवर्म्मा (गंगाधार के शिलालेख मे) और वह भी मालव का, स्वतंत्र नरेश माना जाता है। फिर मालव-चक्रवर्ती उज्जयिनी-नाथ विक्रमादित्य और सम्राट् चंद्रगुप्त, जो मगध और कुसुमपुर के थे, कैसे एक माने जा सकते हैं ? चंद्रगुप्त का समय 43 ई० तक है । इधर मंदसोर वाले 424 ई० के शिलालेख में विश्ववर्म्मा और उसके पिता नरवर्म्मा स्वतंत्र मालवेश हैँ । यदि मालव गुप्तो के अधीन होता तो अवश्य किसी गुप्त राजाधिराज का उसमें उल्लेख होता, जैसाकि पिछले शिलालेख में (जो 437ई० का है) कुमारगुप्त का उल्लेख है--'वनांतवांत स्फुटपृष्पहासिनीं कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति’ । इससे यह् सिद्ध हो जाता है कि चंद्रगुप्त का संपूर्ण अधिकार मालव पर नहीं था, वह उज्जयिनी-नाथ नहीं थे । उनकी उपाधि विक्रमादित्य थी, तब उनके पहले एक विक्रमादित्य-- 385 से पूर्व हुए थे । हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम विक्रमादित्य का अनुसंधान मिलता है। 'गाथा सप्तशती'--एंक प्राचीन गाथाओं का संग्रह 'हाल' भूपति के नाम से उपलब्ध है। पैठन में इसकी राजधानी थी । इसका समय इसवीय सन् की पहली शताब्दी हैं । महामहोपाध्याय पंडित दुर्गाप्रसाद ने अभिनंद के रामचरित से-- हालेनोत्तत पूजयाकविवृषः श्रीपालितो लालितः ख्याति कामपि कालिदास कवयो नीता शकारातिना-- उद्धत करते माना है कि श्रीपालित ने अपने राजा ' हाल' के लिए यह 'गाथा सप्तशती बनायी । इसमें एक गाथा पांचवें शतक की है— संवाहण सुहरस तोसिएण देन्तेह तुह्करे लक्खम् । चल्लणेण बिक्रमादित्त चरितं अणु सिक्खञंतिस्सा ।। 64 ।! ईसा-पूर्व पहली शताब्दी में एक विक्रमादित्य हुए, इसके मानने कां यह एक प्रमाण हे । जंन ग्रंथ कालकाचार्य-कथा में उज्जयिनी-नाथ विक्रम 4 / स्कंदगुप्त !' | | ~ TS -_- So i OT ,. , . आ य व... 0. ह. क... जा ह. क क I SHS ° न्यु - र का मध्यभारत के शक़ों को परास्त करना लिखा है । प्रबंधकोश में लिखा है कि महावीर स्वामी के मोक्ष पाने पर 470 वर्षं बाद विक्रमादित्य हुए। | भारत की परपरागत कथाओं में प्रसिद्ध है कि विक्रमादित्य गंधवसेन का पुत्र था। टाड ने राजस्थान के राजकुलों का वर्णन करते हुए यह लिखा है कि तुअरवंश पांडव वंश की एक शाखा है, जिसमें संवत प्रचारक विक्रम ओर अनंगपाल का जन्म हुआ था। प्राचीन एतिहासिक ग्रंथ 'राजावली' में दिल्ली के राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि दिल्ली के राजा राजपाल का राज्य कमाय के पहाड़ी राजा शुकबंत मे छीन लिया । उसे विक्रप्रादित्य ने मारकर दिल्ली का उद्धार किया। इधर प्रसिद्ध विद्वान् स्मिथ ने लिखा है कि ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में शकों का उत्थान हुआ जो भारत में उसी के लगभग घुसे । Branches of the Barbarian stream which penetrated the Indian passes, deposited settlements at Taxila in _ the punjab and Mathura on the Jamuna. | _ Yet another section of the horde ata later date per- . haps about middle of the first century after Christ pushed on southwards and occupied the peninsula of Sourashtra or Kathiawar, founding a ‘saka dynasty which lasted until it was destroyed by Chandragupta Vikramaditya about A.D. 390. The Satraps of Mathura were closely connected with those of Taxila and belong to the same period about 50 B. C, or later. पिछली शक-शाखा के संबंध में, जो सौराष्ट्र गयी, यह कहा जाता है Ee स : चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे निम् ल किया, पर वास्तव में 385 ई० तक समुद्रगुप्त जीवित थे और उन्हों के समय में 382 ई० तक के शक-सिक्के मिलते हैं। बाद के सिक्के बिना संवत् के हैं। इससे प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के सामने क्षत्रपों का प्रताप निस्तेज हुआ, फिर मिना संवत् के सिक्के वहां प्रचलित हुए । तात्पर्य, उक्त समुद्रगुप्त के समय 385 तक ही सौराष्ट्र की शक-शाखा का ह्लास हुआ। चंद्रगुप्त का राज्यारोहण-काल स्कदगुप्त / 5 380 ई० मानते हैं। परतु उसका सबसे पहला शिलालेख उदयगिरि का गुप्त संवत् 82 (ई० 40] ) का मिलता है । सौराष्ट्र के जो सिकके चंद्रगुप्त के. माने जाते हैं वे गुप्त संवत् 90 (ई० 409 ) के हैं, इसके पहले के नहीं । शक क्षत्रपों के अंतिम सिक्कों का समय 37-389 ई है। अ च्छा, इन _ सिक्कों के बाद 38 9 से लेकर 409 ई०-20 वषं तक किन सिक्कों का भचार रहा, क्योंकि चंद्रगुप्त के सिक्कों के देखने से उसका सोराष्ट्र-विजय 409 ई से पहले का नहीं हो सकता (जब के उसके सिकके हैँ) फिर उदय- गिरि वाला लेख भी ई० 4 0! के पहले का नहीं है। तब यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त का राज्यारो हेग-काल 400 ई० के समीप होगा । परंतु 389 ई० तक के शक-क्षत्रपों के सिक्कों के मिलने के कारण विजय हुआ । हरिषेण की विजय-प्रशस्ति भें समुद्रगुप्त के द्वारा पराजित राजाओं की नामावली में रुद्रदेव का भी उल्लेख है और यह् रुद्रदेव सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों में रहा होगा । चंद्रगुप्त ने भी पिता के अनुकरण पर विजय- यात्रा को थी, जेसाकि उसके उदयगिरि वाले शिलालेख से स्पष्ट हे, परंतु उसके शासन-काल में मालब स्वतत्न था। समुद्रगुप्त के बाद मालब भौर सौराष्ट्र स्वतंत्र राष्ट्र गिने जाते थे। गंगधार और मंदसोर के दोनों शिला- लेखों को देखने से सूचित होता है कि नरवर्म्मा और विश्ववर्म्मा मालव के स्वतंत्र नरेश थे | ऊमारगुप्त के समय में बंधुवर्म्मा ने संभवत: 424-437 ई० के बीच गुप्त-साम्राज्य के अधीन होना स्वीकार किया | चंद्रगुप्त के शक-विजय का उल्लेख बाणभट्ट ने भी किया हे—'अरि- पुरे परकलव्रकामुकं कामिनी वेशश्चंद्रगुप्तः शकनरपति अशातयत् ।' यह् शक विजय किस प्रांत में हुआ, इसका ठीक उल्लेख नहीं, पर कुछ लोग भनुमान करते हैं कि कुशानों के दक्षिणी शक-क्षतरप से 400 ई० के समीप _ प्रतिष्ठान का उद्धार चंद्रगुप्त ने किया । जब आंघ्र राजाओं से लड़-भगड़- कर वे शक-क्षत्रप स्वतंत्र हो गये थे और चंद्रगुप्त ने दक्षिण के उन स्वतंत्र शकों को पराजित करने के लिए जिस उपाय का भ्रवलेबन किया था, 6 / स्कंदगुप्त उसका उल्लेख 'कथा सरित्सांगर' की चौथी तरंग से भी प्रकट है । (देखे -- धुवस्वामिनी' एकांकी) मथरा के शक शासकों का नाश, जो शकों की पहली शाखाकेथे किसने किया--इस संबंध में इतिहास चुप है। राजुबुल, षोंडाश और खरंओष्ठ नाम के तीन शक नरेशों के ईसा पूर्व पहली शताब्दी में मथुरा पर शासन करने का उल्लेख स्पष्ट मिलता है । षोडाश ने आय्ये-शासक रामदत्त से दिल्ली और मथुरा छीनकर शक-राज्य प्रतिष्ठित किया था। 'राजावली' में इसका उल्लेख है कि विक्रमादित्य ने पहाड़ी राजा शुकबंत से दिल्ली का उद्धार किया । शुकवंत संभवतः विदेशी षोडाश का ही विक्त नाम है, क्योंकि ईसा की पहली शताब्दी के बाद उस प्रांत में उन शकों का शासन निर्मल हो गया । इन लोगों को पराजित करने वाला वही विक्रमा- दित्य हो सक्ता है--जो ईसवीय पूर्वं पहली शताब्दी का हो । जैसलमेर के इतिहास में भट्टियों का वर्णन यहां बड़े कामका है। उन्होंने लिखा है कि विक्रमीय संवत् 27 में गजनी-पति गज का पुत्र शालि- वाहन मध्य-एशिया की क्रांतियों से विताड़ित होकर भारतवर्ष चला आया, और उसने पंजाब में जलिवाहनपुर (शालपुर या श्ञाकल) नाम की राज- धानी बसायी। स्मिथ ने जिस दूसरी शक-शाखा का उल्लेख किया हे, उसके समय से भट्रियों के इस शालिवाहन का समय ठीक-ठीक मिल जाता है। शकों के दूसरे अभियान का नेता बही शालिवाहन था, जिसके स बंध में 'अविष्य पुराण' में लिखा है-- एतस्मिनन्तरे तत्र शालिवाहन भूपतिः । विक्रमादित्य पौत्रस्य पित् राज्यं गृहीतवान् ।। कुछ लोगे 'पौत्रश्च' अशुद्ध पाठ द्वारा भ्रांत अर्थ निकालते हैं जो असंब़ है । विक्रमादित्य के पौत्र का राज्य अपहरण करने वाला शालि- वाहून विदेशी था । प्रबंध चितामणि में भी शालिवाहन को नागवंशीय लिखा है । गजनी से आया हुआ शालिवाहन एक शक था । संभवतः उसी ने शक-राज्य की स्थापना की और शक-संवत् का प्रचार किया । इसके पिता के ऊपर जिस खरासान के फरीदशाह के आक्रमण की बात कही जाती है, बह पा्थियानरेश 'मिश्चाडोटस' का पुत्र 'फराटस' द्वितीय रहा स्कदगुप्त / 7 लि | उस काल में युवेची, पाथियन और शकों में भयानक संघर्ष चल रहा था । गजनी के शकों को भी इसी कारण अपना देश छोड़कर रावी एवं चनाव के बीच में 'शाकल' बसाना पड़ा। मिश्चाडोटस द्वितीय आदि के शासन-काल में भारतवर्ष में उत्तर-पश्चिमी भू-भाग बहु त दिनों तक इन्हीं श॒कों के अधिकार में रहा। कभी पार्थियन, कभी शक और कभी युवेची जाति की प्रधानता हो जाती थी । उसी समय में मालवों को पराजित करके शकों ने पंजाब में अपने राज्य की स्थापना की थी । स्मरण रखना होगा कि मालव से यहां उस राष्ट्रं का संबंध है जो पाणिनी के समय में मालव- क्षुद्कगण कहे जाते थे ओर सिकंदर के समय में ')\]l0i and AZ0074p2 के नाम से अभिहित थे । इस प्राचीन मालव की सीमा पंजाब में थी । विक्रमादित्य और शकों का प्रथम कहरूर-युद्ध मुलतान से 50 मील दक्षिण-पूर्व में हुआ ओर शालि- वाहन के नेतृत्व में शकों के आक्रमण से मालवों को दक्षिण की ओर हटना पड़ा । संभवत: वर्तेमान मालव देश उसी काल में मिलाया गया और जहां पर इन मालवों ने शक्कों से पराजित होकर अपनी नयी राजधानी बसायी, वह मंदसोर और उज्जयिनी थी । शालिवाहन की इस विजय के बाद उसी के बंश के लीग राजस्थान से होते हुए सौराष्ट्र तक फैल गये और वे पश्चिमीय क्षत्रप के नाम से प्रसिद्ध हुए । चष्टन और नहपान आदि दक्षिण तक इसकी विजय-वैजयंती ले गये । नहपान को कुंतलेश्वर सातकणि ने पराजित किया । ' कथा-सरित्सागर' से पता चलता है कि भरुकच्छ देश से भी शकों की सत्ता स [तकणि ने उठा दी और 'कालाप' व्याकरण के प्रवत्तक शर्ववर्म्मा को वहां का राज्य दिया । शालिवाहन के सेनापतियों ने दक्षिण में शक-संवत् का अपने शासन-बल से प्रचार किया । उत्तरी भारत में आक्रमण और संघर्ष बराबर होते रहे, इस- लिए उज्जयिनी में वे अधिक समय तक न ठहर सके । शक क्षत्रपों ने सौराष्ट्र में अपने को दृढ़ किया और नवीन मॉलव--जिसे दक्षिण मालव भी कहते हैं--शीघ्र स्वतंत्र होने के कारण अपने पूर्व-व्यवहृत मालव-संव त् का ही उपयोग करता रहा । 8 / स्कंदगुप्त ऊपर के प्रमाणों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि प्रथम विक्रमादित्य--गंधवंसेन का पुत्न--मालवगण का प्रमुख अधिपति रहा । उसने मथरा वाली शकशाखा का नाश किया और दिल्ली का उद्धार करके जेत्रपाल को वहां का राज्य दिया । संवत् ।699 अगहन सुदी पंचमी की लिखी हुई 'अभिज्ञान शाकूंतल' की प्राचीन प्रति से जो पं० केशव प्रसाद जी मिश्र (भैनी, काशी) के पास है, दो स्थलों के नवीन पाठों का अवतरण यहां दिया जाता है (।) 'आर्ये रसभाववशेषु दीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्य साहसाकस्या- भिरूव भूयिष्ठेयं परिषत् अस्यां च कालिदास प्रयुक्तेनाभिज्ञान- शाकुन्तलम् नाम्नानवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः। (2) “भवतु तबबिडौजः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु त्वमपि बितत यज्ञो वस्त्रिणं भाबयेथा गणशत परिवत रेवमन्योन्य कृत्ये नियतमुभयलो कानुग्रहश्लाघनीये' इसमें दोनों काले शब्दों पर ध्यान देने से दो बातें निकलती हैं। पहली यह है कि जिस विक्रमादित्य का उल्लेख शाक्ंतल में है, उसका नाम विक्रमा- दित्य है और 'साहसांक' इसकी उपाधि है। दूसरे भरत वाक्य में 'गण शब्द के द्वारा इंद्र और विक्रमादित्य के लिए यज्ञ और गण राष्ट --दोनों की ओर कवि का संकेत है । इसमें राजा या सम्राट जैसा कोई संबोधन विक्रमादित्य के लिए नहीं है । तब यह विचार पुष्ट होता है कि विक्रमा- दित्य मालव गणराष्टर का प्रमुख नायक था, न कि कोई सम्नाट् या राजा । कुछ लोग जैत्रपाल को विक्रमादित्य का पुत्र बताते हैं। हो सकता है, इसी के एकाधिपत्य से मालवगण में फूट पड़ी हो भौर शालिवाहन के द्वितीय शक-आक्रमण में वे पराजित हुए हों । चंद्रगुप्त विक्रमादित्य मालव का अधिपति नहीं था, वह पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य था । उसने स्त्री-वेश धारण करके किसी शक-नरपति को. मार डाला था । पर पश्चिमी मालवा ओर सौराष्ट्र उसके समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, क्योंकि नरवर्म्मा और विशववर्म्मा का मालव में और स्वामी रुद्रसिह आदि तीन स्वतंत्र नरपति-नाम सौराष्ट्र के स्कदगुप्त / 9 | | | | शकों के मिलते हैं । इसके लेख आक, उदयगिरि और गोपाद्रि तक ही मिलते हैं । जैसा विक्रमादित्य का चरित्र हे, उसके विरुद्ध इसके संबंध में कुछ गांथाएं मिलती हैं । अपने पिता समुद्रगुप्त को विजयों के आधार पर ओर किसी शक-नरपति को मारकर , इसने भी पहली बार विक्रमादित्य की उपाधि ध्शरण कर ली थी । यह असली विक्रमादित्य के बराबर अपने को समझता था । कथा सरित्सागर' और 'हषंचरित्र' से लिये गये अवतरणों पर ध्यान देने से यह विदित होता है कि यह शक-विजय किसी छल से मिली थी । तुआर (शिवप्रसाद के मतानुसार पंवार) या मालवगण कें प्रमुख अधीश्वर से भिन्न थह पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य चंद्रगुप्त था, जिसका समय 385 (400 ?) से प्रारंभ होकर 473 ई० तक था। कुछ लोगों का मत था कि मालव का यशोधम्मै देव तीसरा विक्रमादित्य था, परतु जिस 'राजतरंगिणी' से इसके विक्रमादित्य होने का प्रमाण दिया जाता है, उसमें यशोधम्मं के साथ विक्रम शब्द का कोई उल्लेख नहीं है । उसके शिलालेखों, सिक्कों में भी इसका नाम नहीं है। यशोकम्मं के जयस्तंभ में हृण मिहिरिकुल को पराजित करने का प्रमाण मिलता है, परंतु यह् शकारि नहीं था! यह अनुमान भी भ्रांत है कि इसी यशोधरम्म देव ने मालव-संवत् के साथ विक्रम नाम जोड़कर विक्रम- संवत् का प्रचार किया, क्योंकि उसी के अनुचरों के शिलालेख में मालवगण-स्थिति का स्पष्टं उल्लेख है-- 'पंचसु शतेसु शरदां यातष्वेकान्नवति सहितेष् । मालवगण स्थिति वशात् कालज्ञानाय लिखितेषु ॥।' भलबेरूनी के लेख से यह भ्रम फैला है, परंतु वही अपनी पुस्तक में दूसरी जगह कहरूर युद्ध के विजेता विक्रमादित्य से सं वत् प्रचारक विक्रमा- दित्य को भिन्न मानकर अपनी भूल स्वीकार करता है। डॉक्टर हार्नली भर स्मिथ कहरूर युद्ध के समय में मतभेद रखते हैं। हान॑ली उसे 544 में और स्मिथ 528 ई० में मानते हैं । कहरूर का रणक्षेत्र कई युद्धों की रंग- स्थली है-- जेसाकि पिछले काल में पानीपत । शकों और हुणो के आक्रमण काल में प्रथम विक्रमादित्य-स्कंदगुप्त और यशोधर्म्म ने वहीं विजय प्राप्त ।0 / स्कंदगुप्त | जाड ।अलवेूनी ने पिछले युद्ध का ही विवरण सुनकर अपने को भ्रम में डाल दिया । जिन लोगों ने यशोधम्मं देव को 'विक्रमादित्य' सिद्ध करने की चेष्टा की है वे 'राजतरंगिणी' का नीचे लिखा हुआ भवतरण प्रमाण में देते व 'उज्जयिन्यां श्रीमानूहर्षापराभिधः एकच्छत्रश्चक्रवर्ती विक्रमादित्य इत्यभूत'--इस श्लोक के 'श्रीमान् हषं' पर॑ भार डालकर असंभावित अर्थ किया जाता है; पर हषं विक्रमादित्य से यशोधम्मं का क्या संबंध है, यह स्पष्ट नहीं होता । इसी हषं विक्रमादित्य के लिए कहा जाता है कि उसने मातगुप्त को काश्मीर का राज्य दिया । परंतु इ तिहास में पांचवीं और छठी शताब्दी में किसी हर्षं नामक राजा के उज्जयिनी पर शासन करने का उत्लेख नहीं मिलता । बहुत दिनों बाद ईसवीय सन् 970 के समीप मालव में श्रीहर्षदेव परमार का राज्य करना मिलता हे । राजतरंगिणी के अनुसारः उक्त हरषे-विक्रमादित्य का काल वही है जब काश्मीर में गांधार वंश का 'तोरमाण' युवराज था । तोरमाण के शिलालेखों से यह सिद्ध हो जाता है कि उसके पिता तृंजीत व प्रवरसेन का समकालीन स्कदगुप्त मालव का शासक हो सकता है । तत्र कया आश्चर्ये है कि लेखक के प्रमाद से, राज- तरंगिणी में हषं का उल्लेख हो गया हो, और शुद्ध पाठ "श्रीमान् स्कंदा- पराभिधः' हो । क्योंकि इसी तोरमाण ने 500 ई० में गुप्तबंशियों से मालव ले लिया था तब मातगुप्त वाली घटना 500 ई० के पहले की है। जो लोग यशोधर्म्म को विक्रमादित्य मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि मिहिर्कुल को पराजित करने में यशोधम्मे और न॑रसिहगुप्त-बालादित्य दोनों का हाथ था, परंतु यह भी भ्रम है। नरसिहगुप्त 528 या 544 ई० तक जीवित नहीं थे । यशोधर्म्मं का समकालीन बालादित्य द्वितीय हो सकता है । श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में यह प्रमाणित किया है कि यशोधम्म॑ कल्कि थे । कल्किपुराण (जीवानंद संस्करण ) में: लिखा है -- प्रसीद जगतांनाथ धर्मवर्म्म रमापते ॥अध्याय 3॥। मुने किमत्र कथनं कल्किना धर्मेवम्मंणा ॥ अध्याय 4 ॥। तब 'राजतरंगिणी' का यह अवतरण और भी हमारे मत को पुष्ट करता है स्कंदगुप्त / । कि यशोधम्मंदेव से पहले विक्रमादित्य हुए थे-- म्लेच्छोच्छेदाय वसुधा ह्रेरवतरिष्यत: । शकान्विनाश्य येनादौ काय भारो लघूक्तः।। तरंग 3 भावी कल्कि यशोधरम्मं के कार्य-भार को लघु कर देने वाले विक्रमा- विषम शील लंबक सविस्तार वर्णन करता है। उज्जयिनीनाथ (म हेंद्रादित्य) 'क पुत्र यह विक्रमादित्य « म्लेच्छाक्रांते च भूलोके” उत्पन्न हुआ और 'मध्यदेश: स: सौर ष्ट स ब्गाङ्गा च पूवे दिक् स काश्मीरान्सकौबेरी काष्ठाश्च करदेकृता i इसी काल में मालव शुप्त-साञ्राज्य में सम्मिलित हुंमा । चंद्रगुप्त द्वितीय || के समय में नरवर्म्मा और विश्ववर्म्भा मालव के स्वतंत्र नरेश थे। कुछ लोगों | | | का अनुमान हे किनमंदा के निकटवर्ती पुष्यमित्रो ने जब गुप्त साम्राज्य से पृथ्वी पर सोकर रातें बितायीं । हुणों के युद्ध में जिसके विकट पराक्रम सेः धरा विकंपित हुई, जिसने सौराष्ट्र के शकों का मूलोच्छेद करके प्णेदत्त को - वहां का शासक नियत किया-वे स्कंदगुप्त ही थे- जूनागढ़ वाले लेखः में इसका स्पष्ट उल्लेख हैँ । स्कंदगुप्त की प्रशंसा में उसमें लिखा है— 'अपिच जितमिव तेन प्रथयन्ति यशांसि यस्य रिपवोप्यामूल भग्नदर्पा निर्वचना म्लेच्छदेशेष' पणेदत्त के पुत्र चक्रपालित ने 'सुदर्शन झील' का संस्कार कराया था, इससे - अनुमान होता है कि अंतिम शकन-क्षत्रप रुद्रसिह की पराजय वाली घटनाः ईसवीय सन् 457 के करीब हुई थी। स्कंदगुप्त को सौराष्ट्र के शकों और _ तोरमाण के पूर्वंवक्तीं हुणों से लगातार युद्ध करना पड़ा। इधर वैमातक- भाइ-पुरगुप्त से आंतरिक ढ्वंद्र भी चल रहा था। उस समय की विचलित राजनीति को स्थिर करने के लिए प्राचीन राजधानियों--पाटलिपुत्र या - अयोध्या सें दूर एक कद्रस्थल में अपनी राजधानी बनाना आवश्यक था । इसलिए वतमान मालव की मौर्य्यकाल की अवंती नगरी को ही स्कंदगुप्त ने अपने साम्राज्य का कद्र बनाया और शकों तथा हुणों को परास्त करके. उत्तरीय भारत से हूणों तथा शकों का राज्य निमूल कर 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की । 'विक्रमादित्य' उपावि के लिए शको का नाश करना एक आवश्यक कार्य था । पिछले काल में इसीलिए विक्रमादित्य का एक पर्याय 'शकारि” भी प्रचलित था ओर स्कंदगुप्त के समय में सौराष्ट्र के शकों का विनाश होना चक्रपालित के शिलालेख से स्पष्ट है परंतु यशोध्म्मं के समय में शकों _ का राज्य कहीं न था । यही बात 'राज-तरंगिणी' के 'शकान्विनाशय येनादौ _ कार्य्यं भारो लघक्ृतः' से भी ध्वनित होती है। मंदसोर वाले स्तंभ में यशो- धम्मं का शकों के विजय करने का उल्लेख नहीं है, हूणों के विजय का है। मंदसोर के यशोधरम्में के विजय स्तंभ का भी वही समय है जो वराहदास या विष्णुवद्धेन के शिलालेख का है। गोविद की उत्कीर्ण की हुई दोनों प्रशस्तियां हैं । उसका समय 532 ई० का है। मिहिरकुल ही भारी विदेशी - शत्र था, यह बात उक्त जयस्तंभ से प्रतीत होती है । मिहिरकुल 532 ई० के पहले पराजित हो चुका था तब वह कोन-सा युद्ध 544 में हुआ था--यह स्कदगृप्त / ।3 नहीं कहा जाता, जिसके द्वारा यशोधर्म्म के “विक्रम! होने की घोषणा की जाती है; इसीसे हार्नेली के विरुद्ध स्मिथ ने यशोधरस्म द्वारा मिहिरकुल के | पराजित होने का काल 528 ई० माना है। परंतु वे इस युद्ध को 'कहरूर- | युद्ध कहकर संबोधित नहीं करते । ऊहकूर 544 ई० में नहीं हुआ जैसाकि | फर्गसन, कीलहार्न, हानेली आदि का मत है, प्रत्युत् पहले--बहुत पहले 458 ई० के समीप दूसरी बार हो चुका है । संभवतः सौराष्ट्र के शक रु द्रसिह और गांधार के हूण तुङजीन की सम्मिलित वाहिनी को 'कहरूर-युद्ध में पराजित कर स्कदगुप्त ने आर्य्यावर्तत की रक्षा की थी। अच्छा, जब 528 ई में मिहिरकुल पर विजय निश्चित-सी हैं तब 'कहरूर-युद्ध' के ऊपर विक्रमा- दित्य को यशोधम्मे मानने वाला सिद्धांत निर्मल हो जाता है, क्योंकि 532 के विजयस्तंभ तथा शिलालेख में भालवगण स्थिति का उल्लेख हे-- विक्रम- संवत् का नहीं भर 532 के पहले ही यशोधम्मं हेण विजय करके सम्राट् आदि पदवी धारण कर चुका था; फिर 544 ईसवीय के किसी काल्पनिक युद्ध को आवश्यकता नहीं है। राजतरंगिणी' और 'सुंगयुन” के वर्णन मिलाने पर प्रतीत होता है कि हणी का प्रधान केद्र गांधार था । वहीं से हुण राजकुमार अपनी विजयिनी सेना लेकर भिन्न-भिन्न प्रदेशों मे ee _— R . न राज्य स्थापन करने गये । राजतरंगिणी काक्रम देखने सेतीन राजाओं का नाम आता है--मेधवाहन, तुञजीन भीर तोरमाण। गांधार के मेघवाहन के समय में काश्मीर उसके शासन में | | हो गया था । उसके पुत्र तुः्जीन ने काश्मीर की सूबेदारी की थी । यही | > | तुञ्जीन प्रवरसेन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने झेलम पर पुल बनवाया । | | | 'सेतुबंध' नामक प्राक्त काब्य इसी के नाम से अंकित है। गांधार- न | | वंशीय हुण का समय और स्कदगुप्त का समय एक है, क्योंकि उसके पुत्र | तोरमाण का काल 500 ई० स्मिथ ने सिद्ध किया है । संभवतः स्कंदगुप्त के | ढाराहुणों से काश्मीर राज्य निकल जाने पर मातृगुप्त वहां का शासक | | था। गा! | _ सह् उज्जयिनी नाथ, कुमा रगुप्त-महेंद्रादित्य का पुत्र स्कदगुप्त-विक्रमा- ||. “दित्य ही था--जिसने सोराष्ट्र आदि से शकों का और काश्मीर तथा सीमा- 'आंतसे हूणों का राज्य-&वंस किया और पनातन आय्य-धम्मं की रक्षा की-. 4 / स्कंदगृष्त — er म्लेच्छो से आक्तांत भारत का उद्धार किया । 'भितरी' के स्तंभ में अंकित --'जयति भुजबलाढयो गुप्तवंशेकवीरः । प्रथित विपुलधामा नामतः स्कंदगुप्तः। विनयबलसुनी तेविक्रमेण क्रमेण’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्कंदगुप्त-विक्रमादित्य ही द्वितीय 'कहरूर-युद्ध' का विजेता ‘ततीय विक्रम” पिछले काल के स्वर्णं के सिक्कों को देखकर लोग अनुमान करते हैं कि उसी के समय में हुणों ने फिर आक्रमण किया और स्कंदगुप्त पराजित हुए । वास्तव में ऐसी बात नहीं । तोरमाण के शिलालेखों कें संवत् को देखने से यह विदित होता है कि स्कंदगुप्त पहले ही निधन को प्राप्त हुए, और दुबल पुरगुष्त के हाथों में पड़कर तोरमाण के द्वारा गुप्त साञ्राज्य का विध्वंस किया गया और गोपाद्रि तक उसके हाथ में चले गये । कालिदास विक्रम के साथ कालिदास का कुछ ऐसा संबंध है कि एक का समय निर्धारण करने में दूसरे की चर्चा आवश्यक-सी हो जाती है । यह प्रतिपादित किया जा चुका है कि 57 ईसवीय पूर्व में मालव के प्रथम विक्रमादित्य हुए, ओर दसरे विक्रमादित्य का समय 385 (400 ?) ईसंबीय से 4।3 ईसवीय तक है । इनका संपूर्ण नाम श्री चंद्रगुप्त विक्रमादित्य है। ये मगघ के सञ्राट् थे। संभवतः इन्होंने अयोध्या को अपनी राजधानी बनायी थी । तीसरे विक्रमादित्य श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य थे। वतेमान मालव के प्रधान नगर उज्जयिनी को उन्होंने अपनी राजधानी बनायी थी। गुप्त राजवंश के अंतर्कलह का निवारण करने के लिए और हूणों तथा शको से घ्रायः मुठभेड रहने के कारण इन्हें मगध ओर कोशल छोड़ना पड़ा। कालिदास के संबंध में शी राजशेखर का एक श्लोक जल्हण की “सूक्ति मुक्तावली” और हरि- कवि की सुभाषितावली' में मिलता है— 'एकोपि जीयते हुंत कालिदासो न केनचित् । श्रृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदासत्रयी किमु' एकादश शताब्दी में उत्पन्न हुए, राजशेखर की इस उक्ति से यहु प्रकट स्कदगुप्त / ।5 तीज, | | | |... होता है कि उस शताब्दी तक तीन कालिदास हो चुके थे । परंतु वर्तमानः | आलोचकों का मत है कि का लिदास दो तो अवश्य हए हैं एक 'रघृवंश” | 'शाकूतल' आदि के कर्ता, और दूसरे नलोदय तथा 'पुष्पबाण? विलास bh आदि के रचयिता । | foe पह विभाग साहित्यिक महत्त्व की दृष्टि से किया गया है। श्वंगार | तिलक जैसे साधारण ग्रंथों को महाकवि कालिदास की कृति ये लोग नहीं | | मानना चाहते इसलिए एक छोटे कालिदास को मान लेना पडा । बड़ | कालिदास के लिए कुछ समीचीन समालोचकों का मत है कि ये 'शाकंतल' | भर. रघुवंश के कर्त्ता, चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय में हुए । ||| इतका मत है कि 'आसमुद्र क्षितीशानाम्” 'इदं नवोत्थानमिवेन्डरमत्य:? ज्योतिष्मतीचंद्रमसैव रात्रि:” इत्यादि स्थानों में (इंदु और “चंद्र” शब्दों hi रचयिता कालिदास छठी शताब्दी में रहे होगे । उनके नाम से प्रसिद्ध | ` ज्योतिविदाभ्रण' ग्रंथ को भी ज्योतिष संबंधी गणनाओं के अनुसार अनेक | | | लोगों ने यह स्थिर किया है कि यह ग्रंथ भी छठी शताब्दी का है, इसलिए My" इन ग्रंथों के रचयिता कालिदास छड़ी शताब्दी में उत्पन्न हुए और वे यशो- धम्मंदेव के सभांसद थे । इस तरह महाकवि कालिदास क्के संबध में तीन सिद्धांत प्रचलित है-- () 57 ईसवीय पूर्व में मालव में कालिदास हुए । (2) ईसाके चोथे शतक में चंद्र गुप्त द्वितीय मगध नरेश के समकालीन !6 / स्कंदगुप्त अमर पी क द कका... डड डा क कयाय कालिदास थे । (3) मालव नरेश यशोधम्मंदेव के सभासद थे । , शृंगार तिलक' आदि ग्रंथों के कत्त कालिदास को प्रायः सब लोग इन महाकवि कालिदास से भिन्न और सबसे पीछे का--संभवतः नवम् या दशम् शताब्दी का मानते हैं । हम महाकवि कालिदास के संबंध में ही विवेचन किया चाहते हैं । मालव के प्रथम विक्रमादित्य को लोग इसलिए नहीं मानते कि उनका कहीं ऐतिहासिक उल्लेख उन लोगों को नहीं मिला, और विक्रम-संवत् प्राचीन शिलालेखों में मालबगण के नाम प्रचलित हैं । परंतु ऊपर यह प्रमा= णित कियागया है कि वास्तव में 57 ई० पूर्वे में एक विक्रमादित्य हुए। इस मत को न मानने वाले विद्वानों ने विक्रमादित्य को 'चंद्रगृप्त द्वितीय कहकर कालिदास का समय निर्धारित करने का प्रयत्त किया है। “रघुवंश में जिस संकेत से गुप्तबंशी सञ्राटों का उल्लेख है, उसकी संगति इस प्रकार लगायी गयी । परंतु आश्चयं की बात है कि चंद्रगुप्त का समय प्रमाणित करने के लिए जो अवतरण दिये गये हैं उनमें चंद्रगुप्त का तो स्पष्ट उल्लेख है ही नहीं, हां, कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त का उल्लेख अधिक ओर स्पष्ट है। यदि वे सब संकेत भी गुप्तवंशियों के ही संबंध में मान लिए जायें, तो यह समझ में नहीं आता कि चंद्रगुप्त द्वितीय के समसामयिक कवि ने भावी राजाओं का दर्णन कॅसे कर दिया, जबकि गुप्तवंश में उत्तराधिकार का नियम निश्चित नहीं था किज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी हो? समुद्रगुप्त अपनी योग्यता से ही युवराज हुए ओर चंद्रगुप्त भी, तब रघुवंश में कुमार और उनके बाद स्कंदगुप्त का वणन केसे आया ? चंद्रगुप्त के समय गुप्त साम्राज्य का यौवनकाल था, फिर अग्निवणे जेसे राजा का चरित्र दिखा- कर “रघुवंश” का अंत-_-चंद्रगुप्त के समसामयिक और उनकी सभा के कालिदांस--क॑से लिख सकते हैं ? वास्तव में रघुवंश की-सी दशा गुप्तवंश की हुई । अग्निवर्णे के समान ही पिछले गुप्तवंशी विलासी और हीन वैभव हुए। तब यह मानना पड़ेगा कि गृप्तवंश का ह्लास भी कालिदास ने देखा था, भऔर--तब रघुवंश की रचना की थी। ईसवी पूर्वं पहली शताब्दी के कालिदास के लिए भी उधर प्रमाण स्कंदगुप्त / 37: मिलते हैं। इसलिए यह समस्या उलझती जा रही हे, इसका मूल कारण है--एक हो कालिदास को काव्य और नाटकों का कर्ता मान लेना। हमारी सम्मति में काव्यकार कालिदास ओर नाटककार कालिदास मि न्न- भिन्न थे और नलोदय आदि के कर्त्ता कालिदास अंतिम और तोसरे थे | इस प्रकार जल्हण को 'कालिदास-त्रयी' का भी समर्थन हो जाता है । और, सब पक्षों के प्रमाणों की संगति भी लग जाती है। यद्यपि 'शाकूतल' और 'रघुवंश' का श्रेय एक ही कालिदास को देने का संस्कार बहुत ही प्राचीन है। विश्व साहित्य के इन दो ग्रंथ-रत्नों का कर्ता एक कालिदास कोन मानने से श्रद्धा बंट जाने का भय इसमें बाधक है । परंतु पक्षपात और रूढ़ि को छोड़कर विचार करने से यह बात ठीक ही जंचेगो । हम ऊपर कह् आये हैं कि कालिदास तीन हुए, परंतु जो लोग दो ही मानते हैं, बे ही बता सकते हैं कि प्रथम कालिदास तो महाकवि हुए और उन्होंने उत्त- मोत्तम नाटक तथा काव्य बना डाले, अब वह कौन-सी बची हुई कृति है जिस पर द्वितीय कवि को 'कालिदास' की उपाधि मिली ? क्योंकि यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास की उपाधि “कालिदास? थी, न कि उनका नाम कालिदास था। जैसी प्रायः किसी वतमान कवि को, उसकी शेली की उत्तमता देखकर किसी प्राचीन उत्तम कवि के नाम से संबोधित करने की प्रथा-सी है । अस्तु ! हम नाटकळार कालिदास को प्रथम और ईसा पूर्व का कालिदास मानते हैं। कारण-- (।) नाटककार कालिदास ने गृप्तवंशीय किसी राजा का संकेत से भी उल्लेख अपने नाटकों में नहीं किया । (2) 'रघुवंश' आदि असुरों के उत्पात और उनसे देवताओं की रक्षा के वर्णेन सें भरा साहित्य है। नाटकों में उस तरह का विश्लेषण नहीं। काव्यकार कालिदास का समय हूणों के उत्पात और आतंक से पूर्ण था । नाटकों में इस भाव का विकास इसलिए नहीं है कि वह शकों के निकल जाने पर सुख-शांति का काल है। 'मालविकागिनि मित्न' मे सिधु-तट पर विदेशी थवनों का हराया जाना मिलता है। यवनों का राज्य उस समय उत्तरी भारत से उखड़ चुका था । “शकुंतला” में हस्तिनापुर के सञ्जाट् 'वनपुष्प’ _ माला-धारिणी थवनियों से सुरक्षित दिखायी देते हैं। यह संभवतः उस ।