Show See other formatsआलोचना -शमचन्द्रिका लेखक पुरुषोत्तमदास भार्गव, एम० ए०, साहित्यरत्न किताव महल ; इलाहाबाद आमुख आचार्य केशवद, ” की 'रामचन्द्रिका' की प्रथक रूप से कोई आलोचना पुस्तक न होने के कारण हिन्दी के विद्यार्थियों को असुविधा होती थी | बी० ए० और साहित्यरत्न के विद्यार्थियों के अध्ययन-कार्य में मेरी यह धारणा और भी इृढ़ हुई। विद्यार्थियों के नित्यप्रति के आग्रह ने मुकसे यह कारये करा ही जिया । कवि की रचनाओं पर विचार करते समय उसके आसपास की परिस्थितियों की अवहेलना नहीं की जा सकती। आलोच्य प्रंथ की समीक्षा जितनी सहिष्णुता और सहानुभूति के साथ की जायगी, आलोचक उतना ही कवि की आत्मा को परख सक्रेगा। प्रस्तुत पुस्तक में मैंने इसी सिद्धान्त का आश्रय लिया है। केशवदास की काव्यात्मा को सममने में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इसका निर्णय विद्वान समालोचक स्वयं करेंगे। मोहन निवास] लश्कर (ग्वालियर. ४ पुरुपोत्तमदास भाग १-९-१४४५) विषय-सूची विपय ९. रामचन्द्रिका की प्रप्ठभूमि “२. रामचन्द्रिका की कथावरतु वि ३४ महाकाव्य ओर फेशव का इष्टिकोशु “४. केशब का प्रकृति निरीक्षण , ४५ ५. केशव का नख-शिख वर्णन ६४ रामचन्द्रिका के संर्बोत्कृष्ट संवाद ७. केशव की भाषा ८. केशव के छन्द ६.४ फेशव की घिचारधारा हि १०. केशच पर संस्कृत कवियों का ग्रभाव ११. रामचन्द्रिका के कुछ उद्देगजन्तक स्थल १२.४ रामचन्द्रिका प्रवन्ध काउय हे ९ १३. उपसंहार १४: तुलसी ससी उडुगन केशवदास . ... 2५. केशव ओर जायसी की प्रवन्ध-कल्पना मनन बी ऐ बाद ११ दर ध्द् श्ष्टछ श्श्द् १६६ श्षर् श््द् घर्०० २२० श्श्प श्र्७ श्ध् है रामचन्द्रिका की पृष्ठभूमि . कविता हृदय की रागात्मक मनोजृत्तियों का शेष सृष्टि के साथ तादात्म्य स्थापित करती है। हृदय को उद्देलित करने वाले विचारों में जब अत्यन्त तीत्रता आ जाती है, उस समय कवि उन्हें अक्षरों का आकार प्रदान कर देता है। हृदय की सुकुमार मनोवृत्ति की कलात्मक अभिव्यक्तित में ही काव्यत्व है। हिन्दी भाषा में काव्य-प्रशयन प्रारंभ होने के समय से ही भारत का राजनीतिक क्षेत्र संघर्ष, स्पद्धो ओर बैसनस्य के कंटकों से आच्छा- दित हो गया। युद्धस्थत्ञ को प्रस्थान करने वाले राजपूत वीरों के हृदय में उत्साह और वीरता की भावना को अश्वर बनाने के लिये कवियों की बीर रसोद्रेक पूर्ण बाणी से आकाश मंडल गूँज उठा । बीरों के साथ साथ वीर रस पूर्ण कविता करने वाल कवियों को भी राजाश्रय प्राप्त होने लगा। इस युग में राजस्थानी भाषा में वीर रस की भाव एवं ओज पूर्ण कविता हुई; किन्तु भावावेश में कवियों ने अपने आशभ्रयदाताओं की श्लाघा में अतिशयोक्ति को प्रश्नय देते हुए ऐसी उक्तियाँ भी प्रकट कीं, जिससे उन काव्य-अंथों का ऐतिहासिक महत्व पूर्णतः नष्ट हो एया है। परिस्थिति-जन्य आवश्यकताञ्ोओं के अनुरूप कविता रुना ही उन कवियों को अभिप्रेंत था; अपने आश्रयदाताओं के श्वर्य और शौर्य की प्रशंसा प्रकट करने केतु ही उन्होंने इविता को माध्यम चनाया था । र् रामचन्द्रिका मुसलमान आक्रान्ताओं के कारण भारतवर्ष की राजनीति ध्रार्थिक और धार्मिक परिस्थिति और भी विषम हो गई । छोटे ; है राजपूत राज्य क्सशः यवन आक्रमणकारियों द्वारा विजित कि। ने लगे | उस काल में हिन्दओं की राजनैतिक स्वतंत्रता का केवल अपहरण नहीं हुआ, अपितु उनका दैनिक जीवन ! दयनीय हो गया। विधर्मियों ने हिन्दू जाति को नष्ट क के लिये हिन्दू राष्ट्र के साथ हिन्दू संसक्षति को भी सष्ट-अ करना प्रारंभ किया | हिन्दू रमणी रत्नों का अपहरण नित्य फा घटना बन गई । देव मन्दिर नष्ट फिये जाने लगे। हिना में संगठन की न््यनता थी इसलिए बहुसंख्यक होते हुए भरी वे ललित किए गये । जो राजपूत राजा शेप रहे, उन्होंने मुग़लों ' पअधीनता स्वीकार कर ली । उनमें मुग़लों से लड़ने की न तो श थी और न साहस । ७ इस निराशा ओर निराश्रितावस्था में हिन्दुओं का ध्यजी! की ओर गया। वह सर्ब-शक्तिमान परमेश्वर ही दयनीरश में उन का एक सात्र अवलम्ध था । उसी अनुकूल मिककाल में आयाया ने भगवदभक्ति की पतित-पावन शोतम्विनी प्रवाहित की, जिनमें निमज्जन करके भक्त हे गेकर मयर की भाँति नाचने लगे । ै भक्ति की इस सरिता ने साहित्य के क्षेत्र को भी आप्ला। किया । किसी से घानसार्गी सिद्धान्तों को अपनी चाणी का विं “दया तो किसी ने सानवीय प्रेम के चरमसोत्कर्ष में ईश्वरी/ का दसन पाया। इस निर्मणवाद की प्रेमसयीशाखा ने भय के व्यक्तियों को अधिक प्रभावित क्रिया। सानवीयता नें हे है ही रू पे १३+ सा हि नर कक कक! ब् जप कद 4 नै ञञा हि है। के ् कर क्िद्य दया, दाक्षिस्य और प्रेम किसी एक धर्म तक हो सहै# रामचन्द्रिका की प्रष्ठभूमि ३ व्याप्त है। इस भावना का प्रसार मुसलमान कवियों ने हिन्दी में कबिता करके ही नहीं, हिन्दुओं के घरों में चिरकाल से प्रचलित गाथाओं को कविता का विपय बना कर भी किया । ५. निर्मेणवाद की धारा में साधारण जनता को बह स्थूल आधार पत्रच्च न हुआ, जिससे वे उसकी भावना को हृदयंगम करते। ह निर्विकार और अनादि ब्रह्म उनकी जिज्ञासा की तृप्ति न कर का; लेकिन जब रामानन्द ओर महाप्रभुवल्लभाचाये ने उत्तरी र्तवप में क्रमशः रास ओर कृष्ण की सगुण भक्ति का प्रचार (था तो उपासना का स्थूल आधार प्राप्त हो जाने के कारण जनता इस विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित हुई । ब्रजभाषा काव्य की आठ प्रसिद्ध बीणाओं ने, जिसमें सूर का छ्वर सब से सुरीला और ऊँचा था, कृष्ण के माधुये-सय रूप, मुरली के सुन्दर सर्वर और रास के सौन्दर्य एवं सरस वातावरण का ऐसा चित्रोप्म ओर सनोमोहक्र दृश्य अंकित किया कि संसार के संकटों को कुछ क्षण के लिये विस्तृत करके जनता उस रूप- शिघुरी में आसक्त हो गईं। कृष्ण के जीवन में माधुय था। परुना तट, चंशीबट ओर गो-चारण की घटनाओं में प्रकृति के “सणीय स्थलों का इतना समावेश था कि उस रम्य वातावरण :कऋष्ण के बाल एवं यौवन काल के सौन्दर्य की सफल अभि- [़िजना हुई <प्वाम की सगुण भक्ति को अपनी कविता का साध्यम बना सी तुलसीदास ने घर्म के सार्ग को ही प्रशस्त नहीं था; चल्कि शक्ति, शील और सौन्दर्य समन्बित राम का ऐसा (वेशेपूरए चरित्र अंकित किया कि जिसके चरण-चिह्नों पर क्िकर संसारी जीव सफलता के साथ जीवन व्यतीत करते ०! धयाध्यात्मिक उन्नति भी कर सकते हैँ। जीवन की विविध इसस्थाओं का रास के जीवन में समावेश करके तुलसीदास हर रामचन्द्रिका हिन्दी में इस युग के प्रवतेक आचाये केशवदास जी माने जाते हैं। यद्यपि सम्बत् १५६८ में कृपारास रस-निरूपण कर चुके थे; किन्तु उनके द्वारा जो परिपाटी चलाई गई उसका अनुकरण आगे न हुआ। केशवदास ने 'रीति' को काव्य में जो महत्व अदान किया उसे आगे के कवियों ने भी अपनाया | केशवदास ने भामह ओर उद्धट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को स्वीकार किया लेकिन आगे के रीतिवादी कवियों ने विश्वनाथ और दण्डी द्वारा 'निरूपित सिद्धान्तों का अनुसरण किया। उन्होंने ' केशवदास द्वारा समर्थित सिद्धान्तों का अनुकरण नहीं किया परन्तु आचाये केशवदास की कविता में इतना सौकरय्ये थाः उनके व्यक्तित्व में इतनी महानता थी कि उनको जो समान प्राप्ते नल नल उस समय कवि बन गये | कवि-कस की शिक्षा प्राप्त करने के लिये उक्त दोनों पुस्तकों का अध्ययन माध्यमिक काल में आवश्यक सममा जाता था । । _ राजकीय वातावरण में वैभव, विज्ञास और आडम्बर का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है । आचाये फेशवदास कवि ही नहीं राजः इन्द्रजीतर्सिह के गुरु ओर मित्र भी थे :-- गुरु कर मान्यो इन्द्रजित । तन मन ,कृपा विचारि | गाँव दिये इक बीत तक । ताके पाँव, पखारि! ॥ इन ऐश्वर्य-सम्पन्न परिस्थितियों 'का प्रभाव केशवदास की कविता पर भी पड़ना स्वाभाविक था। सुख ओर वैभव की गोद में जिसका लालन-पालन हुआ हो और जो स्वयं भी राजसुर्खों रामचन्द्रिका की पृष्ठभूमि ७ का अलुभव करता हो, वह जीवन की करुण एवं दुःखमय परिस्थितियों से उददासीन ही रहेगा। राजसभा में ज्ञिन आडम्वर पूर्ण परिस्थितियों की प्रचुरता होती हे--वाक््यों को बना सजा कर कद्दना, व्यवहार और कार्य में एक विशेषता रखना--उनका मत्यक्ष प्रभाव केशवदास की कविता पर पड़ा | झऋंगारमयी सुन्दर कृतियों को प्रतिपल देख-देखकर कबत्रि के हृदय में ऋझूंगारमयी भावनाओं का ही प्रस्फुटन होगा। यही कारण है कि रीति काल के इस प्रथम जआचार्य की कृतियों में शृंगारिकता एवं वैभव सम्पन्न अवस्था से उद्भूत होने वाली दर्प ओर ओजपूर्ण वाक्यावलियों का स्वच्छन्द प्रयोग हुआ है । स रीतिकाल में कविता करना ही कांवयों को अभिप्नेत न था, वे. अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन भी करना चाहते थे। यही द्वी नहीं वे कविता करने के लक्षणों की रचना करके आचायत्व के गौरव को भी प्राप्त करना चाहते थे। इस इच्छा की पूर्ति के लिये संस्क्ृत के ग्रन्थों में बतलाये गये लक्षणों का उन्होंने दोहों में अठुताद किया और उन्र लक्षणों के उदाहरुण में सवेया, कवित्त, घना- क्षरियों की रचना की | रीतिकाल में उक्त छन्दों का ही विशेष कर प्रयोग हुआ। केवल केशवदास ने ही रामचन्द्रिका में इतने प्रकार के छन्दों का समावेश किया जिनका प्रयोग हिन्दी के किसी अन्य कवि ने नहीं किया है । केशवदास कवि ही नहीं आचाये भी थे। उन्होंने एक नवीन युग का निर्माण किया, जिसमें काव्य के अलंकार पक्ष की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। उनके सिद्धान्तों ने उनके समय में प्रचलित काव्य प्रणालियों पर विजय प्राप्त की । भक्ति काल में आराध्य देव की उपासना के देतु ही काव्य . प्रणयन होता था। भक्त कवियों की भक्ति-भावना वाणी का, आवरण पहनकर कविता के रूप में प्रकट हुई। केशवदास मर रामचन्द्रिका भी हिन्दी के प्रसिद्ध भक्त कवियों के समकालीन थे। जिस भक्ति की निर्मल धारा में सूर और तुलसी जैसे कवियों ने हिन्दी भाषियों को निमज्जित किया, उसी भावना के भावसय प्रकटी- करण के हेतु केशवदास ने भी राम सम्बन्धी काव्य की रचना की । एक ओर राजाश्रयता के परिणामभूत हिन्दी में शृृंगारिक कविताओं का युग आरंभ हो चुका था तो दूसरी ओर भक्ति की वह अन्तःसलिला अब भी कहीं कहीं दिखलाई दे जाती थी। यद्यपि वह युग शृंगार और अलंकार का था पर, भक्ति भावना का प्रभाव भी विद्यमान था | रीतिकालीन कवियों में अपने काव्य का विषय राधा और कृष्ण को ही बनाया किन्तु उसमें पारलौकिक भावना नहीं, सांसारिक भावना-- बिलासिता-की ही प्रधानता थी। इस साहित्यिक वावाबरण में जब एक ओर भक्ति युग समाप्त होने लगा तो दूसरी ओर कामिनी और कांचन! को वरेण्य साना जाने लगा। उस भक्ति ओर शूृंगार के सन्धि युग में आचार्य केशव का आविर्भाव हिन्दी कविता के क्षेत्र में हुआ । रीतिकालीन भावना के भ्रवत्तक क्रेशवदास ने लक्षण अन्थ "कवि प्रिया' और 'रसिक ग्रिया की रचना की तथा आचार्यत्व प्राप्त किया ओर रामभक्ति की भावना - से अनुप्राणित होकर रामचन्द्रिका की रचना की। 'रामचन्द्रिका' की रचना के कारण मंथारंभ में स्व कवि ने दिये हैं । केशवदास की जीवनी पर प्रकाश डालने वाले जो बहिसाच्य हैं, वे अ्रमोत्पादक हैं। मूल गुसाई-चरित में बावा 'वेनी- माधव दास ने केशव के सम्बन्ध में यह लिखा है कि एक अवसर पर केशव तुलसीदास से मिलने के लिये चित्रकूट गये । तुलसीदास के शिष्यों ने जब केशव के आने का समाचार सुनाया तो तुलसीदास ने यह कहा कि आकृत कवि केशव्दीस को आने दो केशव ने जब यह वाक्य सुना तो उन्होंने अपना रामचन्द्रिका की प्रष्ठभूमि ६ ' अपमान समा । उन्होंने समझा कि तुलसीदास को रामचरित- मानस की रचना का गये है और इसीलिए उन्होंने एक रात्रि के भीतर ही रामचन्द्रिका की रचना की ओर दूसरे दिन वे तुलसी दास से मिले :-- कवि केशवदास बड़े रखिया | घनश्याम सुकुल नम के वसिया ॥ फवि जानि कै दरसन हेतु गये। रहि बाहिर सचन भेज दिये ॥ सुनिके जु गुताई कहे इतनो | कवि प्राकृत केशव आवन दे ॥ फिरिगे ऋट केशत्र सो सुनिके | निज तुच्छुता आपुद्द ते गुनि के ॥ जब सेवक टेरेड गे कहिके। हों भेटिहों काल्हि विनय गहिके ॥ रखि राम सु-चन्द्रिका रातिहि में | जुरै केसव जू असि घाटहि में ॥ सतसंग जमी रस रंग मची दोउ प्राकृत दिव्य विभूति पची ॥ मिटि केसब को संकोच गयौ | उर भीतर प्रीति की रीति रयौ॥ . ( मूल शुसाइ 'चरित ) उक्त कथन में तथ्यांश कुछ भी प्रतीत नहीं होता । महा- कवियों के साथ किसी न किसी साहात्म्य की उद्भावना कर ली जाती है। इसीलिए यह प्रकट किया गया कि केशव ने केबल एक रात्रि के भीतर ही 'रामचन्द्रिका' की रचना कर दी। तुलसीदास जी के व्यंग को सुनकर रामचन्द्रिका की रचना नहीं हुई। केशव ने रामचन्द्रिका के प्रारंभ में स्वयं लिखा है :-- बालमीकि मुनि स्वन महँ दीन्हों दर्शन चारु। केशव तिनसों यों कह्मौ क्यों पाऊँ सुख सार ॥ केशवदास की इस ग्राथना पर महर्षि वाल्मीकि ने यह उत्तर दिया कि राम नाम से ही सुख की प्राप्ति होगी | राम, नाम । सत्य, घाम ॥ और, नाम --। कौन काम ॥ १० | रामचन्द्रिका केशव ने पुनः मुनि से यह प्रश्व किया कि दुःख कैसे टरेगा। तो मुनि ने कहा कि हरि जू दुःख का हरण करेंगे। दुश्ख क्यों टरि हैं ! हरि जू इरि हैं । वाल्मीकि मुनि ने फिर उस अव्णुनीय हरि के माहात्म्य को केशव को सुनाया और यह भी कहा कि जब तक तू रास का गुण गान न करेगा तब तक बेकुंठ की प्राप्ति न होगी :-- न राम देव गाइहे। न देव लोक पाइहे॥ जब यह उपदेश देकर महर्षि वाल्मीकि अन्तर्ध्यान हो गये, तब उसी समय से केशवदास ने रामचन्द्र को अपना इष्टदेव बनाया :-- मुनिपति यह उपदेश दे जबहीं भये अदृष्ठ । कफेशवदास तहीं कर्यो, रामचन्द्र जू इष्ठ ॥ कवि द्वारा अस्तुत किये गये अन्तर्साक्ष्य से यह निश्चय रूप से पुष्ट हो जाता है कि वाबा वेनीमाधघवदास ने 'रामचन्द्रिका' की रचना का जो कारण बतलाया है, वह भ्रमात्मक है। वाल्मीकि मुनि से उपदेश प्राप्त करने के उपरान्त कवि 'राम॑चन्द्रिका' की रचना में पअव्ृत्त हुआ | वाल्मीकि मुनि के इस उपदेश का यह आशय भी लिया जा सकता है कि केशवदास ने रामचरित्र के वर्णन में वाल्मीकि रामायण को ही आधार माना है । + केशवदास ने रामचन्द्रिका की रचना का प्रारंभ सम्वत् १६४८ कार्तिक मास शुक्ल पक्त बुधवार को किया। रामच-्द्रिका के आरंभ में उन्होंने लिखा है :-- सोरद से .अट्टव्वने , कार्तिक सुदि बुधवार । रामचन्द्र की चन्द्रिका , तब लीन्दौ अचबतार ॥ रे रामचन्द्रिका की कथावस्तु पहिला प्रकाश दोहा :--य्रहि पहिले परकाश में, मंगल चरण विशेष | ग्न्यारंभ रू आदि की, कथा लहइिं वृष लेख | 'अन्थारंभ में गणेश वन्दना, सरस्वती वन्दना के उपरान्त कवि ने श्रीराम वन्दना की है । वंश परिचय एवं मंथ रचना काल देने के उपरान्त अ्रन्थरचना के'कारण उल्लिखित हैं; इस प्रशार प्रस्तावना समाप्त करके कथारंभ किया गया है। सूर्यचंश के शिरो- मणि राजा दशरथ के चार पुत्र हुए--राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुन्न | सरयू नदी के फिनारे, अवधपुरी हे वहाँ विश्वामित्र का आगमन हुआ । सरयू नदी का वर्णन, राजा दशरथ के हाथियों का वर्णन, वाटिका वर्णन, अवधपुरी का वर्णन करते हुए विश्वामित्र जी राजा-दशरथ के दरवार में पहुँचे । दूसरा प्रकाश दोहा :->्या द्वितीय प्रकाश में, मुनि आगमन प्रकास | राज” सों रचना वचन, राघव चलन विलास ॥ राजसभा में विश्वामित्र के प्रवेश-करते द्वी चारण ने प्रशस्ति- वाचन किया। राजा दशरथ के वैभव को देखकर मुत्ति विश्वामित्र चमत्कृत हुए । राजा दशरथ ने अभ्यर्थना करके उनके आगमन का कारण पूछा | विश्वामित्र ने यज्ञ-रक्षा के हेतु राजकुमारों की याचना की । राजा दशरथ ने बालकों की अल्पवयस्कता को प्रक्रट' करते हुए यक्षरक्षण के हेतु ससैन्य स्वयं चलने की इच्छा प्रकट' की, इस पर विश्वासित्र को क्रोधित देखकर वशिष्ठ जी ने ५२ रामचन्द्रिका रामचन्द्र को भेजने का आदेश दिया। राजा दशरथ राम के विछोह से अत्यन्त द्रवीभूत हुए | विश्वामित्र मुनि राम और “ लक्ष्मण को लेकर यज्ञस्थल्ष की ओर चले गये। तीसरा प्रकाश दोहा:--कथा तृतीय प्रकाश में, बन-बर्णन शुभ जानि रच्तण यज्ञ मुनीश को, श्रवण स्वयंत्रर मानि। वन वर्णन, और मुनि आश्रम के विशद् वर्णन के उपरान्त राम और लक्ष्मण द्वारा यज्ञ-रक्षण कार्य का वर्णन है । जब ऋषि गश यज्ञ काय सें लीन हो गये उस समय ताड़का आकर यज्ञ का विध्यंस करने लगी । रास ने वाण तो सन्नद्ध कर लिया, लेकिन सी समककर वे उसे मारने से विरत रहे। तब ऋषि ने कहा कि यह बड़ी कर कर्मा है इसे अवश्य मारा जावे | तदुपरान्त राम ने ताड़िका को मार डाला। यज्ञ परिपूर्ण हो जाने पर घन्तुप यज्ञ की वार्ता समारम्भ हुईं | घनुप यज्ञ-स्थल के वर्णन में सुमति और विमति नाम॑ के दो बन्दीजन घनुष-यज्ञ में सम्मिलित हुए राजाओं का परिचय देते हैं | इस के पश्चात जब राजागण घन्ुप को न उठा सके तब राजा जनक को बड़ा क्षोभ होता है । चौथा प्रकाश दोह्दा :--कथा चतुर्थ प्रकाश में, वाणासुर संवाद । रावण सो, अरु धनुष सों दसमुख वाण विषाद ॥ धह्ुुप यज्ञ-स्थल में जब रावण और बाण उपस्थित हुए तो डस समय सभी नर-मारि अत्यन्त भयभीत हुए। घन्ठप को तोइने के सम्बन्ध में उन दोनों में वाद-विवाद होने जलगा। बाणासुर यह सममकर यक्ञस्थल छोड़कर चला गया कि वह धलुप मेरे गुरु का ( शिव ) है और सीता मेरी माता हैं. ।” रामचन्द्रिका की कथावस्तु १३ रावण ने भी अपनी ग्रतिज्ञानुसार जन्न एक राक्षस को आतंस्वर में क्रदन करते हुए सुना, तव वह भी यज्ञस्थल छोड़कर चला गया | पाँचवाँ प्रकाश दोहा :--बह प्रकाश पंचम कथा, राम गवन मियिलाहि | उद्धारण गौतम घरणि, स्तुति अरुणोदय आहि ॥ मिथिलापति के वचन अर, धनु भंजन उर घार। जैपाला दुन्दुमि अमर, वर्षन फूल अपार॥ जब धनुप यज्ञ में उपस्थित राजा धाुमंग न कर सके; तो सब व्यक्तियों को वहुत सन्देह होने लगा, उस समय एक त्रिका- लद॒र्शी ऋषि पत्नी एक ऐसे चित्र को लेकर आई जिसमें सीता जी के साथ एक सुन्दर राजकुमार का चित्र भी अंकित था। धनुष यज्ञ की बातों को सुनकर विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण “को लेकर मिथिला को चले। मार्ग में रामचन्द्र जी ने गौतस की स्त्री अहिल्या का उद्धार किया। जिस समय रामचन्द्र जी ने नगर में अवेश किया उस समय प्रातःकालीन सूय आकाश में उदित हो रहा था। उस नवोदित वालरवि की सुन्दरता पर मुग्घ होकर रामचन्द्र जी उसकी शोभा का वर्णन करने लगे । राम के आगमन का समाचार पाक्र राजा जनक शतानन्द ब्राह्मण को लेकर उनकी अगवानी के द्वेतु आ गये । विश्वामित्र ने राजा जनक को राम ओर लक्ष्मण का परिचय दिया। विश्वामित्र की आज्षा पाकर रामचन्द्र ने धनुष को तोड़ दिया और सीता जी: “वने वरमाला रामचन्द्र जी को पहिना दी । छठवाँ प्रकाश दोहा ;--छुठे प्रकाश कथा रुचिर, दशरथ झागम जान । लगनोत्सव श्रीराम को, व्याह विधान चखान ॥ १४ रामचन्द्रिका शतानन्द विप्र ने राजा जनक को यह परामश दिया कि राजा दशरथ के चारों पुत्रों के साथ अपनी पुत्रियों का बिवाह करो। तब राजा जनक ने लग्न लिखाकर राजा दशरथ के पास भेजी | राजा दशरथ बरात सजाकर आये। द्वार-पूजन कराके राजा जनक ने सब बरातियों को पहिरावन दिये । परिक्रमा के अवसर पर सब बराती सज्जित होकर मंडप के नीचे बेंठे । वशिष्ठ और शतानन्द ऋषि ने मिलकर शाखोच्चार पढ़ा। राजा दशरथ से एक दिन और ठहरने के लिये प्रार्थना करने के हेतु जनक शत्तानन्द ब्राह्मण को आगे लेकर जनवासे पहुँचे | पारस्परिक 'शिष्टाचार बन करने के उपरान्त राजा जनक ने अपना समन्तव्य प्रकट किया। जेंवनार के अवसर पर स्त्रियों ने रामचन्द्र को गालियाँ गाई। दूसरे दिन प्रातःकाल पलकाचार हुआ। पलके पर बैठे हुए राम और सीता अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हुए। राजा जनक ने भिन्न भिन्न प्रकार का दायजा दिया। अत्यन्त मूल्यवान; दायजा प्राप्त करके राजा दशरथ ने भी ब्रह्मर्षि, राजाओं एवं याचकों को अमित वस्तुओं का दान दिया। सातवाँ प्रकाश दोहा :--या प्रकाश सप्तम कथा, परशुराम सम्बाद। रघुवर सो अरु रोप तेहि, भंजन मान विषाद ॥ विश्वामित्र जी चले गये ओर जनक भी वरात को पहुँचा कर लौट गये, उस समय अयोध्या की ओर जाती हुई सेना के अगिम भाग से परशुराम जी मिले। परशुराम जी के क्रोधी स्वरूप को देखकर दथरथ की सेना में भगदड़ सच गई। योद्धा" गण प्राण बचाकर भागने लगे। बामदेव ऋषि से परशुराम जी ने यह पूछा कि शिवजी के धन्लुप को किस ने तोड़ा है? कामदेव ने परशुराम जी के उत्तर में यह कहा कि श्रीराम ने घनुष रामचन्द्रिका की कथावस्तु श्र को तोड़ा है। तब परशुराम जी को अत्यन्त क्रोध हुआ। अस्त में स्वयं महादेव जी ने आकर राम और परशुराम में बीच बचाव किया। तदुपरान्त रासचन्द्र ने बरात सहित अयोध्या की ओर अस्थान किया | आउठवों प्रकाश दोहा :-न्या प्रकाश अष्दटम कथा, अवध प्रवेश चखानि। * सीता बरनन््यो दशरथहिं, और बन्धुजन मानि॥ अयोध्या नगरी के सब स्थान अति शोभा से रंजित हैं | जहाँ तहाँ हर्प-सूचक चिह्--तोरण, वन्दनवार, कदलीखंभ आदि-- बनाये गये हैं | नगर के सकानों पर बहुत ऊँची पताकाएँ फहरा रही हैं। प्रत्येक फाटक पर आठ आठ रक्षक हैं | गलियाँ अत्यन्त सुन्दर, स्वच्छ एवं घूल रहित हैं। प्रत्येक गृह में घण्टों का शब्द हो रहा है; बीच बीच में शंख और मालर भी बज रहे हैँ | नगर की स्रियाँ बरात को देखने के लिये मकानों की उच्चतम अट्वालिकाओं पर चढ़ गई हैं। अटारी पर चढ़ी हुई स्त्रियाँ कोई तो हाथ में दर्पण लिये हुए हैँ। कोई स्त्री नील्ाम्बर धारण किये हुए मन का हरण कर रही है । कोई स्त्री अत्यन्त सुन्दर फूलों की वर्षा कर रही हे। कोई फल, फूल ओर लावा डाल रही है । रामचन्द्र जी भीड़ युक्त उस जन समूह में हाथी पर सवार होकर निकले । रामचन्द्र'जी मरत का हाथ पकड़े हुए राजदरवार में गये फिर वधू सहित राजकुमार कौशल्या के भवन गये। इस समय आमसोद ग्रमोद-रत जनता वाद्य बजा रही थी और दान आदि दिये जा रहे थे। नवाँ प्रकाश ( अयोध्या कांड ) दोद्या :--यह प्रकाश नवयें' कथा राम गबवन बन जानि। जनकनंदिनी को सुकृत, तबरनन रूप बखानि॥ 8६ रामचन्द्रिका राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण को तो घर रख लिया ओर भरत एवं शत्रन्न को ननिहाल भेज दिया। उन्होंने एक दिन अत्यन्त प्रसन्न होकर वशिष्ठ जी से यह परामर्श किया कि वे किस दिन रामचन्द्र को राजपद् समर्पित कर दे । यही बात भरत की माता कैकयी ने सुन ली ओर उसके हृदय में यह विचार उठा कि राम को बनवास दिलाया जाय । इसलिए उसने राजा दशरथ से दो वरदान--( १) भरत को राजपद दिया जाय (२) राम को १४ वर्ष का वनवास--माँग लिये। राजा दशरथ को कैकयी के ये वचन चजञ्र के समान लगे। रास वनवास के समाचार ने जनता में हलचल मचा दी। सब लोग दुःखी हुए । रामचन्द्र जी अपनी माता कौशल्या के भवन में गये और यह सन्देशा सुनाया कि वह बन जा रहे हैं। कोशल्या यह सुनकर अत्यन्त क्रोाधित हुईं | उन्होंने राम के साथ बन जाने का विचार प्रकट किया, तब रामचन्द्र जी ने माता को पातित्रत्यथर्म का उपदेश दिया। राम तब सीता जी के निवास स्थान पर गये ओर उसे अयोध्या में ही रहने का आदेश दिया किन्तु सीता ने बन जाने का. आग्रह किया । लक्ष्मण को भी राम ने समम्काया पर वे भी न माने; अन्त में राम, सीता ओर लक्ष्मण को लेकर बन को चल्ले गये । राम बन- गसन का समाचार सुनकर राजा दशरथ ने अपने प्रांशु उत्सगे कर दिये। पंथ में जाते हुए राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर: ग्राम-निवासी भिन्न भिन्न प्रकार की भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। इस प्रकार मार्ग में आमवासियों को दर्शन देते हुए रामचन्द्र जी चित्रकूट पर्वत पहुँच जाते हैं। द्शवाँ प्रकाश दोहा :--बहिं प्रकाश दशर्म कथा, आवन भरत स्वधाम | राज सरन अर तासु को, वसित्रो नन््दीग्राम ॥ भरत ने आकर अयोध्या को श्री-विहीन देखा । मावा केकयी रामचन्द्रिका की कथावस्तु श्७ के महल में जाकर पिता और भाई का समाचार पृछ्ा। भाई के बनगसन्न और पिता की मृत्यु के समाचार को सुनकर वे अत्यन्त दुःखी हुए तत्पश्चात वे कोशिल्या के यहाँ पहुँचे ओर इस * निद्य-कार्य में अपना सहयोग न होने का शपथपूर्वेक श्रमाण देने 'ज्गे । कौशिल्या ने कद्ा कि भरत तुम भ्राढ प्रेमी हो, तुम्हें किसी प्रकार का खटका न होना चाहिये। तदुपरान्त भरत ने सरयू के किनारे दशरथ की अन्त्येष्टि की। वल्कल वस्त्र पहनकर भरत राम से मिलने के लिये चले। भरत की तुमुल वाहिनी के कारण जंगल के पशु और पक्ती इधर उधर भागने लगे। लक्ष्मण से यह समझा कि भरत रास पर आक्रमण करना चाहते हैं। इसपर वे भरत को सार डालने के लिये उद्यत हो गये । भरत ने अपनी सेना को आश्रम से दूर ही छोड़ दिया और वे राम के चरणों में जा गिरे। मात्ताएँ भी विहला होकर राम से मिलीं । राम को जब पितृ-मरण का समाचार मिला तो उन्होंने गंगा तट पर ज्ञाकर शुद्धि-क्रिया की। भरत ने राम से अयोध्या लौट चलने की प्राथना की। भरत जब्न भागीरथी के किनारे गये तब भागीरभी ने यह उपदेश दिया कि हे भरत तुम्हें हठ न॑ करना चाहिये और राम तुमसे जो कहें उसका अनुगसन करो । तब भरत ज्ञी राम की पाहुका लेकर तथा राम ओर सीता की प्रदक्तिणा करके अयोध्या वापिस लौट आये | 'ग्यारहवाँ प्रकाश दौह्ा :--एकादर्शे प्रकाश में, पंचव्टी को वास | सूपंण्खा के रूप को, रघुपति करिदहे नास ॥| रामचन्द्र जी चित्रकूट का /र छोड़ और आगे चले तथा अन्नि ऋषि के आश्रम में पहुँचे ।. राम, लक्ष्मण ओर सीता को अपने आभ्रस में देखकर अन्नि ऋषि ने अपने जीवन को र् श्प शामचन्द्रिका कृत-कृत्य जाना। सीता जी अत्रि की पत्नी अनुसूथा के पास गयीं और उनका चरणा-स्पर्श किया। अलुसूया ने सीता को आँति भाँति के उपदेश दिये। अबत्रि के आश्रम से राम सीता और लक्ष्मण सहित अगस्त्य मुनि के आश्रम में पहुँचे। अगस्त्य मुनि ने राम का श्रद्धा सहित सत्कार किया। रामचन्द्र ने प्यगस्त्य मुनि से उस स्थान के सम्बन्ध में पूछा, जहाँ वे पर्णो- कुटी बनाकर निवास करने लगे । अगस्त्य के कथनानुसार रासचन्द्र जी ने पंचवटी के पास पर्णशाला बनाई। दंडक वन ओर गोदावरी नदी की प्राकृतिक सुषमा से रामचन्द्र अत्यन्त प्रभावित हुए। सीता जी वीणा बजाकर रामचन्द्र के हृदय को अफुल्लित करने लगीं। जब राम और सीता इस प्रकार आमोद प्रमोद सथ जीवन व्यत्तीत कर रहे थे, उस समय राम के शरीर की सहज सुगन्धि से अनुभाणित होकर शुर्पणखा रास के पास आई ओर अपनी संभोगेच्छा को प्रकट किया। राम ने कहा कि मेरे तो पत्नी है, तुम लक्ष्मण के पाघ जाओ। लक्ष्मण ने यह कहा कि दासी बनने से क्या लाभ ? तुम्हें तो राम से ही अपनी इच्छा--करना चाहिये। अब शूपेणखा सीताको खाने के लिये दौड़ी, राम का संकेत पाकर लक्ष्मण ने तुरंत शूपंणखा के नाक और कान काट डाले । चारहवाँ प्रकाश दोहा :--या द्वादश्शे प्रकाश खर, दूषण त्रिशिरा नास | सीताहरण विलाप सु-ग्रीव मिलन इरि च्रास ॥ शूपणखा अपने भाई खर दूषण के पास गई ओर उन्हें रणहेतु सजाकर श्रीराम के पास लिया लाईं। रामचन्द्र ने उन स्रां को एक बाण ही में सार डाल्ा। राम ने खरदूषण कीं सेना के चौदह-हजार राक्षसों को भी सहज ही में मार गिराया । रामचन्द्रिका की कथावस्तु १६ सदुपरान्त शूपेणखा रावण के पास गई और उसके समक्ष उस ने सीता के सौन्द्य की प्रशंसा की। शूपंणखा की दुर्गति देख कर रावण के हृदय में क्रोध हुआ और वह मारीच के पास पहुँचा और उससे सहायता करने को कहा। मारीच ने यह कहा कि राम को साधारण मनुष्य मत सममो, वे तो चौदह अवनों में व्याप्त हें। रावण को यह सुनकर अत्यन्त क्रोध हुआ | तब भयभीत होकर मारीच उसके साथ चल पड़ा । रामचन्द्र जी नें सीता जी से यह कद्या कि हे सीते ! में प्र॒थ्वा के भार का हरण करना चाहता हूँ अतएव तुम अपने शरीर को तो अग्नि में रखो और छाया शरीर धारण करके झूग की अमिलापा करो | उसी समय एक स्थर्ण का हिरण आया, रामचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण को सीता के पास रखकर स्वयं पवेतों को लांघते हुए हरिण मारने के लिये चले गये | जब राम ने उस हरिण पर शराघात किया तब वह मूग हा लक्ष्मण” कह कर गिरा । सीता जी ने लक्ष्मण से जाने को कहा ; तब लक्ष्मण धह्लुप की नोंक से एक रेखा द्वार पर खींचकर चले गये। अब उपयुक्त अवसर जानकर भिक्ुक के छक्म-वेप में रावण आया | सीता ने उसे भिक्कुक समझ कर भिक्षा देने के हेतु बुलाया और वह छद्म-बेपी रावण सीता का दरण करके ले गया । सीता आकाश मार्ग में विज्ञाप कर रही थीं। जटायु ने उनके रोने को सुनकर उन्हें छुड़ाना चाहा; परन्तु रावण ने जटायु को पंख-हीन कर दिया । रावण सीता को लंका ते गया। सांग में सोता जी को तीन वानर बेठे हुए दिखायी पड़े उन के पास उन्होंने अपने उत्ततीय और मणि-नूपूर फेंक दिये। रामचन्द्र जी सीता के वियोग में अत्यन्त दुःखित होकर उन्हें इधर उधर दूँढ़ने लगे। राम ने गृद्धराज जठायु को पड़ा हुआ देखा। उसने सव समाचार राम को सुनाया। गृद्धराज का दाह करके राम आगे वले । तब कबन्ध ने उनको लक्ष्मण सहित खींच लिया । २० रामचनिद्रका जब उसने राम और लक्ष्मण को खाना चाहा-तब राम ने-वाण से उसके दोनों हाथों को काट डाला | कवन्ध ने यह कहा कि जब ' ध्याप गोदावरी से आगे जायँंगे तब सुत्रीव मिलेगा, वह सीता का समाचार सुनावेगा । राम ने जब एक नदी के किनारे चकवा चकवी को देखा तब सीता वियोग से ह्ुब्ध हुए। प्रत्येक प्राकृतिक पदार्थ राम को सीता के विछोह में कष्टदायक सिद्ध हुए । ( किष्किन्धा कांड ) | जब रामचन्द्र जी ऋष्ियमूक पर्वत पर पहुँचे तो उन्होंने वहाँ पाँच वानरों को देखा। जब सुगप्रीव ने राम को देखा तथ उसने उन दोनों भाइयों को नर और नारायण ही सममा | हनुसान के पूछने पर राम ने अपना परिचय दिया। हनुमान ने अपना परिचय देते हुए कहा कि इस पर्वत पर सुग्रीव रहते हैं उनके साथ उनके चार मन्त्री हूँ | वालि नामक बानर ने उसकी स्त्री को छीन लिया है। यदि ओप उसे स्त्री सहित राज्य दिला देंगे तो हम सीता का पता बतल्ा देंगे। सुश्रीव ने राम को सीता के उत्तरीय और आसूषण समर्पित कर दिये । फिर उस ने राम से सात ताल वेधने को भार्थना की, रामचन्द्र ने सहज ही में बारं- वेधन कर दिया । । तेरहवाँ प्रकाश दोह्ः--या तेरहवें. प्रकाश में, बालि बध्यो कपरिराज | वर्णन वर्षा शरद को, उद्धि उल्लंघन साज ॥ सुप्रीव ओर वालि में युद्ध हुआ, इसी समय राम ने क्रोधित हो करे एक वाण वालि के मारा, वह राम-राम कहता हुआ प्रथ्वी में गिरा। होश आने पर उसने राम से अपने वध का कारण पूछा | तब राम ने यह कहा कि तुम इस अपधघात का बदला कृष्णावतार में लोगे | राम ने अंगद को युवराज पद दिया। वर्षा ऋतु में राम रामचन्द्रिका की कथावस्तु र१् की सीता विरह के कारण अस्यन्त दुख हो रहा है। शरद काल आने पर राम सीता प्राप्ति के प्रयास में लीन होते हैं । जब ल्क््मण किष्किन्धा जाकर सुग्रीय को सीता-शोधन का स्मरण दिलाते हैँ तब वह हलुमान को सीता की खोज करने का - आदेश देता है । सुन्दर कांड हलुमान जी समुद्र को लांघकर लंका पहुँचे | मार्ग में खुरसा ओर सिंहिका मिली; उन्हें हनुमान जी ने मार डाला। जब वे लंका में प्रवेश करने लगे तब लंका नाम 'की राक्षसी ने उनका सार्गे रोका । इस पर उन्होंने उसके एक थप्पड़ मारी जिससे वह मर गई । हनुमान जी ने रावण को देखा । अशोक वाटिका में विरह- मग्ना सीता का साक्षात्कार किया। उसी समय रावण आया उसने शब्द-लाघव से सीता को अलोभित किया किन्तु-पति-परायणा सीता मे उसे अपमानित करते हुए वाक्य कह्टे। तव अवसर जानकर इनुमान जी ने मुद्रिका सीता के पास गिरा दी मुद्विका को देखकर सीता को आश्चर्य हुआ । अब हनुमान जी बृक्ष से नीचे उतर आये ओर वे सब घटनाएँ कह सुनाई जिससे नर और वानर में मैन्री हुईं। हनुमान जी ने सीता को राम की दशा सुनायी और फेर सीता जी का शीशमणि/ आभूषण लेकर, वाढिका को डजाड़कर तथा राक्षसेकोी मारकर, फल, मूल का भक्षण करने चले गये । चौदहवां प्रकाश दोहा :--या चौददे प्रकाश में हेंदे लंका दाह । सागर तीर मिलान पुनि, करिदें रघुकुल नाइ ॥ हनुमान ने जब वाटिका का विध्वंस करके अक्षयक्ुमार को मार डाला, तब रावण ने मेघनाद से यह कहा कि वानर २ रामचन्द्रिका जीवित न जाने पावे । मेघनाद हनुमान जी को विधिपाश में बाँक कर रावण के पास के गया। तब रावण ने हनुमान से परिचय माँगा । रावण ने क्रोधित होकर हलुमान का क्षत-विज्षत करने की आज्ञा दी। विभीपण ने राजनीति बतलाते हुए रावण को यह परामर्श दिया कि दूत का वध करना अनीति है, तब हनुमान की पूँछ में कपड़ा बाँधकर और तेल डालकर आग .लगा दी गयी। हनुमान ने तब लका के घर घर में आग लगा दी | लंका- निवासी त्राहि-त्राहि करते हुए भागने लगे। उछ्त अग्नि दाह केवल विभीषण का घर वबचा। हनुमान ने अपनी पूँद को समुद्र भें बुकाया और फिर सीता के चरणों में सस्तक नवाया । सीता से बिदा लेकर हनुसान राम के पास चले । समुद्र के किनारे उन्हें बालि आदि चानर मिले। फिर सत्र ने उद्यान के फल्न फूलों का भक्षण किया | जब वाटिका-रक्षक सुप्राव के पासं उपालम्स लेकर पहुँचे तब सुप्रीय को यह विश्वास हुआ कि हनुमान सीता की खोज कर आये हैं ; इसीलिये उन्हें इतना साहस हुआ है । हनुमान जी ले सीता का समाचार रामचन्द्र को सुनाया और उन्की शीशमणि रामचन्द्र को अर्पित की। सीता की दशा बताते हुए. : उन्होंने यद्द भी कहा कि यदि एक मास के भीतर सीता की मुक्ति न करायी गयी ते आरत-उद्धारक का जो यश है वह निस्सार पड़ जायगा । पा विजयादशमी के दिन राम ने लंका-अभियान के लिये प्रस्थान किया | रासचन्द्र की विशाल वानर सेना सागे में खेल कूद करती गयी। सेना सहित रामचन्द्र जी ने समुद्र के किसारे पहुँच कर पड़ाव डाला | | पन्द्रहवाँ प्रकाश दोहा :--या प्रकाश दस पंच में, दस सिर करे विचार । मिलन विभोीषण सेतु रचि, रघुपति जैहैं पार ॥. रामचन्द्रका की कथावस्तु र्३् रावण अपने मन्त्रियों से परामश ले रहा है। ग्रहस्त ने यह कहा कि है देव ! शंकर ने आपको ऐसा वरदान दिया हैः जिसके घल से आपने सब लोकों को अपने वश में कर लिया है। आपके पुत्र ने इन्द्र दर को जीत लिया है; तब ये नर वानर आपको कोई हामि नहीं पहुँचा सकते। कुम्भकर्ण ने यह कहा कि दे रावण तुमने उस समय सलाह न ली जब सीता को चुरा के लाये। अब जब आपत्ति आ पड़ी तब पछने चलते हो । मन्दोदरी ने भी रावण के कुकृत्य का विरोध किया। मेघनाद ने तब अत्यन्त गर्वोक्ति के साथ यह कहा कि यदि मुझे आज्ञा प्राप्त हो जाय तो में समस्त संसार को नर और वानर से हीन कर दूँगा। तव विभीषण ने रावण से यह निवेदन किया कि कुंभकर्ण ओर मेघनाद राम को जीत नहीं सकते अतः शीघ्रातिशीत्र सीता को लेकर तुम राम की शरण में जाओ । इस पर क्रोधित होकर रावण ने विभीषण के लात मारी, इस पर अपने साथियों को लेकर , राम की शरण में चला गया। राम के भाई विभापण को शरण में आया जानकर राम ने भन्त्रियों से सलाह ली ; तब हनुमान ने यह कहा कि विभीपणु रास भक्त है। विभीपण ने भी आते होकर राम से दुःख निवेदन क्रिया तब राम ने उसे शरण दान दिया। सेतु वन्धन कराके राम ने सेना सहित समुद्र को पार किया और वार सेना ने लंका को चारों ओर से घेर लिया । सोलहवाँ प्रकाश दोहा :--यह वणुन है षोडशे, केशवदास प्रकाश | रावण अंगद सों विविध, शोमित बचन विलास॥ राम ने अंगद को दूत बनाकर रावण को सभा में भेजा | रावण के राज दरबार का वैभव अपार था। वहाँ देवताओं का शश्छ रामचन्द्रिका अपमान किया जा रहा था| उसे देखकर अंगद को क्रोध हुआ ओर वे राक्षसों को धक्का देते हुए, राज सभा में प्रविष्ट हुए। अंगद ने वातोलाप में राम के शोर्य को रावण के समत्त, प्रदर्शित किया। रावण ने अंगद को यह प्रलोभन दिया कि यदि तुम अपने पिता के वधिक ( राम ) को मारना चाहो तो में तुम्हारी सहायता करूँगा ओर तुम्हें क्रिष्किन्धा का राज्य दे दूँगा । अंगद ने राजनीति-युक्त उत्तर दिये और अन्त में रावण के मुकुट लेकर राम के पास लौट आये | सन्नहाँ प्रकाश दोहा :--या सत्रहवें प्रकाश में, लंका को अवरोधु शत्रु चमू वर्णन समर , लक्ष्मण को परमोधु रावण के सस्तक के मुकुट को लेकर अंगद राम के चरणों में आ गिरे, राम ने उस मुकुट को विभीषण के मस्तक पर लगा दिया । तददुपरान्त सेना को लेकर चारों दिशाओं से लंका पर चढ़ाई की गईं। राबण ने भी लंका के रक्षण की तैयारी की। द्वार द्वार पर युद्ध होने लगा। वन्दर और सालु कोट के कंगूरों पर चढ़ गये | मेघनाद् जब परकोटे से बाहर निकला ,तब उसने माया से सर्वन्न अन्धकार फैला दिया | राम और लक्ष्मण को नागपाश में बाँध लिया | गरुड़ ने आकर उनको नागपाश से सुक्त किया। धूम्राक्ष राक्षस को हनुमान ने मार डाला और अकंपनादि राक्षसों को अंगद ने मार डाला। जब अकम्पन ओर धम्राक्ष मर गये तब रावण ने महोद्वर से सनन््त्रणा ली । उसने राजनीति का डपदेश दिया। राजा और मन्त्री के क्या कर्त्तव्य हैं, उनका विवेचन किया। रावण की ओर से जो राक्षस वीर लड़ने के लिये आये; उनका परिचय विभीषण ने रास को दिया | जब रावण ने युद्ध स्थल में विभीषण को देखा तब उसमे शक्ति का प्रहार रामचन्द्रिका की कथावस्तु श्र किया । उसे हज्ुमान ने पूँछ में पकड़कर रोक लिया। जब रावश ने ब्रह्मशक्ति चलाई तो उसे लक्ष्मण ने अपने ऊपर मेल लिया। शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण मूछित हो गये। रावण लक्ष्मण को उठाकर ले जाने लगा तव हनुमान ने उसके मुष्टिका मारी, जिस से रावण कुछ देर के लिये मूछित हो गया। रामचन्द्र ने जब लक्ष्मण को मूर्छिताचस्था में देखा तव उनको अत्यन्त दुःख हुआ, ओर वे विलाप करने लगे । विभीषण ने यह कहा कि यदि सूर्या- दय से पूर्वे संजीवनी बूटी आ जाय तो लक्ष्मण के प्राण चच सकते ह.। तब हसुमान शीघ्रता से गये और द्रोणगिरि को ही उठा लाये। जब संजीवनी ओऔपधि का प्रयोग किया गया, तव लक्ष्मण की मूछा जागी और उठकर उन्होंने यह कद्दा कि लंकेश न जीवित जाइ घर भाई लक्ष्मण को रास ने छाती से लगा लिया और राम की सेना में खुशियाँ छा गई। अठारहवाँ प्रकाश दोहा ;--अ्रष्टादर्श प्रकाश में केशवदास कराल। कुम्मकर्य को वर्णिवों मेघनाद को काल ॥| रावण ने जब यह सुना कि लक्ष्मण मूरछा से जाग गये हैं तब उसे अत्यन्त निराशा हुईं; और उसने सन्त्रियों को यह आदेश दिया कि अच्र तुरन्त ही कुंभकर्ण को जगा दिया जाय | विविध उपचार के उपरान्त कुंभकर्ण की निद्रा भंग हुईं। रावण ने युद्ध का सस्पूर्ण समाचार कुंभकर्ण को सुनाया। कुंभकरण्ण ने उत्तर में यह कहा कि रामचन्द्र को केवल मनुष्य न समझो । वे साक्षात् विष्णु भगवान हैं और वानर यशरवी देवता हैं। रावण ने क्रोधित होकर कहा कि हे कुंभकर्ण तुम भी मेरे शत्रु राम से उसी अकार जा मिलो, जिस प्रकार विभीपषण जा मिला है| मन्दोदरी ने राचण को यह सममाया कि युद्ध के समय भाइयों से कगड़ना २६ रामचन्द्रिका अच्छा नहीं है. । मन्दोदरी ने यह भी कहा कि राम सर्वशक्तिमान ब्रह्म हैं। तुम उनसे सन्धि कर लो। रावण ने कहा कि बालि के छोटे अपराध को भी जिस राम ने नहीं क्षमा किया वे मेरे घोर अपराधों को क्योंकर क्षमा करेंगे, इसीलिये अब तो युद्ध होना चाहिये। कुंभकर्ण फिर युद्ध के लिये चल्ला गय्या | जब वह युद्धस्थल में आया तब चारों ओर हाहाकार मच गया। अन्त में राम ने वाण-प्रहार से कुंमकर्ण का बध कर द्या । हु इसके बाद इन्द्रजीत निर्कुंभिला में यज्ञ साधन करने के लिये गया। विभीषण ने राम से यह प्रार्थना की कि यदि मेघनाद ने यज्ञ को पूर्ण कर लिया तो हमारी पराजय निश्चित है; अतः यज्ञ पूणं होने के पूरे ही मेधनाद को मारना आवश्यक है। लक्ष्मण को यह काये सौंपा गया। बाण-प्रहार से लक्ष्मण ने मेघ- नाद् का सिर काट डाला | वह सिर राबण की अँजुलि में जा गिरा। उन्नीसवाँ प्रकाश दीह्ा:---उनईसवे' प्रकाश में, रावण दुःख निदान । जुकेगो मकराक्ष पुनि, हेहे दूत विधान ॥ रावण जैंहे गूढ़ थल, रावर लुटै विशाल | मन्दोदरी कढ़ोरिबो, अरु रावण को काल ॥ मेघनाद के मस्तक को अपनी अंजुलि में देखकर रावण को अत्यन्त दुःख हुआ। समस्त राज परिवार में शोक छा गया। महोदर ने यह आर्थना की कि शोक का परित्याग करके शत्रु को धराशाथी करने का काय किया जावे । मन्दोदरी ने कहा कि लंका के कठिन गढ़ को कोई नहीं जीत सकता इसलिये सीता को लौटा दो तब शत्रु को सार सकोगे। तब मकराक्ष युद्ध के लिये जाता है, जो मारा जाता है। मकराक्ष के मारे जाने पर रावण ने राम- रामचन्द्रिका की कथावस्तु श्७छा चन्द्र जी के पास दूत भेजा | दूत के लौट आने पर मन्दोदरी ने यह कहा कि यदि तुम लड़ने की शक्ति नहीं रखते तो में युद्धस्थल को जाती हूँ। राबण युद्धस्थल को जाने के पूर्व यज्ञ करता है । बानरों ने उस यज्ञ का विध्वस किया। राम ने युद्ध में रावण को मार गिराया। रास ने विभीषण को रावण के शव की अन््त्येप्टि क्रिया करने का आदेश दिया । बीसवाँ प्रकाश दोंद्ा:--था चीसवे' प्रकाश में, सीता मिलन विशेषि | ब्रह्मादिक अस्तुति गमन,अवधपुरी को लेपि ॥ प्राग वरणि अर वाठिका, भरद्वाज को जानि। ऋषि रघुनाथ मिलाप कट्दि, पूजा करि सुख मानि ॥ ' रामचन्द्र जी ने हनुमान को लंका इसलिये भेजा कि वे सीता जी को वश्लाभूषण से अलंकृत करके ले आवें। सीता ने अपनी आत्म-शुद्धि की परीक्षा के हेतु अग्नि में प्रवेश किया। तब इन्द्र, वरुण, यमराज, सिद्धगण, छुवेर, त्रह्मा रुद्र राजा दशरथ को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। अभ्निदेव ने यह कहा कि सीता पत्रित्र हँ,, राम तुम इसे स्वीकार करो | तब राम ने सीता को अंक से लगाया । त्रह्मादि देवता जब स्तुति करके लौट गये तब रामचन्द्र जी पुष्फक विमान पर ससेन्य चढ़कर अयोध्या लौदे । पंचचटी होते हुए राम जब अयाग पहुँचे तव भरह्ाज ऋषि ने उनकी अचेंना की | इक्कीसवाँ प्रकाश दोहा ;--इकईसएं प्रकाश में, कई ऋषि दानविधान | भरत मिलन कपि गुणन को, भ्रमुख आप बखान | प्श्प | रामचन्द्रिका रामचन्द्र जी ने भरद्माज मुनि से यह प्रश्न किया कि दान किस वस्तु का दिया जाय और उसका पात्र कौन है? तब भरद्वाज सुनि ने विस्तार पूर्वक दान-घर्म का उपदेश दिया । राम- चन्द्रजी ने हनुमान से यह कहा कि तुम भरत के पास जाओ | हम आ्याज ऋषि के यहाँ ही भोजन करेंगे। हनुमान जी ने भरत को शोकावस्था में और मुनि-वेश में चरण पादहुकाओं की स्तुति करते हुए देखा । हनुमान जी ले श्रीराम फा समाचार भरत को सुनाया। भरत अत्यन्त प्रसन्न हुए। श्रीराम के स्वागत के हेतु अयोध्यापुरवासी सज्जित होकर खड़े हैं। श्रीराम ने अपने भाइयों से भेंट की। श्रीराम ने फिर समस्त वानरों का परिचय कराया | फिर श्रीराम भरत से मिलने के लिये नन््दीआम गये । भरत ने उनके चरणों का स्वयं अपने हाथ से प्रत्ञालत किया | फिर भरत ले श्रीराम को उनकी पाहुका लौटा दी । बाइसवाँ प्रकाश दोहाः-- या बाइसें प्रकाश में, अवध पुरीहिं प्रवेश पुरवासिन मातान सों, मिलिबों राम नरेश ॥ जब पुरवासियों ने राम-आगसन के सुखद समाचार को झुन्ा तो वे दौड़े हुए आये। श्रीराम की पूजा प्रति द्वार पर हुई। श्रीसस अपनी साताओं से मिले। फिर समस्त बानरों और विभीपण आदि को निवास देले का प्रबन्ध भरत ओर शत्रुन्न ने किया । तेइसवाँ प्रकाश दोहा:--या तेइसें प्रकाश में, ऋषि जन आगम लेखि | राज्य-भी निन्दा कही, श्रीमुख राम विशेषि ॥ एक समय रामचन्द्र जी बैठे हुए थे। उस समय ऋषिगरणों का रामचन्द्रिका की कथावस्तु २६ आगमन हुआ | ऋषियों ने राम को उदासीन देखकर उनके शोक का कारण पूछा ; तब श्रीराम ने राज्य श्री की निन््दा की | चौबीसवाँ प्रकाश रा $०५ ह-. 2 दोहा:--चौबीसवें प्रकाश में, राम विरक्ति बखानि। विश्वामित्र वशिष्ठ सों, बोध कर॒यौ शुभ आनि ॥ श्रीराम ने कहा कि राज्य-श्री तो ढुःखदायिनी है ही, इस संसार में भी सुख नहीं हे। बचपन, योवन एवं वृद्धावस्था में में अनेकों कलेशों को सहना पड़ता है | श्रीराम ने विरक्ति मूलक ज्ञान का उपदेश दिया। श्रीराम के वचन सुनकर समस्त सभा ने साधुवाद दिया | पच्चीसवाँ प्रकाश १दोहा:--कथा पचास प्रकाश में, ऋषि वशिष्ठ सुख पाइ | जीव उधारन रीति सब्र, रामहि कह्लौँ सुनाई ॥ वशिष्ठ ने श्रीराम की स्तुति की। राम नाम के माहात्म्य का वर्णन किया और न्नह्म की अचिन्त्यनीय सत्ता का निरूपण- किया है । छुब्बीसवाँ प्रकाश दोहा:--कथा छुत्नीस प्रकाश में, कह्यौ वशिध्ठ विवेक | राम नाम को तत्व अरु, रघुवर को श्रमिषेक्र ॥ श्रीराम की स्वीकृति आप्त करके वशिष्ठ ने भरत से ' अभिषेक की सामग्री संकलित करने के लिये कहा । उसी समय शत्नुन्न ने राम नाम का माहात्म्य प्रदर्शित करने के लिये वशिष्ठ जी से प्राथेना की। रामचन्द्र के तिलकोत्सच के लिये विधानोक्त सामग्रियाँ दूरस्थ प्रदेशों से मेंगाई गई। श्रीराम सीता सहित एक सुन्दर सिंहासन पर बेठे । ब्रह्माजी ने प्राप्त मुहूर्त-चटिका में रवयं अपने : हे ३० रामचन्द्रिका 'हाथ से राम जी का अभिषेक किया । इस अवसर पर श्रीराम से अपने प्रियजनों को उपहार स्वरूप भिन्न-भिन्न वस्तुएँ अदान की। सत्ताइसवाँ प्रकाश दोहा:--सताइसें प्रकाश में, रामचन्द्र सुखसार । ब्रह्मदिक अस्तुति विविध, निजमति के अनुहार ॥ ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, पितर, अग्नि, वायु, देवगण, ऋषिगण आदि ने श्रीरास की स्तुति किया । अद्बवाइसवाँ प्रकाश * दोहदा:--अट्ठाइसे' प्रकाश में, वंणंन बहुविधि जानि। श्री रघुच्रर के राज को, सुर नर को सुख दानि ॥ श्रीरामचन्द्र के राज्य में सर्वत्र आनन्द और उल्लास ही 'दिखलाई देता है। प्रजा सुख और वैभव से सम्पन्न है। नदियों ' ध्यादि सब जल से आपूरित हैं। न किसी को वियोग है और न रोग। रामचन्द्र का राज्य ११००० वर्ष तक रहा और उस समय स्वर्ग और नरक के रास्ते बन्द थे--किसी की मूत्यु नहीं होती थो । उन्तीसवां प्रकाश दोद्दा:---उन्तीसवें प्रकाश में, वरणि कहौँ चौगान । अवध दीप्ति शुक की विनित, राज लोक गरुणगान ॥ रामचन्द्र जी चोगान का खेल खेल रहे हैं । जब राम सेना चोगान से! लौटकर गलियों में से निकलती है| उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि सानो समुद्र के सेतु से टक्राकर उत्साहपूर्वक नदियों के प्रवाह उल्नटे बह चले हैं । उसी समय सन्ध्या हो गई ओर नगर में दीपक जलने लगे। उस समय अयोध्या नक्षत्रों रामचान्द्रका को कथावर्तु 8३१ की नगरी सी अतीत होती थी। भिन्न-भिन्न प्रकार की अग्नि क्रीड़ाओं से आकाश संडल्त व्याप्त हो रहा था। रामचन्द्र जी के शयनागार राजमभहल का अत्यन्त ओजस्वी रूप कवि ने वन किया है । तीसवाँ प्रकाश दोहा :--या ततीसएँ प्रकाश में, बरन्यो वहुविधि जानि | रंग महल संगीत श्रद, रामशयद खुख दानि ॥ पुनि शारिका जगाइयो, भोजन बहुत प्रकार | अरु वरुन्त रघुवंशमणि, वर्णन चन्द्र उदार ॥ रामचन्द्र के रद्ठ महल की शोभा का वर्णन शेषनाग भी नहीं कर सकते । जब रामचन्द्र उस रंगमहल में आये तब अनेक पोडशवर्पीया नवयुवतियाँ सब्जित होकर आईं वे नृत्य और गान करने लगीं। उनका संगीत अत्यन्त श्रुतिसधुर था और वे सिन्न-सिन्न राग रुगनियों को गाने में अत्यन्त निपुण थीं। रामचन्द्रजी अत्यन्त सुन्दर शैय्या पर शयन करते हैं और आतः/्काल होते ही भाट और चारण स्तुति गान करते हैं। इसके आगे रामचन्द्र जी की प्रातः से लेकर सायकाल तक की दि्न- चर्या का वर्णन है। इकतीसबोँ प्रकाश दोहा :--इकतीसयें प्रकाश में, रघुत्र बाग पयान । शुक मुख सियदारसीन को, वर्णन विविध विधान ॥ प्रात:काल होते ही सव॒ रनिवास वाटिका में गया । रामचन्द्र चओड़े पर बेठ कर गये । बाग में पहुँचकर श्रीराम जी स्त्रियों के साथ वाटिका विहार करने लगे। यहाँस्लियों के नख-शिख का व्यापक चित्रण किया गया है । १२ रामचन्द्रिका वत्तीसबाँ प्रकाश दोहा ;--बत्तीखवे' प्रकाश में, उपदन वर्णन जानि | अरु बहु विधि जल केलि को, करेहु राम मुखदानि ॥ जब स्त्रियों ने रामचन्द्र को देखा तब सीता ने राम से यह कहा कि हमें वह बाग दिखलाइए, जो आपने अभी लगवाया है। उस वाग में मोर श्रसन्न होकर बोलते हैँ । कोयल के समूह सुन्दर शब्द करते हूँ । मिन्न भिन्न बृक्ष और लताएँ फल और फूल से सज्जित हो रही हूँ । उस बाग में कृत्रिम पर्बत और नदी है | उसके मध्य में एक सुन्दर सरोवर है जिसमें सुन्दर कमल प्रस्कुटित हो रहे हैं। उसमें श्रीराम ने अनेक भाँति से जल-क्रीड़ा की, तव उससे तृप्त होकर स्रियों सहित वे जलाशय से बाहर निकल्ले। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करके राम सब समाज सहित रनिवास को वापिस लौटे | ड़ तेंतीसवां प्रकाश दोहा :--तेंतीकर्यें प्रकाश में, ब्रह्मा विनय अल्लानि । शम्बुक वध सिय त्याग अर, कुश-लवब जन्म सों जानि ॥ जब राम्चन्द्र सुम्नीव, विभीपण आदि मित्रों तथा भाइयों ओर ब्राह्मणों सहित राजसिहासन पर बैठे थे उस' समय मुनि ओर देवताओं को साथ लिए हुए ब्रह्माजी आये । श्रीराम ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया। ब्ह्याजी ने तब यह कहा कि आप सब लोगों को मोक्ष दे रहे हैँ अतः सृष्टि रचना में बाधा हो रही है। तब रामचन्द्र जी ने हँसकर कहा कि मेरी इच्छा ही प्रधान है; वह कभी अन्यथा नहीं हो सकती । उन्होंने त्रह्मा जी से कह्दा कि तुम्हारे पुत्र सनक सनन्दनादि मेरे भक्त हैं। जब श्रीराम ब्रह्मा जी से वातालाप कर रहे थे इसी समय एक ज्ाह्मण अपने मरे हुए बेटे को लेकर विल्ञाप करता हुआ आया। : रामचन्द्रिका की कथावस्तु ३३ तव यमराज--जो ब्रह्मा जी के साथ आये थे--ने पिता के जीवन काल में उस पुत्र को मृत्यु का यह कारण वतलाया कि शूद्र की तपस्या से राज्य में बालकों की मृत्यु होती है। अधिकतर ब्राह्मणों के ही पुत्र मरते 6/ै। अतः आपके राज्य में कोई शूद्र तपस्या करता हे। राम ले देव और मुनियों को तो विदा किया और स्वयं पुष्पक विसान पर बेठकर शूद्र की खोज में चले | जब राम शुद्र के वध के बिये चले गये, तब त्रह्माजी सीता के पास पहुँचे और यह प्राथेना की कि आप ऐसा कार्य कीजिये. जिससे राम वेंकंठ चलें। सीता की मौन-स्वीकृति पाकर ब्रह्मा तो त्रक्मलीक को गये और श्रीराम ने उधर शुद्ध का शिरच्छेद्न किया | एक समय राम ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सीता से एक बर माँगने को कहा। सीता ने कहा कवि य द आप मुझे वर ही देना चाहते हैँ तो मुके अनुमति दीजिये कि में गंगा तट निवासी सब मुनियों को वंख्र दान कर आऊँ। तब रामचन्द्र ने कहा कि कल प्रातःकाल ही तुम ऋषियों को वस्त्रदान करने के लिये चली जाना | जब श्रीराम भोजन करके सोने लगे तव अध-रात्रि के समय गुप्तचर ने आकर प्रणाम किया। उसने वह सब वारता राम को सुनाई जिसे एक व्यक्ति कह रहा था। जब्र तोनों भाई प्रातः काल वन्दना करने आये तब राम न तो हँसे और न बोले | जब सबने इस अप्रसन्नता का कारण ज्ञानना चाहा तो श्रीराम ने गुप्त- चर के द्वारा कही हुई वात सुता दी। श्रोराम की बात सुनकर भरत को बड़ा क्ञोभ हुआ | जब भरत और शर्रन्न वहाँ से चले गये तब राम ने लक्ष्मण को सीता को जंगल में छोड़ आने का आदेश ३ ञ्छ रामचन्द्रिका ८ दिया | अब लक्ष्मण.सीता को लेकर बन में चले गये । जब सीता ओर लक्ष्मण गंगापार हो गये, तो उन्हें एक भयंकर जंगल दिखाई पड़ा जहाँ न कोई मनुष्य ही था और न पशु ही | वहाँ ऋरएपियों के निवास के कोई चिह्न न थे। सीता ने पूछा कि यहाँ तो मुनिल्ाश्रम नहीं है | तब लक्ष्मण रोने लगे। लक्ष्मण को गेते देख सीता मूछित हो गई | उस दशा में लक्ष्मण सीता को अकेली छोड़कर चल्के गये । उस समय वाल्मीकि मुनि ने आकर संजीवन मंत्र पढ़कर सीता पर जल छिड़का, सचेत होने पर सीता ने उनका परिचय पूछा। तब मुनिने अपना परिचय,दिया और सीता को अपने आश्रम में ले गये । वहाँ सीता के दो पुत्र हुए--एक का नाम था लव, दूसरे का नाम था कुश। वाल्मीकि मुनि ने पहिले तो उन्हें अध्ययन कराया, पुनः धलुर्वेद विशेष रीति से पढ़ाया। सब अस्ब ओर शस्त्र दिये और उन्हें चलाने के सब मन्त्र भी सिखाये | चौतीसवाँ प्रकाश दोहा :---अ्रायो स्वान फिराद कों, चौंतीसवे' प्रकाश | अस सनाब्य द्विज आगमन, लवणाघुर को नाश ॥ एक दिल श्रीराम राजसभा में बेठे थे | वहाँ कितने ही राजा, ऋषि, सन््त्री और मित्र भी थे | उस समय एक कुत्ते ने द्वार पर आकर दुन्दुभी बजाई। लक्ष्मण ने तुरन्त बाहर आकर उससे कारण पूछा | कुत्ते ने कहा कि राम के राज्य में मुझे अत्यन्त टुःख हुआ है अतः सें रास से निवेदन करने आया हूँ। तब लक्ष्मण ने कहा कि हे श्वान तुम राजसभा में चलकर अपने दुःख को प्रकट करो । राज सभा में ज्ञाकर कुत्ते ने यह कहा कि एक ब्राह्मण ने बिना अपराध ही मुझे सारा है। तब कुछ व्यक्ति उस ब्राह्मण को लेने के लिये भेजे गष। राम ने उस ब्राह्मण से अश्न किया कि इस कुत्ते को बिना कारण क्यों मारा है ? आ्राह्मण रामचन्द्रिका की कथादवस्तु ३ ने उत्तर दिया कि यह कुत्ता सार्ग में सो रहा थ।। से भोजन के लिये शीघ्रता से जा रहा था इसलिए इसके चोट पहुँच गई । तब राम ने अन्य ब्राह्म॒रों से यह पछा कि इस आह्यण को कौन सा दण्ड देना चाहिये। ब्राह्मणों ने यह कहा कि इस ब्राह्मण को यह शिक्षा देकर छोड़ दीजिए कि भविष्य में वह बिना दोष किसी पर पाद-प्रहारा न करे। तब श्रीराम ने कुत्ते से ही दण्ड बत- साने के लिये कहा। छकुत्ते ने कहा कि हे राम ! यदि आप मेरा मत चाहते हँँ तो इस ब्राह्मण को मठपति बना दीजिये। राम ने उस त्राह्मण को महन्त चना दिया। समासदों ने कुत्ते से यह पूछा कि उस त्राहक्षण को महन्त बनवाले सें तुस्दारा क्या ड्ेतु है ? छुत्ते ने कहा कि कन््नोंज में एक मठघारी था, जो विष्ण मन्दिर का अधिकारी था! जिस दिन मन्दिर में कोड श्वनिक आता था उस दिन तो वह ठाकुर जी का सिंगार करता था और जिस दिन कोई धन चढ़ाने वाला न आता था उस दिन ठाकुर जो को पलँग पर से भी न उठाता था। इस प्रकार उसने बहुत द्रव्य एकन्रित कर लिया और नित्य भोग-विल्षास में लीन रहता था। एक दिन उसके यहाँ एक अतिथि आया। उसके लिये अच्छे अच्छे सुस्वादु भोजन बनाये गये | उसे परोसने के लिये मेरे पिता को चुलाया गया । उसको खाना परोसतने में कुछ त्री मेरे पता के चाखून में लग गया। उसे भोजन कराकर जब पिता घर आये तब में रो रहा था। साता ने दूध भात खाने की दिया । पिता ने अंशुज्ञी उस दूध सें डाली तो वह थी पिघज्ञ गया। इस ग्रकार वह थी मेरे पेट में चल्ला गया। उसके दोप से मैंने अनेकों नरकों के कष्ट सह्दे हैं। अनेकों योनियों में अमता हुआ अब अयोध्या में झुचे का जन्म लिया है। जब सठधारी का द्रव्य खाने से सेरीयह दशा हुई है तो जो स्वयं “सठधघारी होते हैं उनकी क्या दशा होती होगी, इसका अनुभान 9६ रामचन्द्रिका हे किया जा सकता है| उस ब्राह्मण का दोप तो थोड़ा ही था पर में ने उसे घोर दण्ड दिलवाया है | कुत्ते ने एक और कथा सुनाई। बनारस में एक बढ़ा बली राजा था । उसका नाम सत्यक्रेतु था। उसने धमम-द्रव्य के' बॉटने का अधिकारी एक ब्राह्मण को बना दिया। वह उस धर्मा्थ निकाले गये द्रव्य में से धन चुराया करता था और उसे विज्ञास में खर्च करता था। इस प्रकार उस धर्माथ द्रव्य का दृशांश ही अन्य ब्राह्मण पाते और बाकी सब घन वह त्राह्यण खा जाता था। एक दिन जब वह राज़ा युद्ध में मारा ग़या तब यमराज के दूत यमराज के पास ले गये। उन्होंने उससे यह प्रश्न क्रिया कि जो आपने पाप और पुण्य किये हैं. उनमें सेः आप किसका फज्ञ पहिले भोगना चाहते हैं। राजा ने कहा कि मुझे तो यह मालूम भी नहीं है कि ह कोई पाप भी किया है घर्मराज ने कहा कि धर्माधिकारी जो द्रव्य का अपहरण किया उसका पाप तुम्हारे ऊपर है। उस सत्यकेतु राजा को केवल संसर्ग से दोष लगा था। उसने स्वयं कोई पाप नहीं किया था। फिर भी उसे नरक का कष्ट भोगना पड़ा । जब उसके पाप ज्ञोण हो चुके तो अब उसने अयोध्या में एक डोम के यहाँ जन्म लिया है। इतने में हो द्वारपाल ने सूचना दी कि मथुरा निवासी कई ब्राह्मण खड़े हैं। क्या आज्ञा है? श्रीराम ने बड़े आदर से सभा में बुलाया। श्रीराम ने कहा कि आवके आगमन से हमारे सच स्थान शुद्ध हो गये । आपका चरणोदक पाकर हमारा राज) महज्ञ पवित्र हो गया। तब श्रीराम ने उनके आगमन का कारण पूछा। जाह्मणों ने कहा कि आप लवणासुर का वध कीजिए । श्रीराम ने उनकी रक्ा का बचन दिया। शरत्रन्न को श्रीराम ने यह आदेश दिया कि वह लवणासुर का बध करें। रामचन्द्रिका की कथावस्तु ३७ श्रीराम की आज्ञा पाकर शर्त्रुन्न लवणासुर को मारने के लिये चले। यमुना के किनारे शत्रुत्न और लवणासुर में युद्ध है| हुआ |. जैसे दी लवशासुर ने-महादेव का त्रिशूल हाथ में लिया शत्रुन्न ने उसका मस्तक काट डाला। वह सिर महादेव के हाथों में जाकर गिरा। शत्रुन्न की इस वि.य पर देवताओं ने पुष्प ब्रष्टि की और दुन्दुमी वजाई | पेंतीसवाँ प्रकाश दोहा :--पँतीसवें प्रकाश में, अश्वमेध किय राम | इन लव ॒ शन्रुन्न कृत, हेंहटे संगरबाम ॥ एक समय रामचन्द्र ने वशिछठ जी से अश्वमेध यज्ञ करने की अन्त्रणा की। वशिष्ठ जी ने यह परामश्श दिया कि बिना पत्नी के अन्न नहीं किया जा सकता अतः सीता की एक स्व प्रतिमा बना क्षी जावे । अस्तचल से एक श्वेतवर्ण का सुन्दर घोड़ा छाँट लिया गया । उस घोड़े को रोली और अजक्षतों से पूजा गया और उस के मस्तक पर पढ्टी बाँधी गईं। उसेकी रक्षा के लिये चतुरंगिणी सेना शत्रुन्न के नेढ॒त्व में भेजी गई। जिस ओर वह घोड़ा जाता था, उसी दिशा में वह सेना जाती थी। विभिन्न अदेशों में विचरण करता हुआ वह घोड़ा वाल्मीकि म्रुनि के आश्रम में पहुँचा। लव ने जब उसके मस्तक की पढ़िका पर लिखे शोक को पढ़ा तो वह अत्यन्त क्रेधित हुआ ओर उसने उस घोड़े को बाँध लिया । उसी समय सेना ने आकर उन ऋषि >डुमारों को घेर लिया लेकिन लव ने उन सरवों को सार कर भगा दिया। सेना को भागते हुए देखकर शह्रुन्न आये। लव ने बड़े कौशल के साथ शत्रुन्न से युद्ध किया। शत्रुन्न ने तव उस बाण का भ्रयोग किया जो श्रीराम ने लव॒णासुर को मारने के लिये उन्हें. दिया। उस ब्राणु के प्रहार से लव मूछित हो गया। शमुन्न घ्र्ध्क रामचन्द्रिका मूर्छित लव और घोड़े को लेकर चले। ऋषि छुमारों ने इस घटना की सूचना सीता को दी। सीता को महाच् कष्ट हुआ | अब कुंश ने माता के चरणों की शपथ खाकर प्रतिज्ञा की कि वह. लव को छुड़ाकर लावेगा। कुश की ललकार सुनकर शरत्रन्न लौटे। कुश के बाण-प्रहार से शज्रुन्न सूछित हो गये। शबत्रुन्न के मूछित हो जाने पर सब सेना युद्ध स्थल छोड़कर भाग गई । कुश ओर लव प्रेमपू्वेक मिले और घोड़े को एक पेड़ की जड़ से बाँध दिया । छत्तीसवां प्रकाश दोहा :--छत्तीसवे प्रकाश में, लक्ष्मण मोहन जान । आयसु लहि श्रोराम को, आगम भरत बखान ॥ युद्ध से भागे हुए सैनिक अयोध्या आये, उस समय श्रीराम यज्ञ मंडप में थे। उन्होंने युद्ध का सब ब्ृतान्त रामचन्द्र जी को खुनाया। सैनिकों के द्वारा कहे गये समाचार को सुनकर श्राराम बड़े छुब्ध हुए। लक्ष्मण का बुज्ञाकर घोड़े की खबर लेने का आदेश दिया । लक्ष्मण की अत्यन्त विशाल सेना को देखकर लव आर कुश ने भी अपने शस्त्रास्त्र सँसाल लिये । लक्ष्मण की सेना के बहुत से सैनिकों को उन मुनि बालकों ने सार गिराया। लक्ष्मण भी युद्ध करने लगे लेकिन यज्ञोपवीतधारी अल्पायु मुनि कुमारों को देखकए उनकी क्रोध की भावना तीजत्र नहीं हो सका। छुश ने एक अत्यन्त प्रखर बाण छोड़ा, जिसकी चोट से. व्याकुल होकर लक्ष्मण रथ पर जा गिरे । | लक्ष्मण को आने में देर देखकर श्रीराम भरत से युद्धस्थल्र में जाने के लिये कहते हैँ । उसी समय युद्ध से भागें हुए सैनिक आ गये और यह कहा कि उन ऋषि छुमारों ने लक्ष्मण का प्राशान्त कर दिया। भरत नें सीता परित्याग से उत्पन्न हुए क्षोम को प्रकट रामचन्द्रिका की कथावस्तु ३६ किया और कहा कि ये मुनिकुमार हमारे पापों के ही फल हैं। में भी उस युद्धस्थल पर जाकर प्राणोत्सर्ग कर दूँगा। तब अंगद, विभीपण और जामबन्त आदि” को लेकर मरत युद्धस्थल की ओर गये । सेंतीसवाँ प्रकाश दोहा ;--सेंतीसवे' प्रकाश में लव कटु बैन चखान | मोहन बहुरि भरत्थ को लागे मोहन बान ॥ उस भयंकर युद्ध स्थल्ष को भरत, जामवन्त और हलुसान ने देखा। उसी समय सुन्दर दो ऋषिकृुमार आ गये। भरत ने उनसे अलनुनय किया कि ऋषियों को तो यज्ञ कराना चाहिये उसमें विध्ल-बाधा न पहुँचाना चाहिये। कुश ने अत्यन्त क्रोधित दोकर उत्तर दिया तब सुग्रीव को बड़ा क्रोध हुआ। लव ने विना नोक के वाण का प्रह्मर किया, जिससे सुग्रीव आकाश में उड़ गये । जब विभीपण लड़ने के लिये आये तब लव ने उनसे कितने ही व्यंग वाक्य कहे । भरत से भी घनघोर युद्ध हुआ । मोहन बाण लगने से भरत सूर्छित होकर गिर पड़े । अड्तीसवों प्रकाश दोदा :--अड़तीसएँ प्रकाश में, अंगद युद्ध बखान। ज्याज सैन रघुनाथ के, कुश लव आश्रम जान | जब भरत को लौटने में विल्षम्व हुआ तो श्रीराम स्वयं युद्ध स्थल्ञ -को गये। राम को आता हुआ देखकर मुनिकुमार पुनः लड़ने के लिये आ गये। अपने रूप की अनुहार देखकर राम ने उन बालकों का परिचय पूछा। बालकों ने जब परिचय देने में असमर्थता प्रकट की तो रास ने यह कहा कि में उस समय तक युद्ध नहीं करूँगा जब तक तुम अपने माता पिता का नाम -न बतला दोगे। बालकों ने कहा कि मिथिलेश की पुत्री सीता ० रामचन्द्रिका के हम पुत्र हैं और महर्पि वाल्मीकि ने हमें शिक्षा प्रदान की है। हम अपने पिता का नाम नहीं जानते। राम ने यह समम लिया कि ये मेरे बालक हैं अतः उन्होंने शस्त्रास्त्र फेंक दिये और अंगद को लड़ने का आदेश दिया। अंगद को लव नें .कितनी ही कटक्तियाँ सुनाई । बाणों के प्रहार से अंगद का सच शरीर विद्ध हो गया। लव ने एक बाण मारकर अंगद को ऊपर उछाल दिया और बह एक गोले के समान आकाश में लुढ़कने लगें। लव ने बार बार वाण के प्रहार से अंगद को आकाशचारी बना दिया | अब संत्रर्त होकर अंगद ने दीन स्वर से लव की विनय किया तव दयाद्रे होकर उन्होंने अंगद को छोड़ दिया । जब सब सेना नष्ट हो गई तब राम रथ पर जाकर लेट गये । लव ओर छुश ने रणभूमि में से अच्छे अच्छे मणि, आभूषण और मुकुट वीन लिये और घोड़े सहित हनुमान और जामवन्त को पकड़कर वे सीता के पास पहुँचे तब सीता ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें गोद में बैठा लिया । उन्तालीसवाँ प्रकाश द्वेहा :---नवतीसवें प्रकाश सिय, राम संयोग निहारि। यक्षु पूरि सब सुतन के, दीन्हों राज्य विचारि || जब सीता ने देवरों के आभूषणों को पहिचाना और हनुमान के शरीर को देखा तब रोकर कहने लगीं कि तुमने तो मुककी ही विधवा कर दिया | तुसने अपने पिता और पिता के भ्राताओं को युद्ध में मार डाला है। यह कहकर सीता अपने पुत्रों पर क्रोधित हुईं। तब कुश ने कहा कि इससें मेरा दोष नहीं है तुमने हमें यह कब बतलाया था कि हमारे पिता का नास राम है। मुझे देखकर राम तो रथ पर सो रहे हैं। हसने उनको नहीं मारा है| माँ! तुम धेयं धारण करो। इसी ससय महर्षि वाल्मीकि आ गये उन्होंने सीता को सानत्वना दी। फिर वे सब रामचन्द्रिका की कथावस्तु ४१ बुद्धस्थल में गये। बालकों के पराक्रम देखकर सबको बड़ा »आश्चर्य हुआ। तब सीता ने उन सब मतकों को जीवित कर 'दिया। सीता को पुत्रों सहित वाल्मीकि ने राम के चरणों पर डाला । राम को जैसे ही अपने पुत्रों और पत्नी सीता का सिलन हुआ देवताओं ले पुष्प वर्षा की; अब सीता, कुश, लव ओर अश्व- सेघ के घोड़े को साथ लेकर श्रीराम अयोध्या चापिस आये। भाई लक्ष्मण और शत्रुन्न अयोध्याचासियों की भीड़ को हृटाते चले । श्रीराम यज्नस्थल में पहुँचे। सीता ने अपने दोनों पुत्रों सहित कौशल्यादि सासों के चरणें का स्पर्श किया। माताओं को अत्यन्त आनन्द हुआ । यज्ञ को समाप्त करके श्रीराम ने अनेक बस्तुओं का दान किया । श्रीराम ने अपने और अपने भाइयों के बेटा को थक प्रथक् प्रदेशों का राजा चलाया। श्रीरास ने उनको राजनीति का उपदेश दिया ओर यह भी शिक्षा दी कि राज्य का रक्षण किस अ्रकार करना चाहिये। इस प्रकार मन्त्रणा देकर श्रीराम ने उस सवेर को विदा किया ओर स्वयं श्राताओं सहित अयोध्या का राज्य करने लगे । अन्त में कवि ने रामचरित्र-माहात्स्य और '“रामचन्द्रिका! के पाठ का साहात्म्य वर्णन करके पुस्तक को समाप्त क्रिया है। ३ है महाकाव्य और केशव का दृष्टिकोण कविता के क्षेत्र में हिन्दी साहित्य में संस्क्रत के लक्षण ग्रन्थों का हो अधिकतर अनुसरण किया जाता रहा है, माध्यमिककाल में तो काव्यकारों को इन लक्षण ग्रन्थों में दिये गये नियमों का पालन करना अनिवाय ही था, साहित्य दपेणकार पंडिंत विश्वनाथ ने महाकाव्यों के सम्बन्ध में लिखा है “महाकाव्य की कथा सर्गों में विभक्त होना चाहिये और उसका नायक देवता या उच्च कुल का जत्नी, जो धीरोदात्तादिगुणों से युक्त हो, होना चाहिये उसमें शंगार, वीर तथा शान्त रस की ग्रधानता हो, प्रारम्भ में संगलाचरण या वस्तु-निर्देश हो, दुष्टों की निन्दा और सज्जनों का गुण वर्णन हो, प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग हो केवल सर्मान्त सें अन्य बृत्त का प्रयोग किया जावे, सगे न तो छोटे हों ओर न बहुत बड़े, सन्ध्या, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, अदोष, प्रात:काल, मध्यान्हकाल, पबेत, जंगल तथा सागर का वर्णन हो। सर्गेबन्धो महाकाव्यं तज्रेको नायकः सुरः सद्वंशः क्षत्रियो वाप धीरोदात्तगुणान्वितः खंगारवोरशान्तानामेको अंगा रस इष्यते आंदो नमस्कियाशीर्षा वस्तुनिर्देश एबं वा क्वचिन्निन्दा खक्लादीनां सत्तों च गुण कीतेनम् एकवृतमये:. पद्यरवसाने अन्यतृके: नातिस्वल्पा नातिदीर्घा: सर्गा अष्टाधिका इह सन्ध्या सूर्येन्द्रु रजनी प्रदोष ध्वान्तवासरा: आतरसंध्याह. मुगयशैलतुंबन . खागराः महाकाव्य और केशव का दृष्टिकोण छ्र३् रामचंद्विका में उक्त नियमों का पूर्ण रूप से पालन हुआ है, मर्यादा पुरुषोत्तम राम में उच्च भावनाओं और छुलीनता का सुन्दर समन्वय हुआ है । इस अन्थ में ३६ प्रकाश ( सम ) ओर प्रकृति के संश्लि्ट चित्रों के साथ-साथ इसमें रूंगार, वीर और शान्त रसों का अच्छा परिपाक हुआ है । प्रन्न्ध करपना तथा चरित्र-चित्रण रामायण की प्रसिद्ध कथा तथा उनके पात्रों की जो चरिन्रगद विशेषताएँ हूँ उनमें परिवर्तेत किया जाना प्राय: असम्भव है । रामायण के सिन्न-भिन््न पात्रों ने अपने विशिष्ट चरित्र की अमिट छाप जनता के हृदय-पटल पर ऐसी अंकित कर दी है कि उसमें क्रिया गया कोई परिवर्तन न तो भाद्य हो सकता है ओर न आकर्षक ही। कतिपय काव्यकारों ने कविता की सुविधा की दृष्टि से घटनाओं के क्रम में या पात्रों के चरित्रों में कुछ परिवर्तंत किये हैं, किन्तु चिर-परम्परा से चल्ली आती हुई भावना को मोड़ने की शक्ति उन, परिवतेनों में नहीं है | फेशवदास में भी राम के चरित्र में कुछ परिवर्तन कथा भाग को संक्षिप्त करने के लक्ष्य से किये गये हैं। कदाचित् वस्तु-वर्णुन में केशवदास का चित्त नहीं रमा और वे कथा के इंतिवृत्तात्मक अंश को जझांब्वातिशीघ्र कहकर अचकाश पा जाना चाहते हं। इसीलिये जहाँ प्रसंगानुकूल कथा विस्तार का अवसर उपस्थित हुआ केशवदास ने उस कथा के प्रवाह ' को रोकने के लिये किस्ती अन्य पात्र को वहाँ उपस्थित कराकर उप्र कथा के प्रवाह को समाप्त किया है | (१) महादेव के घतुप भंग हो जाने पर जब परशुराम और रामचन्द्र में कयढ़ा बढ़ जाने की संभावना होती है तो उसके निराकरण के लिये केशव ने उस स्थल पर स्वयं महादेव को उपस्थित करा दिया है. आर इस प्रकार परशुरास का क्रोध शान्त हुआ '। ४७ रामचन्द्रिका “राम राम जब कोप करयो जू लोक-लोक भय भूरि भरयों जू वामदेव तब आपुन आये राम देव दोऊ सममाये (२) अयोध्याकाण्ड की अत्यन्त मर्मस्पर्शिनी घटनाओं में राम और भरत का चित्रकूट मिलन प्रमुख है । तुलसीदास जी ने इस अवसर पर धर्मनीति, लोकनीति, ओर राजनीति के मार्मिक चित्र उपस्थित किये हैं। वात्सल्य एवं ममता के अत्यन्त कारुणिक्र एवं हृदय द्रावक चित्र रामचरितमानस में इस स्थल पर अंकित किये गये हैं, किन्तु केशवदास जी ने गंगाजी द्वारा भरत को शिक्षा दिलाने का प्रसंग रखकर अति सूच्मता से सरत सिल्नाप की घटना को समाप्त किया है। उनका हृदय उस साधना में लीन न हुआ, जिसके फल्लस्वरूप वे जीवन के लोक-पक्ष के साथ गंभीर सहाज्ञुभूति प्रकट करते | धार्मिक संकट--जो राम और भरत दोनों के हृदयों में समान रूप से व्याप्त था--को वहन करने की केशव में न तो हचि थी और न शक्ति ही-। भागीरथी रूप अनूपकारी | चन्द्राननी लोचन कंजधघारी ॥ वाणी बखानी सुख तत्व सोध्यो | रामानुजे आनि प्रवोध बोध्यो ॥ उठो हठी होहु न, काज कीजै । कहे कछु राम सो मान लीजै ॥ यहि. कहि के भागीरथी | केशव भई. अद्ृष्ट ॥ भरत कल्शौ तब्र राम सां। देहु पादुका. इष्द ॥ ३. जनकपुर में स्वयम्वर के अवसर पर रावण और वाणा- सुर सीता स्वयंबर में सम्मिलित होने के लिये उपस्थित होते हैं, केशवदास यह उचित नहीं समझते कि इन दोनों राक्षसों की उपस्थिति दृश्य के अंत तक रहे, इसलिए उन्होंने रावण से यह प्रतिज्ञा कराई है कि :-- महाकाव्य और केशव का दृष्टिकोण घ४् # अन्न सिय लिये बिन हों न यरों | कह-ँ जाहुँन तों लग नेम घरों ॥ जब मौं न सुनों अपने जन को | अति आरत शब्द इते तन को ॥ उसी समय एक राक्षस आकर करुण-क्रन्दन करता है; फिर तो -- / रावण के वह कान परुयो जन छोड़ स्वयंत्रर आत भयो तब यहाँ पर केशवदास ने सीता स्वयंवर की घटना को आक- स्मिक रूप से बदल देने की चेष्टा की है, 'प्रसन्तराघव” नाटक के आधार पर ही केशवदासजी ने रावण की स्वयंवर से इस प्रकार हटाने का कौशल किया है । केशवदासज्ी की प्रवृत्ति सजनीति और कूटनीति के प्रदर्शन की ओर थी। इसी कूटनीति में इनके पात्र अत्यन्त प्रवीण हैं कभी-कभी केशवदास जो ने इस कूटनीति का प्रयोग ऐसे स्थलों पर ऐसे पात्रों द्वारा कराया गया है जिसके कारण उन्त पात्रों की शालीनता पर अनुचित आघात पड़ता है। भरत के प्रति राम के हृदय में निशक्कत्त एवं अगाध प्रेम था वे ही राम जब भरत के ऊपर संदेह प्रगट करते हुए लक्ष्मण से अयोध्या में रहकर भरत के कार्या का सूक्ष्म दृष्टि से देखने के लिए कहते हैं तो यह कूटनीति का प्रदशेन चाहे भत्ते ही दो लेकिन उदार हृदय रास की ऐसी भावनायें ओचित्य की कसौटी पर ठीक नहीं समझती जा सकतीं । ७ धाम रहौ ठम लक्ष्मण राज की सेव करी । मातनि के सुनि तात सो दीरघ दुख हरो ॥ आय भरत्य कहा धों करे जिय भाय गुनो। ४६ रामचन्द्रिका जो दुख देइ तो ले उरगी यह बात सुनो? ॥ . भरत पर संदेह प्रगट कराकर केशव ने राम के उस ग्रशस्त चरित्र में तो परिवततेत किया किन्तु इसका नितान्त ध्यानन रखा कि उस परिवतेन से राम की सज्जनता में कितना व्या- घात पड़ सकता है। रामचन्द्रिका में राम का चरित्र मानस की अपेक्षा कितना विक्ृत कर दिया गया हे, यह विचारणीय हे ! राजनीति-कुशल रावण सीता के हृदय को रास से विमुख ओर अपनी ओर प्रेरित करने के लिये विदग्धतापूरं वाक््या- बलि का प्रयोग करता है। इस स्थल पर राजनीति-पदु केशव -ने ऐसी वाक्यावलियों का प्रयोग कराया है जिसका उस परि- स्थितियों में किया जाना अत्यंत स्वाभाविक है। श्लेप. के प्रयोग के द्वारा रावण राम के चरित्र को सीता के समक्ष इस बिकृत रूप से प्रस्तुत करता है जिससे सीता राम से उदा- . सीन हो जाये :-- “ सुनो देवि मोपे कछू दृष्टि दीजै। इतो सीचतोी राम काजे न कीजै ॥ तुम्हें देवि दूषे हितू ताहि माने | उदासीन तो सो रुदा ताहि जाने ॥ महा निर्गुणी नाम ताको न लीजै। सदा दास मंपि कृपा क्यों न कीजे !॥ | इन्द्रजीतर्सिह के दरबार में रहने के कारण केशवदास को कूटनीतिं का वेयक्तिक ज्ञान प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध हुआ था। भिन्न-भिन्न प्रकारों से अपने हित साधन के उपाय राजनीति-कुशल भलोमाँति जानते हैं। राज दरवारों में वार्ता- ल्लाप करने की एक विशेष विधि होती है और राज दरबार की मर्यादा का ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को रखना अनिवार्य हो जाता मद्यकाव्य और केशव का इंष्रिकोण ७ है। अंगद रामचन्द्र का दूत वनकर रावण के दरबार में उपस्थित हुआ | उस अवसर पर रावण ने ऐसा प्रयत्न किया कि जिससे राम के दल में फूट पड़ जाबे । उसने अंगद से कहा कि राम ने किस प्रकार छज्ञ करके उसके पिता का वध किया है. अब यदि अत्यंत बलशाली पुत्र होकर के भी तुम अपने पिता वालि के वध का प्रतिशोध न लो तो अत्यन्त खेदजनक बात है :-- “तोसे सपूत्तद जाइ के च्रालि अपूतन की पदवी पगु घारे। आअँगद सेंग ले मेरो सत्रे दल आजुहि क्यों न इते बपु मारे? ॥ रावण ने अंगद के हृदय में केवल विद्वेप की भावना हीं अ्ज्चलित करने का प्रयत्त नहीं किया अपितु यह भी आश्वासन दिया कि यदि अंगद अपने पिता के बधिक से बदला लेना चाहें तो बहू समस्त सेना देकर उसकी सहायता बन । प्रकार केशव ने भिन्न-भिन्न स्थलों पर अपनी कूटनी का अच्छा परिचय दिया है अन्यथा प्रवंध के विशिष्ट स्थलों को छोड़कर केशव की बृत्ति कथा वर्णन में न रस सकी। उन्होंने बीच- ब्नीच में रामचरित्र सम्बन्धी अनेकों घटलाओं को या तो छोड़ दिया है या चलते रूप से उनका संकेत मात्र ही कर दिया है। कथा का विभाजन कांडों में न होकर प्रकाशों में है पर कथा का विस्तार अनियमित हे। उसमें प्रवन्धात्मकता नहीं है। प्रारम्भ मेंन तो रामाचतार के कारण ही दिये गये हैं और न राम के जन्म का ही विशेष विपरण है। राजा दशरथ का परिचय देकर ओर रामादि चारों भाइयों के नास गिनाकर विश्वामित्र के आमने का वर्णन कर दिया गया है। ताड़का और स॒ुवाहु-बध आदि का वर्णन संकेत रूप में ही है। जनकपुर में घनुप यज्ञ का वर्णन सांगोपॉँग है । केशव का सम्बन्ध राज दरवार से होने के कारण, यह चर्णन स्वाभात्रिक एवं विस्तृत प्र .. रामचन्द्रिका है। सीता की अपम्नि परीक्षा (अकाश २० ) तक तो यरत्किचित रूप से कथा का निर्वाह किया गया है, किन्तु आगे के वर्णन जैसे रामकृत राज्य-श्री निन््द्रा तथा राम की दैनिक क्रियाओं का दिग्द्शन कराने में कथा का प्रवाह अवरुद्ध सा हो गया ' है । यहाँ तक कि यदि २४ वा तथा २५ वाँ प्रकाश इस अंथ से निकाल दिये जायें तो भी कथा प्रसंग में कोई बाधा न आधवेगी | केथा की दृष्टि से रामचन्द्रिका में प्रसंगों का नियमित विस्तार नहीं है । जहाँ अलकार कोशल का अवसर अथवा वाग्विज्ञास का प्रसंग मिल्ला है वहाँ तो केशवदास ने विस्तार पूर्वक वर्णन किया है और जहाँ कथा की घटनाओं की विचि- त्ञता है, वहाँ कवि मौन हो गया है। अतः रामचन्द्रिका को कथावस्तु में काव्य-चातुर्य स्थान-स्थान पर .देखने को तो अवश्य मिलता है, पर चरित्र-चित्रण या कथा की अबन्धात्मकता के दशेन नहीं होते । केशब के चरित्र-चित्रण में हमें न तो लोक शिक्षा का आदर्श मिलता है और न कोई धार्मिक या दार्शनिक सिद्धान्त ही। तुलसीदास ने जिस प्रकार विश्लेपणात्मक पद्धति पर पात्रों का चरित्र-चित्रण किया है, जिस प्रकार उन्होंने मनुष्य की साधारण से साधारण परिस्थितियों का देवत्व के साथ मधुर उत्कर्ष कराया है तथा जीवन के व्यापक एवं सवोगीण चित्र को अंकित किया है, वह हमें केशव में दृष्टगोचर नहीं होता, इनकी कथावस्तु पर प्रसन्न राघवनाटक और हलुमन्नाटक का अत्यधिक प्रभाव है. पर वस्तु का निर्वाह विशेष रूप से बाल्सीकि रामायण के अनुसार ही किया गया है । परशुराम संवाद की योजना केशवदास जी ने वाल्मीक रासा- हा न महाकाव्य आर केशव का दृष्टिकोण, * ४६ यण के आधार पर बरात के लौटने पर हीं की है | तुलसी दास जी ने रामचरितमानस् सें इस प्रसंग में एक सुन्दर परिवतेत् किया है। धनुभंग हो, जाने के कारण रवयंवर में उप॑- स्थित हुए कतिपय राजाओं में (यह विवाद होने लगा कि वे ही सीता जो का वरण करेंगे भले ही शिव के घनुप को राम- चन्द्रजी ने क्यों न तोड़ा हो। क्रोघावेश में वे कहने लगे “हमहिं. अछत को केवरिहि व्याहाँ इस प्रकार के इंद्व की शांति ठुलसीदास जी ने परशुराम के आगमन के द्वाग कराई है राम का विवाह सस्पन्न हो जाने के पश्चात् उसमें ऐसे प्रसंगों का समावेश करना जा हृदय में यह व्याघात पहुँचा दे कि सीता का स्वयंवर सानन्द समाप्त हो जाने पर भी ऐसी विपत्ति का संगठन बाकी रह गया, रस की दृष्टि से उचित नहीं है राम के विवाह हो जाने के पश्चात उसमें किसी प्रकार की कठिनाई का उपस्थित होना हृदय की कोमल भावना स्वीकार नहीं कर सकती | प्रबंध कवि के लिए यह अनिवार्य है कि वह कथा की क्रमबद्धता का पूर्ण ध्यान रक्खे। कथा के वर्णन में एक भी ऐसे असंग का समावेश नहीं होना चाहिए जिससे या तो कथा का कोई सम्बन्ध न हो और न वृस्तु सम्बन्धी किसी प्रमुख घटना का लोप ही कराया जाये अन्यथा पाठक को कथा के सूत्र को मिलाने में अत्यंत कठिनाई होगी । क्ेशवदास ने रामचन्द्रिका में केवल उन्हीं स्थलों का अंकन विस्तार के साथ किया है जो उनकी वृत्ति के लिए रुचिकर हे अन्यथा अन्य घटनाओं काया तो पूर्ण अभात्र ही हे और या उनका केवल निर्देश ही।- । कारण है कि उनके पात्रों में सज़ोबता नहीं आने पाई है। एक घटना में पाठक निमग्त छ ० रामचन्द्रिका ही नहीं हो पाता कि शीघ्र ही दूसरा प्रसंग आ जाता है दशरथ. राम को राज्य देने का विचार कर रहे हैं । ... दशरत्थ महा मन मोद रये | तिन बोलि वशिष्ठ सों मंत्र लये ॥ दिन एक कहों सुभ सोम रयो | हम चाहत रामई राज दयो ॥ यह बात भरत्थ की मातु छुनी । पठऊेँ बन रामदि बुद्धि गुनी ।। तेहि मन्दिर मों रूप सों बिनयो । बर देहु हुतो हमको जु दियो ॥ उप बात कही हँसि हेरि हियो। वर माँगि सुलोचनि मैं जु दियो ॥ (कैकयी) दृप तासुविसेस भरत्थ लहैँ। वरषें वन चौदह राम रहें ॥ ओर :--- उठि चले विपिन कहूँ सुनत राम | तजि तात मात तिय बन्धु धाम केवल सात पंक्तियों ही में केशव में राम वन गसमन की कथा का वर्णन फर दिया है | केकयी का चरित्र ऐसे वर्णन के कारण अत्यन्त निम्नकोटि का हो गया है | इससे यह् ध्वनित द्ोता है कि केकयी का शायद राम से स्वाभाविक विरोध था। केशवदास ने इस प्रसंग में संथरा की - कोई कल्पना नहीं की । रामचरित मानस में तुलसीदास. ने इस प्रसंग में ख्रियोचित भावनाओं एवं मनोचेगों का अत्यंत प्रग- ल्मता के साथ चित्रण फिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान ' शासचन्द्र जी ( रामचन्द्रिका में ) जब राजभवन का त्याग करके चन को जाते हैं उस समय न तो वे शोक-संतप्त पिता से विदा लेने जाते हैं और न पुत्र-वियोग से दुखी माता कौशल्या के पास, और प्रत्युत वे सीधे चन-पथ पर लक्ष्ष्ण और जानकी के साथ जाते दिखायी पड़ते हैं । “विपिन मारग राम विराजहिं, सुखद सुन्दरि सोदर भ्राजई | केशव ऐसे प्रसंगों पर मानों यह अनुमान कर लेते हैं. कि पाठक कथाचस्तु से तो परिचित हे ही, केवल काव्य-चमत्कार महाकाव्य और केशव का दृष्टिकोण ५१ विशेष स्थलों पर प्रकट कर देना उचित है । वीच-वीच में कुछ अ्रसंगों को छोड़ देने के कारण पात्रों के चरित्रों पर भी आधघाद पहुँचा है। विराध को देखकर सीता भयभीत होती हैं. इस छोटे| , से अपराध के कारण ही राम उसे मार डालते द्वें। इस शा शाम का चरित्र एक साधारण संसारी जीव का सा हो गया है | विपिन विराध बलिष्ठ देखिणे | उप तनया मयभीत लेखियो । तब रघुनाथ बाण कै हयौ | निज निरवाण पंथ को ठयौ ॥ सीता तथा कोशिल्या के चरित्र में भी केशवदास जी ने परिवर्तन किया है, किन्तु यदि केशवदास जी द्वारा वर्णित भावनाओं के आधार पर सीता और कौशिल्या का चरित्र माना जावे तो वे एक साधारण जी के रूप में ही दिखाई देती हैं | उनमें उस महानता तथा हृदय-गांभीय क दर्शन नहीं होते जो रामचरित- मानस में हैँ। सीता की सुकुमारता देखकर तथा यह जानकर कि मेरी अनुपस्थिति में सीता माता-पिता की सेवा करेंगी और उन्हें, धैर्य प्रदान करेंगी। रास उन्हें बन को साथ नहीं ले जाना चाहते | उस समथ सीता संयत भाषा में यही कहती है कि में, सब्रहिं भाँति विय सेवा करिंहों, मारग-जनित सकल श्रम हरिहो । पॉव पखारि बैठ तर छोडी, करिहों वायु मुदित मन माद्दी ॥ ह् ( तुलसीदास ) लेकिन फेशवदास ने बन में साथ-साथ जाते हुए सीता तथा रास का जो वर्णन किया है. उसके द्वारा सीता का चरित्र रीतिकालीन राधा के समान ही हो गया है। केशवदास जी की शंगारिक भावना अत्यन्त प्रवल थी अतः ऐसे मर्यादित स्थलों पर भी उन्होंने अपनी घर ; रामचन्द्रिका वासनामूलक भावनाएँ प्रकट कर दी हैं। ये भावनाएँ इन स्थलों पंर न तो उपयुक्त ही हैं और न आवश्यक ही। कवितावली में तुलसी ने बन को जाती हुईं कोमलांगी सीता * का वर्णन किया है लेकिन वहाँ किसी ऐसी भावना का चित्र . नहीं, जो अमर्यादित हो | पुर तें निकसी रघुबीर वधू , धरि घीर दये मग में डग दे । मलकीों भरिं माल कनीं जल की, पुट सूख गये मधुराधर बे । फिरि बूकति है चलनों अब केतिक पण॒ कुटी करिदे कित है । तिय की लखि आ।ुरता पिय की, अखियाँ अतिचारु चलीं जल च्वे | केशव ने बन गमन में परिश्रान्त सीता तथा राम का वर्णन किया है। रामचन्द्र तो वल्कल वस्त्र के अंचल से सीता पर पंखा मलते हैं. ओर सीता जी चंचल चारु 'हृगंचल' से उनकी ओर देखती हैं। ५ मंग की श्रम श्रीपाति दूर करें, सिय को शुभ वलकल अंचल सों | श्रम्त तेड हरे तिमको कवि केशव, चंचल चारु हर्गंबल सों ॥ अर, मारग की स्ज तापति है अति, केशव सीतह्टिं सीतल लागति | प्यो पद पंक्रन ऊपर पाइन, दे जु चले तेद्दि ते सुखदायिनि ॥ पतिपरायणा सीता का पति के चरण-चिहों पर चरण रखा महाकाव्य और केशव का चइष्टिकोण भ8 ऋर चलना प्रेस की भावना का अभिव्यंजक भले ही हो पर उस में सौस्यता एवं सादा नहीं हे । इसी विपय को तुलसी ले कितली सुन्दरता के साथ वर्णित किया है :-- प्रमु॒ पद रेख चीच बिच सीता, घरहिं चरन मग चलहिं सभीता । राम सीय पद पंक बराये, लखन चलहिं मग दाहिन तब्राँये ॥ रामचरित सासस की विवेकिनी कोशिल्या राम वनवास के समय सहिष्णुता, छदयगांभीयं तथा विमल विचारों को प्रकट करती हैं। महुष्य के जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित होती हैं जब दो समान धर्मों में इन्द्र होता है उस समय विशाल झ्रदय व्यक्ति ही यह निर्धारित कर सकते दूँ कि उन्हें कौन सा कार्य करना चाहिये। राम के वनगसन का ससाचार पाकर कौशिल्या अपने कर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर सकी। उनके सन में साँति-भाँति के संकल्प विकल्प आ रहे हैं :-- राखि न सकहि न कहि सक जाहू, दुहूँ भाँति उर दाइण दाहू। राख सुन कर अनुगेधू , धर्म जादि अर बंधु विरोधू ॥ इन धार्मिक इन्हों के पद्चमात् कौशिल्या अपने हृदय की कोमल भआवनाओं को दबाकर यह कहती हैं :-- तात जाहुँ बलि कीन्हेड नीका, पिठ आयु सत्र धर्म क ठीका। जो पिठ मातु कद्देड बन जाना, तो कानन सत्त अवध समाना | लोक-संग्रह का भाव रखने वाली कीशिल्या के इस चरित्र को श़्छ रामचन्द्रिका केशव से रामचन्द्रिका में परिवर्तित कर दिया है। राम वंत- गमन का समाचार पाकर वे साधारण खत्री की भाँति क्रोधित हो छूर कहती हैं :-- । रहो चुप हों सुत क्यों बन जाहु, न देखि सकें तिनके उर दाह। लगी अभग्र भाप तुम्हारेहि बाय, करे. उलटी विधि क्यों कहि जाय | कोशिल्या अयोध्या को छोड़कर रास के साथ वन जाने का भी अनुरोध करती हैं । मोहि चलौ बन संग लिये | पुत्र तुम्हें हम देखि जिये। ओधपुरी महँँ गाज परै | के अन्न राज भरत्थ करे | माता अपने पुत्र के सुख के लिये अधिक प्रयत्नशील रहती है और ऐसी परिस्थिति में कोशिल्या ने जो बातें कही हैं. वे माता के हृदय के प्रेम को प्रचुरता की तो द्योतक हैं. परंतु उक्त उद्देंग- जनक विचार कोौशिल्या के उज्वल् चरित्र के प्रतिकूल ही हैं । किसी उच्च आदर्श की रक्षा के लिये निज स्वार्थे का बलिदान छउज्वल चरित्र और उन्नत विचारों का ही द्योतक है । दशरथ, भरत तथा लक्ष्मण के चरित्रों का विकास “राम चन्द्रिका' में नहीं किया गया है। | प्रिय पुत्र राम को वन सेजने के समय दशरथ को कितनी असह्य वेदना हुई तथा किस प्रकार राम के वियोग- जन्य , ढुख की ज्वाला में दशरथ ने अपना शरीर भस्मसात कर दिया, इसकी ओर केशव का ध्यान नहीं गया। राम वन- गमन की कथा अतिसंक्तेप में वशित होने से दशरथ के चरित्र का धअंकन न ही सका | लक्ष्मण का चरित्र सम्पूर्ण रामायण में एक विशिष्ट महत्व सहाकाव्य और केशव का दृष्टिकोण श्र रखता है। जिस प्रकार रामचन्द्र शालीनता तथा सर्यादापालन के लिये असिद्ध हैं उसी अकार लक्ष्मण पूर्ण कर्मबादी तथा उम्र स्वभाव के लिये अख्याव हैं। तुलसाद:स जी ने लक्ष्मण के इस स्वभाव के कारण राम के चरित्र को ओर भी उज्ज्वल बना दिया है। लेकिन रामचन्द्रिक। में लक्ष्मण को अपना चरित्र प्रकट करने का अवसर ही उपलब्ध नहीं हुआ है। परशुराम संवाद में भरत लक्ष्मण का प्रतिनिधित्व करते हैं. तथा राम वनवास के समय भी वे राम से केवल थोड़ा अनुनय-विनय करते हैँ । लक्ष्मण के स्वभाव की उपग्रता तथा चंचलता कहीं भी प्रदर्शित नहीं की गई है। जो लक्ष्मण भाग्य पर विश्वास करना कायरों . का कार्य सममते थे उन्हीं लक्ष्मण को जब राम घर. में रहने का उपदेश देते हैं तो वे आत्म-हत्या करने को उद्यत हो जाते हैं ! ; ,.. शासन मेटो जाय क्यों, जीवन मेरे हाथ | भरत के चरित्र में अवश्य कुछ परिवर्तन किया गया है। वे' परशुराम संवाद सें उपस्थित हैं । परशुराम की गवाक्ति को सुनकर विचलित होकर यह कहने लगते हैं :--- चंदन हूँ में अति तन घसिये, आगि उठे यह गुनि सब लीजे | हेहय मारे जृपति सहारे, सो जस लै किन जुग जुग जीने । जब राम ने जनप्रवाद को सुनकर सीता देवी के निष्का- सन का विंचार किया और भरत से यह काये करने को कहा तो भरत ने इस गह्म॑ काये को करने से तुरन्त ही इन्कार कर दिया। “वो माता बैसे पिता, ठुम सो सैया पाय | भरत भयो अपवाद को, माजन भृूतल आय” ॥ सीता-निर्वासन के असंग पर भरत और शरत्रुन्न को अत्यधिक- ६ रामचन्द्रिका क्रोध हो रहा है, लेकिन यह अप्रिय कार्य राम के द्वारा ही किया जा रहा है इसीलिये वे शान््त हैं. अन्यथा तीत्र विरोध करते ) अतः वे राम के पास से हट जाते हैं । “हर होय तो जानिये, प्रभु सों कहा बसाय | यह विचारि कै शत्रुघ्न, भरत गये अकुलाय | केशबदास ने भरत को स्वतन्त्र बुद्धि एवं स्थिर विचार वाले के रूप में अंकित किया है। अधर्म का काय चाहे वह राम के द्वारा ही क्यों न किया गया हो भरत उसका विरोध किए बिना नहीं मानते । निरपराधिनी सीता को केवल जनप्रवाद के कारण ही निर्वासित करके राम ने एक महापाप क्रिया था। स्वयं राम ने उसे स्वीकार किया है 'सीय-त्याग पाप से हिये सुहों महा डरों / जब लव और कछुश राम के हारा भेजी गई समस्त सेना का विध्च॑ंस कर डालते हैं, उस समय भरत यही कहते हैँ कि सीता को निकालकर हमने जो सहापाप किया हे उसी का दण्ड अब हमें न दो वाक़कों द्वारा सिल्ल रहा है । लच्सण जिस दिन से सीता को अकेला बन में छोड़ कर आये उसी समय से थे अपने कलंकित शरीर का त्याग ऋरना चाहते थ ओर उपयुक्त स्थल पाकर ही अब उन्होंने आख विसजेन कर दिये हूँ । “लुद्ू >णु सीय तजी जन्न ते वन | लोक अलीकन पूरि रहे तन ॥ छोड़न चाइत ते तब ते तन । पाप निर्मिस करयी मन पावन ॥ भरत स्वयं राम से प्रश्न करते हैं कि कोन सा ऐसा अपराध था जिसके कारण उन्होंने सीता का परित्याग किया | पातक कौन तद्बी तुम सीता | पावन होत सुने जग गीता ॥ महाकाव्य और केशव का इृष्टिकोश ््ड वे उस राम--जिसने ऐसा पातक् किया है--के साथ रह कर दोष के भागी नहीं वनना चाहते प्रस्तुत युद्धस्थल में प्राण स्थाग कर इस कलंक से मुक्त होना चाहते हैं :-- हों तेहि तीरथ जाय मरोंगो | संगत ढठोप अशेष हरोंगों । भरत के इस चरित्र के द्वारा केशव ने राम के द्वारा सीता सिर्वांसन के कार्य की निन््दा की है। महाकवि भवभूति ने भी “उत्तर रामचरित' नाठक में बासन्ती के द्वारा इस विचारधारा क' प्रगट कराया है | कथावस्तु के सार्मिक स्थलों की पहिचान करना श्रेष्ठ कवियों का ही विपय है रामचरित मानस में तुलसीदास जी ले राम के जीवन की अत्यक्ष मर्मेस्पशिनी घटनाओं को चुन-चुन कर रखा/है। केशवदास ने दशरथ मरण, राम वनयात्रा, सीता विरह आदि जो रास के जीवन की अत्यन्त करुण्पूर्ण परिस्थि- तियाँ हूँ उनको यथोचित स्थान नहीं दिया। सच तो यह है कि इन करुण परिस्थितियों में चमत्कारवादी केशव को पांडित्य अदर्शेन करने का संयोग न था, इसलिये इन स्थलों की ओर उत्तका ध्यान न गया। यह कहना समीचीन नहीं हे कि तुलसी ने इन कारुण्यपर्ण अवस्थाओं का अत्यन्त प्रोढ़ .एवं हृदयहारी चित्र अंकित कर दिया था इसलिये केशत्र ने इन दशाओं का चणन न किया। यदि केशव के हृदय सें यह भावना होतीं तो वे तुलसी दास जी के अन्थों की उपस्थिति में रामचरित संवंधी रचना हीन करते। प्रबन्ध काव्य में कथावरतु का निरन्तर प्रवाह होना चाहिये। सुख्य कथावस्तु से सम्बन्ध रखने वाले प्रसंगों का ससावेश ही उसमें किया जा सकता है! जिन प्रसंगों का सल्वन्ध प्रमुख कथा से नहीं है, उनको समाविष्ट करते का प्रयास प्रबन्ध कवि न श ध््प रामचन्द्रिफा करेगा। कथावस्तु का विकास इस स्वाभाविकता एवं रोचकता के साथ किया जायगा जिससे पाठक का हृदय उस घटनाओं में निमज्जित हो जाय। वह घटना उसे वास्तविक प्रतीत होने लगे।जिस रस को लेकर उस प्रसंग की अबतारणा की गई है, उसकी पूर्ण निष्पत्ति होनी चाहिये। अपनी कथावस्तु के निर्देश में प्रबन्ध कवि एक शब्द भी ऐसा प्रयोग न करेगा, जिससे घटना की रोचकता नष्ट हो जावे ओर आगे होने वाले क्रिया-कलाप उसे केवल कोतृहलपूर्ण ही प्रतीत हों उनमें रस- निमज्जित करने की क्षमता न हो। * तुलसीदास जी न रामायण में राम”की मानवीय लीलाओं का वर्णन करते समय पाठकों को बार-बार यह स्मरण दिलाने का ध्यान रखा है कि राम ता वास्तव में परत्रह्म हूं, वे तो मानवों को आदर्श चरित की शिक्षा देंने के लिये प्रथ्वी पर आये हैं । जब सीता-हरण के उपरान्त राम विलाप करते हैं तो उस समय कवि पाठकों को यह चेतावनी देता है :-- पर दुःख हरण शोक दुख नाहीं। “भा विपाद तिनके मन माहीं ॥ पूरण काम राम सुखराशी | मनुज चरित कर अज अविनाशी | * सीता-विरह के कारण राम के हृदय में जो विपाद और शोक हुआ उसे तुलसीदास ने इस ढंग से प्रकट किया है जिस से राम के पूर्ण त्रक्म होने का भी आभास पाठकों को ,मिल जाता है| केशवदास ने रास के देवत्व का वर्णोत्र स्थान-स्थान पर * किया है । वाल्मीकि द्वारा उपदेश दिये जाने पर कवि ने 'सोई परन्रह्म श्री राम हैं, अवतारी अवतारसणि” को अपना इृष्टदेव सहाकाज्य और केशव का दृष्टिकोण श्६् माना । सीता की अग्नि-परीक्षा तथा रास के राजतिलक के अवसर पर तरह्मदि देवताओं द्वारा की गई रुति में राम के विष्णुत्व का पूण प्रतिपादन हुआ हे । रामचन्द्रिका में कहीं-कहीं कवि ने इस भ्रकार के विचार प्रकट किये हूँ जिससे पाठकों का हृदय उस घटना में ज्ञीन नहीं होता। यदि कारुशिक परिस्थितियों का चित्रण करना हे, तो प्रत्येक शब्द और वाक्य में इतनी क्षमता हानी चाहिये कि वे पाठक को रसलीन कर सकें। रोते हुए व्यक्ति को देखकर (व्यक्ति के) हृदय में समवेदना की भावना जागृत होना स्वाभाविक ही हे, किन्तु यदि उस समवेदना करने घाले व्यक्ति को पहले ही यह ज्ञात हो जाबे कि बह व्यक्ति तो भूठमूठ रो रहा है, तो उसकी सहानुभूति, वीप्सा और क्रोध में परिणित हो जायगी | शूपेणखा को विरूप करने के उपरान्त रामचन्द्रजी ने सीता से यह कहा :-- राजसुता इक मन्त्र सुनौ अब । चाइत हों मुब भार हर॒योौ सब ॥ पावक में निज देह्शि राखहु। छाय शरीर मंगे श्रभमिलाखहु ॥ राम ने सीता से निजस्वरूप-अप्नि में समर्पित करने के लिये ओर छाया शरीर से सग की अभिलापा करने के लिये कहा। इस कथन से आगे की जो घटलाएँ वर्शित हैँ उनमें रस-मश्न ' करने की शक्ति नहीं रदी | सीताहरणश की घटना ऐसी प्रत्तीत होती है, मानों राम ने द्वी इसकी पू्ो योजना की हो। इसी भ्रकार जब सीता विलाप करती हैं तो पाठक के हृदय में करुणा कीं आवना जागृत नहीं होतो। पाठक यह सममता है कि वास्त- बिक सीता का अपहरण नहीं हुआ यह तो सीता देवी का छाया- ६० रामचन्द्रिका शरीर है जिसे रावण राक्षस उठाये ले जा रहा है । इत प्रकार के बार्तालाप से प्रसंग की रोचकता सर्बथा नष्ट हो गई है ओर उसका रस भी मष्ट हो गया है। लव कुश संग्राम में राम की सेना के बड़े-बड़े चीर पराजित होते हें। लक्ष्मण, हनुमान और पअंगद, जिन्हें अपने पुरुपा्थ का बड़ा गये था वे उन दो अल्पवयस्क मुनि फुमारों द्वारा परास्त कर दिये गये । वीर रस का सुन्दर समावेश इस प्रसंग में किया गया है; किन्तु जब युद्धस्थल पर जाते समय भरत ने यह कहा कि अपनी सेना के व्यक्तियों के गये को नष्ट करने के लिये आपने यह कोतुक किया है बत श्रीराम मौन धारण करते हें जिससे आगे का युद्ध खिलवाड़ सा ग्रतीत होता है, इसमें रस- समन करने की क्षमता नहीं है :-- ह बानर राक्षस रिच्छुव तिहारे। गर्व चढ़े रघबुवंशहि भारे॥ ता लगि कै यह बात बिंचारी । हो प्रभु सतत गर्व प्रहारी ॥ सीता के निवाॉसन की घटना राम के जीवन की अत्यन्त कारुण्यपूर्ण घटना है | लोकानुरंजन के किये अलीक-प्रचाद के फारण ही मादा पुरुषोत्तम राम ने जगद्वन्दनीय सीता को निष्कासित किया। रामचन्द्रिका में ब्रह्मा जो ने सीता से यह प्राथना की कि उन्हें ऐसा प्रयत्त करना चाहिये जिससे रास ब्हाय- जोक को लौट चलें । राम चले स॒नि शूद्रकी गीता। पंकजयोनि गये जहूँ सीता 0 देवन को सब कारज कीन्हो। रावण मारि बड़ी यश लीन्न्हो ॥ सहाकावय और केशव का दष्टिकोश दर में बिनती बहु भाँतिन कीनी। लोकन की करुणारस भीनी ॥॥ माँगत हो बर मोक़ह दीजे। चित में और विचार न कीजै || आजु ते चाल चली तुम ऐसे | राम चले अयकंठदिं जेसे ॥ ब्रह्मा के निवेदन पर वर्शित सीता निष्कासन की कथा में फकरुण रस की प्रतिपत्ति नहीं हो पाती। राम ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सीता से एक बरदान माँगने के लिये कहा :--- एक समय रघुनाथ महामति। सीतहि देखि समर्भ बढ़ी रत ॥ सुन्दरी मॉगु जो जी मह भावत | मो मन तो निरखें खुख पावत ॥ तब सीता ने निवेदन किया :--- जो तुप होत प्रमन्न महमति। हक 9६० मारि बढ़े ठुम द्वी सों धदा रति ॥ जो सत्र ते हित मोपर कीज़त | इश दया करिकी बरु दीक्त ॥ हैं जितने ऋषि देव नदी तट | हों तिनकोी पहिराय फिये पट | इस प्रकार स्वयं सीता भी बन में जाने के लिये उत्सुक हैं । इसी के उपशान््त गुमचर ने एक जन-प्रवाद की घटना राम को सुनायी और प्रात:काल सीता का निर्वासय हुआ | कारुशिक परिस्थितियों में लग्न ने के लिये कवि को यहें आवश्यक है कि वह घटनाओं एवं परिस्थितियों को इस प्रकार से चित्रित करे, जिससे वे सत्य अतीत हों ॥ सीता और है रास की कारुणिक परिस्थितियों को वैसे तो केशवदास जी ने संक्षेप में ही चर्शित किया है और वहाँ भी कुछ असंग ऐसे ला उपस्थित किये हैं. जिससे उन करुण से करुण दृश्यों में भी पाठकों का हृदय लीन नहीं हो पाता। ६२ शामचन्द्रिका ४ केशव का प्रकृति निरीक्षण प्रकरति के प्रति केशव के हृदय में अनुराग न था। हमारे आचीन कवि प्रकृति को उद्दीपन के रूप में ही ग्रहण करते आये ह उसकी आलस्वन बनाने की चेष्टा उन्होंने कम की है। वस्तु परि- गणन शैली पर ही अधिकांश रूप में इस कवियों ने प्रकृति का चर्णान किया है। हृदय की रागात्मक सत्ता के साथ प्रकृति का साम॑ जस्य उपस्थित नहीं किया गया है। संस्कृत साहित्य में जिस संश्लिष्ट पद्धति का पालन होता आया था उसे हिन्दी के कवियों ने बहुत कम मात्रा में ग्रहण किया। कालिदास की उक्ति “जन पद वधू लोचने पीयमान: ” में लक्षणाशक्ति से मेघ के साथ हृदय साम्य उपस्थित किया गया है। इस प्रकार कवि ने सहानु- भूतिपुर्चेक बाह्य प्रकृति एवं अन्तः प्रकृति के साथ आत्मीयद' अदर्शित की है। केवल तुलसी, सूर, जायसी ही प्रकृति के साथ आत्मीयता प्रगट कर सके हैं, परन्तु इन कवियों ने भी कथासऋ के बीच-बीच में गीण रूप से ही प्रकृति की ओर ध्यान दिया। केशव अलंकारबादी कवि थे। उनका दृष्टिकोण संकुचित था। सासव ददय की कुछ बृत्तियों का अध्ययन तो केशव ने किया पर . प्रकति की उल्लासपूर्ण सामग्री से वे उदासीन ही रहे | आलं- 'कारिक रूप में ही अधिकांशतः प्रकृति का चित्रण किया गया है। भाव के उद्रेक में प्रकृति बर्णनों से सहायता नहीं ली गई। प्रकृति के जितने चित्र केशवदास ने अंकित किये हैं उनसे यह प्रगठ नहीं होता कि केशवदास में प्रकृति निरीक्षण ६७ रामचन्द्रिका के प्रति अनुराग था। अयोध्या के उपबन, पंचचटी वर्णन तथा अगस्त्य मुनि के आश्रम के बणनों में उपमानों की खोज में ही केशव की प्रतिमा उल्की रही । प्रस्तुत विषय की रमणीयता में उनका सन न लगा । साहित्य शास्त्रियों ने यह आदिष्ट किया है कि प्रवन्ध-काब्य की रचना करते समय प्राकृतिक दृश्यों का निरूपण अचश्य किया जाय। प्रातःकाल, मध्याह, सायंकाल तथा विभिन्न ऋतु वर्णन के साथ साथ नदी, सरोवर और वीथिका का वर्णन हो कथावस्तु को रोचक बनाते हुए प्रसंगानुकूल प्रवन्ध कवि उक्त दृश्यों की योजना करके प्रकृति के प्रति अपने हृदय की रागात्मक मनोग्त्ति की अभिव्यंजना करते हैं। माध्यमिक्र काल में हिन्दी के कवियों ने प्रकृति के पदार्थों का प्रयोग बहुधा उपसानों के रूप में ही किया है। प्रकृति का संश्लिष्ट ओर स्वच्छन्द चित्रण नहीं किया गया। रामचन्द्रिका मे केशंबदास जी ने प्राकृतिक ४ देश्यों का अर मर र पअयोग किया है। यद्यपि जहाँ तक दृश्यों का प्रश्न हूं कवि ने उन्हें स्थान स्थान पर नियोजित किया है, किन्तु प्रकृति का वर्णन करते समय कवि ने नेत्र और हृदय से काम नहीं लिया, वहाँ तो बुद्धि-वेभव है। कवि ने प्रकृति वा रूप अंकित करना भारंभ किय। नहीं कि उसकी आलकारिक मनोबूत्ति जागृत हो जाती थी और फिर कवि अकृति का चित्रण न करके साहश्यमूलक पदार्थों को ढूँढ़ दूँढ़कर उपस्थित करने सें लग जाता था। हिन्दी के प्रबन्धकारों ने अपने काव्य में प्राकृतिक स्थलों का उतना समावेर। नहीं किया जितना केशवदास ने रामचन्द्रिका में किया है; किन्तु केशन के प्रकृति के चिन्नों में प्रकृति का बास्त- बिक और सजीब चित्रण नहीं किया गया है | प्रथम प्रकाश ही में जब- विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा कराने के केशव का प्रकृति निरीक्षण ६५ डैतु सहायता प्राप्त करने के लिये अयोध्या आते हैँ, तो कवि ने उन समस्त प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है जिन्हें कि मार्ग में आते हुए विश्वामित्र ने देखा। रामचन्द्रिका में केवल उन्हीं पसंगों का विस्तार के साथ वर्णन होना चाहिये जो राम की कथा से प्रत्यक्ष सस्बन्ध रखें | केशव ने अन्थ के प्रारंभ में न तो रास जन्म का ही वर्णन किया है और न राजा दशरथ का पूर्ण परिचय ही। कवि ने अति संक्षेप में' दशरथ और उनके पुत्रों का परिचय दे दिया है परन्तु विश्वामित्र द्वारा देखी गई प्राकृतिक शोभा का कवि ने अत्यन्त विस्तार के साथ वर्णन किया है। सरयू नदी, राजा दशरथ के हाथी, वाग, अवधपुरी, आदि का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । |॒ प्रथम प्रकाश के दो तिहाई भाग में प्राकृतिक वर्णन ही किया शया है| सरयू नदी को देखकर विश्वामित्र कहते हैँ-- मुनि आये सरन् सरित तीर। तहूँ देखे उज्ज्वल अमल नीर॥ नव निरलि निरखि द्युति गति गंभीर | कछ्लु वर्णन लागे सुमति धीर! ॥ नेत्रों द्वारा देखी गई सरजू नदी की शोभा का वर्णन विश्वा- मित्र ने नहीं किया, अपितु ऐसी वाक््यावलियाँ प्रकट कराई गई है. जिनमें विरोधाभास का लालित्य प्रकट किया गया है ;-- अति निपट कुणिल गति यदपि आप | तड देत शुद्ध गति छुव॒त आप ॥ कछु आपुन अरध अधगति चलन्ति | फल पतितन कह ऊरध ऊलन्ति ॥ यद्यपि सरजू नदी स्वयं तो टेढ़ी चाल वाली है परन्तु औरों को पानी छूते ही सूधी गति ( स्वर्गेवास ) देती है। स्वयं तो चीचे ४ ६६ - , » रामचन्द्रिका की ओर चलती है, परन्तु पापियों को ऊँचे जाने का फल देती है ( देवलोक भेजती है )। इस प्रकार के भावामिव्यंजन ही में कवि की रुचि लगी रही | नदी का स्वाभाविक चित्र नहीं अंकित किया गया । , ु बाग के वर्णन में कवि का हृदय उफान को नैसर्गिक सुषमा में लीन नहीं हुआ, वह तो उसके लिये उपमान की राशि संग्रहीत करने में व्यस्त हो जाता है । ; देखि बाग अनुराग उपजिय | बोलत कल ध्वनि कोकिल सज्जिय || राजति रति की सखी सुवेषनि। मनहु वह॒ति मनमथ सन्देशनि ॥ विश्वामित्र के द्वारा प्रकृति का वर्णन कराते समय कवि को यह न भूल जाना चाहिये था कि विश्वामित्र एक विख्यात साधु हैं । उनके द्वारा किया गया झुंगारिक वर्णन लोकाचार की दृष्टि से अरुचिकर ही माना जायगा। “बनवारी' के वर्णन के द्वारा कवि ने बन कन्या का रूप भी उसी पद्म से प्रकट कराया है। यद्यपि उस पद्म का यथार्थ अथ तो फुलवारी के सम्बन्ध ही में: है पर श्लेष के द्वारा जो अथंगर्मित है वह विश्वामित्र के मुख से अशोभन ही प्रतीत होता है। किस पात्र से क्या कहलवाना चाहिये, इसका ध्यान फेशवदास जी ने नहीं रखा है। अथवा आलंकारिक मनोंबृत्ति ने कवि का हृदय इतना अभिभूत कर लिया कि वे पात्र और अपात्र, प्रसंग और अग्रघंग का भी ध्यान न रख सके ३-- ह देखी बनवारी चंचल भारी तद॒पि तपोधन मानी | अति तप्मय लेखी शहथित पेखी जगत दिगंबर जानी || जग यदपि दिगंवर पुष्पवती नर निरखि निरखि मनमोहै। केशव का प्रकृति निरीक्षण ६७ पुन पुष्पवती तन अति श्रति पावन गर्म सहित सब्र सोहे ॥| पुनि गर्म-संयोगी रतिरतख भोगी जगजन लीन कहावे। गुणि जगजन लीना नगर प्रवीना श्रति पति के मन भावे॥ विश्वामित्र को वह वाटिका का एक दिगम्बर ( वस्नररहित ) पुष्पवती ( रजोधर्मा ) बालिका के रूप में दिखलाई देती है। इस प्रकार के विचार विश्वामित्र- के प्रसंग में लाकर कवि ने श्लीलता को आधात पहुँचाया है। अवधपुरी के राजमहलों पर फहराती हुई पताकाएँ कवि को द्रोणाचल पवत की पर उगने वाली दिव्य औषधियाँ सी दिखलाई देती हैं कि छ्ासा भी सास्य मिल जाने पर केशवदास जी ने दूर दूर से उपसानों को खोज निकाला है। जिस विषय का वर्णन किया गया है. उसका यथातथ्य वर्णन न किया जाकर उपसमान और उस्द्रेज्षा की लड़ियाँ पिरोई गई हैं :-- शुभ द्वोण गिरिगण शिखर ऊपर उदित ओऔपधि सी मनौ | बहु वायु बस बारिद वहोरहि अरुक्ति दामिनि युति मनौ | (२) विश्वामित्र आश्रम का वर्णन करते समय कवि ने, अनेकों बृक्षों के नाम गिना दिये हैं। किसी वन का वर्णन करने के लिये यही आवश्यक नहीं है कि केवल वृक्षों के नाम ही उल्लिखित कर दिये जावें, कवि को भौगोलिक स्थितियों का भी ध्यान रखना चाहिये। केशवदास जी के काव्य सिद्धान्ता- जुसार बन-वर्णन में विशिष्ट वृक्षों का नामोल्लेख ही प्रमुख है, भले ही वे इक्त वहाँ उगते भी न हों । (३) राम और लक्ष्मण को लेकर जब विश्वामिन्न जनकपुर में धनुष यज्ञ देखने के लिये आते हूँ, उस असंग में प्रात: कालीन सूर्य का वर्णन किया गया हैं। उपःकालीन सूर्य की. रम्य रश्मियाँ संसार में व्याप्त ढें। उस रसणीय वातावरण का भव्य चित्र कवि ने अक्छित किया है :--- + द्ष्प रामनेन्द्रिका अरुणगात श्रति प्रात पश्चिनी प्राणनाथ मय । मानहु केशवदास कोकनद् कोक प्रेममय ॥ परिपूरण उिन्दूर पूर कैघों मद्जल घट। किधों शक्र को छ्र मत्यौ माणिक मयूख पट ॥ सूर्य के वाह्म रूप को चित्रित करते हुए कवि ने उसके सोन्द््य से अभिभूत हृदय की सुकुमार भावना को भी प्रकट किया है| लेकिन वर्ण साम्य की भावना से पराभूत होकर कवि ने उसे रक्त भरा खप्पर समझ लिया :--- | के श्रोणित कलित कपाल यह कित कापालिक काल को, सूर्य को कापालिक का खून भरा खप्पर कह देने से पू् में जिस मनोज्ञता के साथ सूर्य का वर्णन किया गया है उसमें बढ़ा विक्षेप हो जाता है; सुन्दर चित्रों के साथ बुरे चित्र इतनी अचुरता के साथ आ गये हैं. जिनके कारण सुन्दर दृश्य भी हृदय को आक्ृष्ट नहीं कर पाते । जनकपुर के सरोवरों का कवि वर्णन करना चाहता है. किन्तु » बह उसी दोहे में श्लेष के द्वारा एक पूर्णयोवना सौमाग्यवती ख्री का भाव भी आरोपित कर देता है । इससे प्रकृति निरूपण में बड़ी वाधा पड़ जाती है। सभज्ञ श्लेष के द्वारा दो अर्थ लगाने में बुद्धि को व्यायाम करना पड़ता है :-- तिन नगरी तिन नागरी प्रति पद हंसक दीन | जलन हार शोमित न जहेँ प्रगयट पयोधर पीन ॥ ५ ४). पंचचटी में जब राम सीता और लक्ष्मण पहुँचे तो वहाँ की आक्ृतिक सुन्दरता का कवि वर्णन करता है। वहाँ चृत्त फूल और फल से लदे हुए हैं, कोयल सुन्दर स्वर में गा रही है, मोर नाच रहे हैं, शारिका और तोते भी कल्रव कर रहे हैं :-- केशव का प्रकृति निरीक्षण ६ फल फूलन पूरे, तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरबव बोलें | अति मच मयूरी, पिय रसपूरी बन बन प्रति नाचति डोलेँ ॥ किन्तु पंचवटी के वास्तविक चित्रण की ओर कवि का ध्यान अधिक देर तक नहीं रहा । शब्दों की करामात दिखाने ओर अलुप्रास व यमक अलंकार की छुटा दिखाने के लिये उसने उप्त पंचव्रटों को “घूजेदी” का रूप ग्रदान कर दिया है :-- सच जाति फटी दुःख की दुपटी कपटो न रहे जहँ एक घटी | निघटी रुचि मीच घटी हू घटी जगज्जीव जतीन की छूटी तटी ॥ अधघ ओघ की वेरी कटी त्रिकटी निकटी प्रकटी गुरुशान गठी । चहुँ ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजदो बन पंचवर्टी ॥ (४ ) दण्डकारण्य के चित्रण में कवि ने केवल प्रथम पंक्ति में ही आँखों देखा सा चित्र अक्लित किया है, आगे के पद्म में कषि ने समता रखने वाले रूमक और उल्नेक्षाओं का समा- वेश किया है -- शोभित दंडक की रुचि बनी | मभांतिन भातिन सुन्दर घनी ॥ सेव बड़े दप की जनु लसे | श्री फल भूरि भयो जहँ बसे | दण्डक वन की शोभा कवि को एक बड़े राजा की सेवा के समान लगती है; क्योंकि जेसे राजा की सेवा करने से श्रीफत्न (लद्दभी का वैभव ) ग्राप्त होता है वेसे ही उस बन में श्राफल ( बेल के फलों ) की अधिकता है। वह दसण्डकारण्य कभी तो प्रलयकाल को भयंकर वेला के समान दिखाई देता है और कभी श्री हरि की सूर्ति के समान | शब्द्ू-साम्यता ओर अत्यधिक अलझ्लार-प्रियता के कारण दृश्डक बन का वर्णन एक शब्द जाल ही है। प्राकृतिक और भौगोलिक वशन की ओर कबि का ध्यान नहीं है । अर्जुन और भीम को छ्७' रामचन्द्रिका राम-काल में ला उपस्थित करना इसका द्योतक है कि कवि केवल आलक्कारिक योजना करने ही में लीन है । न तो उसे इस बात की चिन्ता है. कि उसका प्राकृतिक वर्णन सत्यता से कितनी दूर है ओर न वह काल दोष से बचना ही चाहता है। पांडव और भीस शब्दों से श्लेष से ककुभ और अस्लबेतस दो चृच्चों से आशय है और इसी अलझ्लार की योजना के लिये एक युग पीछे होने वाले पात्रों की अवतारणा कर ली गई :--- बेर भयानक सी अति लगे। अक समूह जहाँ जगमगे ॥ मैनन को बहु रूपन असे। श्री हरि की जनु मूरति लसे ॥ पांडव की प्रतिमा सम लेखों | अजुन भीम महामति देखो | (६) गोदावरी नदी के वर्णन में भी केशवदास की विशिष्ट, अलकझूारों को समाविष्ट करने की रुचि परिलक्षित होती “है। वहाँ न तो बहते- हुए जल का वर्णन है और न तदों की शोभा का निरूपण, विरशेधाभास और उपसा आदि अलक्रों का ही प्रयोग है | रीति मनो अविवेक की थापी। साधु नि की भत्ति पावद पापी ॥ कंजन की सति सी बड़ भागी | श्री हरि सम्दिर सों श्रभुरागी ॥ निपट पतिबरत घरिणी | मग जन को सुख करियी।॥। विपमय यद्द गोदावरी, अ्रमृतनि के फल देति। केशव जीवन हारु को दुःख अशेष इरि लेति ॥ केशव का प्रकृति निरीक्षण ७९ गोदावरी नदी के जल का पान करने से पापी भी मोक्ष को श्राप्त करते हैं, अतः इसने अविवेक की सी रीति चलाई है। जिस श्रकार ब्रह्मा जी की मति श्री हरि में अज्ुरक्त रहती है उसी प्रकार यह गोदावरी भी सब को वेकुठ भेजा करती हे। समुद्र ( पति ) की सेवा करती हुईं रास्ता चलने वाले लोगों को सुख देती है। नदी की आकृतिक छटा का लेशमात्र भी वर्णन नहीं हे। केवल अलक्षारों की माला गूँथी गई है। (७) पम्पासर का वर्णेन करते समय वहाँ उगने वाले कसल ओर डसके ऊपर मण्डराने वाले भौंरों का भी वर्णन किया है, लेकिन उस प्रसह्ध भें विष्णु को ब्रह्मा के सिर पर बिठा दिया है । सुन्दर सेत सरोरुह में कर हाथक द्वाव्क की दुति कोहे। तापर भौंर भलो मनरोचन लोक विल्ञोचन की रुचि रोहै |। देखि दई उपमा जल देविन दीरध देवन के मन मोहे। केशव केशवराय म्नों कमलासन के सिर ऊपर सोह॥ कमल के सुन्दर मकरन्द से मत्त होकर अ्रमर उसी के ऊपर मंडरा रहा है । कवि का हृदय उस दृश्य की सुन्दरता में किखित् मात्र भी लीन न हुआ अत्युत एक ऐसी उत्प्रे्ञा की जिस पर विश्वास करना कठिन है । न तो कवि ले ही ब्रह्मा और विष्सु को देखा ओऔर न किसी अन्य पुण्यात्मा ही ने जो यह घोषित करने की क्षमता रखता कि ब्रह्मा का वर्ण पीला है और बिष्यु का वर्ण काला है। केवल पौराणिक वार्ताओं के आधार पर काव्य में ऐसे रूप रखना स्प्रहणीय नहीं कहा जा सकता | (८) सीता-हरण के उपरान्त वर्षा और शरद ऊ़तुएँ आई। आदि कवि वाल्सीकि ने अवन्ध काव्य रचते हुए भी इन ऋतुओं में होने वाले प्राकृतिक परिव्ततेनों का सजीव चित्रण किया हे। ् रे “ शमचन्द्रिका कहीं भी ऐसी बात प्रकट नहीं की गई जिससे वर्णन की स्वॉभाविकता नष्ट हुई हो। तुलसीदास जी ने भी यही प्रसंग रखा है लेकिन कवि की उपदेशात्मक सनोचृत्ति, ने प्रकृति का स्वच्छन्द चित्रण नहीं होने दिया है। चौपाई के भ्रत्येक चरण के पूवाद्धे भें वर्षा-बर्णन है और उत्तरा् में एक सात्विक उपदेश है। केशवदास का अलंकार एवं बैमव-सम्पन्न हृदय वर्षा और शरद को भी उसी रूप में देखना चाहता थॉ। वर्षा-बर्शन की प्रारम्भिक पंक्तियों में कवि ने जिस प्रकार के भाव अकट किये हैं, उनका निवोह वह आगे नहीं कर सका । देखि राम वर्षा ऋतु आई। रोम रोम बहुधा दुखदाई | अस-पास तम को छुवि छाई । राति दस कछु जानि न जाई ॥ मन्द मन्द घुनि सों घन गाजै । दूर तार जनुआवम्म बाजे ॥ ठौर ठौर चपला चमके यों । इन्द्र लोक तिय नाच ति है ज्यों ॥ वर्षा को कभी तो फचि ने अन्रि ऋषि की पत्नी के रूप में वर्शित किया है और कभी काली के रूप में। अलुसूयथा के गर्भ में जैसे सोम की प्रभा थी बैसे ही वर्षा ऋतु के बादलों में चन्द्रमा छिपी है। जिस प्रकार काली की महिमा मद्दादेव हो जानते हैं. उसी प्रकार इस वर्षा-रव की समस्त महिसा सप समूह जानता है । 'तस्नी यह श्रत्रि ऋषीश्वर की सी | उर में इम चन्द्र प्रमा सम दी सी॥ केशव का प्रकृति निरीक्षण छट्ट वरषा न सुनौ छिलके कल काली । जानत हैं महिमा अहिमाली ॥ श्लेप के आग्रह के कारण वर्षा ऋतु की ग्म्यता को कवि विध्मृत कर देता है और उसका भयग्रद रूप वर्णित कर देता है। वर्षा कवि को कालिका के समान भयंकर प्रतीत होती है । समंग श्लेष द्वारा एक ही छन्द में कवि ने कालिका और वर्षा के रूप को अंकित किया है। वा ऋतु में जो अँघेरा छा जाता है, वह प्रलयकाल की वर्षा में भले ही सहाभयंकर लगे पर साधारणतया बह भीष्म की प्रखर ताप से संतप्त हृदयों को सुखद ही प्रतीत होता है । शब्द-ज्ञान के प्रदर्शन का लोभ 2 कर कवि ने ग्रकृत्ति के सुन्दर पदार्था की रूप-विकृति ही की भौंहँ सुर चाप चारु प्रमुदित पयोघर, भू ख नजराय जोति तडित रलाई है| दूरि करी सुख मुख सुखमा ससी की, नैन अमल कमल दल दलित निकाई है॥ केसौदास प्रत॒ल करेनुका गमन हर, मुकुत सुहंसक सवद सुखढाई है । अम्बर बलित मति सोहे नीलकंठ जू की, कालिका कि वर्पा इरपि द्विय आई है ॥ कालिका पक्ष ओर वर्षा पक्ष दोनों में' सभंग श्तेप द्वारा इस छन्द् का अथ लगाया जाता है। अर्थ लगाने के लिये भोंहे! को भी (भय) है और 'भ् ख नजराय! को भू ( पृथ्वी ) ख' ( आकाश ) 'नजराय' देख पड़ती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि फेशवदास जी ने गोरख धन्धे ही निर्मित किए हैं; इनके वर्शाल में वर्षा का प्रकृत रूप दृष्टिगोचर नहीं होता । ्छु 'रांमचंन्द्रिका (६ ) वर्षा काल की समाप्ति पर शरद का आगमन चर्शित है। यह शरद ऋतु प्रारम्भ से ही कवि को एक स्त्री के रूप में दिखलाई देने लगती है। शरद ऋतु में विकसित होने वाले कुन्द पुष्प केशव को उस स्त्री के श्वेत दाँत से दिखलाई देते हैं, लड़ने वाले भोरें उसके बाल हैं | दन्तावलि कुंद समान गनो, चन्द्रानन कुन्तल भोंर घनो भौहं धनु खंजन नैन मनो, राजीवनि ज्यों पद पानि मनौ । हारावलि नीरज होय रमें, हैं लीन पयोधर अंब्र में कभी शरद ऋतु नारद की बुद्धि सी और कभी पतिद्रता स्त्री ओर कभी राजमहलों में राजकुमारों को जगाने वाली ब्ृद्धा दासी के रूप में दिखलाई देती है। शरद ऋतु में प्रस्कुटित होने वाली चन्द्रमा की शुभ्र ज्योत्स्ना और निरभ्राकाश का कहीं नाम तक नहीं लिया गया। केवल भिन्न-भिन्न रूप उपस्थित करने में ही कवि की बुद्धि लगी रही :-- श्री नारद की दरसे मति सी। लोपे तन ताप अकीरति सी ॥ मानी पतिदेवन की रति सी। सनन््मारग की समझो गति सी ॥ लब्धमण दासी वृद्ध सी, आई सरद सुजाति | मनहु जगावन को हमहिं, बीते बरषा राति॥ (१० ) रामचन्द्र जी जब सेना सहित समुद्र के किनारे पहुँचे तव केशबदास ने समुद्र का वर्णन किया है। इस प्रसंग . में भी पूर्वोक्त भावनाएँ व्यक्त की गयी हैं। यहाँ कवि समुद्र को महादेव के शरीर के रूप में देखता है; कारण यहे है कि महादेव के शरीर में जिस अकार विभूति ( अस्स ) पीयूष ( चन्द्रमा ) फ्ेशव का प्रकृति निरीक्षण जर् आओर विष पाये जाते हैं; उसी भ्रकार समुद्र में भी विभूति ह रत्नादि ), अमृत और विष पाये जाते हैं। यह संमुद्र म्रजापति 'के घर के समान है अथवा यह समुद्र किसी संत का हृदय है। जैसे संत के हृदय में श्री हरि निवास करते हैं वैसे ही इस समुद्र में भी उनका निवास है। अथवा यह कोई नागरिक है. था कोई समुद्र है। | भूति विभूति पियूषहु को विष ईश शरीर कि पाय विमोहे। है किधों केशव कश्यप को घर देव अदेवन को मन मोहे ॥ संत हियी कि बसे हरि संतत शोम अनन्त कहे कवि कोदे। चन्दन नौर तरंग तरंगित नागर कोड कि सागर सौहे || ( १९ ) रावण का सकुल विनाश करके सीता सहित जब श्रीराम अयोध्या को लौठे तब मार्ग में उन्हें त्रिवेशी के दशेन* हुए | इस अवसर पर गंगा की शुम्र वालुका और उसके सरल जल-प्रवाह के वर्णन की ओर कवि का हृदय आक्ृष्ट नहीं होता है भ्रत्युत उसे यह त्रिवेशी राजा भारतवर्ष के मस्तक पर लगे हुए कस्तूरी, चन्दन और केसर के तिलक के समान लगती है। * मद एण मलै घसि कुंकुम नीको, उप भारतखंड दियो जनु टीको | लक्ष्मण ने गंगा का जो वर्णन किया है' उसमें अवश्य ही त्रिवेणी संगस की कुछ छटा प्रकट हुईं है। कवियों ने गंगा, यमुना और सरस्वती के जल में क्रमशः श्वेत, श्याम और लाल वर्ण का होना साना है। इसकी श्वेत श्याम और लाल वर्ण ” हलोरें एक दूसरे पर गिरती हुईं बड़ी सुन्दर लगती हैँ :-- जद '.. शमचन्द्रिका : जमुना को जल रहा फैलि के प्रवाह पर, केशोदास बीच बीच गिरा की गुराई है शोमन शरीर पर कुंकुम विज्लेपन कै, स्थामल दुकूल भीन अलकत भाँई है। ( १२) भरद्वाज ऋषि के आश्रम के वर्णत में सी महादेव आदि का सास्य उपस्थित किए बिना कवि नहीं रहा है :-- भरद्वाज की वादिका राम देखी। महादेव केती बनी चित्त लेखी । ऋषि के आज्रस में कहीं हंस ओर -वेदपाठी शारिकाएँ दिखायी पड़ रही हैं। कहीं बड़े-बड़े हाथी वृत्तों के आलबाल में पानी पी रहे हैं और कहीं बन्दर अन्घे तापसियों को लिए हुए फि९ रहे हैं। आश्रम में हंस ओर हाथी के होने की प्रयोज- नीयता पर सन्देह ही प्रकट किया जा सकता है। फेशवदास . के समय में महन्तों की जमात में हाथी रहते होंगे ओर वही वैभमवशाली रूप इस आश्रम को भी प्रदान किया गया है। यह सब चमत्कारिक ही है। आश्रम की शान्ति का वर्णन सिंहनियों के दूध को मगशावकों को पिलाने, सिह के बच्चों को हाथी के वच्चे से खिंचाने आदि से उतना नहीं होता, जितना आश्रम वासियों की आत्मशान्ति और आश्रम में रहने चाली सहज शान्ति द्वारा प्रकट किया जा सकता है :-- केसौदास मृगन बछेरू चोखें वाघनीन, चाटत सुरभि वाघ बालक बदन है । सिंदनि की सता ऐचे कलम करनि करि, सिंहनि को आसन गयंद को रदन है ॥ केशव का प्रकृति निरीक्षण ७७ फनी के फनन पर नाचत मुंदित मोर, क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है। बानर फिरत डोरे डोरे अन्ध तापसीन, क्ाषि को समाज कियों सिंव को सदन है ।| ऋषियों के आश्रस में शान्ति एवं सात्बिक मनोवृत्ति का सस््वच्छन्द विस्तार होता है। उस पूत वातावरण में हृदय की जघन्य भावना सहज ही में लुप्त हो जाती है । मनुष्य के हृदय में ऐसा परिवतैन प्रदर्शित करना तो युक्ति-युक्त हो सकता है किन्तु सिंह और व्याप्रादि हिंसक पशुओं में उनकी जन्मजात मनोदृत्ति में साधुता का आरोपण चमत्कारपूर्ण भत्ते ही प्रतीत हो उसमें सत्यता ल्लेशसात्र भी न होगी। बिहारी ले भी ऐसा ववमत्कार प्रकट किया है :-- कहलाने एकत बंसत, अह्ि मयूर मूगवाघ | जगत तपो4न सम कियो, दीरघ दाघ निदाघ ॥ (१३ ) तीखवें प्रकाश में बसन््त ऋतु का वर्णन है । वसस्त ऋतु के समागम पर अ्रकृति सें जो रम्य छटा छा जाती है. उसकी ओर कवि का ध्यान यर्त्किचित गया हे, लेकिन उस चर्णन में भी कवि का ध्यान समानता रखने वाले पद़ाथां पर गये विना नहीं रहा है। बसनन््त ऋतु में आम्र मंजरियों से आम का पेड़ ल्द जाता है। लतिकाएँ किशलय ओर पुष्पों से सज ज्ञाती हैं। फूलों का मकरन्द उड़ने लगता है। पत्ाश पुष्प अपूर्वे शोमा के साथ खिल उठता हे । स्वच्छ जल के जलाशय में खिले हुए कमल वड़ी शोभा पाते हूँ। प्रेमी ओर. प्रेमिकाओं के संयोग ओर वियोग की अवस्था में कवियों ने वसन््त ऋतु का क्रमशः सुखद ओर दुखद रूप छ्द *. शरामचन्द्रिका जम॒ना को जल र्ौ फैलि के प्रवाह पर, केशोदास बीच बीच गिरा की ग़ुराई है शोभन शरीर पर कुंकुम विलेपन कै, स्थामल दुकूल सीन अलकत भाई हे। ( ९२) भरद्वाज ऋषि के आश्रम के वर्णन में भी महादेव आदि का सास्य उपस्थित किए बिना कवि नहीं रहा है :-- 'भरद्वान की वाटिका राम देखी। महादेव कैसी बनी चित्त लेखी । ऋषि के आश्रम में कहीं हंस और -वेदपाठी शारिकाएँ दिखायी पड़ रही हैं। कहीं बड़े-बड़े हाथी वृक्षों के आलंबाल में पानी पी रहे हैं और कहीं बन्दर अन्घे तापसियों को लिए हुए फिए रहे हैं। आश्रम में हंस ओर हाथी के होने की प्रयोज- तनीयता पर सन्देह ही प्रकट किया जा सकता है। फेशवदास के समय में महन्तों की जमात में हाथी रहते होंगे और वही वैभवशाली रूप इस आश्रम को भी श्रदान किया गया है। थह सब चमत्कारिक ही है। आश्रम की शान्ति का वर्णन सिंहनियों के दूध को मगशावकों को पिलाने, सिह के बच्चों को हाथी के बच्चे से खिंचाने आदि से उतना नहीं होता, जितना ध्राश्रम वासियों की आत्मशान्ति ओर आश्रम में रहने वाली सहज शान्ति द्वारा प्रकट किया जा सकता है :-- फेसौदास मगन अछेझ चौर्खे वाघनीन, चादत सुरभि बाघ बालक बदन है । सिंदनि की सठा ऐंचे कलम फरनि करि, छिंदनि को आसन गयंद को रदन हैं ॥ केशव का प्रकृति निरीक्षण ७७ फनी के फनन पर नाचत मुद्दित मोर, क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन हे। . बानर फिरत डोरे डोरे अन्ध तापसीन, ऋषि को समाज किचों सिंव को सदन है ॥| ऋषियों के आश्रम में शान्ति एवं सात्विक मनोब्त्ति का स्वच्छन्द॒चिस्तार होता है। उस पूत चातावरण में हृदय की जघन्य भावना सहज ही में लुप्त हो जाती है। मनुष्य के हृदय ' में ऐसा परिवतेन प्रदर्शित करना तो युक्ति-युक्त हो सकता है किन्तु सिंह और व्याप्रादि हिंसक पशुओं में उनकी जन्मजात मनोबृत्ति में साधुता का आरोपण चसस्कारपूर्ण भले ही अतीत दो उसमें सत्यता लेशमात्र भीनच होगी। विहारी ने भी ऐसा वमत्कार प्रकट किया है :-- कहलाने एकव बसत, अहि मयूर मगवाघ। जगत तपोदन सम कियौ, दीरघ दाघ निदाघ ॥ (१३ ) तीसवें प्रकाश में वसन््त ऋतु का वर्णन है। बसनन््त ऋतु के ससागम पर प्रकृत्ति सें जो रम्य छठा छा जाती है डसकी ओर कवि का ध्यान यतल्किचित गया है, लेकिन उस बर्णन में भी कवि का ध्यान समानता रखने वाले पदार्थों पर गये बिना नहीं रहा हे। बसन्त ऋतु में आम्र मंजरियों से आम का पेड़ लद॒ जाता ढै। लतिकाएँ किशलय और पुष्पों से सज जाती हैं।। फूलों का मकरन्द उड़ने लगता है।। पत्लाश पुष्प अपू्वे शोभा के साथ खिल उठता है | स्वच्छ जल के जलाशय में खिले हुए कमल बड़ी शोभा पाते हैं। प्रेमी ओर प्रेमिकाओं के संयोग ओर बियोग की अवस्था सें कवियों ने दसन््त ऋतु का क्रमशः सुखद ओर दुखद रूप ७० :. रामचन्द्रिका, “४ में वर्णन किया है। इस वसन््त बंणुेन में भी वही रूप है। बसनन््त का स्वच्छन्द वर्णत नहीं। विरही ओर विरहिणी को वसन््त ऋतु में जो दुख होता है अथवा संयोग में वही - ऋतु जो सुख देती है उसी का रूप खज्ञारी कवियों ने अंकित किया है। केशवदास ने भी चसन््त को उद्दीपन की सामग्री के रूप में चित्रित किया है :-- देखी बसनन््त ऋतु सुन्दर मोददाय । बौरे रसाल कुल कोमल केलिकाल। मानों अनन्दध्वज राजत श्री विशाल ॥ फूली लवंग लव॒ली लतिका विलोल। भूले जहाँ भ्रमर विश्रम मत्त डोल ॥ बोले सुहंस शुक्र कोकिल केकिराज | मानों वरन्त मठ बोलत युद्ध काज ॥ (१४ ) चन्द्रमा के सौन्दर्य ने कवियों के हृदय को अत्यधिक: आकर्षित किया है। संस्कृति के कवियों ने चन्द्रमा को ही आलम्वन बनाकर इतनी प्रचुर मात्रा में काव्य प्रशायन किया है कि उसने एक स्वतन्त्र साहित्य का रूप धारण कर लिया है। संयोग और वियोगावस्था में व्यक्तियों पर उस चन्द्रमा का जो प्रभाव पड़ता है उसको चित्रित करने में भी कवि पीछे नहीं रहे । कल्पना की मधुर उड़ान के साथ उस अभिव्यंज़ना में अनुभति और दृदय सास्यता का निखराख्य दिखलाई देता है, इसी कारण चन्द्रोपालंभ काव्य हृदय को अधिक आकपक प्रतीत होता 8&। फंशवदास कठुपना प्रधान कृषि चन्द्रमा के सम्बन्ध में कुछ नई सूक और नये उपसान भी अस्तुत किये गये हैं। आकाश में उदित होने बाला श्वेत वर्ण केशव का अकृति निरीक्षण छ8, का गोल आकृति का चन्द्रमा फूल की गेंद डे. जिसे इन्द्राणी ने सूँघकर डाल दिया है। वह कामदेव का सुन्दर दर्पेण है। चन्द्रमा आकाश गंगा में क्रीडा करने वाला हंस है । वह भगवान के हाथ का शंख है :-- फूलन की शुभ गेंद नई है, सूँघि शी जनु डारि दई है । दर्पण सो शशि श्रीरति कोहै, आसन काम महीपत्ति को है ॥ फेन किधों नभ-सिन्धु लसे जू , देवनदी जल इंस बसे जू। शंख किधों इरि के कर स़ोहै, अंवर सागर से निकसोहे।| चन्द्रमा से वर्ण--साम्य रखने वाले पदार्थों को ऐसी प्रगल्मता के साथ उपस्थित किया गया हे कि उसे पढ़कर काव्यानन्द का अलुभव होता है । वह चन्द्रमा मोतियों का एक आभूपण हे जिसे सूर्य की पत्नी रखकर भूल गई है :-- मोतिन को श्रुति भूषण जानो। भूलि गई रवि की तिय मानों ॥ (१५) अयोध्या के राजसिंदासन पर आसीन होने के पश्चात् एक बार सीता ने राम से उस बाग को दिखलाने का आपम्रह किया जिसे सिंदासना रूढ होते समय लगाया गया था। उस वाग में मोर वोल रहे हें, कोयल गा रही है, फूल ओर फलों से आच्छादित बृक्ष शोभायसान हेँं। कवि ने बाग की प्राकृतिक सुपमा का वर्णन उपसान और उल्लेज्ञा से अलंझृत करते हुए किया है! मोर भाटों के समान विरुदावलियाँ गाते 6 शामचन्द्रिका . हैं, और इक्तों से गिरने वाले फूल आनन्द के अभु की भाँति मड़ते हैं ब्रोलत मोर तहाँ सुख संयुत । ज्यों विरदावलि भाटन के सुत ॥ कोमल कोकिल के कुल बोलत। शान कपाट कुची जनु सोलत ॥ फूल तजै बहु इच्चनन को गनु। छोड़त आनन्द ओंसुन को जनु ।। कवि ने कृत्रिम पर्वत और कृत्रिम सरिता का भी चर्णन किया है । प्रायः राज .उ्यात्रों में प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि करने के लिये बनावटी पहाड़ और नदियाँ बना दी जाती थीं । तिनमें इक कृत्रिम पर्वत राजै। मृग पत्चिन की सत्र शोभहि साजै ॥ सरिता तिद्दि में शुभ तीन चली | सिगरी सरितान की शोभदली ॥ रामचन्द्रिका की रचना करते समय केशवदास ने प्राकृतिक स्थलों को समाविष्ट करने का विशेष ध्यान रखा है। प्रकृति का चित्रण काफी विस्तार के साथ किया गया है। कथावस्तु के आनुपातिक विस्तार की ओर कवि का ध्यान नहीं जाता। वह कथावस्तु की तो चलती भर कर देता है' किन्तु उस प्रसंग में अस्तुत की गई प्राकृतिक सामग्री ने उस प्रकाश ( अध्याय ) के अधिकतम कलेबर पर अधिकार कर लिया है। प्रबन्ध काज्य मेंकथा का निरन्तर और अवाब गप्वाह्र करना ही कवि को अभिग्रेत है । श्रसंगानुकूल वर्णनों का केबल उतना ही फेशव का अकृति निरीक्षण पर समावेश किया जा सकता है, जिससे उस कथांश की भन्ोक्षवा मेंवृद्धि हो. जाय । ऐसे प्रसंग आकार में भी इतने सुदीर्घष न हो जायूँ, जिससे मुख्य. कथावस्तु पीछे रह जाय-- उसमें व्याघात पहुँच जाय । राप़चन्द्रिका में इस सिद्धान्त का प्रयोग विलोम ही हुआ है। मुख्य कथा को तो कवि ने थोड़े से शब्दों में श्रकट किया है। और प्राकृतिक वर्णनों को बड़ी व्यापकता के साथ रक्खा है | इन विस्क्ृत प्राकृतिक वर्णनों की वहुलता के कारण मूल कथा के विकास में बढ़ी बाधा आई है कहीं-कहीं तो वह एक दम आछन्न सी हो गयी है। पाठकों को कथा झट्लला वार वार जोड़ने का अयास करना पड़ता है। प्रबन्ध काव्य में प्रकृति का चित्रण किस स्थान पर किस प्रकार से किया जाना चाहिये, इसके लिये कवि को सजग रहने की आवश्यकता है | केशवदास अलंकारवादी कवि थे। राजमप्रासादों में रहते बाली रमसणियाँ, जिस प्रकार अलंकारों से सुसज्जित रहती हैं, उसी भाँति केशव की ग्रकृति नटी भी सदेव अलंकारों से सुशोभित रहती है। कथावस्तु में कवि को अपनी प्रतिभा ओर अरल॑कारप्रियता के ग्रद्शंन का स्थान कम था, इसी लिये उसने स्थान-स्थान पर प्रकृति के चित्रणों को रक््खा है। इन चित्रणों में प्रकृति का रूप तो कम देखने को मिलता है, कवि की कल्पना की सुदूर उड़ान और शब्दों की खिल- बाड़ अवश्य इृषप्टिगोचर होती है | प्रकृति में अनुरक्त होने के लिये जिस हृदय की आवश्यकता है, वह केशब के पास से था। रामचन्द्रिका में समाविष्ट प्रकृति चित्रणों को पढ़कर यही प्रतीत होता है कि कवि का एक विशिष्ट सिद्धान्त था उसी का पालन श्रकृति चित्रण में किया गया ढे। संस्कृत के काव्य- ६ स्र्ा “शमचन्द्रिका शांख्रियों ने विस्तार के साथ ऐसे नियम बना दिये हैं कि प्राकृतिक वर्णनों में किन-किन सामग्रियों का उल्लेख कियां जाना चाहिए | केशवदास के मस्तिष्क में वें ही सामग्रियॉर रटी पड़ी थीं और कवि ने आँख बन्दकर उन्हीं के नाम गिता दिये हैं। बन वर्णन में सभी वृक्षों के नाम गिना देना चाहे वे उस वन में पेदा होते हों या नहीं, यह काज्य-नियम था| केशवदास ने भी इसी परिपाटी का पालन किया है इसी से उनके प्राकृतिक वर्णनों में स्वाभाविकता और सजीवता नहीं है। ये प्रकृति वर्णन प्रकृति से यथातथ्य चित्रण के लिये नहीं किये गये जान पड़ते । रीति काल में अन्य कवियों ने भी काव्य में प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग किया है; किन्तु वहाँ प्रकृति के रूप को अंकित करने का लक्ष्य नहीं है। मकृति तो केवल उद्दीपन की सामभी के रूप ही में स्वीकार की गई हे। उन चमत्क्ृत कर देने वाले वर्णनों को सुनांकर कवि राजदरवारों में 'वबाहवाही' आप्त किया करते थे। यदि प्रकृति का स्वच्छन्द ओर सीधा-सादा वर्णन कर दिया जाता तो उस चमत्कारहीन रचना को राजसभा में कौन साधुवाद देता ? कविता तो धन ओर यश प्राप्ति का साधन बन गई थीं। राजाओं को प्रसन्न करके धन ओर यश प्राप्त करने की अभिलापा की पूर्ति की जा सकती थी ; पर उस विचारी प्रकृति के पास क्या रखा था, और बह कवियों को दे ही कया सकती थी, जो कवि उसकी ओर आकर्षित होते। यही कारण है कि माध्यमिक काल तक प्रकृति का स्वच्छन्द निरूपण न हुआ। केशवदास ने जिस प्रचुरता के साथ प्रकृति के रूपों का समावेश किया है; थदि उस वर्णन को आलम्बन बनाने की प्रवृत्ति भी कवि की होतीं तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि केशवदास हिन्दी के माध्यसिक काल के सर्वप्रथम “प्रकृति के कवि! गिने जाते। परन्तु प्रकृति फेशव का प्रकृति निरीक्षण परे को कवि ने काज्य सिद्धान्तों के चश्मे से देखा था, इसलिये बह प्रकृति का यथातथ्य रूप अंकित न कर सका। वैभव ओर अलंकार के वातावरण में रहने का प्रभाव केशव- दास के काव्य-सिद्धान्तों पर भी पड़ा। पांडित्य और चमत्कार अदर्शेन करने की उनकी मनोबृक्ति थी। इसका परिणाम यह हुआ कि केशव के उन प्राकृतिक वर्णेनों में क्लिष्ट कल्पना शब्द-जाल और अस्वाभाविकता ही दृष्टिगोचर होती है। कवि ने जेसे ही प्रकृति के दृश्य को अंकित करने के लिये लेखनी उठाई कि उसके अलंकारवादी सिद्धान्त ने हृदय को आच्छादित कर लिया है और कवि प्रकृति के रूप को भ्ुुलाकर अलंकारों का समावेश करने में लग जाता है। अलंकार प्रकृति-निरूपण के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करने के लिये नहीं रखे गये अपितु वे साध्य बन गये हैँ और प्रकृति का वर्णन अलंकारों का समावेश किये जाने की दृष्टि से किया गया ही प्रतीत होता है. । कवि यह सोच लेता है कि अमुक वर्णन में अम्ुुक अलंकार का समावेश होना चाहिए और फिर वह उस वर्णन को उसी भाँति से कहना प्रारम्भ करता है | इस मनोवृत्ति के कारण केशव के प्रकृति-चित्र अलंकारों के अनावश्यक बोमे; से दव गये हैं । इन अलंकारों से दवकर प्रक्रिी नटी मसोसकर रह जाती है। उसे अपने पास विज्ञास और. दुःख-दैन्य के प्रदर्शन का अवसर ही नहीं प्राप्त होता । ऋतुओं का वर्णन करते समय केशव ने उन्हें निम्न रूपों में आँका है। (१ ) सिव को समाज किधों केशव वसन््त है। (२) सवर समूह केघों गऔीषम प्रकासु है। (३ ) कालिका कि वरपा हरपि हिय आई है। (४ ) फेशवदास सारदा कि सरद सुहाई हे । ्फ्छ रामघन्द्रिका - (४ )'सीकरतुपार स्वेद सोहत हेमन्त ऋतु, कैधों केशोदास प्रिया ग्रीतम विमुख फी । (.६ ) सिसर की शोभा केधों वारि नारि नागरी | प्रायः आलोचकों ने केशव के प्रकृति-निरीक्षण में वर्णित पदार्थों में कुछ दोषों की उद्भावना की है। विश्वामित्र के तपोवन का वर्णन करते समय केशव ने उस आश्रम से लॉग और इलायची के बृत्ष ल्गवा दिये हैं। एला ललित लवंग संग पुंगी फल सोहे। मगध के बलों में एवं अयोध्या के आस-पास यह, वस्तुएँ नहीं होतीं। यह सच है, किन्तु कवि अणाली के अनुसार वन-वर्णन में इनका समावेश होना अनि वार्य है। आज से लगभग एक हजार वर्ष' पूर्व क्षेमेन्द ने' “कवि रहस्य में लिखा है कि काव्य में कुछ बातें ऐसी होती' हैं जोनतो शास्त्रीय हैं ओर न लौकिक किन्तु अनादि काल से उनका व्यवहार काव्य में कविगण करते आये हैं। उन्हें कवि-समय_ के भीतर रखा जाता है। ये कवि-समय तीन प्रकार के होते हैं । १. असत् का कहलझा। नदियों का वर्णन करते समय उन में कमल होने का वर्णन | बहते हुए जल में कमल उत्पन्न नहीं होता । यद्यपि हंस केवल मानसनोवर में पाये जाते हैं किन्तु अत्येक जल्लाशय के चर्णान, में हंस का वर्णन किया जाना» चाहिये | सभी पव॑तों में स्वर तथा रत्वादि का वर्णन करना. आवश्यक है। २. सत् का न कहना। वसन््त ऋतु में भालती का तथा चन्दन और अशोक के पुष्पों का वर्णन न करना । यद्यपि ये पुष्प चसन््त ऋतु में होते हैं । केशव का प्रकृति निरीक्षण पट. ३. अनियत का नियत करना | सभी जलाशयों तथा नदियों में मगर पाया जाता-है तो सी केवल गंगा के वर्णन में ही उस- का उल्लेख करना। भूजेपत्र सभी पवेतों के बृत्तों से निकल सकता है तो भी उसका वर्णन केवल हिमालय के चर्खन में ही आना चाहिये | कोकिल का शब्द अन्य ऋतुओं में भी सुनाई देता है परन्तु काव्य सें बसन््त के वर्णन सें ही कोयल के शब्द का वर्णन किया जाता है। सयूर अन्य ऋतुओं में भी नाचते हैं । परन्तु वर्षा ही में उनके नृत्य का वर्णन किया जाना चाहिये । काव्य की रचना में केशवदास ने 'कवि-समय की ही रचा की है । कभी-कभी आलोचक कवि की तात्कालीन परिस्थितियों पर ध्यान दिये बिना ही उसकी रचना को भिन््न- भिन्न कसौटियों पर कसते हैं | यह उचित नहीं । यदि वर्तमान युग में कविगण पाश्चात्य साहित्य से स्फूर्ति लेकर प्रकृति की रम्य अलुभूति के चित्र उपस्थित करते हैँ तो उसका यह आशय नहीं कि, हम प्राचीन कवियों के काव्यों में भी उसी शैली को अनिवार्य रूप से भाप्त करें। केशव का अक्ृति निरीक्षण अलंकृत वातावरण से अवश्य परिपूर्ण हे। सूर, तुलसी और जायसी आदि कवियों की अपेक्षा इनमें भावुकता कम हे । परन्तु इन्होंने जिस सिद्धांत के अनुसार प्रकृति का वर्शंन किया है उसी में हमें कविका व्यक्तित्व अंकित मिलता है। आलोचना के वर्तमान सापदण्डों का आरोपण केशव के ऊपर किया जाना समीचीन नहीं है । रस निरूपण प्रबन्ध फाज्य की द्ष्टि से अ्न्थ में शंगार, वीर या शान्त रस का समावेश होना अनियाये है। अन्य रस भी प्रसंगानुकूल प्रयुक्त होते ई किन्तु प्राधान्य उक्त रसों में से ही किसी का होना चाहिये। य्यद ' शमघचन्द्रिका काव्य में रस का विशिष्ट स्थान है | रस उस लोकोतर अतिन्द का नाम है जो किसी भाव के उदयकाल से लेकर उसकी पूर्णावस्था तक उपयुक्त सांगोपांग परिस्थितियों के बीच बिना किसी व्याघात के विद्यमान रहता है। काव्य कला के दो पक्ष हैं--भाव पक्त तथा कला पक्त | कला पक्त का अचुगमन करने वाला कवि अपने हृदय की उद्भूत भावनाओं को आलंकारिक सजावट के साथ प्रकट करता है किन्तु भाव पक्त ( हृदय पक्त ) की प्रबलता जिस कबि में होगी वह अपने हृदय के विचार को स्पष्टता एवं पूणेता के साथ अभिव्यंजित करता है । भाव ही काव्य की अन्तरात्सा है। कवि के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने हृदय के भाव को इस उत्कृष्टता एवं रसणीयता के साथ ग्रकट करे कि पाठक के हृदय में भी बही भाव उद्बुद्ध हो जावें । यदि किसी भाव के सम्प्रेषण सें कवि असफल रहा और काव्य कला के वाह्म पक्त के प्रतिपादन ही में निमग्न हो गया तो उसकी कविता में सजीवता न आ सकेगी । केशवदास जी ने रसों एवं भावों की व्यंजना में सहालुभूति अदर्शित नहीं की । जीवन की व्यापक घटनाओं तथा घात- अतिघातों के निरूपश का प्रबन्ध काव्य में पर्याप्त स्थान होता है. किन्तु केशवदास का निरीक्षण परिमित होने से तथा परिस्थितियों ' के कारण वे जीवन के सिन्न-भिन््त आकषक अंगों को देखना ही न चाहते थे | केशवदास जी द्वारा किये गये वर्णन वस्तु परिगणनशैली पर ही हुए हैँ | वहाँ इस बात का ध्यान किचित् मात्र भी नहीं रखा गया है कि उस प्रसंग में वैसे वर्णन की उपादेयता है भीया नहीं। बनवासी राम से मिलने के लिये भरत जा रहे हैं उस समय शोक-निम॒ज्जित भरत को साधारण वेष-भूषा में राजसी वैभव से चविमुक्त होकर के ही राम से मिलने के लिये जाना चाहिये था, लेकिन वैभव एवं ऐश्वयं के वातावरण केशव का प्रकृति निरीक्षण प्छ में लिप्त रहने वाले केशवदास नें. इस परिस्थिति में भी भरत की सेना का ऐसा जाज्वल्यमान चित्र उपस्थित, किया हे सानो चह आक्रमण करने के लिये सेना को सजाकर जा रहे हों | गजराजनि ऊपर पाखरि सोहे। &ु अति सुन्दर शीख सिरोमणि सोह ॥ ओर ' २ युद्ध को आज भत्य चढ़े घुनि-दु-दुमि को दसहू दिशि छाई " प्रात चली चतुरझ्भध चमू वरणी सो न केशव कैसेहु जाई . श्रोस्वामी तुलसीदास जी ले भी भरत की सेना का ऐसा ही वर्णन फिया है ओर इसी कारण पंचवटी में होने बाली एक भीपण" डुर्घेटना का बड़ी कठिनाई से ही निराकरण हुआ | लक्ष्मण के छदय में भरत की सेना को देखकर सन्देद हुआ और वह भारत को धराशायी करने के लिये उद्यत हो गये। शोक एवं खिन््नता के स्थल पर ऐसे वैभव सम्पन्न वर्णन अनुपयुक्त हीं हैं । * महाकवि भवभूति ने करुण रस की ही अधानता माली है ओर अन्य समस्त रसों का पयवसान इसी एक रस के अन्तर्गत अनुसानित किया है । एकोरस:ः करण एवं निमित्तभेदा, म्दिन: पृथवपथागिवाश्रयते विवर्तान्। एक करुण ही मुख्य रख, निमित भेदसों सोह। पृथक पृथक् परिणाम में, भासत बहुविधि होइ ॥ घुदबुद, भँवर, तरज्ञ जिमि होत प्रतीत अनेक । पै यथार्थ में सर्वान कौ, हेतु रूप जल एक॥ झपें रॉमचन्द्रिको आवर्तबुद्व॒ुदत्तरंगमयान्विकारा, ह नम्मोी यथा सलिलमेव ठु सत्तमग्रम | उतर रामचरित नादक श्रंक ३ छोक ४७ | आचाये केशवदासजी ने रतिभाव के अन्तर्गत ही समस्त रसों को लाने का प्रयास किया है ओर इस प्रकार झूंगार रस की ही महत्व दिया। भिन्न-भिन्न आलम्बनों के द्वारा एक ही समय झंगार और वीर रस की व्यञ्ञना हो सकती है पर एक ही आलम्बन का आश्रय ग्रहण कर लेने पर विरोधी भावों का उत्कषे नहीं हो सकता। केशवदास ने अपने पाण्डित्य के बल पर विरोधी रसों का भी हक समावेश झूँंगार रस के भीतर किया है जिससे न तो रस का ही परिपाक हुआ है और न श्ृंगार रस: को ही वह अतिष्ठा आप्त हुईं जो साहित्य-शाखत्र के अनुसार मिलनी चाहिये थी। 