8 / स्कंदगृप्त प्रथा का वर्णन है जो यवन सिल्यूकस-कन्या से चंद्रगुप्त का परिणय होने पर मोय्यें और उसके बाद शुग-वंश में प्रचलित रही हो। यवनियो का व्यवहार क्रीत दासी और परिचारिकाओं के रूप में राजकुल में था। यह काल ईसा पूर्वे पहली शताब्दी में रहा होगा । नाटककार कालिदास 'माल- विकार्निमित्र' में राजसूय का स्मरण करने पर भी बोद्ध प्रभाव से मुक्त नहीं थे । क्योंकि शक्ंतला में धीवर के मुख से कहलाया है--'पशुमारणकम्भं दारुणोप्यनुकम्पा मृदुरेव श्रोत्रियः'--और भी--'सरस्वती श्रृतिमहती न हीयताम् --इन शब्दों पर बोद्ध धर्म की छाप है। नाटककार ने अपने पूर्व- वर्ती नाटककारों के जो नाम लिए हैं, उनमें सौमिल्ल और कविपूत्र के नाट्यरत्नों का पता नहीं। भास के नाटकों को चाँथी शताब्दी ईसा पूव माना गया है । (3) नाटककार ने 'मालविकार्तिमित्र' की कथा का जिस रूप में वर्णन किया है, वह उसके समय से बहुत पुरानी नहीं जान पड़ती । शृंगवं शियों के पतन-काल में विक्रमादित्य का मालवगण के राष्ट्रपति के रूप में अभ्युदय हुआ। उसी काल में कालिदास के होने से शुंगों की चर्चा बहुत ताजी-सी मालूम होती है। (4) 'जामित्र' भौर 'होरा' इत्यादि शब्द जिनका प्रचार भारत में इसा को पांचवीं शताब्दी के समीप हुआ, नाटक में नहीं पाये जाते और 'शाकूंतल' की जिस प्रति का हम उल्लेख कर चुके हैं उसमें स्पष्टरूपेण विक्रमादित्य से गणराष्ट्र का संबंध संकेतिक है और कालिदास का उस नाटक का स्वयं प्रयोग करना भी ध्वनित होता है। यह अभिनय 'साहसांक' उपाधिकारी विक्रमादित्य नाम के मालव-गणपति की परिषद् में हुआ था। इसलिए नाटककार कालिदास ईसा पूर्वं पहलो शताब्दी के हैं। (5) नाटकों को प्राकृत में मागधी-प्रचर प्राकृत का प्रयोग है। उस प्राकृत का प्रचार भारत में सँकड़ों वर्ष पीछे कहां था? पांचवीं-छठी शताब्दी में महाराष्ट्री प्राकृत प्रारंभ हो गयी थी और उस काल के ग्रंथों में उसो का व्यवहार मिलता है। 'शाकूंतल' आदि की प्राकृत में बहुत से प्राचीन प्रयोग मिलते हैँ जिनका व्यवहार छठी शताब्दी में नहीं था । इसलिए नाटककार कालिदास का होना, विक्रमादित्य प्रथम (मालव- स्कंदगृप्त / ।9 पति) के समय - ईसा पु पहली शताबदी में ही निर्धारित किया जा सकता हैँ ॥ काव्यकार कालिदास अनुमान से पांचवीं शताब्दी के उत्तराद्ध और छठी शताब्दी के पूर्वाद्धे में जीवित थे । वे काण्मीर के थे, ऐसा लोगों का मत हे । मेघदूत” में जो अलका का बर्णन है, बह काइमीर-विसोग का बर्णन है । यदि ये काश्मीर केन होते तो विल्हण को यह लिखने का साहस न होत्रा-- 'सहोदरा ककुमकेसराणां सार्धन्तनूनं कविताविल्लासा । न शारदादेशमपास्य दुष्टस्तेषां यदन्यत्र मयाप्र रोहः ॥' पांच सो वर्षे के प्राचीन “पराक्रम वाहु चरित्र' में इसका उल्लेख है कि सिहल के राजकुमार धातुसेन (कुमारदास ) से कालिदास की बड़ी मिल्रता थी। उसने कालिदास को वहां बुलाया । (महावंश के अनुसार इनका राज्य- काल 5] से 524ई० तक है) यह राजा स्वयं अच्छा कवि था । 'जानकी हरण इसका बनाया हुआ ग्रंथ है । 'जानको हरणं कर्त्त रघुवंशे स्थिते सति कवि कुमारदासो वा रावणो वा यदिक्षम:' सोढ्डल की बनायी हुई 'उदय-सुंदरी-कथा' में एक श्लोक है--- ख्यातः कृती कोपि च कालिदासः शुद्धा सुधास्वादुमती च यस्य वाणीमिषाच्चण्ड मरीचिगोव्र सिन्धोः परम्पारमवाप कीतिः । वभुवुरन्येपि कुमारदासः'--इत्यादि । हमारा अनुमान है कि 'सिंधोः परंपार' में कालिदास और कुमारदासः के संबंध की ध्वनि है । 'ज्योतिविदाभरण' को बहुत-से लोग ईसवीय छटा शताब्दी का बना हुआ मानते हैँ और हम-भी कहते हैं कि वह ईसवीय पांचवीं शताब्दी, के अंत और छठी के प्रारंभ में होने वाले कालिदास की कृति है । नाटककार के पीछे भिन्न एक दूसरे कालिदास के होने का, .ओर केवल काव्यकार का, उसमे एक स्पष्ट प्रमाण है। | काव्यत्रयं सुमतिकृद्रचुवंश पुर्व पर्व ततोननुकियच्छू, तिकम्मंवाद: । ज्योतिविदाभरण कालविधानशास्त्रं श्रीकालिदास कवितोहि ततोबभुव ॥, 20 / स्कंदगृप्त की. हे | इस श्लोक में छठी और पांचवीं शताब्दी के ज्योतिविदाभरणकार कालिदास अपने को केवल काव्यत्रयी का ही कर्त्ता मानते हैं, नाटकों का नाम नहीं लिया है। इसलिए यह दूसरे कालिदास-नपसखा कालिदास या दीप- ` शिखा कालिदास कहिए-पांचवीं-छठी शताब्दी के कालिदास हैं । 'अस्ति- कश्चिद्वाग् विशेषः’ वाली किंवदंती भी यही सिद्ध करती है कि काब्यकार कालिदास नाटककार से भिन्न हुए । 'कालिदास' उनकी उपाधि हुई परंतु बास्तविक नाम क्या था? 'राजतरंगिणी' में एक 'विक्रमादित्य' का वर्णन है, जिसने प्रसन्न होकर काश्मीर देश का राज्य 'मातृगुप्त' नाम के कबि को दे दिया । डॉक्टर भाउदा जी का मत है कि यह मातृगुप्त ही कालिदास है। मेरा अनुमान है कि समातगुप्त कालिदास तो थे, परंतु द्वितीय ओर काव्यकर्त्ता कालिदास थे । प्रवरसेन मातृगुप्त और विक्रमादित्य--ये परस्पर समकालीन व्यक्ति छठी शताब्दी के माने जाते हैं । महाराष्ट्रीय भाषा का काव्य 'सेतुबंध' (दह मुह बह) प्रवरसेन के लिए कालिदासने बनाया था । ऊपर हम कह् आये हैं कि माठृगुप्त का वही समय है जो काश्मीर में प्रवरसेन का है। इसका नाम 'तुंजीन' भी था। संभवतः इसी की सभा में रहकर कालिदास ने अपनी जन्मभूमि काश्मीर में यह अपनी पहली कृति बनायी, क्योंकि उस समय प्राकृति का प्रचार काश्मीर में अधिक था और यह वही प्राकृत है, जो उस समय समस्त भारतवर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवहृत थी, इसलिए इसका नाम महाराष्ट्री था । कुछ लोगों का विचार हैं कि यह काव्य कालिदास का नहीं है क्योंकि पहले विष्णु की स्तुति के रूप में मंगलाचरण किया गया है, परंतु यह तर्क निस्सार है। कारण, “रघुवंश” में विष्णु की स्तुति कालिदास ने की है भौर 'सेतुबंध' में तो स्पष्ट खूपसे लिखा है कि 'इ अ सिरि पवर सेण विरइए कालिदास कए ।” जब यह काव्य प्रवरसेन के लिए बनाया गया तो यह आवश्यक है कि उनके आराध्य विष्णु की स्तुति की जाय । प्रवर- सेन ने जयस्वामी नामक विष्णु की मूर्ति बनवायी थी । वस्तुतः कालिदास के लिए शिव और विष्ण में भेद नहों था। जंसाकि हम ऊपर कह आये हैं, शाकुंतल के प्राकृत से 'सेतुबंध' की प्राकत अत्यंत अर्वाचीन है, इसलिए उसे. स्कदगुप्त / 2] काव्यकार कालिदास का मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है। कालिदास के | संस्कृत काव्यों तथा इस महाराष्ट्री काव्य में कल्पना-शैली और भाव का भी साम्य है। कुछ उदाहरण लीजि ९— वेदेहि पश्यामलया दिभक्तंमत्सेतुनाफेनिलम्बुराशिम् = (रघुवंश) दीसई सेउ महा वह॒ दोहा इअ पुञ्व पच्छिम दिसा भाअम-- (सेतुबंघ) छाया पथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशम [विष्कृत चारुतारम -- (रघुबंज्ञ) मलअसुवलालग्गो पडिटिठओ णहणि हम्मिस्तागर सलिले-( सेतुबंध ) | रत्नच्छाया व्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात-- (मेघदूत ) hl णिअअच्छाआवइ अरसामलइअसाअरोअर जलद्कत _.. (सेतुबंध) | ऐसा जान पड़ता है कि किसी कारण से प्रवरसेन और मातृगुप्त ( कालिदास) | में अनबन हो गयी, और उसे राज्यसभा तथा काश्मीर को छोड़कर मालवा ताना पड़ा । शास्त्री महोदय के उस मत का निराकरण किया जा चुका है कि यशोधम्मंदेव विक्रमादित्य न हीं थे। फिर संभवतः इन्हें स्कंदगुप्त | विक्रमादित्य का ही आश्रित मानना प इंगा । क्योंकि तुंजीन और तोरमाण ॥ के समय में काश्मीर आपस के विग्रह के कारण अरक्षित था। उज्जयिनी के विक्रमादित्य के लिए यह मिलता भी है कि उसने 'सक श्मी रांसकौबे री | काष्ठाश्च करदीकृता' । यह् स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की ही वदान्यता थी कि काश्मीर विजय करके उसे मातृगुप्त को दान कर दिया । Mi चीनी यात्री हुएन्सांग ने लिखा हे कि कुमारगुप्त की सभा में दिङ नाग | | के दादागुरु मनोरथ को हराने में कालिदास की प्रतिभा ने काम किया थ [। | | उमारणुप्त का समथ 455 ई० तक है। किशोर माठृगुप्त ने कुमारग॒प्त के | समय में ही विद्या का परिचय दिया । मनोरथ के शिष्य बसुबंधु और उनका ||| शिष्य विङनाग था, जिसने कालिदास क्रे का व्यों की कड़ी आलोचना की Mh थी। संभवतः उसी का प्रतिकार 'दिङ,नागानां पथिपरिहर न् स्थूल हस्ता- | | | म वलेपान्' से किया गया है क्योंकि प्राचीन टीकाकार मल्लिनाथ भी इसको | । | मानते हें । दि नांगका गुरु वसुबंधु अयोध्या के विक्रमादित्य का सुहृद था । . बौढ विद्वान परभार्थ ने उसकी जीवनी लिखी है । इधर वामन ने काव्या- | ! | लंकार-सूत्र-बृत्ति के अधिकरण 3 अध्याय 2 में साभिप्रायत्व का उदाहरण | देते हुए एक शलोकार्ध उद्धत किया है-- || | || || | ||| | | | 22 / स्कंदगुप्त च्य र कम 5 नमक ८८ कळ न आहे! - न - डली = कि ms ss ७०७० “कप —— अर कच्या 232 न अ: “चाळ टर >> जू सोऽयं सम्प्रति चन्द्रगुप्ततनयश्चंद्रप्रकाशो युवा जातो भूपतिराश्रयः कृतधियां दिष्टया कृतार्थेश्रमः' “आश्रय: कृतधियामित्यस्य वसुबंधु साचिव्योपक्षेप परत्वात्साभिप्रायत्वम् यह अयोध्या के विक्रमादित्य चंद्रगुप्तः का तनय चंद्रप्रकाश युवा कुमारगुप्त हो सकता है । वसुबंधु के गुरु मनोरथ का अंत और उसका सभा में पराजित होना स्वयं बौद्धों ने कालिदास के द्वारा माना है। इसी द्वेष से दिङनाग कालिदास कां प्रतिद्वंद्वी बना । अंब यह मान लेने में कोई भ्रम नहीं होता कि मातृगुप्त किशोरावस्था में कुमारगुप्त की सभा में थे। वही कालिदास -- स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के सहचर थे, कुमारगुप्त का नामांकित एक काव्य भी--कुमारसंभव बनाया । यह बात तो अब बहुत-से विद्वान् मानने लगे हैं कि कालिदॉस के काव्यों में गुप्तवंश का व्यंजना से वणेन है। हुणों के उत्पात और उनसे रक्षा करने के वर्णन का पूर्ण आभास कुमारसंभव में है। स्कंदगुष्त के भितरी वाले शिलालेख में एक स्थान पर उल्लेख है-- 'क्षितितलशयनीये येन नीता त्रियामा'--तो रघुवंश में भी मिलता है सललितकुसुमप्रबालश्य्यां, ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम् । ` नरपति रतिवाहयां वभूव क्वचिद् समेतपरिच्छद स्त्रियामाम्॥ स्कंदगुप्त के शिलालेखों में जो पद्य रचना है, वह ऐसी ही प्रांजल है जेसी रघुवंश की---“व्यपेत्य सर्वान्मनुजेन्द्र पुत्रान् लक्ष्मोः स्वयं यं वरयाचकारः इत्यादि मे रघुवंश की-सी ही शैली दीख पड़ती हैँ । “स्कंदेन साक्षा दिव देव- सेनाम्’ इत्यादि में स्कंदगृप्त का स्पष्ट उल्लेख भी हैं ओर कुमारगुप्त के तो ।. विक्रया दित्य इत्यासीद्वाजा पाटलिपुत्तके (कथा सरितासागर) यह द्वितीय चंद्रगूप्त विक्रमादित्य के लिए झाया है । बोद़ों ने श्रयोध्या में इस को राजधानी लिखा है । संभवतः मगध की साम्राज्य सीमा बढ़ने पर अयोध्या में सम्राट् कुछ दिनों के निए रहने लगे हों, परंतु उज्ज यिनी में इनका शासन होना किसी भी लेखक ने नहीं लिखा है। इनके पुत्र कूमारगुप्त ने 'महोदय' को विशेष प्राइर दिया; बयोंकि साम्राज्य धीरे-धीरे उत्तर-पश्चिम की श्रोर बढ़ रहा था ॥ वस्तुतः उस समय राज्य को उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ गुप्त सम्राट लोग कृसुमपुर की प्रधानता रखते हुए सुविधानूसार अपने रहने का स्थान बदलते रहे हैं, क्योंकि उन्हें सँनिक:केंद्रों का बराबर परिवतेंन करना पड़ता था । स्कंदगुप्त / 23 बहुत उल्लेख हैं। रघुवंश के 5, 6, 7 सर्गो में तो अज के लिए कुमार शब्द का प्रयोग कम से कम ।] बार है। म || विक्रमादित्य के जीवन के संबंध में यह् प्रसिद्ध है कि उनका अंतिम _।! | जीवन पराजय और दुखों से संबंध रखता है । वस्तुत: चंद्रगुप्त के जीवनं- | काल में साम्राज्य की वृद्धि के अतिरिक्त उसका ह्लास नहीं हुआ। यह | स्कदगृप्त के समय में ही हुआ कि उसे अनेक षड्यंत्रों, विपत्तियों तथा कष्टों | का सामना करना पड़ा । जिस समय पुरगृप्त के अंतबिद्रोह से मगध और || अयोध्या छोड़कर स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी | बनायी, और साम्राज्य का नया संगठन हो रहा था उसी समय मा तृगुप्त | को काश्मीर का शासक नियुक्त किया गया | यह समय ईसवीय सन् 450 से 500 के बीच पड़ता है। 467 ईसवीथ में स्कं दगृप्त विक्रमादित्य का अंत हुआ। उसी समय मातृगप्त (कालिदास) ने काश्मीर का राज्य स्वयं छोड़ दिया और काशी चले आये | अब बहुत-से लोग इस बात की शंका करंगे कि कहां उज्जयिनी, कहां मगध, कहां काश्मीर फिर काशी, और सब के बाद सिंहल जाना यह बड़ा दूरान्वय-संबंध है । परंतु उस काल में सिहल ओर भारत में बड़ा संबंध था । महाराज समुद्रगुप्त के समय में सिंहल | के राजा मेघवणं ने उपहार भेजकर बोध-गया में बिहार बनाने की प्रार्थना || की थी; महावंश और समुद्रगुप्त के लेख में इसका संकेत है और महाबोधि- | बिहार सिहल के राजकुल की कीति है । तब से सिहेल के राजकुमार और | राजकुल के भिक्षु इस विहार में बराबर आते रहते थे । बोध-गया से लाया गया पटना म्यूजियम में एक शिलालेख है--(नंबर 773 ), यह प्रमाण hi) श्रख्यातकोत्ति का है-'लङ्काद्वीप नरेद्राणां श्रवणः कुलजोभवत् । प्रख्यात- | कीत्ति धर्मात्मा स्वकुलांबर चन्द्रमा ।' महानामन् के शिलालेख से इसकी | पुष्टि होती है -- ॥ 'संयुकतागमिनो विशुद्धरजसः सत्वानुकम्पोद्यता | शिष्यायस्य सक्द्विचेरुरतुलांलंकाचलोपत्यकां तेभ्यः 'शीलगुणान्वितश्च शतशः शिष्याः प्रशिष्यःः क्रमात् | जातास्तूग नरेन्द्रवंश तिलकाः ्रोत्सृज्य राज्यश्चियम्' | जब राजङुल के श्रमण और राजपुत्र लोग यहां तीर्थ याता के लिए 24 / स्कदगृप्त बराबर आते थे, और संस्कत कविता का प्रचार भी रहा तब उस काल के सर्वोच्च कवि की मैत्री की इच्छा होनी स्वाभाविक है। और उस नष्टाश्रय महाकवि के साथ मैत्री करने में अपने को धन्य समझने वाले कुमारदास की कथा में अविश्वास का कारण नहीं है। यदि स्कंदगृप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी होकर राजमित्र के पास सिहल जाना इनका ठीक है, तो यह कहना होगा कि 'मेघदूत' उसी समय का काव्य है ओर देवगिरि की स्कंद- राज प्रतिमा उनकी आंखों से देखी हुई थी, जिनका वर्णेत उन्होंने 'देवपूर्व- गिरि ते” वाले श्लोक में किया है । पदि 524 ईसवीय तक कालिदास का जीवित रहना ठीक है तो उन्होंने गप्तवंश का ह्लास भी भली भांति देखा अथवा सुना होगा। रघुवंश में वेसा ही अंतिम पतनपूर्ण वर्णन भी है । कुमारदास का सिंहल का राजा उसी काल में होना और सिंहल में कालिदास के जाने की रूढ़ि उस देश में माना जाना, उधर चीनी यात्री द्वारा वणित कालिदास का मनोरथ को हराना, दिङनाग और कालिदास का ढे, विक्रमादित्य और मातृगुप्त की कथा का 'राजतरंगिणी' में उसी काल का उल्लेख, हुण-राजकुल में सुंगयुन के अनुसार विग्रह; काश्मीर युद्ध की देखी हुईं घटना--ये सब बातें आकर एक सूत्र में ऐसी मिल जाती हैं कि दूसरे काध्यकार कालिदास को--विक्रम-सखा, दीप शिखा कालिदास को-- माठृगुप्त मानने में कुछ भी संकोच नहीं होता जैसा डॉक्टर भाऊदा जी का मत है । विक्रमांक के समान भोज के पिता सिंधुराज की पदवी साहसांक थी । पद्मगृप्त परिमल ने नवसाहसांक-चरित बनाया था । तंजौर वाली 'साह- सांक-चरित' कीं प्रति में इनको भी कालिदास लिखा । बहुत संभव है कि यह तीसरे कालिदास बंगाल के हों, जेसाकि बंगाली लोग मानते हैं। ऋतुसंहार, पुष्पवाणविलास, श्वुङ्गार-तिलक और अश्वघाटी काव्यों के रचयिता संभवतः यही तीसरे कालिदास हो सकते हैं। --जयदांकर प्रसाद गुप्त राजवंठा श्री गुप्त (ई 275-300) (कोई इसका नाम केवल 'गृप्त' लिखते हैं, “श्री” सम्मान सूचक है) घटोत्कच गुप्त-- (ई० 300-320) | (इस नाम के साथ 'गुप्त' शब्द नहीं मिलता) चंद्रगुप्त-- (ई० 320-335) | (यही पहला स्वतंत्र गृप्तवंशी राजा हुआ। वैशाली के लिच्छिवियों के | यहां इंसका ब्याह हुआ) | | | समुद्रगुप्त--(ई० 335-385) i (गुप्तवंश का परम प्रतापी, भारत-विजेता सञ्राट्, राजसूय और अश्वमेध | यज्ञ किया) | | चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (ई० 385.473) (पाटलिपुत्र का विक्रमा दित्य, जिसे लोग चंद्र गुप्त द्वितीय विक्रमादित्य कहते हैं ) ऋमारगुप्त महेंद्र! दित्य (ई० 43-455) (मालव-विजेता, आख्या यिकाओं के विक्रमादित्य का पिता महेंद्रा दित्य) | | स्कदगुप्त विक्रमादित्य (ई० 555 पुरगुप्त प्रकाशादित्य (ई० 467-467) (उज्जयिनी का द्वितीय 469 ) (इसके सोने के सिक्कों पर हत विक्रमादित्य । महान वीर । इसके '“श्री विक्रमा: भी मिलता है। कक क: न्य, Se व्या चांदी के सिक्कों पर परम भागवत् परंतु प्रकाशादित्थ नामवाले सिक्के श्री विक्रमादित्य स्कंदगुप्त अंकित है) भी इसी के हैं, जिन्हें उज्जयिनी में स्कंदगुप्त के शासन-काल में मगध में इसने स्वतंत्र रूप से ढलवाये, फिर स्कंदगृप्त के मरने पर उसकी उपाधि “श्री विक्रम” भी ग्रहण कर ली होगी) नरसिहगप्त बालादित्य(ई ०469-473) (यह प्रथम बालादित्य है, जिसे राज- तरंगिणीकार ने भ्रम से विक्रमादित्य का भाई लिखा है। और, वह यशोधम्मे का भी समकालीन नहीं था) | कमारगप्त विक्रमादित्य (द्वितीय) ? (ई 473-477) (कई विद्वान कुमारगृप्त को स्कंदगुप्त का उत्तराधिकारी मानते हैं। परंतु यह ठीक नहीं । भितरी के 'सील' से यह स्पष्ट हो जाता है कि कूमारगृप्त द्वितीय पुरगुप्त का पुत्र था। सारताथ वाले शिलालेख का कुमारगुप्त ओर भितरी के 'सील' का कमार, दोनों एक ही व्यक्ति हैँ, जिसका उत्तराधिकारी बुधगृप्त था--जिसके राज्य में मालव पर् हूणों का अधिकार हुआ । मंदसोर के शिलालेख में जिस कूमारगुप्त का उल्लेख है, उस काल (493 वि०) में बंधुवर्म्मा का राज्य मालव प॑र था, उक्त 436 ई० में कूमारगुप्त प्रथम का स्कंदगुप्त / 27 राज्य था। और उसी कं । में जो 529 वि० का उल्लेख है, वह उस मंदिरके जीर्णोद्धार का है-- संस्का रित- i मिदंभुयः श्रेण्या भानुमतो गृहं से यह i स्पष्ट है) (| | |!” उेषगुप्त परावित्य ? ( ई० 477-494 ) | hy (इसके समय में मगध-सा्राज्य के बड़े- | HN बडे प्रदेश अलग हुए। इसका २ ज्य | i | केवल मगध अंग और काशी तक ही | | | a mn ~ ज्या रह गथा था) . hl तथागतगुप्त परमादित्य ? Hi (ई० 494-5I0) | | (जोन एलन के मतानुसार यहां | ४ का नाम होना चाहिए । परंतु | | हुएन्सांग ने लिखा है कि यशोधम्म॑ के | | साथ मिहरकूल को हराने वाले बाला- i दित्य के पिता का नाम तथागतगृष्त भानुगुप्त बालादित्य (ई 5I0-534) | जब हूणों से मालव का उद्धार यशो- | धम्मं देव ने किया उस समय मगध को इसी बालादित्य ने बचाया। इसी की ओर से भरिकिण में गोपराज ने युद्ध किया । सारनाथ में इसी का लेख | 28 / स्कदगुप्त मिला है--तदवंश संभवोन्यो बालादित्यो हज) ७ | वञ्चग्प्त प्रकटादित्व ? (ई० 534-440) (प्रकटादित्य वज्गरगुप्त की उपाधि है) इसी वज्भगुप्त के समय में मालव के शीलादित्य ने मगध छीन लिया तब से गुप्त वंश का प्राधान्य लुप्त हुआ । स्कंदगुप्त / 29 कि राजवठा सिह वर्म्मा (समुद्र गुप्त का समकालीन) | [oso चद्रवर्म्मा (पुष्करण-राज) नरवर्म्मा (मालव-राज) (गंगधार के शिलालेख में वणित स्वतंत्र नरेश) विश्ववर्मा (मालव-राज) | i | | बंधुवर्म्मा का भाई--भी मवर्मा बंधुवर्ममा (मालवराज) (संभवतः कौशांबी का सामंत राजा, (गुप्त साम्राज्य के अधीन हुआ) स्कदगुष्त का समसामयिक) पात्र स्कदगुप्त : युवराज (विक्रमादित्य कुमारगुप्त : मगध का सम्राट गोविदगुप्त कुमारगुप्त का भाई पुरग॒प्त कुमारगुप्त का छोटा पृत्र पर्णदत्त मगध का महानायक चक्रपालित पणेदत्त का पुत्न बधुवर्म्मा : मालव का राजा भोमवर्म्मा * बंधुवर्म्मा का भाई मातृगप्त काव्यकर्ता कालिदास प्रपंचबुद्धि : बौद्ध कापालिक दर्वताग : अंतवंद का विषयपति . धातुसेन (कुमारदास) : कुमारदास के प्रच्छन्न रूप में सिंहल का राजकुमार भटाकं : नवीन महात्रलाधिकृत पृथ्वोसेन मंत्री कुमारामात्य खिगिल हण आक्रमणकारी मुद्गल : विदूषक प्रस्यातकीत्ति : लंकाराज-कुल का श्रमण, महाबोधि-विहार का स्थविर (महाप्रतिहार, महादंडनायक, नंदीग्राम का देडनायक, प्रहरी, सैनिक इत्यादि) स्कंदगुप्त / 3| देवकी अनंतदेवी जयमाला देवसेना विजया कमला रामा मालिनी तल्ला ° कुमारगुप्त की बड़ी रानी-_ स्कदगुप्त की माता ` कुमारगुप्त की छोटी रानी ~ पुरगुष्त की माता ` वंधुवर्म्मा की स्त्री मालव की रानी * बैंधुवर्म्मा की बहिन मालव के धनकुबेर की कन्या भटाक की जननी शर्वनाग की स्त्री मातृगुप्त की प्रणयिनि (सखी, दासी, इत्यादि) प्रथम अंक दृश्य : एक [उज्जयिनी सें गुप्त-सास्राज्य का स्कंघावार ] : (टहलते हुए) अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है ! अपने को नियामक और कर्त्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती हैं! उत्संवों में परिचारक भौर अस्त्नों में ढाल से भी--अधिकार लोलुप मनुष्य कया अच्छे हैं ? (ठहरकर) उंह ! जो कुछ हो, हम साम्राज्य के एक सैनिक हैं । : (प्रवेश करके) युवराज की जय हो ! : आर्ये पणेदत्त का अभिवादन करता हूं । सेनापति की क्या आज्ञा है? : मेरी आज्ञा ! युवराज ! आप सम्राट के प्रतिनिधि हैं, मैं तो आज्ञाकारी सेवक हुं ! इस वृद्ध ने गरुडध्वज लेकर आय्य चंद्रगुप्त की सेना का संचालन किया हे । अब भी गुप्त-साञ्राज्य की नासीर सेना में-- उसी गरुडध्वज् की छाया में पवित्र क्षात्र धर्मका . पालन करते हुए उसी के मान के लिए मर मिट यही कामना है--गुप्तकुल-भूषण ! आशीर्वाद दीजिए, वृद्ध पणेदत्त को माता का स्तन्य लज्जित न हो। : आर्ये ! आपके वीरता की लेखमाला शिप्रा और /। 33 । न र कह क. या ह... "णा mm 7 0222000 जाळ. सिंधु की लोल-लहरियों से लिखी जाती है, शत्र भी उस वीरता की सराहना करते हुए सुने जाते हैं । तब भी सं देह ! : संदेह दो बातों से युवराज ! : वे कौन-सी हैं ? : अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासीनता और अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन । " क्या अयोध्या' का कोई नया समाचार है? : संभवतः सम्राट् तो कुसुमपुर चले गये हैं, और कुमारामात्य महाबलाधिकूत वीरसेन ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान कियां । : केया ! महाबलांधिकत अंब नहीं हैं ? शोक ! पक्त : अनेक समरों के विजेता, महामानी, गुप्त साम्राज्य के महाबलाधिकृत अब इस लोक में नहीं हैं | इधर प्रौढ़ सम्राटू के विलास की मात्रा बढू गयी है । * चिता क्या आर्य्य ! अभी तो आप हैं तब भी मैं ही सब विचारों का भार वहन करूँ; अधिकार का उपयोग करू ! वह भी किसलिए ? : किसलिए? त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिए, सतीत्व के सम्मान के लिए, देवता-ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास के लिए, आतंक से प्रकृति को भाषश्वासनःदेने के लिए--- आपको अपने अधिकार का उपथोग करना होगा । युवराज ! इसी- लिए मैंने कहा था कि आप अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हैं, जिसकी मुझे बड़ी चिंता है । गुप्त-साम्राज्य के भावी शासक को अपने उत्तरदायित्व का ध्यान नहीं ! : सेनापते ! प्रकृतिस्थ होइए। परम भट्टारक महाराजाधिराज- अश्वमेध-पराक्रम श्रीकुमारगुप्त महेंद्रादित्य के सुशासित राज्य की सुपालित प्रजा को डरने का कारण नहीं है । गुप्त-सेना की मर्यादा की रक्षा के लिए पर्णदत्त सदृश महा- वीर अभी प्रस्तुत हैं । राष्ट्रनीति; दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है । इस 34 / म्कंदगुप्त पण दत्त चक्रपालित ड स्कदगुप्त : चक्रपालित चक्रपालित कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है । गुप्त- साम्राज्य को उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी बढ़ गया हे, पर उस बोझ को उठाने के लिए गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नहीं, क्योंकि साम्राज्य लक्ष्मी को वे अब. अनायास ओर अवश्य अपनी शरण आने वाली वस्तु समझने लगे हैं । : आर्यं ! इतना व्यंग.न कीजिए, इसके कुछ प्रमाण भी हैं ? : प्रमाण ¦ प्रमाण अभी खोजना है? आंधी आने के पहले आकाश जिस तरह स्तंभित हो रहता है, बिजली गिरने से पुवं जिस प्रकार नील कादंबिनी का मनोहर आवरण महा- शुन्य पर चढ़ जाता है, क्या वेसी ही दशा' गुप्त-साम्राज्य की नहीं है ? : क्या पुष्यमित्रों के युद्ध को देखकर वृद्ध सेनापति चकित हो रहे हैँ ? (हंसता है) : युवराज ! व्यंग न कीजिए । केवल पृष्यमित्रों के युद्ध से ही इतिश्री न समझिए, म्लेच्छों के भयानक आक्रमण के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। चरों ने आज ही. कहा है कि कपिशा को श्वेत हुणों ते पादाक्रांत कर लिया, तिस पर भी युवराज पूछते हैं कि 'अधिकारों का उपयोग किस- लिए ?' यही 'किसलिए' प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुप्तकुल के शासक इस साम्राज्य को “गले पड़ी” वस्तु समझने लगे हैं। [चक्रपालित का प्रवेद् (देखकर) अरे, युवराज भी यही हैं! युवराज की जय हो ! | आओ चक्र ! आय्य पणंदत्त ने मुझे घबरा दिया है । : पिता जी ! प्रणाम--कंसी बात है? पणदत्त : कल्याण हो, आयुष्मन् ! तुम्हारे युवराज अपने अधिकारों से उदासीन हैं । वे पछते हैं 'अधिकार किसलिए ?! : तात ! इंस 'किसलिए! का अर्थ मैं समझता हैं । स्कंदगुप्त / 35 पर्ण दत्त : चर : पणंदत्त : चर स्कदगुप्त द्त न र : क्या? * गुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्तराधिकार-नियम ! ` चेक, सावधान ! तुम्हारे इस अनुमान का कुछ आधार भी है? ` युवराज ! यह अनुमान नहीं है, यह ्रत्यक्ष-सिद्ध है । : (गंभीरता से) चक्र | यदि यह बात हो भी, तब भी तुमको न बना देना । : आर्य्य पणंदत्त, क्षमा कीजिए । हदय को बातों को राज- नीतिक भाषा में व्यक्त करना---चक्र नहीं जानता । ठीक है, कितु उसे इतनी शीघ्रता नहीं करनी चाहिए । (देखकर) चर आ रहा है, युद्ध का कोई नया समाचार है क्या ? (प्रवेश करते) युवराज की जय हो ! क्या समाचार है ? ` अबको वार पुष्यमित्रों का अंतिम यत्न है। वे अपनी समस्त शक्ति संकलित करके बढ़ रहे हैं। नासीर-सेना के नायक ने सहायता मांगी है । दशपुर से भी दूत आया है । ` अच्छा जाओ, उसे भेज दो । (जाता है। दशपुर के दूत का प्रवेश ) ` उवराज भट्टारक की जय हो ! स्कदगष्त ; दृत : मालवपति सकुशल हैं ? कुशल आपके हाथ है ! महा राज विश्ववर्मा का शरीरांत ही गया है। नवीन नरेश महाराज बंधुवर्म्मा ने साभिवादन श्रीचरणों में संदेश भेजा है । खेद ! ऐसे समय में, जबकि हम लोगों को मालवपति से सहायता को आणा थी, वे स्वयं कोटुंबिक आपत्तियों में फंस गये हूँ । 36 / स्कंदगृप्त | | | स्कदगुप्त स्कंदगुप्त : इतना ही नहीं, शक-राष्ट्रमंडल चंचल हो रहा है, नवागत म्लेच्छवाहिनी से सौराष्ट्र भी पादाक्रांत हो चला है, इस कारण पश्चिमी मालव भी अब सुरक्षित न रहा । (स्कं दगुष्त पर्णदत्त की ओर देखते हैं) | : वलभी का क्या समाचार है? ः वलभी का पतन अभी रुका है। कितु बर्बर हुणों से उसका बचना कठिन है । मालव की रक्षा के लिए महाराज बंधु- वर्म्मा ने सहायता मांगी है । दशपुर की समस्त सेना सीमा पर जा चको है । : मालव और शक युद्ध में जो संधि गुप्त-साम्राज्य और मालवराष्ट्र में हुई है, उसके अनुसार मालव की रक्षा गृप्त- सेना का कत्तव्य है। महाराज विशववर्म्मा के समय से ही सञ्नाट कुमारगुप्त उनके संरक्षक हैं। परंतु दत! बड़ी कठिन समस्या है । : विषम अवस्था होने पर भी युवराज ! साम्राज्य ने संरक्षकता का भार लिया है। . : हूँत ! क्या तुम्हें विदित नहीं है कि पुष्यमित्रों से हमारा युद्ध चल रहा है ! : तब भी मालव ने कुछ समझकर--किसी आशा पर ही अपनी स्वतंत्रता को सीमित कर लिया था । * हृत ! केवल संधि-नियम से ही हम लोग बाध्य नहीं हैं--- शरणागत की रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है । तुम विश्राम करो । सेनापति पर्णदत्त समस्त सेना लेकर पुष्यमित्रा की गति रोकेगे। अकेला स्कंदगृप्त मालव की रक्षा करने के लिए सन्नद्ध है। जाओ निर्भय निद्रा का सुख लो । स्क॑द- गुप्त के जीते-जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा । हुत ; धन्य युवराज ! आरय्य-साञ्राज्य के भावी शासक के उपय्क्त ही यह बात है ! (प्रणाम करके जाता है) पर्णदत्त ; युवराज ! आज यह वृद्ध, हृदय से प्रसन्न हुआ और गुप्त स्कंदगुप्त / 37 का णा | 2 I ह ` ol | | || | | | | | J] | || }| | | | | || || धातुसेन : धातुसेन : चक्रपालित : स्कंदगुप्त : ॥५ पर्णदत्त : कुमारगृप्त : कुमारगृप्त : धातुसेन : साम्राज्य की लक्ष्मी भी प्रसन्न होंगी । है। किसी दूसरे सैनिक को भेजिए जाने की अनुमति हो । नहीं चक्र, तुम विजयी होकर मुझसे मालव में मिलो । । मुझें युवराज के साथ' ध्यान रखना-- राजधानी से अभी सहायता नहीं मिलती । | हुम लोगों को इस आसन्न विषद् में अपना ही भरोसा है ! कुछ चिता नहीं युवराज ! भगवान् सब मंगल करेंगे । चलिए, विश्राम करें । दृश्य : दो [ क्सुमपुर के राज-मंदिर में सम्राट पाष द् ] परम भट्टारक! आपने भी स्वयं इतने विकट युद्ध किये हैं। मैंने समझा था, राज-सिंहासन पर बैठ-बैठे राजदंड हिला देने से ही इतना बड़ा गुप्त साम्राज्य स्थापित हो गया था, परंतु"** (हंसते हुए) तुम्हारी लंका में अब क्यों धातुसेन ? यदि राक्षस कोई थां तो विभीषण था, ओर बंदरों में भी एक सुग्रीव हो गया । दक्षिणापथ आज भी उनकी करनी का फल भोग रहा है । परंतु हां, एक आश्चर्य की बात है कि महामान्य परमेश्वर परम भट्टारक को भी युद्ध करना गड़ा । सुना था रामचंद्र ने तो-जब वे युवराज भी न थे तभी युद्ध किया था। सम्राट होने पर भी युद्ध ! युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है। अच्छा, तो स्वर्गीय आय्य समुद्रगुप्त ने देवपुत्रो तक का कुमारगुप्त ओर उनके राक्षस नहीं ' बसते -- 38 / स्कंदगुप्त तात ! पुष्यमित्र-युद्ध का अंत तो समीप है। विजय निश्चित | | ॥ | | | | चत {| { । क क कमारगप्त : धातृसेन : | कमारगृप्त : धात्सेन : है फुमारगण्त : | घातुसेन : | | पृथ्वीसेन . कुमारग॒प्त : घातुसेन : कुमारगृप्त : ब्लड 'राज्य-विजय किया था सो उनके लिए परम आवश्यक था ? क्या पाटलिपुत्र के समीप ही वह राष्ट्र था । तुम भी बालि की सेना में से कोई बचे हुए हो ! परम भट्रारक की जय हो ! बालि की सेना न थी, और वह युद्ध न था। जब उसमें लड़ड़ खाने वाले सुग्रीव निकल पड़े, तब फिर"** क्यो # कक उनकी बड़ी सुंदर ग्रीवा में लडडू अत्यंत सुशोभित होता था और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिए--उनकी तारा का मंत्रित्व। सुना है सम्राट ! स्त्री की मंत्रणा बड़ी अनु- कल और उपयोगी होती है, इसीलिए उन्हें राज्य की झंझटों से शीघ्र छुट्टी मिल गयी। परभ भट्टारक की दुहाई ! एक स्त्री को मंत्री-आप भी बना लें, बड़े-बड़े दाढ़ी-मूंछ वाले मंत्रियों के बदले उसकी एकांत मंत्रणा कल्याणकारिणी होगी ? £ (हंसते हुए) लेकिन पृथ्वीसेन तो मानते ही नहीं । तब मेरी सम्मति से वें ही कुछ दिनों के लिए स्त्री हो जायं, क्यों कुमारामात्य जी ? पर तुम तो स्त्री नहीं हो जो मै तुम्हारी सम्मति मानल ! (हंसता हुआ) हां, तो आर्ये समुद्रगुप्त को विवश होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा; क्योंकि मौर्य साम्राज्य के समय से ही सिंधु के उस पार का देश भी भारत-साम्राज्य के अंतर्गत था। जगद्विजेता सिकंदर के सेनापति सिल्यूकस से उस प्रांत को मौर सम्राट् चंद्रगुप्त ने लिया था । फिर तो लड़कर ले लेने की एक परंपरा-सी लग जाती है । उनसे उन्होंने, उन्होंने उनसे, ऐसे ही लेते चले.आये हैं । उसी प्रकार आर्य्य*** उंह ! तुम समझते नहीं । मनु ने इसकी व्यवस्था दी है । स्कंदगृप्त । 39 घातुसेन : भटाकं : सुद्गल : ।! | hl | 3/ || hh WRN 4 ||| | hii | री लडकर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व हे । संसार में इसी का बोलबाला हे । नहीं तो क्या रोने से, भीख मांगने से कुछ अधिकार मिलता है ? जिसके हाथ में बल नहीं, उसका अधिकार ही कैसा ? और यदि मांगंकर मिल भी जाय, तो शांति की रक्षा कौन करेगा ? (अवेश करके) रक्षा पेट कर लेगा, कोई दे भी तो । अक्षय तृणीर, अक्षय कबच सब लोगों ने सुना होगा; प रंतु इस क्षय मंजूषा का हाल मेरे सिवा कोई नहीं जानता ! * परम भट्टारक की जय हो ! मुझे कुछ निवेदन करना है— यदि आज्ञा हो तो'** : हां-हां, कहिए ! : शिप्रा के इस पार साम्राज्य का स्कंधावार स्थापित है। मालवेश का दृत भी बता गया है कि 'हुम ससँन्य युवराज के सहायतां पर्तत हैँ !” महानायक पर्णदत्त ने भी अनुकूल समाचार भेजा है । मैं स्वयं ही इसे ठीक कर लेता हं । : साधु ! महासंधिविग्रहिक--यह वेश-परंपरागत तुम्हारी ही विद्या है। * सम्राट के श्रीचरणो का प्रताप है । सौराष्ट्र से भी नवीन समाचार मिलने वाला है । इसीलिए युवराज को वहां भेजने का मेरा अनुरोध था । 40 / स्कंदगुष्त | पशथ्वीसेन : ) भटक कमारणुप्त : धातुसेन : कुमारगुऱ्त मुद्गल 3: कमारग॒प्त ; : सौराष्ट्र की गतिविरि [विधि देखने के लिए एक रणदक्ष सेनापति . को आवश्यकता है । वहां शक राष्ट्र बड़ा चंचल अथच भया- नक है । (गढ़ दृष्टि से देखते हुए) महाबलाधिकृत ! आवश्यकता होने पर आपको वहां जाना ही होगा, उत्कंठा की आवश्य- कता नहीं । : नहीं | मैं तो**' महाबलाधिकृत ! तुम्हारी स्मरणीय सेवा स्वीकृत होगी। अभी आवश्यकता नहीं । (हाथ जोड़कर) यदि दक्षिणापथ पर आक्रमण का आयोजन हो तो मुझे आज्ञा मिले । मेरा घर पास है--स्वच्छंदता- पूवेक लेट रहूंगा, सेना को भी कष्ट न होने पावेगा। (सब्र हंसते हैं) : जय हो देव ! पाकशाला पर चढ़ाई करनी हो तो मुझे आज्ञा मिले । में अभी उसका सर्वंस्वांत कर डालूं। [फिर सब हंसते हैं। गंभीर भाव से अभिवादन करते हुए एक ओर प॒थ्वीसेन और दूसरी ओर भटाक का प्रस्थान] मुद्गल ! तुम्हारा कुछ"*` महादेवी ने प्रार्थना की है कि युवराज भट्टारक की कल्याण कामना के लिए चक्रपाणि भगवान के पूजा की सामग्री प्रस्तुत है--आय्ये पुत्र कत्र चलेंगे ? (मुंह बनाकर) आज तो कुछ पारसीक नत्तंकियां आने वाली हैं, अपानक भी ! महादेवी से कह देना, असंतुष्ट न हों, कल चलूंगा । समझा न मुद्गल ? : (खड़ा होकर) परमेश्वर परमभट्टारक की जय हो ! (जाता है) : वह चाणक्य कुछ भांग पीता था । उसने लिखा है कि राजपुत्र भेड़िये हैं, इनसे पिता को सदेव सावधान रहना स्कंदगुप्त / 4] चाहिए । । कुमारगृय्त : यह राष्ट्रनीति है । (अनंतदेवी का चुपचाप प्रवेश) | धातुसेन : भूल "या, उसके बदले उस ब्र ह्ण को लिखना था कि राजा लोग ब्याह ही न करे, क्यों भेड़ियों जेसी संतान उत्पन्न हों? अन॑ंतदेवी : (सामने भाकर) आर्यं पुत्र की जय हो ! [ घातुसेन भयभीत होने जसा मुह बनाकर चुप हो कुमारगुप्त : आओ प्रिये ! खोज ही रहा था । | भनतदेकी : नत्तंकियों को डुलवाती आ रही हूं । ऊमारामात्य आदि थे, मंत्रणा में बाधा ” “ति-वृझकर देर लगायी! आपको तो देखती हैं कि अवकाश ही नहीं। ( धातुसेन की ओर क्रुध होकर देखती है) इभारगुष्त : वह अबोध विदेशी हँसोड़ है। NB धातुसेन : चाणक्य का नामन ही कौटिल्य है । उनके सूत्रों की व्याख्या | करने जाकर ही "हे फल मिला । क्षमा मिले तो एक बात भौर पूछ लू क्योंकि फिर इस विषय का भशन न करूंगा । अनंतदेकी ; पृछ लो । धातुसेन : उमक्रे अनर्थशास्त्र में विषकन्या का**- कुमारग॒प्त : (डांटकर) चुप रहो । (नत्तंकियो का गाते हुए प्रवेश) ; न छेंड़ना उस अतीत स्मृति से खिचे हुए बीन-तार को किल । {| करुण रागिनी तड़प उठेगी' सुना न ऐसी पुकार कोकिलं । i हरय धूल में मिला दिया है |i उसे चरण-चिह्न-सा किया टे I खिले फूल सब गिरा दिया! है न अब बसंती बहार कोकिल | | सुनी बहुत आनंद-भैरवी 4 विगत हो FC ७४७ की निशा-माधवी | रही न अब शारदी करवी न तो मधा की फुहार कोकिल । 42 / स्कदगुष्त मात॒गुप्त : मुदगल : मातगुप्त : मुद्गल : न मातगप्त : न खोज पागल मधुर प्रेम को न तोड़ना और के नेम को | बचा विरह.मोन के क्षेम को कुचाल अपनी सुधार कोकिल । दृश्य : तीन [पथ में मातृगुप्त ] कविता करना अनंत पुण्य का फल है। इस दुराशा भोर अनंत उत्कंठा से कवि-जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई । संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर हूदय को धोखा देता रहा। परंतु कसी विडंबना ! लक्ष्मी के लालों का भ्रू-भंग और क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्या ! एक काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन, जो दूसरों की दया में अपना अस्तित्व रखता है! संचित हृदय कोश के अमुल्य रत्नों की उदारता और दारिद्रय का व्यंग्यात्मक कठोर अट्टहास, दोनों की विषमता की कौन-सी व्यवस्था होगी ॥ मनोरथ को-_-भारत के प्रकांड बौद्ध पंडित को-परांस्त करने में मैं सबकी प्रशंसा का भाजना बना। परंतु हुआ वेव 2 (प्रवेश करते) कहिए कवि जी ! आप तो बहुत दिनों पर दिखायी पड़े ! कुलपति की कृपा से कहीं अध्यापन-कायं मिल गया क्या? अभी तो यों ही बैठा हूं । क्या बेंठे-बेठे काम चल जाता है-तब तो भाई, तुम बड़े भाग्यवान हो। कविता करते, होन? भाई! उसे छोड़ दो । क्यों ? वही तो मेरे भूखे हृदय का आहार है! 'कवित्व- वणेमय चित्न है, जो स्वर्गीय भावपूणं संगीत गाया करता है । अंधकार का आलोक से, असत् का सत् से, जड़ का स्कदगुप्त / 43 चेतन से और बाह्य जगत् का अंतजंगत् से संबंध कोन | कराती है? कविता ही न ! | मुद्गल : परंतु हाथ का मुख से, पेट का अन्न से और आंखों का निद्रा से भी संबंध होता है कि नहीं ? कभी इसको भी सोचा- विचारा है? मातृगृष्त : संसार में क्या इतनी टी वस्तुएं विचारने की हैं ? पशु भी इनकी चिता कर लेते होंगे । मुद्गल : और मनुष्य पशु नहीं है, क्योंकि उसे बाते बनाना आता है = अपनी मूर्ख ताओं को छिपाना, पापों पर बुद्धिमानी का बच जाता है । आतृगुप्त : होगा, तुम्हारा तात्पय॑ क्या है ? | गिर मुद्गल : स्वप्नमय जीवन को छोड़कर विचारपूणं वास्तविक स्थिति | bi में आओ । त्राह्मण-कुमार हो, इसीलिए दया आती है। | ! म सातृगुप्त : क्या करूं? ऋ पुद्गल : मैं दो-चार दिन में अवंती जाने वाला हैं, युवराज भट्टारक 07 के पास तुम्हें रखवा दूंगा । अच्छी वृत्ति मिलने लग जायेगी bd, “है स्वीकार ? | सातृगुप्त : परंतु मेरे ऊपर इतनी दया क्यों ? ही) छुद्गल : तुम्हारी बुद्धिमत्ता देखकर मैं प्रसन्न हुभा हु। उसी दिन से bh में खोजता था। तुम जानते हो कि राजकृपा का अधिकारी होने के लिए समथ की आवश्यकता है । बड़े लोगों की एक = ३००००००००० Ss ns, HE जाया जाया करते हैं ।' i जातृगुष्त्र : तब तो बड़ी कृपा दै । मैं अवश्य चलूंगा । काश्मी रमंडल में | A > हणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत-विद्या को पूछने | ह... :.. गाजा कोई नहीं । म्लेच्छाक्रांत देश छोड़कर राजधानी में 44 / स्कंदगुप्त कमारदास : सातगप्त : चला आया था । अब आप ही मेरे पथ-प्रदशेक हैं । : अच्छा, तो मैं जाता हूं, शीघ्र ही मिलूंगा । लुम चलने के लिए प्रस्तुत रहना । (प्रस्थान) : काश्मीर ! जन्मभूमि ! जिसकी धूलि में लोटकर खड़े होना सीखा, जिससे खेल-खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाण संगठित हुए थे, वही छूट गया ! और बिखर गया एक मनोहर स्वप्न, आह! वही जो मेरे इस जीवन- पथ का पाथेय रहा ! प्रिय-- संसति के वे संदरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना । 'वह उच्छ खलता थी अपनी --कहकर मन मत बहलाना मादकता-सी तरल हंसी के प्याले में उठती लहरी । मेरे नि:शवासों से उठकर अधर चूमने को ठहरी । मैं व्याकुल परिरंभ-मुकुल में बंदी अलि-सा कांप रहा । छलक उठा प्याला, लहरी में मेरे सुख को माप रहा । सजग सुप्त सौंदर्यं हुआ, हो चपल चलीं भौंहें मिलने । लीन हो गयी लहर, लगे मेरे ही नख छाती छिलने ॥ शयामा का नखदान मनोहर मुकताओं से ग्रथित रहा। जीबन के उस पार उड़ाता हंसी, खड़ा में चकित रहा। तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विश्रम से, बहकाने से। सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने से। उस सूख का आलिंगन करने कभी भूलकर आ जाना | 'मिलन-क्षितिज-तट मध-जलनिधि में मुदु हिलकोर उठा जाना। (प्रवेश करके) साधु ! (अपनी भावनाओं में तल्लीन, जैसे किसी को न देख रहा हो) अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, सौरभ और पराग की चहल-पहल थी। सबेरे सूयं की किरणें उसे चूमने को लोटती थीं, संध्या में शीतल चांदनी उसे अपनी चादर से ढंक देती थी । उस मधुर सौंदर्य्य--उस अतींद्रिय जगत् की साकार कल्पना कीः 'स्कंदगुप्त / 45 डा... | सिहलियों की घुंधराली लटे, उज्ज्वल श्याम शरीर क्या | स्वप्न में भी देखने की वस्तुः नहीं ? भातृगुप्त : (कृमारदास को जैसे सहसा देखकर) पृथ्वी की समस्त ज्वाला को जहां प्रकृति ने अपने तुषार के अंचल से ढक है, उस हिमालय के. 'कमारदास : और बड़वानल को अनंत जलराशि सेजो संतुष्ट कर रहा | है, उस रत्ताकर को-_ अच्छा जाने दो, रत्नाकर नीचा है, गहरा है । हिमालय ऊंचा है, गर्व से सिर उठाये हैं, तब जय हो काश्मीर की | हां, उस हिमालय के*-. | | आतृगुप्तः : उस हिमालय के ऊपर प्रभात-सुय की सुनहरी प्रभा से आलो- | | | कित हिम का, पीले पोखराज का-सा एक महल था । उसी 9 से नवनीत की पुतली झांककर विश्व को देखती थी । वह | हिम की शीतलता से सुसंगठित थी । सुनहरी किरणों को | जलन हुई । तप्त होकर महल को गला दिया | पुतली | Me उसका मंगल हो, हमारे अश्रु की शीतलता उसे सुरक्षित रखे। कल्पना की भाषा के पंख गिरे जाते हैं, मौन-नीड़ में निवास करने दो । छेड़ो मत मित्र । | | | र टू 'कुमारदास : तुम विद्वान् & सुकवि हो, तुमको इतना मोह ? : सातृगुप्त : यदि यह विश्व इंद्रजाल ही है, तो उस इंद्रजाल की अनंत | इच्छा को पूर्ण करने का ताधन--यह मधुर मोह चिरंजीवी हो और अभिलाषा से मचलने वाले भूखे हृदय को आहार मिले । हुमारदास : मित्र ! तुम्हारी कोमल ल्पना, वाणी की वीणा में झंकार | उत्पन्न करेगी । तुम सचेष्ट बनो, प्रतिभाशील हो । तुम्हारा भविष्य बड़ा ही उज्ज्वल है । ' नतृगुप्त : उसकी चिता नहीं'`' दैन्य जीवन के प्रचंड आतप में सुंदर Hi 46. / स्कंदगुप्त कमारदास मातृगुप्त : कुमारदास : मातगुप्त स्नेह मेरी छाया बने | झुलसा हुआ जीवन धन्य हो जायेगा । : मित्र ! इन थोड़ दिनों का परिचय मुझे आजीवन स्मरण रहेगा । अब तो मैं सिंहल जाता हुं--देश की पुकार है । इसलिए मैं स्वप्तों का देश “भव्य-भारत' छोड़ता हूं। कविवर ! इस क्षीण परिचय कुमार धातुसेत को भूलना मत -:केंभी आना । सञ्चाट् कुमारगुप्त के सहचर, विनोदशील कुमारदास ! तुम क्या कुमार धातुसेन हो ? हां, मित्र, लंका का युवराज । हमारा एक मित्र, एक बालः सहचर प्रख्यातकीत्ति, महाबोधि-विहार का श्रमण है! उसे और गुप्त-साञ्राज्य का वेभव देखने पर्यटक के रूप में भारत चला आया था। गौतम के पद-रज से पवित्र भूमि को खूब देखा । और, देखा दर्प से उद्धत गुप्त साम्राज्य के तीसरे पहर का सूर्य ! आर्य-अभ्युत्थान का यह स्मरणीय युग है । मित्र, परिवतंन उपस्थित है ! : सञ्राट् कुमारगुप्त के साम्राज्य में परिवत्ेन ! : सरल युवक! इस गतिशील जगत् में परिवर्तन पर आश्चयं ! परिवतंन रुका कि महापरिवत्तंन--प्रलय-- हुआ ! परिवतंन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यू है, निश्चेष्ट शांति मरण है। प्रकि क्रियाशील है। समय पुरुष और स्त्री को गेंद लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुल्लिग ओर स्त्रीलिग की समष्टि अभिव्यक्ति की क्ंजी है । पुरुष उछाल दिया जाता है, उत्क्षेपण होता है। स्त्री आकषण करती है । यही जड़ प्रक्रति का चेतन रहस्य है । : निस्संदेह । अनंतदेवी के इंगित पर कुमारगुप्त नाच रहे हैं अद्भूत पहेली है. । :- पहेली ! यह भी रहस्य ही है। पुरुष है कुतूहल और प्रश्न, ओर स्त्री है विश्लेषण, उत्तर और सब बातों का समाधान । स्कदगुप्त / 47 “हा 3रुष के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने के लिए बह प्रस्तुत है । ह उसके कुतूहल उसके अभावों को परिपूर्ण करने का i | उष्ण प्रयत्न और शीतल उपचार ! अभागा मनुष्य संतृष्ट ', अच्चो के समान । पुरुष ने कहा "क ', स्त्री ने अर्थ लगा दिया--'कोवा', वेस, वह रटने लगा । विषय-विह्वल वृद्ध सम्राट तरुणी की आकांक्षाओं के साधन बन रहे हैं। | न | | | १ | | | IM +9 Bi Mh Mii’, Fi ES || i मातृगुप्त : विचक्षण-उदार-राजकुमार ! (प्रस्थान ) दृश्य : चार [अनंतदेवी का सुसज्जित प्रकोष्ठ] | अनंतदेबी : जया ! रात्रि का द्वितीय प्रहर तो व्यतीत हो रहा है, अभी भटाके के आने का समय नहीं हुआ ? नया : स्वामिनी ! आप बड़ा भंथानेक खेल सेल रही हैं। | अनंतदेवी : शूदर ददय--जो चूहे के शब्द से भी शंकित होते हैं, जो अपनी सांस से चौंक उठते हैं; उनके लिए उन्नति का कंट- कित मागं नहीं है । महत्त्वाकांक्षा का दुर्गम स्वर्ग उनके | लिए स्वप्न है ! | जया : परंत राजकीय अंत:पुर की मर्यादा बड़ी कठोर अथच फूल | से कोमल है । | अन॑तदेवी : अपनी नियति का पथ हैं अपने पैरों चलूंगी, अपनी शिक्षा | रहने दे । (जया कपाट के समीप कान लगाती है । संकेत होता है । गुप्त हार खुलते हो भटाक उ पस्थित होता है) 48 / स्कंदगृप्त अनंतदेवी भंटाक : अनंतदेवी : भटाकं भटाक : भटाक : महादेवी की जय हो ! परिहास न करो मगध के महाबलाधिकृत ! देवकी के रहते किस साहस से तुम मुझे महादेवी कहते हो ! हमारा हृदय कह रहा है और आये दिन साम्राज्य की जनता, प्रजा, सभी कहेगी । मुझे विश्वास नहीं होता। : महादेवी ! कलं सञ्राद के समक्ष जो विद्रेप और व्यंगबाण मुझ पर बरसाये गये हैं, वे अंतस्थल में गड़े हुए हैं। उन्हें निकालने का प्रयत्न नहीं करूंगा, वे ही भावी विप्लव में सहायक होंगे । चुभ-चुभकर वे मुझे सचेत करेंगे। मैं उन पथ-प्रदशेकों का अनुसरण करूंगा। बाहुबल से, वीरता से और प्रचंड पराक्रमों से ही मुझे मगध के महाबलाधिकृत का माननीय पद मिला है, मैं उस सम्मान की रक्षा करूंगा । महादेवी ! आज मैंने अपने हृदय के मार्मिक रहस्य का अकस्मात् उद्घाटन कर दिया है। परंत वह भी जान- बूझकर-- कुछ समझकर । मेरा हृदय शूलों के लौहफलक सहने के लिए है, क्षुद्र विष-वाक्यबाण के लिए नहीं । : तुम वीर हो भटार्क ! यह तुम्हारे उपयुक्त ही है । देवकी का प्रभाव जिस उग्रता से बढ रहा है, उसे देखकर मुझे पुरगुप्त के जीवन में शंका हो रही है ! महाबलाधिकृत, दुबेल माता का हृदय उसके लिए आज ही से चितित है-- विकल है । सम्राट् की मति एक-सी नहीं रहती, वै अव्यव- स्थित ओर चंचल हैं। इस अवस्था में वे विलास की अधिक मात्रा से केवल जीवन के जटिल सुखों की गुत्थियां सुलझाने में व्यस्त हैँ । में सब समझ रहा हूं । पुष्यमित्रों के युद्ध में मुझे सेनापति की पदवी नहीं मिली, इसका कारण भी मैं जानता हूं। मैं दूध पीने वाला शिशु नहीं हुं और मुझे यह स्मरण है कि प॒थ्वीसेन के विरोध करने पर भी आपकी कृपा से मुझे स्कंदगप्त / 49. भनंतदेवी भटाकं || | | । | | | । वि F | TN | ||| 4 ty 4५. ५५ | ॥॥॥|॥ sgt « NA |; अपंचबुद्धि : अनंतदेवी : प्रपंचबुद्धि : ¦ कांति के सहसा इतने शी | | ; | र र अनंतदेवी : भटाक : | * सुचीभेद्य अंधकार में छिपनेवाली रहस्यमयी नियति का महाबलाधिकृत का. पद मिला है । मै ठेतध्न- नहीं ह, 'महादेवी ! आप निश्चित रहें । * पुष्यमित्रो के युद्ध में भेजने के लिए मैने भी कुछ समझकर है, तुम्हारा. उद्योग नहीं किया । भटाक ! क्रांति उपस्थित यहां रहना आवश्यक है |. समीप उपस्थित लक्षण मुझे तो नहीं दिखायी पड़ते । राजधानी में आनंद-विलास हो रहा है और पारसीक मदिरा धारा बह् रही है, इसके स्थान पर रक्त की धारा बहेंगी !' आज तुम कालागुरुके गध-धूमसे संतुष्ट हो रहे हो, केल इन उच्च सोौंध-मंदिरां में महापिशाची की विप्लव- ज्वाला धधकेगी ! उस चिरायंध की उत्कट गंध असह्य होगी--तब तुम भटाक ! उस आगामी खंड-प्रलय के लिए अस्तुत हो कि नहीं ? (ऊपर देखती हुई) उह, प्रपंच- बुद्धि की कोई बात भाजि तक मिथ्या नहीं हुई । कोन प्रपंच बुद्धि ? होने के--कोई प्रज्वलित कठोर नियति काँ ज भावरण उठाकर झांकने वाला ! उसकी आंखों में अभिचार का संकेत है, मुस्कराहुट में विनाश की घुचना हे, आंधियोंसे क्लेलता है--बाते करता है--बिजलियों से आलिगन ! (प्रपंचब्रुद्धि का सहसा प्रवेश) स्मरण हे--भाद्र की अमावस्या ? [भटाक ओर अनंतदेवी भहमकर हाथ जोडते हैं। ] स्मरण हैं, भिक्षु शिरोमणे ! उस्ते मैं भूल सकती ह? कोन, महाबलाधिक्रत ! ६्-ह-हं-हं, तुम लोग सद्धम के अभि- शाप की लीला देखोगे-- है आंखों में इतना बल ! क्यों, समझ लिया था कि इन मुंडित-मस्तक जीणे-कलेवर भिक्षु- कालों में क्या धरा हे ! देखो--शव-चिता में नृत्य करती हुई तारा का तांडव गृत्य, शून्य-सर्वनाशकारिणी प्रकृति की 50 / स्कंदगुप्त . --मुंडमालाओं की कंदुक-क्रीड़ा ! अश्वमेध हो चके, उनके फलस्वरूप महानरमेध का उपसंहार भी देखो । (देखकर ) है तुझमें--तू करेगा ? अच्छा महादेवी ! अमावस्या के पहले पहर में, जब नील गगन से भयानक और उज्ज्वल उल्कापात होगा--महाशुन्य की ओर देखना । जाता हुं-- सावधान ! (प्रस्थान) भटांक : महादेवी ! यंह भूकंप के समान हृदय को. हिला देने वाला | कोन' व्थक्ति है ? ओह, मेरा तो शिर घूम रहा है ! अनंतदेवी :' यही तो भिक्षु प्रपंचबुद्धि हैं ! भाक : तब मुझे विश्वास हुआ | यह क्र-कठोर नर-पिशाच मेरी सहायता करेगा में उस दिन के लिए प्रस्तुत हू । अनंतदेवी : तब प्रतिश्चत होते हो? ऱ्य - भटाक : दास सदव अनुचर रहेगा। -अनंतदेवी : अच्छा, तुम इसी गुप्त ह्वार से जाओ+ देखूं, अभी कादंब की मोह-निद्रा से सम्राट् .जगे कि नहीं ' | जया : (प्रवेश करके) परम भट्टारक अंगड़ाइयां ले रहे हैं। स्वामिनी, शीघ्र चलिए ! (प्रस्थान) | भटाक : तो महादेवी, आज्ञा हो ! अनंतदेवी : (देखती हुई) भटाक ! जाने को कहूं? इस शल्नुपुरी में मैं असहाय अबला, इतना--आाह! (भासु पोंछती हे) भटाकं : धर्यं रखिए। इस सेवक के बाहुबल पर विशवास कीजिए ! अनंतदेवी : तो भटाकं, जाओ । जया : (सहसा प्रवेश करते) चलिए--शीघ् । (दोनों जातो हूँ) भटाके : एक दूर्भेद्य नारी-हृदय में विश्व-प्रहेलिका का रहस्य-बीज है । ओह, कितनी साहसशील. स्त्री है ! देख गृप्त-साम्राज्य के भाग्य की कुंजी यह किधर घुमाती है! परंतु इसकी आंखों में काम-पिपासा के संकेत अभी उब्रल रहे हैं । अतप्ति | की चंचल प्र॑वंचना कपोलों पर रक्त होकर क्रीड़ा कर रही है। हृदय में श्वासों की गरमी विलास का संदेश वहन कर स्कदगृप्त / $ hh! tl | A ॥ | | | | |) | | शवनाग : टाक : शबंनाग दा वंनाग शवनाग भटाक भटाक शरवंनाग : भटाक : रही है । परंतु"""अच्छा चलू, यहे विचचार करने का स्थान नहीं हैं। (गुप्त द्वार से जाता ह) दृश्य : पांच [अंत:पुर का द्वार | (टहलता हुंआ) कौन-सी वस्तु देखी ? किस सौंदर्य पर मन रीझा ? कुछ नहीं--सँदंव इसी सुंदरी खर्डग-लता की प्रभा पर मैं मुग्ध रहा। मैं नहीं जानता कि और भी कुँछे सुंदर है । वह मेरी स्त्री--जिंसंके अभावों का कोष कँभी खाली नहीं, जिसकी भत्संनाओं का भंडार अक्षय है, उससे मेरी अंतरात्मा कांप उठती है। आज मेरा पहरा है । घरं सें जॉन छूटी, परंतु रात बड़ी भयानक है। चलँ अपने स्थाने पर बेटूं। सुनता हूं कि परम भट्टारक की अवस्था अत्त शीच- नीय है--जाने भगवान्""* (प्रवेश करते) कौन ? ` नायक शवेनाग । भटाक : कितने सेनिक हैं ? : पूरा एक गुल्म । भटाकं : ` नहीं । : तुमको मेरे साथ चलना होगा। शवेनाग : अंतःपुर से कोई आज्ञा मिली है ? मं प्रस्तुत हूं, कहां चलूं ? : महादेवी के द्वार पर । शवेनांग : भटाक : वहां-—मेरा क्या कत्तव्य होगा ? कोई--न तो भीतर जाने पावे और न भीतर से बाहर आने पावे । (चोंककर) इसका तात्पर्य ? (गंभीरता से) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा का पालन | 52 / स्कदगृप्त यान | झावंनाग : भटाक : हां। : ऐसा ! रामा : शार्वनाग शबेताग : शर्वं नाग शर्वेताग : : तुम, जिस प्रकार हो सके, महादेवी के द्वार पर जाओ । मैं रासा करना चाहिए । तब भी, क्या स्वयं महादेवी पर नियंत्रण रखना होंगा ! [कोलाहल । भौषण उल्कापात] : ओह, ठीक समय हो गया ! अच्छा, मैं अभो आता हं । [द्वार खोलकर भटार्क भीतर जाता है। रामा का प्रवेश | क्यों, तुम आज यहीं हो ? ¦ मैं—मैं यहां हुं-तुम केसे ? रामा : मूखे ! महादेवी सम्राट् को देखना चाहती है, परंतु उनके आते में बाधा है । गोबर-गणेश ! तू कुछ कर सकता है? में क्रोध से.गरजते हुए सिंह की पूंछ उखाड़ सकता हूं, परंतु सिहवाहिनी ! तुम्हें देखकर मेरे देवता कूच कर जाते हैं । : (पर पटककर) तुम कीड़े से भी अपदार्थ हो ! : न-न-न, ऐसा न कहो, मैं सब कुछ हूं । परंतु मुझे घबराओ मत, समझाकर कहो । मुझे क्या करना होगा? : महादेवी देव्रकी की रक्ष! करनी होगी, समझा? क्या आज इस संपूर्ण गुप्त साम्राज्य में कोई ऐसा प्राणी नहीं जो उनकी रक्षा करे ? शत्रु अपने विषले डंक और तीखे दाढ़ संवार रहे हैं। प्रथ्वी के नीचे कुमंत्रणाओं का भूकंप चल रहा है । यही तो मैं भी कभी-कभी सोचता था; परंत जाती हूं । (जाती है । एक सेनिक का प्रवेश) : नायक ! न जाने क्यों हृदय दहल उठा है, जैसे सनसन करती हुई, डर से, यह आधी रात खिसकती जा रही है ! पवन में गति है--परंतु शब्द नहों । 'सावधान' रहने का शब्द मैं चिल्लाकर कहता हूं, परंतु मुझे ही सुनायी नहीं पड़ता है । यह सब क्या है नायक ? स्कंदगुप्त / 53 शवंनाग : तुम्हारी तलवार कहीं भूल तो नहीं गयी ? Ms | | सेनिक : म्यान हल्की-सी' लगती है, टटोलता हूं-परः** iN शर्वेनाग : तुम घवराओ मत, तीन साथियों को सांच लेकर धूमो, सब MAN, को सचेत रखो । हम इसी शिला पर हैं, : कोई डरने की बात नहीं। (संनिक जाता है--फाटक खोलकर पुरगृष्त निकलता है। पीछे से भटाक॑ और सेनिक) पुरगुप्त : नायक शर्वनाग ! शर्वनाग : जय हो कुमार को ! क्या आज्ञा है ? ligt १) उरगुप्त : तुम साम्राज्य की शिष्टता सौखो । | | | र शर्वेनाग : दास चिर-अपराधी है कुमार! (सिर झुका लेता है) न | | | ht ` भटाकं : इन्हें महादेवी के द्वार पर जाने की आज्ञा दीजिए , ये सैनिक | | tr, विश्वस्तं वीर हुँ । | कक | . ` पुरगुष्त: जाओ तुम महादेवी के द्वार पर-_महाबलाधिकृत नै जैसा in कहा है--वेसा करना । bil शर्वनाग : जैसी आज्ञा । (अपने सेनिकों को साथ लेकर जाता है-- HM | दूसरे नायक और से निक परिक्रमण करते हैं) | ति भटके : कोई भी पूछे तो यह मत कहना कि सम्राट का निधन हो गथा। हां, बढ़ी हुई अवस्था का समाचार बतलाना और सावधान, कोई भी-_चाहे वह उुमारामात्य ही क्यों न हों --भीतर न आने पावें । तुम यही कहना कि परम भट्टारक अत्यंत विकल हैं, किसी से मिलना नहीं चाहते--समझा ? नायक : अच्छा'** (दोनों जाते है । फाटक बंद होता है) र नायक : (सनिकों से) आज वड़ी विकट अवस्था है, भाइयों सावधान ! __ [कुमारामात्य पथ्वीलेन; महादंडनायक, महाप्रतिहार का प्रवेश | महाप्रतिहार : नायक, द्वार खोलो, हम लोग परम भट्टारक का दर्शन | करेंगे । नायक : प्रभु ! किसी को भीतर जाने की आज्ञा न हौं है । महाप्रतिहार : (चोंककर) आज्ञा ! किसकी आज्ञा ! अबोध ! तू नहीं जानता 54 / स्कंदगृष्त बा स जो क. == व जरा जे म सब > सम्राट् के अंतःपुर पर स्वयं सम्राट का भी उतना अधिकार नहीं जितना महाप्रतिहार का ? शीघ्र द्वार उन्मुक्त कर । नयक : दंड दीजिए प्रभ, परंतु द्वार न खल सकेगा । महाध्रतिहार : तु क्या कह रहा है? नायक : जसी भीतर से आज्ञा मिली है । कुमारामात्य : (पर पटककर) ओह ! महादंडनायक : विलंब असह्य है, नायक ! द्वार से हट जाओ। महाप्रतिहार : मैं आज्ञा देता हूं कि-तुम अंतःपुर से हट जाओ युवक ! नहीं तो तुम्हें पदच्युत करूंगा । | नायक : यथार्थ है । परंतु मैं महाबलाधिकृत की आज्ञा से यहां हं, आर मैं उन्हीं के अधीनस्थ सैनिक हूं। महाप्रतिहार के अंत:पुर रक्षकों में में नहीं हू । महाश्रतिहार : क्या अंतःपुर पर भी सँनिक नियंत्रण है ? प्रथ्वीसेन ? प॒थ्वीसेन : इसका परिणाम भयानक है। अंतिम शय्या पर -*लेटे हुए सम्राट् को आत्मा को कष्ट पहुंचाना होगा । महाप्रतिहार : अच्छा (कुछ देखकर) हां, शर्वनाग कहां गया ? नायक : उसे महाबलाघिकृत ने दूसरे स्थान पर भेजा है । महाप्रतिहार : (ऋोध से) मूर्ख शर्वनाग ! (अंत:पुर से क्षोण क्रंदन) महादंडनायक : (कान लगाकर सुनते हुए) क्या सब शेष हो गया? हम अवश्य भीतर जायेंगे । [तीनों तलवार खींच लेते हैं। नायक भी सामने आ जाता है। द्वार खोलकर पुरगुप्त और भटाक का प्रवेश] पृथ्वी सेन : भटाक ! यह सब क्या ? भटाक : (तलवार खींचकर सिर से लगाता हुआ) परम भट्टारक राजाधिराज पुरंगुप्त कौ जय हो ! माननीय कुमारामात्य, महादंडनायक और महाप्रतिहार साम्राज्य के नियमानुसार, शस्त्र अर्पण करके; परम भट्टारक का अभिवादन कीजिए । [तीनों एक-दूसरे का मंह देखते हैं ।] स्कदगुप्त / 55 महाप्र तिहार : तब क्या सम्राट कुमारगुप्त महेंद्रादित्य अब संसार में नहीं | हैँ? | भटाक : नहीं । पथ्वीसेन : परंतु उत्तराधिकारी युवराज स्कंदगृप्त ? उरगुप्त : चुप रहो । तुम लोगों को बैठकर व्यवस्था न हीं देनी होगी उत्तराधिकारी का निर्णय स्वयं स्वर्गीय सम्राट कर गये हैं । पृथ्वीसेन : परंतु प्रमाण ? 3रगुप्त : क्या तुम्हें प्रमाण देना होगा ? पृथ्वोसेन : अवश्य । | hi पु स्गुप्त : महाबलाधिकृत ! इन विद्रोहियों को बंदी करो ! (भटार्क $ आगे बढ़ता है) | ९ पृथ्वीसेन : ठहरो भटार्क ! तुम्हारी विजय हुई परंतु एक बात-- Wh पुरगुष्त : आधी बात भी नहीं, बंदी करो-- Jie पृथ्वोसेन : कुमार ! तुम्हारे दुर्बल और अत्याचारी हाथों में ग॒प्त- शा भाज्य का राजदंड टिकेगा नहीं । संभवतः तुम साम्राज्य पर विपत्ति का आवाहन करोगे । इसलिए कुमार ! इससे विरत हो जाओ। गुरगुप्त : महाबलाधिङ्ृत ! क्यों विलंब्र करते हो ? भटाक : आप लोग शस्त्र रखकर आज्ञा मानिए । म्हाप्रतिहार : आततायी ! यह स्वर्गीय आय्य चंद्रगुप्त का दिया हुआ | खड्ग तेरी आज्ञा से नहीं रखा जा सकता । उठा अपना शस्त्र ओर अपनी रक्षा कर | पृथ्वीसेन : महाप्रतिहार ! सावधान ! क्या करते हो ? यह अंतविद्रोह का समय नहीं है | पश्चिम और उत्तर से काली घटाएं उमड़ रही हैं, यह समय बल-नाश करने का नहीं --आओ, हम लोग गुप्त-सा म्राज्य के विधानानुसार चरम प्रतिकार करे। बलिदान देना होगा । प रंतु भटाक ! जिसे तुमखेल | समझकर हाथ में ले रहे हो, उस काल- भुजंगी राष्ट्रनीति | 56 / स्कंदगृप्त | का पुरगुप्त भटाकं : मुद्गल : मातुगुप्त : F ङा ग IE खा RY नह FT So TO SS," अ = TN ६ ँ की--प्राण देकर भी - रक्षा करना । एक नहीं, सौ स्कंदगुप्त उस पर न्योछाबर हों ! आर्यं साञ्राज्य की जय हो ! (छुरा मारकर गिरता है। महाप्रतिहार ओर महादंडनायक भी. बेसा ही करते हैं] : पाखंड स्वर्यं विदा हो गये- अच्छा ही हुआ । : परंतु भूल हुई । ऐसे स्वामिभक्त सेवक ' : कुछ नहीं । (भीतर जाता है) तो जायें, सब जायें, गुप्त-साम्राज्य के हीरों के-से उज्ज्वल- हृदय, वीर युवकों का शुद्ध रक्त, सब मेरी प्रतिहिसा राक्षसी के लिए बलि हों ! दृश्य : छः [नगर-प्रांत के पथ में | (प्रवेश करके ) किसी के सम्मान-सहित निमंत्रण देने पर, पवित्रता से हाथ-पैर धोकर चोके पर बेठ जाना-- दूसरी बात है, और भटकते, थकते, उछलते-कूदते, ठोकर खाते और लुढ़कते-हाथ-पैर की पूजा करते हुए मार्गे चलना-- एक भिन्न वस्तु । कहां हम और कहां यह दोड-- कुसुमपुरी से अवंती और अवंती से मूलस्थान ! इस बार की आज्ञा का तो पालन करता हूं, परंतु यदि, तथापि, पुनश्च, फिर भी, ऐसी आज्ञा मिली कि इस ब्राह्मण ने साष्टांग प्रणाम किया । अच्छा, इस वृक्ष की छाया में बेठकर विचार कर लू कि सैकड़ों योजन लौट चलता अच्छा है कि थोड़ा भौर चलकर काम कर लेना !. (गठरी रखकर बैठे-बेठे ऊंघने लगता है) [मातृग॒ष्त का प्रबेश ] मुझे तो युवराज ने मूलस्थान की परिस्थिति संभालने के लिए भेजा, देखता हूं कि यह मुद्गल भी यहां आ पहुंचा . चलें, इसे कुछ तंग करें-थोड़ा मनोबिनोद ही सही । स्कदगुप्त / 57 meee or द - ens बक = ऋतया चः मुद्गल सातृगप्त : मद्गल : मा त् गुप्त मुद्गल : मातृगृप्त मुदगल : मातृग॒ष्त : मुद्गल मातृग॒प्त मुद्गल ; [कपड़े से मुंह छिपाथे गठरी क चलता हे ।] * (उठकर) ठहरो भाई, हमारे जैसे साधारण लोग अपनी गठरी आप ही ढोते हैं, तुम कष्ट न करो। [भातृगुप्त चक्कर काटता है । मुद्गल पोछे-पीछे दोड़ता है।] (इर खड़ा होकर) अब आगे ब हे कि तुम्हारी टांग टूटी ! अपनी गठरी बचाने में टांग इटना बुरा नहीं, अपशकुन नहीं तुम यह न समझना कि हम दूर चलते-चलते थक गये हैं। तुम्हारा पीछा न छूटेगा । हम ब्राह्मण हैं, हम से शास्त्राथं कर लो । डंडा ग दिखाओ। हाँ, मेरी गठरी जो तुम लेते हो, इसमें कौन-सा न्याय हूँ, बोलो ? ` न्याय ¦ तब तो तुम आप्तवाक्य मानते होगे ? मुद्गल : मातगष्त : मुदगल : मातग॒प्त : अच्छा तो तर्कशास्त्र लगाना पड़ेगा ? हां, तुमने गीता पढ़ी होगी ? हां, अवश्य ! ब्राह्मण, और गीता न पढ़े ! उसमें लिखा है कि-. 'नत्वेवाहं जातु ना5सी न त्व॑ नेमे!-- न हम हैं न तुम हो, न यंह वस्तु है; न तुम्हारी है, न हमारी-- फिर इस छोटी-सी गठरी के लिए इतना झगड़ा ! ओहो ! तुम समझे नहीं ! : क्या? गोता सुनने के बाद क्या हुआ? महाभारत ! ` पब भइया, इस गठरी के लिए महाभारत का एक लघु संस्करण हो जाना आवश्यक है। गठरी में हाथ लगाया कि डंडा (तानते हुए) लगा । ` उद्गल, डंडा मत तानो, मैं वैसा मुखं नहीं कि सूच्यग्र-भाग के लिए दूध और मधु से बना हुआ रक्त गिराऊं ! (गठरी देता है) अरे कौन ! मातृगृप्त । एंक ` बूंद भी 58 / स्कंदगुप्त मा गुप्त मुद्गल : मातगष्त : दोनों : : (नेपथ्य का कोलाहल सुनते) हां मुद्गल ! इधर तो शकों और हूणों की सम्मिलित सेना घोर आतंक फैला रही है चारों ओर विप्लव का साम्राज्य निरीह भारतीयों की घोर दुर्दशा हैं । : और में महादेवी का संदेश लेकर अवंती गया, वहां युवराज नहीं थे । बलांवि कृत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि महाराज- पुत्र गोविद गुप्त को जिस तरह हो--खोज निकालो । यहां तो विकट समस्या है । हुम लोग क्या कर सकते हैं ? : कुछ नहीं--केवल भगवान् से प्रार्थना ! साम्राज्य में कोई सुननेवाला नहीं, अकेले युवराज स्कंदगृप्त क्या करेंगे ? : परंतु भाई, हम ईश्वर होते तो इन मनुष्यों की कोई प्रार्थना सुनते ही नहीं । इनको हर काम में हमारी आवश्यकता पड़ती--मैं तो घबरा जाता, भला बह तो कुछ सुनते भी हैं ।. : नहीं मुद्गल, निरीह प्रजा का नाश देखा नहीं जाता । क्या इनको उत्पत्ति का यही उद्देश्य था? कया इनका जीवन केवल चींटियों के समान किसी की प्रतिहिसा पर्ण करने के लिए है? देखों-वह दूर पर बंधे हुए नागरिक आर उन पर हूणों की नृशंसता ! ओह !! अरे ! हाय रे बाप !! सावधान ! असहाय अवस्था में प्रार्थना के अतिरिक्त और : कोई उपाय नहीं, हम लोग भगवान से विनती करें-- उतारोगे अब कब भू-भार । बार-बार क्यों कह रक्खा था लूंगा मैं अवतार । उमड़ रहा हैं इस भुतल पर दुख का पारावार । बांड्व लेलिहान जिल्ला का करता है विस्तार। प्रलय-पयोधर बरस रहे हैं- रक्त-अश्नु की धार । मानवता में राक्षसत्व का अब है पूर्ण प्रचार । पड़ा नहीं कानों में अब तक क्या यह हाहाकार ? सावधान हो अब तुम जानो मैं तो चुका पुकार ! स्कंदगृप्त / 59 | हा [बंदियों के साथ हण संनिकों का प्रवेशा ] | | |! | | हण : चुप रह, क्या गाता है? ता ही! मुद्गल : हें-हे, भीख मांगता हैं, गीत गाता हैं। आप भी कुछ || ही, | दीजिएगा । (दीन मुद्रा बनाता i | ii हण : (धक्का देते हुए) चल, एक ओर बड़ा हो। हां जी, इन | | | hi दुष्टों ने कुछ देना अभी स्वीकार न हीं किया- बडे कृत्ते हैं ! | | ॥॥ नागरिक : हम निरीह प्रजा हैं । हम लोगों के पास बया रह गया जो Fh आप लोगों को दें। सैनिकों ने तो पहले ही लूट लिया है । | | । ; हण -सेनापति :; तुम लोग बातें खूब बनाते हो । अपना छिपा हुआ धन | | शी देकर प्राण बचाना चाहते हो तो शीघ्रता करो, नहीं तो iA गरम किये हुए लोहे स्तुत हैं कोडे और तेल में तर i | कपड़े भी । उस कष्ट का स्मरण करो ! sa ih नागरिक : प्राण तो तुम्हारे हाथों में हैं, जब चाहो ले लो । . ` हग-सेनापति : (कोडे से मारता हुआ ) उसे तो लेंगे ही, पर धन कहां है ? i नागरिक : नहीं है निर्दय हत्यारे | कह दिया कि नहीं है ! ......._ पण-सेनापति : (सेनिकों से) इन बालकों को तेल से भीगा हुआ कपड़ा [ye डालकर जलाओ और स्त्रियों को गरम लोहे से दागो । | स्त्रियां: हे नाथ-- हमारे निबंलों के बल कहां हो ? हमारे दीन के संबल कहां हो ? नहीं हो नाम ही बस नाम हे क्या ? सुना केवल यहां हो या वहां हो ! 3गरा जब किसी ने तब सुना था--- भला विश्वास यह हमको कहां हो ! [ स्त्रियों को पकड़कर हण खींचते हैं] भातृगुप्त : हे प्रभु-- हमें विश्वास दो अपना बना लोक : | सदा स्वच्छंद हो--चाहे जहां हों । इन निरीहों के लिए प्राण उत्सगे करना धर्म है--कायरो, स्त्रियों पर यह अत्याचार ! 60 / स्कंदगुप्त संन्यासी मुद्गल : सब मुद्गल गोविदगप्त : : साधु! वीर, संभलकर खड़े हो जाओ--भगवान, पर विश्वास करके खड़े हो । (पहचानता हुआ) जय हो, महाराजपुत्र गोविदगृप्त की जय हो ! [संबं उत्साहित होकर भिड़ जते हैं। हू ण-सनिक भागते हैं] : अच्छा, मुदंगल ! तुम यहां केसे ? और युवक ! तुम कौन हो : युवराज स्कंदगृप्त का अनुचर । : वीर-पंगव ! इतने दिनों पर देशेन भी हुआ तो इस वेश में! : क्या कहूं मुद्गल ! स्कंद कहां है ? : उज्जयिनी में ! : अच्छा हैं, सुरक्षित है । चलो, दुगे में हमारी सेना पहुंच चुकी है--वहां विश्राम करो । यहां का प्रबंध करके हमको शीघ्र आवश्यक कार्य से भालब जाना है। अब हुणों के आतंकं का डर नहीं । : जय हो महाराजपुत्र गोविदगृप्त की : : पुष्यमित्नौं के युद्ध का क्या परिणाम हुआ ? मातगुप्त : गोविदगप्त : विजय हुई । और मालव का ? : युबराज थोड़ी सेना लेकर बंधुवर्म्मा की सहायता के लिए गये हैं ! (ऊपर देखकर) वीरपुत्र है। स्कंद ! आकाश के देवता और पृथ्वी की लक्ष्मी तुम्हारी रक्षा करें! आय्यं-साम्राज्य के तुम्हीं एकमात्र भरोसा हो । : तब, महाराजपुत्र ! बड़ी भुख लगी है। प्राण बचते ही भूख स्कंदगुप्त / 6] गोविदगुप्त * हां-हां, सब लोग चलो। (सब जाते हैं) „का धावा हो गया, शीघ्र रक्षा कीजिए । दृश्य : सात | [अवंती के दुर्ग में देवसेना, विजया जयमाला] ब्रिजया ; विजय किसकी होगी-_कीन जानता हू ! जपमाला : तुमको केवल अपने पन की रक्षा का इतना ध्यान है ! देवसेता. : और देश के मान का, स्त्रियों की प्रतिष्ठा का, बच्चों की भमा का कुछ नहीं ? विजया : (संकुचित होकर) नहीं, मेरा अभिप्राय यह नहीं था । HS. जयमाला : परतु एक उपाय है विजया : वहे क्या ? जयभाला : रक्षा का निश्चित उपाय । देवसेना : एम्हारे पिता ने तो उस समय नहीं माना, त सुना,.नहीं तो भाज इस भय का अवसर ही न आता | जयमाला : तुम्हारी अपार धन-राश्चि में से एक भद्र अश वही यदि प धन-लोलुप श्युंगालो को दे दिया जाता, तो**- विजया : किंतु इस प्रकार अर्थ देकर विजय खरीदना तो देश की वीरता के प्रतिकूल है। ला : ठहरो, कोई आ. रहा है। (बंधुवर्म्मा का प्रवेश ) * प्रिये ! अभी तक उवराज का कोई संदेश नहीं. मिला । ` संभवतः शको और हेणों की सम्मिलित वाहिनी से आज दुर्ग को रक्षा न कर सक्ंगा!। * नाथ ! तब क्या मुझे स्कंदगुप्त का अभिनय करना होगा ? कया मालवेश को दुसरे की पहायता पर ही राज्य करते `का साहस हुआ था? जाओ प्रभु ! सेना लेकर सिंह- ~ विक्रम से शेलु पर टूट पड़ो | उग-रक्षा का भार मै लेती हृ । 62 / स्कंद गुप्त विजया __ बंधर्वर्म्मा जयमाला बंधुवर्म्मा देवसेना : बंधुवर्भ्मा : विजया : देवसेना : बिजया : जयमाला विजया देवसंना : |: महाराज ! यह केवल वाचालता है। दुग-रक्षा का भार सुयोग्य सेनापति पर होना चाहिए। . . घबराओ मत श्रेष्ठिःकन्ये ! न स्वर्ण-रत्न की चमक देखने वाली आंखें बिजली-सी तलवारों के तेज को कब सह सकती हैं। श्रेष्ठि-कन्ये ! हम क्षत्राणी हँ, चिर-संगिनी खड्गलता का हम लोगों से चिर- स्नेह है । प्रिये ! शरणागत और विपन्न की मर्यादा रखनी चाहिए अच्छा, दुग का. तो नहीं, अंतःपुर का भार तुम्हारे ऊपर है। भया, आप निश्चित रहिए । भीम दुर्ग का निरीक्षण करेगा, मैं जाता हुं ! (जाता है) भयानक युद्ध समीप जान पड़ता है-कयों राजकुमारी ! तुम वीणाले लो तो मैं गाऊं। हंसी न करो राजकुमारी ! : बुरा क्या हैं? : युद्ध और गान ! जपमाला : युद्ध क्या गान नहीं है? रुद्र का श्युंगीनाद, भैरवी का तांडव नृत्य, और शस्त्रों का वाद्य मिलकर एक भैरव-संगीत की सृष्टि होती है । जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, अपनी आंखों से देखना, जीवन-रहस्य के चरम सौंदर्य की नग्न और भयानक वास्तविकता का अनुभव--केवल सच्चे वीर्-हृदय को होता है, ध्वंसमयी महामाया प्रक्कति का वह तिरंतर संगीत है । उसे सुनने के लिए हंदय में साहस और बल एकत्र करो । अत्याचार के श्मशान में ही मंगल का--- शिव का, सत्य-सूंदर संगीत का समारंभ होता है । तो भाभी, मैं तो गाती हूं । एक बारगालुं, हमारा प्रिय- गान फिर गाने को मिले या नहीं ! : तो गाओ न! स्कंदगुप्त / 63 विजया : रानी ! तुम लोग आग की चिंनगारियां हो--या स्त्री हो? देवी ज्वालामुखी की सुंदर लट के समानं तुम लोग*** जयमाला : सुनो, देवसेना गा रही है। दवसेना : भरा नैनों में मन में रूप । किसी छलिया का अमल अनूप । जल-थल, मारुत, व्योम में, जो-छायां है सब ओर । खोज-खोजकर खो गयी मैं, पागल-प्रेम विभोर । भांग से भरा हुआ यह कूप । भरा नेनों में मन में रूप । धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लंगाये कान | बलिहारी मैं, कौन तू है मेरा जीवनं-प्रॉन । Ml खेलता जैसे छाया-धूप । | भरा नेनों में मन में रूप । Wi) ~ [सहसा भोमवर्म्मा का प्रवे] भोसवर्म्मा जयमाला : : भाभी, दुगे का द्वार टूट चुका है। हम अँतःपुर के बाहरी द्वार पर हैं। अब तुम लोग प्रस्तुत रहना । उनका क्या समाचार है? भीमवर्म्मा : अभी कुछ नहीं मिला । गिरिसंकट में उन्होंने शत्रुओं को | | रोका था, परंतु दूसरी शत्रु-सेना गुप्त मार्ग से आ गयी। मैं ति. जाता हुं, सावधान ! (जाता है। नेपथ्य में कोलाहल । | | भयानक शब्द) > | Mi बिजया : महारानी ! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिए । | | ` जयमाला : (छुरी निकालकर) रक्षा करनेवाली तो पास है, डर क्या, | | क्यों देवसेना ? | 00 देवसेना : भाभी ! श्रेष्ठि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दे दो । | | ७, बिजया : न-न-न, मैं लेकर क्या करूंगी, भयानक ! | देवसेना : इतनी सुंदर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने योग्य नहीं है ? | विजया : (घडाके का शब्द सुनकर) ओह ! तुम लोग बड़ी निर्दय हो! 64 / स्कंदगुप्त : जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ ! [ रक्त से लथपथ भीमवर्म्मा का प्रबेश ] : भाभी ! रक्षान हो सकी, अब तो मैं जाता हूं । बीरों के वरणीय सम्मान को अवश्य प्राप्त करूंगा । परंत "`" : हम लोगों की चिता न करो--वीर ! स्त्रियों की, ब्राह्मणों की, पीड़ितों और अनाथों की रक्षा में घ्राण विसर्जन करना क्षत्रिय का धर्म है। एक प्रकार की ज्वाला अपनी तलवार से फेला दो। भैरव के श्यृंगीनाद के समान प्रबल हुंकार से शत्रु का हृदय कंपा दो--बीर ! बढ़ो, गिरो तो मध्याह्न के भीषण सूर्य के समान--आगे-पीछे, सर्वत् आलोक और उज्ज्वलता रहे । [ भीमवर्म्मा का प्रस्थान । द्वार का ट्टना । विजयी शत्र -सेनापति का प्रवेश। पुनः भीमवर्भ्मा का आकर रोकना । गिरते-गिरते भीमवर्म्भा का जय- माला ओर देवसेना की सहायता स यद्ध । सहसा स्क्ंदगुप्त का सेनिकों के साथ प्रवेश । युवराज स्क॑दगप्त को जय का घोष । शक ओर हूण स्तंभित होते हैं : ठहरो देवियो ! स्कंद के जीवित रहते स्त्रियों को शस्त्र नहीं चलाना पड़ेगा । (युद्ध । शत्र, पराजित और बंदी होते हैं) : (झांककर) अहा ! कसी भयानक भौर सुंदर मृति है ! : (विजया को देखकर) यह--कौन ? [पटाक्षेप | उन्का ॒ ड | | a & ह स्कंदगुप्तं | 65 | $| ||| | | | || । | || |॥| | कि ॥ | द्वितीय तंक | | दृश्य : एक [ मालव में शिप्रा-तट पर कंज सें ] देवसेना : इसी पृथ्वी पर है--और अवश्य है । : “ बिजया : कहां राजकुमारी ? संसार में छल, प्रवंचना और हत्याभों को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है, कृतघ्नता-और पांखंड का साम्राज्य यहीं है ॥ छीना-झपटी, नोच-खसोट, मृह में से आधी रोटी छीनकर ब्ले भागने वाले विकट जीव यहीं तो हैं! श्मशान के कुत्तों से FA RE भी बढ़कर मनुष्यों की पतित दशा है । | १ र देवसेना : पवित्रता की माप है मं लिनता, सु का आलोचक है दुःख, HEN 3'य की कसौटी है पाप । विजया ! आकाश के संदर नक्षद ` | | आंखों से केवल देखे ही जाते हैं, बे कुसुम-कोमल हैं कि ME, | वच्च्र-कठो र-- कौन कह सकता है। आकाश में खेलती हुई | | कोकिल की करुणामयी तान का कोई रूप है या नहीं, उसे | | | देख नहीं पाते । शतदल और पारिजात का सौरभ बिठा |] रखने की वस्तू नहीं । परंतु इसी संसार में नक्षत्र से उज्ज्वल--कितु कोमल~-स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कीत्ति-सौरभ वाले प्राणी देखे जाते हैँ । उन्हीं से स्वर्गं का अनुमान कर लिया जा सकत [ है। _ विजया : होंगे, परंतू मैने नहीं देखा । / 66 / .. देवसेना ॥ तुमने सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा ? विजया : नहीं तो-- देवसेना : समझकर कहो। हक? विजया : हां, समझ लिया र देवसेना : क्या तुम्हारा हृदय कभी पराजित नहीं हुआ ? विजया ! विचार कर कहो, किसी भी असाधारण महत्त्व से तुम्हारा उदंड हृदय अभिभूत नहीं हुआ ? यदि हुआ है-बही स्वर्गं है। जहां हमारी सुंदर कल्पना आदर्श का नीड़ बनाकर विश्राम करती है--वही स्वे है । वही विहार का, वही ` प्रेमकरने का स्थल--स्वगे है, और वह इसी लोक में मिलता है । जिसे नहीं मिला, वह इस संसार में अभागा है । | | | विजया : तो राजकुमारी--मैं कह् दूं ? | | | ___ देवसेना : हां-हां, तुम्हे कहना ही होगा । | ._._बिजया : मुझे तो आज तक किसी को देखकर हारना नहीं पड़ा। हां, ण राजकीय प्रभाव कहकर टाल भी सकती हूं । देवसेना : विजया ! वह टालने से, बहला देने से, नहीं हो सकता ! | तुम भाग्यवती हो, देखो, यदि यह स्वर्ग तुम्हारे हाथ लगे। . | | (सामने देखकर) अरे लो--वह युवराज आ रहे हैं--हम भि ' लोग हुट चलें । (दोनों जातो हैं। स्कंदगुप्त का प्रबेश । | पोछे चक्रपालित) स्कंदगुप्त : विजय का क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा देगा? कभी | नहीं । वीरों का भी क्या ही व्यवसाय है, वह क्या ही उन्मत्त भावना है ! चक्रपालित ! संसार में जो सबसे महान है, वह क्या है ? त्याग ! त्याग का ही दूसरा नाम महत्त्व है । प्राणों का मोह त्याग करना--वोरता का रहस्य है । चक्रपालित : युवराज ! संपूर्ण संसार कमंण्य बीरों की चित्रशाला है। वीरत्व एक स्वावलंबी गुण हे । प्राणियों का विकास संभवत एक युवराज के सामने मन ढीला हुआ, परंतु मैं उसे कुछ | | स्कंदगृप्त / 67 स्कदगुप्त चक्रपालित : स्कदगुप्त : चक्रपालित : स्कंदगुप्त : चक्पालित इसी विचार के ऊज्जित होने से हुआ है। जीकन में कही तो विजयी होता है जो रात-दिन 'युद्धस्व विगतज्वरः का शख- नाद सुना करता है। चक्र ! ऐसा जीवन तो विडंबना है, जिसके लिए. रातदिन इना पड़! आकाश में जब शीतल शुभ्र शरद-शशिः का | विलास हो, तब भी दांत-पर-दांत रखे मुट्ठियों को बांधे -- लाल आंखों से एकन्दूसरे को घूरा करें ! बसंत के मनोहर प्रभात में, निभृत कगारों में चुपचाप बहने वाली सरिताओं | का स्रोत गरम रक्त बहाकर लाल कर दिया जाय! नहीं- | नहीं, चक्र ! मेरी समझ में मानव-जीवन का यही उद्देश्य | नहीं है । कोई और भी निगूढ़ रहस्य है चाहे मैं स्वयं उसे न | जान सका हूं । | सावधान युवराज ! प्रत्येक जीवन में कोई बड़ा काम करने के पहले ऐसे ही दुबल विचार भते हैं । वह तुच्छ ध्राणों का | मोह है । अपने को झगड़ों से अलग रखने के लिए, अंपनी रक्षा के लिए यह उसका क्षुद्र प्रयत्नं होता है। अयोध्या | चलने के लिए आपने कब का समय निश्चिन किया है? राजसिहासन कब्र तक सूना रहेगा ? पुष्यमिल्नों ओर शको के युद्ध समाप्त हो चुके हैं । तुम मुझे उत्तेजित कर रहे हो ! हां, युवराज ! मुझे यह अधिकार हे । नहीं चक्र ! अश्वमेध-पराक्रम स्वर्गीय सम्राट् कुमारगुप्त का शासन मेरे योग्य नहीं हें । में झगड़ा नहीं करना चाहता । मुझे सिहासन न चाहिए । पुरगृप्त को रहने दो। मेरा अकेला जीवन है, मुझे'** : यह नहीं होगा । यदि राज्यशक्ति के केंद्र में ही अन्याय होगा, तब तो समग्र राष्ट्र अन्यायों का क्रीड़ा-स्थल हो जायेगा । आपको सबके अधिकारों की रक्षा के लिए अपना अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा । 68 / स्कंदगृप्त घिजया : देवसेना खे विजया : देवसे ना विजया देवसेना : विजया देवसेना विजया विजया [चर का आकर कुछ संकेत करंना । दोनों का प्रस्थान । देवसेना और विजया का प्रवेश] ' : यह् क्या राजकुमारी ! युवराज तो उदासीन हैं। : हां, विजया ! युवराज की मानसिक अवस्था कुछ बदली हुई है। दुर्बलता इन्हें राज्य से हटा रही है। कहीं तुम्हारा सोचा हुआ युवराज के महत्त्व का परदा तो नहीं हट रहा है? क्यों विजया ! वैभव का अभाव तुम्हें . खटकने तो नहीं लगा ? राजकुमारी ! लुम तो निर्दय वाक्य-वाणों का प्रयोग करे रही हो । : नहीं विजया, बात ऐसी नहीं है ! धनवांनों के हाथ में एक नो ने ही माप हैं। वे—विद्या, सौंदर्य, बल, पवित्रता और तो क्या —हृदय को भी उसी से मापते हैं। वह माप है उनका ऐश्वय्यं ! ` परंतु राजकुमारी ! इस उदार दृष्टि से तो चत्रपालित क्या पुरुष नहीं है? अवश्य है । वीर हृदय है, प्रशस्त वक्ष है, उदार मुखमंडल है । और सबसे अच्छी एक बात है--तुम समझती हो कि बह महत्त्वाकांक्षी है । उसे तुम अपनी वैभव से क्रय कर सकती हो-_क्यों भाई, तुमको लेना है, तुम स्वयं लो, मेरी दलाली नहीं चलेगी । : जाओ राजकुमारी एक गाना सुनोगी ? : महारानी खोजती होंगी, अब चलना चाहिए । देवसेना : तब तुम अभी प्रेम करने का, मनुष्य फंसाने का, ठीक सिद्धांत नहीं जानती हो । ः क्या? देवसेना : नये ढंग के आभूषण, सुंदर, भरा हुआ यौवन--यह सब तो स्कंदगुष्त / 69 विजया विजया : देवसेना : विजया : देवसेना : विजया : देवसेना : : उस समथय भी गान ? देवसेना : चाहिए ही, परंतु एक वस्तु और च [हिए । पुरुष को वशी भुत करने के पहले चाहिए, धोखे की टट्टी । मेरा तात्पर्य एक वेदना अनुभव करने का, एक विह्वला का अभिनय उसके मुख पर रहे--जिसके कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं मख) पर पड़ं ओर मूर्ख मनुष्य उन्हीं को लेने के लिए व्याकुल हो जाये । और फिर दो बंद गरम-गरम अ सु और इसके बाद एक तान-वागीश्वरी की करुण-कोमल तान । बिना इसके. सब रंग फीका-- बिना गान के कोई कार्य नहीं । विश्व के प्रत्येक कंप में एक ताल है । आह् ! तुमने सुना नहीं ? दुर्भाग्य तुम्हारा | सुनोगीः? राजकुमारी ! गाने का भी रोग होता है क्या? हाथ को ऊंचे-नीचे हिंलाना, मुंह बनाकर एक भाव प्रकट करना, फिर शिर को जोर से हिला देना, जैसे उस तान से शून्य में एक हिलोर उठ गयी ! विजया ! प्रत्येक परमाणु के मिलने में एक सम है, प्रत्येक हरी-हरी पत्ती के हिलाने में एक लय है । मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रखा है। इसी से उसका स्वर विश्व- वीणा में शीघ्र नहीं मिलता । पांडित्य के मारे जब देखो, जहां देखो, बेताल-बेसुर बोलेगा । पक्षियों को देखो , उनकी | 'चहचह , 'कलकल', 'छलछल' में, काकुली में--रागिनी है। | राजकुमारी, क्या कह रही हैं ? र तुमने एकांत टीले पर, सबसे अलग, शरद के सुंदर प्रभात में फूला हुआ, फूलों से लदा हुआ पारिजात वृक्ष देखा है? | नहीं तो । | उसका स्वर अन्य वृक्षों से नहीं मिलता | वह अकेले अपने सौरभ की तान से दक्षिण पवन में कंप उत्पन्न करता है, कलियों को चटकाकर, ताली बजाकर, झूम-झूमकर नाचता 70 / स्कंदगृप्त देवसेना : बंधुवर्म्मा : देवसेना, तुझे गाने का भी विचित्र रोग है । देवसेना : बंधवर्म्मा : देवसेन देवसेना बंघवर्म्मा : देवसेना : CE," 5 "_ र FNS | है । उसके अंतर में जीवन-शकिति वीणा बजाती है। वह बड़े कोमल स्वर में गाता है-- घने--प्रेम-तरु-तले | बैठ छांह लो भव-आतप से तापित और जले । छाया है विशवास की श्रद्धा-सरिता-कूल, सिची आंसुओं से मृदूल है परागमथ धूल, यहां कौन जो छले ! . फूल च् पड़े बात से भरे हृदय का घाव, मन की कथा व्यथा भरी बेठो सुनते जाव, | कहां जा रहे चले ! पी लो छवि-रस-मधुरी सींचो जीवन-बेल जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल, मिलो स्नेह से गले । घने-- प्रेम-तरु-तले । [बंधुवर्स्मा का प्रवेश ] (संकुचित होती-सी) अरे भइया-- रोग तो एक न एक सभी को लगता है। परंतु यह रोग अच्छा है, इससे कितने रोग अच्छे किये जा सकते हैँ। पगली ! जा देख, युवराज जा रहे हैं, कुसुमपुर से को समाचार आया है । LE : तब उन्हें जाना आवश्यक होगा । भाभी बुलाती हैँ क्या ! बंधुवर्म्मा : हां, उनकी बिदाई करनी होगी । संभवतः सिहासन पर बैठने का--राज्याभिषेक का प्रकरण होगा । : क्या आपको ठीक नहीं मालूम ? नहीं तो, मुझसे कुछ कहा नहीं । परंतु भौंहों के नीचे एक गहरी छाया है, बात कुछ समन में नहीं आती । भइया,तुम लोगों के पास बातें छिपा रखने का एक भारी स्कंदगुप्त / 7। न रहस्य है। जी खोलकर कह देने में पुरुषों की मर्यादा घटती है। जब तुम्हारा हृदय भीतर से क्रंदन करता है, तब तुम | लोग एक मुस्कराहट से टाल देते हो-यह बड़ी प्रवंचना कट हीर बंघुवर्म्मा : (हुंसकर) अच्छा--जा उधर, उपदेश मत दे, (विजया भोर देवसेना जाती है) उदार, वीर-ह॒ृदय, देवोपम-सौंदर्य्य॑, इस आर्य्यावत्त का एकमात्र आशा-स्थल इस युवराज का विशाल मस्तक केसी वक्र-लिपियों से अंकित है ! अंत:करण में तीब्र अभिमान के साथ विराग है। आंखों में एक जीवन- पूर्ण ज्योति है । भविष्य के साथ इसका युद्ध होगा, देखूं कोन विजयी होता है! परंतु मैं प्रतिज्ञा करता हु—अब से इस वीर परोपकारी के लिए भेरा सर्वस्व अपित है । चलूं-- (जाता है) दृश्य: दो | मठ में प्रपंचबुद्धि, भटाकं और शर्वनाग ] प्रपंचबुद्धि : बाहर देख लो, कोई है तो नहीं ? [शवं जाकर लौट आता है] शब्रंबाग : कोई नहीं, परंतु आप इतना चौंकते क्यों हैं ? मैं कभी यह चिता नहीं करता कि कौन आया है या कौन आवेगा । प्रपंचबुद्धि : तुम नहीं जानते । शर्वनाग : नहीं श्रमण, हाथ में खड्ग लिये प्रत्येक भविष्यत् की मैं प्रतीक्षा करता हूं। जो कुछ होगा-- वही निबरटा लेगा । इतने डर की, घबराहट की आवश्यकता नहीं । विशवास करना और देना, इतने ही लघ् व्यापार से संसार की सब | ; समस्याएं हल हो जायेंगी । ्रपंचबुद्धि : प्रत्येक भित्ति के, किवाड़ के कान होते हैँ, समझ लेना चाहिए--देख लेना चाहिए । 72./ स्कदगुप्त दवनाग अच्छी बात है, कहिए ! | भटाक : पहले तुम चुप तो रहो (शर्वे चुप रहने की मुद्रा बनाता है). प्रपंचबुद्धि : धर्म की रक्षा करने के लिए प्रत्येक उपाय से काम लेना. होगा । | शर्बनाग : भिक्ष शिरोमणे ! वह कौन-सा धर्म है, जिसकी हत्या हो रही है ? प्रपंचलुद्धि : यही--ह॒त्या रोकना, अहिंसा, गौतम का धर्मे है । यज्ञ की बलियों को रोकना, करुणा और सहानुभूति की प्रेरणा से कल्याण का प्रचार करना । हां, अवसर ऐसा है कि हम वह काम भी करें जिससे तुम चौंक उठो । परंतु नहीं, वह तो तुम्हे करना ही होगा । भटाके : क्या ? प्रपंचबुद्धि : महादेवी देवको के कारण राजधानी में विद्रोह की संभावना शवंताग : भटाकं प्रपंचबुद्धि : शवनाग : प्रपंचबुद्धि भटाकं द बेलाग है । ठीक है, तभी आप चौंकते हैं, और तभी धर्म की रक्षा होगी । हत्या के द्वारा हत्या का निषेध कर लेंगे-- क्यों ? $ ठहरो शे ! परंतु महास्थविर ! क्या उसकी अत्यंत आव- एयकता है ? नितांत ! बिता इसके काम नहीं चलेगा ? धर्म नहीं प्रचारित होगा ? : और यह काम शव को करना होगा । इार्वनाग : : शीघ्रता न करो शवे ! भविष्यत् के सुखों से इसको तुलना (चौंककर) मुझे ! मैं कदापि नहीं: करो । : नाप-तौल मैं नहीं जानता, मुझे शलु दिखा दो । मैं भूखे भेडिये कौ भांति उसका रक्तपान कर लूंगा, चाहे मैं ही क्यों न मारा जाऊं-परंत् निरीह्-हत्या- यह मुझसे नहीं s+ | स्कंदगुप्त / 73 क भटाक : मेरी आज्ञा । शर्वनाग : तृम सँनिक हो; उठाओ तलवार | चलो, दो सहस्न शत्रुओं पर हम दो मनुष्य आक्रमण करें। देखें मरने से कौन भागता है ! कायरता--अबला महादेवी की हत्या ! किस प्रलोभन में तुम पिशाच बन रहे हो ? भटाक : सावधान शं ! इस चक्र से तुम नहीं निकल सकते । था तो करो या मरो। मैं सज्जनता का स्वांग नहीं ले सकता; मुझे वह नहीं भाता । मुझे कुछ लेना है, वह जेसे मिलेगा लूंगा ! साथ दोगे तो तुम भी लाभ में रहोगे । शर्वेनाग : नहीं भटाक॑ ! लाभ के लिए ही मनुष्य सब काम करता, तो पशु बना रहना ही उसके लिए पर्याप्त था, मुझसे यह नहीं होने का । प्रपंचबुद्धि : ठहरो भंटाक॑ ! मुझे पूछने दो । क्यों शवं ! तुमने जो अस्वी- कार किया है, वह क्यों-पाप समझकर ? शबनाग : अवश्य । प्रपंचबुद्धि : तुम किसी कर्मको पाप नहीं कह सकते, वह अपने नग्न रूप में पूर्ण है--पवित्न है। संसार ही युद्ध क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अपॅण करके--जीने से क्या लाभ ? तुम युद्ध में हत्या करना धर्म समझते हो ! परंतु दूसरे स्थल पर अधमं ? शर्वनाग : हां | | प्रपंचबुद्धि : मार डालना, प्राणी का अंत कर देना, दोनों स्थलों में एक- सा है, केवल देश और काल का भेद है""'यही न ! शवंनाग : हां, ऐसा ही तो । # प्रपंचबुद्धि : तब तुम स्थान और समय की कसौटी पर कमें को परखते | हो, इसी से कमं के अच्छे और बुरे होने की जांच करते हो । शर्बनाग : दूसरा उपाय क्या ? ` प्रपंचबुद्धि : है कयों नहीं ! हम कर्म की जांच परिणाम से करते हैं और यही उद्देश्य तुम्हारे स्थान और समय वाली जांच का 74 / स्कंदगुप्त शवनाग प्रपंचबुद्धि : प्रपंचबुद्धि : शर्वनाग : भटाक प्रपंचबुद्धि भटाक : प्रपंचब॒द्धि : : बड़ी चोट आयी । प्रपंचब्रुद्धि : दाव नाग भटाक : ` शवनाग प्रपंचब॒द्धि भटाक हावे ताग भटाक होगा । | : परंतु जिसके भावी परिणाम को अभी तुम देख न सके, उसके बल पर तुम कैसे पूर्व कम कर सकते हो ? आशा पर--जो सृष्टि का रहस्य है ! आओ, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण दें। (मदिरा का पात्र भरता है । स्वयं पोकर सबको पिलाता है ।'बार-बार ऐसा करता है) क्यों, कैसी कडवी थी? उंह, हृदय तक लकीर खिंच गयी । : परंतु अब तो एक आनंद का ख्रोत हृदय में बहने लगा है। शवनाग : मैं नाचूं । (उठना चाहता है) : ठहरो--मेरे साथ । [उठकर दोनों नाचते हैं। अकस्मात् लड़खड़ाकर प्रपंचडुद्धि गिर पड़ता है। चोट लगती है] अरे-रे ! (संभालकर उठाता है) कुछ चिता नहीं । परंतु परिणाम अच्छा हुआ । तुम लोगों पर विपत्ति आने वाली थी । वह टल गयी क्या? (आइचयं से देखता है) : क्यों सेमापति, टल गयी ? : उसी विपत्ति का निवारण करने के लिए मैंने यह कष्ट सहा । मैं तुम लोगों के मृत, भविष्यत् और वर्तमान का नियामक, रक्षक और द्रष्टा हूं । जाओ, अब तुम निर्भय हो । : धन्य गुरुदेव ! : आश्चयं । : शंका न करो, श्रद्धा करो, श्रद्धा का फल मिलेगा । शवे, अब भी तुम विश्वास नहीं करते ? शर्वनाग : करता हूं । जो आज्ञा होगी वही करूंगा । प्रपंचबुद्धि : स्कंदगृप्त / 75 घातुसेत : मैं अभी यहीं रह गया, शिहल नहीं गया । इस रहस्यपृणे मुद्गल : ` घातुसेन : [ सब जाते हैं । धातुसेन का प्रबेश] अभिनय को देखने की इच्छा बलवती हुई । परंतृ मुद्गल तो अभी नहीं आया, यहां तो आने को था | (देखते हुए) लो--वह आ गया | : (समीप से देखते हुए) क्यों भ इया, तुम्हीं धातुसेन हो ? : (हंसकर) पहचानते नहीं ? : किसी की धातु पहुंचानना “| असाधारण कार्य है। तुम किस धातु के हो ? ` भाई, सोना अत्यंत घनः होता है, बहुत शीघ्र गरम होता है, ओर हवा लग जाने से शीतल हो जाता है। मूल्य भी बहुत लगता है। इतने पर भी सिर पर बोझ-सा रहता है । मै सोना नहीं हूं, क्योंकि उसकी रक्षा के लिए भी एक धातु की आवश्यकता होती है-- वह् है 'लोहा”। | ` तब तुम लोहे के हो? : लोहा बड़ा कठोर होता है । कभी-कभी वह् लोहे को भी गट डालता है। उहू, भाई ! मैं तो मिट्टी हु-मिट्टी जिसमें से सब निकलते हैं । मेरी समझ में तो मेरे शरीर की धातु मिट्टी है, जो किसी के लोभ की सामग्री नहीं, और वास्तव में उसी के लिए सब “पु अस्त्र बनकर चलते हैं, लड़ते हैं, जलते हें, ट्टते हे, फिर मिट्टी हो जाते हैं। इसलिए मुझे मिट्टी समझो -- धूल समझो । परतु यह तो बताओ, महादेवी ' की मुक्ति के लिए बया उपाय सोचा ? मुक्ति का .उपाय ! अरे ब्र ह्मण की मुक्ति भोजन करते हुए मरने में, बनियों की दिवाले की चोट से गिर जाने में भीर शुद्रों की--हम तीनों की ठे करों से मुक्ति-ही-मु क्ति है । महादेवी तो क्षत्राणी हैं, संभवतः उनकी मुक्ति शस्त्र से होगी । तुमने ठीक सोचा, आज अद्धरात्नि में-- कारागार में । 76 / स्कदगुष्त मुद्गल धातुसेन वार्वनाग : रामा : : उसमें मदिरा न रही होगी, सुंदरी ! रामा : शर्वनाग हावंनाग रामा दार्वेताग : कुछ चिंता नहीं । चलों, युवराज आं गये हैं। मैं भी प्रस्तुत रहूंगा । [दोनों का प्रस्थान] ददय : तीन [देवक्रो के राजमंदिर का बाहरी भाग। मदिरोन्मत्त शवनाग का प्रवा] कादंब, कामिनी, कंचन-वणंमाला के पहले अक्षर । करना होगा । इन्हीं के लिए कमे करना होगा। मनुष्यको यदि इन कवगों की चाट नहीं तो कमें कया करें ? कर्म' में एक कु' और जोड़ दें--तो अच्छी वर्णमत्री होगी ! (लड़खड़ाते हुए) कादंब ! ओह प्यास ! (प्याले में मदिरा उड़ेलता है) लाल--यह क्या रक्त ? आह! कसी भीषण कमनीयता है !' लाल मदिरा लाल नेव्नों से लाल-लाल रकत देखना चाहती हे। किसका ! एक प्राणी का, जिसके कोमलं माँस में रकत _ मिला हो। अरे-रे, नहीं, दुर्बल नारी--उंहं, यह तेरी दुबंलता है । चल, अपना काम देख, सामने सोने का संसार खड़ा है ! (प्रवेश करते) पामर सोने की लंका राख हो गयी! मदिरा का समुद्र उफन रहा था--मदिरा-समुद्र के तट पर ही तो लंका बसी थी ! : तब उसमें तुम जेसी कोई कामिनी न होगी । तुम कीन हो स्वगं की अप्सरा या स्वप्त की चुड़ेल ? सत्री को देखते ही ढिलमिल हुए, आंखें फाड़कर देखते हैं-- जेसे खा जायेंगे । मैं कोई हूं ! सुंदरी ! यह तुम्हारा ही दोष है। तुम लोगों का वेश- विभ्यास आँखों की लुका-चोरी, अंगों का सिमटना, चलने स्क दगुप्त / 77 रामा शावनाग -श्ाबनाग रासा : 'शर्वंनाग : रामा : 'शवनाग : रामा : शर्वनाग : राभा : श वेनाग रामा रामा : श बेनाग रामा : : (हंसकर) तभी तो, मैं तुमको में एक क्रीड़ा, एक कौतूहल, पुकार कर--टोंककर कहते ह ~~ हमें देखो'-क्या करें हम, देखते ही बनता है! : दुवृ त्त मद्यप ! तु अपनी स्त्री को नहीं पहचानता है ? पर- स्त्री समझकर उसे छेइता है ! : (संभलकर) अयं ! अरे-ओह ! मेरी रामा तुम हो ? रामा : हां, मैं हूं । जानकर ही बोला। नहीं, भला मैं किसी पर स्त्री से-- (जीभ निकालकर कान पकड़ता है) अच्छा, यह तो बताओ, कादंब पीना कहां से सीखा ? और यह क्या त्रकते थे ? अरे प्रिये ! तुमसे न कहूंगा तो किससे कहूंगा, सुनो हां-हां, कहो । (निकट जाकर) तुमको रानी बनाऊंगा । (चोंककर) क्था? (और निकट जाकर) किस तरह? तुम्हें सोने से लाद दुंगा । * वह भी बतला दूं? तुम नित्य कहती हो कि “तू निकम्मा है, अपदार्थ चाहता हूं । है, कुछ नहीं है'--तो मैं कुछ कर दिखाना : अरे कहो भी ! आर्वेनाग : वह् पीछे बताऊंगा । आज तुम महादेवी के बंदीगृह में न जाना, समझा न? (उत्सुकता से) क्यों? : सोना लेना हो, मान लेना हो, तो ऐसा ही करना, क्योंकि आज वहाँ जो कांड होगा, उसे तुम देख न सकोगी । तुम अभी इसी स्थान से लौट जाओ | (डरती हुई) क्या करोगे तुम? पिशाच की दुष्कामना से भी भयानक दिखायी देते हो तुम--क्या करोगे--बोलो ! 78 / स्कंदगृप्तः | -जर्वेनाग : (मद्यपान करता हुआ) हत्या--थोड़ी-सी मदिरा दे-- शीघ्र दे ! नहीं तो छुरा भोंक दूंगा । ओह, मेरा नशा उखड़ा | जा रहा है! रामा : आज तुम्हें क्या हो गया है--मेरे स्वामी !--मेरे*** | शर्वेनाग : अभी मैं तेरा कुछ नहीं हूं, सोना मिलने से सब हो जाऊंगा-- इसी का उद्योग कर रहा हूं । (इधर-उधर देखकर बगल से सुराही निकालकर पीता है) रासा : ओह, मैं समझ गयी ! तूने बेच दिया--पिशाच के हाथ तूने अपने को बेच दिया । अहा ! ऐसा सुंदर, ऐसा मनुष्योचित मन, कोड़ी के मोल बेच दिया । लोभवश मनुष्य से पशु हो गया । रक्त पिपासु ! क्रूरकर्मा मनुष्य ! कृतध्नता की कीच का कीड़ा ! नरक की दुर्गंध ! तेरी इच्छा कदापि पूर्ण न होने दूंगी । मेरे रक्त के प्रत्येक परमाणु में जिसके कृपा की शक्ति है, जिसके स्नेह का आकषण है, उसके प्रतिकूल आचरण ! वह मेरा पति तो क्या, स्वयं ईश्वर भी हो | नहीं करने पावेगा । | झाबेनाग : क्या तूं--ओ--त्ं' `` रामा : हां-हां, मैं न होने दूंगी । ले, मुझे ही मार ले हत्यारे ! मद्चप ! तेरी रकत-पिपासा शांत हो जाये । परंतु महादेवी पर हाथ लगाया तो. मैं पिशाचिनी-सी प्रलय की काली आंधी बन कुचक्रियों के जीबन की काली राख अपने शरीर में लपेट- कर तांडव नृत्य करूंगी । मान जा--इसी में तेरा भला है । शर्वनाग : अच्छा, तू इसमें विघ्न डालेगी।तूतो क्या, बिघ्नों का पहाड़ भी होगा” तो ठोकरों. से हटा दिया जायेगा । मुझे सोना और सम्मान मिलने में कौन बाधा देगा ? रामा : में दूंगी। सोना मैं नहीं चाहती, मान मैं नहीं चाहती, मुझे अपना स्वामी अपने उसी मनष्य रूप में चाहिए । (पेर पड़ती हैँ) स्वामी ! हिस्र-पशु भी जिनसे पाले जाते हैं, उन पर चोट नहीं करते, अरे तुम तो मस्तिष्क रखने बाले मनुष्य हो ! था 8 ण आ. मि व, ल र है ® a, FH अल न न... } भ् } iF क है स्कंदगृप्त / 79 हावनाग : रामा : श्वेनाग भटाक : शवभाग अनंतदेवी : प्रपंचबद्धि : शरवनाग भटक : शर्बनाय : रासा : (ठुकरा देता है) जा, तू हट जा, नहीं तो मुझे एक के स्थान पर दो हत्याएं करनी पड़ेंगी ! मैं प्रतिश्रुत हुं, वचन दे चुका हूं ! (प्राथना करती हुईं) तुम्हारा यह झूठा सत्य है! ऐसी प्रतिज्ञाओं का पालन सत्य नहीं कहा जा सकता, ऐसे धोखे का सत्य लेकर ही संसार में पाप और असत्य बढ़ते हैं । स्वामी ! मान जाओ । : ओह, विलंब होता है, तो पहले तू ही ले--(पकड़ना और मारना चाहता है-रामा शीघ्रता से हाथ छुड़ाकर भाग जाती है) | | [अनंतदेवी, प्रपंचबृद्धि ओर भटाक का प्रयेश] शर्वं ! : जय हो ! मैं प्रस्तुत हूं, परंतु मेरी स्त्री इसमें बाधा डालना चाहती हैं। मैं पहले उसी को पकड़ना चाहता था, परंतु वह् भगी । सौगंध है ! यदि तू विश्वासघात करेगा तो कुत्तों से नुचवा दिया जायेगा । शर्वं ! तुम तो स्त्री नहीं हो । : नहीं, मैं प्रतिश्रुत हूं परंतु" * * तुम्हारी पद-वृद्धि और पुरस्कार का यह प्रमाण-पत्र प्रस्तुत हे***(दिखाता हे) काम हो जाने पर--- तब शीघ्र चलिए, दुष्टा रामा भी पहुंच ही गयी होगी । (सब जाते हैं) दृश्य : चार [बंदीगह में देवकी और रामा] महादेवी ! मैं लज्जा के गत्त में डूत्र रही हूं । मुझे कृतज्ञता और सेवा धर्म धिक्कार दे रहे हैं मेरा स्वामी'** 80 / स्कंदगृप्त देवकी : शांत हो रामा ! बुरे दिन कहते किसे हैं? जब स्वजन लोग अपने शील-शिष्टाचार का पालन करें आत्मसमर्पण, सहानुभूति, सत्पथ का अवलंबन करे-तो दुदिन का साहस नहीं कि उस कुटंब की ओर आंख उठाकर देखे । इस कठोर समय में भगवान की स्निग्ध करुणा का शीतल ध्यान कर । रामा: महादेवी ! परंतु आपकी क्या दशा होगी ? देवकी : मेरी दशा? मेरी लाज का बोझ उसी पर है जिसने वचन दिया है, जिस विपद-मंजन की असीम दया--अपना स्निग्ध | अंचल--सब दुखियों के आंसू पोंछने के लिए सदेव हाथ मे लिये रहती है । रामा: परतु उसने पिशाच का प्रतिनिधित्व ग्रहण किया है, | और 35% | देवकी : न घबरा रामा ! एक पिशाच नहीं, नरक के असंख्य दुर्दान्त प्रतो और क्रूर पिशाचों का त्रास--उनकी ज्वाला--दयामय की कृपादृष्टि के एक बिदु से शांत होती है। (नेपथ्य से गान) पालना बने प्रलय की लहर ! शीतल हो ज्वाला की आंधी, करुणा के धन छहरे । दया दुलार करे, पल भर भी--विपदा पास न ठहरे । ] प्रभु का हो विश्वास सत्य, तो सुख का केतन फहरे । | [भटाक आदि के साथ अनंतदेवी का प्रवेश ] अनंतदेवी : परंतु व्यंग-विष की ज्वाला रक्तधारा से भी नहीं बुझती देवकी ! तुम मरने के लिए प्रस्तुत हो जाओ । देवकी : क्या तुम मेरी हत्या करोगी ? प्रपंचबुद्धि : हां ! सद्धमं का विरोधी, हिमालय की निर्जन ऊंची चोटी तथा अगाध समुद्र के अंतस्तल में भी नहीं बचने | पावेगा, और उस महाबलिदान का आरंभ होगा तुम्हीं से | | शवं ! आगे बढो-- स्कदगुप्त / 8] रामा शवंनाग : : ओह ! बड़ी धर्मबुद्धि जगी है पिशाच को, और यह रामा शर्बनाग रामा देवकी अनेंतदेवी : : परसात्मा की कृपा है कि मैं स्वामी के रक्त से कलुषित देवकी भटाक : देवकी : शव नाग : रामा शवंनाग : रामा: : (सम्मुख आकर ) एक शर्व नहीं, तुम्हारे जैसे सैकड़ों | पिशाच भी यदि जुटकर जावें तो भी आज महादेवी का अंगस्पर्श कोई न कर सकेगा। (छरी निकालती है) में तेरा स्वामी हूं रामा ! कया तू मेरी हत्या करेगी ? महादेवी तेरी कौन हैं ? : फिर मैं तेरा*** : स्वाती ! नहीं-नहीं, तू मेरे स्वामी का नरकवासी प्रेत है । तेरी हत्या कंसी-तू तो कभी का मर चुका है । शांत होरामा! देवकी अपने रक्त के बदले और किसी का रक्त नहीं गिराना चाहती । चल रक्त के प्यासे कुत्ते ! चल, अपना काम कर । (शर्व आगे बढ़ता है) क्यों देवकी ! राजसिहासन लेने की स्पर्धा क्या हुई ? सिहासन पर न बैठ सकी । भगवान का स्मरण कर लो । मेरे अंतर की करुण-कामना एक थी--स्कंद को देख लूं । परंतु तुम लोगों से--हत्यारों से--मैं उसके लिए भी प्राथंता न कहूंगी। प्रार्थना उसी विश्वंभर के श्रीचरणों में है, जो अपनी अनंत दया का अभेद्य कवच पहनाकर मेरे स्कंद को सदेव सुरक्षित रखेगा । अच्छा तो (खड्ग उठाता है। रामा सामने आकर खड़ी हो जाती है) हट जा अभागिनी ! : मुखं ! अभागा कोन है--जो संसार के सबसे पवित्र धमं कृतज्ञता को भूल जाता है और भूल जाता है सबके ऊपर एक अटल अदृइ्य का नियामक सर्वशक्तिमान् है--वह या मैं ? कहता हूं कि अपनी लोथ मुझे पैरों से न ठकराने दे ! टुकड़े का लोभी! तू सती का अपमान करे, तेरी यह 82 / स्कंदगुप्त | अनंतदेवी : दर्वनाग : स्कंदगुप्त : भटाक : स्क दगुप्त : स्कंदगुप्त : अनंतदेवी स्क दगुप्त : देवको : स्पर्धा ? तू कीड़ों से भी तुच्छ है। पहले मैं मरूगी, तब महादेवी । re (क्रोध से) तो पहले इसी का अंत करो शब ! शी घ्रता करो । अच्छा, तो वही होगा (प्रहार करने पर उद्यत होता है। किवाड़ तोड़कर स्कंद भीतर घुस आता है। पीछे मुदगल और धातुसेन । आते ही शर्वनाग की गर्दन दबाकर तल- वार छीन लेता है) (भटाक से) क्यों रे नीच पशु ! तेरी कया इच्छा है ? राजकुमार ! वीर के प्रति उचित व्यवहार होना चाहिए । तू वीर है? अरद्धरात्रि में निस्सहाय अबला महादेवी की हत्या के उद्देश्य से घुसने वाला चोर--तुझे भी वीरता का अभिमान है? तो दृंद्युद्ध के लिए आमंत्रित करता हुं--बचा अपने को ! (भंटाक दो-एक हाथ चलाकर घायल होकर गिरता है) मेरी सौतेली मां, तू***! : स्कंद ! फिर भी मैं तुम्हारे पिता की पत्नी हूं ( घुटनां के बल बठकर हाथ जोड़तो है) अनंतदेवी ! कुसुमपुर में पुरगुष्त को लेकर चुपचाप बैठी रहो । जाओ--मैं स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, परंतु सावधान ! विद्रोह की इच्छा न करना, नहीं तो क्षमा असंभव हे । (देवकी के चरणों पर झुकते हुए ) अहा ! मेरी मां! (आलिंगन करके) आओ मेरे बत्स ! स्कदगुप्त / 83 बंधुवर्म्मा : भीमवर्म्मा : : परंतु इसकी आवश्यकता ही क्या है ? उनका इतना बड़ा | जयमाला बंधुवर्म्मा भीमवर्म्मा बंधुवर्म्मा : जपमाला बंधुवर्म्मा : दृश्य : पांच [अबंती-दुर्ग का एक भाग--बंधुवर्म्मा और जयमाला का प्रवेश | वत्स भीम ! बोलो, तुम्हारी क्या सम्मति है? तात ! आपकी इच्छा--मैं तो आपका अनुचर हूं। साम्राज्य है, तब भी मालव के बिना काम नहीं चलेगा क्या ¦ : देवि ! केवल स्वार्थं देखने का अवसर नहीं है। यह ठीक है कि शकों के पतन-क्राल में पुष्करणाधिपति स्वर्गीय महाराज सिहवर्म्मा ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया ओर उनके बंशधर ही उस राज्य के स्वत्वाधिकारी हैं, परंतु उस राज्य का ध्वंस हो चुका था, म्लेच्छों की सम्मिलित वाहिनी उसे धूल में मिला चुकी थी, उस समय तुम लोगों को केवल आत्महत्या का ही अवलंब शेष था--तब इन्हीं स्कदगुप्त ने रक्षा की थी, यह् राज्य अब न्याय से उन्हीं का है। : परंतु क्या वे मांगते हैं? नहीं भीम ! युवराज स्कंद ऐसे क्षुद्र हृदय नहीं, उन्होंने पुरगुष्त को-उस जघन्य अपराध पर भी, मगधका शासक बना दिया है। वह तो सिहासन भी नहीं लेना चाहते । : परतु तुम्हारा मालव उन्हें प्रिय है ! देवि, तुम नहीं देखती हो कि आरय्यावत्ते पर विपत्ति की प्रलय- मेघमाला घिर रही है, आर्य्य-साञ्राज्य के अंतविरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली भांति जान गये हैं। शीघ्र ही देश-व्यापी युद्ध की संभावना है । इसलिए यह मेरी ही सम्मति है कि साञ्राज्य की सुव्यवस्था के लिए, आर्य्य राष्ट्र के त्राण के लिए युवराज उज्जयिनी में रहें- इसी 84 / स्कंदगुप्त | में सबका कल्याण है। आर्य्यावत्त का जीवन केवल स्कंदगुप्त के कल्यांण से है। और उज्जथिनी में साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा--सम्राट होंगे स्कंदगुप्त । जयमाला : आययेपुत्र ! अपना पैतृक राज्य इस प्रकार दूसरों के पेदतल में निःसंकोच अपित करते हुए हृदय कांपता नहीं है? क्या फिर उन्हीं की सेवा करते हुए दास के समान जीवन व्यतीत करना होगा ? बंधुवर्म्मा : (सिर झुकाकर सोचते हुए) तुम कृतघ्नता का समर्थेन करोगी--बेभव और ऐश्वर्य्यं के लिए ऐसा कदर्य प्रस्ताव करोगी'" "इसका मुझे स्वप्न में भी ध्यान न था। जयमाला : यदि होता! बंधुवर्म्मा : तब मैं इस कुटुंब की कमनीय कल्पना को दूर से ही नमस्कार करता और आजीवन अविवाहित रहता। । ` क्षत्रिए ! जो केवल खड्ग का अवलंबन रखने वाले सेनिक है, उन्हे विलास को सामग्रियों का लोभ नहीं रहता। शिहासन पर, मुलायम गद्दों पर लेटने के लिए या अकर्मण्यता और शरीर-पोषण के लिए क्षत्रियों ने लोहे को अपना आभूषण नहीं बनाया है। भीमबर्म्मा : भंया--तब ? बंधुवर्म्मा : भीम ! क्षत्रियों का कर्तव्य है--आत्तं-त्राण-परायण होना, विपद् का हंसते हुए आलिंगन करना, विभीषिकाओं की मुसकराकर अवहेलना करना, और'"*और विपन्नों के लिए, अपने घर्म के लिए-_देश के लिए, प्राण देना । (देवसेना का सहसा प्रवेश ) देवसेना : भाभी ! सर्वात्मा के स्वर में आत्मसमर्पण के प्रत्येक ताल में अपने विशिष्ट ब्यकितवाद का विस्मृत हो जाना--एक मनोहर संगीत है ! कद्र स्वार्थ--भाभी जाने दो, भैया को देखो--कँसा उदार, कंसा महान् और कितना पवित्र ! जयमाला : देवसेना ! समष्टि में भी व्यष्टि रहती है। व्यक्तिर से ही | | | | धर स्कंदगुप्त | 85 बंधुवर्म्मा : भीमवर्म्मा : जयमाला : बंधुवर्म्सा : जाति बनती हे । विश्व-प्रेम, सवंभूत-हित-कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो, इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो ? ठहरो जयमाला ! इसी क्षुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट भावना की भोर प्रेरित किया है, इसी से हम स्वार्थं का समर्थन करते हैं। इसे छोड़ दो जयमाला ! इसके वशीभूत होकर हम अत्यंत पवित्र वस्तुओं से बहुत दूर हो जाते हैं। बलिदान करने के योग्य बह नहीं--जिसने अपना आपा नहीं खोया । | भाभी ! अब तर्के न करो। समस्त देश के कल्याण के लिए | एक कुटंब की भी नहीं, उसके क्षुद्र स्वार्थो की बलि होने दो भाभी ! हृदय नाच उठा है, जाने दो इस नीच प्रभाव को । देखो--हमारा आर्यर्यावत्ते विपन्न है, यदि हम मर-मिटकर भी इसकी कुछ सेवा कर सके'** जब सभी लोगों की ऐसी इच्छा है, तब मुझे क्था ! तब मालवेरवरी की जय हो, तुम्हीं इस सिहासन पर बेठो ! बंधुवर्म्मा तो आज से आर्य्यं-साम्राज्य सेना का एक साधारण पदातिक सैनिक है। तुम्हें तुम्हारा ऐश्वये सुखद हो । (चलने को उद्यत होता है) भोमवर्म्मा : ठहरो भैया, हम भी चलते हैं। चक्रपालित : बंधुवर्म्ता : चक्रपालित : (प्रवेश करके) धन्य वीर ! तुमने क्षत्रिय का सिर ऊंचा किया है। बंधुवर्म्मा ! आज तुम महान् हो, हम तुम्हारा अभिनंदन करते हैं । रण में, बन में, विपत्ति में, आनंद में, हम सब सहभागी होंगे। धन्य तुम्हारी जननी--जिसने आय्य -राष्ट्र का ऐसा शूर सैनिक उत्पन्न किया । स्वागत चक्र! मालवेशवरी की जय हो ! अब हम सब सैनिक जाते हें । ठहरो बंधु ! एक सुखद समाचार सुन लो । पिता जी का 86/ स्कंदगुप्त बंधुवर्म्ता : चक्रपालित : देवसेना : जयमाला : कसला: भटक : अभी-अभी पत्र आया है कि सौराष्ट्र के शकों को निर्मूल करके परम भट्टारक मालव के लिए प्रस्थान कर चूके हैं । संभवतः महाराजपुत्र उत्तरापथ की सीमा की रक्षा करेंगे । हां बंधु ! चलो भाई, मैं भी तुम लोगों की सेवा करूंगी । (घटने टेककर) मालवेश्वर की जय हो ! प्रजा ने अपराध किया है, दंड दीजिए । पतिदेव ! आपकी दासी क्षमा मांगती है। मेरी आँखें खूल गयीं। आज हमने जो राज्य पाया है--वह विश्व-सा म्राज्य से भी ऊंचा है--महान् है। मेरे स्वामी और ऐसे महान्--धन्य हूं मैं ! (बंधबर्म्मा सिर पर हाथ रखता है) दवाय : छह [पथ्च में भटाक॑ और उसकी माता | तू मेरा पुत्र है कि नहीं ? मां, संसार में इतना ही तो स्थिर सत्य है, भौर मुझे इतने पर ही विशवास है। संसार के समस्त लांछनों का मैं तिरस्कार करता हूं, किसलिए ? केवल इसीलिए कि तू मेरी मां है--और वह जीवित हे ! कमला : ओर मुझे इसका दु:ख है कि मैं मर क्यों न गयी, मैं क्यों भटाक : अपने कलंक-पूणे जीवन को पालती रही । भटाके ! तेरी मांको एक ही आशाथी कि पुत्र देश का सेवक होगा-- म्लेच्छों से पद-दलित भारतशभ्रूमि का उद्धार करके मेरा कलंक घो डालेगः, मेरा सिरं ऊंचा होगा । परंतु हाय ! मां! तो तुम्हारी आशाओं को मैंने विफल किया ? क्या मेरी खड्गलता आग के फूल नहीं बरसाती ? क्या मेरे रण- नाद यप्त्र-ध्वनि के समान छात्र के कलेजे नहीं कंपा देते ? क्या तेरे भटाकं का लोहा भारत के क्षत्रिय नहीं मानते? स्कंदगुप्त | 87 कमला : भटाक : कम्नला : विजया : कमला विजया आम कमला : विजया : कमला : भटाक : विजया : कमला मानते हैं--इसी से तो और भी ग्लानि है। घर लौट चलो मां ! ग्लानि क्यों ? इसलिए कि तू देशद्रोही है। तू राजकुल की शांतिका | प्रलय-मेघ बन गया, और तू साम्राज्य के कुचक्रियों में से | एक हे। ओह! नीच ! कृतघ्त ! कमला कलंकिनी हो सकती है, परंतु यह नीचता, कृतघ्नता उसके रक्त में नहीं । (रोती है) [ विजया का प्रवेश | माता ! तुम क्यों रो रही हो ? (भटाक को ओर देखकर ) और यह कोन ? क्यों जी--तुमने इस वृद्धा का क्यों अपमान किया है ? : देव्रि ! यह मेरा पुत्र था। : था ! क्या अब नहीं? नहीं, इसने महाबलाघिकृत होने के लालच में अपने हाथ- पेर पाप की श्वुंखला में जकड़ दिये; अब फिर भी उज्जयिनी में आया है-किसी षड्यंत्र के लिए। कोन--तुम महाबलाधिक्ृत भटाकं हो ? और तुम्हारी माता को यह दीन दशा ! ना बेटी ! इसे कुछ मत कहो, मैं स्वयं इसका ऐश्वर्य त्याग- कर चली आयी हूं । महाकाल के मंदिर में भिक्षा ग्रहण कर इसी उज्जयिनी में पड़ी रहूंगी, परंतु इससे" " मां! अब और लज्जित न करो । चलो--घर चलो । (स्वगत) अहा ! केसी वीरत्व-व्यंजक मनोहर मूत्ति है ! और गुप्तसा म्राज्य का महाबलाधिकृत ! : इस पिशाच ने छलने के लिए रूप बदला है। सम्राट् का अभिषेक होने वाला है, यह उसी में कोई प्रपंच रचने आया है। मेरी कोईन सुनेगा, नहीं तो मैं स्वयं इसे दंडनायक को सर्मापत कर देती । [सहसा मातृगुप्त, मुद्गल ओर गोविइगुप्त का 88 / स्कंदगृप्त मुद्गल : मातृगुप्त : मुद्गल : गो विदगुष्त : कमला | कमला मुद्गल : मातगुष्त : विजया : भटाक विजया : गोविदगुप्त : प्रवेश | कौन ! भटार्क ? अरे यहां भी ! [ भटाक तलवार निकालता है। गो दगुप्त उसके हाथ से तलवार छीन लेते हैं : महाराजपुत्र गोविदगुष्त की जय ! कृतघ्न ¦ वीरता उन्माद नहीं है-_आंघी नहीं है, जो उचित-अनुचित का विचार न करती हो । केवल शस्त्रबल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है--न्याय ! तू उसे कुचलने पर सिर ऊंचा उठाकर नहीं रह सकता, मातुग्प्त--बंदी करो इसे । (कमला के प्रति) और तुम कौन हो भद्रे ? : मैं इस कृतघ्न की माता हूं। अच्छा हुआ, में तो स्वथं यही विचार करती थी । : यह तो मैंने अपने कानों से सुना । धन्य हो देवि ! तुम जेसी जननियां जब तक उत्पन्न होंगी, तब तक आय्य - राष्ट्र का विनाश असंभव है--और वह युवती कौन है ? : मुझे सहायता देती थी, कोई अभिजात कुल की कन्था है- इसका कोई अपराध नहीं । अरे राम ! यह भी अवश्य कोई भयानक स्त्री होगी ! परंतु यह अपना कोई परिचय भी नहीं दे र ही है ! में अपराचिनी हूं; मुझे भी बंदी करो । : यह क्यों, इस युवती से तो मैं परिचित भी नहीं हु--इसका अपराध नहीं । (स्वगत) ओह ! इस आनंद महोत्सव में मुझे कौन पूछता है, मैं मालव में अब किस काम की हूं? जिसके भाई ने समस्त राज्य अर्पण कर दिया है--वह देवसेना भर कहां मैं ! (भटाकं को ओर देखती हुई) तब तो मेरा यही" *" भद्रे ! तुम अपना परिचय दो । स्कंदगुप्त / 89 बिजया : मात गुप्त > विजया कमला विजया : गोविदगुप्त : भटाक : मुदगल : न्या गोविदगुप्त : सातुगुप्त : स्कदगुप्त : मैं अपराधिनी हूं । परंतु तुम्हारा और भी कोई परिचय है ? : यही कि बंदी होने की अभिलाषिणी हूं । : वत्से ! तुम अकारण क्यों दुःख उठाती हो ? मेरी इच्छा-मुझे बंदी कीजिए ! मैं अपना परिचय न्यायाध्रिकरण भें दूंगी--यहां कुछ न कहुंगी। यहां मेरा अपमान किया जायेगा तो आयं राष्ट्र के नाम पर मैं तुम लोगों पर अभियोग लगाऊंगी । क्यों भटाके ! यदि तुम्हीं कुछ कहते' `" मैं कुछ नहीं जानता कि यह कौन है। मुझे भी विलंब हो रहा है, शीघ्र न्यायाधिकरण में ले चलिए । अर वृद्धा कमला ? यह् बंदी नहीं है, परंतु एक बार स्कंद के समक्ष इसे चलना होगा । तो फिर सब चलें--अभिषेक का समय भी समीप है । [सब जते हैं] दृश्य : सात [राजसभा । बंधुबर्म्मा, भौमवर्मा, मातगुप्त तथा मुद्गल के साथ एक भर से स्कंदगुप्त का ओर दूसरी ओर से गेविदगुप्त का प्रवेश ] (बीच में खड़े होकर) तात ! कहां थे ? इस बालक पर अकारण क्रोध करके कहां छिपे थे ? (चरण-बंदना करता है) गोविदयुप्त : उठो वत्स ! आय्ये चंद्रगुप्त की अनुपम प्रतिकृति ! गुरुकुल तिलक ! साई से मैं रूठ गथा था, परंतु तुमसे कदापि नहीं, तुम मेरी आत्मा हो वत्स ! (आलिंगन करता है) 90 / स्कंदगृप्त देवकी : गोविदगुप्त स्क दगुप्त जयमाला : बधुवर्म्मा : गोविदगुप्त स्कंदगुप्त गोविदगष्त [अनुचरियों सहित देवकी का प्रवेश । स्कंद देवकी की चरण-बंदना करता है | वत्स ! चिरविजयी हो ! देवता तुम्हारे रक्षक हों महाराजपुत्र ! इसे आशीर्वाद दीजिए कि गुप्तकुल के गुरु- जनों के प्रति यह विनयशील रहे । : महादेवी ! तुम्हारी कोख से पेदा हुआ यह् रत्त-यह गुप्तकुल के अभिरान का चिह्व्-सर्द॑व यशोमंडित रहेगा ! : (बंधुवर्म्मा से) मित्र मालवेश ! बढ़ो, सिंहासन पर बेठो ! हम तुम्हारा अभिनंदन कर । [ जयमाला और देवसेना का प्रवेश | देव | यह सिंहासन आपका है, मालवेश का इस पर कोई अधिकार नहीं । आर्य्यावत्तं के सम्रादू के अतिरिक्त अब दूसरा कोई मालव के सिंहासन पर नहीं बैठ सकता । [ 'मालव को जय हो' को तुमुल ध्वनि ] (हसकर) सम्राट ! अब तो मालवेश्वरी ने स्वयं सिंहासन त्याग दिया है, और मैं उन्हें दे चुका था, इसलिए सिंहासन ग्रहण करने में अब विलंब न कोजिए । : वत्स ! इन आय्यें-जाति के रत्नों की कौन-सी प्रशंसा कह । इनका स्वार्थ-त्याग दबीचि के दान से कम नहीं । बढ़ी वत्स ! सिंहासन पर बेठो, मैं तुम्हारा तिलक करूँ । * तात ! विपत्तियों के बादल घिर रहे हैं, अंतर्विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित है, ऐसे सम्रय में केवल एक सेनिक बन सकंगा, सम्राट नहीं । , आज, आय्ये-जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है--सेनिक छोड़कर और कुछ नहीं । आर्य्य-कन्याएं अपहरण की जाती हैं, इणों के बिकट तांडव से पवित्र झूमि पादाक्रांत है, कहीं देवता की पूजा नहीं होती--सीमा की बर्बर जातियों की राक्षसी वृत्ति का प्रचंड पाखंड फला है। ऐसे समय आय्य- स्कंदगुप्त | 9 जाति तुम्हें पुकारती है--संम्राट् होने के लिए नहीं, उद्धार-युद्ध में सेनानी बसने के लिए--सम्राट् । [गोविंद गुप्त और बंधुवर्म्मा हाथ पकड़कर स्कदगुप्त को सिहासन पर बंठाते हैं । भीमवर्म्मा छत्र लेकर बेठता हे । देवसेना चमर करती है । गरुडध्वज लेकर बंधवर्म्मा खड़े होते हैं। देवकी राजतिलक करती हे। गोविदगुप्त खड्ग का उपहार देते हैं । चक्रपालित गरुडांकित राजदंड देता है | गोविदगुष्त : परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कंदंगुप्त की जय हाँ! सञ्ज : (समवेत स्वर से) जय हो ! | बंधुवर्सम्मा : आय्ये-साम्राज्य के महाबलाधिकृत महाराजपुत्र गोविदगुप्त की जय हो ! (सब वसा हो कहते हें) स्कंदगप्त : आर्यं ! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकं, और आर्य्य राष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अपण कर सकू, आप लोग इसके लिए भगवान से प्रार्थना कीजिए और आशीर्वाद दीजिए कि स्कंदगुप्त अपने कत्तव्य से--स्वदेश- सेवा से कभी विचलित न हो । गोबिदगुष्त : सम्राट् ! परमात्मा की असीम अनुकंपा से आपका उद्देश्य सफल हो । आज गोविद ने अपना कत्तेव्य-पालन किया। वत्स बंधुवर्मर्मा ! तुम इस नवीन आय्येराष्ट्र के संस्थापक हो । तुम्हारे इस आत्मत्याग की गौरवगाथा आर्य्ये-जाति का मुख उज्ज्वल करेगी । वीर! इस वृद्ध में साम्राज्य के महाबलाधिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्हीं इसके उपयुक्त हो । बंधव्मा : आर्यं ! अभी आपके चरणों में बंठकर यह बालक स्वदेश- सेवा की शिक्षा ग्रहण करेगा । मालव का राजकुट्ुंब-- एक-एक बच्चा--आ य्यं जाति के कल्याण के लिए जीवन उल्सगे करने को प्रस्तुत हैं। आप जो आज्ञा देंगे, वही 92 | स्कंदगुप्त स्कंदगुप्त चक्रपालित मातगुप्त स्कदगुप्त मातगुप्त स्कदगुप्त . गोविदगुप्त स्कदगुध्त शर्वनाग : स्कदगुष्त शबनाग : स्कदगुष्त : होगा । (घन्य-धन्य कां घोष) : तात ! पर्णंदत्त इस समय नहीं ! : सम्राट ! वह सौराष्ट्र की चंचल राष्ट्रनीति की देख-रेख में लगे हैं । | [कुमारदास का प्रवेश | : मिहल के युवराज कुमार घातुसेन की जय हो ! [ सब आइचयं से देखते हैं] : कुमारदास--सिहल के युवराज धातुसेन ! : हां, महाराजाधिराज ! अद्भुत | वीर युवराज! तुम्हारा स्नेह क्या कभी भूल सकता हूं ? आओ, स्वागत ! [सब्र मंचों पर बंठते हैं] : बंदियों को ले आओ। [सँनिकों के साथ भटार्क, झर्वनाग, विजया तथा कमला का प्रवेश | : क्यों शं ! तुम क्या चाहते हो ! सम्राट ! वध की आज्ञा दोजिए । मेरे जेसे नीच के लिए और कोई दंड नहीं हे । : नहीं, मैं तुम्हें इससे भी कड़ा दंड दूंगा, जो वध से उग्र होगा । वही हो सम्राट ! जितनी यंत्रणा से यह पापी घ्राण निकाल” जाय, उतना ही उत्तम होगा । परंतु मैं तुम्हें मुक्त करता हूं, क्षमा करता हूं । तुम्हारे अपराध ही तुम्हारे मर्मेस्थल पर सँकड़ों बिच्छुओं के डंक की चोट करेंगे। आजीवन तुम उसी यंत्रणा को भोगो, क्योंकि रामासाध्वी रामा को--में अपनी आज्ञा से विधवा न बनाऊंगा ! सती रामा ! तेरे पुण्य से तेरा पति आज मृत्यू से बचा ! [रामा सम्राट का पर पकड़तो है] स्कंदगुप्त / 93 शर्वेनाग : दुहाई सम्राट की-मेरे वध की आज्ञा दीजि ए, नहीं तो आत्महत्या करूंगा। ऐसे देवता के प्रति मैंने दुराचरण किया, ओह ! (छुरी निकालना चाहता है) स्कंदशुप्त : टहरो शर्वे ! मैं तुम्हें आजीवन बंदी बनाऊंगा । [ रामा आइचय और दुःख से देखती है] स्कदगुप्त : दाव ! यहां आओ । (झं समीप आता है) देवको : वत्स ! इसे किसी विषय का शासक बनाकर भेजो, जिसमें | दुखिया रामा को किसी प्रकार का कष्ट न हो । | शवे : महादेवी की जय हो ! त्कदगुप्त : शबं ! आज से तुम अंतवेंद के विषयपति नियत किये गये । यह लो--(खड़ग देता है) श वनाय : (खड्ग लेते रुद्ध कंठ से) सा्राट ! देवता ! आपकी जय हो ! (देवको के पेर पर गिरकर) मुझे क्षमा करो मां ! में मनुष्य से पशु हो गया था ! अब तुम्हारी ही दया से मैं मनृष्य हुआ । आशीर्वाद दो जगद्धात्री कि देव-चरणों में आत्मबलि देकर जीवन को सफल करू ! देवक : उठो शवे ! क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती | प्रतिहिसा पाशव धर्म है। उठो, मैं तुम्हें क्षमा करती हूं । (दबे खडा होता है) स्कंदगुप्त : भटाक ! तुम गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिक्ृत नियत किये गये थे, ओर तुम्हीं साम्राज्य-लक्ष्मी महादेवी की हत्या के कुचक्र में सम्मिलित थे ! यह तुम्हारा अक्षम्य अपराध है । भटाक : मैं केबल राजमाता की आज्ञा का पालन करता था । देवकी : क्यों भटाकं ! यह उत्तर तुम सच्चे हृदय से देते हो ? ऐसा कहकर तुम स्वयं अपने को धोखा देते हुए क्या औरों को भी प्रबंचित नहीं कर रहे हो ? भटाक : अपराध हुआ । (सिर नीचा कर लेता है) स्कंदगुप्त : तुम्हारे खड्ग पर साम्राज्य को भरोसा था। तुम्हारे हृदय 94 / स्कंदगृप्त देवसेना : विजया : जयमाला : विजया : पर तुम्हीं को भरोसा न रहे, यह बड़े धिक्कार की बात है । तुम्हारा इतना पतन ? (भटाकं स्तब्ध रहता है। बिजया की ओर देखकर) और तुम विजया ? तुम क्यों इस में सम्राट ! दिजया मेरी सखी है। परंतु मैंने भटार्के को व्रण किथा है । विजया ! कर चुकी देवि ! देवसेना : उसके लिए दूसरा उपाय न था राजाधिराज ! प्रतिहिसा स्कंदगुप्त : देवसेना : देवकी : घातुसेन स्कदगुप्त : : परमेश्वर परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कदगुष्त को मातगुप्त सनृष्य को इतने नीचे गिरा सकती हे ! परंतु विजया, तूने शीघ्रता की । (स्कंद विजया की ओर देखते हुए विचार में पड़ जाता है) यह वद्धा इसी कृतघ्न भटाकं की माता है ! भटाक के नीच करम सें दूखी होकर यह उज्जयिनी चली आयी है! परंतु विजया, तुमने यह क्या किया ' (स्वगत) आह! जिसकी मुझे आशंका थी--वही है । विजया, आज तू हारकर भी जीत गयी । वत्स ! आज तुम्हारे शुभ महाभिषेक में एक बूंद भी रक्त नगिरे। तम्हारी माता की यही मंगलकामना है कि तुम्हारा शासनदंड क्षमा के संकेत पर चला कर । आज मैं सबके लिए क्ष माप्राथनी हूं । आर्य्यंनारी सती ! तुम धन्य हो ! इसी गौरव से तुम्हारे देश का सिर ऊंचा रहेगा । जेपी माता की इच्छा *' जय ! [समवेत कंठ से जयघोष ] [पटाक्षेप ] स्कंदगृप्त / 95 प्रपंचबुद्धि : भटाक : प्रपंचबुद्धि भटक प्रपंचबुद्धि भझटाक प्रपंचबुद्धि भटाक॑ त् तीय अंक दृशय : एक [ शिप्रा तट | सब विफल हुआ । इस दुरात्मा स्कंदगुप्त ने मेरी आशाओं के मंडार पर अर्गला लगा दी। कुसुमपुर में पुरगुप्त और अनंतदेवी अपने विडंबना के दिन बिता रहे हैं। भटाकं भी बंदी हुआ, उसके प्राणों की रक्षा नहीं। क्रूर कमों की अवतारणा से भी एक बार सद्धमं को उठाने की आकांक्षा थी, परंतु बह दूर गया । (कुछ सोचकर) उग्रतारा की सावना से विकट कार्य भी सिद्ध होते हैं, तो फिर इस महाकाल के महाश्मशान से बढ़कर कौन उपयुक्त स्थान होगा ! चलं" [जाना चाहता हे । भटाक का प्रवेश ] भिक्षु शिरोमणे ! प्रणाम ! : कोन, भटाक ! अरे मैं क्या स्वप्न देख रहा हूं ? : नहीं आयं मैं जीवित हूं । : उसने तुम्हें सुली पर नहीं चढ़ाया ? : नहीं, उससे बढ़कर ! : क्या ? : मुझे अपमानित करके क्षमा किया। मेरी वीरता पर एक दुर्वह उपकार का बोझ लाद दिया । /96 प्रपंचबुद्धि : भटाके : प्रपंचबुद्धि : विजया : देवसेना : विजया देवसेना : विजया : दे वसेना : विजया देवसेन 7 तुम मुखें हो! शत्रु से बदला लेने का उपाय करना चाहिए, न कि उसके उपकारों का स्मरण । मैं इतना नीच नहीं हूं ! परंतु मैं तुम्हारी प्रवृत्ति जानता हूं--तुम इतने उच्च भी नहीं हो । चलो, एकांत में बातें करें । कोई आता है। [ दोनों जाते हैं-विजया का प्रबेश ] मैं कहां जाऊं ? उस उच्छंखल वीर को मैं लौह-प्यृंखला पहना सकूंगी--अपने बाहुपाश में उसे जकड़ सकंगी ? हृदय के विकल मनोरथ--आह ! (गातो है) उमड़ कर चली भिगोने आज तुम्हारा निइचल अंचल छोर नयन जल-धारा रे प्रतिकूल देख ले तू फिरकर इस ओर हृदय की अंतरतम मुसक्यान कल्पनामय तेरा यह विश्व लालिमा में लय हो लवलीन निरखते इन आंखों की कोर वह कोन ? ओ ! राजकुमारी ! [ देवसेना का प्रवेश --द्र उसकी परिचारिकाएं ] विजया ! सायंकाल का दृश्य देखने शिप्रा-तट पर तुम भी आ गयी हो ! : हां, राजकुमारी ! (सिर झुका लेती है) विजया, अच्छा हुआ, तुमसे मेंट हो गयी, मुझे कुछ पुछना था । पूछना क्या है ? | तुमने जो किया उसे सोच-समककर किया है--कहीं तुम्हारे दंभ ने तुमको छल तो नहीं लिया? तीव्र मनो- वृत्ति के कशाघात ने तुम्हें विपथगामिनी तो नहीं बना दिया ? : राजकुमारी ! में अनुगृहीत हूं। उस कृपा को नहीं भूल सकती जो आपने दिखायी है। परंतु अब और प्रश्न करके मुझे उत्तेजित करना ठीक नहीं । : (आइचयं स) क्यों विजया ! पेरे सखीजनोचित सरल स्कदगृप्त / 97 विजया : देवसेना विजया : देवसेना : विजया : दे वसना | विजया : देवसेना : विजया भटाक बिजया भटाक प्रइनों में भी तुम्हें व्यंग सुनायी पड़ता है ? क्या इसमें भी प्रमाण की आवश्यकता है? (सरोष) राजकुमारी ! आज से मेरी ओर देखना मत । मुभे कृत्या- अभिशाप की जबाला समझना और" "* ` ठहरो, दम ले लो ! संदेह के गत्तं में गिरने से पहले विवेक का अवलंब ले लो-विजया ! हताश जीवन कितना भयानक होता है--यह नहीं जानती हो ? उस दिन जिस तीखी छुरी को न रखने के लिए मेरी हंसी उड़ाई जा रही थी, मैं समती हूं कि उसे रख लेना मेरे लिए आवश्यक था। राजकुमारी ! मुझे न छेड़ना। मैं तुम्हारी शत्रु हूं। (क्रोध से देखली है) (आइचयं से) क्या कह् रही हो? बही जिसे तुम सुन रही हो। वह तो जेसे उन्मत्त का प्रलाप था। अकस्मात् स्वप्न देख- कर जग जाने वाले प्राणों को कुलूहल-गाथा थी। विजया ! क्या मैंने तुम्हारे सुख में बाधा दी--मैंने तो तुम्हारे मागं को स्वच्छ करने के मिवा रोड़े न बिछाये । उपकारो को ओट में मेरे स्वगे को छिपा दिया, मेरी कामनालता को समूल उखाड़कर कुचल दिया। शीघ्रता करने वाली स्त्री ! अपनी असावधानी का दोष दूसरे पर न फेंक । देवसेना मूल्य देकर प्रणय नहीँ'लिया चाहती `` अच्छा, इससे क्या ! (जाती है) : जाती हो, परंतु सावधान ! [भटाक ओर प्रपंचब्रुद्धि का प्रवेश ] : विजया ! तुम कब आयी हो ? : अभी-अभी, तुम्हीं को तो खोज रही थी । (प्रपंचबुद्धि को देखकर ) आप कौन हैं ? : योगाचार संघ' के प्रधान श्रमण आर्य्य प्रपंचबुद्धि ! [ विजया नमस्कार करती है] 98 / स्कदगृप्त विजया प्रपंचबुद्धि भटक : विजया प्र पंचबुद्धि : भटक : प्रपंचब्द्धि : भटक मातगष्त : पंचबुद्धि : कल्याण हो देवि ! भटाकं से तों तुभ परिचित-सी हो, परंतु मुझे भी जान जाओगी । : आय्यं ! आपके अनुग्रह-लाभ की बड़ी आकांक्षा है। प्रपंचबुद्धि : शुभे ! प्रज्ञापारमिता-स्वरूपा तारा तुम्हारी रक्षा करे ! क्या तुम सद्धमं की सेवा के लिए कुछ उत्सगं कर सकोगी ? (कुछ सोचकर) तुम्हारे मनोरथ पूण होने में विघ्न और विलंब है। इसलिए तुम्हेँ अवश्य धर्माचरण करना होगा । : आय्य ! मेरा भी एक स्वार्थं है। प्रपंचबुद्धि : विजया : क्या ? राजकुमारी देवसेना का अंत ! : और मुझे उग्रतारा की साधना के लिए महाइमशान में एक राजबलि चाहिए । यह तो अच्छा सुयोग है । : उसे शमशान तक ले आनां तो मेरा काम है, आगे मैं कुछ न कर सकंगी । सब हो जायेगा। उग्रतारा की कृपा से सब कुछ सुसंपन्न होगा। परंतु मैं कृतघ्नता से कलंकित होऊंगा। और स्कं दगुप्त से मैं किस मुंह से'" "नहीं '* "नहीं **' सावधान ! भटाकं ! अलग ले जाकर समझाया फिर भी'।'! तुम पहले अनंतदेवी और पुरगृप्त से प्रतिश्रुत हो चके हो । : ओह ! पाप-पंक में लिप्त मनुष्य की छुट्री नहीं । कुकमं उसे जकड़कर अपने नागषाश में बांध लेता है ! दुर्भाग्य ! [सबका प्रस्थान | (निकलकर) भयानक कुचक्र! एक निर्मल कुसुम-कली की कुचलने के लिए इतनी बड़ी प्रतारणा की चक्की ! मनुष्य ! तुझे हिसा का उतना ही लोभ है, जितना एक भूखे भेडियि को ! तब भी मेरे पास उसमे कुछ विशेष स्कदगृप्त / 99 स्कंदगष्त : देबसेना : विजया : साधन हैं-छल, कपट, विश्वासघात, कृतघ्नता और पौने अस्त्र। इनसे भी बढ़कर प्राण लेने की कला-कुदालता । देखा जायेगा, भटाकं ! तुम जाते कहां हो ! (प्रस्थान) दृश्य: दो [ इमशान-साधक के रूप में प्रपंचबुद्धि । दूर से स्कदगुप्त आता है | इस साम्राज्य का बोझ किसके लिए? हृदय में अशांति, राज्य में अशांति, परिवार में अशांति ! केवल मेरे अस्तित्व से ? मालूम होता है कि सबकी--विशवनभर की --शांति-रजनी में मैं ही धूमकेतु हुं, यदि मैं न होता तो यहं संसार अपनी स्वाभाविक गति से--आनंद से, चला करता । परंतु मेरा तो निज का कोई स्वार्थ नहीं, हृदय के एक-एक कोने को छान डाला कहीं भी कामना की वन्या नंहीं--बलवती आशा की आंधी नहीं चल रही है । केवल गृष्त सम्राट् के वंशधर होने की दयनीय दशा ने मुझे इस रहस्यपूर्णं क्रिया-क्लाप में संलग्न रखा है । कोई भी मेरे अंतःकरण का आलिगन करके न रो सकता है, और न तो हंस सकता है । तब भी विजया"**! ओह् ! उसे स्मरण करके क्या होगा ! जिसे हमने सुख-शर्वरी को संध्या तारा के समान पहले देखा, वही उल्कापिड होकर दिगंत दाह करना चाहती है । विजया ! तूने क्या किया ! (प्रपंचबद्धि को देखकर) ओह, केसा भयानक मनुष्य है ! कैसी क्रर आकृति है--मूतिमान पिशाच है ! अच्छा, मातु- गुप्त तो अभी तक नहीं आया । छिपकर देखूं । (छिपता है) [विजया के साथ देवसेना का प्रवेश | आज फिर तुम किस अभिप्राय से आयी हो ? मर तुम राजकुमारी ? क्या तुम इस महाबीभत्स मशान ]00 / स्कदगृप्त दे वसेना : विजया : देवसेना : प्रपंचबुद्धि देवसेना : प्रपंचबुद्धि देवसेना में आने से नहीं डरती हो ? संसार का मूक शिक्षक--इमशान --क्या डरने की वस्तु है ? जीवन की नद्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुंदर स्थल और कौन है ? [ नेपथ्य से गान | | सब जीवन बीता जाता है। घृप-छाँव के खेल-सद्श--सब ० समय भागता है प्रतिक्षण में, नव अतीत के तुषार-कण में, हमें लगाकर भविष्य-रण में, आप कहां छिप जाता है--सब ० बुल्ले, लहर, हवा के भोके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है--सब ० बंशी को बस बज जाने दो, मीठी मींडों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो, जो कुछ हमको भाता है-सब० (स्वगत) भात-विभोर दूर की रागिनी सुनती हुई यह कुरंगी-सी कुमारी''*आह ! कंसा भोला मुखडा ! पर नहीं, नहीं विजया ! सावधान ! प्रतिहिसा-- (प्रकट ) राजकुमारी ! देखो, यह कोई बड़ा सिद्ध है वहां तक चलोगी ? चलो, परंतु मुझे सिद्ध से क्या प्रयोजन ? जब मेरी काम- नाएं विस्मृति के नीचे दबा दी गयी हैं, तब वह चाहे स्वयं ईश्वर ही हो तोक्या? तब भी एक कुतूहल है ! चलो [ विजया देवसेना को आगे कर प्रपंचबुद्धि के पास ले जाती है ओर आप हट जाती है । ध्यान से आंखें खोलकर प्रपंच उसे देखता है। ] : तुम्हारा नाम देवसेना है? (आइचय से ) हां, भगवन् ! : तुमको देवसेना के लिए शीघ्र प्रस्तुत होना होगा। तुम्हारी ललाटलिपि कह रही है कि तुम' बड़ी भाग्यवती हो ! : कौन-सी देवसेवा ? स्कंदगुप्त / 0] दच | i | | | re कि f 5 क दु न = डय ह रे i) = प्रपंचबुद्धि : देवसेना : प्रपंचबुद्धि : देवसेना प्रपंचबुद्धि : यह नञ्वर शरीर, जिसका उपभोग तुम्हारा प्रेमी भी न कर सका और न करने की आशा है, देवसेवा में अपित करो ! तारा तुम्हारा परम मंगल करेगी । (सिहर उठती है) कया मुझे अपनी बलि देनी होगी ? (घमकर देखती है) विजया ! विजया ! डरो मत, तुम्हारा सृजन इसीलिए था। नित्य की मोह- ज्वाला में जलने से तो यही अच्छा है कि तुम एक साधक का उपकार करती हुई अपनी ज्वाला को शांत कर दो ! : परंतु--कापालिक ! एक और भी आशा मेरे हूदय में है। वह पूणे नहीं हुई । मैं डरती नहीं हूं, केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा है। बिजया के स्थान को मैं कदापि न ग्रहण करूंगी । उसे भ्रम है, यदि वह छूट जाता । (उठकर उसका हाथ पकड़कर खड़ग उठाता है) पर मुझे ठहरने का अवकाश नहीं । उग्रतारा की इच्छा पूर्ण हो । देवसेना : प्रियतम ! मेरे देवता ! युवराज! तुम्हारी जय हो! पुरगुप्त : (सिर झुकाती है) [पीछे से मातगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़कर नेपथ्य में ले जाता है। देवसेना चक्रित होकर स्कंद का आलिगन करतो है। | दृश्य : तीन . [मगध के राजमंदिर में अनंतदेवी, पुरग॒प्त, विजया ओर भटाक | करड ह? विजय-पर-विजय ! देखता हूं कि एक बार बंक्षुत्तठ पर गुप्त-साम्राज्य की पताका फिर फहरायेगी । गरुडध्वज वंक्षु के रेतीले मदान में अपनी स्वर्ण-प्रभा क्रा विस्तार ।02 | स्कंदगुप्त अनंतदेवी : विजया : भटाक भटक चर: भटाक भटक भंटाक : करेगा । परंतु तुमको क्या? निर्वी्े--निरीह बालक ! तुम्हें भी इसकी प्रसन्नता है ? लज्जा की गते में डब नहीं जाते और भी छाती फुलाकर इसका आनंद मानते हो ! अहा ! यदि आज राजाधिराज कहकर युवराज पुरगुष्त का अभिनंदन कर सकती ! : यदि मैं जीता रहा तो वह भी कर दिखाऊंगा । दौवारिक : (प्रवेश करते) जय हो ! एक चर आया है । शले आभो । [दोवारिक जाकर चर को लिवा लाता हैं] युवराज की जय हो ! : तुम कहां से आये हो ? चर: नगरहार के हृण-स्कंधावार से । : क्या संदेश है ? चर: सेनापति खिगिल ने पूछा है कि मगध की गुप्त परिषद् क्या कर रही है ? उसने प्रचुर अर्थ लेकर भी मुझे ठीक समय पर घोखा दिया है । परंतु स्मरण रहे कि अब को हमारा अभियान सीधे कुसुमपुर पर होगा । स्कंदगुप्त का साम्राज्य-ध्वंस तो पीछे होगा, पहले कुसुमपुर का मणि- रत्त-भांडार लूटा जायेगा। प्रतिष्ठान और चरणाद्वि तथा गोपाद्रि के दुर्ग-पतियों कों विद्रोह करने के लिए धन-- परिषद् की आज्ञा सें भेजा गया था, उसका क्या फल हुआ ? अंतर्वेद के विषयपति की कुटिल दृष्टिने उस रहस्य का उदघाटन करके घन को आत्मसात् कर लिया और सहायता के बदले हम लोग प्रबंचित हुए, जिससे हूणों को सिंधु का तट भी छोड़ देना पड़ा । ओह ! शर्वनांग ने बंड़ी सावधानी से काम लिया ! आचार्य प्रपंचबुद्धि का निधन होने से यह सब दुर्घटना हुई है। दूत ! हुणराज से कहता कि पुरगुप्त को सम्राट बनाने में स्कंदगुप्त | ]03 उन्हें अवश्य सहायता करनी पड़ेगी । चर : परंतु उन्हें विशवास केसे हो ? भटाक : सैं प्रमाण-पत्र दूंगा । हुणों को एक बार ही भारतीय सीमा से दूर करने के लिए स्कंदगृप्त ने समस्त सामंतों को आमंत्रण दिया है। मगध की रक्षक सेना भी उसमें सम्मि- लित होगी और मैं ही उसका परिचालन करूंगा । वहीं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगा । और यह लो प्रमाण-पत्र । (पत्र लिखकर देता है ) पुरगुष्त : ठहरो ! अनंतदेवी : चुप रहो ! दूत : तो यह उपहार भी साम्राज्ञी के लिए प्रस्तुत है । (रत्नों से भरी हुई मंजूषा देता है) भटाक : और उत्तरापथ के समस्त धर्मसंघों के लिए क्या किया है? दूत: आयं महाश्रमण के पास मैं हो आयाहूं। सद्धमं के समस्त अनुयायी और संघ, स्कंदगृप्त के विरुद्ध हैं । याज्ञिक क्रियाओं की प्रचुरता से उनका हृदय धर्मनाइ के भय से घबरा उठा है। बे सब विद्रोह करने के लिए उत्सुक हैं। भटाकं : अच्छा, जाओ। नगरहार के गिरिब्रज का युद्ध इसका निबटारा करेगा । हुणराज से कहना कि सावधान रहें शीघ्र वहीं मिलूंगा। (दूत प्रणाम करके जाता है) पुरगुप्त : यह क्या हो रहा है ? अनंतदेवी : तुम्हारे सिहासन पर बेठने की प्रस्तावना है ! सेनिक : (प्रवेश करते हुए) महादेवी की जय हो ! भटाक : क्या है ? सेनिक : कुसुमपुर की सेना जालंधर से भी आगे बढ़ चुकी है। साम्राज्य के स्कंधावार में शीघ्र ही उसके पहुंच जाने की संभावना है । पुरगुप्त : विजया ! बहुत विलंब हुआ । एक पात्र" "` ]04 / स्कंदगृप्त भठाक संनिक : : कहो ! संनिक: यह राष्ट्र का आपत्तिकाल है, युद्ध की आयोजनाओं के hy भटक : विजया भटाक संनिक भटाक : संनिक : [अनंतदेवी संकेत करती हैं। बिजया उसे पिलाती है] | : मेरे अश्वों की व्यवस्था ठीक है न? मैं उसके पहले पहुंचूंगा । परंतु महाबलाधिकृति ! बदले हम कुसुमपुर में आपानकों का समारोह देख रहे हैं। राजधानी विलासिता का केंद्र बन रही है । यहां के मनुष्यों के लिए विलास के उपकरण बिखरे रहने पर भी--अषर्यांप्त हैं ! नये-नये साधन और नवीन कल्पनाओं से भी इस विलासिता राक्षसी का पेट नहीं भर रहा हे । भला मगध के विलासी सैनिक क्या करगे ! अबोध ! जो विलासी न होगा, बह भी क्या वीर हो सकता है ? जिस जाति में जीवन न होगा, वह विलास कया करेगी? जाग्रत राष्ट्र में ही विलास और कलाओं का आदर होता है । बीर एक कान से तलवारों की ओर दूसरे से न्पुरों की झनकार सुनते हैँ । : बात तो यही है। संनिक : श नहीं तो ? : नहीं तो दूसरा कोई ऐसा कहता, तो मैं यही उससे कहता आप महाबलाधिकृत हैं- इसलिए मैं कुछ न कहुंगा ! कि तुम देश-शत्रृ हो ! (क्रोध से) हँ'*' हां ! यवनों से उधार ली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आरय्यं-जाति उसी तरह पड़ी है, जसे कुलवधू को छोड़कर कोई नागरिक वेइया के चरणों में ! देश पर बर्बर हृणों की चढ़ाई और तिस पर भी यह निलंज्ज आमोद | जातीय जीवन के निर्वाणोन्मुख प्रदीप का--यह दृश्य स्कंदगृप्त | ।05 | द र | "र | | | ' es प्र अन्य: ह > । oe ट लः र बम ट क आह ! जिस मगध को सेना सदेव नासीर में रहती थी-- आय्ये चंद्रगुप्त को वही विजयिनी सेना सबके पीछे निमंत्रण पाने पर साम्राज्य-सेना में जाय ! महाबलाधि- कृत ! मेरी तो इच्छा होती है कि मैं आत्महत्या कर लूं ! मैं उस सेना का नायक हुं जिस पर गरुडध्वज की रक्षा का भार रहता था । आय्ये समुद्रगुप्त द्वारा प्रतिष्ठित उसी सेता का ऐसा अपमान ! भटाक : (अपने क्रोध का मनोभाव दबाकर) अच्छा, तुम यहीं मगध परगुप्त : अनंतदंवी § की रक्षा करना, मैं जाता हूं । : हु—अच्छा, तो यह खड्ग लीजिए, मैं आज से मगध की सेना का नायक नहीं । (खडग रख देता है) (मद्यप को-सी चेष्टा करते) यह अच्छा किया--आओ मित्र--हम-तुमं कादंब पिएं । जाने दो इन्हें -इन्हें लड़ने दो! (भटक को संकेत करती हुई ले जातो है और विजया से कहती हैं) विजया ! युवराज का मन बहूंलाओ । [सेनिक तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए जाता है। भटाक ओर अनंतदेवी एक ओर, विजया और पुरगुप्त दूसरी ओर जाते हैं | दृश्य - चार [उपवन में जयमाला भोर. देवसेना] जयमाला : तू उदास है कि प्रसन्त, कुछ समक में नहीं आता ? जब तू दूसरी सखी: गाती है तब तेरे भीतर की .रांगिती होती है और जब हंसता हे तब जसे विषाद की प्रस्तावना होती है ! पहली सखी : सम्राट युद्ध-यात्रा में गये हैं और्"*" तो क्या ? देवसेना: तुम सब भी भाभी के साथ भिल गयी हो । क्यों भाभी, : ।06 | स्कंदगृप्त गाऊं वह गीत ? जयमाला: मेरी प्यारी ! तू गाती है। अहा! बडी:बड़ी आंखें तो बरसाती ताल-सी लहरा रही हैं। तू दुखी होती है, मैं जाती हूं । अरी ! तुम सब इसे हंसाओ । (जाती है) देवसेना : क्या महारथी हारकर भागे? अब तुम सब क्षद्र सैनिकों की पारी है? अच्छा, तो आओ । पहली सखी : नहीं, राजकुमारी ! मैं पूछती हूं कि सम्राट ने तुमसे कभी प्रार्थना की थी ? दूसरी सखी : हां, तभी तो प्रेम का सुख है ! तीसरी सखी : तो कया मेरी राजकुमारी स्वयं प्राथिनी होंगी ? उहूं ! देवसेना : प्राथना किसने की है, यह रहस्य की बात है--क्यों कहं ? प्राथना हुई है मालव की ओर से, लोग कहेंगे कि मालव देकर देवसेना का ब्याह किया जा रहा है। पहली सखी : त कहो, तब फिर क्या-हरी-हरी कोंपलों की टट्टी में फूल खिल रहा है--और क्या ! देवसेना : तेरा मुंह काला, और क्या? निर्दंय होकर आघात मत कर, ममं बड़ा कोमल है। कोई दूसरी हंसी तुझे नहीं आती ? (मुंह फेर लेती है) दूसरी सखी : लक्ष्यभेद ठीक हुआ-सा देखती हूं । देवसेना : क्यों घाव पर नमक छिड़्कती है ? मैंने कभी उनसे प्रेम की चर्चा करके उनका अपमान नहीं होने दिया है। नीरव जीवन और एकांत व्याकुलता--कचोटने का सुख मिलता है । जब हृदय में रुदन का स्वर उठता है, तभी संगीत की वीणा मिला लेती हूं । उसी में सब छिप जाता है। (आंखों से आंसु बहता है) तीसरी सखो : है-हैं"" "क्या तुम रोती हो ? मेरा अपराध क्षमां करो ! देच्रसेना : (सिसकती हुई) नहीं प्यारी सखी ! आज हीं मैं प्रेम के नाम पर जी खोलकर रोती हूं, बस, फिर नहीं । यह एक क्षण का रुदन अनंत स्वगे का सूजन करेगा स्कदगृप्त / ।07 दुसरी सखी : तुम्हें इतना दुःख है, मैं यह कल्पना भी न कर सकी थी । देवसंना : (सम्हलकर)यहीं तू भूलती है । मुझे तो इसी में सुख मिलता हैं। मेरा हृदय मुझसे अनुरोध करता है, मचलता है, रूठता है, मैं उसे मनाती हूं । आंखें प्रणय-कलह उत्पन्न कराती हैं, चित्त उत्तेजित करता है, बुद्धि झिड़कती है, कान कुछ सुनते ही नहीं ! मैं सबको साती हूं, विवाद मिटाती हुं। सखी ! फिर भी मैं इसी भ पड़ाल् कृट्ंब में गृहस्थी संभालकर, स्वस्थ होकर बैठती हूं । तीसरी सखी : आश्चर्य ! राजकुमारी ! तुम्हारे हृदय में एक बरसाती नदी बेग से भरी है । | देवसेना : कूलों में उफनकर बहने वाली नदी, तुमुल तरंग, प्रचंड पवन और भयानक वर्षा ! परंतु उसमें भी नाव चलानी ही होगी । (पहली सखी गाती है) मांकी ! साहस है ? खे लोगे? जज्जेर तरी भरी पथिकों से झड़ में कया खे लोगे ? SS याळ“ ला > २4७१७७५७७५ ४७७६ 8 < | अलस नील-घन की छाया में--- | जलजालों को छल-माया में अपना बल तोलोगे ! A अनजाने तट की मदमाती-- FR लहर, क्षितिज चूमती आतीं ! ये ऋटके--ओलोगे ? मांझी ! साहस है? खे लोगे ! [ भीमवर्म्मा का प्रवेश | भीमबर्म्मा : बहिन ! शक-मंडल से विजय का समाचार आया है । देवसेना : भगवान की दया है । भीमवर्म्मा : परंतु महाराजपुत्र गोविदगृष्त वीरगति को प्राप्त हुए, यह बड़ा''" देवसेना : वे धन्य हैं । भीमबर्म्मा : वीर-शय्या पर सोते-सोते उन्होंने अनुरोध किया कि महाराज बंधुवर्म्मा गृप्त-साम्राज्य के महाबलाघिकृत बनाये जायें, इसलिए अभी वे स्कंधावार में ठहरेंगे । उनका TET AS EN 08 / स्कंदगृप्त आना अभी नहीं हों सकता । और भी कुछ सुना देवसेना ? देवसेना : क्या ? भीमवर्म्मा : सम्राट् ने तुम्हें बचाने के पुरस्कारस्वरूप मातुगष्त को कारमीर का शासक बना दिया है । गांधारवंशी राजा वहाँ नहीं हैं। काइमीर अब सा्राज्य के अंतर्गत हो गया है । देवसेना : सम्राट की महानुभावता है। भाई ! मेरे प्राणों का इतना मूल्य ? भीमवर्म्मा : आर्य-साम्राज्य का उद्धार हुआ है। बहिन ! सिधु प्रदेशा के मलेच्छ राज्य का ध्वंस हो गया है। प्रवीर सम्राट् स्कंदगुष्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की है। गो, ब्राह्मण और देवताओं की ओर कोई भी आततायी आंख उठाकर नहीं देखता । लौहित्य से सिघु तक हिमालय की कंदराओं में भी, स्वच्छंदतापू्वक सामगान होने लगा । धन्य हैं हम लोग जो इस दृश्य को देखने के लिए जीवित हैं। देवसेता : मंगलमय भगवात्र सब मंगल करेंगे। भाई, साहस चाहिए, कोई वस्तु असंभव नहीं । भीमवर्म्मा : उत्तरापथ के सुशासन की व्यवस्था करके परम भट्टारक शीघ्र आवेगे । मुझे अभी स्तान करना है-जाता हूं। देबसेना : भाई ! तुम अपने शरीर के लिए बड़े ही निश्चित रहते हो । और कामों के लिए तो*** [भीमवर्म्मा हंसता हुआ जाता है। मुदगल का प्रवेश ] मुद्गल: जो हैसो काणाम से करके--यह तो अपने सेनहीं हो सकता । उहूं, जब कोई न मिला तो फूटे ढोल की तरह मेरे गले पड़ी ! देबसेना : क्या मुदगल ! सु दगल : वही-वही सीता की सखी मंदोदरी को नानी त्रिजटा, कहां है मातृगुप्त ज्योतिषी की दुम ! अपने को कवि भी लगाता था ! मेरी कूंडली मिलाई या कि मुझे मिट्टी में मिलाया। स्कदगुध्त / ]09 देवसेना : मुद्गल: शाप दूंगा--एक झाप ! दांत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा खोलते हुए चाणक्य का लकड़दादा बन जाऊंगा । मुझे इस झंझट में फंसा दिया ! उसने क्यों मेरा ब्याह कराया'**? तो क्या बुरा किया ? भख मारा, जो है सो काणाम से करके । देवसेना : अरे ब्याह भी तुम्हारा होता ? मुद्गल : दसेना : मुद्गल : देवसेना : मुद्गल : बंधुवर्म्मा : न होता तो क्या इससे भी बुरा रहता ? बाबा, अब तो मैं इस पर भी प्रस्तुत हूं कि कोई इसको फेर ले । परंतु यह हत्या कौन अपने पल्ले बांधेगा ! (सब हंसती हैं) आज कौन-सी तिथि है ? एकादशी तो नहीं है? हां, यजमान के घर एकादशी और मेरे पारण की द्वादशी, क्योंकि ठीक मध्याह्नं में एकादशी के ऊपर द्वादशी चढ़ बेठती है, उसका गला दबा देती है, पेट पचकने लगता है। अच्छा, आज तुम्हारा निमंत्रण है-तुम्हारी स्त्री के साथ । जो है सो देवता प्रसन्न हों, आपका कल्याण हो ! फिर शीघ्रता होनी चाहिए । पुण्यकाल बीत न जाय"*"चलिए, मैं उसे बुला लेता हूं । (जाता है) दृश्य : पांच [ गांधार की घाटी--रणक्षे त्र] [तुरही बजती हे, स्कंदगुष्त ओर बंधुवर्म्मा के साथ सेनिकों का प्रवेश ] वीरो ! तुम्हारी विइवविजयिनी वीर-गाथा सुर-सुंदरियों की वीणा के साथ मंद ध्वनि से नंदन में गुंज उठेगी। असीम साहसी आय्ये सैनिक ! तुम्हारे शस्त्र ने बर्बर हुणों को बता दिया है कि रणविद्या केवल नृशंसता नहीं है। जिनके आतंक से आज विश्वविख्यात रूम-साम्राज्य ।।0 | स्कदगृप्त पादाक्रांत है, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा और तुम्हारे पेरों के नीचे दबे हुए कंठ से उन्हें स्वीकार करना होगा कि भारतीय दुर्जय वीर हैं। समझ लो, आज के युद्ध मे प्रत्यावत्तंन नहीं है। जिसे लौटाना हो, अभी से लौट जाये । निक : आर्यं सँनिकों का अपमान करने का अधिकार--महा- बलाधिकृत को भी नहीं है। हम सब प्राण देने आये हैं-..- खेलने नहीं । साधु ' तुम यथार्थं ही जननी जन्मभूमि की संतान हो। सेनिक : राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय ! चर : (प्रवेश करके) परम भट्टारक की जय ! स्कंदगुप्त : क्या समाचार है ? चर: देव ! हण शीघ्र ही---नदी पार होकर--आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, यदि आक्रमण न हुआ, तो वे स्वयं आक्रमणः करेगे । ओर कुभा के रणक्षेत्र का क्या समाचार है? : मगध की सेना पर विश्वास करने के लिए मैं न कहूंगा । भटाक की दृष्टि मेंपिशाच की मंत्रणा चल रही है, खिंगिल के दूत भी आ रहे हैं। चक्रपालित उस क्ट-चक्र को तोड़ सकेंगे कि नहीं, इसमें संदेह है । गुप्त : बंधुवर्म्मा ! तुम कुभा के रणक्षेत्र की ओर जाओ, मैं यहां देख लंगा । राजाधिराज ! मगध की सेना पर अधिकार रखना मेरे सामर्थ्यं के बाहर होगा, और मालव की सेना आज नासीर में है। आज इस नदी की तीक्ष्ण धारा को लाल करके बहा देने की” मेरी प्रतिज्ञा है। आज मालव का एक भी सैनिक नासीर से न हंटेगा । स्कदगुप्त : बंधु ! यह यश मुभसे मत छीन लो । बधुवर्म्मा : परंतु सबके प्राण देने के स्थान भिन्न हैं यहां मालव की सेना मरेगी, दूसरे को यहां मरकर अधिकार जमाने का स्कदगप्त / 7] स्कदगुप्त बंधुवर्स्मा : स्कंदगुप्त : बधुवर्म्मा : स्कंदगुप्त : बंधुवर्म्मा : बं घुवर्म्मा : बंधुवर्म्मा : सेनिक : बंधुवर्म्मा : संनिक : अधिकार नहीं । और बंधुवर्म्मा मरने-मारने में जितना पट् है, उतना षड्यंत्र में नहीं । आपके रहने से सौ बंधुवर्म्मा उत्पन्न होंगे । आप शीश्रता कीजिए । : बंधुवर्म्मा । तुम बड़े कठोर हो । शी घ्रता कीजिए । यहां हुणों को रोकना मेरा ही कत्तेव्य है, उसे मैं ही करूंगा । महाब्रलाधिकृत का अधिकार मैं न छोड़ गा। चक्रपालित वीर है, परंतु अभी वह नवयुवक है, आपका वहां पहुंचना आवझ्यक है। भटाकं पर विइवास न कीजिए । में समझा कि हूणों के सम्मुख वह विश्वासघात न करेगा । ओह ! जिस दिन ऐसा हो जायेगा, उस दिन कोई भी इधर आंख उठाकर न देखेगा-सकम्राट ! शीघ्लता कीजिए । (आलिंगन करता है) मालवेश की जय ! महाराजाधिराज श्री स्कंदगष्त की जय ! (चर के साथ स्कंदगुष्त जाते हैं) [ नेपथ्य में रणवाद्य । शत्रु सेना आती हैं। हू णों को सेना से विकट युद्ध । हुणों का मरना, घायल होकर भागना । बंधुवर्स्मा की अंतिम अवस्था । गरुडध्वज टेककर उसे चमना | (दम तोड़ते हुए) विजय ! तुम्हारी'""विजय"**! आर्य्य - साम्राज्य की जय ! भाई ! स्कंदगुप्त से कहना कि मालव-वीर ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की, भीम और देवसेना उनकी शरण हैं । महाराज ! आप क्या कहते हैं । (सब शोक करते हैं) वंधुगण ! यह् रोने का नहीं-आनंद का समय है। कौन वीर इसी तरह जन्मभूमि की रक्षा में प्राण देता है, यही मैं ऊपर से देखने जाता हूं । महाराज बंधुवम्मा की जय ! [ गरुडध्वज को छाया में बंधुवर्म्मा को मत्यु ] ।।2 / स्कदगुप्त चक्रपालित : स्कदगुप्त : चक्रपालित | भटाक : | स्कदगुप्त : : आक्रमण को प्रतीक्षा सम्राट ! | : या समय की ! : सम्राट का मुझ पर विश्वास नहीं है, यह ***। | : विश्वास तो कहीं से क्रय नहीं किया जाता । | : तुम अभी बालक हो । | चक्कपालित : | भटाकं स्कदगप्त भटाक चक्रपालित भटाक भटाक॑ स्क दगुप्त : दृश्य: छह | [दुर्ग के सम्सुख कभा का रणक्षेत्र । चक्रपालित और स्कंदगुप्त ] सम्राट् ! प्रतारणा की पराकाष्ठा ! दो दिन से जान- बूककर शत्रु को ऊंची पहाड़ी पर जमने का अवकाश दिया जा रहा है। आक्रमण करने से मैं रोका जा रहा हुं-मगध की समस्त सेना उसके संकेत पर चल रही है। चक्र ! कुभा में जल बहुत कम है, आज ही उतरना होगा । तुम्हे दुगे में रहना चाहिए। मैं भटाकं पर विशवास तो. करता ही नहीं परंतु उस पर प्रकट रूप से अविकवास'का भी समय नहीं रहा । : नहीं सम्राट् ! उसे बंदी 'कीजिए। यह देखिए--आ रहा है । (प्रवेश करते) राजाधिराज की जय हो! क्यों सेनापति ! यह क्या हो रहा है? दुराचारी ! कृतघ्न! अभी मैंतेरा कलेजा फाड़ खाता, तेरा : सावधान ! अब मैं सहन नहीं कर सकता । (तलबार पर हाथ रखता है) भटाक ! वह बालक है । कूट-मंत्रणा, वाकूचातुरी नहीं * जानता--चुप रहो चक्र ! (चक्रपालित और भटाक॑ सिर नीचा कर लेते हैं) भटार्क ! प्रबंचना का समय नहीं है। स्मरण रखना--कृतधघ्नों और नीचों की श्रेणी में, तुम्हारा नाम पहले रहेगा ।(भटाक चुप रहता है) युद्ध के लिए प्रस्तुत ' स्कदगुप्त / ।]3 हा. : झटाक : मेरा खड्ग साम्राज्य की सेवा करेगा । स्कंदगुप्त : अच्छा, तो अपनी सेना लेकर तुम गिरिसंकट पर पीछे से आक्रमण करो ओर सामने से मैं आता हूं। चक्र ! तुम दुगे की रक्षा करो भटाक :जसी आज्ञा ! नगरहार के स्कंधावार को भी सहायता के लिए कहला दिया जाय तो अच्छा हो । _ स्कदगुष्त :चर गया है। तुम शीघ्र जाओ । देखो--सामने शत्र दीख पड़ते हैं । (भठाक का प्रस्थान) चक्रपालित : भविष्य अच्छा नहीं है चक्र! तगरहार से समय पर सहायता पहुंचती नहीं दिखायी देती परंतु यदि आवश्यकता .हो--तो शीघ्र नगरहार की ओर प्रत्यावत्तंन करता। मैं वहीं तुमसे मिलूंगा । (चर का प्रवेश) स्कदगुप्त : गांधार युद्ध का क्या समाचार है ? चर: विजय ! उस रणक्षेत्र में हुण नहीं रह गये--परंतु सम्राट | बंधुवर्म्मा नहीं हैं । स्कदगुप्त : आह बंधु ! तुम चले गये ? .धन्य हो वीर-हृदय । (शोक मुद्रा में बेठ जाता हे) चक्रपालित: इसका समय नहीं है सम्राट्, उठिए सेना भा रही है, इस समय यह् समाचार नहीं प्रचारित करना है। स्कदगुप्त : (उठते हुए) ठीक कहा ! (भटाकं के साथ सेना का प्रवेश) ' भटाक ! देखो, कुभा के उस बंध से सावधान रहना। आक्रमण में यदि असफलता हो, और शत्रु की दूसरी सेना कुभा को पार करना चाहे तो उसे काट देना । देखो भटाक ! तुम्हारे विश्वास का यही प्रमाण है। भटाक : जसी आप की आज्ञा ! (कुछ सेनिकों के साथ जाता है) स्कदगुप्त : चक्र ! दुर्ग-रक्षक सैनिकों को लेकर तुम प्रतीक्षा करना हम इसी 'छोटी-सी सेना से आक्रमण करेंगे। तुम सावधान ! (नेपथ्य में रणबाद्य) देखो--वे हुण आ रहे ` ]।4 / स्कंदगुष्त चक्रपालित स्कदगुप्त मग घ-सेना नायक : स्कंदगुप्त नायक : स्क दगुप्त : हैं । उन्हें वहीं रोकना होगा । जसी आज्ञा ! (जाता है) वीर मगध-सँनिको ! आज स्कंदगुप्त तुम्हारी परिचालना कर रहा है, यह ध्यान रहे, भले ही प्राण जायें । राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त की जय ! [सेना बढ़ती है। ऊपर से अस्त्रवर्षा होती है। घोर युद्ध के बाद हुण भागते हैं । सास्राज्य-सेना जयनाद करते हुए शिखर पर अधिकार करतो है ।] (ऊपर से देखता हुआ) सम्राट् ! अइचये है, भागी हुई हण-सेना कुभा के उस पार उतर जाना चाहती है! | क्या कहा ? ,. कुछ मगध-सेना भी वहां हैं, परंतु वह तो जेसे उनका स्वागत कर रही है। विइ्वासंघात--प्रतारणा ! नीच भटाकं ! `` 'दुगं की रक्षा होनी चाहिए। उस पार की हण-सेना यदि आ गयी, तो कृतघ्न -भटाके उन्हें मार्ग बतावेगा | बीरो, जी घ्र--उन्हे उसी पार रोकना होगा, अभी कुभा पार होने को संभावना दै स्कदगुप्त : नायक स्कंदगुप्त [नायक तुरही बजाता है। संनिक इकटठे होते हैं। | (घबराहट से देखते हुए) शीधता करो ! क्या.? | नीच भटाके ने बंध तोड़ दिया है, कभा में जल बड़े बेग से बढ़ रहा है। चलो शीघ्र-- [सब उतरना चाहते हैं। कुभा में अकस्मात जल ब्रढ़ जाता है। सब अहते हुए दिखायी देते हैं। अंधकार | [ पटाक्षेप | स्कंदगुप्त / ।।5 अनंतदेवी विजया : ष अनंतदवी अनंतदेवी अनंत देवी अनंतदेवी विजया _ अनंतदेबी बिजया : चतुर्थ अंक दृश्य : एक [ प्रकोष्ठ सें विजया ओर अनंतदेवी) : क्या कहा ? मे आज ही पासा पलट सकती हूं ! जो कूला ऊपर उठ रहा है, उसे एक ही भटके में पृथ्वी चूमने के लिए विवश ' कर सकती हू । : क्यों ? इतनी उत्तेजना क्यों है ? सुनं भी तो ! बिजया : समभ जाओ । : नहीं, स्पष्ट कहो । बिजया: भटाक मेरा है ! 'तो ? विजया : उस राह से दूसरों को हटाना होगा । श कौन छीन रहा है? | : एक पाप-पंक में फंसी हुई निलेज्ज नारी । कया उसका नाम भी बताना होगा? समभी, नहीं तो साम्राज्य का स्वप्न गला दबाकर भंग कर दिया जायेगा । : (हुंसती हुई) मुखे रमणी ! तेरा भटाके केवल मेरे कार्य- साधन का अस्त्र है, और कुछ नहीं । बह पुरगुप्त के ऊंचे सिंहासन की सीढ़ी है--समभी ? समकी और तुम भी जान लो कि तुम्हारा नाश समीप है । | 6। विजया : अनंतदेवी : _ विजया: (बनाती हुई) क्या तुम पुरगुप्त के साथ सिंहासन पर नहीं बैठना चाहती हो ? क्यों--वह भी तो कुमारगुप्त का पुत्र है? हाँ, वह् कुमारगुष्त का पुत्र है, परंतु वह तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हैं ! तुमसे उत्पन्न हुई संतान--छिः ! क्या कहा ? समभकर कहना । कहती हुं-और फिर कहूंगी। प्रलोभन से, धमकी से, भय से कोई भी मुझको भटाक से वंचित नहीँ कर सकता। प्रणय वंचिता स्त्रियां अपनी राह के रोड़े--विघ्नों को दूर करने के लिए वबप्त्र से भी दुढ़ होती हैं। हृदय को छीन लेने वाली स्त्री के प्रति हतसर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से बीभत्स और प्रलय की मनल-शिखा से भी लहरदार होती है। मुझे तुम्हारा सिंहासन नहीं चाहिए । मुभे क्षंद्र पुरगुप्त के विलाजर्जर ` मन और यौवन में ही जीण शरीर का अवलंब वांछनीय अनंतदेवी : नहीं । कह देती हूं, हट जाओ, नहीं तो तुम्हारी समस्त कुमंत्रणा को एक फूंक में उड़ा दूंगी । क्या ! इतना साहस ! तुच्छ स्त्री! जानती है कि किसके साथ बात कर रही है ? मैं वही हँ--जो अश्वमेध-पराक्रम कुमारगुप्त से बालों को सुगंधित करने के लिए गंधचणं जलवाती थी--- जिसकी एक तीखी कोर से गुप्त-साम्राज्य - डांवाडोल हो रहा है, उसे तुम'*'एक सामान्य स्त्री ! विजया : जा-जा, ले अपने भटाकं को, मुझे ऐसे कीट-पंतगों की आवश्यकता नहीं । परंलु स्मरण रखना, सैं हूं अनंत देवी ! तेरी कूटनीति के कंटकित कानन की दावाग्नि--तेरे गर्व शेलश्ंग का वपत्र! मैं बह आग लगाऊंगी, जो प्रलय के . समुद्र से भी न बुझे । (जाती है) | में कहीं की न रही। इधर भयानक पिशाचों की लीला- भूमि, उधर गंभीर समुद्र ! दुर्बल रमणी--हृदय थोड़ी स्कदगष्त | 7 आंच में गरम, और शीतल हाथ फेरते ही ठंडा ! क्रोध से अपने आत्मीय जनों पर विष उगल देना ! जिनको क्षमा | की आवश्यकता है--जिन्हें स्नेह के पुरस्कार की वांछा है, उनकी भूल पर कठोर तिरस्कार और जो पराये हैं, उनके |. साथ दौड़ती हुई सहानुभूति ! यह मनः का विष, यह | बदलने वाले हृदय की क्षुद्रता है। ओह ! जब हम अनजान | गगों की भूल और दुखों पर क्षमा या सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो भूल जाते हैं कि यहां मेरा स्वार्थ नहीं है। क्षमा और उदारता वहीं सच्ची है, जहाँ स्वार्थ की भी बलि : हो। अपना अतुल. धन और हृदय दूसरों के हाथ में देकर विजया : चलूं--कहां--किधर ? (उन्मत्त भाव से प्रस्थान करना चाहती है) [पदच्युत नायक का प्रवेश नायक : रांत हो ! ब्रिजया : कोन नायक : एक सैनिक ! विजयाः: दूर हो, मुझे सँनिकों से घृणा है । नायक : क्यों सुंदरी ? | विजया : क्र ! केवल अपने झूठे मान के लिए, बनावटी बड़प्पन के लिए, अपना द॑भ दिखलाने के लिए एक अनियंत्रित हृदय . का लोहीं से खेल विडंबना है ! किसकी रक्षा, किस दिन की-सहायंता के लिए तुम्हारे अस्त्र हैं ? नायक : साम्राज्य की रक्षा के लिए ! ˆ बिजया : झठ_तुम सबको जंगली हित्र पशु होकर जन्म लेना था। डाकू ! थोड़े सें ठीकरों के लिए अमूल्य मानव-जीवन का नाश करने वाले भयानक भेड़िये ! | | नायक : (स्वगत) पागल होंगयी है क्या? १ -:अडकण स्नेहमयी देवसेना का शंका से तिरस्कार किया, मिलते हुए स्वगं को घमंड से तुच्छ समभा, देव-तुल्य स्कंदगृप्त से ।।8 | स्कंदग्'प्त विद्रोह किया, किसलिए ? केवल अपना रूप, धन, यौवन दूसरे को दान करके उन्हें नीचा दिखाने के लिए ? स्वाथंपूण मनुष्यों को प्रतारणा में पड़कर खो दिया--इस लोक का सुख, उस लोक की शांति ! ओह ! | नायक : शांत हो! विजया: शांत कहां? अपनों को दंड देने के लिए मैं स्वयं उनसे अलग हुई, उन्हें दिखाने के लिए---'मैं भी कुछ हूं ! ' अपनी भूल थी, उसे अभिमान से उनके सिर दोष के रूप में मढ़ रखा था । उन पर झूठा अभियोग लगाकर, नीच हृदय को नित्य उत्तेजित कर रही थी । अब उसका फल मिला । नायक : रमणी ! भूला हुआ लौट आता है, खोया मिल जाता है, परंतु जो जानबूझकर भूल-भुलेया तोड़ने के अभिमान से उसमें घुसता है, वह उसी चक्रव्यूह में स्वयं मरतो है, दूसरों को भी मारता है। शांति का, कल्याण का--मागे उन्मुक्त है। द्रोह को छोड़ दो, स्वार्थं को विस्मृत करो, सब तुम्हारा है । विजया : (सिसकती हुई) में अनाथ निस्सहाय हूं ! नायक : (बनावटी रूप उतारता है) में शरवेनाग हूं-सम्राट् का अनुचर ! मगध की परिस्थिति देखकर अपने विषय अंतर्वेद को लौट रहा हूं । बिजया : क्या अंतवद के विषयपति शर्बेनाग ? श नाग : हां, परंतु देश पर एक भीषण आतंक है। भटाकं की पिशाच | लीला सफल होना चाहती है । विजया ! चलो, देश के | प्रत्येक बच्चे, बुढ़े और युवक को उसकी भलाई में लगाना होगा, कल्याण का मागे प्रशस्त करना होगा । आओ, यदि हम राज-सिहासन न प्रस्तुत कर सकें तो हमें अधीर न होना चाहिए । हम देश की प्रत्येक गली को भाड़ देकर ही इतना स्वच्छ कर दें कि उस पर चलने वाले राजमार्ग का सुख पावे ! SS JAS " “OVI SS E.R pe स्कदगृप्त | ।।9 बिजया: (कुछ सोचकर) तुमने सच कहा ! सबको कल्याण के _ शुभागमन के लिए कटिबद्ध होना चाहिए । चलो-- (दोनों का प्रस्थान) र दृश्य: दो - [भटाक का शिविर । नतकी गाती है] भाव-निघि में लहरियां उठतीं तभी, भूलकर भी जब स्मरण होता कभी । मधुर मुरली फूंक दी तुमने भला, | नींद मुझको आ चली थी बस अभी । सब रगों में फिर रही हैं बिजलियां, नील नीरद ! क्या न बरसोगे कभी ? एक झोका और मलयानिल अहा ! क्षुद्र कालिका है खिली जाती अभी । कोन मर-मर जियेगा इस तरह, देवको भटाक कमला णी भटक: कमला: यह समस्या हल न॑ होगी क्या कभी ? [कमला ओर देवकी का प्रवेश | भटाके ! कहां है मेरा संवेस्व ? बता दे--मेरे आनंद का उत्सव, मेरी आशा का सहारा--कहां है ? कौन ? : कृतघ्न ! नहीं देखता है, यह वही देवी है--जिन्होने तेरे नारकीय अपराध को क्षमा किया था--जिन्होंने तुभसे 'घिनौने कीड़े को भी मरने से बचाया था, वही--देव-प्रतिमा महादेवी: देवकी । (पहचानकर) कौन--मेरी मां ? तू कह सकता है। परंतु मुझे तुझको पुत्र कहने में संकोच होता है, लज्जा से गड़ी जा रही हुं। जिस जननी की संतान जिसका अभागा पुत्र-ऐसा देशद्रोही हो, उसको [20 / स्कंदगृप्त क्या मुंख दिखाना चाहिए ? आह भटाके ! भंटाकं : राजमाता और मेरी माता ! देवकी : बता भटाकं ! बह आर्य्यावत्ते का रत्न कहां है? देश का बिना दाम का सेवक, वह जन-साधारण के हृदय का स्वामी--कहां है? उससे शत्रुता करते हुए तुभे''' कमला : बोल दे भटाक ! भटाकं : क्या कहुं--कुभा की क्षुब्ध लहरों से पृछो--हिमवान को गल जाने वाली बर्फ से पूछो कि वह कहां है--मैं नहीं देवकी : आह ! गया मेरा स्कंद ! ! मेरा प्राण ! ! ! (गिरती है-- मृत्यु) | कमला : (उसे सम्हालती हुई) देख पिशाच--एक बार अपनी विजय पर प्रसन्नता से खिलखिला ले--नीच ! पुण्य- प्रतिमा को, स्त्रियों की गरिमा को, धूल में लोटता हुआ देखकर एक बार हृदय खोलकर हंस ले । हा देवी ! भटक : क्या ? (भयभीत होकर देखता है) “ कमला : इस यंत्रणा और प्रतारणा से भरे हुए संसार को पिशाच- भमि को छोड़कर अक्षय लोंक कों गयी, और तु जीता रहा--सुखी घरों में आग लगाने, हाहाकार मचाने और देश को अनाथ बनाकर उसंकी दुदंशा कराने के लिए-- नरक के कीड़े ! तू जीता रहा ! भटक : मां अधिक नं कहो । साम्राज्य के विरुद्ध कोई अपराध करने का मेरा उद्देश्य नहीं था, केवल पुरगुप्त को सिंहासन पर है बिठाने की प्रतिज्ञा से प्रेरित होकर मैंने यह किया । स्कद- गृप्त न सही, पुरग॒प्त सभ्राट् होगा । कमला : अरे मूर्ख ! अपनी तुच्छ बुद्धि को सत्य मानकर, उसके दप में भूलकर, मनुष्य कितना बड़ा अपराध कर सकता है! पामर ! तू सञ्राटों का नियामक बन गया मैंने भूल की-- सूतिका-गृह में ही तेरा गला घोंटकर कयों न मार डाला : आत्महत्या के अतिरिक्त अब कोई प्रायश्चित नहीं ' स्कंदग्प्त / ।2 भटाक : मां, क्षमा करो ! आज से मैंने शस्त्र-त्याग किया। मैं इस संघषं से अलग हूं, अब अपनी दुर्बद्धि से तुम्हें कष्ट न पहुचाऊंगा। (तलवार डाल देता है) कमला : तूने विलंब किया भटारकं ! महादेवी--एक दिन जिसक्रे नाम पर गृप्त-सा्राज्य नतमस्तक होता-था, आज उनकी अंत्येष्टि-क्रिया के लिए कोई उपाय नहीं ।** हावुर्दव ! , भटाक : (ताली बजाता है, सेनिक आते हैं) महादेवी की अंत्येष्टि- क्रिया राज-सम्मान से होनी चाहिए । चलो, शी घ्रता ज्रो | | [ देवकी के शव को एक ऊंचे स्थान पर दोनों मिल- कर रखते हैं] कमला : भटाकं ! इस पुण्य-चरण के स्पशं से, संभव है, तेरा पाप छूट जाय ॥ | [भटाक ओर कमला पर तीब्र आलोक ] _ दुझ्य: तीन [काइमीर न्यायाधिकरण में मातुगुप्त, एक स्त्री और दंडनायक'] | सातृगृप्त : नंदीग्राम के दंडनायक--देवनंद ! यह क्या है ? देवनंद : कुमारामात्य की जय हो! बहुत परिश्रम करने पर भी मैं इस रमणी के अपहृत धन का पता न लगा सका । इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है। म्पतृगुप्तः फिर किसका है? तुम गृप्त-सा्राज्य का विधान भूल गये ! प्रजा की रक्षा के लिए 'कर' लिया जाता है। यदि तुम उनकी रक्षा न कर सके तो वह् अर्थ तुम्हारी भत्ति से कटक र इस रमणी को मिलेगा । देवनंद : परंतु वह् इतना अधिक है कि मेरे जीवन-भर की भृत्ति से ' भी उसका भरना असंभव है। मातुगुप्तः तब राजकोष उसे देगा, और तुम उसका फल भोगोगे । ]22 | स्कंदगुष्त देवनंव : परंतु मैं पहले ही निवेदत कर चुका हूं। इसमें मेरा अपराध मातृगुप्त : देवनंद मातगुप्त मातुगुप्त: मातगुप्त : मालिनी : मातृगुप्त अधिक नहीं है। यह श्रीनगर की सबसे अधिक समृद्ि- शालिनी वेश्या -अपने अंतरंग लोगों का परिचय भी नहीं बताती, फिर मैं कैसे पता लगाऊंगा? गुप्तचर भी थुक गये ! हां, इसका नाम में भूल गया । मालिनी ! कया! मालिनी? (कुछ सोचता हुआ) अच्छा, जाओ कोषाध्यक्ष को भेज दो । (देवतंद का प्रस्थान) मालिनी ! अवगुंठन हटाओ, सिर ऊंचा' करो, में अपना श्रम-निवारण करना चाहता हुं। (मालिनी अवगुंठन हटाकर मातुगुष्त की ओर देखती है। मातुगुप्त चकित होकर उसको देखता है) तुम कौन हो--मालिनी ?- छलना ! नहीं-नहीं, भ्रम है! नहीं, मात॒ग॒प्त मैं ही हृं। अवगुंठन केवल इसलिए था कि मै इन्हे मुख नहीं दिखला सकती थी । मातुगुप्त ! मैं बही | तुम ? नहीं, मेरी मालिनी ! मेरे हृदय की आराध्य देवी-- : वेव्या ! असंभव । परंतु नहीं, वही हे मुख ! यद्यपि विलास मालिनी मातृगुप्त ने उस पर अपनी मलिन छाया डाल दीं है--उस पर अपने . अभिशाप की छाप लगा दी है, पर तुम वही हो । हा दुर्देव ! : दुदव ! : मैं आज तक तुम्हें पूजता था। तुम्हारी पवित्र स्मृति को कंगाल की निघि की भांति छिपाये रहा। मूखं मैं'''आह् मालिनी, मेरे श॒न्य भाग्याकाश के मंदिर का द्वार खोलकर तुम्हीं ने उनींदी उषा के सदृश भांका था, और मेरे भिखारी संसार पर स्वर्ण बिखेर दिया था--तुम्हीं ने मालिनी ! तुमने सोने के लिए नंदन का अम्लान कुसुम . वेच डाला। जाओ मालिनी ! राजकोष से अपना धन ले लो। स्कंदगुप्त | ।23 मालिनी : _ मातृगुप्त : चर मातृगुप्त : चर मा तुगुप्त य (मातृगुष्त के पेरों पर गिरती हुई) एक बार क्षमा | दो मातृगुष्त ! मैं इतना दृढ़ नहीं हूं मालिनी, कि तुम्हें इस अपराध के कारण भूल जाऊ। परवह स्मृति दूसरे प्रकार की होगी । उसमें ज्वाला न होगी । धुआं उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुधली होकर सामने आवेगी ! जाओ।' [मालिनी का प्रस्थान। चर का प्रवेश] कुमारामात्य की जय हो ! क्या समाचार है-सस्राट् का पता लगा ? : नहीं । पंचनद हुणों के अधिकार में है, और वे काइमीर पर भी आक्रमण किया चाहते हैं । (चर का प्रस्थान) . तो सब गया ! मेरी कल्पना के सुंदर स्वष्नों का प्रभात हो ` रहा है। नाचती हुई नीहार-कणिकाओं पर तीखी किरणों : के भाले ! ओह! सोचा था कि देवता 'जागेंगे, एक बार आर्य्यावत के गौरव का सूर्य चमकेगा, और पुण्य-कर्मो से समस्त पाप-पक् धोये जायेंगे, हिमालय से निकेली हुई सप्त- सिधु तथा गंगा-यमुना की घाटियां किसी आर्य्य स त्गृहस्थ के स्वच्छ और पवित्र आंगन-सी, भूखी जाति के निर्वासित प्राणियों को अन्नदान देकर संतुष्ट करेंगी और आर्य्य जाति अपने दृढ़ सबल हाथों में शस्त्र ग्रहण करके पुण्य का पुरस्कार और पाप का विस्तार करती हुई, अचल हिमालय ' को भांति सिर ऊंचा किये, विइव को सदाचरण के लिए सावधान करती रहेगी, आलस्ये सिंधु में शेष पर्थकशायी सुषुष्तिनाथ जागेंगे, सिंधु में हलचल होगी, रल्नाकार से रत्नराशियां आर्य्याक्तं -की वेला-भूमि पर निछावर होंगी । उद्बोधन के गीत गांये-हृदय के उद्गार सुनाये जायेगे-परंतु पासा पलटकर भी न पलटा । प्रवीर. उदारे- हृद्य स्कदगुप्त कहां हैं ? तब काइमीर ! तुझसे विदा ! (प्रस्थान) 24 / स्कंदगुप्त प्रस्यातकोर्ति : प्रिय वयस्य ! आज तुम्हे आये तीन दिन हुए, क्या सिंहल धातुसेन प्रख्यातकीत्ति : धातुसेन प्रख्यातकीत्ति : : तुमको मेरे साथ कादभीर चलना होगा । : पर अभी तो कुछ दिन ठहरोगे ! पेन :'जहां तक संभव हो, शीघ्र चलो । (एक भिक्ष् का प्रबेश) : आचार्य ! महान अनथ ! | : क्या है ? कुछ कहो भी ! : विहार के समीप जो चतुष्पथ का चेत्य है, वहां कुछ ब्राह्मण धातुसेन प्रर्यातकोत्ति दृश्यः चार = | हे [ नगर प्रांत के पथ में घातुसेन और प्रख्यातकीत्ति ] का राज्य तुम्हें भारत-पर्यंटन के सामने तुच्छ प्रतीत होता है ? : भारत समग्र विशव का है, और संपूर्ण वसुंधरा इसके | प्रेम-पाझ में आबद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति बह विकीणं कर रहा है। वसंधरा का हृदय भारत--किस मूं को प्यारा नहीं है ? तुम देखते नहीं कि विशव का सबसे ऊंचा शृङ्ग इसके सिरहाने, और गंभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे हैं ? एक-से-एक संदर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रखा हैं । भारत के कल्याण के लिए मेरा सर्वस्व आपत है; कितु देखता हूं, बौद्ध जनता और संघ भी साम्राज्य के विरुद्ध हैं महाबोधि-विहार के संघ महास्थविर ने निर्वाण- लाभ किया हैं, उस पद के उपयुक्त भारतनभर में केवल प्रझ्यातकीत्ति है । तुमसे संघ की मलिनता बहुत-कुछ घुल जायेगी । राजमित्र ! मुझे क्षमा कीजिए । मैं धमं-लाभ करने के लिए : भिक्षु हुआ हूं, महास्थविर बनने के लिए नहीं । : मित्र ! में मातगुष्त से मिलना चाहता हूं । ” वह् तो विरक्त होकर घूम रहा है । बलि किया चाहते हैं! इधर भिक्षु और बोद्ध जनता स्कंदगृप्त | 25 घातुसेन दंडनायक ब्राह्मण : श्रमण ब्राह्मण : चलो, हम लोग भी चलें-उन उत्तेजित लोगों को ज्ञांत उत्तेजित हैं । करने का प्रयत्न करें । (सब जाते हूँ) _ दृश्य : पांच | विहार के समीप चतुष्पथ । एक और ब्राह्मण लोग बलि का उपकरण लिये, दूसरी ओर उत्तेजित भिक्ष और बौद्ध जनता । दंडनायक का प्रवेश | नागरिकगण ! यह समय अंतविग्रह का नहीं । देखते नहीं हो कि साम्राज्य बिना क्णंधार का पोत होकर डगमगा रहा है, और तुम लोग क्षुद्र बातों को लिए परस्पर भगड़ते इन्हीं बौद्धों ने गुप्त-शत्रु का काम किया है | कई बार के विताडित हूण इन्हीं लोगों की सहायता से पुनः आये हैं। इन गृप्त-शत्रुओं को कृतघ्नता का उचित दंड मिलना चाहि ए : ठीक है। गंगा, यमुना और सरयू के तट पर गड़े यज्ञयूप | सद्धमियों की छाती में ठुकी हुई कीलों की तरह अब भी खट॑कते हैं। हम लोग निस्सहाय थे--क्या करते --विधर्मी विदेशी की शरण में भी यदि प्राण बच जायें और धर्म की रक्षा हो ! राष्ट्र और समाज मनुष्य के द्वारा बनते हैं-- - उन्हीं के सुख के लिए । जिस राष्ट्र अर समाज से हमारी सुख-शांति में बाधा पड़ती हो- उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा । इन संस्थाओं का उद्देश्य है--मानवों की सेवा । यदि वे हमीं से अवेध सेवा लेना चाहें और हमारे ' कष्टों को न हटावे, तो हमें उसकी सीमा के बाहर जाना ही पड़ेगा । ब्राह्मणों को इतनी हीन अवस्था में बहुत दिनों तक विशव- 26 / स्कंदगुप्त अमण . घातुसंन : दंडनायक ' ब्राह्मण : घावुसेन " कळच नियंता नहीं देख सकते। जो जाति विइव के मस्तिएक का शासन करने का अधिकार लिये उत्पन्न हुई है, वह कभी चरणों के नीचे न बेठेगी । आज यहां बलि होगी -- हमारे | धर्माचरण में स्वयं विधाता भी बाधा नहीं डाल संकते। | निरीह प्राणियों के वघ में कौन-सा धर्मे है--ब्राहाण ? तुम्हारी इसी हिसा-नीति और अहंकार मूलक आत्मवाद का खंडन तथागत ने किया था। उस समय तुम्हारा ज्ञान- गोरव कहां था ?- क्यों नतमस्तक होकर समग्र जंबूद्दीप ने. उस ज्ञान-रणभूमि के प्रधान मल्ल के समक्ष हार स्वीकार की ? तुम हमारे धर्म पर अत्याचार किया चाहते हो, यह नहीं हो सकेगा । इन पशुओं के बदले हमारी बलि होगी। रक्तपिपासु -<दुदु्देत ब्राह्मंणदेव ! तुम्हारी पिपासा हम अपने रुधिर से ज्ञांत करेंगे । 3 (प्रवेश करके) अहंकारमूलंक आत्मवाद का खंडन करके . गोतम ने विरवात्मवाद को नष्ट नहीं किया । यदि वैसा करते तो इतनी करुणा कीक्या आवश्यकता थी ? उपनिषदों _ के नेति-तेति से ही गौतम का अनात्मवाद पूर्ण है? यह. प्राचीन महषियों का कथित सिद्धांत, मध्यमा-प्रतिपदा के नाभ से, संसार में प्रचारित हुआ, व्यक्तिरूप में आत्मा के सदृश कुछ नहीं है। वह एक सुधार था--उसके लिए रक्तपात क्यों ? | देखो, यदि ये हठी लोग कुछ तुम्हारे समझने से मानं जायें, अन्यथा यहाँ बलि न होने दूंगा । क्यो न होने दोगे--अधामिक-शासक ! क्यों न होने दोगे? आज गुप्त कुचक्रों सें. गृप्त-साम्राज्य शिथिल है। कोई क्षत्रिय राजा नहीं जो ब्राह्मणों के धर्म की रक्षा कर सके-- धर्माचरण के लिए अपने राजकुमारों को तपस्वियों की - रक्षा में नियुक्त करे । आह धमंदेव ! तुम कहां हो ? सप्त सिधु प्रदेश नृशंस हुणों से पादाक्रांत है--जाति भीत स्कंदगृप्त | 27 और त्रस्त है, ओर उसका धम असहाय अवस्था में पैरों से कुचला जा रहा है, क्षत्रिय राजा--धर्म का पालन करने वाला राजा--पृथ्वी पर क्यों नहीं रह गया ? आपने इसे विचारा है? क्यों ब्राह्मण टुकड़ों के लिए अन्य खोगों की उपजीविका छीन -रहे हैँ ? क्यों एक वणं के लोग दूसरों की अर्थकरी वृत्तियां ग्रहण करने लगे हैं ? लोभ ने तुम्हारे धमं का व्यवसाय चला दिया । दक्षिणाओं की योग्यता से स्वगे, पृत्र, धमं, यश, विजय और मोक्ष'तुम बेचने लगे। कामना से अंधी जनता के बिलासी-समुदाय के ढोंग के - लिए तुम्हारा धर्मं आवरण हो गया है। जिस धमं के आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिए, वह धमं जनसाधारण की संपत्ति नहीं ! धमंवृक्ष के चारों ओर स्वणं के कांटेदार जाल फॅलाये गये हैं और व्यवसाय की ज्वाला से वह् दग्ध हो रहा है । जिन धनवानों के लिए तुमने धर्म को सुरक्षित रखा, उन्होंने समका कि धर्म धन से खरीदा जा सकता है, इसीलिए घनोपार्जेन मुख्य हुआ और धर्म गौण । जो . पारस्यदेश की मूल्यवान मदिरा रात को पी सकता है, वह धामिक बने रहने क्रे लिए प्रभात में एक गो-निष्क्रय 'भी कर सकता है। धमे को बचाने के लिए तुम्हें राजशक्ति की आवश्यकता हुई । धर्म इतना निबँल है कि वह पाशव बल के द्वारा सृरक्षित होगा । | ब्राह्मण : तुम कोन हो--मू्खं उपदेशक? हट जाओ -नास्तिक प्रच्छन्न बौद्ध ! तुमको क्या अधिकार है कि हमारे घर्म की व्याख्या करो ? घातुसेन : ब्राह्मण क्यों महान् हैं ? इसीलिए कि वे त्याग और क्षमा की मृति हैँ । इसी के बल पर बड़े-बड़े सम्राट उनके आश्रमों के निकट निरस्त्र होकर जाते थे, और बे तपस्वी --ऋत और अमृत-वृत्ति से जीवन-निर्वाह करते हुए सायं-प्रातः अग्नि- शाला में भगवान से प्रार्थना करते थे: 4१28 । स्कंदगुंप्त सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वं सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पद्यन्तु मा करिचिददुःखभप्नुयात् । | --आज लोग उन्हीं ब्राह्मणों की संतान हैं, जिन्होंने अनेक ` थज्ञों को एक बार ही बंद कर दिया था। उनका घमं समयानुकूल प्रत्येक परिवर्तेन कोंस्वीकार करता है, क्योंकि मानव बुद्धि, ज्ञान का--जो वेदों के द्वारा हमें मिला है-- प्रस्तार करेगी, उनके विकास के साथ बढ़ेगी और यहीं धर्म की श्रेष्ठता है । प्रख्थातकीति : धमं के अंघभक्तो ! मनुष्य अपूण है, इसलिए सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूण होता है। यही विकास का रहस्य है। यदि ऐसा न हो तोज्ञान की वृद्धि असंभव हो जाये। प्रत्येक प्रचारक को कुछ-न-कुछ प्राचीन असत्य परंपराओं का आश्रय इसी से ग्रहण करना पड़ता है। सभी घर्म, समय और देश की स्थिति के अनुसार विवृत होते रहे हैं और होंगे। हम लोगों को हठ- घमिता से उन आगंतुक क्रमिक पूर्णता प्राप्त करने वाले ज्ञानों से मुंह न फेरना चाहिए । हम लोग एक ही मूल धमं की दो शाखाएं हैं। आओ, हम दोनों विचार के फूलों से दुःख-दग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करें । बहुत-से लोग : ठीक तो है-टीक तो है, हम लोग व्यर्थ आपस में ही भझगड़ते हैं और आततायियों को देखकर घर में घुस जाते हैं। हृणों के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नहीं अड़ जाते ? दंडनायक : यही तो बात है नागरिक ! प्रझ्यातकोति : मैं इस विहार का आचार्ये हूं, और मेरी सम्मति धामिक झगड़ों में बौद़ों को माननी चाहिए। मैं जानता हूं कि ` भगवान ने प्राणिमात्र को वराबर बनाया है, और जीव- रक्षा इसीलिए धमे है। कितु जब तुम लोग स्वयं इसके लिए युद्ध करोगे तो हत्या की संख्या बढ़ेगी ही । अतः स्कदग्प्त | ।29 प्रख्यातर्का त ब्राह्मण : यदि तुममें कोई सच्चा धामिक हो तो चह आगे आवे, और ब्राह्मणों से पूछे कि आप मेरी बलि देकर इतने जीवों को छोड़ सकते हैं। क्योंकि इन पशुओं से मनुष्यों का मूल्य ब्राह्मणों की दृष्टि में भी विज्ञेष होगा । आइए | कोन आता है, किसे बोधिसत्व होने की इच्छा है। (बौद्धो में सं कोई नहीं हिलता) (हंसकर) यही आपका धर्मोन्माद था? एक युद्ध कंरने वाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अधर्म करना ओर धर्माचरण की दुंदुभी बजाना--यही आपकी करुणा की सीमा है ? जाइए, घर लौट जाइए (ब्राह्मण से ) आओ रक्तपिपासु धामिक ! लो, मेरा उपहार देकर अपने देवता को संतुष्ट करो । (सिर झुका लेता है) (तलवार फॅककर) धन्य हो महाश्रमण ! मै नहों जानता था कि तुम्हारे ऐसे धामिक भी इसी संघ में हैं। मैं बलि नहीं करूंगा । [जनता में जय-जयका र। सब धीरे-धीरे जाते हैं) | दृश्य : छह [ पथ में विजया और शोक सग्न मतु गुप्त ] बिजया : नहीं कविवर ! ऐसा नहीं । मातृगुप्त : कोन, विजया ? | | बिजया : आश्चर्यं और शोक का समथ नहीं है। सुकवि- शिरोमणि! गा चुके मिलन-संगीत, गा चक्रे कोमल कल्पनाओं के लचीले गान, रो चुके प्रेम के पचड़े? एक बार वह उद्बोधन-गीत गा दो कि भारतीय अपनी नश्वरता पर विशवास करके अमर भारत की सेवा के लिए सन्नद्ध हो जाये । मातुगुष्त : (विकल भाव से) देवि ! तुम देवि'** ]30./ स्कंदगृप्त विजया मातृगुप्त चक्रपालित : मातृगुप्त प्रख्यातकीति : मातुगुप्त हां, मातृगुप्त ' एक प्राण बचाने के लिए जिसने तुम्हारे हाथ में काइमीर मंडल दे दिया था, आज तुम उसी सम्राट को खोजते हो ! एक नहीं, ऐसे सहस्र स्कंदगुष्त, ऐसे सहस्रो _ देव-तुल्य उदार युवक इस जन्मभूमि पर उत्सर्ग हो जायें] - सुना दो वह संगीत--जिससे पहाड़ हिल जाये और समुद्र कांपकर रह जाये-अंगड़ाइयां लेकर मुचक्ंद की मोह- निदा से भारतवासी जाग पढ़ें । हम-तूम गली-गली, कोने- कोने पर्यटन करेगे, पेर पड़ेंगे, लोगों को जगावेंगे ! : वीर बाले! तुम धन्य हो। आज से मैं यही करूंगा (देखकर ) वह लो--चक्रपालित आ रहा है। (चक्रपालित का प्र वेश) (भन्यमनस्क भाव से) लक्ष्मी की लीला, कमल के पत्तों पर जलबिदु, आकाश के मेघ समारोह--अरे, इनसे भी क्षद्र नीहारकणिकाओं की प्रभातलीला मनुष्य की अद्ष्ट लिपि बेसी ही है, जेसी अग्निरेखाओं से कृष्णमेघ में बिजली की वणंमाला--एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होने वाली ! भविष्यत् का अनुचर तुच्छ मनुष्य अतीत का स्वामी है । : बंधु चक्रपालित ! चक्रपालित : भीसवर्म्सा : कोन, मातुगुप्त ? (विक्षिप्त-सा सहसा प्रवेश करके) कहां है मेरा भाई मेरे हृदय का बल, मृजाओं का तेज, वसुंधरा का श्रृंगार वीरता का वरणीय--बंधु, मालव-मुकुट आय्ये बंधुवर्म्मा ? | प्रस्यातकोति और श्रमण का प्रवेश ] सब पागल, लूटे गये-से अनाथ और आश्रयहीत --यही तो हें! आर्य्य-राष्ट्र के कुचले हुए अंकुर, भग्न, साम्राज्य-पोत के टूटे हुए पटरे ओर पतवार, ऐसे वीर हृदय ! ऐसे उदार! : तुम कोन हो ? स्कदगुप्त / ।3] प्रस्यातकीति : मातगुप्त : प्रख्यात की ति मात गुप्त प्रस्यातकीत विजया मातृगुप्त स्कदगप्त: संभवतः तुम्हीं मातुगुप्त हो ! (शंका से देखता हुआ) क्यों, अहेरी कुत्तों के समान सुंघते हुए यहां भी ! परंतु तुम*** : संदेह मत करो मातुगुप्त ! शंशव-सहंचर कुमार धातुसेन को आज्ञा से मैं तुम लोगों को खोज रहा हूं। यह लो प्रमाण-पत्र । : (पढ़कर ) धन्य सिहल के युवराज श्रमण ! कह देना, मैं आज्ञानुसार चलूंगा, और कनिष्क-चेत्य के समीप भेंट. होगी । : कल्याण हो ! (जाता है) : कहाँ चलें हम लोग ? ¦ उसी जंगल में । (सब लोग जाते हैं) दृश्य: सात [कमला को कुटी पर विचित्र अबस्था में स्कंदगुप्त का प्रवेश | बौद्धो का निर्माण, योगियों की समाधि और पागलों की-सी संपूर्ण विस्मृति मुझे एकसाथ चाहिए। चेतना कहती है कि तु राजा है, ओर उत्तर में कोई कहता है कि तू खिलौना है--उसी खिलवाड़ी वटपत्रशायी बालक के हाथों का खिलौना है। तेरा मुकुट श्रमजीवी की टोकरी से भी तुच्छ है ! (चितामग्न होता है) करुणा-सहचर ! क्या जिस पर कृपा होती है, उसी को दु:ख का अमोघ दान देते हो ? नाथ ! मुझे दुखों सें भय नहीं, संसार के संकोचपूणं संकेतों की लज्जा नहीं। वभव की जितनी कड़ियां ट्टती हैं, उतना ही मनुष्य बंधनों से छूटता है, और तुम्हारी ओर अग्रसर होता है ! परंतु यह ठीकरा इसी पर फटने को 32 / स्कंदगृप्त NSN SS. MA" | आओ 4 _ EY JUL = 4 |् मन के जो f | > ळे क था ! आय्य॑-साम्राज्य का नाश इन्हीं आंखों को देखना | था। हृदय कांप उठता है, देशाभिमान गरजनेलगताहै। | मेरा स्वत्व न हो--मुझे अधिकार की आवइयकता नहीं, | यह नीति और सदाचारों का महान आश्रय वृक्ष-गृष्त- साम्राज्य--हरा-भरा रहे और कोई भी इसका उपयुक्त | रक्षक हो। ओह ! जाने दो, गया, सब कुछ गया ! मन | बहलाने को कोई वस्तु न रही । कत्तेव्य-विस्मत, ' भविष्य---अंधका रपुर्ण, लक्ष्यहीन दौड़ और अनंत सागर | का संतरण है. बजा दो वेणु मन मोहन ! बजा दो ! 'हमारे सुप्त जीवन कों जगा दो। विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूंको । हमें सब भीति-बंधन से छड़ा दो ।. सहारा उन अंगुलियों का मिले, हां ? रसीले राग में मन को मिला दो। तुम्हीं सब हो इसी की चेतना हो ? इसे आनंदमय जीवन बना दो। [प्राथना में भुकता हे । उन्मत्त भाव से शवंनाग का प्रवेश] शर्वंनाग : छीन लिया, गोंद से छीन लिया, सोने के लोभ से मेरे लालों को शल के मांस की तरह सेंकने लगे। जिन पर विइव-भर का भांडार लूटाने को मैं प्रस्तुत था, उन्हीं गदड़ी के लालों को राक्षसों ने-हुणों ने--लुटेरों ने-- लूट लिया। किसने आहों को सुना--भगवान ने ? नहीं, उस निष्ठुर ने नहीं सुना । देखते हुए भी न देखा। आते थे कभी एक पुकार पर, दौड़ते थे कभी आधी आह पर, अवतार लेते थे कभी आर्ययो की दुरदेशा से दुखी होकर, अब नहीं। देश के हर कानन चिता बन रहे हैं। धधकती हुई नाश की प्रचंड ज्वाला दिग्दाह कर रही है। स्कंदगुप्त | ।33 अपने ज्वालामुखियों को बफे की मोटी. चादर से छिपाये हिमालये मौन है, पिघलकर क्यों नहीं समुद्र से जा मिलता ? अरे जड़--मूक--बधिर-- प्रकृति के टीले। | उन्मत्त भाव से प्रस्थान ] स्कंदगुप्त : कौन है? यह शर्वनाग है क्या”? क्या अंतवंद भी हूणो से पादाक्रांत हुआ? अरे आर्य्यावत्ते के दुर्देव ! बिजली के अक्षरों से क्या भविष्यत् लिख रहा है भगवान ? इह | अद्घोन्मत्त शवे ! आय्ये-साम्राज्य की हत्या का कैसा भयानक दुश्य है ! कितना बीभत्स है ! सिहों की विहार- स्थली में प्यृगाल-बंद सड़ी लोथ नोंच रहे हैं । [पगली रामा का प्रवेश, स्कंद को देखकर ] राम्रा: ल॒टेरा हैतू भी ! कया लेगा, मेरी सूखी हड्डियां ? तेरे दांतों से टूटेगी ? देख तो--(हाथ बढ़ाती है) स्कंदगुष्त : कौन ? रामा ! | रामा : (आइचर्य से) मैं रामा हूं ! हां, जिसकी संतान को हूणों ने पीस डाला। (ठहरकर) मेरी ? मेरी संतान ? इन अभ्ागों की-सी बे नहीं थीं। वे तो तलवार की बारीक धार पर पेर फँलाकर सोना जानती थीं। वधकती हुई ज्वाला में हंसती हुई कूद पड़ती थीं ' तुम (देखती हुई) लुटेरे भी नहीं, उह, कायर भी नहीं, अकम्मंण्य बातों में मुलाने वाले--तुम कोन हो ? देखा था एक दिन ! वही तो है जिसने अपनी प्रचंड हुंकार से दस्युओं को कंपा दिया था, ठोकर मारकर सोई हुई अकम्मेण्य जनता को जगा दिया था,. जिसके नाल से रोयें खड़े हो जाते थे, भुजाएं फड़कने लगती थीं। वही स्कंद--रमणियों का रक्षक, बालकों का विश्वास, वुद्धों का आश्रय और आर्य्यावत्तें की छत्रच्छाया । नहीं, श्रम हुआ ! तुम निष्प्रभ, निस्तेज, उसी के मलिन चित्र-से तुम कौन हो ? (प्रस्थान) स्कंदगुप्त : (बेठकर) आह् ! मैं'"'मैं वही स्कंद हं~-अकेला, 34 / स्कंदगुप्त कमला : स्कदगुप्त स्क दगुप्त : देवसेना : : कौन तुझे बचाता है ? (पकड़ना चाहता है, देवसेना छ्रीं हण पणदत्त कमला देवसेना कमला: ' अत्याचारी ! जा, तुरे छोड़ देता हूं । आ बेटी, हम लोग : कहां, वहीं--कनिष्क के स्तूप के पास ? : हां, कौन कमला देवी? निस्सहाय ! [कमला कुटी खोलकर बाहर निकलती है | कौन कहता है, तुम अकेले हो ? समग्र संसार तुम्हारे साथ है। सहानुचूति को जाग्रत् करो। यदि भविष्यत् से डरते हो कि तुम्हारा पतन ही समीप है, तो तुम उस अनिवार्य स्रोत से लड़ जाओ । तुम्हारे प्रचंड और विश्वासपूर्ण पादा- घात से विध्य के समान कोई शैल उठ खड़ा होगा जो उस विघ्न-स्रोत को लौटा देगा ! राम और कृष्ण के समान कया तुम भी अवतार नहीं हो सकते ? रामझ लो, जो अपने कमो को ईश्वर का कर्म समभकर करता है, वही ईश्वर का अवतार है । उठो स्कंद ! आसुरी-बुत्तियों का नाश करो, सोने ` वालों को जगाओ और रोने वालों को हंसाओ । आर्य्यावत्त hy .. तुम्हारे साथ होगा और आर्य्यपताका के नीचे समग्र विद्व I होगा--वीर ! कः : कौन तुम ? भटाकं की जननी ? [नेपथ्य से ऊंदइन--'बचाओ-बचाओ' का शब्द | है कौन ? देवसेना का-सा शब्द ! मेरा खड्ग कहांहै-- || त क | [देवसेना का पीछा करते हुए हू ण का प्रवेश | | भीम ! भाई, मुझे इस अत्याचारी से बचाओ, कहां गये? | ० निकालकर आत्महत्या किया चाहती है। पर्णदत्त सहसा एक ओर से आकर एक हाथ से हुण क गर्दन, दूसरे हाथ से देवसेना की छ्री पकड़ता है) क्षमा हो ! चलें, महादेवी की समाधि पर'** बही अभागिनी । स्कंदगुप्त | ।35 देवसेना : अच्छा, जाती हूं, फिर मिलूंगी । - [पर्णदत्त के साथ देवसेना का प्रस्थान । स्कंदगुप्त | का प्रवेश | स्कदगुप्त : कोई नहीं मिला । कहां से वह पुकार आयी थी ? मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है । सच्चे मित्र बंधुवर्म्मा की धरोहर ! ओह ! कमला : वह सुरक्षित है, घबराइए नहीं। कनिष्क के स्तृप के पास आपको माता.की समाधि है, वहीं पर पहुंचा दी गयी है । * स्कदगुप्त : मां | मेरी जननी ! तू भी न रही ! हा! [ मूच्छित होता है, कमला उसे कुटी में उठा ले जाती है। ] [ पटाक्षेप ] 36 , स्कंदगुप्त मुद्गल ; पचम अक दृश्य : एक [पथ में मुद्गल] राजा से रंक और ऊपरसे नीचे; अभी दुर्वत्त दानव, अभी स्नेह संवलित मानव, कहीं वीणा की कनकार, कहीं दीनता का तिरस्कार। (सिर पर हाथ रखकर बंठ जाता है) भाग्यचक्र ! तेरी बलिहारी ! जयमाला यह सुनकर कि बंधुवर्म्मा वीरगति को प्राप्त हुए, सती हो गयी, और देवसेना को लेकर बूढ़ा पणदत्त देवकुलिक-सा महादेवी की समाधि पर जीवन व्यतीत कर रहा है। चक्रपालित, भीमवर्म्मा और मातृगुप्त राजाधिराज को खोज रहे हैं, सब विक्षिप्त ! सुना है कि विजया का मन कुछ फिरा, है, वह भी इन्हीं लोगों के साथ मिली है, परंतु उस पर विशवास करने को मन नहीं करता । अनंतदेवी ने पुरगुप्त के साथ हूणों से साँध कर ली है, मगध में महादेवी और परमं भट्टारक बनने का अभिनय हो रहा है। सम्राट् की उपाधि है प्रकाशादित्य' परंतु प्रशासन में स्थान-स्थान पर अंधेरा है। आदित्य में गर्मी नहीं । सिंहासन के सिह सोने के हैं। समस्त भारत हूणों के चरणों में लोट रहा है और भटाकं मूर्खं की बुद्धि के समान अपने कर्म! पर पश्चात्ताप कर रहा है । (सामने देखकर) वह विजया आ स्कंदगुप्त / ।37 विजया : मुद्गल विजया : मुद्गल: विजया : मुद्गल : विजया : मुद्गल : बिजया : रही है ! तो हट चलूं। (उठकर जाना चाहता है ) भरे मुद्गल ! जसे पहचानता ही न हो। सच है, समय बदलने पर लोगों की आंखें भी बदल जाती हैं । : तुन कौन हो जी ? बे जान-पहचान की छेड़-छाड़ अच्छी नहीं लगती, और तिस पर मैं हूं ज्योतिषी । ज हां देखो, वहीं यह प्रश्न होता है, मुझे उन बातों के सुनने में भी संकोच होता है--मुझसे रूठे हुए हैँ? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुंदरी कब मिलेगी ? मिलेगी या नहीं ! --इस देश के छबीले छल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरु जी से पाठ में पढ़ा है। अभिसार के लिए मुहत पूछे जाते हैं । | क्या मुद्गल ! मुझे पहचान लेने का भी तुम्हें अवकाश नहीं है? | अवकाश हो या नहीं, मुझे आवश्यकता नहीं । कया आवश्यकता न होने से मनुष्य--मनुष्य से बात न करे ? सच है, आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों की दलाल है । परंतु मनुष्यता भी कोई वस्तु है मुद्गल ! उसका नाम न लो। जिस हृदय में अखंड वेग है, तीव्र तृष्णा से जो पुण हैँ, और जो क्ूरताओं का भांडार है, जो अपने सुख--अपनी तृष्ति के लिए संसार में सब कुछ करने को प्रस्तुत है, उसका भनुष्यता से क्या संबंध ? न सही, परंतु इतना तो बता सकोगे, सम्राट् स्कंदगृप्त से कहां भेंट होगी? क्योंकि २ ह पता चला है कि वे जीवित हुँ । कया तुम महाराज से भेट करोगी, किस मुंह से ? अवंती में एक दिन यह बात सब जानते थे कि विजया महादेवी होगी । उसी एक दिन के बदले मुद्गल, आज मैं फिर कुछ कहना चाहतो हूं । वही एक दिन का अतीत आज तक का भविष्य 38 / स्कंदगृप्त ` मुद्गल | | जल विजया : : तुम विदवास के योग्य नहीं । अच्छा, अब ओर तुम क्या कर विजया : छिपाये था । तुम्हारा साहस तो कम नही है! * मुद्गल ! बता दोगे ? लोगी ? देवसेना के साथ जहां पणंदत्त रहते हैं, आज कमला देवी के कुटीर से सम्राट् वहीं अपनी जननी की समाधि पर जाने वाले हैं--उसी कनिष्क-स्तूप के पास ! अच्छा, जाता हूं। देखो विजया ! मैंने बता तो दिया-पर सावधान ! (जाता है) उसने ठीक कहा । मुझे स्वयं अपने पर विश्वास नहीं । स्वार्थ में ठोकर लगते ही मैं परमार्थं की ओर दौड़ पड़ी, परंतु क्या यह सच्चा परिवरतेन है? कया मैं अपने को भूलकर देश-सवा कर सकंगी ? कया देवसेना*""ओह! | फिर मेरे सामने वही समस्या ! आज तो स्कंदगृप्त सञ्राटू नहीं हैं, प्रतिहिसे--सो जा ! क्या कहा? नहीं, देवसेना ने एक बार मूल्य देकर खरीदा था--विजया भी एक बार दही करेगी । देश-सेवा तो होगी ही, यदि मैं अपनी भी कामना पूरी कर सकती ! मेरा रत्न-गुह अभी वचा है, उसे सेना-संकलन करने के लिए सम्राट को दूंगी, और एक _ बार बनूंगी महादेवी ! क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा । अदुष्ट ने इसीलिए उस रक्षित रत्न-गुह को बचाया है। उससे एक साम्राज्य-ले सकती हूं ! तो आज वही करूंगी, और उसमें दोनों होंगे--स्वार्थं और परमार्थ ! (प्रस्थान । भटाक का प्रवेश ) भटाके : अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़वा, परंतु परिणाम में मधुर होता है। ऐसा वीर, ऐसा उपयुक्त और ऐसा परोप- कारी सम्राट् ! परंतु गया--मेरी ही भूल से सब गया। आज भी वे शब्द सामने आ जाते हैं, जो उस बुढ़े अमात्य ने कहे थे--“भटारकं, सावधान ! जिस 'काल-मुजंगी स्कंदगृप्त / ।39 विक राष्ट्रनीति को लेकर तुम खेल रहे हो, प्राण देकर भी उसकी रक्षा करना । हाय ! न हम उसे बश में कर सके और न तो उससे अलग हो सके। मेरी उच्च आकांक्षा, वीरता का दंभ, पाखंड की सीमा तक पहुंच गया । अनंतदेवी -- एक शुद्र नारी--उसके कुचक्र में--आशा के प्रलोभन में, मैंने सब बिगाड़ दिया । सुना है कि यहीं कहीं स्कंदगुप्त भी है, चलू, उस महत् का दर्शन तो कर लू (प्रस्थान) दृश्य: दो [कनिष्क-स्तूप के पास महादेवी की समाधि। अकेले पणंदत्त टहलते हुए ] यणेदत्त : सूखी रोटियां बचाकर रखनी पड़ती हैं। जिन्हें कुत्तों को देते हुए संकोच होता था, उन्हीं कुत्सित अन्नों का संचय ! अक्षय-निघि के समान उन पर पहरा देता हुं ! मैं रोऊंगा नहीं, परंतु यह रक्षा क्या केवल जीवन का बोझ वहन करने के लिए है? नहीं, पर्ण! रोना मत । एक बूंद भी आंसू आंखों में न दिखायी पड़े। तुम जीते रहो-_तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा । भगव [न् यदि होंगे, तो कहेंगे कि मेरी सृष्टि में एक सच्चा हृदय था ।संतोष कर उछलते हुए हृदय--संतोष कर, तू रोटियों के लिए नहीं जीता है, तू उसकी भूल दिखाता है जिसने तुझे उत्पन्न किया है । परंतु जिस काम को कभी नहीं किया--उसे करते नहीं बनता--स्वांग भरते नहीं बनता, देश के बहुत-से दुर्दशा- प्रस्त वी र-हृदयों की सेवा के लिए करना पड़ेगा । बैं क्षत्रिय हें: मेरा यह पाप ही. आपद्धमं होगा--साक्षी रहना भगवान् ! [एक नागरिक का प्रवेश] पर्णदत्त : बाबा ! कुछ दे दो । + 40 / स्कंदगुप्त नागरिक : पणंदत्त पणं दत्त : देवसेना : पण दत्त देवसेना : . पण दत्त: देवसेना और तुम्हारी वह कहां गयी--वह'** (संकेत करता है) : मेरी बेटी स्नान करने गयी है। बाबा, कुछ दे दो ! नागरिक : मुझे उनका गान बड़ा प्यारा लगता है, अगर वह गाती, तो तुम्हें कुछ अवश्य मिल जाता। अच्छा, फिर आऊंगा ( जाता है) । (दांत पीसकर) नीच, दुरात्मा, विलास का नारकीय कीड़ा ! बालों को संवारकर, अच्छे कपड़े पहनकर, अब भी घमंड से तना हुआ निकलता है। कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए भी अकडकर चल रहा है, अब तक विलास और नीच वासना नहीं गयी ! जिस देश के नवयुवक ऐसे हों, उसे अवश्य दूसरों के अधिकार में जाना चाहिए। देश पर यह विपत्ति, फिर भी यह निराली धज ! (प्रवेश करके) क्या बाबा, क्यों चिढ़ र हे हो ! जाने दो। जिसने नहीं दिया, उसने अपना, कुछ तुम्हारा तो नहीं ले गया । : अपना ' देवसेना ! अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों का । प्रकृति ने उन्हें हमारे लिए हम भूखों के लिए रख छोड़ा है। वह थाती है उसे लौटाने में इतनी कुटिलता ! विलास के लिए उनके पास पुष्कल धन है, और दरिद्रों के लिए नहीं? अन्याय का समर्थन करते हुए तुम्हें भूल न जाना चाहिए कि*** बाबा ! क्षमा करो । जाने दो, कोई तो देगा । हमारे ऊपर सँकड़ों अनाथ वीरों. के बालकों का भार है, बेटा ! ये युद्ध में मरना जानते हैं, पर॑ तु भूख से तड्पते हुए उन्हें देखकर आँखों से रक्त गिर पड़ता है । : बाबा ¦ महादेवी की समाघि स्वच्छ करती हुई आ रही हुं। कई दिनों से भीम नहीं आया, मातुगुप्त भी नहीं, सब कहां हुँ? स्कंदगुप्त / ।4] = की कू = आक "य्य जळ हु» - = : आवेंगे बेटी ! तुम बेठो, मैं अभी आता हूं । (प्रस्थान) देवसेना : संगीत-सभा की अंतिम लहरदार और आश्रयहीन तान, घूपदान को एक क्षीण गंध-रेखा, कुचले हुए फूलों का म्लान सौरभ और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों की प्रतिकृति--मेरा क्षुद्र नारी-जीवन ! मेरे प्रिय गान ! अब क्या गाऊ ओर क्या सुनाऊं? इन बार-बार के गाये हुए गीतों में क्या आकर्षण है-कया बल है जो खींचता है? केवल सुनने की ही नहीं, प्रत्युत् जिसके साथ अनंतकाल तक _ कंठ मिला रखने की इच्छा जग जाती है--(गाती है) स्क दगुप्त : समीप घुटने टेककर फूल चढ़ाते हुए) मां, अंतिम बार देवसेना : स्कदगुप्त : देवसेना : स्कंदगुष्त शून्य गगन में खोजता जेसे चंद्र निराश, राका में रमणीय यह किसका मधुर प्रकाश । हूदय ! तू खोजता किसको छिपा है कौन-सा तुझमें, मचलता है बता क्या दूं छिपा तुझसे न कुछ मुभमें । रस-निघि में जीवन रहा, मिठी न फिर भो प्यास, मुंह खोले मुक्तामयी सीपी स्वाती आस। हूदय ! तू है बना जलनिधि लहरियां खेलती तुभमें, मिला अब कौन-सा नवरत्न जो पहले न था तुभमें । [प्रस्थान । वेश बदले हुए स्कंदगुप्त का प्रवेश ] जननी ! तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम ! (समाधि के आशीर्वाद नहीं मिला, इसी से यह कष्ट--यह अपमान ! मां तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका यह अपराध क्षमा करो । | देवसेना का प्रवेश | (पहचानती हुई) कौन ? अरे--सम्राट की जय हो ! देवसेना हां, राजाधिराज ! धन्य भाग्य, आज दशेन हुए !. : देवसेना ! बड़ी-बड़ी कामनाएं थीं । देवसेना : सम्राट ! 42 / स्कंदगुप्त pen a “एम तची स्कंदगुप्त : क्या तुमने यहां कोई कुटी बना ली है? . देव सेना : हाँ, यहीं गाकर भीख मांगती हुं, और आये पणंदत्त के साथ रहती हुई महादेवी की समाधि परिष्कृत करती हूं । स्कंदगुष्त : मालवेश-कुमारी देवसेना ! तुम, और यह कर्म ? समय जो चाहे करा ले ! कभी हमने भी तुम्हें. अपने काम का बनाया था ! देवसेना, यह सब मेरा घ्रायर्चित है । आज में बंधुवर्म्मा की आत्मा को क्या उत्तर दूंगा ? जिसने निःस्वाथे भाव से सब कुछ मेरे चरणों में अपित कर दिया था, उसमे कसे उकऋण होऊंगा ? मैं यह सब देखता हुं-और, जीता हूं । देवसेना : मैं अपने लिए ही नहीं मांगती देव ! आर्ये पर्णेदत्त ने साम्राज्य के बिखरे हुए सब रत्न एकत्र किये हैं, वे संब निरावलंब हैं ! किसी के पास टूटी हुई तलवार ही बची है, तो किसी के जीणं वस्त्र-खंड ! उन सबकी सेवा इरी आश्रम में होती है । स्कंदगप्त : वृद़ पर्णदत्त-तात पर्णेदत्त ! तुम्हारी यह् दशा ? जिनके लोहे से आग बरसती थी, वहं जंगल की लकड़ियां बटोर- कर आग सुलगाता है ! देवसेना ! अब इसका कोई काम नहीं । चलौ, महादेवी की समाघि के सामने प्रतिश्रृत हों, हम-तुम अब अलग न होंगे ! साञ्राज्य तो नहीं है। मैं बचा हं, वह्, अपना ममत्व तुम्हें अपित करके उऋण होऊंगा, और एकांतवास करूंगा ! ; देवसेना : सो न होगा सम्राट् ! मैं दासी हूं ! मालव ने देश के लिए उत्सर्ग किया. है, उसका प्रतिदान लेकर मृत आत्मा का अपमान न करूंगी। सम्र/ट् ! देखो, यहीं पर सती जयमाला की छोटी-सी समाधि है, उसके गौरव की रशा होनी चाहिए । | स्कंदगुप्त : देवसेना ! बंधुवर्म्मा की भी तो यही अच्छी थी । देवसेना : परंतु क्षमा हो सञ्राट् ! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे, अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्त्व को कलंकित न स्कंदगुप्त / ।43 स्कदगुप्त : देवसेना : क्क स्कंदगुप्त वेवसेना : स्कंदगुप्त देवसेना : विजया : स्कंदगुप्त : विजया : स्कंदगप्त : करूंगी ! मैं आजीवन दासी बनी रहूंगी; आपके प्राप्य में भाग न लूंगी । देवसेना ! एकांत में किसी कानन के कोने में तुम्हें देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूंगा ! साम्राज्य की इच्छा नहीं-- एक बार कह दो ! तब तो और भी नहीं ! मालव का महत्त्व रहेगा ही, परंतु उसका उदेश्य भी सफल होना चाहिए । आपको अकर्म्मण्य बनाने के लिए देवसेना जीवित न रहेगी ! सम्राट, क्षमा । हो ! इस हृदय में--आह् ! कहना ही पड़ा, स्कंदगुप्त को छोड़कर नतो कोई दूसरा आया और न वह जायेगा । अभिमानी भक्त के समान निष्काम होकर मुझे उसी की उपासना करने दीजिए, उसे कामना के भंवर में फंसाकर : कलुषित न कीजिए। नाथ ! मैं आपकी ही हूं, मैंने अपने को दे दिया, अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती । (स्कंद के पेरों पर गिरती है) : (आंसू पोछता हुआ) उठो देवसेना ! तुम्हारी विजय हुई । आज से. में प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं कुमा र-जीवन ही व्यतीत करूंगा । मेरी जननी की समाधि इसमें साक्षी है । हैं, हैँ यह क्या किया ! : कल्याण का श्रीगणेश ! यदि साम्राज्य का उद्धार कर सका--तो उसे पुरगुप्त के लिए निषकंटक छोड़ सकंगा । (निःइवास लेकर) देवव्रत ! तुम्हारी जय हो ! जाऊं आय्य, पणदत्त को लिवा लाऊं। | ्रस्थान। विजया का प्रवेश | इतना रक्तपात और इतनी ममता, इतना मोह--जैसे सरस्वती के शोणित जल में इंदीवर का विकास! इमी कारण अब मैं भी मरती हुं। मेरे स्कंद ! मेरे घ्राणाधार । (घमकर) यह कोन, इंद्रजाल-मंत्र ? अरे विजया ! हां, मैं ही हूं । तुम कंसे ? ।44 / स्कंदगुप्त विजया : स्कदगुप्त : विजया : सक दगुष्त : विजया : स्कदगुप्त : विजया : स्कदगुप्त : विजया : तुम्हारे लिए मेरे अंतस्तल की आज्या जीवित है । नहीं विजया ! उस खेल को खेलने की इच्छा नहीं । यदि दूसरी बात हो तो कहो। उन बातों को रहने दो । बिजया : स्कदगुप्त : नहीं, मुझे कहने दो (सिसकती हुई) मैं अब भी'' चप रहो विजया ! यह मेरी आराधना की--तपस्या की भूमि हे, इते प्रवंचसा से कलुषित त करो । तुमसे यदि स्वर्ग भी छिले तो मैं उससे दूर रहना चाहता हूं । मेरे पास दो रत्न-गृह छिपे हैं, जिनसे सेना एकत्र करके तुम सहज ही उत्त हुणों को परास्त कर सकते हो । परंतु साम्राज्य के लिए मैं अपने को बेच नहीं सकता। विजया, चली जाओ, इस निलंज्ज प्रलोभन की आवश्यकता नहीं , यह प्रसंग यहीं तक ! मैंने देशवासियों को सन्नद्ध करने का संकल्प किया है, और भटाक का प्रसंग छोड़ दिया है । तुम्हारी सेवा के उ पयुक्त बनने का उद्योग कर रही हूं। मैं मालव और सौराष्ट्र को तुम्हारे लिए स्वतंत्र करा दूंगी, अर्थलोभी हुण-दस्युओं से उसे छुड़ा लेना मेरा काम है। केवल तुम स्वीकार कर ली । विजया, मुभे इतना लोभी समझ लिया है? मैं सत्रा ट् बन- कर सिंहासन पर बेने के लिए नहीं हूं । शस्त्र-बल से शरीर देकर भी यदि हो सका तो जन्मभूमि का उद्धार कर लंगा सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से मैं उत्कोच देकर साम्राज्य नह! चाहता । क्या जीवन के प्रत्यक्ष सुखों से' तुम्हें वितृष्णा हो गदी ? आओ, हमारे साथ बचे हुए जीवन का आनंद लो! ओर असहाय दीनों को राक्षसों के हाथ, उनके भाग्य पर छोड़दूं ? कोई दु:ख अोगने के लिए है, कोई सुख । फिर सबका बोझ; अपने सिर पर लादकर कथों व्यस्त होते हो ? स्कंदगुप्त / ।45 स्कंदगुप्तः परंतु इस संसार का कोई उद्देश्य है। इसी पृथ्वी को स्वग विजया आहय होना है, इसी पर देवताओं का निवास होगा, विश्व-नियंता का ऐसा ही उद्देश्य मुझे विदित होता है। फिर उसकी इच्छा क्यों न पूर्णं करूं, विजया ? मैं कुछ नहीं हूं, उसका अस्त्र हुं- परमात्मा का अमोघ अन्त्र हूं। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियों के प्रति प्रेरित होना है। किसी से मेरी शत्रृता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नहीं । देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कायं कर रही है, पवित्र प्राकृतिक नियम अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं सन्नद्ध हैं। मैं उसी ब्रह्मचक्र का एक-- : रहने दो यह थोथा ज्ञान--प्रियतम ! यह भरा हुआ यौवन और प्रेमी-हृदय विलास के उपकरणों के साथ प्रस्तुत है। उन्मुक्त आकाश के नील-नीरद मंडल में दो बिजलियों के समान क्रीड़ा करते-करते हम लोग तिरोहित हो जायं । और उस क्रीड़ा में तीब्र आलोक हो, जो हम लोगों के विलीन हो ` जाने पर भी जगत् की आंखों को थोड़े काल के लिए बंद कर रखें । स्वर्गं की कल्पिठ अप्सराएं और इस लोक के अनंत पुण्य के भागी जीव भी-जिस सूख को देखकर आइचर्यंचकित हों, बही मादक सूख, घोर आनंद, विराट् विनोद हम लोगों का आलिगन करके धन्य हो जाये-- अगुरु-धूम की श्याम लहरियां उलझी हों इन अलकों से, व्याकुलता लाली के डोरे इधर फसे हो पलकों से। व्याकुल बिजली-सी तुम मचली आद्रे-हूदय-घनमाला से, आँसू बरुनी से उलभ हों, अधर प्रेम के प्याला से। इस उदास मन की अभिलाषा अंटकी रहे प्रलोभन से, व्याकुलता सौ-सौ बल खाकर उलक रही हो जीवन से। छवि-प्रकाश-किरणें उलभी हों जीवन के भविष्य तम से, ये लायेंगी रंग सूलालित होने दो कंपन सम से। 5. ही | 46 / स्कंदगुप्त स्कदगुप्त : बिज्ञया : इस आकुल जीवन की घड़िया इन निष्ठ्र आघातों से, बजा करें अगणित यंत्रों से सुख-दुःख के अनुपातों से। उखड़ी सांसे उलभ रही हों धड़कन से कुछ परिमित हो, अनुनय उलभ रहा हो तीखे तिरस्कार से लांछित हो। यह दुबल दीनता रहे उलभकी फिर चाहो ठक़राओ, . निदेयता के इन चरणों से, जिसमें तुम भी सुख पाओ । [स्कंद के पेरों को पक्रड़ती है] (पर छुड़ाकर) विजया ! पिशाची ! हट जा ! नहीं जानती, मेने आजीवन कोमाय-ब्रत की प्रतिज्ञा की है ? तो क्या मैं फिर हारी ? [ भटाक का प्रवेश । विजया स्तब्ध होती है] भटाक : निलेज्ज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी नहीं मरता ५ विजया : कौन, भटाक? भटाक : बिजया : : फिर भी किसके साथ ? जिस पर अत्याचार करके मैं भी =| स्कंदगप्त भटाकं ्कंदगुप्त : हां, तेरा पति भटाक ! दुश्चरित्रे ! सुना था कि तुझे देश- सेवा करके पवित्र होने का अवसर मिला है, परंतु हिंस्र पशु कभी एकादशी का व्रत करेगा--पिशाची कभी शांति- पाठ पढ़ेगी ? (सिर नीचा करके) अपराध हुआ । लज्जित हुं-जिससे क्षमा-याचना करने मैं आ रहा था ? नीच स्त्री ! धोर अपमान, तो बस''' (छ्रीं निकालकर आत्महत्या करती है) : भटाकं, इसके शव का संस्कार करो । : देव ! मेरी भी लीला समाप्त है-- ( छरी निकालकर अपने को मारना .चाहता है। स्कंन्दगुप्त हाथ पकड़ लेता है) तुम वीर हो, इस समय देश को वीरों की आवश्यकता है । तुम्हारा पह प्रायश्चित नहीं । रणभूमि में घ्राण देकर जननी जन्मभूमि का उपकार करो । भटाकं ! यदि कोई साथी स्कंदगुष्त | ।47 a भनयम ल ती वयक का भटाक : स्कदगृप्त : भटाक : स्कंदगुप्त : भटक स्क दगुप्त : भटक एक नागरिक : अन्य नागरिक : पणदत्त : च मिला तो साम्राज्य के लिए नहीं-जन्मभ्ूमि के उद्धार के लिए--मैं अकेला युद्ध करूंगा और तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी, पुरगुप्त को सिहासन देकर सैं वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करूंगा । आत्महत्या के लिए जौ अस्त्र तुमने ग्रहण किया है, उसे शत्रु के लिए सरक्षित रखो । (स्कंद फे सामने घटने टेककर) श्री स्कंदगुप्त बिक्रमा- _ दित्य की जय हो ! जो आज्ञा होगी, वही करूंगा । (प्रस्थान करते) पहले इत शव का प्रबंध होना चाहिए । (स्वगत) इस घृणित शव का अग्नि-सँस्कार करना ठीक नहीं, लाओ, इसे यहीं गाड़ दूं । {भूमि खोदते समय एक भयानक शब्द के सांथ रत्न-गह का प्रकट होना ओर भटाक का प्रसन्न होकर पुकारना। स्कंदगुप्त का आकर रत्न-गह देखना) भटाके ! यह तुम्हारा है । : हां, सम्राट ! यह हमारा है, इसलिएदेश काहै।आजसे मै सेना-संकलन में लगूंगा | वह् दूर पर बड़ी भीड़ हो रही है = स्तुप के पास । : नागरिकों का उत्सव है ।(रत्न-गह बंद करक ) चलिए, देखूं । दृश्य : तीन [स्तूप का एक पाइवे । नागरिकों का आवागमन । उन्हीं में वेश बदले हुए मातृगुप्त, भीसवर्म्ना, चक्रपालित, शर्वताग, कमला, रामा इत्यादि का और दूसरी ओर से वृद्ध पर्णदत्त का हाथ पकड़े हुए देवसेना का प्रवेश] अरे, वह छोकरी आं गयी, इससे कछ सुना जाये ! हाँ रें छोकरी ! कछ गा ती । भीख दो बावा ! देशा के बच्चे भखे हैं, असहाय है-कछ दो बाबा ! ।48. स्कदेगुप्त अन्य नागरिक : अरे गाने भी दे बूढ़े ! | पणं दत्त : हाय रे. अभागे देश ! (देवसेना गाती है) I देश की दुर्दशा निहारोगे, डूबते को कभी उबारोगे? | हारते ही रहे, न है कुछ अब, दांव पर आपको न हारोगे ? - कुछ करोगे कि बस सदा रोकर, दीन हो देवको पुकारोगे? | | सो रहे तुम, न भाग्य सोता है, आपन्निमड़ी तुम्हीं संवारोगे! || | दीन जीवन बिता रहे अब तक, क्याहुए जा रहे, विचारोगे ! Pe 7 पर्णदत्त : नहीं बेटी, निर्लज्ज कभी विचार नहीं करेंगे । | चक्क और भोम० : आयं पणंदत्त की जय ! पर्णदत्त : मझे जय नहीं चाहिए--भीख चाहिए। जो दे सकता अपने प्राण, जो जन्मरभमि के लिए उत्सर्ग कर सकता हो | जीवन, वैसे वीर चाहिए, कोई देगा भीख में! ू | | स्कंदगप्त : (भोड़ से लिकलकर ) में प्रस्तुत हूं तात ' आः भटाक : श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय हो ! ह | [नागरिकों तें से बहुत-से युवक निकल पड़ते हैं| सब्र: हम हैं, हम आपकी सेवा के लिए प्रस्तुत हैं । | स्कंदगप्त : आर्ये पणदत्त ! | पणंगुप्त : आओ वत्स--सम्राट् ! (आलिगन करता है) [उत्साह से जनता पुज्ञा के फूल बरसाती हे । चक्र- पालित, भीमवर्म्ता, मातगुप्त, शवनताग, कभला, रासा--सबक्ता प्रकट होना तुमुल जयनाद | 7 हा अ x हि ४ र. ww 5) दशय : चार [महावोधि बिहार में अनंतदेवी, पुरगुप्त, प्रश्यात जीति, | | हग-सेनापति ] अनंतदेबी : इसका उत्तर महाश्रमण देंगे ! ह | हुण-सेनापति मुझे उत्तर चाहिए--चाहे को ७ क | जो | प्रर्यातकीति : सेतापेति! मु्तपे तुती, समस्त उत्तरापथाक्ा ब ड=ऽ व॒ <स्कँदंगप्त ) 49 | च्च i तुम्हारे उत्कोच के प्रलोभन में भूल र था--वह अब | न होगा हृण-सनापति : तभी बोद्ध जनता से जो सहायता हृण-संनिकों को मिलती प्रथ्यातर्कात अनंतदेवो पुरगुप्त : अनंतदेवी पुरगष्त थी, बंद हो गयी और उलटा तिरस्कार ! वह् श्रम था । बोद़ों को विशवास था कि हूण लोग सद्धम्मं का उत्थान करने में सहायक होंगे, परंतु ऐसे हिंसक लोगों को सद्धम्मं कोई आश्रय नहीं देगा । (पुरगुष्त की ओर देख- कर) यद्यपि संघ ऐसे अकर्मण्य युवक को आ्य्यंसाम्राज्य के सिंहासन पर नहीं देखना चाहता तो भी बौद्ध धम्माचरण करगे, राजनीति में भाग न लेंगे। : भिक्षु ! क्या कह रहे हो ? समकर कहना । हृण-सेनापति ; गोपाद्रि से समाचार मिला है, स्कंदगुप्त फिर जी उठा है, और सिंधु के इस पार के हूण उसके घेरे में हैं, संभवतः शीघ्र ही अंतिम युद्ध होगा । तबतकके लिए संघ को प्रतिज्ञा भंग न करनी चाहिए । क्या युद्ध ! तुम लोगों को कोई दूसरी बात नहीं ! **' : चप रहो। : तब फिर--एक पात्र ! (सेबक देता है) प्रझ्यातकीति : अनाय्ये ! विहार में मद्यपान । निकलो यहां से । अनंतदेवी : भिक्षु! समझकर बोलो, नहीं तो मुंडित मस्तक भूमि पर हृण-सेनापति प्रख्यातकोर्त : हण-संनापति लोटने लगेगा । : इसी की सब प्रवंचना है। इसका तो मैं अवश्य ही वध करूंगा । क्षणिक भोर अनात्मभाव में कोन किसका वध करेगा-- मखं ! : पाखंड ! मरने के लिए प्रस्तुत हो । प्रख्यातर्कात : सिहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस सत्पथ पर अग्रसर हुए हैं, वहां से लौट नहीं सकते । [ हुण-सेनापति मारना चाहता है] 50 / स्कदगुप्त धातुसेन : धातुसंत : अनंतदेवी मातृगुष्त (ससेन्य प्रवेश करके) सम्राट स्कंदगुप्त की जय ! [संनिक सबको बंदी कर लेते हैं] कुचक्रियो ! अपने फल भोगने के लिए प्रस्तुत हो जाओ । भारत के भीतर की बची हुई समस्त हुण-सेना के रुघिर' से यह उन्हीं की लगायी ज्वाला शांत होगी । : घातुसेन ! यह क्या, तुम हो ? धातुसेन : हाँ, महादेवी ! एक दिन मैंने समझाया था, तब मेरी अवहेलना की गयी--यह उसी का परिणाम है। (सैनिकों से) सबको शीघ्र साम्राज्य-स्कंधावार में ले चलो । [सबका प्रस्थान] दृश्य : पांच [ रणक्षेत्र में सम्राट् स्कंदगुप्त भटाक, चक्रपालित, पर्ण- दत्त, मातुगुप्त, भीसवर्म्मा इत्यादि सेना के साथ परिक्रमण करते हैं । ] | (संबोधन कर गाता है) वीरो ! हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार । उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फेला फिर आलोक । व्योम तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक, विमल बाणी ने वीणा ली कमलनकोमल कर में सप्रीत । सप्तस्वर सप्तातिधु में उठे, छिड़ा तब मधूर साम-संगीत । बचा कर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत। अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत । सुना है दधीचि का वह त्यांग हमारा जातीयता. विकास । पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरा इतिहास । सिघ्-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह । दे रही अभी दिखायी भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह! रुकंदगृप्त / ।5| सब्ब ¦ खिगिल धर्मं को ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद । हुमीं ने दिया शांति संदेश, सुखी होते देकर आनंद। विजय केवल लोहे की नहीं, धमे की रही, धरा पर धूम । भिक्षु होकर रहते सञ्राटू दया दिखलाते घर-घर घूम । यवन को दिया दया का दान चीन को मिली धर्म की दृष्टि । मिला थास्त्रणे-भूमि को रत्न शील की सिंहल को भी सृष्टि । किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं । हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं। जातियों का उत्थान-पतन, आंघियां, ,भड़ी, प्रचंड समीर । खड़े देखा, झेला हंसते,--प्रलय में पले हुए हम वीर। चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नञ्रता रही सदा संपन्न। हृदय के गौरव में था गवं, किसी को देख न सके विपन्न । हमारे संचय में था दान, अतिथिथे संदा हमारे देव। वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव। बही हे रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान । वही है शांति, बही हे शक्ति, वहो हम दिव्य आय्ये-संतान । जिये तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हषं । निछाबर कर दे हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष । (समवेत स्वर में) जय! राजाधिराज स्कंदगुप्त की जय ! [हूण-सेनः के साथ खिंगिल का प्रवेश ) : बच गया था भाग्य से, फिर सिह के मुख में आना चाहता है । भीषण परश के प्रहारों से तुम्हें अपनी भल स्मरण हो जायेगी । स्कदगप्त : यह बात करने का स्थल नहीं है । [घोर युद्ध । खिंगिल घायल होकर बंदी होता है॥ सम्राट को बचाने में वद्ध पर्णवत्त की मत्यु। गरुडध्वज की छाया सें बह लिटाया जाता है । | स्कदगष्त : धन्य वीर आय्य पणे दत्त ! सब : आय्य परणं दत्त की जय !. आरय्यं साम्राज्य की जय ! MV क So 3 ।52./ स्कंदगृप्त de > है आ | पर 7 यु, [ बंदी-वेझ में पुरगुष्त ओर अनंतदेवी के साथ घातुसेन . का प्रवेश] के स्कदगुष्त : मेरी सोतेली माता ! इस विजय से आप सुखी. होंगी । अनतदेवी : क्गों लज्जित करते हो स्कंद ! तुम भी मेरे पुत्र हो ! | स्कंदगुप्त : आह ! यदि यही होती मेरी विमाता, तो देश की इतनी दुदेशा न होती ! | अनंतदेवी : मुझे क्षमा करो सम्राट ! क्क ms क न ककल se b= ४ नळ स्कदगुप्त : माता का हृदय सदेव क्षम्य है। तुम जिस प्रलोभन से इस दुष्कमे में प्र वृत्त हुई-वही तो कंकेयी ने भी किया था । |. तुम्हारा इसमें दोष नहीं । जब तुमने आज मुझे पुत्र कहा, तो मैं भी तुम्हें माता ही समभूंगा, परंतु कुमारगुप्त के इस अग्नितेज को तुमने अपने कुत्सित कर्मों की राख से ढंक | दिया--पुर गुप्त ! | पुरगुप्त : देव ! अपराध हुआ-- (पैर पकड़ता है) | स्कंदगुप्त : भटाकं ! मैंने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी की । आज इस रणभूमि | "में पुरगुष्त को युवराज बनाता हूं। देखना, मेरे बाद जन्म- भुमि की दुदंशा न हो ।(रकत का टीका पुरगुष्त को लगाता | है) | | Fe [कं : देवव्रत ! अभी आपकी छत्रछाया में हम लोगों को बहुत-सी Eg विजय प्राप्त करनी है, यहं आप क्या कहते हैं ? | स्कदगुप्त : क्षत-जर्जर शरीर अब बहुत दिन नहीं चलेगा, इसी से मैंने भावी साम्राज्य-नीति की घोषणा कर दी है। इस हुण को छोड़ दो और कह् दो कि सिंधु के पार के पवित्र देश में } कभी आने का साहस न करे। खिगिल : आर्य्ये सम्राट् ! आपकी आज्ञा शिरोधायं है । (ज्ञाता है) स्कंदगृप्त / ।53 देवसेना स्कदगुप्त स्कंदगप्त दृश्य : छह [उद्यान का एक भाग ] हृदय कौ कोमल कल्पना ! सो जा। जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आये हुए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए कोई अच्छी बात है ? आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा-- सबसे मैं विदा लेती हुं । आह ! वेदना मिली विदाई । | मैने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई । छलछल थे संध्या के श्रमकण, आंसू-से गिरते थे प्रतिक्षण । मेरी यात्रा पर लेती थी--नीरवता अनन्य अंगड़ाई । श्रमित स्वप्न की मधुराया में, गहन-विपिन की तरु-छाया में। पथिक उनींदी श्रुति में किसने--यह विहाग की तान उठाई । लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी, रह्दी बचाये फिरती कबकी । मेरी आशा, आह ! बावली, तूने खों दी सकल कमाई । चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर, प्रलय चल रहा अपने पथ पर । मैने निज दुर्बेल पद-बल पर, उससे हारी-होड़ लगाई । लौटा लो यह अपनी थाती, मेरी करुणा हा-हा खाती । विशव ! न संभलेगी यह मुझसे, इसने मन की लाज गंवाई । [स्कंदगुष्ठ का प्रवेश ] ` देवसेना ! | देवसेना : जय हो देव ! श्रीचरणों में मेरी भी कुछ प्रार्थना है । मालवेश-कुमारी, क्या आज्ञा है ? आज बंधुवर्म्मा इस आनंद को देखने के लिए नहीं हैँ । जननी जन्मभूमि का उद्धार करने की जिस वीर की दुढ़ प्रतिज्ञा थी--जिसका ऋणशोध कभी नहीं किया जा सकता--उसी वीर बंधूवर्म्मा की भगिनी मालवेश-कुमारी देवसेना. की कया आज्ञा है ? देवसेना : मैं मृत भाई के स्थान पर यथाशक्ति सेवा करती रही, अब |54 / स्कंदगप्त स्क॒दगुप्त : . देवसेना : मुके छट्टी मिले । देवि ! यह न कहो । जीवन के शेष दिन, कमं के अवसाद में बचे हुए हम दुखी लोग, एक-दूसरे का मुंह देखकर काठ लेंगे । हमने अंतर की प्रेरणा से शस्त्र द्वारा जो निष्ठ्रता की थी, वह इस पृथ्वी को स्वगे बनाने के लिए । परंतु इस नंदन की बसंत-श्री इस अमरावती की शची, स्वगे की लक्ष्मी तुम'चली जाओ, ऐसा मैं किस मुंह से कहूं? (कुछ ठहरकर सोचते हुए) और किस वज्त्र कठोर हृदय से तुम्हें रोकूं ? देवसेना ! तुम जाओ। हतभाग्य स्कंदगुष्तं ! अकेला स्कंद--ओह ! कष्ट हृदय की कसोटी है--तपस्या अग्नि है--सभ्राट ! यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखों का अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए। मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा ! *** [ घुटने टेकती है। स्कंद उसके सिर पर हाथ रखता है।] [यचनिका | स्कंदगुप्ल विक्रमादित्य: मगधपति कुमार गुप्त मह्द्रांदित्य का ज्येष्ठ पुत्र, युवराज जिसने सौराष्ट्र आदि से शको का और कश्मीर तथा सीमा-प्रांतों से हणो का राज्य ध्ञंस कर सनातन आर्य धर्म की रक्षा की। महाकवि जयशंकर 'प्रसाद' के प्रिद नाटक स्कंदगुप्त का नायक यही वीर योदा है। अपनी इस नाट्य-कृति में प्रसाद जी ने तत्कालीन राजनीतिक षड्यंत्रो, घात-प्रलिघातो और सामाजिक परिस्थितियों के इतिहास-सम्मत चित्र प्रस्तुत किये हे' । स्कंदगुप्त सहिल उनकी अन्य नाट्य-कृतियां न केवल हिंदी वरन् संपूर्ण भारतीय साहित्य की अनुपम निधि हें । यही कारण है कि ये कृतियां विगत पचास से अधिक वर्षों से न केवल बार-बार मंचित की जा रही हैं, वरन पाठ्य-पुस्तको के रूप में पढ़ी भी जा रही हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद : लोकमंगल मूलक आदर्शॉ के क्रांलिदर्शी स्वप्नद्रष्टा एवं अग्रदूत ! | 3|| ||| | Ii || | | स्कंद गुप्त जीवन भर कैसे रहता है?स्कन्दगुप्त प्राचीन भारत में तीसरी से पाँचवीं सदी तक शासन करने वाले गुप्त राजवंश के आठवें राजा थे। इनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी जो वर्तमान समय में पटना के रूप में बिहार की राजधानी है। हूणों ने गुप्त साम्राज्य पर धावा बोला। परंतु स्कन्दगुप्त ने उनका सफल प्रतिरोध कर उन्हें खदेड़ दिया।
स्कंद गुप्त का अन्य नाम क्या है?पिता कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के समय संभवतया पूरुगुप्त एक छोटा बालक था जिसकी वजह से स्कंदगुप्त (Skandagupta) सम्राट बना था। पुरुगुप्त (467 ई. -473 ई.), कुमारगुप्त द्वितीय (473 ई. -476 ई.), बुद्धगुप्त (476 ई.
स्कंदगुप्त नाटक का नायक कौन है तथा वह कहाँ का सम्राट है?बता दें, स्कंदगुप्त ने भारतीय संस्कृति, भारतीय कला, भारतीय भाषा और भारतीय शासन काल को बचाने का काम किया था. सम्राट स्कंदगुप्त गुप्त राजवंश के आठवें राजा थे. स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने उस दौर में जितने सालों तक शासन किया था, उतने ही सालों तक युद्ध लड़ा था. स्कंदगुप्त ने मध्य एशिया के कबीलाई हुणों को युद्ध में हराया था.
स्कंद गुप्त नाटक के लेखक का नाम क्या है?स्कन्दगुप्त, जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित नाटक है।
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