'रसिक प्रिया” में केशवदास ने एक स्थान पर रतिरण की कल्पना की हे। ऐसे वर्शनों में बुद्धि व्यापार भले ही प्रकट किया गया हो लेकिन यह असंग अज्ञपयुक्त ही है। वास्तव में जिस युग ने केशवदास को जन्म दिया और जिस राजसी वातावरण में वे रहे उसकी व्यापक ऊंगारी मनोबृत्ति का प्रबल प्रभाव उन पर पड़ा | सीताजी के सोन्दर्य-वर्णन में कवि ने कलाएच्ष का पूर्ण भ्रतिपादन किया है। बन-गवन के समय सीता जी को देखकर ग्रामीण स्त्रियाँ आपस में उनके मुख का वर्णन कर रही हैं । कोई चन्द्रमा के गुणों को सीता के मुख में समावेश देखकर ,उसे चन्द्रमा के समान समझती है और कोई कमल के गुणों का आरोप करके यह घोषित करती है" कि सीता के मुख की समानता करने के लिये चन्द्र उपयुक्त नहीं है वह तो कमल के समान है ओर एक अन्य स्त्री चन्द्र तथा कमल दोनों को उपसान वाह्म प्रदर्शित करके कहती हँ--- केशव का अति निरीक्षण पड एक कहे अमल कमल मुख सीता व् को, - एक कहे चन्ध समे आनन्द को कन्दरी। होड़ जो कमल तो रयनि में न सकुचे री, चन्द जो तो बापर न होइ दुति मन्द री ॥ बासर ही कपल, रजनि ही में चन्द्र मुख, बासर हू रजनि विराजे जग बन्द री। देखे मुख भावै अनदेखेई कमल चन्द, ताते मुख मुख, सखी, कमंलौ न चन्द री ॥ तुलसीदासजी ने भी चन्द्रमा को सीता के मुख की समता करने के लिए अलुपयुक्त प्रशंच किया है । जन्म ठिन्धु, पुनि चन्धु विष, दिन मलीन सकलंक | सिय मुख समता पाव किमि चन्द वापुरो रंक॥ आंगारिक वर्णनों में केशवदासजी ने कहीं कहीं उपमा तथा उत्प्रेत्ञा की थोजना करते समय स्थिति पर विचार नहीं किया है। सीताजी की दासियों के अंग-प्रत्यंग की शोभा का वर्णन भी कवि ने अति विस्तार से किया है। ग्रवन्ध कवि केवल ऐसे ही विपयों का उल्लेख करेगा जिससे प्रमुख पात्रों के चरित्र-चित्रण में व्याघात न आने पावे अन्य पात्रों का सूक्ष्म वर्शन ही होगा। सीताजी की सखियों के ताटंक का वर्णन करते समय कहा गया है :-- ताटंक जदठित मनियुत बसनन््त | रवि एक चक्र रथ से लसनन््त ताटंक तथा सूर्य के रथ के पहिये में केवल गोल होने का ही साम्य है. अन्यथा सूर्य फे रथ का पहिया कितना ही छोटा क्यों न हो क्षियों के कानों के लिये वड़ा ही होगा। इस प्रकार 5 ह शमचंन्द्रिका' “के साम्य के आधार पर कोई उत्प्रेज्ञा करना केवल “कल्पनामात्र ही है। वहाँ सार्थकता एवं चिताकर्षकता न होगी। नायिंका के कार्नो के ताटंक का वर्णन करते समय बिहारी ने लिखा है कि : ताटंक की यूति ने सूर्य को जीत लिया है इस लिये सूर्य नीचा होकर नायिका के पैरों में आ. पड़ा है और वही नायिका का अनवट (पैर के अँगूठे में पहिनने का एक आभूषण, जो गोल शआरकृति का होता है ) है । सोहत अँगूठा पाइके, अतवहु॒ जस्यो ज़राइ | जीत्यौ तरिवन” द्यति, सुढरि परयौ तरनि* मनु .पाइ ॥ दासियों के अंग अत्यंग पर उपमा उत्प्रेज्ा की लड़ियाँ बाँधीः थाई हैं. पर वह नख-शिख सौंदर्य अलंकार के बोक से दब रहा है। कहीं-कहीं शद्भार के भद्दे चित्र सुन्दर चित्रों में इतने मिश्रित कर दिये गये हैं कि उन्हें पढ़कर सहृदय पाठकों का मन पहिले ही छुब्ध हो जाता है. और वे सुन्दर दृश्यों में सी मग्न नहीं हो पाते | केशवदासजी के समक्ष प्रेम का आदशे ही शायद नीचा था । वे लिखते हैं--- आजु यासों इंसि खेलि बोलि चालि लेहु लाल, काल्हि एक बाल ल्पाऊँ काम की कुमारीसी | राजसी वातावरण में रहने के कारण केशवदास ने खझज्नार अतिरंजित | एः का अतिरंजित एवं नम्न वर्णन किया है। नायिका की कोमलता एवं सौन्दर्य निरूपण में कवि ने लिखा है-- “कचन के भार कुच भारन सकुच भार, लचकि लचकि जात कदटि तट बाल के”? | १, तरिवन“-त्ताटंक २, तरनिन्च्सूय | . केशव का प्रकृति निरीक्षण । इसी भाव को विह्ारीलाल ले प्रकट किया है-- भूषण भार सम्दारिएं, क्यों शरीर सुकुमार। सूधे पाय न धरि सकत, सोमा ही के मार॥ नायिकाओं के शरीर की ऐसी कोमलता अंकित करने में उच्त ऋषियों ने केवल अपने हृदय की श्ंगारिक मनोवृत्ति का दही अधिक परिचय. दिया है, अन्यथा ऐसे कोमल वर्णुनों में रवभा- विकता की कमी ही है। इनके शद्भारिक वर्णनों में सार्मिकता इस कारण और भी न आ सकी कि केशव की दृष्टि क्लिष्ट कल्पना की ओर थी । इनके शंगारिक वनों को हृदयंगम करने में पाठक को बुद्धि की एकाग्रतासे काम लेना पड़ता है, जिसके कारण उन सुकुसार वर्शनों में हृदय नहीं रमने पाता । केशवदासजी ने रामचन्द्रिका में कतिपय स्थानों पर शूद्भार रस का पूर्ण परिपाक किया है । उनमें मानसिक भावनायें भावु- कता के साथ अंकित की गई हैं। ऐसा अतीत होता है. कि उन चर्णोनों के समय केशवदासजी ने अपनी आलक्षारिक मनोचृत्ति को दबाकर हृदय पक्त से द्वी काय लिया है। अशोक वृक्त के नीचे एकाकी और विषादमम्न बैठी हुईं सीता ने जब यह सुद्धा कि रावण आ रहा है तो भय ओर लज्जा के कारण उन्हंनि अपने शरीर को सिकोड़कर और अधोहष्टि करके नेन्नों से अश्रुओं का अ्रवाह् क्रिया। भय और लज्ञा के संयुक्त स्थल पर जैसी दशा एक निराश्रित व्यक्ति की हो सकती है उसका प्रदर्शन क्रेशवदासजी ने अत्यन्त सहृदयतापूर्वेक किया है । तहाँ देव द्वेपी दश्औव आयो, सुन््यो देवि सीता मह्य दुख पायो। घर रामचन्द्रिका सब अंग ले अंग ही में दुरायो, श्रधो दृष्टि के अभ्रु धारा बहायौ ॥ वियोग की उन्मत्त दशा में श्रेमी प्रत्येक व्यक्ति से अपनी प्रिय के सन्देश की आकांक्षा करता है। जड़ पदार्थ भी उसके लिये सजीव हो जाते हैं । हनुमानजी ने जिस समय रामचन्द्र की सुद्रिका को सीता के समक्ष गिरा दिया उस समय सीता- जी उससे रामचन्द्र ओर लक्ष्मण की कुशल क्षेम ही नहीं पूछतीं अपितु यह उपालस्भ करती हैं. कि-- “्रीपुर में चन मध्य हों, तू मण करी अनीति। कह मुंदरी अब तियनि की, को करिहे परतीत ॥ केशवदासजी ने जिस रीतिकालीन परम्परा फा सून्रपात किया उसमें अतिरंजित चित्रों का बन तथा अतिशयोक्ति की इतनी भरमार है कि उसके कारण उन परिस्थितियों के प्रति ' सहालुभूति होने के स्थान में पाठफ़ों को हँसी ही आती है। केशवदास ने राम की वियोगावस्था के अवसर पर इसी परिपाटी का पालन किया है. लेकिन उन्होंने यह ध्यान नहीं दिया कि जिस रामचन्द्र के चरित्र का वे इस कोमलता के साथ चित्रण कर रहे हैं उसमें उन कोमलताओं का आरोपण किया भी जा सकता है अथवा नहीं । राम का चरित्र महान् है। भीषण से भीषण विपत्तियों में भी उनका साहस एवं उत्साह नष्ट नहीं होता । प्रिय पत्नी सीता का वियोग रास के लिये अत्यन्त कष्- प्रद था। लेकिन लोक 'कल्याण के लिये प्रकट होने वाले रास- चन्द्र के मुख से ऐसी उक्ति प्रकट कराना जिनमें रीतिकालीन शज्ञारिक्रता का पूर्ण अस्फुटन है, उचित नहीं । यदि पत्नी के वियोग में राम का शरीर इतना ज्षीण हो जाय कि उनकी मुद्रिका केशव का भकृति निरीक्षण घ्ह् ऋंकण के, स्थान में अयुक्त होने लग जाय तो न तो रामचन्द्रजी अत्यन्व बलशाली शत्रु रावण का पराजय फरके सीता की ही आप्ति कर सकते थे ओर न लोक कल्याण द्वी। सीता के वियोग में रामचन्द्र के लिये प्रकृति के समस्त रमणीय पदार्थ क्लेश- कारक हो जाते हैं। यही नहीं शीतलता प्रदान करने वात्ी वस्तु राम के हृदय को दग्घ दी करती है। आद्भारिक कवियों में अग्रणी बिदहारीलाल ने नायिका विरह में ऐसी ही कामाते भावनायें प्रकट की हैं । चन्द्रमा कीं शीतत्त किरणें उनकी विर- 'हिनी को जलाने चाली ही होती हैं । हों ही वौरी विरह बस, कै बौरौ सब गाँव । कहा जानि ये कहत हैं, ससिद्दि शीतकर नाँव || “रामचन्द्रिकाः में सीता वियोग के स्थल्न पर राम की भी ऐसी द्वी दशा अक्लित की गई है। अं हिमांशु यूर सौ लगे सो बात वज्र सी वहै | दिशा लगे इशानु ज्यों विलेप अद्भः को दहे ॥ विशेष काल रात्रि सो कराल राति मानिये। वियोग सीय कौन काल लोकह्ारि जानिये ॥ २, दीरघ दरीन बसे केशौदास केसरी ज्यों, केसरी को देखि घन करी ज्यों कपत है । बासर की सम्पत्ति उलूक ज्यों न चितवति, चकवा ज्यों चंद चितै चौगुनों चँंपत है ॥ करुणस्थलों के प्रति हृदय में सहानुभूति प्रकट करने के लिये ऊद्दात्मक पद्धति का प्रयोग कविगणों ने किया है। संवेदता की -उद्दीप्ति के लिये कल्पना के मधुर सामव्जस्य से उस भावना का अतिरंजित वर्णन रमणीय हो सकता है; किन्तु सत्यता का घछ रामचन्द्रिका अतिक्रमण करके यदि कोई उक्ति कही जायगी तो करुण स्थक् के प्रति सहालुभूति होने की अपेक्ता हँसी ही आवेगी। बिहारी- लाल की नायिका अपने नाथक के विरह में इतनीं क्ञीणकाय हो गई कि हवा का संचार उसे तिनके की भाँति इधर-उधर उड़ा लेजा रहा है। इत श्रावति चलि जाति उत, चली छ सात क हाथ | चढ़ी हिंडोले सी रहे, लगी उसासन साथ ॥ ऐसे चित्रों में बात की करामात चाहे कितनी ही क्यों न हो किन्तु हृदय को प्रभावित करने वाली ऐसी उत्तियाँ नहीं होतीं। राम काव्य की रचना करने पर भी केशवदास अपने हृदय की शंगारिक भावना को दबा न सके। हनुमान दारा फेंकी हुई मुद्रिका से सीता जब अपने आशणवल्लभ का समाचार पूछती हैं. उस समय हलुमाव ने राम के शरीर के दोव॑ल्य को प्रकट करने में जिस अतिरंजना का प्रयोग किया उसमें स्थाभाविकता नहीं है, रीतिकालीन प्रेमियों को व्यथा के वर्णन में ऐसी उक्ति भले ही कुछ चमत्कार प्रदर्शित कर सकती हो लेकिन राम जैसे पुरु- षार्थी के शरीर को सीता विरह में इतना दुबेल बना देना कि: अँगुली का आभूपण उनकी कलाइयों में आ जाय राम के ग्रशस्त्र चरित्र के विपरीत ही है । ॥ं तुम पूछति कहि मुद्रिके, मौन होत यहि नाम । कड़ने की पदवी दई, तुम बिनु या कह राम ॥ राम का चरित्र अपनी महानता एवं सहनशीलता के लिये आदर्श रहा हे। “उत्तर रामचरित” नाटक में महाकबि भवभूति ने निम्नलिखित पद्म में राम के हृदय की शालीनता एवं गंभी- रता को प्रकट किया हे । केशव का प्रकृतिं निरीक्षण ध्ध मोह दया सुख सम्पदा जनक सुता वर होंहि। प्रजा देतु तिनहु तजत, बिथा न व्यापहि मोहि ॥ ऐसे राम का उक्त कोमलता के साथ निरूपण करना आदशे की दृष्टि से भी उचित नहीं है, लेकिन परिस्थितियों का प्रभाव केशवदास फे हृदय पर इतना अधिक था कि वे उसकी उपेक्षा न कर सके । परिस्थितियों, से ऊँचा उठने की शक्ति बहुत कम व्यक्तियों में ही परिलक्षित होती है। “ंगारिक वर्णन में जो ऊहा- त्मक अंश हैं उन्तको छोड़कर अन्य स्थलों पर केशवदास ने भावु- 'कता का अच्छा परिचय दिया है। उनकी भमनोवृत्ति शंगारिक- होने के कारण हमें रामचन्द्रिका में शद्रारिक वर्णन अधिकः स्थानों पर दृष्टिगोचर होते हैं । ५. केशव का नख-शिख वर्णन केशवदास रीतिकालीन परम्परा के प्रवर्तक और प्रथम आचाये थे। इस युग में कवियों ने अपने आलम्वनों ( नायक ओर नायिकाओं ) के अंग-प्रत्यंग का अत्यन्त व्यापकता- और विस्तार के साथ वर्णन किया है. । रीतिकाल में जो फ्ाव्य प्रशयन हुआ वह विशेषतः मुकक््तक की कोटि का है, अतः उसमें कवि को अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है । प्रबन्ध कवि होते हुए भी आचारये केशव रूप वर्णन को उसी पूर्णता के साथ अक्लित करना चाहते हैं, जिस प्रकार कथाक्रम से मुक्त रहने वाला कवि। केशवदास शैशव के कबि नथे। युवावस्था द्वी उनके लिये जीवन के स्वरणं-विहान के सदश थी। राम और उनके भाइयों का वाल वर्णन न किया जाना इसी मनोभावना का परिचायक है। रामचन्द्र के रूप-वर्णन करने का अवसर केशवदास को उस समय प्राप्त हुआ है, जब राम विवाह- मण्डप के नीचे बैठे हैं। रामके मुख, भौंद, दाँत, शुजा आदि समस्त अंग-प्रत्यंग का कवि ने सुन्दर चर्णन किया है। थह सच है कि इस वर्णन के भीतर भी क॑बि की आलंकारिक मनो- वृत्तिकी मलक दिखलाई देती है। अड्डों की शोभा का वर्णन करने के साथ ही कवि यह भी कथन कर देता है कि राम किस रंग की पाग वाघे हुए हैं :-- केशव का नख-शिख वर्णन ध्ज शंगा जल की पाग, सिर सोहत रघुनाथ | शिव सिर गंगा जल किधों चन्द्र चन्द्रिका साथ ॥ कछु भूकृटि कुटिल सुवेष | श्रति अमल सुमिल सुदेश ॥ सोमन दीरघ बाहु विराजत | देव सिह्दात अ्देव लजावत ॥ राम का रूप वर्णन करते समय कवि ने उत्प्रेक्षा आदि अल॑- कार का भी समावेश किया है :-- ग्रीवा श्रीरघुनाथ की, लखति कंबु वर वेप | साधु मनो वच काय की, मानो लिखी त्रिरेख ॥ रामचन्द्र की ठेढ़ी भोंह का चित्रण करते समय कवि ने विरो- धाभास अलंकार का प्रयोग किया है। राम की भौहें तो कुटिल हैं, लेकिन उसे देखकर सुर और असुर मनुष्यों की शुद्ध गति होती है ( मोक्ष मिलता है ) जद॒पि भ्रकुटि रघुनाथ की कुणिल देखियत ज्योति | तदपि सुराघुर नरन की निरखि शुद्ध गति होति॥ (२) सीता के रूप का वर्णन केशवदास ने विवाह, बन जाते समय ग्रामबंधुओं के द्वारा ओर शूपेणखा के द्वारा कराया है। सीता के सौंदर्य निरूपण में केशवदास ने मर्यादा का पालन किया है। उनके अज्ञ-प्रत्यंग का वशन न करते हुए केशवदास ने प्रतीप अलंकार का समावेश करते हुए सृष्टि के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सुन्दर उपसानों का सीता के समक्ष तुच्छ होना लिखा है। इस कथन से अग्रत्यक्ष रीति से सीता के सौन्दर्य की प्रसिद्धि हो जाती है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी शैली के द्वारा सीता के सौंदये का निरूपण बड़ी मर्यादा के साथ किया है :-- जों छुवि सुधा पर्योनिधि होई । परम रूप मय कच्छुप सोई ॥ शोमा रजु मन्दर सिंयारू। मये पानि पंकन निज मारू ॥ ध्प : शामचन्द्रिका . यहि विधि उपने लच्छि जत्र, सुन्दरता .सुख-मूल-।: तंदपि सकोच समेत कवि, कहृई सीय सम दूलें ॥ ' सीता के स्वरूप वर्णन में केशवदास ने इसी शैली का पालने: किया है। विवाह के अवसर पर सीता का रूप वर्णन करते हुए: कवि ने यह लिखा है कि सीता के सामने दमयन्ती, इन्दुमती. ओर रति कुछ भी नहीं हैं। कामदेव भी सीता के सामने चीणः द्यति लगता है। सीता के सामने देवांगनाएँ भी कुरूप॑ .<ही: लगती हैं. । मर्याद्त शब्दों में सीता के सौन्दर्य की श्रेष्ठता वर्णित की गई हे :-- की है दमयन्ती इन्दुमती रति रातदिन, होंहि न छुच्नीली घन छवि जो,तसिंगारिये | केशब लजात जलजात जात वेद ओप, जातरूप वापुरों त्रिरूप सो निहारिये। मदन निरूपम निरूपन: मिरूप भयो, चनन््द बहुरूप अनुरूप के विचारिये | सीता जी के रूप पर देवता कुरूप कों हैं, े रूप ही के रूपक तो वारि बारि डारिये। राम और सींता के विवाह को देखने वाली सुन्दरियों का भी कवि ने वर्णुन किया है। श्थ्यारिक परिस्थितियों के प्रति केशव: के हृदय में विशेष अनुराग था। उन वर्णनों में कबि की मनो- वृत्ति विशेष रसी है | उन ब्ियों के उज्ज्वल कपोल आरसी से दिखते हैं, भुजाएँ चम्पे की माला के समान हैं। वे इतनी सौंद्य- शालिनी दूँ कि उन्हें अलंकरण की सामग्रियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे इतनी कोमल हैं कि पाँव में सोभाग्य के लिये लगाया गया मदहावर और अद्विया भी उनके लिये भार के समान लगती ई :-- केशव का नख-शिख़ वर्णन अमल कपौले आरसी, वाहुइई चम्पकमार । अवलोकने विलोकिए, मगमदमय ,घनसार ॥| गति को भार ,महाउरै, आंग्रि अंग को भार । केशव नख शिख शोभिजै, ठोमाई सिंगार ॥| ध्दध राम और सीता जब लक्ष्मण सहित वन जाते समय गाँवों में से जाते हैँ, तव आमवधू सीता को देखकर उसके रूप का वर्णन करती ढूँ । कोई तो सीता के मुख को चन्द्रमा के समान सममती ह। सीता के मुख में वे संच शुण विद्यमान हैं. जो चन्द्रमा में परिज्षक्षित होते हैं :-- वासों म्रग अंक कहें, त्तोट़ों मृगनैनी सब, वह सुधाघर ठहूँ. सधाघर मानिये। वह हिजराज ,त्तरे द्विजराजि राजै, वह कलानिधि हठुहूँ कला कलित बखानिये || रत्नाकर के हैं दोऊ केशव-प्रकाश कर, े अंवर विलास कुवलय हित मानिये। बाॉँके अति सीतकर तुहूँ सीता सीतकर, चन्द्रपा सी चन्द्रमुखी सत्र जग जानिये ॥ जब एक आमीण स्त्री ने सीता के मुख को चन्द्रसा के समान |, कहा तो दूसरी सत्री यह कहती हे कि सीता का मुख चन्द्रमा के , समान नहीं, धल्कि कमल के समान हे । चन्द्रमा में तो कितने ही ” द्वोप हैं वह सीता के मुख की समानता नहीं कर सकता । सीता का मुख तो स्वच्छ और सुन्दर कमल है :-- कलित कलइछ केठ, केठु श्ररि, सेत गात, है « भोग योग को अयोग रोग ही को थल सो | ५०० रामघन्द्रिका पून्यो ई को पूरन पे आन दिन ऊनो ऊनों, छुन छुन छीन होत छीलर के जल सो ॥ चन्द्र सो जों बरनत रामचन्द्र की दोहाई, सोई मतिमन्द कवि केशव मुसल सो। सुन्दर सुवास अर कोमल श्रमल श्रति, साता जू को मुख सखि केवल फमल सों | इसके पश्चात् एक दूसरी स्री कमल और चन्द्रमा को न्यून- ताओं का चर्णंत करते हुए यह सिद्ध कर देती है कि चन्द्रमा ओर कसल सीताजी के मुख की समता नहीं कर सकते । अतः सीताजी के मुख के लिये कोई उपसान प्रस्तुत नहीं किया जा सकता | शूपंणखा जब लक्ष्मण के द्वारा विरूप कर दी जाती है, तब बह प्रतिशोध लेने के लिये रावण के पास जाती है। शूर्पणखा ने सीता के सोन्दर्य का वर्णन किया है । उस वर्णन के द्वारा बह रावण के हृदय में सीताहरण की भावना का वीजारोपण कर देना चाहती हे । इस अवसर पर भी कवि ने पूर्वोक्त शेत्ञी का ही अयोग किया है :-- मय की सुता थों को है, मोहिनी है मोहे मन, आजुलों न सुनी सुतो नैनन निद्ारिये.। देद्द दुति दामिनी हू नेह काम कामिनी हू, एक लॉम ऊपर पुलोंमजा विचारिये ॥ भाग पर कमला सुहाग पर विमला हू, बानी पर बानी केसोदास, सुख कारिये। सात दीप सात लोक सातहू रसातल की, तीयन के गीत सत्र सीता पर वारिये ॥ इस जाज्वल्यमान वर्णन से सीता के वास्तविक सौन्द््य की सहज ही में कल्पना की जा सकती है। सीता के रूप वर्णन में केशव का नख-शिख वर्णन १०१ कवि ने सर्वत्र संयम और मर्यादा का पालन किया है। अंगा- रिक मनोवृत्ति को यहाँ भक्ति भावना ने दवा दिया है ( ३ ) केशवदास ने सीताजी की दासियों के नख-शिख का बड़े “विस्तार के साथ वर्णन किया है। केश से लेकर नख तक के प्रत्येक अंगों का वशणेन क्रिया गया है। सीताजी की दासियों की रूप छुटा संक्तेप ही में वर्शित किया जाना उचित था। प्रवन्ध काव्य में ऐसे साधारण ग्रसंगों को इतना विस्तार देना समीचीन नहीं है। केशवदास की अंगारिक मनोदृत्ति उचित अवसर पाते ही प्रस्फुटित हो जाती है और यदि कथाचवस्तु के साधारण प्रवाह में अवसर न सित्त सका तो वह ऐसे प्रसंगों की उद्धावना कर लेती है जिससे शंगारिक भावना का प्राकख्य हो सके | राम के चरित्र में परसखी सौन्दर्य के लिये कोई स्थान नहीं हे । 'जेहि सपनेहु परनारि न छेरी' वह व्यक्ति दासियों के 'नख-शिख- निरीक्षण! में लीन हो जाय यह असंगति ही है। रासचन्द्रिका के इकतीसवें प्रकाश की कथावस्तु के अनुसार सीता और उसकी सखियों सहित राम वाटिका निरीक्षण के लिये जाते हैं. बहाँ राजसी ठाद छोड़कर साधारण-वेप में छुपकर राम रनिवास की स्त्रियों की बन-क्रीड़ा देखने लगते हैं । चहाँ एक सखा सीता- जी की सखियों के अन्ञ-प्रत्यंग का वर्णन करता है। केशवर्णन-- रामसंग शुक एक प्रवीनों | सौय दासि गुण बर्णुन कीनों ॥ केश पास शुभ स्याम सनेह्दी । दास होतु प्रभु जीव चिदेही ॥ उन दासियों की चोटियाँ सौन्दर्य रूपी राजा की तलबार के समान हैं :-- भाँति भाँति कपरी शुभ देखी | रूप भूष तरवारि विशेषी ॥ ५१०० रामचन्द्रिका पून्यों ई को पूरन पै श्रान दिन ऊनों ऊनों, ॥ छुन छुन छीन होत छीलर के जल सो ॥ चन्द्र सों जों वरनत रामचन्द्र की दोंहाई, सोई मतिमन्द कवि केशव मुतल सों। सुन्दर सुवास अरु कॉमल अमल अति, साता जू को मुख सखि केवल कसल सों। इसके पश्चात् एक दूसरी स्री कमल और चन्द्रमा को न्यून- ताओं का वर्णन करते हुए यह सिद्ध कर देती है कि चन्द्रमा और कमल सीताज़ी के मुख की समता नहीं कर सकते | अतः सीताजी के मुख के लिये कोई उपमान प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । शूपणसा जब लक्ष्मण के द्वारा विरूप कर दी जाती है, तब वह अतिशोध लेने के लिये रावण के पास जाती है.। शूपेणखा ने सीता के सीन्दर्य का वर्णन किया है। उस वर्णन के द्वारा वह रावण के दृदय में सीताहरण की भ्रावता का वीजारोपण कर देना चाहती है| इस अवसर पर भी कवि ने पूर्वाक्त शैली का ही प्रयोग किया है :-- मय की सुता थों को है, मोहिनी है मोहै मन, पख्याजुलों न सुनी सुतो नैनन निद्दारिये,। देह दुति दामिनी हू तेह काम कामिनी हू, एक लॉम ऊपर पुलोंमना विचारिये ॥ भाग पर कमला सुद्दाण पर विमला हू, प्रानी पर बानी केसौदास सुख कारिये। सात दीप सात लोक सातहू रसातल की, तीयन के गीत सत्रे सीता पर बारिये॥ इस जाज्यल्यमान वर्णन से सीता के वास्तविक सौन्दर्य की सहज ही में कल्पना की जा सकती है। सीता के रूप वर्णन में केशव का नख-शिख वर्णन १०१ कवि ने सबंच्र संयम ओर मर्यादा का पालन किया है। झूंगा- रिक मनोवृत्ति को यहाँ भक्ति भावना ने दवा दिया है। (३ ) केशवदास ने सीताजी की दासियों के नख-शिख का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। केश से लेकर नख तक के प्रत्येक अंगों का वर्णन किया गया है। सीताजी की दासियों की रूप छुटा संक्षेप ही में बर्शित किया जाना उचित था | प्रवन्ध काव्य में ऐसे साधारण असंगों को इतना विस्तार देना समीचीन नहीं है| केशवदास की अंगारिक मनोवृतक्ति उचित अवसर पाते ही प्रस्कुटित हो जाती है और यदि कथावस्तु के साधारण प्रवाह में अवसर न मिल सका तो वह ऐसे प्रसंगों की उद्धावना कर लेती है जिससे शूंगारिक भावना का प्राकद्य हो सके । राम के चरित्र में परस्ी सौन्दर्य के लिये कोई स्थान नहीं है। जेहि सपनेहु परनारि न हेरी” वह व्यक्ति दासियों के 'नख-शिख- निरीक्षण” में लीन हो जाय यह असंगति ही है। रामचन्द्रिका के इकत्तीसवें प्रकाश की कथावस्तु के अलुसार सीता और उसकी सखियों सहित राम बाटिका निरीक्षण के लिये जाते हैं. वहाँ राजसी ठाट छोड़कर साधारण वेप में छुपकर राम रनिवास की स्त्रियों की चन-क्रीड़ा देखने लगते हैं । वहाँ एक सखा सीता- जी की सखियों के अन्न-प्रत्यंग का वर्णन करता है। केशवर्शन-- रामसंग शुक एक प्रवीनो | सीय दाछि गुण वर्णन कीनों || केश पास शुभ स्याम सनेह्दी । दास होतु प्रभु जीव विदेही ॥ उन दासियों की चोटियाँ सौन्दर्य रूपी राजा की तलवार के समान हैं :-- भाँति माँति करी शुभ देखी | रूप भूप तरवारि विशेषी ॥ १०२ रामचन्द्रिका इस प्रकार शिरोभूपण, नेन्न, नासिका, ताटंक, दंते और मुख- चास, मुसुकानि और वाणी, अलक, सुख, भ्रीवाभूषण, बाहु, दाथ, कर भूपण, कुच, रोमावलि, कटि, निर्तव, कटि, जंधा, चरण, महा- वर, कंचुकी, सचोज्ञ भूषण, सर्वाज्ञ सौन्दर्य, अद्गच्छटा और अअनूप- मता का विशद्ता और व्यापकता के साथ वर्णन क्रिया गया है :- नेत्र :-- लोचन मनहु मनोभव॒ यन्त्रहि, श्रयुण ऊपर मनोहर मन्त्रद्दि । सुन्दर सुखद सुश्रंजर अंजित, वाण मदन विप सो जनु रंजिते ॥ नासिका :-- छुलद नासिका जग मोहियो | मुक्ताफलीन युक्त सोहियों ॥ कृटि :-- कटि को तत्व न जानिये, सुनि प्रभु चिभुवन राव । जैसे सुनियत जगत के, सत अरु अखत सुभाव ॥ नितस्व, कटि, जघा :-- नितम्ब् विम्ब्र फूल से कटि प्रदेश छीन है । विभूति लूटि ली सबै सुलोकलाज लीन है | अमोल ऊज्रे उठार जंघ युग्म जानिये | मनोज के प्रमोद सों विनोद यन्त्र मानिये॥| केशवदास ते इस प्रकार से रास, सीता और दासियों का नख-शिख निरूपण किया है। राम और सीता के रूप- वर्णन सें तो कवि ने अपनी अलंकार प्रियता के लोभ में, ऋँगारिकता को रोके रक््खा, परन्तु दासियों; का रूप-वर्णन तो खुंगारिक मनोबृत्ति की अभिव्यजना के लिये किया गया ही प्रतीत होता है। राम के प्रशस्त चरित्र और उद्त्त मनोबृत्तियों की अमिट छाप व्यक्तियों के हृदय पर पड़ चुकी है। उसमें हि ह। केशव का नखर्शीख वर्णन रे १०३ विकर्षण करना--चासवामूलक भावनाओं का अनुचित सम्मिश्रण करना--शोभनीय नहीं है। प्रवन्ध की दृष्टि से भी दासियों के इस विस्तृत सौन्दर्य निरूपण के लिये स्थान नहीं है ! यहाँ कवि कथावस्तु को विस्मृत कर देता है । वह स्वयं ही दासियों की अंग- झुति के निरीक्षण में लीन हो जाता है। यद्यपि दासियों का खुपसा निरूपण करके कवि ने यह प्रतिपादित किया हे कि जिस रानी की दासियाँ इतनी सुन्दर हैँ बह स्वयं कितनी सुन्दर होगी ? सीता के सौन्दर्य की महत्ता को इस प्रकार प्रकट कराने में कवि ने मयादा का पालन अवश्य किया है ; लेकिन प्रबन्ध काउय में ऐसे प्रसंगों का समावेश मुख्य कथानक को ध्यान में रख- कर दी किया जाना चाहिये। राम की कथा से ऐसे प्रसंगों का कोई प्रत्यज्ञ अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्ध भी तो नहीं है। केवल अपनी इन्द्रियलिप्सा की पूर्ति के लिये अनजाने ऐसे प्रसंगों को रखकर काव्य की श्रेष्ठता को हानि ही पहुँचाई है। रास और सीता के रूप वर्णन में कवि ने अवश्य ही सुन्दर भावना, शब्द लालित्य और सुरुचि का प्रयोग किया है । करुण रस यद्यपि साहित्य शास्त्रियों ने काव्य को सुखान्त ही माना है । ज्लेकिन करुण स्थलों के प्रति मनुष्य का छद॒य द्रवीभूत होकर अधिक आकर्षित होता है। प्रवन्ध काब्यों में ऐसे प्रसंगों में सानवीय कोमल भावनाओं का संयोजन कुशत्न प्रवन्धकारों ने किया है। राम का जीवन तो आद्योपान्त ही करण भावनाओं का समुच्चय है। राम के जन्म की खुशियाँ अभी समाप्त द्वी हो पाई थीं कि विश्वामित्र राम को यज्ञ रक्षा के काये के लिये ले जाते हैँ। तुलसी- दासजी ने विश्वामित्र की इस प्रार्थना पर कि १०२ '. शामचन्द्रिका इस प्रकार शिरोमूपण, नेत्र, नासिका, ताटंक, दंत और मुख- वास, सुसुकानि और वाणी, अलक, मुख, श्रीवाभूषण, बाहु, हाथ, कर भूषण, कुच, रोमावलि, कटि, नितंव, कटि, लंघा, चरण, महा- ० पौर टः ध्द्धस्ड ओर अनूप: बर, कचुकी, सवोज्ञ भूपण, सर्वाज्ञ सौन्दर्य, अज्ञच्छटा 5 - मता का विशद्ता और व्यापकता के साथ वर्णन किया गया है :- नेत्र :-- लोॉचन मनहु मनोमव अन्त्रहि, श्रुयुग ऊपर मनोहर मन्त्रद्टि | सुन्दर सुखद सुश्रंजर अंजित, वाण मदन पिप सों जनु रंजित || सासिका :-- छुखद नासिका जग मोहियो | मुक्ताफलीन युक्त सोहियों ॥ कंटि :-- ह कटि को तत्व न जानिये, सुनि प्रभ्न॒ चिथ्रुवन राव | जैसे सुनियत ज्ञगठ के, सत अरु असत सुभाव ॥ नितम्ब, कटि, जघा :-- नितम्तर विम्ब फूल से कटि प्रदेश छीन है | विभूति लूटि ली सबै सुलोकलाज लीन है ॥ अमोल ऊजरे उदार जंघ युग्म जानिये। मनोज के प्रमोद सों विनोद यन्त्र भानिये॥ केशवदास ने इस प्रकार से रास, सीता और दासियों का नख-शिख निरूपण किया है। राम और सीता के रूप- वर्णन में तो कवि ने अपनी अलंकार ग्रियता के लोभ में झंगारिकता को, रोके रक्खा, परन्तु दासियों: का रूप-वर्णन तो झुंगारिक मनोवृत्ति की अभिव्यजना. के लिये किया गया ही - प्रतीत होता है। राम के ग्रशस्त चरित्र और उदात्त मनोवृत्तियों * की अंमिट छाप व्यक्तियों के हृदय पर पड़ चुकी है। उसमें केशव का नख-शिंख वर्णन १०३ विकर्षण करना--वासलामूलक भावनाओं का अनुचित सम्मिश्रण करना--शोभनीय नहीं है । प्रवन्ध की दृष्टि से भी दासियों के इस विस्तृत सौन्दर्य निरूपण के लिये स्थान नहीं है | यहाँ कवि कथावस्तु को विस्तृत कर देता है| वह स्वयं ही दासियों की अंग- शुति के निरीक्षण में लीन हो जाता है। यद्यपि दासियों का ख़ुपमा निरूपण करके कवि ने यह प्रतिपादित क्रिया है कि जिस रानी की दासियाँ इतनी सुन्दर हूँ वह स्वयं कितनी सुन्दर होगी ९ सीता के सौन्दर्य की महत्ता को इस प्रकार प्रकट कराने में कवि ने मर्यादा का पालन अवश्य किया है ; लेकिन प्रवन्ध काज्य में ऐसे प्रसंगों का समावेश मुख्य कथानक को ध्यान में रख- कर ही किया जाना चाहिये। राम की कथा से ऐसे प्रसंगों का कोई प्रत्यज्ञ अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्ध भी तो नहीं है। केवल अपनी इन्द्रियलिप्सा की पूर्ति के लिये अनजाने ऐसे असंगों को रखकर काव्य की श्रेष्ठता को हानि ही पहुँचाई है। राम और सीता के रूप वर्णन सें कवि ने अवश्य ही सुन्दर भावना, शब्द् लालित्य और सुरुचि का प्रयोग किया है | करुण रस यद्यपि साहित्य शास्त्रियों ने काव्य को सुखान्त ही माना है | लेकिन करुण स्थलों के प्रति मनुष्य का हृदय द्ववीभूत दीकर अधिक आकर्षित होता है। भ्रवन्ध काब्यों में ऐसे प्रसंगों में मानचीय कोमल भावनाओं का संयोजन कुशल प्रबन्धकारों ने किया हे ! राम का जीवन तो आद्योपान्त ही करूण भावनाओं का समुघय है। रास के जन्म की खुशियाँ अभी समाप्त ही हो पाई थीं कि विश्वामिन्न राम को यज्ञ रक्षा के काये के लिये ले जाते हैँ। ठुलसी- दासजी ने विश्वामित्र की इस प्रार्थना पर कि १० शामचन्द्रिका असुर समूह सतावहि मोही | में दूप सुत याचन आयहुँ तोंद्दी ॥| वृद्धावस्था में राम ओर लक्ष्मण जैसे सुकुमार तथा आज्ञाकारा पुत्रों को दशरथ ने कठिन त्रव और तपस्या के उपरान्त ही पाया था। विश्वामित्र की इस वाणी को सुनकर छुब्घ होकर दशरथ ने छहा--- चौथेपन पायहूँ छुत चारी। दिप्र बचन नहि कहेहु विचारी )) इसके उपरान्त रामके शुभ विवाह का अत्यन्त मांगलिक एवं उल्लासकारी अवसर आता है। इस प्रमोद पूर्ण परिस्थिति केः आनन्द की स्मृति अयोध्यापुरवासियों को भूली भी नथी कि फिर राम बसगसन की अत्यन्त दुखदायी घटना के पश्चात् तो संकटपूर्ण परिस्थितियों का बाहुल्य ही हो जाता है । १. दशरथ मरण, २. रावण द्वारा सीता-का चुराया जाना, ३. लक्ष्मण शक्ति ओर सीतानिर्वासन। इस प्रकार रास के जीवन में कारुणिकः स्थल इतने अधिक हैं, जिनके कारण रास चरित्र सम्बन्धी काव्य में करुण रस का समावेश काव्य शास्त्र की दृष्टि से दी नहीं, कथा की दृष्टि से भी अनिवाये हो गया है। राम के जीवन में हृदय की कोमलता का उद्रेक करने वाली विविध घटनाओं का . समावेश होने पर भी केशवदास ने उन मनोरम स्थलों की या तो पूर्ण उपेक्षा की हे अथवा अति संक्षेप भें उन प्रसंगों का वर्णन कर दिया गया हे । राम वन-गमन की घटना भी केशवदास के चमत्कार-पूर्ण हृदय में कोमल सावनाओं का झुजन न कर सकी | राम के बन जाने के कारण दशरथ कोशिल्या तथा केशव का नख़-शिर्ि वर्णन श्व्ड पुरवासियों को जो असझ्य चेदना हो रही थी तथा इस धर्म संकट में राम का हृदय भी कितना विगलित हो रहा था उसकी ओर केशवदास का ध्यान न गया। इन करुण स्थलों में भी केशवदास ने कल्पना का अनुपयुक्त समावेश किया है। रास- चन्द्र चने जाते समय ग्रामों में से होकर जा रहे हैं बहाँ की जनता--विशेषकर ग्राम वधुएँ--छुकुमार राम, लक्ष्मण तथा सीता को बन की ओर जाते देखकर अत्यन्त दुखित होती हैँ | केशव- दास ने भी रामचन्द्रिका में इस प्रसंग को रक्खा है। लेकिन वहाँ ग्राम चघुओं की सहालुभूति अंकित करने की अपेक्षा केशव- दास ने 'आलंकारिक योजना ही अधिक की है। ग्रामीण स्त्रियों की यह जक्ति | किधों कोऊ ठगह्दो ठगौरी लीन्दे, किधों तुम हरि हर श्री हौ शिवा चाहत फिरत हो। इस स्थल पर वांछनीय तो यह था कि वे स्लियाँ अपने हृदय की सुकुमार मनोदृत्तियों के परिचय के द्वारा केकेई की भत्सेना तथा राजा दशरथ के कार्य का अनोचित्य प्रकट करतीं। बिपद्- ग्रस्त अवस्थाओं में भाग्य को दोष देना तथा विधि की विड- स््वना का उल्लेख किया जाना स्वाभाविक ही हे। केशवदास- जी ने केवल कल्पना के कौशल से राम को ठग का उपमान प्रदर्शित किया है | संभ्रान्त जनों के प्रति श्रद्धालु व्यक्ति इस प्रकार के वचन अकट नहीं करते । प्रिय के बियोग में चिरही की मानसिक दशा अत्यन्त दुय- नीय हो जाती है। वह रृष्टि के समस्त जड़ एवं चेतन पदार्थों से अपने प्रिय के समाचार को पृछता'“है। अशोक वाटिका में हसुमानजी हारा दी गईं रासचन्द्र की अँगूठी जिस समय १०६ 'रामचन्द्रिका सीताजी को प्राप्त होती है उस समय कवि ने उन सावंनाओं का प्रदर्शन नहीं कराया जो प्रिय की वस्तु को देखकर प्रेमी के हृदय में आविर्भूत होती हे । अपितु सन्देहद, उत्मेक्षा, समुच्चय आदि अलंकारों की योजना में केशव की सहानुभूति मानो वह गई है। अपने हृदय की वेदना तथा अपनी कारुखिक परिस्थिति का उल्लेख करने के स्थान में सीताजी उस मुद्रिका को कभी तो सूर्य की किरण समभती हैं. ओर कभी चन्द्रमा की कला । “यह सूर किरण तम दुखहारि | ससिकला कंधों उर सीतकारि ॥ कलि कीरति सी सुभ सहित नाम। के राजश्री यह तजी राम!॥ जिस स्थान पर केशबदासजी ने अलंकारों के परिच्छेद का परित्याग कर दिया है उस समय भावुक परिस्थितियों -के प्रति कवि ले पर्योप्त रूप से सहाडुभूति प्रदर्शित की है। पंचवटी में ऊपर भरत पुरवासियों सह्दित राम से मिलने के लिये जाते हैं. उस समय जब माताओं से रामचन्द्रजी ने पिता दशरथ का कुशल समाचार पूछा उस समय केशवदासजी ने माताओं के मुख से कोई शब्द न प्रकट कराकर केवल उन माताओं के हृदय के शोक को ही प्रकट कराया है.। मातायें रास के उस प्रश्न को सुन- कर क्रमशः रोना प्रारम्भ कर देती हैं । “तत्र पुत्र को सुख जोय | क्रम से उठी सब्र रोय” ॥ यदि शब्दों के द्वारा दुख प्रकट किया जाता तो वह सीमित होता और हृदय की जो व्यथा है डसकी पूर्ण व्यच्जना न हो सकती थी । परन्तु मूक दशा में एकवारगी सब माताओं के रो पड़ने से वेदना की अनुभूति में विद्वति हे । केशव का नख़:शिख वर्णन १०७ - रामचन्द्रिका में करुणा का दूसरा स्थल लक्ष्मण को शक्ति लग जाने फा है। रावण द्वारा अपहृत की गईं सीता की प्राप्ति रास कर ही न सके कि लक्ष्मण के लिये भी प्राण संकट आ उप- स्थित्त होता है। जीवन को विविध कठिनाइयों में रास ने अत्य॑त्त साहस का अदर्शेन किया लेकिन लक्ष्मण जेसे आज्ञाकारी तथा प्रिय भाई को मूच्छित अवस्था में देखकर राम के घैर्य का बाँध द्ूट गया। केशवदासजी ने विना किसी आलंकारिक उक्ति वैचित्रय के फेर में पड़े अत्यन्त सहृदयतापूर्वक राम को उस कारुखिक परिस्थिति की व्यज्ञना की हे । ». लिचुमणय राम जहीं अवलोक्यी । मैनन ते न रह्यौ जल रोक्यो ॥ वारक लक्ष्मण मोहि बिलौकों मोकहँ प्राण चले तजि, रोको ॥ रामचन्द्र अपने श्रिय भाई की इस सूछावस्था में रोते ही नहीं हैं व इस बात को भी प्रकट करते हूँ कि लक्ष्मण की इस अवब- सथा का कारण रामच्न्द्र ही है । लक्ष्मण की साता सुमित्रा ने राम'तथा सीता की शुश्रपा के लिये द्वी जिस प्रिय पुत्र को राजसीय खुखों का परित्याग कराकर सहर्षे बन को भेज दिया बह सीता की आप्ति उद्योग में इस प्रकार सूछित हो गया है। यही कारण है. कि रामचन्द्र यह कहते हैं. चोलि उठो प्रभु को पन पारो | नातरू होत है मो मुख कारो ॥ $» कवि का वर्णन उसी अवस्था में सफल सममा जायगा जब कि चह पाठकों के हृदय में भी चेसी ही भावना को अक्लित करा दे | केवल उन छंंदों में रसों के नामोल्लेख करने से ही उस श्ष्प रामचन्द्रिका रस की अनुभूति नहीं हो सकती। भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारियों के अनुकूल संघटन से ही किसी रस की निष्पत्ति हो सकती है। अलझ्डार शास्त्र के विद्वान होते पर भी केशच- दासजी ने रस के उपादानों की योजना में त्रुटि की हे ओर कहीं कहीं तो उन्होंने रस का नाम भी छन्द् भें समा- विष्ट कर दिया है जिसके कारण उसमें स्वशब्द्वाचकत्व दोष आ गया हे । मिले जाय जननीन सों जबही श्रो रघुराय | करुणा रस अद्भुत भयो मोपै कह्यौ न जाय ॥| यह आवश्यक नहीं है' कि कवि अपने छन्दों में उस रस का नाम भरी प्रकट करे जिसकी निष्पत्ति सें उसने उसकी रचना को है। रस के अज्ज और उपांगों की उपयुक्त योजना से पाठक को स्वयम् यह विदित हो जाना चाहिये कि वह रचना किस रस को लेकर की गई है। यदि उस छुन्द के पढ़ लेने के पश्चात् भी पाठक को यह अनुभव न हो पावे कि उसमें रस कौनसा है तो उस रचना का रचयिता सफल नहीं कहा जा सकता। वस्तु तो वही उत्तम है जो स्वयमेव अपने प्रभाव को प्रकट कर सके, केवल कह देने भर से ही किसी रस का निरूपण नहीं किया जा सकता | करुण स्थलों में फेशवदासजी ने केवल कथा का प्रवाह मात्र ही जारी रखा है उनसें शोक पूर्ण परिस्थितियों का समावेश नहीं है केवल उनका संकेत मात्र ही है। रावण छलपूर्चक सीता को उठा ले जाता हे उस समय का जो चित्रण केशवदासजी ने किया है उसमें उतनी सजीवता नहीं है और न उसमें इतना प्रवेश ही है जिससे सीता के रूदून को सुनकर सुनने वाले के हृदय में रावण के प्रति विद्रोह की भावना जाग्रत हो जावे | तुल्लसीदास- केशब का नख़-शिख चरणन १०६ जी ने सीता के मुख से उस समय' ऐसी कात्तरोक्ति प्रकट कराई है कि लिन््हें सुनकर पक्ती भी प्रभावित हुए और ग्रद्धराज जटायु ने रावण से संग्राम भी किया-- गद्धराज सुनि आरत बानी | रघुकुल तिलक नारि पहिचानी ॥ अधम निशाचर लीन्हे जाई। जिमि मर्लेंच्छु-वश कपिला गाई ॥ ओर सीता के इस करुण-क्रन्दन को सुनकर क्रोधित होकर जटायु रावण को ललकारता है। रेरे दुष्ट ठाह किन होई, निर्मेय चलसि न जानहि मोई | रामचन्द्रिका में सीता-हरण की घटना में केशवदास का हृदय अबुत्त न हुआ | सीता उस भयानक संकट की अवस्था में भी केवल अत्यन्त संक्षेप में ही अपने दुख को प्रकट करती हैं । आख्रर्य तो यह है क्रि जिस रावण ने प्रवश्वनात्मक रूप से सीता का अपहरण किया है उसके लिये भी सीता केवल 'लंकाधिनाथ' शब्द का ही अयोग करती हैं। जिस व्यक्ति से सीता को अत्यधिक आशंका हो और जिसने उसके सुखी जीवन को नष्ट करके प्राण- प्रिय राम से अलग कर दिया हो, उसके लिये केवल संयमित भाषा का ही अयोग कुछ उचित प्रतीत नहीं होता। सीताजी के आुख से रामचन्द्रिका में केवल यह कहलवाया गया है :--- हवा राम ! हवा रमन ! हा रघुनाथ घीर। लझ्डाघिनाथवस जानहु मोहि वीर॥ हा पुत्र लच्मण छुड़ावहु वेगि मोहि। मार्तरंड वंश की सब लाज तोहि ॥ - उचित तो यह था कि इस स्थल पर सीता अपने हृदय के ११० शामचन्द्रिका असीम छुख को प्रकट करके रख देतीं, अपनी निस्सहाय अवस्था का उल्लेख करतीं और रावण की करता का वर्णन करतीं, उसे केवल लक्काधिराज कहकर न रह जातीं। केशवदासजी का जीवन ऐश्वर्य सम्पन्न था लेकिन उनके हृदय में एक वेदना अवश्य अन्तर्निहित थी, जिसकी कसक का अनुभच कवि को होता रहता था । उनकी यह उक्तियाँ | जग महेँ सुख न गनिये, या जग माँहिं है दुख जाल। सुख है कहाँ यहि काल || इसी धारणा की पुष्टि करती है लेकिन अपनी रुचि के अनु- कूल न होने के कारण केशवदास ने करुणा के स्थलों पर अपनी भावुकता, मनोद्त्ति, ज्ञान तथा हृदय की कोमलता का परिचय नहीं दिया है । अन्यथा करुणा की दशाओं का उन्हें वैयक्तिक ज्ञान अवश्य रहा होगा । वीर रस इन्द्रजीत सिंह के द्रवार में रहकर केशवदासजी ने प्रताप, ऐश्वर्य तथा आतंक का भ्रस्यक्षानुभव किया और राजनीति के विपयां में भी भाग लिया था। इसलिये दर्पपूर्ण उक्तियों के वे अभ्यासी थे । इन वर्णानों में केशवदासजी को पर्याप्त सफलता श्राप्त हुई है । प्रतिपादित विपय में जबतक कवि के हृदय का सामंजस्य न हुआ है। तबतक उसके चित्रण में स्वाभाविकता तथा वास्तविकता दृष्टिगोचर न होगी | कल्पना की सहायता से खींचे गये चित्र बुद्धि व्यापार सात्र हैं| वीर रस का पूर्ण परिपाक युद्ध- स्थल पर ही होता है। रामचन्द्रिका में युद्ध के दो अवसर केशव का.नुख़-शिख वर्णेन शहर आये हँ---१. राम और रावण का युद्ध--२. राम की सेना तथा लव कुश का युद्ध । रावश पर आक्रमण करने के दो कारण थे--१. रावण ने सीता का अपहरण किया था और दूसरा ऋषियों की अस्थियों के ढेर को देखकर निशिचरहीन प्रथ्वी करने की राम की प्रतिज्ञा | अत्त: सीता के हरण करने के कारण बह 'राम का व्यक्तिगत शत्रु था तथा ऋषियों, देवताओं तथा त्राक्षणों को क््लेश पहुँचाने के कारण लोक का शत्रु। रामचन्द्र ने समस्त कारये लोकानुरंजन के लिये ही किंये हैं इस कारण सीताहरण का कारण तो गौण ही है। यदि सीताहरण न हुआ होता तो भी रावण का नाश तो अवश्य ही किया जाता । यही कारण है कि रास के विजयी होने पर प्रथ्वी में सबंत्र उल्लास फेल जाता है। देवता भी हपेसे पुष्प वर्षा करने लगते हैं | रामचन्द्रिका में यदि रावण का कोई अपराध है तो सीता का चुराना । सीता के उद्धार के लिये ही यह युद्ध किया गया हे । त्रेल्ोक्य को संकट देने वाले राषण को मारने की दृष्टि से नहीं. युद्ध वर्णन की विशिष्टता हम रामचन्द्रिका में पाते हैं। कुम्मकण, भेघतनाद, सकराक्ष आदि जब युद्धस्थल में प्रवेश करते हैं. उस समय उनकी भ्यंकरता का ऐसा उम्र रूप उपस्थित किया गया हे, जिससे आगे होने वाले भीपण युद्ध का पूर्वाभास हो जाता है। मकराक्ष को रणभूमि में आता हुआ देखकर विभी- घण राम से कहता हे-- कोदंड दवाथ रघुनाथ संभार लीजै, भागे सवै समर यूथप दृष्टि 'कौजे | ११२ रामचन्द्रिका बेटा बलिप्ठ खर कौ मकराक्ष आयी, संहारकाल जनु काल कराल धायौ॥ मकराक्ष के इस वर्णन से ही यह ध्वनित होता है कि मक- राज्ष कितना वीर है. और वह कितने भयंकर युद्ध में श्रवृत्त होगा । मकराक्ष जब युद्ध स्थल पर भेजा जाता है उस समय वह रावण से कहता है कि मेरे सामने तुम्हारे पुत्र भी कुछ नहीं हैं। कुम्मकर्ण को सोने से ही अवकाश नहीं है. और मेघनाद तो साहसहीन ही हे । कहा कुम्मकर्नों कहा इन्द्रजीतो, करे सोइबी वा करे युद्ध भी तौ। सुजौलों जियों हों सदा दास तेरो, सिया को सके ले सुनौ मन्त्र भेरो। इतों राम स्यों बंघु सुग्रीव मारों, अयोध्याहि ले राजधानी सुधारों। रामचन्द्रिका के लव कुश और राम सेना के युद्ध की यह विशेषता है कि उसमें शस्त्रास्त्र प्रहार की अपेक्षा वाक्य रूपी बाणों का प्रहार अधिक है। शत्र॒ुत्न जब लव के ऊपर भ्रह्मर करता है. तब लव ने यह व्यज्ञ किया कि हे शत्रुन्न तुमने कौनसा शत्रु मारा है जिससे यह नाम पड़ा | “कौन शत्रु तू हत्यौ जु नाम शत्रुद्या लियौ” यह प्रवृत्ति लब के स्वभाव की विशेषता है उसने शत्रुओं पर बाण वर्षा ही नहीं की अपितु कटूक्तियों से उनके हृदयों को भी जजेरित किया | ऐसी चुभने वाली बात उसने विभीषण से कही जिसे सुनकर वह समाज में अपने कलंकित मुख को दिखाने का ी साहस न कर सकता था। विभीषण के चरित्र में यह दोष केशव का नख-शिख वर्णन श्श३ दिखलाने का कार्य केशवदासजी ने ही किया है. अन्यथा और दूसरे कवियों ने राम सकक्त होने के कारण इस दोष की ओर लक्ष्य ही नहीं किया। वास्तव में विभीषण के चरित्र की यह बड़ी भारी कमजोरी हे जिसकी ओर केवल भक्त भावना के कारण ध्यान ने देना उचित नहीं हे। केशवदासजी के पात्र राज- नीति पहु हैं और अपने अतिपक्षी की हीनताओं का उन्हें: पूर्ण ज्ञान ग्राप्त है। लव ने युद्धक्षेत्र में आते हुए विभीषण से यह कहां-- आउ विमीषन तू रन दूपन | एक तुंदी कुल को निज मृषन | जूक जुरै जो भगे भय जीके | सत्रुहि आनि मिले तुम नीके॥ देव-बधू जबहीं हरि. ल््याओ। क्यों तबददीं तज़ि ताहि न आयो ॥ को जाने के वार तू कही न है है माय | सोई ते पत्नी करी, सुनि पापिन के राय ॥ सिगरे जग माँक हँसावत है। रघुबंशिन पाप लगावत है॥ घिक तोकहँ तू अ्रजहू जु जिये। खल जाय इलाइल क्यों न पिये ॥ आंगद को भी युद्धस्थल में ऐसे ही वाक्य-चाणों से लव ने स्वागत किया है | अंगद जो तुम पे बल होतो। तो वह सूरज को सुत को दौ॥ ११४ रामचन्द्रिका देखत ही जननी जु तिद्दारी। वा संग सोवत ज्यों वरनारी ॥ लव और छुश ने युद्ध-स्थल्ष पर ही विजय अआप्त नहीं की, बल्कि शास्त्रार्थ में भी विजय आरप्त की । जब भरत ने मुनि बालकों से यह कहा कि तुम तो मुनि बालक हो, तुम्हें घर्मे कार्य में सहा- थता देनी चाहिये, वाधा नहीं। उसके उत्तर में कुश ले यह अमा- खित किया कि हम आयु में छोटे हुए तो कया आत्मा तो अजर अमर है। आत्मा न तो वालक है और न वृद्ध वह तो चिरंतन है। इस प्रकार विद्वत्ता और बुद्धि में भी उन्होंने भरत को पराजित किया :-- भरत २० मुनि बालक हो तुम यश करावो। सुकिधों मख वाजिहि बॉवन धावो | कुश ४ बालक वृद्ध कहो तुम्र काको। देहिन को किधो जीव प्रभा को ॥ है जड़ देह कहे सब कोई। जीव सो बालक वृद्ध न होई॥ जीव जरै न मरे नहिं छीजे। ताकहँ शोक कहा अनब् कीौजे॥ जीवहिं विप्र न क्षत्रिय जाने। केवल ब्रह्म हिये महँ आने ॥ जो तुम देड हमें लघु शिक्षा | तो इम देह तुम्हें इय मिक्षा॥ केशव का नुख-शिख वर्णन ११४ युद्धकालीन परिस्थितियों को केशव ने बड़े कोशल के साथ अंकित किया है। वबोरों के हृदय की मनोदत्ति को भी प्रकट किया है । प्रतिपक्षी द्वारा कही गई एक भी बात सह्य नहीं होती हे. और तत्लुण उसका अनुकूल उत्तर दे दिया जाता है, यह भावना यहाँ परिलक्षित होती है। युद्धस्थल्ष के वर्णन में प्रायः कवि लोग यह प्रदर्शित करते हैँ. कि किस प्रकार अहार किये जा रहे हैँ ओर किस ग्रकार पक्ष तथा विपक्ष के योद्धा घराशायी हो रहे हैँ। केशवदासजी ने इस पद्धति का भी अनुसरण किया: है. लेकिन, केशवदास की सबसे बड़ी विशेषता उनके पात्रों द्वारा विपक्षी के प्रति व्यंग वाणों के प्रयोग में ही है। केशवदासजी का व्यक्तित्व भी ऐसा था जिसमें कि इस प्रकार की उक्तियाँ स्वाभाविक सी प्रतीत होती हूँ । बीर- रस का चित्रण केशवदासजी ने कुशलतापवक किया है । युद्धस्थल पर अपने शत्रु को परास्त करने की भावना ही योधाओं के हृदय में सर्वोपरि होती हे। वहाँ अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रहता। वे तो केवल इसी वात की चिन्ता रखते हैँ. कि कहीं उनका शत्रु जीवित वापिस न चल्ला जाय। लक्ष्मण शक्ति के प्रहार से मूर्डित हो गये थे लेकिन संजीवनी बूटी के उपचार से जब वह उठ खड़े होते दे तव उनके मुख से केवल यही निक- लता है. “लंकेश न जीवत जाहि घरैं?। ' चैसव एवं ग्रताप-चर्णुन के चित्र अंकित करने में भी केशव- दासजी को सफलता प्राप्त हुई हे। रावण महाग्रतापी राजा था। उसके आतंक के प्रदर्शन करने में केशवदासजी ने प्रतिहारी के द्वारा देवताओं को यह आदेश दिलाया हे कि वे इस प्रकार अपने अपने कार्यो का सम्पादन करें जिससे रावण को कहीं क्रोध न हो जावे। यह प्रसिद्ध हे कि ब्रह्मादि देवता भी ११६ रामचन्द्रिका रावण के यहाँ वेद पाठ करने आते थे | उनको वह प्रतिहारी यह आदेश देता है-- पढ़ी विरंचि मौन वेद, जीव सोर छुंडिरे | - कुवेर बेर के कही न जच्छु मीर मणिडिरे ॥ दिनेस जाय दूर बैठ नारदाद संग ही। न बोलु चंद मंदवबुद्धि इन्द्र की सभा नहीं ॥ इसी शैल्ली का प्रयोग केशवदास ने उस स्थल पर भी किया है. जब परशुराम को विवाहोपरान्त लौटती हुई दशरथ की सेना ले देखा। परशुरास के परुष रूप को देखकर मतचाले हाथी भी सतवालापन भूल गये, वीर सिपाहियों ने स्त्रियों जैसे कपड़े पहन लिये ओर कुछ तो हथियारों को दूर फेंककर प्राण ह लेकर भाग रहे हैं। मत दंति अमत है गये, देखि देखि न गज्जहीं । ठौर ठौर सुदेश केशव दुन्दुमी नहिं बजहीं ॥ डार डार इथियार केशव जीव लै ले भजहीं। काटि के तन च्राण एके नारि भेषन सजहीं | यदि अन्य और किसी प्रकार से परशुराम के पौरुष का चित्रण कवि करता तो शायद उसे इतनी सफलता प्राप्त न होती | जिस वीर को देखकर प्रतिपक्षी की सेना में इतनी भगदड़ मच जाय उसका युद्ध कोशल कितना भयंकर न होगा | इस प्रकार की अदूभुत परिस्थितियों के समावेश से केशवदास ने वीररस का अच्छा प्रतिपादन किया है। केशवदास के पात्र वार्तालाप करने में अत्यन्त प्रवीण हैं । उत्ते मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द एक विशेष अभिप्राय को प्रकट करता है। बीररस के वर्णन से आ्राय: केशवदास ने सस्वादों का भी समावेश किया है जिससे केशव का नख़-शिख वर्णन १९७ युद्धस्थल के वे दृश्य स्वाभाविक से अतीत होते, हैं। रणशत्षेत्र में शस्त्रास्त्रों का प्रयोग ही नहीं किया जाता अपितु बीर लोग एक विशेष हुँकार का शब्द करके अपने प्रतिपक्षियों की भर्सना भी करते हैं । रामचन्द्रजी का चरित्र ही ऐसा है कि उसमें शीघ्र क्रोध आ जाने का प्रश्न ही नहीं है लेकिन जब उन्हें क्रोध आ जाता है, उस समय वे भीषण से भीषण कार्य करने के लिये भी भ्रवृत्त होने से नहीं हिचकते। उन्हें मुख्यतः दो अवसरों पर ही क्रोध आया हे एक तो परशुराम संवाद के अवसर पर ओर दूसरा लक्ष्मण की शक्ति लग जाने पर। इन दोलों स्थलों पर केशवदासजी ने वीर रस का अच्छा प्रतिपादन किया है। ॒ हु यद्यपि भाव, विभाव, अज्ुभाव और संचारी के उपयुक्त समावेश पर ही' रंस की निष्पत्ति अबलंबित है, लेकिन वीररस के वर्णन में प्रायः कविगण ओजशुणयुक्त वाक््यों तथा हित्त , चरण ओर दीधघ समासान्त पदावलियों का भी प्रयोग करते हूं। केशवदास ने अपने अन्य ग्रन्थों में छ्वित्त वर्ण चाली शैली का प्रयोग अधिक किया है। रामचन्द्रिका में वीररस के ऐसे स्थल अनेक समाविष्ट हुए हैं जहाँ पर कवि ने ओजपूर्ण वाक््यों का अच्छा प्रयोग किया है । परशुराम जब यह अनुमान लगाते हैं कि शिव के धनुष को रावण ने तोड़ा है तो उस समय वे क्रोधा- वेश में यह कहते हँ-- > “दशुकंठ के कंठन को कठुला | सितकंठ के कंठन को करिहों? ॥ युद्धस्थल्ष का वर्णन कभी-कभी कविगणु नदी का सांगोपांग रूपक वाँधकर भी करते हैं। केशवदास ले भी इस शैत्ञी का पालन किया है । इस श्रोणित की सरिता के किनारे केशवदासजी ने श्श्प . रामचन्द्रिका विशाल्षकाय वीरों के मृत शरीर तथा टूटे हुए रथं दिखाते हैं ॥ उसमें बड़े-बड़े घोड़े श्राह के समान हैँ और ढाल कछुए के समान हैं :-- पुंज कुंजर शुश्र स्यन्दन शोभिजें सुठिशर | ठेल्ि-ठेलि चलने गिरीसनि, पेलि श्रोणित पूर ॥ ग्राह तुझ्ठ तुरद्ध कच्छुप चाद चर्म विशाल | चक्क से रथ चक्र पेरत वृद्ध शुद्ध मराल॥ इस रूपक के द्वारा कवि ने युद्धस्थल की भीपणता तथा उस पर फैले हुए रक्त श्रवाह की प्रभावपूर्ण अभिव्यञ्जना की है। लम्बा सांगरूपक होने पर भी केशवदास ने प्रस्तुत ओर अग्रस्तुत के बीच विम्ब-प्रतिविम्ब भाव की रक्षा की है। अलंकार अलंकार ओर रस संबंधी ग्रन्थों की रचना करके केशवदास ने जिस काव्य परंपरा का श्रतिपादन किया उसका एकमात्र सिद्धान्त कविता में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग करना ही है। यद्यपि कविता की आत्मा भाव पक्ष में ही अन्तर्निहित है, परन्तु उसके वाह्य अंग को यदि उपयुक्त अलंकारों से सज्जित 'करके प्रकट किया जाय तो उस भाव की मनोज्ञता और भी हिगुण्ित की जा सकती है । कविता में अलंकारों का वही स्थान है जो कामिनी के कलित कलेबर को सज्जित करने के लिये आभूषणों का हे । यदि आभूपण इतनी अधिक संख्या में हो जाये कि कामिनी की - साधारण गति भी रुक जाय तो वे एक बंधनमात्र ही होंगे। कविता में भी अलंकार साधन है साध्य नहीं, लेकिन केशवदास की अवृत्ति चमत्कारपूर्ण चर्णनों की ओर अधिक होने के कारण उन्होंने प्रत्येक अ्रसंग पर आलंकारिक योजना की है! । बिना केशव का नख-शिख वर्णन ११६ अलंकार के प्रयोग के कवि एक साधारण वर्णन भी करता उचित नहीं समझता । काव्य में रमणीयता का समावेश करने के लिये क्रेशबदास अलंकारों का व्यवधान आवश्यक समभते थे। इस आलंकारिक ग्रद्धति का प्रयोग केशवदास ने कितने ही स्थलों पर भावोद्वेक के लिये भी किया है। इन स्थलों में इस आलंकारिक योजना से भावोत्कर्प को सहायता ही प्राप्त हुईं है। पंचवरटी में राम का सिलन माताओं से होता है। फेशवदास ने माताओं के उस पचिर प्रतीक्षित मिलन को गाय ओर उसके बढड़े के मिलन की तुलना दी है| बिछुड़े हुए पुत्र से मिलने के लिये माता उत्कंठित होती है। यह गुण मनुष्यों तक ही सीमित नहीं पशुओं में भी यह शुण विद्यमान है। जिस प्रकार एक सद्य: असूता गाय अपने वछड़े से मिलने के लिये दौड़ती हुईं जाती है! उसी प्रकार माताएँ राम से पिल रही हैं। माठ सत्रै मिलिवे कहेँ घाई। ज्यों सुत को सुरमी सुलबाई। संस्कृत में चन्द्र को विषय मानकर जो काव्य की रचना की गई है, वह इतनी है कि वह एक स्व॒तन्त्र साहित्य बन गया है। केशवदास ने भी चन्द्रमा के वर्णन में अपनी कल्पना और अतिभा वल से चन्द्र को भिन्न-भिन्न रूपों में अंकित किया है। केशव ने कुछ तो चिरप्रचलित उपसानों को रखा है; और कुछ उपमान केशव की प्रखर वुद्धि ने स्वयं ढेँढ़ निकाले हैं । कविता में विज्ञान की भाँति यथातथ्य वर्णन नहीं होता | कवि तो कल्पना के सासव्जजस्य से ही किसी विषय को देखता है; यदि उसके वर्शन को देखकर यह कह दिया जावे कि भ्रस्तुत चर्णन से अप्रस्तुत का कोई सम्बन्ध नहीं है, वह तो कोरी कल्पना ही है। हमको कषि की भावना से सहानुभूति रखकर १२० रामचन्द्रिका ही उसके वर्णन को देखना चाहिये, अन्यथा कल्पना मात्र रचना करने का जो दोष केशव पर आरोपित किया जाता है; उससे महाकवि भी नहीं बच सकते। चन्द्र को देखकर कवि वर्णन करता है :-- फूलन की शुभ गेंद नई हे | सूंघि शी जनु डारि दई दे॥ , दर्पण सो ससि श्री रति को है। आसन काम मद्दीपति को है ॥ मोतिन को श्रुतिभूषण जानों | भूलि गई रवि की तिय मानों ॥ अंगद को पितु सो सुनिये जू | सोहत तारहिं सद्ध लिये जू ॥ फैन किधों नभ सिन्धु लसे जू। देव नदी जलहंस बसे जू शंख किधों हरि के कर सोहे। अंतर सागर से निकसो है ॥ केशवदास की यह विशेपता है कि वे प्रकृति फे भिन्न-मिन्न पदार्था में से किसी न किसी को उपसेय की समता के लिये खोज ही निकालते हैं। वर्षा ऋतु में काले-काले बादलों को स्पर्श करती हुई बगलों की पंक्तियाँ उड़ रही हैं। केशवदास की कल्पना-शक्ति ने इस योजना को प्रस्तुत किया कि बादलों ने समुद्र से पानी पीते समय सफेद संखों को भी पी लिया है और अब वे बलपर्वक उत् शंखों को उगल रहे हैं । फ सोहं घनश्यामल घोर घने सोहें तिनमें बक पाँति मने संखावलि पी बहुधा जल सों मानों तिनकों उगिले वल सौं | प्रकृति परिवर्तनशील हे । भिन्न-भिन्न ऋतुओं में आ्रकृतिक पदार्था में भी हेर फेर हो जाता है। यही नहीं दिन और रात भी घटते और बढ़ते रहते हैं। शरद ऋतु में दिन घंटता है. और रात बढ़ती है। प्रकृति की इस क्रिया का आरोप केशवदास ने अत्यन्त केशव का नख-शिख वर्णन १२९ सुन्दरतापूवंक सीताजी के विरह के कारण क्षीण होते हुए शरीर पर किया हे | हलुमान रामचन्द्र से यह कहते हेँ--- प्रति अंग के संग ही दिन नासे | “ निशि सौं मिलि बाढ़ति दीह उसासे ॥| डपसा अलंकार के संयोजन में उपमान के गुण, क्रिया और आकार को जब तक उपमेय के समान न प्रकट किया जावे तब तक उस उपसा में नतो कोई स्थाभाविकता ही होगी और न सौंदर्य की सृष्टि ही। केशवदास ने जिन उपमानों की कल्पना की है वे साधारण कवियों की पहुँच से बहुत परे हैं। लेकिन यह होते हुए भी वे चुद्धि-गम्य हैं. आतः काल में तारिका समूह छिप जाता है। इस असंग की योजना में केशवदास ने यह कल्पना की है कि उपाकाल में रक्त मुख वाला बन्दर गगन रूपी वृत्त पर चढ़ गया है और उसने उस वृतक्त के तारिका रूपी फलों को गिरा दिया है। उपाकाल के रक्तवर्ण सू्थ को बन्द्र की उपमा देकर कवि मे इस प्रसंग को बहुत रोचक बना दिया है। चढ़ी गगन तय धाय, दिनकर बानर अरुण मुख कीन्ही कुक भहराय, सकल तारिका कुछम बिन हनुमान द्वारा आग लगा देने पर स्वण की लंका पिघल गई, है। उसका स्वणं बहकर समुद्र में मिल रहा है। इसी प्रसंग को केशव ने उत्मेज्ता के सहारे इस प्रकार वर्णित किया है कि गंगा को हजार धाराशों में समुद्र से मिलती हुई देख मानो सरस्वती नदी ईष्यों वश असंख्य धाराओं में सुखी होकर समुद्र से मिल रही है। काव्य शात्र में सरस्वती नदी के जल्न का वर्ण पीला - माज़ा गया है।इस कारण इस अलंकार-योजना में रोचकता, वोधगम्यत्ता तथा स्वाभाविकता आ गई है। केशव का नख:शिख वर्णन १५३ केशवदास की खूगारिक सावना की तीत्रत्ा तथा आलंकारिक : प्रयोग की रुचि के कारण कुछ ऐसे स्थल भी रामचन्द्रिका में समाविष्ट हो गये हैं जो च केवल सहृदयों के चित्त को अग्राह्म हैं, अपितु लोक-भर्यादा तथा रस की स्थिति से मी परे हैं। राज दवौर सें रहने बाले कवि को यह भल्ी भाँति विदित रहता है कि राज दरवार की सर्यादा का किस प्रकार पालन करना चाहिये। केशवदास ने भी इस मादा का पालन अपने पात्रों के वार कराया है। अंगद जिस समय रासचन्द्र का दूंत बनकर राचण के द्वार में उपस्थित होता है. उस समय मन्दोदरी के लिये भी उसने दद्वि! शब्द का श्रयोग किया लेकिन जिस समय रावण के यज्ञ को विध्चन्स करने के लिये अह्दद और हनुमान आदि बानर लंका में जाकर घोर उत्पात मचाना प्रारम्भ करते हैं उस समय - » अन्ञद रावण के रनिधास में जाकर मन्दोदरी को पकड़ लेता है। मन्दोदरी के वद्चों की खींचातानी भी अक्भद ने की | उस सम्राज्ञी के कंठ के आभूपण टूट गये और केश बिखर गये। मन्दोदरी की इस कारुणिक स्थिति की ओर केशव का ध्यान नहीं गया , और न उन्होंने भनन््दोदरी के सन्मान की रक्षा की है। लेकित कवि की दृष्टि मन्दोदरी की कठ्चुकि पर अवश्य गिरती है। फटी कंचुकी किंकिनी चार छूटी। पुरी काम की सी मानों रुद्र लूटी ॥ शक्तिशाल्ञी रावण की पत्नी मन्दोदरी की इस दयनीय दशा के भ्रति कवि की सहानुभूति नहीं है। अपनी मश्ागारिक भाषना को प्रकट करने के ०2 लिये उपयुक्त परिस्थिति एवं स्थल देखकर 'केशवदास ने मन्दोंद्री के कंचुकिरहित . उरोजों का इस प्रकार वर्णन किया है-- भर ब्रिन कुकी स्वच्छु बच्चोज राजै। किघों साँचहु श्रीफलै सोम साजै॥ १२४ । रामचन्द्रिका किधों स्वर्ण के कुंभ लावण्य पूरे। वशीकरण के चूर्ण सम्पूर्ण पूरे॥ परिस्थिति तथा पात्र का ध्यान रखते हुए केशवदास ने इस प्रसंग की योजना सामाजिक रुचि के विपरीत ही की है। भयमीत सन्दोदरी के विषाद की ओर कवि का ध्यान नहीं गया | वह तो सन्देह ओर उल्मेक्षा अलंकार के द्वारा करुण स्थल पर भी आऋंगारिक वर्णन की योजता में प्रवृत्त हे। करुणा के स्थल पर ख़गार भाव उपयुक्त भी तो नहीं है। आलंकारिकताके कारण केशव की कविता शब्दों का प्रदर्शिनां सी प्रतीत होती है.। तीन- तीन अर्थ रखने वाले कवितों का श्रयोग किया गया' है इसके कारण इनके काव्य में क्विष्टता आ गई है। प्रसन्न राघव नाटक, हमुमन्ताटक और कादम्बरी आदि की उक्तियों के अनुवाद भी कटे स्थानों पर किये गप हैँ। उपसान के लाने में केशबदासं ने इस वात का भी ध्यान नहीं रखा कि वे वस्तु उस युग में प्राहुभूत हुई भी थीं था नहीं। पंचवटी का वर्णन करते समय श्लेपे अलंकार के विधान के हेतु उन पदार्थों को भी कबविने ला दिया है जो एक युग पश्चात् हुए हँ। और जिनके कारण केशव की रचना में कालदोप आ गया है-- ः पाण्डव की प्रतिमा सम लेखौ | अजुन भीम मद्यामति देखौ | राबण वध हो जाने के उपरान्त श्रीराम ने सीता को लंका से लिया लाने के लिये हनुमान को भेजा। बस और अलंकारों से सज्जित होकर सीता आईं और उस समय ब्राह्मण और देवताओं ने उनका यश-गान किया। तदनन्तर सीता परीक्षार्थ अग्नि के मध्य* बेटी । अभ्नि शिखाओं के बीच बैठी हुईं सीता को कवि उपमा, उत्पेज्षा और सन्देह आदि अलंकारों की योजना करके वर्णित करता है। उस करुण परिस्थिति की ओर कवि का ध्यान नहीं केशव का नख-शिख चरणन १२५ जाता है। लाल अभप्ि और गौर वर्ण सीता से वर्ण साम्य रखने वाल्ले पद्मर्थों को प्रस्तुत किया गया है। अग्नि की गोद में सीता .[ ऐसी प्रतीत होती हैं. मानों पिता की गोद में पवित्रा चरणी कन्या हो। सीताजी महादेव के नेत्र की पुतली हैं. या रणभूमि की चंडिका हैं. या मानों रत्न सिहासन पर चैठी हुई इन्द्राणी हैं या सरस्वती नदी के जलसमूह में कोई जल देवी हैं या उसी में कोई , सुन्दर कमल खिला हुआ है, या कमल के नील कोप पर लक्ष्मी जी बैठी शोभा दे रही हैँ :-- पिता अंक ज्यों कन््यका शुभ्र गीता । लसे अग्नि के अ्रंक त्यों शुद्ध सीता ॥ मद्दादेव के नेत्र की प्रुन्रिका-सी। कि संग्राम के भूमि में चस्िडिका-सी ॥ मनों रत्न तिंदासनस्था सची हे । किधों रागिनी राग पूरे रची है ॥ गिरापूर में है पयोदेवता ठी। किधों कंज की मंजु शोमा प्रकासी | किधों पद्म ही में सिफाकन्द सोहे। किधों पञ्न के कोप प्मा विमोंहे॥ साहश्यमूलक उपमानों की खोज ही में कवि की बुद्धि लगी रही। उसने असंगानुकूल भावनाओं का कहीं भी चित्रण नहीं किया | अभ्रिशिखा के घीच चेठी हुईं सीता सिन्दूर पर्वत के अम्न- भाग में चेठी हुई सिद्धकन्या के समाव दिखलाई देती हैँ. या सूर्य मण्डल में कमलिनी हे, या सुन्दर सरस्वत्ती ही कमल पर बेदी हुई है । -. कि सिन्दूर शैलाग्र में सिद्ध कन्या । किधों पद्मिती सर संयुक्त घन्या॥ १२६ रामचन्द्रिका सरोजासना है. मनो चार वानी। जपा पुष्प के बीच बैठी भवानी ॥ आरक्त पत्रा सुभ चित्र पुन्री। मनो विराजै अति चारु वेषा।| सम्पूर्ण सिन्दूर प्रभा बसे थों। गणेश भालस्थल चन्द्ररेखा ॥ लाल-लाल आग की लपटों में सीता ऐसी ग्रतीत होती हैं मानों कोई चित्र पुतल्ली लाल बेल-बूटों के मध्य सुन्दर भेष से सजाई गई हो या सस्पूर्ण सिन्दूर की प्रभा में गणेश के भाल पए चन्द्र-' कला है । अलड्जारों की योजना करने में ही कवि लीन हैं। कथा प्रवाह की ओर उसका ध्यान नहीं है। इन पंक्तियों में केवल शब्द साम्य के आधार पर ही अलझ्लार की योजना की गईं है अन्यथा प्रकृति के वर्णन के साथ कवि ने कोई सहालुभूति प्रकट नहीं की हे । ऐसे स्थत्न रामचन्द्रिका में कितने ही हैं जहाँ केशवदास की आलंकारिक योजना ने अभिभूत सा कर दियां है। वे एक उत्प्रेज्ञा के पश्चात् कितनी ही उत्प्रेज्षा, सन्देह आदि अलंकार को समाविष्ट करने में तो प्रवृत्त हो जाते हैं. लेकिन विपय वर्णन की ओर उनका ध्यान नहीं रहता | शक्तिशाली रावण को परास्त करने के पश्चात् विछुड़ी हुई सीता रामचन्द्रजी को प्राप्त होती हैं । यह स्वाभाविक ही है कि समस्त बन्दर सेना तथा विभीपण भी इस मिलन से उल्लसित हुए हों, लेकिन उन सर्वों के आश्चर्य का चारापार उस समय न रहा होगा जब कि राम सीता को . अंगीकार न करते हुए उसे अप्नि परीक्षा देने का आदेश देते हैं । केशवदास ने अप्नि को विकराल शिखाओं के मध्य बैठी हुई सीता का वणुन उत्प्रेज्षा के द्वारा किया हे ।|लेकिन कवि ने उस अवसर पर उपत्थित व्यक्तियों के हृदय में प्रवाहित हो रही श्२७ः विचारधारा लद्ठमरण“ के बला में हो रहे, तथा रास के हृदय की करुणा की-ओोर-कौई: संकेत नही उपभेय*की प्रतिष्ठा केअर्लुकूल उपसान की योजना करने का ध्यान केशवदास को नहीं रहा। केवल कल्पना की ग्रावल्तया में इतने पड़ जाते हैं कि पात्र की प्रतिष्ठा तथा उसकी स्थित्ति का ध्यान उन्हें नहाँ रहा। प्रवीण॒राय पातुरी को समा के रूप में अंकित करना लोक , रुचि के विपरीत होने पर भी केशवदास ने उसे 'वीणा-पुस्तक-घारिणी” कहकर प्रशंसित किया है। हनुमान सीता के समक्ष राम की दशा का वर्णन इस प्रकार करते हैँ-- “वबासर की सम्पत्ति उलूक ज्यों न चितवत'” इस प्रकार राम की उपमा उल्लू से दी है। अलंकार की दृष्टि से इस उपमा में भत्ते ही कोई दोष न हो, [कन्तु इसमें ओऔचित्य' की मात्रा कम ही है। इस प्रसज्ञ में बहुधा यह समाधान प्रस्तुत किया जाता हे कि इस चरण में राम की उपमा उल्लू से देने में इस पत्ती से तात्पये नहीं है, अपितु उसके देखने की क्रिया से हे, लेकिन भगवान रास की समता में उल्लू शब्द का लाना भद्गता एवं शिष्टाचार की सीमा का अत्तिक्रमण ही है | प्रकृति फे अन्य पदार्थ भी ऐसे हैँ जो वासर की सम्पत्ति को नहीं देखते | उनमें से किसी को वे इस उपमान के रूप में रख सकते थे। इसी प्रकार रावण की भत्सेना करते समय सीता के झुख से यह कहलाया गया है-- “विडकन घर घरे भक्त क्यों बाज जीवे” पवचित्र-हृदया सीता रावण द्वाग प्रस्तुत किये गये प्रलोभनों में नहीं आ सकती थीं | इसके प्रतिपादन के लिये केशवदास ने यह - प्रदर्शित किया हे कि बाज पक्षी अपदार्थ वस्तुओं का जिस अकार सेवन नहीं करता उसी अकार सीता रावण के उन श्श्द रामचन्द्रिका दस्तुओं का सेवन करके जीवित नहीं रह सकतीं, -यही नहीं वे उसके उपभोग की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। क्रिया की दृष्टि से बाज का उपमान ठीक है लेकिन सीता के वर्णोन में बाज पक्ती का लाना कवि के हृदय की मंक्ति-भावता की कमी का ही शतक है | कवि प्रवीणराय को वीणापुस्तकथारिणी के रूप में देख सकता है ओर अग्नि की शिखाओं से घिरे हुए राक्सगण उसे कामदेव के समान सुन्दर प्रतीत हो सकते हैं. लेकिन जहाँ जगत्साता सीता का बणुंन आया वहाँ केशव की कल्पना में केवल वाज पक्षी ही आता है। केशव का ध्यान अलंकारों के विधानों में ही प्रधानतः रहा है उन्होंने उन्तकी उपयुक्तता पर विचार नहीं किया। पात्रों की मयादा तथा उत्तकी स्थिति फो ध्यान में रखकंर ही उनके अनुकूल पदार्था को उनकी तुलना में उप- स्थित करना चाहिए अन्यथा वे अलंकार अलंकार न रहकर शब्दों की खिलवाड़ सात्र रह जायँगे। उनके कारण न तो विषय की रमणीयता की वृद्धि होगी और न काव्य में चमत्कार ही आवेगा । केशवदास के अलंकारों में सहृदयता चाहे दृष्टिगोचर न होती हो परन्तु यह मानना पड़ेगा कि उनकी कल्पना शक्ति अत्यन्त तीत्र थी । एक एक दृश्य को लेकर केशवदास ने उत्म्रेज्ञा, सन्देह ओर रुपक की लड़ियाँ बाँध दी हैं। 'रामचन्द्रिका' में कति- पय स्थलों पर केशवदास ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति, बारीक सूक एवं प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। दशरथ के महलों पर फहराती हुई ध्वज़ा, वर्षा, शरद, भरत की सेना, लंका दाह, चन्द्र एवं सूे बन और सीता अग्नि प्रवेश के अवसर पर केशवदास निरस्तर आलंकारिक योजना करने में थकते नहीं ह्ं। एक के पश्चात् दूसरा उपसान उपस्थित कर दिया गया है। इन क्रेशव का नख-शिख वर्णन १२६ वर्णोनों में केशवदास ने कुछ ऐसी कल्पनायें भी की हैं. जिन्हें बहुत दूर की सूफ कहा जा सकता है। वहाँ तक साधारण कवि की बुद्धि की पहुँच नहीं हो सकती । जहाँ कोई आलंकारिक थोजना की ही नहीं जा सकती वहाँ पर भी केशवदास ने उत्कृष्ट कल्पना के सहारे सुन्दर अलंकारों की योजना की है । केशवदास किसी न किसी स्थान से वन के अनुरूप उत्प्रन्षा की सामग्री खोज ही निकालते हैं जैसे-- सुच्दर सेत सरोझ्द में करहाटक ह्वाटक की दुति को है। तापर भौर मलौ मन रोचन लोक बिलोचन की रुचि रोहे ॥ देखि दई उपमा जलदेविन दीरध देविन के मन मोदे। केशव केसवराय मनोौ कमलासन के सिर ऊपर सोहे ॥ विष्शु के मस्तक पर , ब्रह्मा के बैठने की कल्पना सरलता- पूर्वक नहीं की जा सकती, पुराणों के अनुसार विष्णु की नाभि से जो कमल उत्पन्न हुआ वह त्रह्माजी का आसन है। केवल इसी आधार पर केशवदास ने इस अलंकार की योजना की है । अपने प्रतिभा बल से केशवदास ने प्रत्येक परिस्थितियों में उप- मान खोज ही निकाले हैं, भले ही उनमें वोध-गम्यता कस हो | संस्कृत के प्रकांड विद्वान होने के कारण संस्कृत के कवियों की आअआलंकारिक योजना का उनके ऊपर प्रभाव था। काव्य में अप्र- युक्त होने के कारण केशवदास के अलंकारों में कुछ दुरूहता आ गई है। कारण यह है कि एक तो उनकी कल्पना ही गम्भीर और विस्तृत है तथा दूसरे जिन शब्दों का अ्रयोग कवि से किया है वें पारिडित्यपूर्ण हैं | कतिपय साहित्य शाख्तरियों का यह मत है कि शब्दालंकार क्ेवल भाषा के सौन्दर्य की दृद्धि करते हैँ, भावोत्कपे में दे सहायक नहीं होते। यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। भाषा की पु है १३० रामचन्द्रिका सहायता से भाव अपनी सत्ता प्रकट करता है। भापा जितनी परिसार्जित, सुन्दर और काव्योचित होगी, भाव की गंभीरता में चह उतनी ही सहायक होगी । अलंकार भाषा के सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं इसलिये काव्य में इनका विशेष स्थान है। जिस * स्वाभाविक रीति से अल्लंकारों का प्रयोग तुलसीदास ने किया है. बैसा केशव नहीं कर पाये हैं। केशवदास के काव्य में आलंकारिक योजना की प्रचुरता हमें भले ही दृष्टिगोचर होवे, किन्तु उन्होंने भाषा की शुद्धता की ओर विशेष ध्यान दिया है; शब्दों को तोड़ा- मरोड़ा नहीं है । रीतिकालीन कवियों में शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की प्रवृत्ति विशेष रूप से रही। उन्होंने शब्दों को इतना विक्ृत कर डाला जिससे मूल शब्द को पहिचानना भी कठिन हो जाता है ओर अथथ दुरूह हो गया है । अयोध्यापुरी का वर्णन करते समय केशब ने परिसंख्या के द्वारा यह प्रकट किया है कि अयोध्या में 'अधोगति'" व्यक्तियों की नहीं होती अपितु बृत्षों की जड़े ही नीचे की ओर जाती हैं । 'मलिनता' केवल होम की अप्नि से निकले हुए धुएँ ही में है अयोध्यापुरवासियों के हृदय में नहीं । 'चंचलता' फेवल पीपल के पत्तों ही में है, अयोध्यावासियों के मन में नहीं। धव नाम की वस्तु जंगलों दी में होती है। धवहीन ( विधवा ) ख्री अयोध्या भर में नहीं पायी जाती । | मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय | होम हुताशन धूम नगर एके मलिनाइय ॥ दुर्गति दुर्गन हो जो कुटिल गति सरितन ही में । ” श्रीफल की अमिलाप प्रगट कवि कुल के जी में ॥ अति चंचल जहँ चलदले, विधवा बनी न नारि! ( प्रथम प्रकाश ) केशव का नख-शिख वर्णन १३१ ' ऐसे वर्णन के द्वारा केशव ने अयोध्यावासियों के पवबिद्न ओऔर सुखी जीचन का सुन्दर चित्रण किया है। केशवदास में कहीं-कहीं हम एक जैसी ही विचार-धारा, एक ही अबाह के शब्द ओर अलंकारों की पुनराज्वत्ति पाते दूँ । यदि कवि एक से अधिक स्थलों पर एक-सी वाक्य योजना करता .है तो वह केवल पुनुरुक्ति दोप ही नहीं है वरन उससे यह भी प्रकट होता है कि कवि के हृदय में नवीन विचारों की कमी है। बार-बार वे ही अलंकार आने से वर्णनों में रोचकता भी नहीं रहती। अयोध्यापुरी का वर्णन केशव ने दो बार किया है, एक तो प्रथम प्रकाश में और दूसरी बार अट्ठाइसवें प्रकाश में ) दोनों स्थान पर कवि ने एक ही प्रकार का वर्णन किया है, कोई नवीनता नहीं है ) होम हुताशन मलिनाई जहाँ | अ्रति चंचल चल दल है तहाँ ॥| 32२३३ ५४ 42000 0४२३६ । छुटिल चाल सरितानि बखानु ॥ मूले तो श्रधोगत्तिन पावत है केशोदास। उन््ध्या वासनानि जानु विधवा सवाटिका ही ॥ कविकुल ही के श्रीफलन, डर श्रभिलाप समाज | _तिथि ही को क्षय होत है, रामचन्द्र के राज ॥ भरद्वाज ऋषि के आश्रम के वर्णन में भी फेशव ने “चलने पिप्पल्नै...” ओर “कंपे श्रीफले पत्र है पत्रनीके” कहकर इसी परिसंख्या की ही आवृत्ति की है। ऐसे स्थल रामचन्द्रिका में कितने ही हैँ जहाँ इस प्रकार की पुनरावृत्ति की गई है। यह आश्वयेजनक ही है कि प्रखर प्रतिभा और चुद्धि होने पर भी केशवदास ने एक से ही वर्णन एक से अधिक स्थानों पर कऔसे रख दिये ! जिसे केशच ने कल्पना की लम्बी उड़ान के द्वारा विचित्र उपसान खोज निकाले । क्या बह अयोध्यापुरी के वर्णन में शब्द, अलंकार और भाव के पिट्ट-पेपण को नहीं बचा श्र रामचन्द्रिका सकता था । 'परिसंख्या' के प्रति शायद केशव को इतना अनुराग था कि वे उसकी योजना करने में थकते नहीं थे, चाहे कोब्य की दृष्टि से वह दोष ही क्यों न हो । सहोक्ति अलंकार सें दो कार्या का एक साथ होना वर्णित किया जाता है, परन्तु केवल 'सह, साथ, संग! आदि वाचक शब्दों के प्रयोग ही से इस अलंकार की सृष्टि नहीं हो जाती, ओर न उसमें चमत्कार आता है। केशवदास ने सहोक्ति की योजना सुन्द्रतापूवंक की है । जिस समय राम के बाण प्रहार से रावण की मृत्यु हो जाती है उस समय संसार में दो कार्य साथ-साथ होते भुव-भारहिं संयुत राकस को दल जाय रसातल में अनुरा्यो | जग में जय शब्द समेतहि केशव राज विभीषन के सिर जाग्यौ ॥ मय-दानव-नंदिनि के सुख सों मिलिके सिय के हिय को दुख भाग्यो । सुर दुन्दुभि सीस गजा सर राम कौ रावन के सिर साथ हो लाग्यो ॥ केशव के अलंकारों पर विचार करते समय हमें ऐसा विदित होता हे कि उनके पात्र भी अलंकार शाक्ष के पंडित हैं। जनकपुर के स्री पुरुष, बन जाते समय राम को मार्ग में मिलने बाली प्रमाण जनता, जलदेबी तथा राम भी अलंकारों के द्वाता ही अपने विचार प्रकट करते हैं। ज़ब रास हाथी पर चढ़कर जाते हैँ तो अवधवासी हाथी पर चेंठे हुए राम का इस प्रकार वर्णन करर तम पुज लियो गहि भानु मनों गिरे अंजन ऊपर सोम मनो | जन भासत दानहि लोभ धरे। रामचन्द्रिका में ऐसे कितने ही छन्द हैं. जिनमें कितने ही अलंकार एक साथ आये हूँ। सीता का समाचार लेकर जब केशव का लख-शिख वर्शुस श्श्इु हसुसान राम के पास आते हैँ उस समय राम ने हनुमान की जो प्रशंसा की है उसमें परिकरांकुर, अपन हुति, यम्क, लाटालुप्रास वथा उल्लेख अलंकार सन्निविष्ट हुए हैं :-- सॉचो एक नाम हरि, लीन्हें सब दुःख इरि । ओर नाम परिहरि नरहरि ठाये ह्ौ। वानरन ही हो तुम मेरे बानरस सम | चली मुख सूर वली मुख निज्ञु माये हो॥ साखामूग नाही बुद्धि वलन के साखासूग ॥ कैधों वेद साखामृग केशव को भावे हो ॥ साधु इनुमन्त बलबन्त जसवचन्त छठुम | गये एक काज कौ अनेक करि आये हो ॥ , रामचन्द्रिका में पग-पग पर अलंकारों का प्रयोग किया गया हे । पर ऐसे स्थल बहुत कम हैं. जहाँ इस आलंकारिक योजना से भावोत्कपे में सहायता मिली हो। चसत्कार-प्रदर्शन की दी ओर केशव की विशेष रुचि रही हे | केशव ने अलंकारों के विपय में अपनी कुछ सोलिकता रखी है। संस्कृत में गिनाये हुए सभी अलंकारों को केशव ने अपने काव्य में स्थान नहीं दिया। लगभग ४० अलंकार ही उन्होंने साने दें । एक स्थान पर प्रेमा' अलंकार की नई सृष्टि की गई है। रखालंकार! का केशव ने कोई बधेचन रहीं किया । अबन्ध काव्य में कथा के कल्ात्सक विकास के लिये यह आवश्यक है कि कथा-सूत्र कहीं ढीला न पड़ने पावे। पाठकों को कथा-असंग में क्षीन करने के लिये कुशल कवि सरल शब्दावलि और सहल बोधगम्य भार्चों को स्पष्ट पक्ति द्वारा प्रकट करते हैँ। केशवदास के काव्य सिद्धान्त के अनुसार काव्य में उक्ति बैचित्य, चसत्कार और अलंकारों का समावेश अनिवार्य १३४ रामचन्द्रिका है। केशवदास ने रामचन्द्रिका में ऐसे-ऐसे छन्दों का प्रयोग किया है, जिसके तीन-तीन अथथ होते हैं। प्रबन्ध काव्य को इतना क्लिष्ट बना देने से उसकी कथा में रस-मज्न कराने की शक्ति नहीं रहती । केशबदास की इन क्लिष्ट कविताओं के कारण ही यह लोकोक्ति प्रचलित हुई कि “कृबि को दीन न चद्दे विदाई पूछे केशव की कविताई |” हि केशव की इस रुचि के कारण उत्की कविता “अलंकार-मंजूधा बच गई है। एक-एक शब्द को तीन-तोन अर्था में प्रयुक्त करना शब्दों के साथ खिलवाड़ करना ही है। जब रामचन्द्र की सेना लंका पर आक्रमण करती है, उस समय लंका-अभियान को जाती हुई सेना के वर्णन के साथ-साथ केशवदास ने रावण की झृत्यु और विभीषण की राज्यश्री को भी , बणेन कर दिया है :-- कुन्तल ललित नील अ्रकुदी घमुप नैन। कुछुद कटा वाण सचल सदाई है॥ सुप्रीवः सहित तार अंगदादि भूषनना मध्य देश केशरी सुगज गति भाई है॥ विग्रहानुकूल सत्र लक्ष-लक्ष कऋत्षवल | ऋषराज मुखी मुख केशोदरस गाई है॥ रामचन्द्र जू को चमू , राजश्री विभीषण की। रावण को मसीचु दर कूच चलि आई है ॥ ( राम सेना के पक्ष में अर्थ ) कुन्तल, नील, भ्रकुटि, धन्लप, कटाक्ष नयन और वाश नाम के चानरों से जो सेना सदा बलवान है और जिस सेना में सुत्रीव. अंगदादि चीर भूपषणबत् हैं और ये ही वीर सेना हु केशव का नख-शिख वर्णन १३४ से मध्य भाग के संचालक हैं। केशरी और गज जाति के भी : बानर हूँ, जिनकी चाल बड़ी सुन्दर है। विग्रह और अनुकूल नास के रीकू सरदार हूँ | एक-एक सरदार के पास लाखों रीछों की सेना है । उन सरदारों में जामवन्त मुख्य हैं। यह रीछ सेना समस्त सेना के अग्रभाग में रहती है। ( विभीषण की राज-श्री के पक्ष में अर्थ ) जिसके सुन्दर काले केश हैँ | भौंह धन्तुप के समान ठेढ़ी हैं, जेत्र कमल के समान लाल हैं। वाण के समान नेन्नदृष्टि है। जिसका सौन्दर्य सदा रहने वाला है। जिसकी सुन्दर ग्रीवा मोतियों से युक्त है। कमर सिंह को सी है। चाल हाथियों के समान है, जो मन को अच्छी लगती है । शरीर के अत्येक अंग यथायोग्य हैँ। लाखों नज्ञत्नों के सौन्दर्य को लेकर यदि चन्द्रमा डदित हो तो जो छवि उस चन्द्रमा की होगी, ब्रैसी ही उसके मुख की छवि है । सब रामभक्त उसकी प्रशंसा करते हैं । ( रावण की मृत्यु के पक्ष में अर्थ ) तीक्ष्ण भाला लिये, काले रंग की, भोहें चढ़ाये, धनुष लिये, अत्याचारिणी, कद जिसकी चितवन वाण के समान कराल है, ओर जो सदा ही अत्यन्त बलचती है। गले से. उच्च स्वर से , गरजती है। अंगदादिक भूपणरहित मुंडमालादि भयंकर भूषण धारण किये असुन्दर अंगों वाली है और जैसे सिंह हाथी के मारने को कपटता है वैसी चाल वाली है; रावण को मारने के लिये राम का बैर ही जिसे अनुकूल हेतु मिल गया है, जिसमें लाखों रीछों का बल है, जिसका बड़े रीछ का सा भयंकर मुख है, सज्जनों .ने ऐसा ही जिसका वर्णन किया है | इस रूपवाली होने से ऐसा असुमान.द्ोता है कि यह रावण की ही रुत्यु है। केशवदास की आलंकारिक सनोदकृत्ति का परिचय 'राम- १३६ शमचन्द्रिका चन्द्रिका' में आद्योपान्त मिल्रता है। इन अलंकारों और चमत्कारों के संविधान में केशवदास ने कथाबवस्तु की भी आहुति दे दी है | अलंकारों के फेर सें कवि इतना पड़ जाता है कि वह कथावस्तु को ही भूल जाता है। कभी-कभी अलंकारों के हेतु बढ़ाये गये दृश्य इतने लम्बे हो गये हैं, कि पढ़ते-पढ़ते मन ऊब जाता है । केशवदास का अलंकार सम्बन्धी सिद्धान्त इतना दृढ़ ओर अकाख्य था कि वे उसे कभी भी नहीं भूले । जिन प्रसंगों में वे अलंकारों का समावेश नहीं कर सकते थे, ऐसे प्रसंगों को उन्होंने हटा दिया है। अलंकारों के प्रयोग में कवि को अद्वितीय प्रतिभा, कल्पना शक्ति और सूक से काम लेना पड़ा है। आचाये दरडी के समान केशव भी “अलंकारहीन कविता को विधवा सममते थे (अलंकाररहिता विधवेब सरस्वति ) इसीलिये अलंकारों के प्रयोग ही में कवि काव्य-सौन्दय सममता था । शैली भाषा एक सामाजिक देन है, जिसे प्राप्त करके व्यक्ति अपने ब्िचारों को दूसरों पर प्रकट करता है । यद्यपि अपने समाज की भाषा को समस्त व्यक्ति समान रूप से प्राप्त करते हैं, तो भी कुशल कलाकारों की रचना में शब्द चयन, वाक्यों का गठन, मुहाबिरों - का प्रयोग और संगीत की विशिष्टता कुछ ऐसी विशेषता लिये हुए . होती है जिससे उस रचना में हमें उस कलाकार के व्यक्तित्व का अनुमान हो जाता है। कुशल कवि अपने विचारों को इस नूतनता के साथ अभिव्यक्त करता है कि प्रत्येक पंक्ति को देखते ही पाठक को यह विदित हो जाता है कि यह अमुक कलाकार की रचना है | उस ग्रणेता की कृति में हमे उसके व्यक्तित्व की अमिट छाप दृष्टिगोचर होती है। जब केवल पद्मांश को देखकर ही हम यह घोषित करते हैं कि यह अमुक कवि की रचना है उस ससय केशब का नख-शिख चर्णन १३७ हमारा ध्यान उस पद्म में सन्िहित भावों पर उत्तना नहीं रहता, जितना कि भावामिव्य5जन की शैत्ञी पर | सफल कलाकार बह्दी है जो अपनी रचना में ऐसे विशिष्ठ शुर्णों का समावेश कर दे, जिससे उसकी प्रत्येक ऋृति में इतती मीोलिकता और सजीवत्ता आा जावे, जिससे बिना संदर्भ से अवगत हुए ही यह कह दिया जा सके कि इसका रचयिता अमुक कवि है। किसी आलोचक ने शैल्ली को (विचारों का परिधान कहा है। यह मत सही नहीं है | शरीर और परिधान स्पष्टत: दो प्रथक-५थक वस्तु हँ, लेकिन शैल्री ओर बिचार तो अभिन्न हैं। इसलिये एक दूसरे आलोचक को यह -बोपणा करनो पड़ी कि शेली 'कल्ाकार का परिधान” नहीं है, अत्युत वह तो कलाकार की त्वचा! है। अन्य व्यक्तियों से भाव एवं भाषा ग्रहण करते पर भी कुशल कलाकार उससें सौलिकता के समावेश से विशेषता उत्पन्न कर देता है। जिस सच्चाई के साथ, हृदय की तलल््लीनता के छंयोग से श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना की जाती है वही सचाई ओर हृदय-तादात्म्य विशिष्ट शेल्षी का निर्माण करता है। कोई व्यक्ति जो अत्यक्ष रूप से अपने हृदय के अनुभूत भाव की अभिव्यज्ञना-क़रना चाहता है, उसे अपनी विशिष्ट शैली के द्वारा उस भाव को प्रकट करने में कोई कठिनाई प्रतीत न होगी । सच तो यह है कि हम अपने स्वयं के विचारों को दूसरों की शैली में प्रकट नहीं कर सकते। कलात्मक अनुकरण जीवन की व्यापकता को प्रदर्शित करते में असफल ही रहेगा। कलाकार भले ही अपने पूबवत्ती रचनाकारों का अनुकरशरश करे, किन्तु उसकी हृदयगत चझमता या असमर्थता इस बात को शअन्त- तोगत्वा प्रकट कर देगी कि उसमें भाव संप्रेपण की शक्ति कितनी है । फेशवदास संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, चमत्कारप्रिय तथा राजसी वैभव के भोक््ता थे। कवि का जीवन जैसे वातावरण में श्श्८ रामचन्द्रिका रहा उसकी अमिट एवं व्यापक छाप हम उसके काव्य में पाते हैं । इतना ही नहीं, विचारों की अभिव्यक्ति में भी हमें केशव में एक विशेषता के दर्शन होते हैं। सूर के पद, मीरा की विरहवाणी तथा तुलसी की प्रत्येक चोपाई जिस प्रकार उसके रचनाकार का परिचय करा देती है उसी प्रकार केशव का प्रत्येक छन्द सहज ही में यह बोध करा देता है कि यह केशव के पुष्ट मस्तिष्क से ही असूत हुआ है। यही है कवि की सच्ची महानता। कुछ आलोचकों गे केशव के काव्य में हृदय-हीनता दिखलाई देती है। जो कवि इतनी सौलिकता एवं प्रवेग के साथ अपने भावों को प्रकट करता है, जिसमें उसका व्यक्तित्व मुद्रित रहता है उसे हृदय-हीन कहना सही नहीं है। केशव का हृदय जिन वस्तुओं एवं विषयों में रस रहा था; और जीवन को जिस दृष्टि कोण से उन्होंने देखा, उसी को अपने काव्य में अंकित किया है | कवि दूसरों की- भाव- नाएँ लेकर नहीं आता, वह तो स्वयं के अनुभूत जीवन को ही प्रकट करता है । जैसा केशव का जीवन था, वैसा ही उसका काव्य है। केशव ने संस्कृत के कवियों की उक्तियों को अपनी रचना में स्थान दिया है; किन्तु उनका ग्रदर्शेन इतनी सुन्दरता के साथ किया है कि वे उक्ति केशव की ही प्रतीत होती हैं, संसक्षत की अनुवाद नहीं । संस्कृत साहित्य के अन्तिम चरण में अलंकार एवं रस का पारिडत्यपूर्ण विवेचन किया गया । उस समय कुछ मीसांसक तो भाव को ही काव्य की आत्मा सानते थे, कुछ काव्य में कला पक्ष की सर्वोपरिता का समथन करते थे। कल्ला वर्ग के प्रतिपादकों ने अलंकार को कविता की मनोरमता के लिये अनिवार्य घोषित किया। संस्कृत साहित्य की इसी परम्परा का अनुकरण केशव ने किया | केशव ने रस ओर अलंकार के निरूपण में पृथक-पृथक प्रंथों की रचना की । इसके अतिरिक्त वे सदा अलंकारवादी रहे। केशव का नख-शिख वर्णन १३६ दोने काव्य में सबत्र शाव्दिक चमत्कार को ही महत्व दिया । राजसी बातावरण में रहमे के कारण केशव के अन्यों में -फ चैचित््य सहज ही में आ गया है'। इंद्रजीतसिंह्ठ के दरवार * आने वाले कवि तथा द्रवारियों पर अपने पडित्य की छाप «क, करने के लिये केशव ने ऐसी रचना की जिससे सुनने वाले प्रभावित हों। केशव एक तो स्वयं चमत्कारवादी थे; दूसरे उनका व्यक्तित्व आश्रयदाता- राजाओं से प्रभावित था। अतः अलंकृत शैली महण करने पर भी अपनी भावुकता प्रदर्शित करने के लिये केशव को अवसर ही न मिला | रस के उठ्रेक की ओर वे बहुत कम ध्यान दे सके। काव्य के गुण दोपों की व्यापक विवेचना करके भी केशव हृदय की कोमल भावना की अभिव्यंजना की ओर आकर्षित न हुए यह आश्चर्यजनक दी है । : हिन्दी के अन्य कवियों ने भी राजदरवार और राजकीय वैभवों का वर्णन किया है; किन्तु उनके वर्णनों में न तो सजीवता ही है और न स्वाभाविकता ही। उन कवियों का राज द्रवारों से कोई सीधा सम्पक न था। उन्होंने तो सुनी हुई वातों या लक्षण ग्रंथों में दिये हुए वर्णनों के आधार पर ही राज दरवारों के चित्र केवल वस्तु परिगणन शैली के अनुसार अंकित कर दिये हूँ। राज दरवारों में वैभव की ही प्रचुरता नहीं होती अपितु वहाँ के जीवन में एक अदूभुत कोमलता, वनावट तथा महत्ता आा जाती है। पारस्परिक संज्ञाप भी एक विशेष रीति से किये ' जाते हैं। राज द्रवार की मर्यादा का अतिक्रमण कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता । केशव ने द्रबार में उपस्थित रहकर वहाँ की परिपाटियों का पूरा अध्ययन्त ही नहीं, अभ्यास भी किया था। यही फारण है कि उन्होंने अपनी अलंकृत भाषा में उस देदीप्यमान राजसीय वैभव का विस्तार के साथ वर्णन किया १४० रासचन्द्रिका है। रास के शयनागार, अयोध्या की रोशनी, राजमहल, संगीत नृत्य, सेज आदि के वर्णनों में केशव ने इन्द्रजीतर्सिह के पास रहकर जो देखा वही स्पष्टलः अंकित किया है; अन्यथा ऐसे बर्णनों का राम के जीवन से न तो कोई विशेष सम्बन्ध ही है. ओर न इसके कारण कथा में ही कोई रोचकता आई है । राम के समक्ष होने वाले संगीत और नृत्य हमें ओरछा नरेश के दरबार, में होने वाले संगीत और नृत्य का आभास कराते हैं । राज द्रबारों में लावण्यवत्ती नतेकियाँ जिस प्रकार नूपुर मंकार ओर हाव भाव तथा संगीत से राजा के मन को मुग्धघ किया करती थीं बही वर्णन केशव ने राम के दरबार के सम्बन्ध में किया है। केशवदास उन संगीतों में द्रष्टा के रूप में ही उपस्थित नहीं रहे अपितु, उन्होंने गायनादि में सक्रिय भाग भी लिया। प्रवीशराय के वे गुरु थे। यही कारण हे कि उनके संगीत एवं नृत्य वशन इस वात के परिचायक हैं कि कवि न केवल इन कलाओं का ज्ञाता है, अपितु उसका हृदय इस राग-रंग में पूर्णतः आ्योत-प्रोत है । | आइ बनि वाला, गुण-गण-माला, बुधिवल रूपन बाढ़ी। शुभ जाति चित्रिनी, चित्रगेह ते, निकरसि भई जनु ठाढ़ी॥ मानो गुन संगनि, स्थों प्रति अंगनि, रूपक-रूप विराजे। बीणानि बजावै, श्रदूधुत गाबै, गिरा रागिनी लाजै॥ रंग महत्न वाद्य यन्त्र तथा नृत्य की मक्कार से गुंजायमान हो रहा है अमल कमल कर आँगुरी, सकल गुणन की मूरि। लागत थाप म्दंग मुख, शब्द रहति भरिपूरि ॥ राजाओं की शैय्या पर कितने कोमल तकिए रखे जाते 'थे उसका भी वर्णन केशव ने किया है :-- केशव का नख-शिख वर्णुन १४१ चंपक दल दुति के गेहुए। मनहु रूप के रूपक उए । कुसुम गुलावन की गलसुई । वराणि न जाय-न नैनन छुई ॥ आशय यह है कि चंपई रंग के तकिए हैं, गुलाबी रग की गलसुई है, जो अचशेनीय हैं, क्योंकि उन्हें दृष्टि से छूते नहीं बतता। तकियों को चंपक वर्ण कहने में भी विशेषता है । वह यह कि उस शैया पर सोने वाले दंपति कमल मुख हैं। कहीं सुप्तावस्था में अ्रमर आकर दंश न मारे अत्त: तकिए चस्पा रह् के हैं। चम्पा के निकट अमर जाता ही नहीं हे । केशवदास को जहाँ भी विषय अपनी रुचि के अनुकूल प्राप्त हुआ हे, वहाँ उन्होंने उसका सव्विस्तार वर्णन क्रिया है। बहाँ कत्रि की दृष्टि उस दृश्य पर ही स्थिर हो जाती है, उसे कथा का ध्यान भी नहीं रहता। झुंगार वर्णन करते समय केशव ने रमर्गाय भावना का प्रदर्शन किया है ( इनकी साप! और भाव में अद्वितीय सामव्जस्य है । किसी भी चर्शन को केशव ने विना आलंकारिक योजना के श्रंकित नहीं किया है । उनकी भाषपा,.अलंकार, पद सौष्ठव और भावब्यंजना में उनके व्यक्तित्व का ही प्रतिविम्व॒ है। “शैली ही व्यक्ति है” का सिद्धान्त-फेशव की रचना के सस्वन्ध में अक्षरश: चरिताथे होता हैं। केशव ने भत्ते ही अलंकारों की योजना वलपूर्वेक की हो, किन्तु कद्दी-कहीं तो वे चसत्कारिक शब्दों की अ्रयलियाँ हृदय को आकर्पित ही कर लेती हैं। कवि ते ऐसे शब्दों का प्रयोग किया हे जिसे पढ़कर ही उनका आशय ध्वनित हो उठता है। सीता की खोज के लिये सव वानर और रीछ जा रहे हैं। उनके वन में कवि ने शब्दों के प्रयोग के हारा ही उनके जाने की क्रिया को प्रदर्शित कर दिया है। श्डर क्रेशव के शब्दों में जितनी भाव-संप्रेपणता है उतन, ही अर्थ गम्भीरता भी है। भापा पर उन्हें बड़ा अधिकार है। उनका शब्द ज्ञाल इतना अपरिमित है कि उन्होंने ऐसे-ऐसे छन्दों की रचना की है जिनके पाँच अथ तकहो जाते हैं! 'क्विप्रियाँ में एक छन्द है जिसके £ अर्थ किये जाते हैं) रामचन्द्रिका में भी ऐसा पद है जिलके तीन अर्थ हैं; दो अर्थ रखने वाले पद् तो रामचन्द्रिका में कितने ही हैँ । राम की सेना जब लंका पर आक्रमण करने के लिये जाती है उस छन्द के तीन अथ हैं । १. राम सेना का, २. विभीषण की राज्यश्री का, ३. रावण की रामचन्द्रिका चंड चरण, छुंड धरनि, मंडि गगन धावहि । ततक्षण हुई दब्छिन दिसि लक्ष्यहिं नहिं पावहिं | धीर धरन वीर वरन सिन्घु तट सुद्दावहीं । नाम परम, धाम घरम, राम करम गावहीं ॥ अत्यु का । ऐसे पदों की रचना साधारण ज्ञान के कवियों द्वारा नहीं की जा सकती ।.केशवदास की रचना उनके प्रकांड पारिडत्य तथा भापा-ज्ञान का ज्वलन्त उदाहरण हैं । काव्य की कलात्मक कुंतल ललित नील, भ्कुटी घनुष नेन। कुम्रद कटाक्ष वाण सबल सदाई है ॥ सुत्रीव सहित तार अंगढादि भूषनन, मध्यदेश । केशरी सुगग गति भाई है॥ विग्रह्ानुकूल सब लक्ष लक्ष ऋच्ष बल। ऋच्राज मुखी मुख केशोदास गाई है ॥ रामचन्द्र जू की चमू राजश्री विभीषण की | रावण की मीचु दरकूच चलि श्ाई है ॥ कैशव का नख-शिख चर्णुन १४३ अभिवृद्धि का जो कारय केशव के द्वारा सम्पादित किया गया वह उनके पश्चात् हिन्दी साहित्य में फिर इष्टिगोचर न हुआ । समाज के बन्धन कवि की कल्पना को स तो प्रभावित कर सकते हैं. और न वाघधित ही। केशवदास ने अपनी रूचि के: अनुकूल की काव्य रचना की है और उसका तत्काल सुफल भी चन्हें प्राप्त हुआ | ६ रामचस्द्रिका के सवोत्कृष्ट संवाद पात्रों के चरित्र का विकास करने के लिये कवि को भिन्न- भिन्न शैलियों और उपादानों का आश्रय लेना पड़ता है।: इतिब्षत्तः के कथन मात्र से पात्रों के चरित्र का निरूपण किया जाता है किन्तु एक तो इसके द्वारा ग्रन्थ का आकार अनावश्यक रूप से वढ़ जाता है ओर फिर चरित्रांकण में भी उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी कि कथोपकथन के द्वारा । वैसे तो सम्वादों का प्रमुख महत्व दृश्य काव्य ही में है । नाटककार को अपनी ओर से कुछ कहने का स्थल नहीं मिलता अतः जिस सावना और आदर्श को वह «तिवादित - करना चाहता है उसे बह किसी न किसी पात्र के द्वारा ही प्रकट करा सकता है। कथोपकथन नाटक का स्वस्थ है। पात्रों का चरित्र-चित्रण और कथावस्तु का पूर्ण निवोह.. नाटकों में ' अनिवाय है| कबि भी अपनी उत्कृष्ट कल्पना शक्ति से कथा का प्रसार करता है। अपने तात्पय कथन के साथ ही वह स्वतंत्र रूप से कथोपकथन का नि्मोण भी कर सकता है। कथा प्रवाह सें कवि कभी अपने द्वारा अथवा कभी किसी पात्र के द्वारा कुछ अभीए्टठ: कथन करा देता हे, जिससे उसके चरित्र का पता चल जाता है, परन्तु कुशल कवि प्रबन्ध काव्य के भीतर दर्णाचात्मक पद्धति का पालन करते हुए भी उपयुक्त स्थलों रामचन्द्रिका के सर्वोत्कृष्ट संवाद १४५ पर सम्बादों की योजना करके अभिनयात्मक चमत्कार उत्पन्न कर देता है। ऐसे चरित्रांकण में ओज, स्वाभाविकता और , सजीवता विशेषरूप से परिलक्षित होती है। कवि की इन कोशलपूर्ण उक्तियों में पाठक का हृदय शीघ्र ही भावोश्रेक में मन्न हो जाता है। - केशवदास राजा इन्द्रजीतसिंह के दरबार के एक उज्ज्यल रत्न थे। राजनीति में भी उनकी प्रखर प्रतिभा की धाक थी। राजसभा और राजनीतिक कार्या का वैयक्तिक अनुभव होने के कारण केशवदास की वाणी में विज्ञास और एक अद्भुत वाक्यपद्धता पायी जाती है । राजसभा में सभासदों के व्यवहार में जो एक भद्गरता और अपरिमित शिष्टाचार आ जाता है, साधारण बातचीत में भी जो विशिष्टता आ जाती है, उसका प्रभाव केशवदास की कविता पर भी पड़ा । आलंकारिक भनोवृत्ति होने के कारण केशवदास ने रामचन्द्रिका में केवल उन्हीं प्रसंगों को अंकित किया, जहाँ ले अपनी इस मनोवृत्ति की स्वच्छुन्द अभिव्यंजना कर सकते थे! इसी प्रकार केशव अपनी चाक्पट्डता और राजसभा के नियमों के पांडित्य का भी प्रदर्शन करना चाहते थे, अतः उन्होंने रामचन्द्रिका में स्थल-स्थज्ष पर सम्बादों की योजना की है। सम्बादों की रचना में केशव ने विशेष निपुणता ओर कौशल का परिचय दिया है। दरबारी कवि होने के कारण भिन्न-भिन्न वर्ग के व्यक्तियों की व्यवहारिक रीति-नीति से वे पूर्णतया परिचित थ्रे। केशब ने समय-समय पर भिन्न-मिन्न स्थानों की यात्रा भी की थी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण वे बहुज्ञ भी थे; इसी कारण उनके सन्वाद हमारे सामने प्रत्यक्ष भाव उत्पन्न कराते हुए प्रतीत होते हैँ। राजनीति के दाव पेचों से पूर्ण उक्तियाँ केशव ने कई अवसर पर अपने श्८ १४६ रॉमचन्द्रिका , पात्रों के मुख से कहलवबाई हैं । जहाँ व्यंग अथवा कूट- नीतिज्षवा ग्रदर्शित की जा सकती है, उन्हीं प्रसंगों में राम- चन्द्रिका में सम्बादों की योजना की गई है। यह सच है कि रामायण में महाकवि तुलसीदास ने जिन 'प्रसंगों में विशेष भावुकता प्रदर्शित की है, उन प्रसंगों में केशवदास आय: उदासीन ही रहे। जहाँ गंभीर मनोभावों को अंकित करने की आवश्यकता थी उस स्थत्न पर केशव ने सम्बाद नहीं रक्खे हैं; जैसे दशरथ कैकेयी-सम्बाद ओर पंचवटी में राम-भरत सम्बाद । इन स्थलों पर तुलसीदास जी ने मानवीय: भावनाओं और दुबेलताओं तथा राजनीति, लोकनीति एवं धर्म- नीति की विशद व्यंजना की है। रामचन्द्रिका में सम्बाद केवल वहीं प्रयुक्त हुए हैं. जहाँ वाग्वेदग्ध्य ओर राजनीतिज्ञता प्रदर्शित करना अभीष्ट है; अन्य प्रसंगों में सम्वाद नहीं रखे गये । गंभीर स्थलों पर भी केशव यदि सम्बादों की योजना करते तो बहुत संभव था कि उन्हें यथोचित सफलता न मिलती । रामचन्द्रिका में आद्रोपान्त उपयुक्त प्रसंगों में सम्वादों का समावेश किया गया है। भ्रथम प्रकाश से लेकर अन्तिस प्रकाश तक कथोपकथनों की सुन्दर, चसत्कारिक और ओजपूर्ण योजना की गई है। युद्ध चणुनों में प्रायः कवियों ने शत्रात्रों के प्रहार और रुघिर की नदी के प्रचाह का ही वर्शेन किया लेकिन केशव ने युद्ध-स्थल पर भी प्रसंगानुंकूल शाब्दिक संघ की योजना की है। केशवदास की यह विशेषता हे कि उन्होंने युद्ध-स्थल में चाण वर्षा के साथ साथ वाक-वर्षा भी करायी है। ' रामचन्द्रिका में निम्नलिखित सम्बादों की योजना की गईं १, दशरथ-विश्वामित्र सम्बाद रामचन्द्रिका के सर्वोत्कृष्ट संवाद श्ट्र्ड २. वशिष्ठ-दशरथ सम्बाद 8३. रावशण-वाणासुर सम्बाद 2. अनक-विश्वामित्र और राम सम्बाद ४... राम-परशुरास सम्वाद ६. परशुराम-बामदेव सम्बाद ह राम-कौशल्या सम्बाद शूपणखा-राम-लक्ष्मण सम्बाद ६. रावशण-हनुमान सम्वाद 2०. रावश-अंगद सम्बाद ११. सीता-रावण सम्बाद १२. लवब्-कुश-शच्रुन्न, विभीपण और अंगदादि सम्बाद उक्त सम्वादों में कुछ सम्बाद तो छोटे हैं, उद्यहरखार्थ दशरथ-विश्वामित्र सम्बाद, वशिप्ठ-दशरथ सम्बाद, परशुराम- श्षामदैव सम्बाद और राम-कौशल्या सम्बाद। टी सस््वादों में केशव ने पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का पूणुत: ध्यान रखा है। रामचन्द्रिका में दशरथ का चरित्र अंकित मं दो सका। राम-वन-गमन की घटना को कवि ने संच्षेप ही सें वर्णन किया है, अतः प्रतिज्ञा पालन और पुत्र वबियोग के धर्म-संधर्ष की परिस्थिति में दशरथ" के हृदय को कैसा भीषण सन््ताप हुआ, इसके सम्बन्ध में कवि ने कुछ भी नहीं कहा। लेकिन जब विश्वामित्र राम को लेने के लिये आते हैं उस समय - दशरथ स्वयं विश्वामित्र के साथ यघरक्ता फरने के लिये जाना चाहते हँ। जब वशिष्ठ के आदवेशानुसार दशरथ फो राम और लक्ष्मण को भेजने के लिये वाध्य होना पड़ता है, उस समय उनकी आँखों में आँसू आ जाते हू । सोते- गेते उनकी आँखें लाल हो जाती हैं :-- . श्ष्ट्द रामचन्द्रिका उप पै वचन वशिष्ठ को, कैसे मेट्रो जाय । सौंप्यो विश्वामित्र कर, रामचन्द्र अकुलाय॥ राम चलत नप के युग लोचन | बारि भरित भये वारिद रोचन ॥ पायन परि ऋषि के सजि मौनहिं। केशव उठि गये भीतर भौनहिं ॥ रामायण में परशुराम का आगमन उस समय हुआ जब धनुष टूट जाने पर राजाओं में विवाद चल पड़ा। परशुराम के आ जाने से क्रोधी भूप उलूक लुकाने! ओर इस प्रकार सभा मंडप में फेली महा गड़बड़ी शान्त हुईं। परशुराम के प्रबोधन का कार्य रामायण में लक्ष्मण ने किया है, - पर रामचन्द्रिका में भरत का प्रभ्नुत्व है। अपने गुरु के धनुष को टूटने का समाचार जानकर परशुराम रोप में आ गये। अपने परसे को सम्बोधित करके बार-बार वे यह कहने लगे कि ज्ञत्री बालकों पर दया करेगा तो तुमे धिक्कार है :-- लक्षमण के पुरिखान कियो पुरघारथ सो न क्यो परई | वेष चनाय किया वनितान को देखत केशव हयौ हरई ॥ कूर कुठार निह्वारि तजो फल ताकौ यहे जु हियो जरई। आजु ते तोकहँ वंधु महाधिक क्षत्रिन पे जु दया करई ॥ परशुरास ओर राम सस्वाद में, राम के हृदय की गंभीरता, गुरुजनों के प्रति श्रद्धा, संकोच, शील और संयत भाषा का प्रयोग बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है। क्रोधित परशुराम कभी तो सितकंठ के कंठन को कठला, ॥ दशकंठ के कंठनि को करिहों | कर कभी-- “जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तो, थआाज अनाथ करों दशरत्यहिं [?? रामचन्द्रिका के सर्वो्कृष्ट संदादु॥- ग्रे ४) मु उस समय परशुराम से युद्ध करने; के लिये मैरत, श॒त्रुन्न..- ओर लक्ष्मण उद्यत होते हे, तब राप्त यह--कह करके रोक, देते हैं. कि ब्राह्मणों की भक्ति करना चाहिड्ले,-.वनसे'चुद्ध करना अनीति ह्ठै बल लियो चाप जब ह्वाथ, तीनहु भेयन रोप करि। बरज्याौ श्री रघुनाथ, तुम चालक जानत कह्दा ॥ भगवन्तन सो जीतिए, कघहूँ न कौन्हे शक्ति | जीतिय. एके बान ते, केबल कीन्दे भक्ति परशुराम जब तक राम के प्रति क्रोध करते रह्दे उस समय तक वे परशुराम के प्रति श्रद्धापूषेंक व्यवहार करते रहे, परन्तु जब परशुराम ने उनके गुरु के लिये निन्दात्मक ये शब्द कह्टे कि :--- # राम कहा करिद्दो तिनको तुम बालक देव श्रदेव बरेहें। गाधि के नन््द तिधारे गुर जिनते ऋषिवेश किए उदबरे हैं” |] जब शुरू को अपमानजनक शब्द कहे गये उस समय रास के ओऔदाय और मर्यादा की भावना लुप्त हो जाती है और उनके छद॒य में क्रोध की यह भावना जाम्रत हो जाती है :-- मगन भयो हर धनुष साल तुमको अब सालों। नष्ट करों विधि सष्टि ईश आसन ते चालौं॥ सफल लोक संहरहु सेस सिरते घर डारों। सतत सिन्धु मिल्नि जादि होहि सबही तम भारो ॥ ख्रति भ्रमल जोति नारायणी कह केशव चुमि जाय वर | आंगुनन्द सेंभार कुठार मैं कियोौ सरासन युक्त सर॥ रासचरितमानस में राम के मुख से वनगसन का समाचार सुनकर फौशिल्या राम से कहती हैं :-- १४० 'शमचननद्रका “ज्ञी केवल पितु आयेसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बढ़ि माता ।। जो पितु मातठु कहेउ वन जाना। तो कानन सत अवध समाना |) रामायण में इस प्रकार कौशिल्या का रूप कत्तेव्याकत्तव्य को समभने वाली विवेकिनी माता का है। वह पुत्र-वियोग जैसे संकटापन्न अवसर में बुद्धि और धैये को नहीं जाने देतीं । रामचन्द्रिका में केशव ने रास वनगसन पअसंग का संक्षिप्त वणुन्र किया है, यही कारण है कि इस, मर्मस्पर्शी स्थल पर भाचो- द्रेक का जैसा प्रकर्ष होना चाहिए बैसा केशवदासजी न दिखला सके । पात्रों की चारित्रिक विशेषता भी इन स्थला पर प्रायः अरपष्ट है। जैसे ही राजा दशरथ ने वशिष्ठ को अपना यह मन्तज्य सुनाया कि ४ हप्न चाहत रामद्दि राज दयो” कि “यह बात मरत्थ की सातु सुनी | पठऊ बन रामहि बुद्धि गुनी” रामचन्द्र भी इसे सुनकर न तो दशरथ से मिलने जाते हैं: ओर न माता कोशिल्या से विदा लेने #उुठि चले विपिन कह सुनत राम | तजि तात मातु तिव बन्घु धाम” ॥ 'कथा-प्रवाह की दृष्टि से कवि को सम्पूर्ण घटनाओं को ऋ्रस- क्रम से रखना चाहिये। कवि ने पहिले तो रास का बन जाना प्रकट कर दिया है और फिर यह् लिखा कि 'पये तहँ राम जहाँ निज मात । कही यह बात कि हों बन जात? ॥ रामचन्द्रिका के सर्वोत्कृष्ट संवाद १४५१९ कौशिल्या ने इसे छुनकर क्रोधित होकर यही कहा कि तुम बन कोन जाआ। जो तुम्हारे ( रामके ) सुख को न देख सकें, ईश्वर उनके हृदयों को जला दे । कोशिल्या रामके साथ बन चल्नने की कहती हैं “मोहि चलो वन संग लिये” उस समय राम में माता कौशिल्या फो पतिमश्नता खी के कत्तब्य ओर विधवा के कर्तव्यों का उपदेश दिया है। इस प्रकार का उपदेश यदि चशिप्ट आदि के मुख से किसी अन्य साधारण खत्री को दिलाया जाता तो युक्ति-युक्त रहता । पुत्न द्वारा माता का उपदेश दिलाना मर्यादा ओर शालीनता के विरुद्ध ही है। फिर कोशिल्या जैसी साध्वी सखी को ऐसे उपदेशों की क्या आवश्यकता थी ? केशवदास ने यहाँ यह भी ध्यान न रखा कि क्रोशिल्या तो सोभाग्यवती है. उसे विधवा के कर्प्तव्यों की शिक्षा क्यों दिलाई जाय ? राम उपदेश देते हुए अपनी माता से कहते हैं :-- ठुम क्यों चलौ बन आजु | जिन सीस राजत राजु ॥ जिय जानिये पतिदेव। करि सर्व भाँतिन सेव ॥ पति देश जो श्रति दुःख। मन मानि लीने सुक्ख | सत्र जगत जानि अ्रमित्र | पति जानि केवल मित्र ॥ नारी तने न आपनो सपनेहू भरतार। पंगु गंग बौरा अधिर, अंघ अनाथ अपार ॥| अंध श्रनाथ अपार वृद्ध भावन अति रोगी । चालक पणडु-कुरूप सदा कुबचन जड़ जोगी | कलही कोढ़ी भीर चोर ज्वारी ब्यभिचारी | अधप अमभारी कुटिल कुमति पति तजै न नारी ॥ १४२ « शामचन्द्रिका गोरवामी तुलसीदास ने अलुसूया द्वारा सीता को पातित्रत्य का उपदेश दिलाया है। ऋषि पत्नी के द्वारा उपदेश दिलाना उचित है; बह अजुसूया भी सीता से यह कहती हैं. कि तुम्हें तो ऐसे उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु मेंने तुम्हारे बहाने अन्य स्त्रियों को उपदेश दिया है :--- “मुनु सीता तब नाम, सुमिरि नारि पतित्रत करहिं। तोहि प्राणप्रिय राम, कहेडँ कथा संसार हित ॥? अनुसूया कृत इस उपदेश में पात्रों की मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखा गया है। अनुसूया यह कहती है कि :-- बृद्ध रोगवस जड़ धन हीनी। अन्ध बहिर क्रोधी अति दीना ॥ ऐसेहु ५ति कर किय अपमाना | नारि पाव जमपुर दुःखनाना ॥ रामचन्द्रिका में राम कौशिल्या को विधवा खत्री के कत्तेव्यों की भी शिक्षा देते हैं :-- गान ब्रिन मान बिन हास बिन जीवही। तप्त नहि खाय जल सीत नहिं पीवही ॥ तन तजि खेल तजि खाद तजि सोवद्दी । सीत जल न्हाथ नहिं उष्ण जल छीवही ॥ खाय मघुराश्ष नहिं. पाय पनही धरे। काय मन वाच सत्र धर्म करिवो करे॥ एक तो कौशिल्या जैसी रमणीरत्न को ऐसे उपदेशों की आव- श्यकता नहीं थी और फिर राम के द्वारा ऐसी बातें कहलाने से द्रदय को ज्ञोभ होता है । अंगद-रावण सम्बाद में केशवदास ने राजसभा की मर्यादा का भल्नी भाँति पालन कराया है। तुलसीदास ने अपने सिद्धान्त के अनुसार पात्रों के कथोपकथन में शील तथा मयोंदा का काफी ध्यान रखा है, किन्तु जहाँ पात्र राम विरोधी हैं वहाँ उनकी ५५७ रामचन्द्रिका सम्बादों में कथोपकथन का चमत्कार तो अवश्य है परन्तु कहीं-कहीं प्रश्न ओर उत्तर इतने गुम्फित हैं कि यह जानना कठिन हो जाता है कि प्रश्नकर्ता कौन है और उत्तर क्या दिया गया . है । नाटककार भिन्न-भिन्न पात्रों द्वारा कहे हुए वाक्यों के प्रारंभ करने के पू्े उस पात्र का नास भी लिख देता है | रास- चन्द्रिका में भी इसी शैली का पालन क्रिय। गया है । प्रबन्ध काव्य में कथा-प्रवाह में ही ये सब बातें समाविष्ट रहती हैं। पात्रों के नामों का प्रथक निर्देश नहीं किया जाता। रामचन्द्रिका में इस नाटकीय तत्व का समावेश हे; परन्तु इससे कथाचरतु के प्रवाह ओर रस निष्पत्ति सें कभी-कभी बड़ी वाघा पहुँचती हे । उस पंक्ति को पढ़ने के पूर्व कथन कत्तों का नाम पढ़ना या खोजना पड़ता है जिससे रस की अनुभूति नहीं हो पाती : - ( परशुराम ) यह कौन को दल देखिये !१ (वामदेव ) यह राम को प्रभु लेखिये। ( परशुराम ) यह कोन राम न जानियो ९ (वामदेव ) सर ताड़िका जिन मारियो | ( परशुराम ) ताड़का संहारी, तियन विचारी, कौन बड़ाई तादि इने। ( वामदेव ) मारीच हुतौ संग, प्रवल सकल खल, अरू सुवाहू काहू न गने ॥ इसके अतिरिक्त एक हीं पंक्ति सें अश्नोत्तर तथा उत्तर-प्रत्युत्तर इस प्रकार मिश्रित हैं कि उन छन्दों को बड़ी सतकता के साथ पढ़ना पड़ता हे । राम-परशुराम सम्बाद ओर अंगद-रावण तथा हनूमान-रावण सम्बाद में प्रश्न ओर उत्तर प्रत्येक पंक्ति में ऐसे सम्बद्ध हैँ कि जब तक विशिष्ट ध्यान न रखा जाय तब्र तक सच्चे वक्ता और श्रोता को पहिचानना कठिन ही है। 9 केशव की भाषा विश्व की सोन्दर्ययय कृतियों को देखकर कवि के हृदय- पटल पर जो चित्र अंकित हो जाता है, उसको वह भाषा के साध्यम द्वारा प्रकेट करता है। हृदय के उस भाव-चित्र को चित्र- कार अपनी तूलिका से, मूतिकार अपने औजारों से ओर गायक अपने मधर गान से प्रकट करता है। यद्यपि भाषा, तूलिका ओजार आदि हृदय के उस चित्र के वाह्म-प्रदर्शन के साध्यस ही हैँ परन्तु उनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बिना इन साधनों के बह भावना प्रकट हो ही नहीं सकती। भाषा काव्य का वाष्यावरण ही है, उसकी आत्मा तो भाव ही है। भाषा की उपादेयता काव्य के लिये उतनी ही है, जितनी आत्मा के लिये शरीर की। भापा ही वह साधन है, जिसके द्वारा मानव जाति अपनी दृद्गत् भावना फो दूसरों पर प्रकट करता है। संकेतों से छदय की यरत्किचित भावना ही प्रकट की जा सकती है । बिना भाषा के प्रयोग के मनुष्य अपने हृदय के विचारों को प्रकट करने में सफल नहीं हो सकता | मनुष्य की वैयक्तिक शिज्ञा और संस्कारों के अनुरूप ही उसकी भाषा होती है अतः भाषा-शैली में भिन्नता दिखलाई देना स्वाभाविक ही है । काव्य में रमणीय अथ प्रकट करने वाले शब्दों का ही प्रयोग होता है। अनुपयुक्त शब्द का समावेश काव्य की रमणीयता ही नष्ट नहीं करता, श्रत्युत उन शब्दों के प्रयोग के कारण उसका काव्यत्व ही नष्ट हो जाता है । केशव की भाषा १५७ फेशवदास संस्कृत भाषा के प्रकोंड विद्यान थे । संस्कृत के चिद्दन होने के कारण उनका शब्द भांडार पूर्ण था। प्रसंग के अनुरूप शब्दों का प्रयोग करने में कचि को अत्यधिक सफलता मिक्ती है। जिस समय केशवदास ने काव्य-रचना प्रारंभ को थी उस प्रमय अज भाषा ही हिन्दी कविता की मनोनीत भाषा थी | जायसी श्रादि प्रेमाश्रयी शाखा के कवि और तुलसीदास की अवधी भाषा की थोड़ी सी कृतियों को छोड़कर उस समय जो काव्य रचना की एई थी उसमें ब्रज भाषा का दी प्रयोग हे। ब्रजमापा ही काव्य भाषा थी। कवि-कर्म के लिये उस भाषा का अपनाना ही आदर- णीय सममा जात था| उस समय संस्कृत में कविता करना गौरव की बात समझी जाती थी। केशवदास भी उस गोरब के पद के अभिलापी थे और इसीलिये 'भाषा' में कविता करना थे गौरव के प्रतिकूल समकते थे । जिसके घर के नौकर-चाकर भी संस्कृत में पात्ताज्ञाप करें वह भाषए में कविता करे, यह कितने आश्चर्य ओर दुःख की बात थी। इसीलिये कवि से एक स्थान पर लिखा है :-- #आ्रापा बोलि न जानहीं, जिनके कुल के दास | तेद्टि कुल उपज्यों मंदमति, शठ कवि केशवदास ॥ ब्रज भाषा में काव्य-रचना करने के लिये यह आवश्यक न था कि ब्रज्रभूमि में रहकर ही उस भाषा का ज्ञान प्राप्त किया ज्ञाय। 'त्रज्ष भापा देतु, _्ण् को निवास न विचारियतु' का विश्वास चल पड़ा था, इसीलिये बुन्देलखंड में जन्म लेने पर भी 'कैशवदास ने तश्रज़ भाषा का दी प्रयोग किया। उनकी भापा सें बुन्देलखंडी भाषा के शब्द और क्रिया पदों का भी कुछ प्रयोग मिल्ञता है । जैसे इन्द्रप्ननुप के अर्थ में “गौरभदाइन”, पिटारी के अर्थ में “चोली”, कुझ्छी के अर्थ में “कुची” तकिया के अर्थ 02202%:7:00 ७७72 ॥ट3333+ «ने. श्ध्प ॥ रामचन्द्रिका “गेडुआ ” श्रौर उपदि, दुगई और घोरला आदि शब्द्। संसक्षत शब्द स्वल्लीलया', 'निजेच्छया' 'लीलयैव', 'हरिणाधिष्ठित' का तत्सम रूप में प्रयोग किया गया है। प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग काव्य में नहीं किया जाना चाहिये । प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग वर्जित | संस्क्रत के दीवच॑ समासान्त और क्लिष्ट पदों का प्रयोग भी पृहदणीय नहीं ससम्का जा सकता क्योंकि इसके कारण काव्य में अनावश्यक क्लिष्टता आ जाती है। केशव की ओजपूर्ण शब्द रचना से काव्य में एक विशेष चमत्कार अवश्य आ गया है, जो साधारण वाक्य योजना से संभव न था। “गरीब निबाज सका), लायक” आदि उ्द और फारसी के कुछ शब्दों का भी प्रयोग मिलता है, पर इन भाषाओं के शब्दों के प्रयोग की ओर उनकी रुचि अधिक न थी। संस्कृत के वातावरण में पलकर उनकी भाषा में विदेशी शब्दों का कम संख्या में पाया जाना स्वाभाविक ही है। केशव ने कतिपय ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया है जो त्रजमापा में बहुत प्रचलित न थे। ऐसे ब्दों के प्रयोग से काव्य में अप्रतीतत्व. दोष आ गया है। फेशवदास ने कुछ शब्दों को ऐसे अर्थ में प्रयुक्त किया है स्ंधा नवीन है | शब्द ञ्थे अलोक कलंक लांच रिश्वत ऐलो आड़ ' नारी समृह संस्कृत के विद्वान और अलंकारवादी होने के कारण केशव की भाषा में दुरूहता और क्लिप्टता आ गई है। प्रबन्ध कथा का वबर्गान करने के साथ केशव ने आलंकारिक योजना का विशेष केशव की सापा श्श्६ ध्यान रखा है. इससे भाषा में जटिलता आ गई है। भावना को यदि यथातथ्य रूप से प्रकट कर दिया जाय तो उसको पहिचानने और सममभरने में कोई कठिनाई नहीं होती। हृदय से उद्भूत भावों का प्रभाव सर्वभूतात्मक है। कवि जब अपनी इत्-तंत्री की माझार कविता में ज्यों का त्यों अवतीर्ण कर देता है, तो उसकी कविता सानव छूद॒य को बरचश आकृष्ट कर लेती है। चमत्कारी ओर बैभव-सम्पन्न परिस्थितियों में रहने के कारण फेशवदास से अपनी भाषा को भी चमत्कार और अलंकारयुकत बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि कचिता में दुवोधता आ गई है | अलंकारों फे पीछे पड़ जाने के कारण कविता में हृदगत भावों की अभिव्यंजना नहीं हुई, वह तो अलंकारों के लिए लिखी हुई जान पड़ती है, दृदय की भावना या घटना-प्रसंग को वास्तविक्रता के साथ चविश्रित करने की हृष्टि से नहीं। फेशवदास का भापा पर अमित अधिकार था | विषय और परिस्थिति के अनुरूप ही कवि ने भाषा को प्रयुक्त किया है। ध्वन्यात्मकत्ता का सौन्दर्य भी केशच के काव्य में प्राप्त हो जाता है। शब्द-भाण्डार अपरिचित होने के कारण केशव की कविता में एक जैसे भाव को प्रकट करने के लिये भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग क्रिया गया है, यही नहीं कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग भो क्रिया गया है, जो उस समय हिन्दी भाषा के लिये सर्वधा नवोन थे। शब्द शक्ति का कबत्रि को पूर्ण ज्ञान था। जहाँ तक पारिहत्य और शब्द भांडार का प्रश्न है केशवदास उसके आचाये थे, परन्तु उनके काव्य सम्बन्धी कुछ नत ऐसे थे जिसके कारण उन्होंने कविता के वाह्यावरण को सजाने हो में प्रतिभा का अपव्यय किया अन्यथा यदि काव्य की आत्मा के संरक्षण का ध्यान केशव रखते तो उनकी कविता शब्द की खिलवाड़ मौर केवल अलंकारों की सब्जूपा न धरती गहती उसमें साच-संग्रणणता और रसासुभूति भी पयाप्र सात्रा में होती । १६० रामचन्द्रिका केशवदास की रचना में काव्यगत दोष भी स्थान स्थान पर मिलते हैं जैसे “करे साधना एक परलोक ही कौ' में च्युत-संस्क्रति हि रत ने जप ० त्व श दाप है यहाँ “को” के स्थान में “की” होनी चाहिये । न्यून पदुल् दाप | पानी पावक पवन प्रमु, ज्यों असाधघु त्यों साधु इसका आशय तो यह है कि पानी, पावक, पवन ओर प्रभु ध-असाध दोनों के प्रति एकसा ही व्यवहार करते हैं. परन्तु वाक्य में पर्याप्त शब्दों की न््यूनता से ऐसा अर्थ सरलता से नहीं निकल पाता | शब्द की तीन शक्तियाँ मानी गई हैँ :--१. अमिधा, २. लक्षणा,. ३. व्यंजना केशवदास की भाषा पर ध्यान देने से यह विद्त होता हे कि उन्होंने शब्द की अमिधा शक्ति से ही अधिक काम लिया है | अमिधा शक्ति के. द्वारा हम केवल शब्द के वाचक अर्थ तक पहुँच सकते हैं | काव्य में चमत्कारपूर्ण सौन्दर्य लाने के लिये जितनी लक्षणा की आवश्यकता पड़ती है उतनी अमिधा की नहीं। अमिधामूलक व्यंजना उनके सम्वादों में कहीं-कहीं अवश्य आई हैँ। रावण हनुमान से कहता है कि “तूने सागर ११ ९६ 99 केस पार किया” । हलुमान कहते हैं “जैसे गोपढ”। सागर कैसे तरयो ! जैसे गोपद | काज कहद्दा ! सिय चोर देखौ । ऊस चँँघायों ? जु सुन्दरि तेरी छुई हग सोवत पातक लेखौ ॥ अआ्राशय यह है कि दृष्टि से ही रावण की ञ््री को देखने पर तो नुमान को बन्दी बनना पड़ा और रावण ने तो एकांकी सीता का अपहरण किया हूं, उस ता अति भयंकर दण्ड मिलेगा । केशव की सापा १६१ मुहाबिरे और लोकोक्तियाँ भाषा की सुन्दरता की वृद्धि करते | केशवदास ने मुदाविरों का प्रयोग तो किया है किन्तु लोकोक्तियों की ओर उनकी रुचि लू थी। आलंकारिक योजना में प्रवृत्ति लीन रहने के कारण मुहाविरों का प्रयोग थोड़े ही स्थलों पर हुआ हे। 2२. कीन्ही न सो कान | ५.२. स्वाद कहिवे को समर्थ न, गुंगे ज्यों गुर खाय | ३२. दुःख देख्यो जो कालिह त्पों आजहु देखौ। ४. हों बहुते गन मानिह्दों तेरे । भू, भूलि गई तब, सोच करत अच जत्र सिर ऊपर आई | ६, बीस बिसे बलवन्त हुते हुती दग केशव रूप रई जू | को है इन्द्रजीत जो भीर सद्दे | ८. निकट विभीषण आइ तुलाने | है भाव-गांभीय, तत्सम संस्कृत शब्दों के प्रयोग तथा क्लिप्ट' कश्पना के कारण केशव को एक युग से कठिन काव्य का प्रेत माना जाता रहा है| केशवदास संस्कृत के विद्वान थे ओर उनकी कल्पना शक्ति भी विलक्षण थी, अतः अपनी बुद्धि का चमत्कार क्रेशव ने काव्य रचना में प्रदर्शित किया है। रामचन्द्रिका को छोड़कर केशव के अन्य ग्ंथों की भापा उतनी ही सरल है, जितनी प्रज भाषा के अन्य कवियों की । रामचन्द्रिका में भी जब छन्दों के अर्थ को समझ लिया जाता है, इसके उपरान्त उन कल्पना की उड़ानों में भी वोघगस्यता आ जाती है। हिन्दी साहित्य के अन्य कवियों ने भी क्लिप्ट काज्य की रचना की है; किन्तु क्लिप्टत्व का दोष उस पर कमी भी.आरोपित नहीं किया गया। सूर के कितने ही कूट पद ऐसे हैं जिनका अर्थ आज भी ११ दर रामचन्द्रिक। विचादगरत है; तुलसीदास को भी कितत्ती ही पंक्तियाँ ऐसी ही हैँ । विनयपत्रिका के कितने ही पद ऐसे हैं जिनके अर्थ के सस्वन्ध में विद्वानों में आज भी मतसेद है, लेकिन उन्हें अथे समझ से न आने के कारण ही क्ल्िष्ट नहीं कह्ठा जा सकता, क्योंकि जब सही अर्थ निकल आयगा उस समय काव्यगत आनन्द प्राप्त अवश्य होगा । भाव की रमणीयता ही कविता को श्रेष्ठ चनाती है और रसिक जन तो “झुबरन को ढूढ़त फिरत, कवि भावक अरु चोर”। थोड़ा परिश्रम करने के उपरान्त यदि भाव की शुश्र श्रोतस्विनी प्रवाहित हो उठे तो प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रम उठाकर उस सरिता के शीतल जल का पान करके अपने हुदय की ठतूपा को अवश्य घुकाना चाहिये | केशब की कविता का सतत अभ्यास करने के उपरान्त वह रचना हमें सरल और भावस/प्रक््त ही प्रतीत होगी। केशव ने वाच्याथे में अधिक रुचि प्रदर्शित की है, व्यंग्रार्थ का प्रयोग कम स्थलों पर किया गया है । रस ओर ध्वनि के प्रति उदासीन होने के कारण सेद्धान्तिक दृष्टि से उन्हें वाच्या्थ पर ही ध्यान देना था। कहीं-कहीं व्यंगार्थ का भी कुशलतापू्बक प्रयोग किया गया है :-- कीन के सुत ? बरालि के, वह कौन ब्रालि न जानिये ? काँख चापि तुम्हें त्तो सागर सात नहात बखनिये॥ है कहाँ वह बीर ? आअंग्द देवलोक बताइयो | क्यों गयो ? सघुनाथ बान विमान बैठि सिधाइयो ॥ गयवण के प्रश्न करने पर अंगद ने जब यह कहा कि बालि को रामचन्द्र ने मार दिया है, उसमें यह व्यंगार्थ भी है कि जन - गालि जैसे वीर को-जिसने रावण को काँख में दबाकर सात समुद्रों की परिक्रमा की थी--श्रीराम ने मार डाला । ते हे रावण ! तुके मारने में तो भगवान राम को कोई कठिनाई नहीं हागी। क्रेशव की सापा ५६३ कह्दी-कही बाक्य-रचना विल्कुल अव्यवास्धित है, जिसके कारण अथे पूर्णतया चदल गया है। “राज़ देहु जो बाकी तिया को” पंक्ति में केशव कहलवाना तो यह चाहते थे कि “सुग्रीय को थदि उस्रका राज्य और उसकी ख्री दिला दो” परन्तु अस्तुत बाक्य रचना से यही अथे निकलना शक्य है कि “डसकी स्त्री को यदि राज्य दे दो” इस प्रकार की भाषा सम्बन्धी च्रुटियाँ भी रामचन्द्रिका में यत्र-तत्र दिखलाई पड़ती हैँ । केशवदास की कविता में पुनरक्ति दोष भी कहीं-कहीं सिल् जाता है-- ले धनु बाय चली तत्र धरायो। पल्लव जो दल मार उडायो॥ न््यून पदत्व और अधिक पदत्व दोष भी कहीं-कहीं पाया जाता है ओर मिलाने के लिये कवि ने शब्दों को भी कहीं-कहीं सोड़ा-मरोड़ा है । अधिक पदत्व दोप दोहा :--तत्तीरयें प्रकाश में, ब्रह्मा घिनय बखानि | शम्बुक भ्रध सिय त्याग अरु कुश लव जन्म सो बानि | अरुणगात अति प्रात पद्मिती प्राशनाथ भय में अन्तिम शब्द के स्थान में सही शब्द “भये' हैं। यहाँ नीचे की पंक्ति के अन्तिम शब्द प्रिममय' से तुक मिलाने के लिये कवि ले 'भये! - को भय कर दिया । छुन््दशास््र के आचार्य और संस्कृत क्ले विद्यान होने पर उपर्युक्त भ्कार की चुटियाँ ऐसी नहीं थीं, जिनका प्रिद्दार केशव न कर सकते | परन्तु छन्दों का ज्ञान कराने के लिये यहद् रामचन्द्रिका लिखी गई है। ग्रंथारंभ में कवि ने न्वयं लिखा है :-- धसमचन्द्र की चन्द्रिका वरणत हों बहु छुन्द १६७ रासचन्द्रिका छन्द के ज्ञान के लिए विविध छन्दों के लक्षण ओर उदाहरण सिखला देना ही पर्याप्त नहीं हे, शत्युत दोषों का भी ज्ञान करा देना आवश्यक होता है, जिससे काव्य के विद्यार्थी उस प्रकार के दोपों से विरत रहें। बिना बतल्लाए दोपों का निराकरण असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है। इसीलिए केशवदास ने संस्कृत के विद्वान् होते हुए भी, च्युत-संस्क्ृति दोष, न््यून पदत्व और अधिक पदत्व दोष का समावेश काव्य के विद्यार्थियों की शिक्षा के हेतु ही कर दिया है ; अन्यथा इस प्रकार के साघारण दोषों का केशवदास जैसे विद्वान की कविता में पाया जाना संभव नहीं था । छेशवदास की कविता में विविध प्रकार की शब्द-शैली ओर वाक्य योजना मिलती छे। कवि की भाषा में असाद, माधुर्य और ओज तीनों गुणों का समावेश हुआ है। प्रसंग के अनुरूप भाषा प्रयुक्त करने में केशव सिद्धहस्त थे। बीररस के समावेश के लिये द्वित्त और परुपावृत्ति के वर्णा का प्रायः अयोग किया जाता हे। युद्ध बरणनों में केशवदास ने इस शैली का स््रच्छन्द प्रयोग किया हे । ओजपूर्ण वर्णन करने में केशब को अपूर्व सफलता मिली है :-- ह पढ़ी विरचि मौन वेद, जीव सोर छुंडि रे | कुवर बेर के कष्दी, न जच्छ भीर मंडि रे | हैं दिनेश जाय दूर बैठि, नारदादि संगही । नबोजु चन्द, मन्द बुद्धि इन्द्र की सभा नहीं॥ जहाँ अलंकारों का परिच्छद कवि ने उतार दिया है और जब चमत्कारभत्रियता की भावना को विस्मृत कर दिया है उस समय वशानों में माधुयं गुगुसचक्त भावनाओं का समावेश हुआ है । क्रेशव की भापा ५६५ केशवदास की भाषा में क्लिप्ट शब्दों का प्रयोग होने और अलंकारों के कारण अथ में गहनता होने से केशवदास को “कठिन काव्य का प्रेत! कहा जाता है। भाषा और भात्र में चमत्कारिकता ला देने के कारण केशव को पचुर ख्याति भी प्राप्त हुई | पारिडत्यपूर्ण शैली में ही केशवदास काव्य प्रणयन करना चाहते थे। अध्ययन तथा निरीक्षण के द्वारा प्राप्त समस्त जान को केशवदास कला के रूप में प्रकट कर देना चाहते थे | रामचन्द्रिका के कवित्त और स्ेैया आदि छन्दों की भाषा प्रायः सुब्यवस्थित और: सरल है। अलुपयुक्त और ध्प्रचलित शब्दों के प्रयोग के कारण ही रामचन्द्रिका के छन्दों में किलप्रता आ गई है। ऐसा प्रतीत हाता है. कि कवि ने शब्दों को प्रथुक्त करने के पूर्व उन्हें ठीक रूप से परखा नहीं। इनकी भाषा से साधुर्य और प्रसाद की कुछ कमी ही है। ओजगुण वधिक है। वाक्य विन्यास में शिथिलता नहीं आने पाई है। प्र केशव के छन्द काव्य में रस-निष्पत्ति का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है; प्रत्थेक रचनाकार अपने हृदय में उद्भूत होने वाले विचारों का इस प्रकार प्रकट करता है, जिससे पाठक या श्रोता के में भी बंसी ही भावषनाएँ अ्रस्फुटित होने लग जायेँ। काव्य में इस शुण की प्रधानता होने के कारण उसका प्रभाव सर्ब॑भूतात्मक हैं। संगीत के श्रति सम्पूर्ण प्राणीसात्र की सदा से अमिट अभिरुचि रही है । कलकल ध्वनि से बहने वाली ख्रोतरिवनी. मन्दरगति से चलने वाली हवा में और लहराती हुई लतिकाओं स॑ एक सुन्दर संगीत की ही ध्वनि निकलती है। काव्य में संगीत क इस तत्व का समावेश एक नियमित परिपाटी पर शब्द योजना अथान छन्दों का प्रयोग करने से होता है। अनादि काल से कचिता ओर छन््द का घनिष्ट सम्बन्ध माना जाता रहा है। प्रवनन््ध काव्य में छन्द-योजना के सम्बन्ध में 'साहित्य दर्पण के प्रसिद्ध रचयिता पं० विश्वनाथ ने लिखा है ' एक वृतमर्थ: पद्यरवसानणन्य वृत्तक: अथांतू एक सर्ग में एक छन्द का ही प्रयोग किया जा सकता है। केवल सर्गान्त में एक प्रथक छन्द का प्रयाग क्रिया जा सकता है। छन्दशासतत्र के अनुसार छन्दों के अतका अकार हूं । प्रबन्ध काव्य के लिये जिस नियम का प्रतिपादन साहित्य शात्तियों ने किया है वह सर्वथा उपयुक्त है । एक ही छन्द का प्रयोग होने से विषय और प्रसंग की अनुभूति मे बहुत सहायता मिलती है।वार-बार बदलते हुए छन््दों में केशव के छुन्द १६७ पाठक को बदलते हुए छन्दों की लय से अपनी मानसिक स्थिति का समन्वय करने का चहुथा प्रयत्न करता पड़ता है. नहीं तो कथा के सूत्र को छोड़कर परिवातत छुन्द की ओर ध्यान चला जायगा और क्रसिक अनुभूति ज्ञो कथानक से रुचि उत्पन्न करती है, शिथिल पड़ जायगी। विविध छन्दों ओर पदों की योजना मुक्तक-काव्य में की ज्ञा सकती है, लेकिन प्रवन्ध काव्य में तो रस निष्पत्ति के अनुरूप ही छन्दों का प्रयोग किया जा सकता है। रामचन्द्रिका की रचना केशवदास ने आलंकारिक योजना के लिये द्वी नहीं अपितु भिन्न-भिन्न छन्दों में रचना करने की योग्यता प्रदर्शित करने के लिये सी की है। रस और अलंकारों की शिक्षा देने - के लिये केशवदास ने क्रमशः रखिक प्रिया और कवि प्रिया की रचना की और छन्दशाश्न के ज्ञान के लिये कवि रामचन्द्रिका की रचना में प्रवृत्त हुआ। अंथारंभ ही में फेशव से अपनी इस इच्छा को प्रकट कर दिया है :--- जागत जाकी ज्योति इक, सुचै रूप स्वच्छुन्द । रामचन्द्र की चन्द्रिका, बरनत हों बहु छुन्द ॥ मिन्न-भिन्न छन््दों के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए कवि रामचन्द्रिका की रचना में संलग्न हुआ । कबि प्रिया ओर रसिक प्रिया में केशवदास ने संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्या द्वारा बतलाए हुए सियमों का पालन किया है, लेकिन विभिन्न छन्दों में रचना करने के लक्ष्य से प्रेरित होने के कारण केशव से “एकवृत्तमये:” का प्रवन्ध काव्य के लिये जो नियम है, उसका पालन नहीं किया। एकाक्षरों से लेकर अप्टाक्षरी छन्दों तक का प्रयोग रामचम्द्रिका भें किया गया है। छन्द शालत्र में जिन छुन्दों के नाम और लक्षण दिये ] श्ध्द रासचन्द्रिका हैं उन सब्रों में कवि ने रचना की है ; यही नहीं छनन््दों के दोषों को भी रखा है, जिससे छन्दशास्त्र के विद्यार्थी को पिंगल का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जावे। रामचन्द्रिका में ऐसे छन्दों का भी प्रयोग मित्रता है, जिनके लक्षण प्रायः नहीं मिलते । उनके लक्षणों की पहिचान भी पहिले किसी आचाये ने नहीं कराई । छन्द-शासत्र के पारिडत्य को प्रदर्शित करने की भावना से अनुप्राणित होकर कवि ने छुन्द सम्बन्धी काव्यशास्त्र के सबे- मान्य सिद्धान्त की भी अवहेलना की है। भिन्न-भिन्न भ्रकार के ' छुन्दों में रचना करने का उपयुक्त स्थल छन्द शास्त्र ही है। छुन्दों का परिवर्तन सहसा ओर शीघ्रता के साथ होने के कारण पाठक का ध्यान कथाबस्तु में लीन नहीं हो पाता वरन् छन्दों की इस विविधता के जजाल में उलभ जाता है। रामचन्द्रिका की कथावस्तु के प्रवाह में भी इन बदलते हुए छन््दों के कारण बाधा पहेची है। उन प्रसंगों में पाठक का दृदय छुन्दों की विविधता रे कारण ओर भो लीन नहीं हो पाता। केशवदास आधचाये से ओर कविग्रिया तथा रसिक श्रिया की भाँति रामचन्द्रिका,को उन्नण ग्रंथ के रूप ही में लिखने की उनकी इच्छा रही होगी | टर्सालिए विविध छन््दों का समावेश कराया गया हे। काव्य के बहुत से अनुपयुक्त छन्दों का प्रयोग भी केशव ने किया हे। यह सच है कि कहीं-कहीं परिस्थिति के अनुकूल छन्दों का प्रयोग किया गया हे, जिसके कारण प्रसंग अत्यन्त रोचक हो गये हैं । द्रतगति के लिय छाठ-छोट छन्दों का प्रयोग प्राय किया गया है | गंभीरता तथा ओज प्रकट करने के लिये बड़े- बह छनन््दों का प्रयोग किया है। कवित्त और सबंयां ही में गम्भीर नथा शान्त बरातावरण की व्यंजना की गदे है । बीर से के बगान में छप्पय, भुजंग प्रयात आदि छन्दों का प्रयाग किया गया हे । केशव के छन्द श्ध्६ केशव एक असाधारण कचि थे । उन्हें भाषा पर पूर्ण अधिकार था, इसीलिए अपनी बहुल्ञता प्रकट करने के हेतु उन्होंने ऐसे छन्दों का प्रयोग किया जो अन्य क्रवियों द्वाग प्रयुक्त नहीं किये गये | छन््दों की इस वि घता को रखते समय केशव ने यह विचार न किया कि उनके द्वारा ऐसा किये जाने से रस-निष्पत्ति में वाधा होगी और प्रवन्ध काव्य की रचना करते के नियम का उल्लंघन हो जायगा। प्रबन्ध काव्य की हृष्ठि से विभिन्न छनन््दों का समावेश उचित नहीं है, उससे कथा परचाह में और उसको कऋरमबद्धता में व्याघात पहुँचता है। केशवदास के अतिरिक्त इतने विविध इछन्दों में हिन्दी में किसी अन्य कवि ने रचना नहीं की। केशव में ही इतने छन्दों की रचना करने की काव्य-शक्ति थी। परन्तु प्रवन्ध काव्य में इस प्रतिभा का प्रयोग अनुचित ही है । यदि छन्द शास्त्र पर भी रचना करने की इच्छा थी तो यह उत्तम होता कि केशव प्रवन्ध काव्य के बजाय मुक्तक काव्य की ही रचना करते | छुन्दों की प्रदर्शिनी अवन्ध काव्य में नहीं लगाई जा सकती। प्रवन्ध कवि फो एक भी प्रसंग ऐसा न आने देना चाहिये जिससे रसानुभूति या कथा प्रधाह दृट जाने की आशकद्का हो जाय। संस्कृत के असिद्ध प्रवन्धकारों ने भी एक सर में एक छन्द' के नियम का सर्वेत्र पालन किया है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश में काव्य मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का ही पूर्णतः पालन किया है। केशवदास में छन््द रचना की असाधारण शक्ति ओर प्रतिभा तो थी, किन्तु प्रवन्ध काव्य में उसका प्रयोग करने से उन्हें अभीष्ट सफलता न मिल सकी। रामचन्द्रिका में विविध छन्दों का ग्रयोग किया गया है जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैँ :-- | १७६० रामचन्द्रिका एकाक्षरी श्री छन्द :--- सी, थी |री, धी, सारचन्द :-- राम, नाम । सत्य, घाम ॥ और, नाम | को न, काम ॥ रमणहुन्द :-- दुल्ल क्यों । टरिहे | हरि जू | दरिदे॥ अप्टासरी नभध्वरूपिणी छुन्द :-- भलो बुरो न वू गुने । वृथा कथा कहे सुने। न राम देव गाइहे। न देव लोक पाइहै। प्रव्फटिका छन््द :-- अति निपट कृटिल गति यदपि श्राप । ततड कल्लू आपुन अधथ अ्रधगति चलन्ति | देत शुद्ध गति छुबत आप॥ फल पतितन कहेँ. अरब फलन्ति ॥ ब्यग्ल्त्ि घ नट १--- देग्वि बाग. अनुणग उपज्जिय | बोलत कल च्वनि कोकिल सज्जिय ॥ परादाकुलक छन्दे :-+- शुभ सर शोमे । मुनि मन लोभ । सरमिन्त फ़ूल्ने | अलिग्स भूले ॥| फेशबदास ने कहीं-कहीं प्रसंगानुकूल कुछ योग किया दे जिसके पढने से ही वह दृश्य स्वयमेव चित्रित केशव के छन्द १७९ चुना हो जाता है। घोड़े के बर्णन में कवि ने चंचला छन्द को चुना जिसकी गति घोड़े की गति से मिलती है। छन्द को पढ़ने से ऐसा मालूम पड़ता है मानों घोड़ा खूँद रहा हो :-- भोर होत ही गयो सुराज लोक मध्य बाग | बराजि आनियो सु एक इंगितज्ञ सानुराग ॥ शुश्र सुम्भ चारिहून अंश रेशु के उदार । सीखि सीखि लेतह ते चित्त चंचला प्रकार ॥ 8 केशव की विचारधारा कवि की रचना में उसके हृदय की अन््तर्निहित भावना तथा उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का पूर्ण प्रस्फटन होता है | जिस समय केशव हिन्दी साहित्य में अवतरित हुए उससे पू्बे सूर ओर तुलसी भक्ति की पावन वाणी से समाज के हृदयों को वचित्र कर चुके थे। सूर और तुलसी ने अपने उपास्यदेव की आराधना करने का माध्यम ही काव्य को बनाया, यही कारण है कि उनकी रचनाओं के द्वारा भक्तित भावना का अविरल श्रोतत याहित हुआ | तुलसीदास तो नर-काव्य करने के पूर्ण विरोधी थे । फीन्द्दे प्राकृत जन गुस्य गाना। मिर घुनि गिय लागि पछिताना ॥ केशवदास जिस राजसी वातावरण में रहे उसमें यह संभव ने था किये उपासना मार्ग का अनुसरण करते। राजाओं के चशोगान ही में उन्होंने काव्य की रचना की, केवल तुलसी द्वारा प्राऊन कि केशव कह जान के कारण या वाल्मीकि द्वारा स्यप्न में प्रताघन दिये जाने पर केशव रामचन्द्रिका की रचना प्रश्न हुए। छदय की भक्ति भावना के प्रबल वेग से प्ररित द्ोकर इस काव्य की रचना नहीं की गद है। रामचन्द्रिका में ४ या ली पर्गित उपास्यदेव के प्रति केशव का अनन्य भक्ति न थी। कवि- प्रया आर गमिकर्ध्रिया में कृष्ण के जीवन को आलंबन सान- झग गाना की गई हे। शांगारिक भावना से कवि का दृदय + हर | बन ५) मन््ड केशव की विचार धारा श्ड्ड् इतना ओत-प्रोत था कि अपने उपास्यदेव के प्रति भी वह श्रद्धा ओर सम्मान की भावना न रख सका । कृष्ण और राम को काव्य का विपय बना करके भी केशव भक्तिभाव पूर्ण रचना न कर सके | वैभव और प्रवीण राय पातुरी के नृत्य और संगीत के मादक बाता- वरण में रहकर केशव का हृदय एक साधक की भाँति भक्ति-भावना से आप्लावित ही कैसे हो सकता था | रामचन्द्र को इश्देव मानते हुए भी ( कियो रामचन्द्र जू इष्ट ) केशवदास ने रामचन्द्रिका में एसी उरक्तियाँ प्रकट की हैं, जो इस बात की परिचारिका दूँ. कि केशब के छृदय में राम के प्रति वैसी सम्मान एवं श्रद्धासूचक भावना न थी, जैसी कि एक भक्त से अपेक्षित है। राम वर्णन करते समय केशव ने लिखा है :-- किंघी मुनि शापद्वत, किंधौ ब्रह्म दोष रत | किंधौ फोऊ ठग ही, ठगौरी लीन्दे. ... .. ॥ रास के सम्बन्ध में इस प्रकार के कथन से यह प्रकट होता है कि केशव के हृदय में भक्ति की भावना को स्थान म था। लोका- नुरंजन के लिये अवतार लेने वाले भगवान राम का भी ऐसा ख्ेंगारी चित्र रामचन्द्रिका सें खींचा गया है जो केवल कृष्ण काव्य के लिये ही उपयुक्त था। रास क्रीड़ा कृष्ण के जीवन का अधान अंग है । गोपिकाओं के मध्य मधुर सुरलि-स्वर में गीत-गाकर कृष्ण ने रास विहार किया; उसी रूप में राम के जीवन को अंकित करने के लिये केशवदास ने बत्तीसवें प्रकाश में जक्-कीड़ा फा वर्णन किया है | जिन राम का यह सिद्धान्त था कि ४ म्ोहि अतिशय प्रतीत इन केरी | जिन सपनेहुँ परनारि न देरी] * ( तुलसी ) 7७9 रासचन्द्रिका वे ही राम सुन्दरियों के साथ एक जलाशय में जल-क्रीड़ा रते हैँ । एक रसिक के रूप में ही राम का चित्र अंकित किया 4५ | है। रास के साथ जलक़ीड़ा करने वाली कोई सत्री हँस रही आर कोइ अन्य हाव-साव दिखा रही हे उन्हीं के मध्य में रास ली उपस्थित हैँ :-- साया 2] हक एक दमयन्ती ऐसी इंरं हसि हंस-वंश, # हंसिनी सी विसद्ाार हिये रोहियो। भूषण गिरत एके लेती वूड़ि बीचि बीचि, मीन गति लीन हीन उपमान टोहियो ॥ एक मत क-के कंठ लागि लागि बूढ़ि जात, जल देवता सी देवि देवता विमोहियो । केशोदास आसपास भँवर भैंबत जल- केलि में जलजमुखी जलजरी सोहियो ॥ क्ौड्टा सरवर में दृपति, कीन्द्दी बहुविधि केलि । निकसे तरुणि समेत जनु , सूरज किरण सकेलि ॥ गामचन्द्रिका में किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर केशव ने यह ठकद किया है कि वे रास के उपासक हैं | वाल्मीकि ने स्वप्न में ऊंशय का यह प्रयोधन दिया था कि जब तक यह राम गगागान ब् ३ चर. न फरंगा उसे बंकंठ की प्राप्रि न हो सकेगी । भला बुरा ने तू गुने | छुथा कथा कहे सुवै ॥ ने राम ऐेव गाइहै | न देव लोक पाशहे ॥ लिर साल्सीकि द्वारा उपदेश दिये जाने के उपरान्त ही केशपय- दास ने राम को एपरास्यदेतव बनाया-- ः प्रदेश £ जबरही भगे अध्ष्ट | म्या, गमचन्द्र ज् इृश्ठ ॥ ग्र 5 केशव की त्रिचारधारा श्ज्छ् सीता अग्नि-परीक्षा के प्रसंग में केशव ले यह प्रकट किया है कि उनके हृदय से रास की भक्ति हे। 'हुताशन मध्य सबवासन सीता' को देखकर केशव भिन्न-भिन्न रूप में सीता का चर्गन करते हैं उस समय कवि ने यह भी उद्प्रेज्ञा की हे कि अग्नि की उ्वालाओं के मध्य सीता इस प्रकार ब्रेठी हुई हैं जिस प्रकार कि केशव के दृदय में राम की भक्ति बसती है :-- ज्यों रघुनाथ तिहारिय भक्ति लेसे उर केशव के शुभ गीता । त्यों श्रवलोफिय आनंद कन्द हुताशन मध्य सवासन सीता ॥ लेकिन यदि केशव के दृदय में निश्चल राम भक्ति की प्रवेग- मयी धारा प्रयाहित होती तव न तो थे नर काव्यों की रचना करने की ओर प्रवृत होते और सर शृंगारिक भावना ही उनके मन में आ सकती थी । साध्यमिक काल में यावनी प्रतारणाओं के कारण हिन्दू धर्म भाय: प्रियमाण हो गया था, हिन्दुओं को न तो सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने दिया जाता था ओर न उन्हें उपासना करते की ही अनुज्ा और सुविधा थी। धर्म के इस अज्यवस्थित वातावरण में स्वयं हिन्दू धर्म के अजुयायियां में भी श्रम और अविश्वास क्री भावना फेल गयी । कुछ तो अपने को तदीयाकार बतलाकर जनता को गुमराह करके, वेदिक और पौराणिक उपासना के स्थान पर स्वयं की पूजा कराने लगे। भारत में आज भी ऐसे डॉगी साधुओं की कमी नहीं है। ऐसे ही लोगों के सम्बन्ध में सुलसीदास से यह कहा था :-- साखी, सबदी, दोहरा, कद्दि कटिनी उपखान। भगति निरूपहि भगत कलि, मिन्दहिं बेद, पुरान ॥ एसी परिस्थिति में जनसाधारण के इदव से धर्म का त्रिश्वास उठता जा रहा था । हिन्दू धर्म के सिद्धान्त संस्क्त भाषा में होने १७६ रामचन्द्रिका के कारण साधारण जनता उनसे अवगत नहीं हो सकती थी। ऐसे ही जनता के लिये 'रामनाम का महात्म्य' तुलसीदास ने रामचरितमानस को रचना करके सममााया। केशवदास ने भी राम-गुण-स्तवन को मुक्ति का साधन माना है। रामचन्द्रिका 'के २६ बे प्रकाश में रामनास महात्म्य वर्णन किया है। वशिष्ठ ने ब्रह्मा से राम नाम के महत्व को प्रकट करने की ग्राथना को । रास नाम के प्रभाव का वर्णन करते हुए ब्रह्मा जी ने कहा है :-- कहे नाम आधो, सो आधो नसावे। कह्ै नाम पूरो, सो बैकुंठ पावे॥ सुधारे दुहँ लोक; को वर्ण दोऊ। हिये छुदन छाँड़े कहे वर्ण कोऊ॥ मरण काल काशी विपे, महादेव गुण धाम । जीवन को उपदेशि हैं, रामंचन्द्र को नाम ॥ मरण काल कोऊ कहे, पापी होय पुनीत। सुख द्वी हरिपुर जाइहे, सच जग गाव गीत || यद्यपि केशवदास ने रामोपासना के महत्व को प्रदर्शित किया है लेकिन फिर भी उन पंक्तियों में से कवि का भक्त हृदय मॉँकता हुआ दिखलाई नहीं देता । ऐसे कथन तो केवल उपदेश मात्र हैं. एक भक्त के छदय से निस्रत हुई भक्ति भावना नहीं। केशवदास के छदय में तो रूप का विलास; सोन्दर्य और संगीत के प्रति आकर्षण ओर वेभव का मद था। सौन्दर्यशालिनी परकीया कवि के छृदय को विचलित किया करती थीं। , पावक पाप सिखा बड़वारी | जारति है नर को परनारी ॥ एसिक प्रिया में परकीया नायिकाओं का भेद प्रदर्शित करते समय केशब्र ने लिखा है :-- केशव की विचारधारा १७७ परकीया दे. भाँति पुनि, ऊढ़ा एक अनूढ़ । जिन्हें देसि बस द्वोत हैं, संतत मूढ़ अमूढ़ ॥ इस असूढ' की परिधि के भीतर बहुत से पंडित भी आ सकते हैँ ओर सम्भवत्त:ः केशवदास भी इस परिधि के बाहर अपने को न सममते होंगे। यदि उनके हृदय में सच्ची राम भक्ति होती तो वे न तो प्रवीणराय पातुरी को 'रमा', 'वीणा-पुस्तक- धारिनी' और शिवा कि रायप्रब्ीन! के रूप में कभी देखते और नब्रद्धावस्था में युवतियों द्वारा बावा' कहकर सम्बोधित किये जाने पर उन्हें अपने सफेद बालों को कोसने की आवश्यकता पढ़ती । - केशवदास ने संस्कृत के ग्रंथों का अकुछा अध्ययन किया था और इस प्रकार भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों के और जीवात्मा तथा परमात्मा के सम्बन्ध में उन्हें अच्छा ज्ञान था। सिद्धान्त की हृष्टि से केशब अद्वेतवादी प्रत्तीत होते हैँ । समस्त संसार में उसी एक ब्रह्म का आभास उन्हें दिखायी देता है । तुम आदि मध्य अवसान एक | अरू जीव जन्म समुर्भे अनेक ॥ तुमही ज्ञषु रवी रचना विचारि | तेहि कौन भाँति समुझौं मुरारि ॥ सब जानि बूमियत मोंदहि राम | सुनिये सुकहौं, जग ब्रह्म नाम॥ तिनके अश्रशेष प्रतिविब जाल । तेइ ज्ञीय जानि जग में कृपाल॥ वेदान्तवाद के अनुसार केशवदास भी सांसारिक बन्धनों को मिथ्या सममते हैं । न कोई किसी का पिता है, न माता और श्र ब १७८ “ शासचन्द्रिका स अन्य कोई सस्चन्धी | क्षणभंगुर शरीर में अनासक्ति रखकर ही मनुष्य सुख की साँस ले सकता है :-- आयो कहाँ अब हों कहि को हों । ज्यों अपनो पद पाऊँ सो ठोहों॥ बन्धु अबन्धु हिये मभहेँ जाने । - ] ता कहँ लोग विचार बखाने ॥ केशवदास संसार में दुःख को ही फेला हुआ देखते थे। वे संसार से सन्तुप्ट न थे । जग माफ है दुःख जाल | सुख है कहाँ यहि काल॥ ं सनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो, विपत्ति के भयंकार- आधातों से अपनी रक्षा नहीं कर सकता। साधारण सनुष्य की अपेक्षा राजा की चिन्ता ओर भी अधिक तीत्र होती है । राजकीय पद अनथे का सूल ही हे । तहँ राज है दुःख मूल । सत्र॒ पाप को अनुकूल ॥ तब ताहि. ले ऋषिराय । कह्टिं को न नरकहिं जाय | धर्म वीरता विनयता, सत्य शील श्राचार । राजभ्री न गने कछू, वेद पुराण विचार ॥ गर्भ में आने के समय से मृत्यु उपरान्त जीव को भिन्न-भिन्न प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं) जब ढःख की ही बढलता जीवन में हो, ता वह स्पृहणीय केसे हो सकता है ? वाल्यात्रस्था मे हानि-लाभ का कुछ भी ध्यान नहीं रहता और जोभी वस्तु सामने पढ़ी हुई मिली उसी को बालक खा लेता है चाहे बह फ्ेशव की विचारधारा १७६ अशुद्ध और विषाक्त ही क्यों न हो | घुवावस्था में युवति जनों के कटाज्षञों के प्रबल आघातों से उसका हृदय ज्तिप्ररत हो जाता है और बृद्धावस्था में शरीर शिथिल पड़ जाता है, द्वाथ-पेर साथ नहीं देते हैं और सर्वत्र निराशा ही दिखलाई देती है। कैशव ने संसार का इस प्रकार फारुशिक ओर नेराश्यपूर्ण चित्र अंकित किया है| १. वाल्यावस्था पोच मलो न कल्लू निय जानें। ले सच बस्तुन आनन आने ॥ है पिठ मातन तें दुःख भारे | श्री गुरु ते अ्रति द्ोत दुःखारे॥ २. युवावस्था वंक दिये न प्रमा सरखी सी। कर्दम काम कछू परसी सरी॥ कामिनि काम की डोरि ग्रसी सी । मीन मनुष्यय की चनसी सी॥ ३. बृद्धावस्था-जनित दुःख केपे उर वानि डगे वर डीठि स्वचाउति कुचे सकुचे मति वेली | नये नवग्रीवः थक गति केशव बालक ते संगद्दी संग खेली॥ लिये सत्र आधिन व्याधिन संग जरा जब आये ज्वरा की सदेली । भगे सत्र देह दशा, जिय साथ रहे, दुरि दौरि दुरास अफेली ॥ केशवदास ने भिन्न-भिन्न काव्य-्म्थों में अपने विचारों को पात्रों के मुख से प्रकट कराया है। रामचन्द्रिका में शाम के भुख से राजश्री निन््दा में तथा वशिष्ठ के मुख से विरक्ति कथन में और भारद्वाज आशभ्रस के वर्णन में केशव ने स्थान-स्थाद 2८० रासचन्द्रिका हे 5 पर जगत ओर परमात्मा के सम्बन्ध में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है, लेकिन विज्ञान गीता में घामिक प्रवृत्ति को केशव ने अधिक व्यव्य्ित किया है। वेसव ओर विलास के वातावरण में केशव चाहे जितने रहे हों पर उनका हृदय जगतः के जटिल इन्ह्रों और दुःखों के प्रति करुण चीत्कार कर उठता है। मनुष्य के हृदय में व्याप्त रहने वाली तृष्णा मनुष्य को शान्तिमय जीवन व्यतीत नहीं करने देती । मनुष्य उसके चक्कर में पड़कर दशों दिशाओं में मटकता फिरता है पर सन्तोप नहीं मिलता | इस तृष्णा की अपार नदी को पार करने में किसी को भी सफलता नहीं मिली है :--- कौन गने यहि लोक तरीन विलोकि बिलोकि जहाजन बोरे | लाज बिशाल लता लपटी तन घीरज सत्य तथाल न तोरे॥ ब्रंचकता अपमान अयान अलाभ मुजंग भयानक, ऋृष्णा । पाठ्ठ बड़ो कहूँ घाह न केशव क्यों तरि जाय तरंगिनि तृष्णा || काम, क्राध, मोह और लोभ आदि विकारों में असित होकर मनुष्य की दशा बड़ी ही संकटापन्न और विपम हो जाती है । इन्हीं मनाविकारों में पड़कर मनुष्य उन्नत अवस्था से पतित हाकर विगहंणा और अजुताप के गहन कूप में गिरता है। टन विकार्रों के ग्रलोभन और आकर्षण इतने प्रगाढ़ होते हैं कि उनके फन्दे से व्यक्ति अपने को मुक्त करने में सर्वथा असमर्थ पाता है बा 5 सैंचत लोभ दसों दिसि को गहि मोह मद्दा इत फाँसिहि डारे । ऊँचे ते गव॑गिरावत, क्रोघहु जीवद्दि लुद्दर लावत भारे ॥ ऐसे में कोट की खाज ज्यों केशव मारत कामहु बाण निनारे । मारत पाँच करे पंच कूटहिं काधों कह जगजीब बिचारे | संसार में ख्राकर जीव 'मरे ओर तेरे! के भेद में पड़ जाता केशव की विचारधारा श्द्ः है। इस मायाजाल में वह तथाकथित सम्बन्धियों की हिर्तेपणा के लिए उचित और अनुचित साधनों का प्रयोग करता है | लेकिन फिर भी वे अपने नहीं हाते। ज्ञिस घर को बनाकर व्यक्ति निवास करता हे, उसे बह भश्रमवश अपना सममता हे, लेकिन उसी घर में रहने वाले अन्य जीव भी हैँ, जो उस घर पर समान अधिकार रखते हैं। संसार की निस्सारता पर केशव से यह शिखा है :-- [१] माद्यी बद्दे गपनो घर, माछुर मूसी कहे अपनो घर ऐसो । कोने घुसी कद्ठि घूसि घिनोनी भिलारि औ काल चिलें मह वैतो ॥| बीटक स्वान सो पत्ति श्री भिन्लुक भूत कई, भ्रम जाल है जैसो । ही हूँ कहों श्रपनो घर ते सद्दि ता घर सो, अपनी घद केसो ॥ [२] कॉप्त सुभग्रोवा सच अंग सीमा देखत ' चित भुलारों | जमु अपने मन प्रति यद उपदेशति “या जग में कछु नाही । शिव ओऔर चशिप्ठ के सम्बाद के द्वारा केशव ने यह प्रकट कराया है कि रामोपासना ही सर्वश्रेष्ठ और जीव कल्याणकारी 3। भक्तिकाल में हिन्दू धर्मावल्लम्बियों के सामने धार्मिक विष्लव उपस्थित हो गया था। दक्षिणी भारत में तो शेव और त्रेष्णुवों में धार्मिक प्रतिदन्द्रिता के कारण भीषण झगड़े होते रहते थे। वेप्णव विष्णु की उपासना को सर्बोपरि बतलाते थे धर शिव के उपासक शिव की उपासना को । उत्तरी भारतवष में यह घार्मिक उत्पात न फेल सका ! राम और शिव को समकऋत्त फा देवता दिखलाकर तथा मुक्ति के लिये दोनों देवों की स्तुति को अनिवाय घता देने से विरोध की भावना उत्पन्न ही नहीं होते पायी। रामचन्द्रिका में वसिष्ठ ले महादेव से यह प्रश्न श्ष्र है रामचन्द्रिका की । किया है कि हे देव ! हमें उपासना किसकी करनी चाहिये तो महादेव ने यही उत्तर दिया कि उम्रापति और रमापति नामक देवों का न तो कोई रंग है ओर न रूप अतः ये शरीरधारी नहीं हूं । उपासना तो सगुणरूप की द्वी हो सकती है अतः राम की ही उपासना करना चाहिये :--- सत चित प्रकाश प्रमेव | तेहि वेद मानत देव ॥| पूजि ऋषि रुचि मंडि | सब प्राकृतन को छुंडि ॥ रामचन्द्रिका में स्थान-स्थान पर वैराग्यमूलक भावना से युक्त उ'क्तयाँ भी प्रकट कराई गई हैँ । रावण की सभा में अंगद सांसारिक विभूतियों की नश्वरता की ओर लक्ष्य करके यह: प्रकट करता डै कि अन्तकाल में संसार की कोई वस्तु मनुष्य के साथ नहीं जाती उसे अकेला ही जाना पड़ता है, इसलिये छल ओर प्रपंच से सांसारिक पदार्था का संग्रह व्यर्थ है :-- द्वाथी न, साथी न, घोरे न, चेरे न, गाऊ़ँँ न, ठाँव को ठाँव बिलैहे । लात न मात, न पुत्र, न मित्र, न चित्त न तीय कहीं संग ॥ किसव काम को राम विसारत, और निकाम न कामहि ऐहे। चेति रे चेति अ्रज्ञों चित अन्तर, अन्तक लोक अकेलोई जेहै ॥ संयम और नियमादि के पालन के द्वारा जीव सांसारिक प्रलाभनों से मुक्ति पाकर इंश्चर में लीन होता है। संसार में नतो उसे कभी निराशा होती हे ओर न कोई दुःख ही। निप्काम कम के सम्बन्ध में केशव ने निम्नलिखित विचार प्रकट किये है :-- निशिवासर वस्तु विचार कर, मुख साँच हिये कमना धन है। अध निम्नद घर्म कथा न, परिग्रह साधुन को गन है॥ कट केशव जोग जी दिय भीतर, बाहर भोग ूस्यों तनु है। मन द्वाथ सदा जिनके तिनको, वन दी घमं है, घर दी वन है ॥। केशव की विचारधारा श्दु लवकु॒श विभीषण संग्राम में विभीषण की भत्सेना में केशव ने कुछ सामाजिक एवं लोक-व्यवहार के सदुपदेश भी व्यक्त किये हैं :-- जेठों मैया अन्नदा, राजा पिता समान। ताकी पत्नी तू करी पत्नी, मातु समान ॥ को जाने कै वार तूं, कद्दी न है दे माय। सोई त पत्नी करी सुनु पाविन के राय ॥ समय की कुछ प्रचलित रूढ़ियों पर उन्होंने आक्षेप भी किये ड्ट पैन जुआ न खेलिए कहूँ, जुआ न वेद रक्तिये। राम विष्णु के अवतार हूँ, और सृष्टि के उत्पन्नकत्तों हूं। अधसाचरण संसार में फेल जाने पर भगवान स्वयं नर॒रूप वारण करके प्रथ्वी का उद्धार करते हूँ। रामचन्द्रिका में दो स्थलों पर केशवदास ने ब्रह्मा के मुख से श्रीराम की स्तुति कराई है। राम के स्वरूप के सम्बन्ध में त्रद्म जी कहते हैं. कि छुम अन्तयामी हो। कुछ तुम्हें सिर्गंश मानते हैं ओर कुछ सगुण | तुम्हारा न आदि है और न अन्त | तुम अनादि और अजन्मा हो । स्व, रज, ओर तमस ् वृत्तियों से तुम ही संसार की रक्षा, पालन और संहार करते हो। तुम्हीं संसार हो और सब संसार तुम्हीं में स्थित है। विभिन्न अबतार लेकर तुम्हीं ने प्र/वी की रक्षा की है :-- राम सदा तुम अन्तरयामी | लोक चतुर्दश के अ्मिरामी ॥ ,निर्गुण एक तुम्हें जग जाने | एकाद समरुणवन्त बखाने।॥। ज्योति जग छग मध्य तिहारों | जाय कही न सुनी न निद्दारी॥ कोठ कहे न परिमान न त्ाकी | आदि न अन्त न रूप न जाको ॥ श्घ2 रामचन्द्रिका तुम द्वी जग हो जग है तुम ही में | तुमह्दी विरची मरजाद दुनी में ॥ तुम ही घर कच्छुप रूप घरो जू। तुम मीन हो वेदन को उधरोजू ॥ यहि भाँति अनेक सरूप तिहारे | अपनी मरजाद के काज सवारे॥ तेतीसवें प्रकाश में ब्रह्मा जी ने राम की विनय करते हुए उनके गुण ओर महत्व का वर्णन किया है। यद्यपि 'रामचन्द्रिका में राम को सगुणरूप में वर्शित किया गया है परन्तु केशव सिर्गणशवाद से भी अवश्य प्रभावित थे। श्रीराम्त भगवान विष्णु के अवतार हैं, यह उक्ति ब्रह्म के मुख से पुनः प्रकट कराई गई है। राम, कृष्ण, शिव ओर भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की महत्ता उस युग में प्रतिपादित की जा रही थी। अपने उपास्य के महत्व का प्रदर्शन ओऔर अन्य देवी-देवताओं का निरादर करना इस समय की मनोबृत्ति थी। तुलसीदास से भी यह कहा गया कि वे कृष्ण की उपासना क्यों नहीं करते जिनमें सम्पूण कला विद्यमान हैं, राम ने तो अपूर्ण कल्ााओं से अवतार लिया था। सयादावादी तुलसी ले यह सुनकर उत्तर दिया कि मुझे आज ही यह विदित हुआ कि मेरे राम अवतार भी हँ। अपूण और पूण कलाओं की उपासना करना देतु नहीं (ना, उपास्यदेव के प्रति निश्छल ओर प्रगाढ़ भक्ति ही सब कुछ है । राम की भक्ति करना ही तुलसी को अभीष्ट था :-- जो जगदीश तो श्रतिभलो, जो मद्दीप तो भाग | तुलमी चाहत रन दिन, राम चरण अनुराग ॥ केशवदास ने चाल्सीकि मुनि के उपदेश के अनुसार श्रीराम की दपास्यदेय साना । कविप्रिया और रसिकग्रिया में केशव ने कृष्ण और राधा को विषय सानकर कविता की है। राम- चन्द्रिका में ही उन्होंने गम के चरित का गान किया है; लेकिन उसमें प्रकट हुई शअभिव्यक्तियों से यह ध्चनित नहीं होता क्रि केशव की विचारधारा श्पछ केशव छदय से रामीपासक थे। 'स्वान्द: सुखाय और हृदय की भक्ति-सावना की अभिव्यंजना के लिये केशव ने रामचन्द्रिका को रचता नहीं की, अपितु प्रबन्ध काव्य की रघना करने के देतु ही उन्होंने राम के खरित को काव्य का विपय बनाया। यदि केशव के छृदय में सच्ची राम-भक्ति होती तो रामचन्द्रिका मेंनतो राम का <ंगारिक रूप ही वर्शित किया जाता, जहाँ! उाम जल्न-क्रीड़ा कर रहे हैं और विभिन्न हाव-भाव से राम को रिफ्राती हुई सुन्दरी नत्तेकियाँ नाच कर रही हैं। यदि क्रेशब के दृदय में सब्ची भगवद-भक्तिकी स्फरणा हो जाती तो 'गंगातट का बाल! कर लेने के उपरान्त उन्हें 'जहाँगीर जम चन्द्रिका, लिखने की आवश्यकता न रह जाती और से नवयोवनाओं के बाबा कहने पर वे सफेद वालों को कीसते :--- केशव केसनि असि करी, जप झअरिहूँ. न कराहिं | चन्दवददनि म्रग लोचनी, बाबा कह्दि-कद्दि जाएिं॥ केशव के दृदय में भक्ति की तल्लीनता नहीं है। जिस प्रकार आधुनिक कवियों की कुछ कविताओं में हमें भक्ति श्रौर विरक्ति के विचार मिलते हँ, पर हम यह जानते हैं. कि उत्त उक्तिओं के साथ कब्रि के छृदय का सामंजस्य नहीं है। कल्पना के विस्तार से ही उन भावों की व्यंजना की गई है। क्रेशव की भक्ति एवं विरक्ति में उक्तिओं के साथ उनके जीव्रन का मिलान नहीं है । फेशवदास को गग्ना भक्त कवियों में नहीं की जा सकती । जिस प्रकार सूर और घतुलसी की भक्ति- भावना उनके पत अनन्तःकरण से निस्तत होती दिखायी देती है उस प्रकार केशव की उवितरयां नदीं दिखायी देती । च्० केशब पर संस्कृत कवियों का प्रभाव हिन्दी भाषा का आदि मूल संस्क्रत ही हे। हिन्दी के कवियों ने संस्कृत काव्य के नियमों और सिद्धान्तों का पूर्ण पालन किया है। भारतीया की संस्कृति का अगाध भंडार संस्कृत ही है। हिन्दी कविता में प्रारंभ से ही प्रत्यक्ष या प्रच॒छन्न रूप स॒संरकृत काउ्य की विचारधारा प्रतिविम्बित होती रही है। भक्ति कालीन कवियों ने राम और कृष्ण सम्बन्धी रचना करते समय संस्कृत के ग्रंथों से अपरिमित सहायता ली हैे। सूरदास को महाप्रभु वल्लमाचाय ने भागवत की अनुक्रमणिका सुनाई ही थी और तुलसीदास ने संस्कृत से पुराण और निगमों से भो वसण्य-विपय सम्बन्धी सहायता लेना सान्य किया है :-- 'नानापुराणु निगमागमस्म्मत यद्वामायण क्रचिदन्यतोडपि स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषानिवन्ध मति “ मजञ्जुलमातनोति ॥ केशवदास ने संस्कत का अगाघ अध्ययन किया था। चंश परन्परा से उनके पूर्बज़ संस्कृत-ज्ञान के लिये प्रश्तिद्ध रहे थे । कवि के अध्ययन का प्रभाव उसकी विचारधारा पर अच्ृश्य पढ़ता हे। केशवदास ने रामचन्द्रिका की रखना में रामकथा सम्बन्धी संस्कृत ग्रंथों से पृण सहायता ली है।। संस्कृत स्रंथों में जो सुन्दर भाव और उक्तियाँ केशव की मिलीं, उनको कि ने मुक्त हृदय से स्वीकार किया है। संस्कृत के अंथों के भाव्रों केशव पर संस्कृत कवियों का प्रभाव श्घ७ का ही समावेश सहीं किया /गया प्रत्युत संस्कद के फ्ीकों का शब्दशः अनुवाद भी मिलता हँ। रामचन्द्रिका की रचना का , कारण संधारंभ में कवि ने यह लिखा है। वाल्मीकि मुनि स्वप्न में, दरसन दीन्हो चार इसका यह भावार्थ निकाला जा सकता है कि रामचन्द्रिका की रचना के लिये केशवदास मे वाल्मीकि रामायण को आधार साना है। परन्तु | रामचन्द्रिका की शेली और उसमें संस्कृत के अन्य ग्रंथों से ली गई सामभी को देखकर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बाल्मीकि रामायण का प्रभाव केशव पर अधिक नहीं पड़ा है । रामकथा सम्बन्धी संस्कृत के कवियों की उक्तियों को तुलसी में भी भमहण किया है लेकिन उन भावों का कवि ने इस सुन्दरता के साथ अपनाया है कि वे प्रसंग ओर बिपय में पूर्णतः घुल-मिल गये हैं। गृहीत भावों को ठुलसीदास जाने ओर भी सुन्दर बना दिया है। मूल स्रंथों के भावों की श्रुटियों का परिसाजेन और संशोधन भी तुलसी ने किया हे। इसके विपरीत केशवदास ले 'प्रसन्नराधव नाटक और 'हलुमन्नाटक से भावों और अभिव्यक्तिओं को लिया तो अवश्य है परन्तु उन भावों आदि को प्रस्तुत प्रसस और विपय से तादात्म्य कराने की चेष्ठा नहीं की। वे भावनाएँ प्रसंगों में घुज्-मिल। नहीं पाई हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि थे असंग उखड़े-| उखड़े से लगते हैँ । उन श्लोकों को कथा के अनुकूल न बनाते हुए केशव ने शाब्दिक अनुवाद ही किया है । उन « उक्तियों में चमस्कार तो है परन्तु रसानुभूति नहीं होने पाती। घ श्द८ । रामचन्द्रिका संम्क्ृत के विद्वान होने के कारण केशव ने उन भावों का ग्रहण शुद्धता और पूर्ण ता के साथ किया है । केशबदास ने संस्क्रत के खह्ोकों का अनुवाद ही नहीं कया है अपितु रामचन्द्रिका के कतिपय प्रसंगों में कथन प्रमाणीकरण करने के हेतु संस्क्रत के श्लोकों को “उद्धृत भी किया हे। स्वान सन्यासी घटना के प्रसंग में 'मठपति को छूने वाले का भी पुष्यक्षीण हो जाता है” कथन की पुष्टि के लिये केशव ने भिन्न भिन्न ग्रंथों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं :-- गसायणे :-- ' पं 8 ॥! ।+ 3] ब्रह्मस्व॑देवद्रव्यश्च न््रीणां बाल्लघनं च यत् दत्त हरवि यो मोहात्स पचन्तर के भ्रवम्। स्कन्धपुगाणे ६ दर चान्यदेवस्त केशवस्य विशेषतः मठपत्यश्च यः कुर्यात्सर्व धर्मदिफ्क्ृतः पद्मपुराण :-- पत्र पुष्प फल तोय॑ द्रव्यमन्त॑ मठस्य च योउश्षाति से पचेद्धागन्नरका नेक विशतिः देवीपुरागे :-- श्रभाज्य मठिनामन्नं भकत्वा चान्द्वायर्ण चरेत् स्पृष्दवा मठपनि विप्र सवासा जलमाविशेत् रामाश्वमेबयल के घोड़े के मस्तक पर जो पढ़िका बॉबी गई उसमें एलाक ही लिस्मा हुआ है। यदि केशव चाहते तो मापा उसका अनूदित कर सकते थे, लेकिन वाल्मीकि के श्लोक प्रति इनकी परिमित आस्था रही होगी इसीलिये उस हलाक संस्कृत में टी रहने दिया :-- («आफ ड़ हु केशव पर संस्कृत कवियों का प्रभाव १८६ एक वीरा च कौशल्या तस्या: पृत्रो रघृद्रह: । तेन रामंण मुक्तोड्सों बाजी यहात्विम॑ अली ॥ # . रामचन्द्रिका में संस्कृत की अनेकों सूक्तियों भरी पड़ी हैं। किनने ही र्ाकों का शब्दश: अनुवाद ही रख लिया गया है | रामचनिद्रका :-- पंजर के खंजरीट नैनन को केशोदास, 'कैधों मीन मानस को जलु है कि जार है| अंगकी कि अंगराग गेडुआ कि गलसुई, कियों कोट जीव ही को उरको कि हार है ॥ बंधन इमारो काम केलि को, कि ताड़िये को, ताननो घिचार को, के व्यजन बिचाद है। मान की जमनिका के कंज्मुख मूँदिबे को, सीताजू को उत्तरीय सत्र सुख साथ दे। हनुमन्नाटक -- घृते पणः प्रणयकेलिपु कंठपाश: क्रीड़ापरिश्रमहर व्यजनं रतान्ते शुभ्या निशीयसमय. जनकात्मजाया: ग्राप॑ गया विधिवशादिशए चोतरीवम् रामचन्द्रिका |-- यौवन अद अ्रविदेकी रंग। विनसो को न राजश्री संग ॥ संस्कृत :-- यौधन॑ घन सम्पत्ति: प्रभुत्वमविवेकता एकेकमप्यनर्थाय किम् यत्र चसुष्टयम् श्प८ * रामचन्द्रिका संम्कृत के विद्वान् होने के कारण केशव ने उन्र भावों का ग्रहण शुद्धता और पूर ता के साथ किया है । केशवदास ने संस्कृत के ज्छोकों का अनुवाद - ही नहीं किया है अपितु रामचन्द्रिका के कतिपय श्रसंगों में कथन के प्रमाणीकरण करने के हेतु संस्कृत के श्लोकों को -उद्धत सी किया है। स्वान सन््यासी घटना के प्रसंग में 'सठपति को छूने वाले का भी पुष्यक्ञीण हो जाता है” कथन की पुष्टि के लिये केशव ने भिन्न भिन्न अंथों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं :-- रामायणे :-- ब्रह्मस्व॑ देवद्रव्यण्च' स्रीणां बान्धनं च यत् दत्त हरवि यो मोहात्स पचन्तर के भरकम । स्कन्धपुराणे :-- हस्त चान्यदेवस्त केशवस्य विशेषतः मठपत्यचञ्च य; कुर्यात्सर्व घर्मवहिफ््कृतः पद्मपुराणे :- पत्र पुष्पं फलं तोय॑ द्रव्यमन्त्रं मठत्य च योडशक्षाति स पदचेद्धाराज़्रका नेक विशतिः दवापुराएु :-- ल्बपु हल अभाज्यं मठिनामन्नं भुकत्वा चान्द्रायर्ण चरेत् स्पृष्टवा मठपति विप्र सवासा जलमाविशेत् रामाश्वमेवयज्ञ के घोड़े के मस्तक पर जो पट्टिका बाँधी गई है उसमें श्लोक ही लिखा हुआ है। यदि केशव चाहते तो भाषा में उसको अनूदित कर सकते थे, लेकिन वाल्मीकि के श्लोक के प्रति इनकी अपरिमित आस्था रही होगी इसीलिये उस श्लोक को संस्कृत में ही रहने दिया :--- १5] केशब पर संस्कृत कवियों का प्रभाव श्घ एक घोरा च कौशल्या तस्या: पुत्रो रघृद्रइ तेन रामण मुक्तोडखों बाजी यहात्विम॑ चली ॥ , र्माबन्द्रका में संस्कृत की ऋनेकों सूक्तियोँ शरी पड़ी हे । किनते ही रऋ्ाकों का शब्दश: अनुवाद ही रख लिया गया है । रामचन्द्रिका :-- पंजर के खंजरीट नेनन को केशोदास, 'कैंधों मीन मानश को जलु है कि जार है। अंगको कि अंगराग गेहुआ कि गलसुई किधों को: जीव ही को उरको कि हार है ॥ बंधन दमारो काम केलि को, कि ताढ़िये को, *ः ताजनो विचार को, के व्यजन विचाठ है | मान की जपनिका के कंजमुख मूँदिवे को एहएल, को, आचरण सात रुप, गए के ९ हनुमज्नाटक :--- घृते पण:ः कंठपाश: क्रीड़ापरिभ्रम हर च्यजनंरतान्ते शथ्या निशीयसमये जनकात्मजाया: प्राम॑ मया विधिवशादिश चोतरीवम् प्रणयकेलि रामचन्द्रिका ।४८ यौवन अद अविवेकी रंग। विनस्थोी को न राजश्री संग ॥ संस्कृत :-- दौदन घन सम्पत्ति: प्रमुस्थमविवेकता एकैकमप्यनर्थाय किम यत्र चतुष्टयम, -१६० रासचन्द्रिका रामचन्द्रिका :-- पढ़ा विराच मौन वेद जीव सोर छुंडि रे । कुवेर बेर के कह्दी न यक्ष भीर मंडि रे॥ दिनेश जाय दूरि बैठ नारदादि संगहीं | न बोलुचंद मन्द बुद्धि इन्द्र की समानहीं॥ संस्कृत $२००-.५ ब्रह्मन्नव्ययनस्य नेत्र समय तूष्णीं वहि: स्थीयतां स्वल्पं जल्प बृहस्पते जडमते नेषरा सभा वज़िणः वीणां संहर नारद स्तुति कथालापैरलं तुम्बरो सीतारह्लकमल्लमग्न द्ृदय स्वस्थो न लड्ढेंश्वरः | केशव के सम्बादों पर हलुमन्नाटक का श्रभाव है। बहुत से छन्द तो शाव्दिक अनुवाद ही हैँ । कस्त्वं वालितनूद्भवों रघुफतेदूँत: सः चालीति कः । को वा वानर राघवः समुचिता ते बालिनो विस्मृत: ॥ त्वां बध्वा चतुरम्बुराशिपु परिश्राम्यन्मुटरतेंन तर: । सन्ध्यामर्चयति सम निम्षप कथ॑ तातस्त्वया विस्मृतः || --हनुमन्नाटक कौन के सुत ? बालि के, वह कौन बालि न जानिये ! कॉग्व चाँपि नुम्हे जो सागर सात नहात बखानिये | # कहाँ वह वीर ? अंगद देवलोक बताइयो । क्यों गया ? रघुनाथ-बान-विमान ब्ैठि सिधाइयो ॥ --रामचन्द्रिका रामचन्द्रजी के वन चले जाने के पश्चात् भरत ननसाल से #* केशव पर संस्कृत कवियों का प्रभाव १६९ चापिस आकर केकेयी से समाचार पूछते हैं, इस प्रसंग का पवित्रण केशवदास ने हनुमन्नाटक के आधार पर किया है :-- हनुमन्नाटक :-- मातस्तात: कब यात:, सुरपतिभुवनं हा कुत: पुत्नशोका- स्क्रोडसौ पुत्रश्चतुर्णा त्वमवरजतया यस्य जात: किमस्य प्राप्तोीडसौ काननान्त किमिति दृपमिरा कितथासो वमायें मद्बाग्वद्धः फल ते किमिद तव घराधीशता हा इतोषस्मि शामचन्द्रिका :--- मातु कहाँ ठप ? तात गये सुरलोकई, क्यों ! सुतशोक लये । सुत कौन सु ? राम, कहाँ हैं अवे ! बन लच्छुन ! सीय समेत गये । बन काज फहा कहि ? केवल मो सुख, तोकों कह्दा सुख यामै भये। नमक प्रभुता, घिक् तोकों कहा, अपराध बिना सिगरेई इये। पंचवटी के वर्णन में जो आयोपान्त 'ट' का 'अनुप्रास राम- चन्द्रिका में रखा गया है, वह भी हनुमन्नाटक के एक श्लोक का शब्दानुबाद ही है । हनुमन्नाटक :-- एपा पंचवटी रघूत्तमकुटी यत्रास्ति पंचावटी । पान्थस्य क्वैधदी पुरस्कृततटी संश्लेपमित्ती वटी ॥ गोदायन्र नटी तरंज्षिततटी कल्लोल चद्नत्पुटो । दिव्यामोदं कुटी भवाव्यिशकटी भूतक्रिया दुष्कुटो ॥ रामचन्द्रिका :-- सत्र जाति फटी दुख की दुपटी कपटी ने रहें जह एक घटी | निघटी रचि मीचु घटौोहु घटी जगजीव जती न की छूटी तटी श्ध्२् रामचन्द्रिका अधघ-ओप की बेरी कटी विकटी निकटी प्रऊटी गुरु-स्यान-गटी । चहुँ ओरनि नाचति मुक्ति-वटी सुन धूजंटी वन पंचवटी ॥ प्रसन्नराधव' नाटक के बहुत से श्लोक भी केशवदास द्वारा अनुवादित हैँ । जनक प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में जो अइक्ति केशव ने प्रकट की है बह इसी नाटक के श्लोक का अनुवाद हे । प्रसन्न राघव ४-- श्राकरण| न्त त्रिपुरमथनोहएडकोदंडनद्धां । मौर्बीमुर्बीचलयतिलकः. कोएपि यः क्पवीद ॥ तस्थायान्ती परिसरभुवं राजपुत्री भवित्री । कूजस्कांचीमुखरजघना श्रोत्रनेत्रोत्सबाद ॥ रामचन्द्रिका :-- कोठ आजु राज समाज में बल संभु को धनुकर्पिहै । पुनि श्रीन के परियान तानि सो जित्त में अति इर्पिहे ॥| वह राज होइ कि रंक केसबदास सो सुख पाइहै । ठप कन््यका यह तासु के उर पुष्पमालईि नाइहे॥ परशुराम का जो रूप वर्णुत किया है वह भी प्रसन्न रावव' नाटक के आधार पर ही है। प्रसन्नराघव :-- मौर्चाधनुस्तनुरियं च विभर्ति मौज़ीं । वाणा: कुशाश्च बिलसन्ति करे सिताया; ॥| घारोज्ज्यलः परशुरेप कमण्डलुश्च | तद्वीर शान्तरसयों: किमय॑ विकार: ॥ रामचन्द्रिका :-- कुस मुद्रिका समर्थ श्रवा कुस ओऔ कमंडल को लिये । कटिमूल श्रोनीन तकंसी भ्रगुलात सी दरसे हिये।॥| केशव पर संस्कृत कवियों का अभाव १६३ प्रनुवान तिक्षु कुठार केशव” मेखला म्रग चम स्थो | रघुबीर को यह देखिये रस वीर सात्विक घर स्थो ॥ संस्कृत भाषा का विस्दृत अध्ययन करते के कारण बाण, माघ, भवभूति, कालिदास तथा भास कब्र के सुन्दर प्रयोग. अनूठे बिचार, गम्भीर ओर क्लिप्ट अलंकार ज्यों के त्यों अनुवादित किये जाकर रामचन्द्रिका में समाविष्द किये गये हैं .-- १. रामचन्द्रिका-- भंगीरथ पथगरामी गगा कँसो चल है । कादस्वरी-- गंगा प्रवाह इब भगीरथ पथ ग्रवर्ती | रामचन्द्रिका-- आसमुद्र छ्ितिनाथ | रे रघुबंश-- आसमुद्र जितीशानां ३. रासचन्द्रिका-- बिधि के समान ई विमानी कृत राजहंस | कादस्वरी-- बिमानी कृत राजहुस मंडलो कमलयोनिरिव । ४. रामचन्द्रिका-- होमधूम मलिनाई जहाँ । कादम्वरी-- यत्र मलिनता इविधूमेषु । शामचन्द्रिका-- . . ३. 7 तबतालीप्त त्माल ताल दिवाल मनोहर । मंजुल वंजुल तिलक लकुचकुल नारिकेलवर ॥ शर्ट १३ ५६० रामचन्द्रिका एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोह । सारी शुक कुल कावित चित्त कोकिल अलि मोहें ॥ कादम्बरी-- तालवतिलकतमालहिन्तालत््कुलत्रहुलै: एलालता कुलित नारिकेलि कलापै: लोल लोश् घबली लवंग पल्लवै: उल्लसित चूत रेसु पटले अलि- कुल भकारै--उन्मद कोकिल कुल कलाप कोलाइलाभि: | ६. गमचन्द्रिका-- वर्णुत केशव सकल कवि, विषम गाढ़ तम सृष्टि | कुपुरय सेवा ज्यों भई, संतत मिथ्या दृष्टिशी भासकृत वालचरित नाटकऋ-- लिम्पत्ती व तमोषज्ञानि वर्षतोवाज्जनं नभः | अठत्पुरष. सेववदृष्टिनिष्फलत॑ गता ॥ केशवदास ने संस्कृत भाषा के ग्रंथों के शाव्दिक अनुवाद रामचन्द्रिका में समाविष्ट करते समय यह ध्यान नहीं रखा है है कि उन श्लोकों के अनुवाद का समावेश करके उन चिपयों में स्मणीयता आ जायगी अथवा रस ओऔर प्रसंग की ऋरृष्टि से वे अनुपयुक्त होंगे अथवा नहीं। केशव का ध्यान केवल अनुवाद की ओर रहा हे, विपय निरूपण की ओर नहीं। हनुमन्नाटक के राबण ओर महोदर के कथोपक्थन का भाव केशव ने अहग् किया है : किन्तु उसके कारण चर्णान में गोचकता नहीं प्राई है झण्ति यह आश्चर्य होता है कि रावण का दून उसी के समज्ञ उसके प्रतिपक्षी राम का इतना उत्कर्पपर्ण और प्रशसान्मक वर्णान करता हे और रावण उसे चुपचाप सुझ लेता हे-- केशव पर संस्कृत कवियों फा प्रभाव महोदर-- अगझे कृत्वोत्तमाड़ स्दावलपते: पादमक्तस्थ इन्तु- भूमी बिस्तारितायां त्वचि कनकमृगस्याछ्शेप॑ निधाय बराण रक्षः कुलमन' प्रगुणित मनुजेनापिंतं तीक्ष्णमक्ष्णोः फोणेनोद्ीद्यपाण. स्व्वनुजक्चने... दत्तकर्णोंड्यमास्ते | शामचनरिद्रका-- भूतल के इन्द्र भूमि पौढ़े हुते रामचन्द्र, मारीच कनक-मृगछालहि ब्रिछाए जू | कुंभदर-कुंभकर्णु-नासाहर-सोंद संस, चरन श्रकंप-श्रत्च-उर लाए जू। देवान्तक-नरान्तक-अ्ंतक त्योँ.. मुसकात, विवीपण-वैन-तन कानन बमककाएं जू। मेघनाद - मकराक्ष - महोद्र - प्रानहर-वान, त्यों विलोकत परम मुख पाये जू। हनुमन्नारक-- घिग्पिगलढ़्द वानेन येन ते निहतः पिता, निर्माना वीरद्ृत्तिस्ते तस्व दुत्तव मागतः। शामचन्द्रिका-- उरसि अंगद. लाज कल घर, जनक घातक बात बृथा कहा | हनुमन्नाटक-- * आदो. बानरशावक: समतरददुलेघयमस्मोनिधि । नुर्भेयान्प्रविषवेश. दैत्य. निवहान्संपेप्य लद्गपुरीम ॥ क्षिष्वा तदनरोक्षणो जनकजां दृष्ट्वा तु भुक्तवा वन इत्वाइच प्रददनपुरी च स॒यतो राम: कथ बरस्यते | १६६ रामचन्द्रिका रामचन्द्रिका-- श्री रघुनाथ को वानर किशर्व आयो हो, एक न काऊ इयो जू । सागर को मद ककारि, चिकारि त्रिकूट की देह बिहारि गयो जू | सीय निद्दारि संदारि के राक्षम सोक असोक बनोहि दयो जू । अ्क्षयकरमार दिं मारिके लक्षुद जारिके नीकेद्दि जात भयो जू ॥ निम्नलिखित पद्मांशों में केशव ने हनुमज्नाटक से भाव लेकर रचना की है :-- नुमन्नाटक- रामादपि च म्॒ंब्यं मतेच्य रावणादपि । उभयोय॑दि मतेंव्यं वर रामो न रावबणः ॥ रामचन्द्रिका-- जानि चली मारीच मन, मरन दुहूँ विधि आसु | रावन के कर नरक्र है, हरिकर हरिपुर बास॥ जयदेबकृत प्रसन्नराघव नाटक से भी केशबदास ने राम- चन्द्रिका को निर्मित करने में पर्याप्त सहायता ली है । रामचन्द्रिका फे तीसरे, चौथे, पाँचवें आर सातवें प्रकाश की सम्पूर्ण कथा का क्रम, प्रमुख स्थल ओर सुन्दर उक्ति सब प्रसन्नराघव के अनुसार हू । रामचन्द्रिका में धलुर्यज्ञ की प्रस्तावना में दो बन््दीजन आये हुए राजाओं के बल-विक्रम का वर्णन करते हैं यह समस्त प्रसंग प्रसन्नराधघव नाटक के प्रथम अंक से लिया गया दे भद केबल बन्दीजना के नाम में हे । प्रसन्नराघव नाटक में इनके नाम नूपुरक और मंजीरक हैं तथा रामचरिद्रका में उनके नाम सुमति ओर बिमति हद । संभा मध्य गुनग्राम, अन्दी-सुत द्रे सोभदी । सुमति विमति यद्दि नाम, राजन को बननकर्िं | केशव पर संस्कृत कवियों का श्रभाव १६७ असनराचत नोटक-- ध्यस्य मंभीरक ! कोष्यंसीताकरग्रहबासना »सन्तलच्माविलसत्पुलरू सुकुलनालमगिडतंनिजभुज नददका रण॒ग्वियुगलं विलोकयस्तिष्ठति गामचन्द्रिका--- वो यह निरखत आपनी, पुलकित बाहु ब्िछ्ताल | सुरभि स्वयंवर जनु करी, मुकलित साख रमसाल ॥ प्रमन्नराधघव नाटफ-- अआ।क ग्युन्ति ब्रिपुरमथनोदरश्टकोद गडनद्धा, भौर्बमुर्दीवलयतिलकः कोडपि या; क्षतीद । तस्थायान्ती परिसरभुव राजपुत्रा भवित्री, कजत्वाली.. मुखरजघना. ओननेन्नोत्मवाय ॥ शंमचन्द्रिका-- कोड श्ातु राज-समाजञ्ञ में बल संभु को धनु कर्पिदे । पुनि सौन के परिमान तानि सो चित्त सें अति इर्पिहे ॥ वह राज होह कि स्ट्टूी! केशवदास सो सुख पाइद। सपफन्यका यह तासु के उर पृष्पमालदि नाहहइ ॥ सीना स्वयंचर के अवसर पर रामचन्द्रिका में चाणासुर और गण का जो बाद-विवाद हुआ है बह प्रसन्नराघव के आधार पर ही है । त्रिपुरमथनचापा रोपणशोत्तशिठता ची--- भेम ने ज्नकपुत्री पाणिपत्र प्रहाय | - प्रपितुषद्ुलबाहुच्यू इनिव्यूदमाला चइलपरिनलऐलाताएडवाडम्बसय ॥॥ रामचन्द्रिका--- केशव औरते और भई गति जानि न जाइ कछू करतारी । सरन के मिलिवे कहँ आय मिल्यो दशरकंठ मद अविचारी ॥ बाढ़ि गयी बकवाद चुथा यह भूलि न भाटद सुनावहि गारी । चाप चढ़ाइडो कीरति को यह राज वरे तेरी रानकुमारी ॥ . स्वयंतर के अवसर पर रावण यह प्रतिज्ञा करता है कि जब तक वह अपने किप्ती सेवक का आत्तनाद नहीं सुनेगा तब तक वह बिना सीता को लिये यज्ञभूमि को छोड़कर नहीं जावेगा । उसी समय किसी राक्षस का करुण स्वर॒ सुनाई पदता हैं ओर रावण यज्ञशाला छोड़कर चला जाता हे। ऊेशब ने यह प्रसंग ज्यों का त्यों प्रसन्नराघव से लिया है :-- अनाहत्य हृठात्तीतां नान््यतो गन््तुसुत्सहे न श्य्णामि यदि क्रूरमाक्रन्दमनुजीबिनः । रामचन्द्रिका-- अ्रव मीय लिये बिन हों न शटरों, कहूँ जाहँँ न तो लगि नेम घरो । जब लौं न सुनों अपने जन को, अति श्रारत शब्द इते त्तन को॥ रामचन्द्रिका के पंचम प्रकाश में विश्वामित्र तथा जनक का जो बातालाप है बह कथा भाग प्रसन्नराधव नाटक के तृतीय अंक के अनुरूप है। बहुत स श्लोकों का तो शब्दशः अनुवाद कर दिया गया ४ । प्रसन्नराधव -- अंगेरदीकृता यंत्र प्रदमि। सप्तमिरष्टम: । प्यी वे गज्यलस्मीशन योगविद्या न दीव्यात ॥| केशव पर संस्कृत कवियों का प्रभाव श्ध्द्ध अंग है; सातक आठकफ सौ भव तीनहु लोक में सिद्ध भई है । वेदत्रयी शरद राजटिरी पर्पूरनता सुभ बोगमई ह।॥ रामरन्द्रिका लिन श्रपनों तन स्वनं, मेलि तपोमय अ्रप्मि में । कीन्ही उत्तमवर्ने, तेही विश्वामित्र ये प्रसन्नराघव-- यः काब्चनमिवात्मानं निन्चिष्यार्नी तपोमये | वर्णोत्किपिंगत: साएय विश्वामित्रों मुनीश्व२: ॥ रामचन्द्रिका में ऐसे कितने ही स्थल हैं जहाँ प्रत्यकज्ञ रूप से संस्कृत कवियों की छाप परिलक्षित होती है। दार्शनिक विचार तथा आध्यात्मिक संकेतों के स्थलों पर केशव ने संस्कृत के विद्वानों के मत का ही मापानुवाद किया है। रामचन्द्रिका में अन्य कितने ही संस्कृत के प्रमुख कवियों की जक्तियों के अनुवाद अथित्त दूँ, यहाँ केवल यह प्रदर्शित करने के हेतु ही कि केशव ने संस्कृत के काव्य-प्रंथों का कितने अधिक परिमाण में सहारा लिया है, कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये गये हूँ, अन्यथा राम- चन्द्रिका के अधिकांश प्रसंग संस्कृत के किसी न किसी कवि के चित्रणों की प्रतिच्छाया ही हँ। संस्कृत के कवियों का प्रभाव अन्य भारतीय कवियों पर सी पड़ा है| ०0 0 गमचन्द्रिका के कुछ उद्देगजनक स्थल्ल कवि की सुमथुर उदभावना, प्रखर अम्वीक्षण, चित्रोपमता प्रीर बहुलता उसकी रचना को चित्ताकरपक ओर शलाध्य बनाती ०० । काब्य में भाव-सोंदय होने पर भी यदि अभिव्यक्ति में काशल प्रकट न किया जाय तो वह अधिक प्रभावशात्नी नहीं ने सकता । साहित्य शास्त्रियों ने काव्य प्रणयन की रीति नीति विशद व्याख्या और विस्तृत विवेचन करके गुण और | का निरूपगा किया हे!। काव्यगत दोपों का पूर्णतः परिहार श्यक्ष है। छन््द्र ओर भावाभिव्यंजन की ओर ही कब्रि को जागरूक नहीं ग्हना पड़ता, प्रत्युत वह ऐसे प्रसंग को नहीं प्रान देता जिससे उसकी रचना का काव्य सोप्ठव, रस छ्रज्ति ओर कमनोयता नप्ट हो जाबे। बाक्य विन्यास ता म्या कबि एक एक अन्ञग का खूब सोच-सोच कर प्रयक्त करता 7॥। कबिला के सबगुगा-सम्पन्न होने पर भी यदि एक भी पर उसमें समाविष्ट हो जायगा, तो बढ रचना चमत्कारहीन पं जायगी | कबिता के इस महत्व को केशवदास भन्ती भाँति नते थ। केशवदास की यह बार्णा थी कि जिस प्रकार किसी का फल एक अंग खराब हा जाने से सर्वात्न सन्दर टुए भी यह कुझपा लगती हे, उसी प्रकार कबिता की भ॑) शरात्र छा कंबल एक बंद गंगानल का अपविद्र ऋर वी भ्रक्काश एक दाप समाबिप्ठ हो जाने पर कबिता खीन्दय-विद्ान शो जाती 2१ .५ छा 4 ॥ ०), श हा "शो + ज् $; 7 | ऊीह । च्व्ब्न्प लि िदे। $ “2१ ५ 3 4 ५ कि | लड 0 आर ९ आी। ७१0 “शत ल् ३ दड के 08 क्र जलकर रह आर रे हि रामचन्द्रिका के कुछ उद्देगननक स्थल २०२ गजत रंच न दोष युत, कविता बनिता मित्र | | 4 बुन्द क हाला परत ज्याँ, गंगाजल ब्रपवित्र ॥ सिद्धान्तट: क्रेशव यह स्वीकार करते थे कि कबिता ससागत हुआ साधारण दोष भी कविता की सहत्ता में भीपण आधात पहुँचाता है, परन्तु चमस्कार प्रदशन की ओर अभिरुचि होने के कारण उन्होंने अपले इस सिद्धान्त को कायरूप में 'परिशत नहीं क्रिया है। रामचन्द्रिका एक प्रवन्ध काव्य है। उसके कथा-विकास के साथ साथ कवि को केवल उन घटनाओं ओर प्रमंगों को ही अंकित करता चाहिए, जिससे कथावस्तु रोचक बने आर उसमें रसोट्रेक हा। कवि को कोई प्रसंग ऐसा ने रखना चाहिये , जिसमें अनोचित्य प्रतीत हो । फरेशवदास में अपने प्रतिभावत से रामचन्द्रिका में ऐसे प्रसंगों का समावेश किया है, जो कथाबस्तु से मेल नहीं खाते और परिशामतः उद्ेग जनक प्रतीत होते हैं । राम वचनगसन के अवसर पर काशिल्या ने राम के साथ वन जाने का आग्रह किया । उस समय राम ने माता कोशिल्या को पातित्रत्य का उपदेश दिया। पति की जीवितावस्था में पतिपरायणा नारी उसे अफेला छोड़कर नहीं ज्ञा सकती इसीलिए गम ने कीशिल्या को अवध में ही रहने के लिये कहा। राम के द्वारा विश्ववन्दनीया ओर पतिपरायणा माता कौशिल्या को पातित्रत्य का उपदेश दिलाना उचित नहीं हे। पहिले तो कोशिल्या के लिये ऐसे उपदेश की आवश्यकता ही नहीं थी । ओर यदि चैसा अनिवार्य चन गदा था तो कुलगुरु द्वारा यह उपदेश दिया जाता तो विशेष भावोद्रकपणों होता। पुत्र द्वारा माता को सारी धम की शिक्षा देना अभद्रता और अबला प्रतीत दोती है । ० २०२ रामचन्द्रिका केशवदास ने रामचन्द्रिका में संस्कृत ग्रंथों से अनेकों घटना और प्रसंग ग्रहण किये हैँ । यह् उपदेश भी वाल्मीकि रामायण के आधार पर रक्वा गया मालूम होता है। जिन परिस्थितियों में यह उपदेश दिलाया गया है, उनमें ऐसा करना आवश्यक हो गया है। रामचन्द्र को चौदह व के लिए बन में भेजने की बात सुनकर लक्ष्मण बहुत क्रुद्ध हुए ओर कहने लगे कि “में कैकेयी में आसक्त वृद्ध पिता को मार डालूगा हनिष्ये पितरं वृद्धं केकयासक्त सानसं )। महाकवि भास ने अपने प्रसिद्ध प्रतिमा नाटक सें लक्ष्मण से ऐसी ही बक्ति - कहलवाई है :-- यदि न सहसे राज्ञों मोह घनुः स्पुश मा दया । स्वेजन निभतः सर्वोष्प्येवं मुदुः परिभूयतें ॥ अथ न दरुचते मुज्चत्व॑ मामह कृत निश्चयो । युवति रद्दितं लोक कत्तु, यतश्छुलितां वयम् ॥ इस अवसर पर राम लक्ष्मण को सममा रहे हैं, लेकिन कौशिल्या ने दबे शब्दों में लक्ष्मण की उक्ति का ही अनुमोदन किया । अतः महूर्पि वाल्मीकि न राम के भुख से पातित्रत्य धरम का उपदेश दिलाना उचित और आवश्यक सममा | यदि राम के द्वारा कोशिल्या को विगत रहने का उपदेश न दिलाया : जाता तो लक्ष्मण के विचारों से राम की सहमति होने का सन्देह हा। सकता था। रामचन्द्रिका में केशव ने वाल्मीकि को पद्धति का ही पालन किया है । कौशिल्या के वाक्य भी कुछ-कछ उसी दंग के हूँ । अतः जब हम कथा-प्रवाह पर ध्यान देते हैं ता कौशिल्या को राम के द्वारा दिया गया उपदेश न तो उद्देग- जनक हा लगता दे और न अ्प्रासंगिक ही | रामचन्द्रिका में कुछ ऐसे विषयों और वस्तुश्रों का उल्लेख रामचान्द्रका क कुछ उद्दगज्ञनक स्थल २०३: आया है, जो रामचन्द्र के समय भें विद्यसान नहीं थीं। उन ०५ ऋ है कं ७“ 45 9.0९. वस्तुओं को ला उपस्थित करना जो उम्र युग सें व हों, कविता में काल-दोप माना जाता है। रामचन्द्रिका में निम्नलिखित प्रसंगों में वन. व जनत0 3 स्मन्न्ीीाम 3. फरमममनन.. नरक -छ यह दोप पाया जाता है :-- “ (१) दंडक बन का वर्णोत करते समय केशव ने पांडब, अजुन और भीम शब्दों का प्रयोग किया है। ऋष्णावत्तार जो राम से एक युग पश्चात् हुआ था, उस युग से इन नामों का सम्बन्ध है, लेकित आलंकारिक मनोब्ृत्ति ने केशव के हृदय को इतना पराभूत कर लिया था कि अलंकार की योजना करने में उन्हें काल-दोप का भी ध्यान नहीं रहा :-- पॉडय की। प्रतिमा सम लेखों | अजुग भीम मदहामति देखो॥ है सुभगा सम दीपति पूरी | सिन्दुर झो तिलका बलि रूरो || (६) राम के युग में दिवाली के अबसर पर जुआ खेलने को प्रथा नहीं रही होगी | राम के समय में इस प्रकार की चूत क्रीड़ा की कल्पना भीन कीज़ा सकती। महाभारत काल में धूत-कीड़ा का अवश्य दी अधिक प्रचार हो गया था। उसी भाँति फाग (होली) के अचसर पर अश्लीलता आज़ के समय की द्दी प्रथा है, ज्ेता युग में ऐसा नहीं होता होगा। केशबदास ने' अपने समय की परिस्थितियों का ही राम-यग से वर्णन कर दिया है :-- हु फागुन निलंज लोग देखिये । जुआ दिवारी को लेखिये॥ (३ ) कृष्णाचतार में भगवान ने नूसिह रूप धारण करके अपने भक्त अहाद की रक्षा करके उसके बचनों का निर्वाह क्रिया २०४ रामचन्द्रिका था | रामाचतार में नसिंह ओर पग्रह्मद नासों का भगवान के दीन रक्षण कार्या से कोई सम्बन्ध न था| ये घटना तो एक युग के पश्चात् प्रटित हुई हें। लेकिन केशवदास ने उनको राम के। युग में वर्शित क्रिया है : श्री नर्मिह प्रहलाद की, वेद जो गावत गाथ । गये मास दिन श्आासु ही मूँठो है हे नाथ॥ इस प्रसंग में एक वात ओर भी हष्टव्य है। प्रवन्ध कवि स्तु के निर्वाह के साथ साथ कथा के पवो पर सम्बन्ध का मिलाता चलता है । जो बात पहिले कह दी गडे हो, उसका समथन बाद की बदनाओं से भी किया जाता है। जिस समय बगा सीता के दुद्यय को अपनी ओर आक्ृप्ट करने के अभि- गाय से ध्याता है, इस समय वह अपने मन्तव्य में कृतकायें नहीं होता । पतिपरायगा सीता ने उसके छृदय को वाक्य बाणां में जर्जस्ति कर दिया | हार कर राबण ने उन राक्सिनियों से ( ज्ञा सीता के चारों आर पहरा देती थीं ) कहद्दा कि सें दो मास वि देता है, इसे ( सीता को ) इराकर, व्रमकाकर तथा ॥'प्नन््य मात से राज़ां कर लना--- < क् 6 ठ | हे हक हट! न 5०० | फी प्यर्ना चर | पं से के 5. ध्यधि दर द्रेमास की कायो राज्प्िन ब्ोलि | ह-8/ व्या समझे समुस्धाशयों युक्ति थुरी सो छोलि ॥ लेकिन ५र्व बर्शित दोहे में हनुमान ने यही कहा कि यदि एहा मास के सीसर सीना का उद्धार नहीं कर लिया गया तो सराथ हो जाने की आशका हे। हस प्रकार केशव ने कथा है तर्वापर घदनाओं का सम्बन्ध मिलाने की चष्टा भी कहीं नहीं छा ०2) रामचन्द्रिका के उन्नीसबें प्रकाश में कबि ने चौगान केबल का बरगन किया टै | गमचन्द्र हाथ में थनपर बाग ओर रामचन्द्रिका के कुछ उद्दवेंगजनक स्थल २०५, ओर संग में सेवकों को लेकर चौगान खेलने जाते हैँ । चीगान' 'शब्द फारसी मापा का है ओर उससे तात्पथ पोल्ला (7०७) खल से है| मुसलसान' काल से इस खेल का प्रचार हुआ । राजा आर घनवर्न्ता का यह खेल है। यह खेल राम के समय मं न खला जाता था। सगवानदीन जी ने भी इसके सम्बन्ध सें यह लिखा है कि “सन्देह है कि यह खल राम के समय में खला जाता था था कवि का कल्पना मात्र है” राजसीय वैभव मे रहकर केशवदास को राजाओं के आमोद-प्रमोद ओर व्यसर्ना का पर्याप्त ज्ञान था। उस समय चौगान का खेल खेला जाता रहा होगा, उसी का वर्णन कवि से रास के सम्बन्ध में कर दिया ४ । चौगान के खेल का केशव ने स्विस्तार से वर्णन किया है । एक कोस की लम्बी चौड़ी समतल भूमि है। एक आर तो रामचन्द्र हूं ओर दूसरी ओर भरत। वे हाथ में रग बिरंगी छड़ियाँ का लिये हुए है, फिर एक गोला भूमिपर डाल दिया जाता था 'र जिस ओर बह गोला जाता उधर ही खेल होने लगता था | हन्द्रजीतसिंह के चोगान के मैदान सें केशव ने जो खेल देखा था खेला होगा उसी का चर्णन किया गया है। बतेसान राजाओं में भी इस खेल का चहुत अधिक प्रचार है :-- एक काल श्रति रूप निधान । खेलन को. निकरे चौगान॥ हाथ धनुप शर मन््मप रूप | संग पयादे सोदर भृूप ॥ यहि विधि गये राम चौगान | सावकाश सच भूमि समान ॥ शोमन एक. कोस परिमान । री रचिर तापर चौंगाना २०६ रामचन्द्रिका एक कोद रघुनाथ अपार । भरत दूसरी कोट विचार ॥ सोहत दाथे लीन्हे छुरी । कारी पीरी राती हरी ॥ गोला ज्ञाय जहाँ जह जत्रे। दोत तहीं तितद्दो तित सचै॥ (४ ) एतिहासिक हृष्टि से यबनों सा की सातवीं शत्ताब्दी के लगभग यबन नाम की कोई जाति न थी। ै ;' | हम ५ का प्रवेश भारतभूमि हुआ है। राम के यग उस समय अत्याचारी क्रोग धर्म विरुद्ध आचरण करने वाले राक्षस ही थे। केशव ने सीता-निवासन प्रसंग में भरत के मुख से “ यबन और गाय बिपय का वर्णन कराया हे। यबनों का प्रावल्य केशव : समय ही में था, राम के युग में तो उनका चिन्ह भी न था, राम के युग में वर्णित निया के नाम को भी ला सिद्धान्तों और आचार परन्तु कयि ने अपने समय की बात को कर दी हे :-- यमनादि के श्रपवाद क्यों, द्विन्न छोडिहे कविलादि | (६ )राम के युग में केशव ने दिया 7 । जन जाति का प्रादुभाव तो इसा की कुछ शतावन््दी पथ / हु था । अपने युग की जातियों के विचारों को कवि ने काल विरोध होते हुए भी रास के समय *मसें तुग के गठवारियों जाना कान गा | चर्गा ॥ तथा बममार्नियां का 740 /॥ हे डा | रामचन्द्रिका के कुछ उद्वंगजनक स्थल २०७ ग्यारसि निंदत हैं मठघारी | भावति है हरि भक्त न भारी॥ निन््दत, हैं त्व नामई वामी | का कहिए. तुम अ्रन्वर्थामी ॥ कि की रचनाओं में काल-दोप की उद्भावना उचित नहीं है। काव्य, इतिहास नहीं है जिसमें केवल उन्हीं बातों का वर्णन पफिया जावे जो ऐतिहासिक हृष्टि से उस समय विद्यमान हों। परिस्थितियाँ एवं सामाजिक भावनाएँ कवि को बाधित नहीं कर सकतीं जिस समय में कवि उत्पन्न हुआ है उस समय का प्रभाव उस पर धिना पड़े नहीं रह सकता। कालिदास ने रघबंश महाकाव्य में इन्द्रमती के स्वयंवर के अवसर पर सनन्दा से सूरसेन देश के राजा सुपेण का वर्णन करते हुए मथुरा का चणंन कराया है :-- यस्यावरोधस्तनचन्दनानां. प्रच्चालना द्वारि विह्र काले ! कलिन्दकन्या मथधुरां गतापि गल्लोमिसंसक्त जलेव भाति (स्थुवंश सर्म ५ श्लोक ४प्टे मथुरा तो लवणासुर बध के पश्चान् शन्नुन्न ने बसाई थी उसका वर्शन दो पीढ़ी पहिले 'अज' के समय में कराया गया है, यही नहीं सुननन््दा ने तो भगवान श्रीकृष्ण का भी नाम लिया है जो एक थुग पश्चात् हुए हैं । “वक्त; स्थल व्यापि दचं दधान: सकौस्तुम॑ द्रपवतीव कृष्णुमा' गोस्वामी तुलसीदास जी ने 'रामचरितमानस' में रसे प्रसंगों को रक्खा है कि जिसे हम यदि आलोचना की इसी कसौटी पर कसे तो काल-दोप ही मानना पड़ेगा । जब हनुसान लंका में प्रवेश करते हैं. तो वहाँ एक यह में उन्हें तुलसी के वृत्त दिखलाई दिये :-- श्०्८ रामचन्द्रिका राम नाम अंकित णह, शोभा वरणि न जाय । नव तुलसी के वृन्द बहु, देखि हर्ष कपिराय ॥* त्रता युग में तुलसी के बृच्ष का साहात्म्य नर्दी था | तुलसीदास जी ने अपने काल में प्रचलित तुलली बृक्ष की पूजा को देखकर हं। राम भक्त विभीपण के घर में तुलसी का बिरवा लगा दिया है । इस प्रकार के वर्णंन सभी भापाओं के क.वयों की रचनाओं में पाय जाते हैं। होली तथा दिवाली की कल्पना उद्देगजनक मानना उचित नहीं हे । कवि अपनी कल्पना का प्रयोग काव्य में इसलिए भी करता है । जिससे अतीत और बत्तेमान में समुचित सामञ्जस्य की प्रतीति हो। गीताबल्नी में गारबामी जी ने भी राम की फाग का वणुन किया है, ओर अश्लील गालियों भी प्रथा की भी चचा का है । ऋतु सुभाइ सुठि शोमित, होइ विविध विधि गारि! | कवि के काव्य में तात्कालिक परिस्थितियों का ,प्रतिबिम्ब पड़ता है और उसी में पाठकों के लिये आकर्षण भी रहता है। काव्य इतिहास नहीं हे कि हम उसमें छोटी-छोटी रसात्मक बातों के लिए काल-दोप की कल्पना करने लगें। इस सिद्धान्त का यदि कठोरता के साथ पालन किया जावे तो अपनी कृति में अपने व्यक्तित्व को अंकित करने के लिये कवि को स्थत्न ही न मिलेगा | यदि किसी ऐसी गंभीर घटना का वर्णन कर दिया जावे जो पर्ण अनेतिहासिक हो उसे अवश्य कालदोप में परिगणित किया जाना चाहिये । केशवदास ने रामचन्द्रिका में मठाधीशों की निन््दा कई स्थलों पर की है | इसके सम्बन्ध में शुक्ल जी ने यह लिखा कि :-- “सठधारियों से केशवदास जी बहुत अप्रसन्न रहते थे। रामचन्द्रिका के कुछ उद्दंगजनक स्थल २०६ इसका वास्तविक कारण कया था यह तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु मठाधीशों की निन््दा उन्होंने स्थान-स्थान पर की है. और श्वान वाले प्रसंग की कल्पना तो संभवत: इसीलिये की गई है । मरठों की स्थापना बहुत पिछले समय में बौद्धों के अनुकरण पर स्वामी शंकराचाय के समय से होने लगी थी। अतः मठाधीशों का वर्णन ज्रेतायुग में ठीक नहीं हुआ |”? श्वान वाले प्रसंग में केशव ने मठाधीशों को इतना दरात्मा वतलाया है कि उनका स्पर्श भी चज्य है। उनको छूने से ही पातक लग जाता लोक करयी श्रपवित्र वहि, लोक नरक को ब्रास । छुये जु कोड मठपतिद्दि, ताको पुन्य विनास ॥ भयो कोटिधा नरक संपकी ताकी । हुते दोष संतर्ग के शुद्ध ज्ञाकौ॥ मठाधीशों की निन््दा करने में केशव का लक्ष्य बौद्ध मित्ञुओं की ओर कदापि नहीं हे ।जो मठाधीश महन्त होते थे उन्तकी निन्दा की गई है । श्वात वाले प्रसंग की कल्पना मठाधीशों की निन््द्रा के लिए नहीं की गई है, क्योंकि यह भावना मूलत फेशवदास की नहीं है। श्वान का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के खमुसार रखा गया है। मठ से केशवदास का आशय सन्यासियों के मठ से नहीं वल्कि स्कन्दपुराण ओर पद्मपुराण के अनुसार देव मन्दिर से ही है। केशवदास सनादय ब्राशण थे। अपने बंश और जाति का गौरवास्पद रूप फेशव ने रामचनिद्रका के प्रारम्भ में ही अंकित किया है। बराणभट्ट ने 'कादन्बरी' में, भवभूति ने उत्तरराम- चरित नाटक' में ओर जयदेव ने गीत गोविन्द में आत्मसापधा ५४ २१० रामचन्द्रिका के रूप में बहुत कुछ लिखा है| बाणभट्ट ने अपना परिचय इसा प्रकार दिया है :-- यगुण हे धभ्यस्त समस्त वाडम्मयेः । ससारिकेः पदञ्ञर वर्तिमिः शुकेः । निग्ह्ममाना: वटवः पदे पदे | यजूंषि सामानि च तत्प्रमोदिता: | उवास यस्य श्रुति शांत कल्मपे | सदा पुरोडासपविन्रताधरे | सरस्वतीसोमकपायितोदरे, अशेष शाज्त्र स्मृतित्रन्धुरे मुखें | वाणभट्ट के यहाँ की शारिका और शुक सामवेद की ऋचाओं का गान करते थे और जिसके यहाँ शास्त्रों का परिशीलन ही होता रहता था। अपनी काव्य प्रतिभा पर भवभूति को भी गये था उसने लिखा है :-- य॑ ब्रह्माणमियं देवी वाग्वश्येवानुवर्सते उत्तर रामचरितं तपत्प्रणीतं प्रयुज्यते | जयदेव को भी अपनी श्रतिमघुर वर्णमैन्नी पर अपरिमित विश्वास था यदि हरिस्मरणें सरस॑ मनो, यदि विलास कलासुकुतूइलम् । मधुरकोमलकान्त पदावलि, रु तदा जयदेव सरस्वतीम ॥ इस प्रकार संस्कृत के इन प्रख्यात विद्वानों ने अपने आत्म- विश्वास और गोरब का उल्लेख किया है। इन कवियों की कृतियों से उनके कथन की पूर्णतः सम्पुष्टि होती है । केशवदास को भी अपनी कविता पर पूर्ण विश्वास था। कविप्रिया के सम्बन्ध में केशव ने स्वयं लिखा हे :-- रामचन्द्रिका के कुछ उद्ेंगजनक स्थल २११ “क्विप्रिया है कवि प्रिया, कवि संजीवनि जानि! अपनी रचना के सम्बन्ध में स्द प्रशंसा ही केशव ने नहीं कि अपितु उन्हें अपनी जाति का बड़ा गवे था। जाति के गौरव का उल्लेख चुरा नहीं है, लेकिन उसकी भी सीमा और मर्यादा है। रामचन्द्रिका के प्रारंभ ही में बंश-परिचय में कवि ने लिखा है :-- सनादय जाति गुणादय है, जगसिद्ध शुद्ध स्वभाव | सुकृष्णदतत प्रसिद्ध हैं, महि मिश्र पंडित राव ॥| गणेश सो सुत पाश्यो, चुध काशिनाथ श्रमाघ | अशेप शास्त्र विचारि के जिन जानयो मत साध ॥ अपनी जाति ओर पे पुरुषों की प्रसिद्धि का यह कथन 6५ समीचीन ही है । लेकिन रामचन्द्रिका में सतादय-वर्णंन इतना आया है कि उससे कवि के हृदय की सनादय प्रशंसा की भावना ही प्रकट होती है। रामचन्द्रिफा में उक्त न्राक्षणों की आवश्यकता से भी अधिक पएशंसा की गई है। पतरन्धकाव्य की दृष्टि से ऐसे प्रसंगों फे अत्यधिक समावेश का स्थल भी तो रामचन्द्रिका में नहीं था; परन्तु इससे क्या कवि तो अपनी मनोनीत भावनाओं को प्रकट कर ही देना चाहता था। ऐसे प्रसझ्ों की कल्पना भी फर ली गई है, जहाँ जाति गौरव-गाथा गाई जा सके । राम के समय में समाज में चर्ण विभेद ही था उसके भेद और प्रभेद तो समाज में क्रम से फेलने वाली विश्वंखलताओं के दुष्परिशाम स्वरूप ही प्रादुभत हुए हैं.। राम के समय में त्राहणों के छोटे-छोटे भेद--सनादय, कान्यकुब्ज आदि न बने होंगे। यह सवन होते हुए भी केशवदास ने आएं की अन्य जातियों पर अपनी जाति की महत्ता सिद्ध की २११२ रामचन्द्रिका है। अपनी जाति के इस ग्रद्यातिमय और पुनर्कंथन के कुछ वैयक्तिक कारण हो सकते हैं, उसके लिये कवि एक प्रथक ग्रंथ की रचना करने के लिये स्वतंत्र था। प्रबन्ध कथा में ऐसे प्रसंग वार-घार ला देने से, जो प्रबन्ध कथा आलंकारिक रूपों ओर घटना निरूपणों के कारण छूट दूट गई है। उसमें और भी अधिक व्याघात पहुँचाया गया है। रामचन्द्रिका में कवि ने अपनी जाति का जिस महत्ता और प्रचुरता के साथ वर्णन किया है वह स्वयं ही कवि के हृदय के भावों का परिचायक हे। (१ ) श्रीराम ले भरद्वाज ऋषि से यह प्रश्न किया कि किस वस्तु का दान दिया जाना उत्तम है और कौन से त्राह्मण ऐसे हैं, जिन्हें दाव दिया जाना उचित हे।जब भरद्वाज ऋषि ने उन समस्त पदार्था का वर्णन कर दिया, जो दान में दिये जा सकते हैं, तब श्रीराम ने यह कहा कि कितने ही ऋषिराज हैं . अतः क्रिंसको दान दिया जाय तब ऋषि ने यह कहा कि सनाढयों को ही दान देना चाहिये :-- कह्दा दान दीजे | सु कै भाँदि कीजे ॥ जहाँ द्ोई जैसो | कद्दौ विप्र तैतो ॥ भरदाज :-- केशव दान अनस्त हैं, बने न काहू देत । बह जान भुव भूत सत्र भूमि दान ही देत॥ राम :-- कौनदि दीजे दान भव, हैं ऋषिराज अनेक । भगद्वाज :-- देहु सनादयन श्रादि दे, आये सह्दित विवेक ॥ रामचन्द्रिका के कुछ उद्देगननक स्थल २१३ सनादयोत्पत्ति वर्णन श्रीराम :-- कट्दौं भरद्वाज सनादय को ह। भये कहाँ ते सब्र मध्य सोह॥ हुते सब विप्र प्रभाव भीने । तजे ते क्यों १ ये श्रति पूज्य फीने ॥ भरद्वाज :-- गिरीश नारायण पे सुनी ज्यों । गिरीश मोंसो ज्ु कही कहों त्यों ॥ सुनी सु सीतापति साधु चर्चा । करो सु जाते तुम ब्रह्म श्र्चा॥ नारायण :-- ः मोते जल नाभि सरोज बढ्यो | ऊँचो अ्रति उम्र श्रकाश चब्यो ॥ ताते चतुरानन रूप रयो। ब्रह्म यह नाम प्रगद्ट भयों ॥ ताके मन तें सुत चारि भये। सोहं अति पावन वेद भये॥। चौहूँ जन के मन ते उपजे | भू देव सनादय ते मोंहि भजे ॥ भरद्दोज़ ६-- तातें ऋषिराज सभे ठुम छाड़ो । भू देव सनादयन के पद माड़ौ ॥ सनादय पूजा श्रघ श्रोघद्दारी । अखंड आखण्डल लोकधघारी ॥] अशेपष लोकावधि भूमि चारी | समूल नाशे नहूप दोपकारी ॥ सनाठयों की उत्पत्ति का ऐसा जाज्वल्यमान रूप कवि ने २१४ रामचन्द्रिका अंकित किया है और श्रीराम फो यह उपदेश कराया है. कि दान के सच्चे पात्र सनाढय ब्राह्मण ही हैं |यह दानविधान वर्णन ओर सनादयोत्पत्ति बणेन अग्रासंगिक ही है। केशव ने अपनी जाति का महत्व दिखलाने के लिये ही जबरदस्ती इन प्रसंगों का समावेश किया है। (२) श्रीराम ने राजतिलक हो जाने के उपरान्त अनेकों व्यक्तियों को भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्रदान कीं। उस समय सनादयों के लिये भी मथुरा प्रदेश में गांव दिये :-- विधि सों पॉय पखारि कै, राम जगत के नाँद । दीन्हे ग्राम सनोदियन, मथुरा, मंडल माँह ॥ (३) सत्ताइसवें प्रकाश से भिन्न-भिन्न देवताओं ने उपस्थित होकर श्रीराम की वंदना की, उस समय श्रीराम, ने सब ऋषि मुनियों को छोड़कर सनाढयों के चरणों का सुपश किया छाढ़ि द्विज, द्विजराज, ऋषि, ऋऋषिराज श्रति हुलसाइ । प्रकट समस्त सनोढ़ियन के प्रथम पूजे पॉय ॥ (४) तीसवें प्रकाश में राम के प्रातः ऋृत्यों का वर्णन करते हुए यह लिखा कि स्वस्थ गायों को, जिसके सींग सोने से मढ़े होते थे और एक काँसे की दोहनी और रेशम की नोईं सहित श्रीराम सनोढियन को दिया करते थे :-- निपट नवीन रोग द्वीन बहु छीर लीन, 'बच्छु पनि थन पीन हीयन इहरत है। तांबे मढ़ी पीठ लागे रूप के सुरन डीठि, देखि स्वर्ण सींग मन आनन्द भरत दै॥ कांसे की दोहनी श्याम पाट की ललित नोई, घंटन सो पूजि पूनि. पॉयन परत हैं-। रामचन्द्रिका के कुछ उद्देगलनक स्थल र्१्र हि शोमन सनोदियन रामचन्द्र दिन प्रति, गो शतसदइस्त दे. कै मोजन करत हे॥ (४ ) सेंदीसवें प्रकाश सें जब ब्रह्म ने भगवान राम से सष्टि रचना के कार्य से सन्व॒स्त होकर प्राथना की उस समय अह्मा ने यह कहा कि मेरे सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्र सब अच्छे मुनि हैं, सननशील विद्वान हूं, तपवल से पर्ण हूं, और वे सनादय जाति के नाम से प्रसिद्ध हूँ :-- सब्र वै मुनि रूरे, तपं्नल पूरे, विदित सनादय सुजाति | (६) जिस समय श्वान मठधारियों की निन््द्रा कर रहा था, उसी समय द्वारपाल ने आकर यह सूचना दी कि मथुरा (निवासी ब्राह्मण पधारे हैं, तब श्रीराम ने उनका चरणोद्क लिया ओर अपना अहोभाग्य साना :-- तब बोलि उठो दरबार बिलासी, द्विज द्वार लस यमुना तटवासी। अति आदर सों ते सभा महँ बोल्पो, बहु पूजन के मंग़ को श्रम खोल्यो ॥ रास +-- घाम पावन हैं गयो पद-प्म फो पय पाय | जन्म शुद्ध भयो छुए कुल, दृष्टि द्वी मुनिराय॥ (७) लवणासुर का वध हो जाने पर देवताओं ने दुन्दुभी बनाई और आकाश से पुष्प वर्षा की। शन्नुन्न से प्रसन्न होकर देवताओं ने वर माँगने के लिये कहा । उस समय शत्रुन्न ने यही कहा :-- - सनादय शूसि जो हरै। सदा समूल सो घरेंत अकाल सुृत्यु सो मरे। अनेक नके से परै॥ २१६ रामचन्द्रिका सनादय जाति सबबंदा | यथा पुनीत नमेंदा भें सजें ते सम्पदा। विरुद्ध ते असंपदा॥ रामचन्द्रिका के उत्तराध में केशवदास ने सनाह्य जाति के महात्म्य का वार वार वर्णन किया है। कवि ने उक्त ब्राह्मणों के चरणों का स्वयं श्रीराम द्वारा प्रक्षालन कराया है, इसका वैयक्तिक कारण हो सकता है परन्तु अबन्ध काव्य में ऐसे वर्णनों के लिये कोई स्थान नहीं हे । इन्द्रजीतर्सिह के दरबार में अपनी विद्वत्ता की धाक ही केशव ने नहीं जमाई होगी अपितु श्रेष्ठ कुलोत्पन्न होने का यश और गौरव भी प्राप्त करना चाहा होगा । तात्कालिक परिस्थितियों में अपनी महत्ता को इस प्रकार प्रतिपादित करने से काग्यत्व को अपकर्प ही मिला है। केशवदास के समय में ही तुलसी ने समाज का ऐसा चित्र खींचा हैं, जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था का अतिक्रमण किया जाने लगा था । शूद्र त्राह्षणों को आँख दिखाने लगे थे। वेद ओर पुराणों की निन््दा की जाती थी । उपदेशक स्वयं फी पूजा कराने लगे थे । बाददिं शूद्र द्विनन सन, इम तुम्दततें कछु घादि | जानद्दि ब्रह्म सो विप्रवर, आँखि दिखावहिं डाटि॥ साखी सबदी दोहरा, कहि कहिनी उपखान। भगति निरूपद्दिं भगत कलि, निन्दद्दिं वेद पुरान ॥ श्रुति-सम्मत-इरि-भगति-पथ, . संयुत विरतिविवेक । तेदि परिदरदिं विमोह बस, कल्पदिं पंथ अनेक ॥ अपने समय की सामाजिक अस्तव्यस्तता का रूप चित्रित करते हुए चुलसी ने वर्णाश्रम व्यवस्था के पालन पर जोर दिया है। त्राह्मण जाति के महत्व का प्रतिपादित करके तुलसी ने वर्णाश्षम व्यवस्था की मद्दत्ता के स्वरूप को आभासित किया है। “पूजिय विश्र रूप गुन द्वीना” रूप और ज्ञान रहित ब्राह्मण भी * शामचन्द्रिका के कुच उद्देगजनक स्थल २१७ पुजनीय बतलाया दहै। परन्तु तुलसीदास ने यह बात समस्त ब्राक्षणों के लिये कही है।केशवदास ने इस अकार के इृष्टि- सद्भोच से प्रवन्ध काव्य में अनावश्यक प्रसझ्ों फा समावेश कर दिया है ! प्वन्ध काव्य में इस प्रकार की एकांगी भावनाओं का प्रदर्शत उचित नहीं माना जा सकता । रावण के यक्षु को विध्च॑ंस करने के लिये अंगदादि वानर लंका भेजे गये । अंगद रावण के राजमहल में घुसकर मन्दोदरी को ढूँढ़ने लगा। मन्दोदरी को पकड़कर अंगद ने उसके कपड़े फाड़ डाले । केशव ने सन्दोदररी की कारुणशिक परिस्थिति पर ध्यान नहीं दिया है भरत्युत विस्तार से उसके वस्त्र रहित बच्ष- स्थल का वर्णन किया है। उस वर्णन में श्लीलताका भी कम ध्यान रक््खा गया है। इस प्रकार के श्टंगारिक व्णुनों लिये रामचन्द्रिका उपयुक्त स्थल नहीं है। इस प्रकार की 2 बताओ का प्रकटीकरण सामाजिकों को विछुब्ध दी चनाता है । करुण रस में झंगार का समावेश क्रिया भी तो नहीं जा सकता | रस ओर प्रवन्ध काव्य की हृष्टि से यह वर्णन दोपपूर्ण हे। वस्त्रद्वीव उरोजों का केशव ले इस प्रकार वर्णन किया है :-- बिना कंचुकी स्वच्छ वच्चोज राजें | किधों साँचद्ू श्रीफले शोम सारे ॥ किधों स्व के कुंम लावण्य पूरे | घशाकर्ण के चूर्ण सम्पूर्ण पूरे॥ किधों इष्टदेवे सदा इष्ट द्वी के । किपों गच्छ हे काम संचीवनी के ॥ किघों (चत्त चौगान के मूल ठोईं । 'हिये ऐम के दाल गोला विमोद्दे ॥ श्श्८ रामचन्द्रिका इस प्रकार के ऋंगारिक वर्णनों में केशव की रुचि अधिक लीन रही है । उपयुक्त स्थल पाकर, रस और मयांदा का ध्यान . न रखकर केशव ने रंगार के ऐसे चित्र भी अंकित कर दिये हैं। राम-कथा में जहाँ झऋंगारिक वरणनों के लिये स्थान है वहाँ केशव ने बलपूर्वक ऐसे अ्रसंगों की कल्पना कर ली है । सीता की दासियों का नख-शिख निरूपण भी रीतिकालीन भावना की संबर्धना ही है। श्ंगारिक वर्णन वहाँ अलंकारों के बोम से दव सा रद्दा है। दासियों के अंग-प्रत्यंग का वर्णन और मन्दोदरी का उक्त चणेन प्रबन्ध कथा की दृष्टि से उचित नहीं है । * आत्मशुद्धि का परिचय देने के लिए सीता ने अग्नि में प्रवेश किया। उस समय रवयं॑ अग्नि ने यह साक्षी दी कि हे रामचन्द्र ) यह सीता सदेव शुद्ध है, त्रह्मादि देवता इसकी प्रशंसा करते हैं । अब आप इसे स्वीकार कीजिए, तब श्रीराम ने आलिंगन करके सीता को अंगीकार किया :-- श्रीराम यह संततत शुद्ध सीता.-। ब्रह्मादि देव सब गावत शुमश्र गीता ॥ . हे कपाल गहि जै जनकत्मजाया । योगीश ईश तुम हो यह योगमाया ॥ श्रीरामचन्र ईंसि श्रंकः लगाइ लीन्हो | संसार साक्षि शुश्र पावक श्रानि दीन्हो॥ जब सीता अप्रि परीक्षा दे रही थीं, उस समय इन्द्रादि देवता दशरथ को लेकर आये थे :-- इन्द्र, वरुण, यम, सिद्ध सत्र, धर्म सद्दित घनपाल । व्रह्म, रुद्र ली दशरयहिं, आय गये तेहि काल || शामचन्द्र ने दक्त देववा और दशरथ के.समचत सीता का रामचन्द्रिका के कुछ उद्देगजननक स्थल श्श््ट आलिंगन किया, यद्द उचित दो नहीं है, परन्तु यह भावना मूलतः केशवदास की नहीं है। केशव ले यह प्रसंग अध्यात्म रामायण से लिया है। वहाँ लिखा है कि “लच्धमीपति भगवान राम ने अपने से कभी विज्ञग न होने वाली जगज्जननी सीता को गोद में विठा लिया।” रामचन्द्रिका में उक्त दृश्य इसी के आधार पर भक््रस्तुत किया गया है। मल » + १२ रामचन्द्रिका प्रबन्ध काव्य हे ! केशवदास जी महाकबि माने जाते हैं। यद्यपि महाकवि का शाब्दिक अर्थ बड़े कवि' से है किन्तु साहित्य शास्त्र की रूढ़ि के अनुसार 'महाकवि' से तात्पर्य 'महाकाव्य के रचयिता” से है। केशवदास के ग्रंथ कवि प्रिया' तथा 'रसिकप्रिया” के कारण केशवदास को आचार्यत्व भले ही प्राप्त हो गया हो किन्तु उनका हाकवित्व तो रामचन्द्रिका पर ही निर्भर है | संस्क्रः साहित्य में कविता को अह्वितीय स्थान आप्त हुआ था । दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण या वेदान्त आदि विपय पर ही 'थ रचना चाहे क्यों नकफी गई हो लेकिन इनके निरूपण में पद्य का ही सहारा लिया जाता था। गय का प्रचार संस्कृत साहित्य में कम था। 'गद्यः कवीनां निक्रप:” से यह ध्वनित होता है कि गद्य लेखन की ओर कवियों की प्रब्त्ति नहीं थी.। यद्यपि साहित्य में वे समस्त गंथ परिणत किये जाने चाहिये जिनमें काव्यत्व हो चाहे थे पद्म में हों या गय में, लेकिन घहुत समय तक संस्कृत साहित्य में साहित्य” शब्द से आशय केवल पद्म का ही लिया जाता रहा | साहित्य शास्त्रियों ने काव्य के तीन प्रमुख विभाग किए हैँ. £. प्रबन्ध, २. दृश्य और ४ मुक्कक । दृश्य काव्यों में नाटक और मुक्तक काव्य में वे रचनाएँ आती हैँ. जिसमें जीवन की किसी एक भावना का ही चित्रण किया गया हो। प्रबन्धकार क्रिसी उच्चकुल के व्यक्ति को नायक बनाकर उसके जीवन की रामचन्द्रिका प्रवन्ध काव्य है ? मर व्यापकता को लेकर रचना करता है। उसमें जीवन की विविध समस्याओं एवं घात-प्रतिधातों का निरूपण किया जाता है। अबन्ध काव्य की रचता के लिये साहित्यकारों ने नियमों की न की हे, जिसका पालन करना प्रचन्धकार को आवश्यक | रामचनिद्रका में राम के जीवन फो आधारित करके रचना की गई है। राम का जीवन करुण एवं कर्तव्य के भीपण संघर्ष का विशाल ज्षेत्र है | यज्ञादि करने के पश्चात् द्वी राजा दशरथ ने वृद्धावस्था में चार पुत्र प्राप्त किये, जिनमें राम सर्वेप्रिय थे जब राम बालक ही थे उसी समय विश्वामित्र राक्षसों का संहार करने के हेतु राम और लक्ष्मण को तपाबन में ले जाते हैं, उस समय राजा दशरथ का पितृ-हृदय करुण-ऋन््दन करता है । चारों पुत्रों के विचाहोपरान्त राजा दशरथ रामचन्द्र को युवराज पद देने का विचार करते हैं. और फिर केकेयी के कारण अनरथंकारी घटनाएँ घटित हुइ--राम का वनवास ओर पुत्र के वियोग में दशरथ का मरण--राम को वन में भीपण कठि- नाइयों का सामना करना पड़ा-यही नहीं सीता का हरण हुआ | रावण के वंश का विनाश करने के पश्चात् सीता सहित अवध- पुरी लौटकर राम कुछ समय सुखपृर्वेक त्रिता भी न पाये थे कि जन-प्रवाद के कारण गर्भवती सीता का निष्कासन हुआ | रास के जीवन में करुण एवं विपाद से संयुक्त घटनाएँ पूंजीमूत होकर ही उपस्थित हुईं। कितना कारुणिक जीवन था राम का | इसी कारण आधुनिक कवि सम्राट मैथिलीशरण गु न्ते फहा हू ६-- राम तठग्दारा जीवन स्वयं टी काव्य डे , कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य दे । श्र्र रामचन्द्रिका प्रवन्ध काव्य में कथानक के निर्वाह पर पूर्ण ध्यान न रखा जाना चाहिये । | कथावस्तु के मनोरम स्थलों पर ध्यान रखकर कथा का प्रवाह ऐसा होना चाहिये जिससे कथासूत्र ढीला न पड़ने पाये । कथावस्तु के उन स्थलों की व्यापक व्यंजना के अतिरिक्त जो महत्वपूर्ण हों उनका वर्णन कथा की ःंखला को मिलाने के अनुरूप ही होना चाहिये। कवि अपनी अलुभूति एवं अगाध छान से कथानक को जितना हृदयग्राही चनावेगा ओर जीवन के घात-प्रतिघातों का जेसा सजीव समावेश करेगा उतनी ही उसकी कवित्व शक्ति का परिचय प्राप्त होगा । प्रबन्ध काव्य में कथानक का क्रमिक विकास होना चाहिये। केशवदास ने विश्वामित्र को वालकांड के आरम्भ में ही रख दिया है. ओर इस प्रकार राम जन्म का कारण तथा उनकी शेशवावस्था का कोई वर्णन नहीं किया। प्रबन्ध काव्य में कवि की यह सुविधा आवश्यक हे कि वह उस कथानक के अनुरूप जीव्रन की विविध भूमियों का दर्शेन करा सकता है। तुलसीदास ने यद्यपि राम की वाललीला संक्षेप भें रखी है परन्तु राम जन्म का वर्णन यथोचित विस्तार से किया है, इसीलिये पाठकों को पहले से द्वी यह ज्ञात हो जाता है कि :-- व्रिप्र घेनु मुर संत द्वित, लीन्द्र मनुज अवतार । निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुण गोपार ॥ केशबदास ने थे प्रसंग रामचन्द्रिका में रक्खे ही नहीं हैँ जब तक रास जन्म का कारण नहीं बतला दिया जावेगा तब तक उनके द्वारा किये गये आगे के कार्य भूमि-भार को उतारने के जम लिये किये हुए सममने में बावा ही होती है । पंचवटी के अवसर रामचन्द्रिका प्रवन्ध काव्य दे ? श्श्३् पर जब राम और सीता बैठे हुए हैँ उस समय रामचन्द्र सीता से कहते हैँ :-- राज सुना इक मंत्र सुनो अब | चाइत हों मरुव भार दरयौ सब ॥ / | पावक में निज्ञ देददईिं राखहु। | छाय सरीर मुगें अमिलाखहु ॥ इस वार्ताज्ञाप के परिणामस्वरूप रामकथा के कारुणिक स्थलों में सच्ची अनुभूति नहीं दो सकती और जब सीताहरण के पश्चात् रास विलाप करते हैं उस समय वह सब मिथ्या ही लगता है, क्योंकि पाठक को यह विदित है कि सच्ची सीता का दरण दी नहीं हुआ हे। प्रबन्ध केबि को रचना में कोई भी ऐसा स्थल न रख देना चाहिये जिसके कारण रसानुभूति में व्याघात पड़ जावे । राम वनगमन के प्रसंग में केशवदास मे प्रासंगिक उप कथाओं का अधिक संकोच किया है। वहाँ न तो कैफेयी बरदान का प्रसक्ः है और न मंथरा द्वारा केफेयी के मात्सये को प्रब्यलित करने का वर्णन । इसके अभाव में केकेयी के चरित्र का पतन तो हुआ ही है कथावस्तु की दृष्टि से भी यह ठोक नहीं है। पवन्ध कवि प्रमुख कथा-प्रसंगों की फेचल सूचना ही न देगा, किन्तु वहाँ पर मनोवैज्ञानिक चित्रणों के हारा उस स्थल को सजीव बनाबवेगा। इस स्थल पर केशवदास दशरथ की उस दयनाय दशा का वर्णन कर सफते थे जो कि प्रतिज्ञा-पालन तथा पुत्र-स्नेह के कारण उत्पन्न हो रही थी। यही नहीं, कफेशवदास मे दशरथ मसरण की घटना का भी समावेश रामचन्द्रिका में नहीं किया है। इस प्रकार केशवदास ने रामचन्द्रिका के अमुख रथलों का ल्र) म्छ रामचन्द्रिका भी परित्याग किया है ओर कितने ही स्थल्नों पर केवल सूचना मात्र से ही अवन्ध-शंखला जोड़ने का प्रयास किया है7: रामचन्द्रिका में प्रवन्ध काव्य के नियमों का तो यथायोग्य वर्शन किया गया हे, किन्तु कुछ स्थलों को केशवदास ने केवल इसलिये रख दिया है किया तो वे प्रसन्नराघव, हलुमन्नाटक या वाल्मीकि रामायण में दिये हुए हूं अथवा उनमें चमत्कार प्रदर्शन का उपयुक्त स्थल प्राप्त हो गया हे । 'कालिका कि वर्षा हरपि हिय आई हे” ऐसे ही प्रसंगों में से हे। प्रबन्ध कवि का प्रकरति-वणन करना चाहिये, लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि बह प्रकृति के वर्णन को इतना प्राधान्य दे दे कि प्रमुख कथावरतु पीछ रद्द जाय, या प्रकृति का ऐसा चित्रण करे जिसका क्रथावस्तु से अधिक सम्बन्ध न हो । रामचन्द्रिका के कथा-प्रवाह में व्याघात इस कारण और भी पहुँचना ६ कि छनन््द इतने जल्दी परिवर्तित होते हैं कि पाठक उनके चमत्कार में पड़ जाता हैः ओर कथावस्तु में तल्लीन नहीं हो पाता | छन्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में जो नियम साहित्य शान्त्रियों ने बनाये हू उसके अनुसार एक सग में केवल एक ही प्रकार का छन््द्र प्रयुक्त दाना चाहिये। केन्रन सर्गान्त में प्रथक छझनन््द की याजना की जा सकती है। केशवदास शायद यह प्रकट करना चाहते थे कि विविध प्रकार के छन्दों में छुन्द रचना करने की वे जमता रखते हें इसीलिये साहित्य के नियमों का सि प्रतिक्मश किया है। एक ही प्रकार के छन्द-प्रयोग में र्सानुभूति भें सहायता मिलती है, इसका ज्ञान संस्कृत में काबियाँ को था दइसीलिय जमिनने भी प्रबन्ध-कावब्य संस्कृत से लिखे गये ह उनमें इस नियम का पालन किया गया हे रू । 9; शबदास ने टतने छोटे छोटे छन्दां का प्रयाग किया है जा रामचन्द्रिका भ्रवन्ध काव्य है ? स्र्र् प्रवन्ध काव्य की दृष्टि से उपयुक्त नहीं हेँ ऐसे छन्दों के लिये उपयुक्त स्थान छन््द्र शासत्र ही हो सकता है। रामचन्द्रिका में केशव ने न तो पात्रों के चरित्र-चित्रण की ओर ही ध्यान दिया है और न कथा-प्रसंगों का ऐसा सन्तुलित एवं आनुपातिक वर्शन किया है जिससे राम के जीवन ऊा पूर्ण ज्ञान केवल रामचन्द्रिका के पाठक को हो जावे। यह सब होने पर भी यही कहा जा सकता है कि राम- पघन्द्रिका प्रवन्ध काव्य है। निस्संदेह इसकी रचना प्रबन्ध काव्य की पृष्ठभूमि पर हुई हे, कवि उन स्थलों के प्रति विशेष आकर्षित हुआ है जहां उसे चमत्कारिक उक्तियाँ प्रकट करने का अच्छा अवसर मिला हे; अन्य प्रसंगों को चलता कर दिया कथानक की श्रृंखला को मिलाने में कठिनाई अवश्य होती है ; परन्तु कथासूत्र प्रच्छन्न रूप से सर्वत्र विद्यमान रहता है। कथा-प्रवाह टृुट जाना ओर बात है ओर उसकी कठिनाई से लड़ियाँ मिलाना और बात | केशवदास ने रामचरिद्रका सें रास के चरित का हीं बन किया है, आर इन न्यूनताओं के होते हुए भी उसकी गणना प्रवन्ध काव्यों ही में होगी। अलंकारों के प्रति अत्यधिक रुचि होने के कारण केशव ने रामचन्द्रिका में फेवल वे ही प्रसंग रखे जिनमें आलंकारिक योजना और चमत्कार प्रदर्शन किया जा सकता है । अन्य प्रसंगों को या तो केशव ने लिया ही नहीं है अथवा उनका संकेत भर कर दिया है । रामचन्द्रिका के वीसवें प्रकाश नक् तो यव्किचित रूप से फथावस्त चलती रहती हे परन्तु आगे के प्रकाशों में फेशव ने बहतता प्रदरशनाथ ऐसे प्रसंग रखे हैं, जिनका प्रन्न्ध कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्द्रजीतमिदर के २४५ २२६ रासचन्द्रिका दरबार में रहकर केशव ने राजसी जीवन का जो अनुभव किया था, उसे भी प्रकट किया है, यद्यपि राम के जीवन से इन बातों का कोई भी सम्बन्ध नहीं है। राजसभाओं में नृत्य ओर गान हुआ करते थे वही रूप 'रामचन्द्रिका' में भी समाविष्ट कर दिया गया है। बत्तीसवें श्रकाश तक केशव ने ऐसे ही प्रसंगों को रक्खा है। इनमें से यदि तेईंस, चौबीस पन्नीस, सत्ताइंस ओर उन्तीस से लेकर वत्तीस अकाश तक यदि निकाल दिये जावें तो प्रबन्ध की कथावस्तु का कोई अंश नहीं छूटेगा। केशव ने प्रबन्ध काव्य की रचना करते समय कथावस्तु पर ध्यान नहीं रखा है। वे प्संग जिनमें कवि की रुचि अधिक थी, समाविष्ट कर दिये गये हैं। इन्द्रजीतसिंह के द्रवार में ' होने वाले संगीत और नृत्य का चित्र खींचा गया है। ओरछे के राजमहल और उद्यानों तथा राजसहल में रहने वाली दासियों के सोॉन्द्य की ओर भी केशव का ध्यान गया है। स्व॒जातिः प्रशंसा की ओर भी केशव की रुचि थी अतः इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने कितने ही अनावश्यक असंगों की कल्पना का है। ह केशव द्रवारी कबि थे। अपने आश्रयदाता की प्रशंसा और अपनी काव्य रचनाओं से उसे प्रसन्न करना उनका लक्ष्य था। दूय की सुकुमार अनुभूतियों को ही प्रकट करना ऐसे कवियों का ध्येय नहीं होता वह तो ऐसी रचना करना चाहते हैं, जिससे उनके आश्रयदाता सन््तुष्ट हों। यही कारण है कि रामचन्द्रिका के उत्तराद्ध में ऐसे प्रसंगों का आवश्यकता से अधिक समावेश हुआ है। भत्यक्ष रूप से तो ये वर्णन राम से ही सम्बन्ध रखते है, अतः कथावस्तु की झंखला मिली रहती है। संस्कृत के शास्तरियों द्वारा म्रवन्ध काव्य के लिये निरूपित किये गये नियमों: का केशव ने अधिकांशतः पालन किया है। प्रकृति वर्णनों का रामचन्द्रिका प्रवन्ध काव्य है ? श्र रामचन्द्रिका में यथेप्ट समावेश हुआ है। राम की कथा इतनी व्यापक हो चुकी थी कि यदि उसके थोड़े से अंश को छोड़ भी दिया जाय या संक्षेप में ही उसका वर्णन कर दिया जाय तो भी पाठक को वह कथा ज्ञात हो जाती थी, इसीलिये केशव ने इतनी स्वतन्त्रता का अयोग किया है ! रच] अन_>-_- ५, 04० १३ उपसंहार केशवदास रीति काल के प्रथम आचाये थे। कविश्रिया ओर रसिकप्रिया की रचना हारा «केशव ने अलंकार और रस का विवेचन किया है। रामचन्द्रिका में छनन््दों का निरूपण किया गया है। प्रारंभिक छन्दों को देखकर इस विचार की पुष्टि हो जाती है कि आचाये केशव ने रामचन्द्रिका की रचना छन्दों की शिक्षा देने के हेतु की है। वर्शिक छनन््दों की प्रचुरता इसी की द्योतक है कि केशव सब प्रकार के छन्दों के उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे । काव्य दोपों के उदाहरण भी जानवूक कर रख दिये गये हैं। केशब चाहते तो, उन दोषों को न आने देते पर काव्य-शिक्षा के लिये दोषों के उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिये, इसीलिये केशव ने उनका समावेश किया है। केशव कवि ही नहीं, काव्याचाये थे। केशव की कल्पना-शक्ति प्रखर ओर विलक्षण थी। रामचन्द्रिका में स्थान स्थान पर केशव ने पारिडत्य का ग्रदर्शन किया है। एक विशेष धारणा से श्रेरित होकर ही केशच ने 'रामचन्द्रिका' की रचना की है। केशव ने यह समभकर कि राम कथा से जनसाधारण अवगत है इसलिये राम के जीवन के केबल उन््हीं अंगों का प्रदर्शन किया है जहाँ वे यक्ति-वेचित्य का चमत्कार प्रदर्शित कर सकते थे। केशव की तुलना अंग्रेजी साहित्य के अखिद्ध कबि मिल्टन से की जा सकती है । मिल्टन ने अपने काव्य में कठिन शब्दों का प्रयोग किया हे और कवि-परम्पराओं का पालन क्रिया है। उन्होंने शउपसंहार न न््् रि लवा पज्षी को गृह्दों के वातायनों पर लाकर दिठा दिया है, उसी | , प्रकार केशव ने भी कवि-परम्परा के पालनाथ ही “एला ललित | लवंग” के बृच्तों को मगध के वन में डगा दिया है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी केशव ने पर्याप्त रूप से किया है। फेशव्दास की उदभावना शक्ति इत्तनी प्रवल थी कि एक ही प्रसंग का वे अनेकों प्रकार से वर्णन कर सकते थे ॥ कुछ अलंकार केशव को इतने प्रिय थे कि उनकी पुनराधघृत्ति में भी वे दोप नहीं संममते थे। प्राकृतिक सौन्दर्य के निरूपण सें फचि की काव्य-प्रतिभा को अनुसंजन होता था इसलिये उसके चित्र रामचन्द्रिका में प्रचुर मात्रा में अंकित किए गये हैं। बन बाग, तड़ाग और नदी का दो-दो बार वर्णन किया गया है केशव ने काव्य-रचना अपनी धारणा और मनोवृत्ति के अनुकूल ही की है ; यही कारण हे कि रामचन्द्रिका में थे ही स्थल पूर्णता के साथ अंकित किए गये हूँ जो कवि को अच्छे लगे हँ। इमुमान जब रावण फे महल में पहुँचा तो उसने अनेकों सुन्दरियों को देखा। कोई गा रही है; कोई नाच रही है। कोई मदोन्मत्त होकर साला को गँध रही है। तोता मेना भी फोकशास्त्र की कारिकाओं का पाठ कर रहे हँ। राजदरबार के ऐसे भव्य- चित्र हिन्दी में केशव के अतिरिक्त अन्य किसी कवि ने अंकित नहीं किये । राज दरबार का प्रत्यक्षानुभव केशव को था, उसी को केशव ने ओजपूर्ण ढंग से प्रदर्शित किया है :-- कहूँ किन्नरी किन्नरी ले चनावे | सुरी आसुरी चॉसुरी गीत गावे ॥ कहूँ यक्धिणी पत्चिणी ले पढ़ावे । नगीकन्यका पतन्नगी को नचावे ॥ पियें एक हाला सुद्दं एक माला । बनी एक चाला नचे चित्रशाला॥ २३० रामचन्द्रिका कहूँ कोकिला कोऋ की कारिकाको । पढ़ावे सुआ ले सुकी सारिका को ॥ भाषा पर केशब का अपरिमसित अधिकार था। रासचन्द्रिका में कितने ही छनन््द ऐसे हैं, जिनके एक से अधिक अर्थ होते हैं । इस शब्द-लाधव से कहीं-कहीं तो केशव ने बड़ा चमत्कार: प्रदर्शित किया है'। रावण जब सीता के समक्ष अशोक वाटिका में राम की निनन्दा करता है तो कवि ने उन्हीं शब्दों के द्वारा एक भिन्नार्थ प्रकट कराया है, जिससे रास की स्तुति का स्पष्ट वोध होता है। केशव के पांडित्य ने कहीं-कहीं तो काव्य के ऐसे सुन्द्र चित्र अंकित किए हैं, जिन्हें देखकर हृदय सुग्ध हो जाता है। केराव में अवश्य ही असाधारण काव्य-प्रतिभा थी। कृतन्नी कुदाता कुकन्याहि चाहे । द्वितू नग्न मुंडी नहीं को सदा है।॥ अनाथे सुन्यो मैं अनाथानुसारी । बसे चित्त दंडी जटी मुंडघारी ॥ ठ॒र्म्हं देवि दूषे हितू ताहि मानें । उदासीन तोरसों सदा ताहि जानें ॥ महानिर्गणी नाम ताकीौ न लीजै । सदा दास मौपे कृपा क्यों न कीजे ॥ रावण ने सीता को जो प्रलोभन दिया उसमें भी जगनन््माता सीता की स्तुति ही गाई गई हे | रावण कहता तो यह है कि हे सीते . यदि तुम मेरे राजमहल में रहने लगो तो तुम सब की पटरानी बनोगी । सरस्वती, इन्द्राणी, ओर पाती भी तुम्हारी सेवा करेंगी | लेकिन भक्त के पक्ष में भी उसका अर्थ यह ध्वनित होता है कि दे सीता ! तुम देत्य-कन्याओं और राजरानियों की उपसंहार २३१ भी रानी हो, तुम्हारी सेवा सरस्वती, शची और पार्वती भी करती हैं.। ऐसा बाक-चातुर्य साधारण कवि की रचनाओं में इृष्टिगत नहीं होता । केशव के अमित शब्द-भांडार और कवित्व-शक्ति के परिणामस्वरूप ही ऐंसी सुन्दर कविता की सर्जना संभव है :-- | श्रदेवी रृदेवी न की द्वोहु रानी । करें सेव यानी मधौनी मडानी || लिये किन्नरी किन्नरी गीत गांवे | सुकेशी नें उचशी मान पावे ॥ केशव ने प्रस्तुत प्रसंग के लिये साइश्य-मूलक ऐसे उपमान भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसे उस प्रसज्ञ का स्पष्ट चित्र अंकित हो गया है। राम के वियोग में सीता का वर्णन करते हुए केशव ले उसकी तुलना उस कमल नाल से की है जो कीच युक्त हे ओऔर-जल से निकाल कर बाहर डाल दी गई है। जल से बाहर कर देने से कमल नाल मुरमा जाती है उसी प्रकार राम से बिछुड़ने के कारण सीता को दशा है :-- घरे एक वेणी मिली मैल सारी । सृणाली मनों पंक ते फा़ि डारी ॥ सदा राम नाम ररे दीन बानी | चहूँ ओर हैँ राकसी दुश्खदानी | केशव का आ्रादुभोव हिन्दी काव्य ज्षेत्र में उस समय हुआ जब भक्ति-काल का अवसान हो रहा था राजनीतिक परिस्थितियों के कारण राजा आमोद-प्रमोदमय जीवन व्यतीत करने लगे थे | कवियों को भी राजाश्रय प्राप्त होने लगा था। भक्ति काल की अन्तिम आसा को देखकर भी केशव के छदय में भक्ति की वह पावन भागीरथी प्रवाहित न हो सकी, जहाँ सांसारिक सुझ्ों र३२ रामसचन्द्रिका ओर भौतिक आकर्पषणों से जीव की मुक्ति हो जाती है । काव्य में प्रकट की गई विरागसूलक भावनाओं में छवि के हृदय का _ साम्य न था। भक्ति-भावना भी कवियों के हृदय के अन्तरालं से प्रसुत न होती थी वह तो 'कविता करने का बहाना” सात्र थी । इन परिस्थितियों में केशब ने राम की कथा को लिखा है! रीतिकालीन भावना का सीता-वियोग-बरणन में इसीलिये समावेश हो गया है । विरह में उद्दीपन की समस्त सामग्रियां दुःखदायिनी हो जाती हैं । उन पदार्था की ओर विरहिणी आँख उठाकर भी नहीं देखती । सीता की भी यही दशा है :-- भौरिनी ज्यों भ्रमत रहत वन वीथिकानि/ हसिनी ज्यों मदुल मुणालिका चहति है। हरिनी ज्यों हेरति न केशर के काननहि, केका सुनि व्याल ज्यों विलान ही चहति है ॥ पीउड पीड रटदति चित चातकी ज्यों, चंद चिते चकई ज्यों चुप हे रहदति है। सुनहु हृपति राम विरद्द तिहारे ऐसी, सूरति न सीता जू की मूरति गहति है॥ आस-पास की परिस्थितियों का प्रभाव कवि के हृदय पर अवश्य पड़ता है | यही नहीं, केशव के हृदय में शड़बर रस की प्रवल धारा प्रवाहित हो रही थी, इसीलिए समय पाकर वह फूट/ निकलती थी । रामचन्द्रिका में कवि की मनोघृत्ति श्रद्भारिक एवं पास्डित्य-प्रदर्शन थी । अभिलापा और आलंकारिक पवृत्ति प्रचुर: मात्रा में दृष्टिगोचर होती हे। केशवदास ने कितनी ही घटनाओं के शब्द-चित्र खींचे हूं । उनके वर्णनों में चित्रोपमता है । केशव के स्वयं के विशिष्ट काव्य-सिद्धान्त थे, उन्हीं का प्रतिपालन रामचन्द्रिका में किया गया हे। ऐसे शब्दों का भी उपसंहार र्श्रः प्रयोग 'रामचन्द्रिका' में मिक्नता है जो न तो केशव के समय ही में प्रचलित थे और न आज ही। रामचन्द्रिका में वस्तु-चर्णन के बजाय असझ्ञों का ही विशिष्ट निरूपण है। फवि कथा लिखने में उत्ते लीन नहीं हूं, जितना अप्रासंगिक वस्तु वर्णन में। रुचि के अनुकूल प्रसड़ पाकर केशव मूल-कथा को भूल गये हैं । रामचन्द्रिका की प्रष्ठभूमि प्रवन्ध काव्य है। प्रबन्ध काव्य के विशिष्ट नियमों का भी पालन किया गया है। लेकिन छन्दों के अमित ज्ञान और उनकी रचना करने की अद्वितीय क्षमता का परिचय कवि देना चाहता है, इसलिये रामचन्द्रिका की कथा में रस की निष्पत्ति नहीं हो पाई। रामचन्द्रिका के करुण से करुण स्थल्न में भी वह आद्रता नहीं है जो पाठकों के हृदय को शोकामि- भूत कर सके । बहुज्ञता-प्रदर्शन के कारण कथा-श्ंखला बीच-चीच में टूट जाती है। केशव की परिस्थितियाँ और उनके काब्य सम्बन्धी सिद्धान्त इसके लिये उत्तरदायी हैँ , केशवकी काव्य- रमणोंं सदा अलंकृत रहकर राजभासादों में ही भवेश करने की इच्छुक रहती है; जनसाधारण की छाया से चह दूर भागती हे। केशव की कपिता का रसास्वादन काव्य समेज्ञों तक ही सीमित है ।कंधि ने क्लिप्टता का समावेश करके अपनी कविता के प्रसार क्षेत्र को अत्यन्त सीमित और संकुथचित कर दिया है | राजदरवार की प्रसिद्धि ने केशव के छदय को जनसाधारण से पराड्मुख कर दिया, इसीलिये उनकी कविता में किलिप्ट कल्पना और आलंकारिक संविधान प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। १४ तुलसी ससी, उड़ुगन केशवदास आलोचना की वेज्ञानिक पद्धति हिन्दी साहित्य में पाश्चात्य साहित्य के सम्पर्क में आने के कारण ही प्रचलित हुई हे । इसका यह आशय कदापि नहीं है कि प्राचीनकाल में आलोचना की ओर संरक्षत के कवियों का ध्यान ही नहीं गया। उस समय आलोचना होती अवश्य थी किन्तु जिस विश्लेषणात्मक पद्धति पर आलोचना की परिपाटी आज विद्यमान है उसका अभाव था । एक श्लोक में ही चार-चार कवियों के गुणों का प्रद्शन कर दिया जाता था । जैसे “उपमा कालिदास्यथ, भारवेरथ गौरवं । दग्डिनः पदलालित्यं, माधे सन्ति त्रयोगुणा:” इस छोटे से श्लोक में क्रशः कालिदास, भारवि, द्रिडन तथा माघ की आलोचना ही नहीं तुलनात्मक आलोचना की गई है | जिस प्रकार दर्शन, व्याकरण, ज्योतिप आदि गंभीर विपयों पर विशद व्याख्यात्मक ग्रंथ लिखे गये उसी प्रकार आलोचना शास्त्र पर सुन्दर अन्थ क्यों न प्रस्तुत हुए, इस प्रश्न का समाधान उस समय के व्यक्तियों की मनोबृत्ति एवं घारणाओं के अध्ययन से हो जाता है। भारतीयों का ध्यान सबेदा से आध्यात्मिक उन्नति की ओर ही प्रवृत्त रहा है, अत्त: इस असार संसार में जन्म अहण करके थे भगवत्भजन में अपने समय का सदुपयोग करते थे किसी संसारी व्यक्ति से उनका कोई सरोकार न था। यही कारण है कि क्रिसी कवि की कृति के तुलसी ससी, उड़॒गन केशवदास २३४ गुण-दोपों के प्रदर्शन में उनकी रुचि नहीं थी। एक युग संस्क्षत साहित्य में ऐसा आया जब कि कालिदास आदि महाकवियों की रचनाओं की संस्कृत में टीका की गई। रघुवंश महाकाव्य की टीका करते समय मल्लिनाथ ने लिखा था नामूलं लिख्यते फिख्िन्नानपेक्षितमुच्यते !! इन टीकाओं को आलोचना के आधुनिक सिद्धान्तों पर हमें नहीं कसना चाहिये, लेकिन इनका रूप आलोचना के समान ही है । " आलोचना के द्वारा किसी कवि की कृति में अन्तर्निहित भावना को प्रकाश में लाया जाता है तथा उसकी रचना में कवि का कया हेतु है उस पर भी सहानुभूतिपूर्वंक विचार किया जाता है। आलोचक का यह कर्तव्य हैं कि कवि के विचारों से सहानुभूति रक्खे और निष्पक्ष होकर उस काव्य के 'निष्कर्पो पर विचार करे तभी वह आलोचना उपयोगी होगी, अन्यथा संकुचित मनोबृत्ति के कारण जो आलोचना की जावेगी 'उससे लाभ होने की कोई आशा नहीं हे । जब दो रचनाकार एक ही बविपय पर प्रथक-पृथक म्रंथों की रचना करें तो उन दोनों के महत्व के निद्शन के लिये उनके द्वारा चर्शित की गई कथावस्घु पर छुलनात्मक विचार करके जो विचार प्रकट किये जाते हैँ वही समालोचना कहलाती है। उन्हीं कवियों की समालोचना की जा सकती है जिनकी विचार धारा में साम्य है और जिन्होंने उसी विषय पर रचना की हो। समालोचना के लिये, विभेद के साथ समानता की आवश्यकता: है. क्योंकि भिन्न-भिन्न सागे से जाने वाले व्यक्तियों फी कोई तुलना नहीं हो सकती | वावा वेशीमाधवदास ने मूल गुसाई-चरित में जो उल्लेख किया है उससे यह विदित है कि गोस्वामी तुलसीदास तथा २३६ रामचन्द्रिका केशवदास समकालीन थे । यद्यपि केशवदास की मृत्यु तुलसीदास के जीवन काल में ही हो गईं थी। केशवदास ने रामचन्द्रिका की रचना तुलसीदास से उत्तेजना प्राप्त करने के उपरान्त ही की है। स्वयं केशवदास ने भी रामचन्द्रिका की रचना वाल्मीकि मुनि के उपदेश के अनुसार किया जाना लिखा है। केशव और तुलसीदास ने राम के जीवन को ही कथावस्तु माना है.। दोनों की भक्ति-भावना भी सगुणोपासक की हैः लेकिन यह उपयक्तः वर्णन से ही स्पष्ट हे कि केशव ने आत्मप्रेरणा पाकर इस ग्रंथ की रचना नहीं की। उन्होंने तो विद्वत्ता प्रकट करने के लिये ही महाकाव्य की रचना की, तुलसीदास के समान 'स्वान्त: सुखाय' नहीं । जब तक कवि आत्मविभोर होकर अपनी कृति में तल््लीन नहीं होता, उस समय तक उसकी रचना में वह सप्राणता नहीं था पाती, जो कि महाकवियों में सहज ही में दृष्टिगोचर होती है । एक ओर तुलसीदास हैं, जो राम के अनेक भक्त हैं. "जानकी जीवन को जन हे जरि जाय सो जी हें जो जाँचत ओऔरहि' तो केशव केवल रामचन्द्रिका में ही 'रामचन्द्र को इष्ट' कहते हैं अन्यथा अपने अन्य ग्रन्थ 'कविप्रिया' तथा 'रसिक प्रिया' में वे कृष्ण सम्बन्धी रचना करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी स््मातं वेष्णब थे जो राम के अनन्य भक्त होने के साथ-साथ अन्य देवी देवताओं के प्रत्ति श्रद्धा रखते थे । उनका भक्त हृदय किसी भी देवरूप के प्रति अश्रद्धा की भावना नहीं रख सकता . था । फेशबदास ने यद्यपि राम तथा कृष्ण सम्बन्धी काव्य रचना की हे लेकिन वहाँ उनकी भक्ति-भावना विद्यमान नहीं हे केशव ने कृष्ण को इतना रसिक बना दिया है कि वे देवत्व के पद को छोड़कर साधारण बिलासी के रूप में ही समाज में विचरण करते हें । जो कृष्ण गीता में यह उपदेश करते हैं । कि 'ममवर्त्माजुवतेन्ते मनुप्याः पार्थ सर्वशः? । वही कृष्ण वृषभानु चुलसी ससी, उड़ग़न केशवदास २३७ के घर में आग लग जाने पर, जब सब व्यक्ति आग चुभाने में अत्यन्त व्यग्म हैं, उसी समय एकान्न्त में कृष्ण को राधिका मिल जाती हैं और चह-- ऐसे में कुँवर कानद सारी-सुक बराहिर कै, राधिका जगाई और युवती जगाइ के। लोचन विशाल चारु चित्रुक कपोल चूमि, चंपे की सी माला लाल लीन्द्ीीं उर लाय के ॥ कोई भी भक्त कवि अपने आरध्य देव का इतना अभद्र चित्र अंकित नहीं कर सकता। तुलसीदास ने काव्य-रचना अपनी भक्ति-सावना प्रकट करने के लिये ही की है। काव्य के माध्यम के द्वारा कबि पआराध्य देव की उपासना ही करना चाहता है | तुलसी ने स्वयं लिखा भी है “कवि न होई नहीं चतुर कहाऊँ । प्रेम समगन होइ राम जस गाऊँ।” तुलसी ने जहाँ-जहाँ भी वेयक्तिक वर्णन किया है वहां अपने को अति तुच्छ ही समझा है, लेकिन अपने बुद्धि बल पर विश्वास करने वाले केशव को यह प्रिय न था वे अपने पंथ “कविश्रिया' की अशंसा में स्वयं लिखते ६-- रब वि ने संलीवमि- जा फ्रविप्रिया है कविप्रिया कवि संजीवनि ज्ञाप्ि !! जिस समय तुलसीदास से काव्य-रचना प्रारम्म की इस समय हिन्दी में न तो काव्य-सापा ही निधारित की गइ थी। ओर न शेली ही निश्चित हुई थी। तुलसीदास प्रेमाब्यानक काव्य-कत्ता सूफी कवि आ्ामीण अबधी ओर चोपाइयों की रचना कर चुके थ। कघीर भी सधुक्कड़ी' भाषा में पदों की रचना करके “हिन्दू आओ को राह वता चुके थे। लेकिन जहाँ तक भाषा और शल्ा स््र लक मम श री $) ,६५/+ ॥[ हि कह ट् फ्य् | हि श! २३८ रामचन्द्रिका प्रश्न है वह अनिश्चित ही रहा। सूरदास ने अवश्य त्रज़भाषा की कोमलकान्त पदावलि में पदों की रचना द्वारा कृष्ण के साधुये की व्यंजना की, किन्तु जीवन की कठोर परिस्थितियों की ककेश व्यंज़ना त्रज॒ की मिठासभरी 'ोली' में होना सम्भव न - था । तुलसीदास ने भाषा एवं शैली दोनों की दृष्टि से अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का सफल परिचय दिया। अवधी भाषा में उन्होंने रामचरितमानस, बरवे रामायण, दोहावली आदि की रचना को तथा ह्रजभाषा में: गीतावली, विनयपत्रिका, कवितावल्ी आदि की रचना की । ब्रज तथा अवधी दोनों भाषाओं पर तुलसी का समान अधिकार था। भाषा का इतना उत्कृष्ट एवं परिष्कृत रूप तुलसी ने रखा जो उनके महान बोद्धिक विकास के कारण ही हो सका । भापा की भांति तुलसीदास ने उस समय प्रचलित समस्त शैलियों में काई्य की रचना को। उस समय प्रधानतः निम्नलिखित शेलियाँ प्रचलित थीं । १--बवीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति।._ २--विद्यापत्ति तथा जयदेव की गीत पद्धति । ३--भाट एवं चारणों की कवित्त एवं सवेया पद्धति । ४--नीति ग्रंथकारों की दोह। पद्धति । ४--प्रेमाख्यानकारों की दोहे-चोपाई की पद्धति । तुलसीदास ने उक्त पाँचों शैलियों में काव्य की सफल रचना की है | लेकिन जब हम भापा ओर शैज्ञी की दृष्टि से केशव का श्रध्ययन करते हैं तो विदित होता है कि केशव ने केवल ब्रजभाषा ही में रचना की हे। अवधी भाषा के ऊपर उनका अधिकार न था। यही नहीं, उनकी ब्रजभाषा में संस्कृत की तत्सम क्लिप्ट पदावलियों के प्रयोग से वह माघुर्य नहीं है जो कथितावली और गीतावली की भाषा में है। तुलसीदास ने सरल तुलसी ससी, उड़गन फेशवदास २३६ से सरल रीति में अपनी भक्ति के उद॒गार प्रकट किये हैं, क्योंकि जिस इश्वर के चिन्तन में उन्होंने काव्य-रचना की। उसके समक्त निशछुल रूप में, बिना किसी बनावट के ही उपस्थित हो सकते हूँ, इसके विपरीत राजदरवारों में रहकर केशव अपने आश्रयदाताओं की अभिलापा की पूर्ति में ही काव्य-रचना करते थे ओर अपनी चमत्कृत उक्तियों के द्वारा सभासदों से साधुवाद लेते थे। ठुलसी के सिद्धान्त “कीन्हें प्राकृत जनगुन गाना । शिर धनि गिरा लागि पछताना विपरीत द्वी केशव ने तत्कालीन राजाओं - के यशोगान में भी काव्य की रचना की है। प्रवन्ध-करपना चिर परम्परा से चली आती हुई राम की कथा को तुलसी दास तथा केशवदास ने अपने काव्य का विपय बनाया | साधारण कथानक में श्रेष्ठ कवि अपने प्रतिभा-चल से ऐसे मनोरम स्थलों का समावेश कर देगा है, जिससे वह कथानक न केवल एक इतिउृत्त होता है अपितु जीवन की विधिध दशाओं ओर सानव-धर्स की विविध क्रियाओं का उसमें सुन्दर दिग्दर्शन करा दिया जाता है। भक्त-कवि तुलसीदास ज्ञी राम के चरित्र को इतनी सुन्दरता के साथ आदर्शेरूप में अंकित करना चाहते थे, जिससे साधारण मर-नारी भी उनके चरण-चिद्दों पर चल कर अपने जीवन को सफल चना लें। तुलसीदास ने प्रारम्भ में गुरूवन्दना, संत-झसज्जन महिमा तथा रामावतार की कथा का इतनी पूरणता के साथ वर्णन किया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि तुलसीदास जी अपनी धारणा के अनुसार रामचरितमानस में रास के जीवन का व्यापक एवं संश्लिप्ट चित्र अंकित करना चाहते थे। राम के जन्म से लेकर उत्तरकांड २४० रासचन्द्रिका की घटनाओं तक का इतना सुन्दर समावेश किया गया है. जिससे पाठक राम के जीवन के क्रमिक विकास का ज्ञान करता हुआ, तथा रस की पूर्ण अनुभूति करता हुआ कथा में तल्लीन हो जाता है।कथा के मनोरम स्थलों को चुन चुनकर उनका अआनुपातिक विकास करने की क्षमता महाकवि का प्रथम लक्षण है | काव्य में रमणीयता का समावेश करने का भी यह साधन है । रासजन्म के अवसर पर ही तुलसीदास ने यह प्रकट कर दिया है कि रामचन्द्र पर्ण परत्रह्म हैं ओर प्रथ्बी के संकटों का वश्य हरण करेंगे। माता कौशल्या को राम ने अपने इश्वरत्व के दर्शन कराये हैं । फिर-- माता पुनि बोलां, सो मति डोली, त्तनहु त्तात यह रूपा | कीजे शिशु लीला, अति प्रिय शीला, यह सुख. परम अनूपा | रामचरितसानस में राम की कथा का प्रवाह ऐसा किया गया है कि पाठक एक ज्षण को भी ऐसे प्रसंगों को नहीं देखता जहाँ कि उसे कथासूत्र द्ृटा हुआ दिखलाई दे ) भक्त-छदय तुलसीदास ने उन स्थलों का सम्यक वर्णन किया है जो राम कथा के महत्वपूर्ण अंग हूँ | उन स्थानों पर मुख्य कथा के साथ-साथ तुलसीदास ने लोकनीति, घर्मनीति तथा राजनीति एवं व्यावह्यारिकता का ऐसा सिश्रण किया है कि वे स्थल विशेष द्दयआही, सजीब एवं उपयोगी हो गये हैं। जीवन के व्यापक हृष्रिकोण का लेकर रामचरितमानस की रचना की गठ है; काई भी परिस्थिति ऐसी नहीं है, जिसका उल्लेख शाम कथा में न मिले। बालकांड की कथा में रामजन्म से लेकर रामसीता विवाहोपरान्त की घटनाये हैं ओर इस प्रकार गाजा दशरथ और अवधपुरबासियां के सम्ध की उत्तरोत्तर ब्रद्धि होती गई है, लेकिन अयोध्याकांड में उनके सुख की वह भावना हा तुलसी ससी, उड़ुगन फेशवदास र४१ सहाशोक में परिवर्तित होती चली गई है। घटनाओं का ऐसा वज्यवधान किया गया है, जो स्वयंभेव एक के वाद एक आती हुई ज्ञात होती हैँ । राजा दशरथ रामचन्द्र को युवराज पद प्रदान करना चाहते हूँ | केकयी आदि समस्त रानियों को प्रसन्नता हो रही है, लेकिन नेहर से साथ आई हुई मन्थरा द्रोह वश केकयी को आसन्न-संकट (फा संकेत कराती है। तुलसीदास ने इस प्रसंग को भी रखा है कि देवताओं ले फेकयी की मति ऐसी कर दी थी जिससे वह अपने चग्दानों को माँगने में स्थिर चित्त हो जावे अन्यथा देवताओं का काये पूरा न हो सकेगा। दशरथ की अवस्था का चित्रण तुलसीदास की कोसल लेखनी ने बड़ी कुशलता के साथ किया है। इस प्रकार के प्रसंगों से दशरथ तथा केकयी के चरित्रों का विकास हुआ है और राम के वनवास का कारण होने पर भी कैकयी क्ररकर्मा नहीं प्रतीत होती। केशवदास ने न तो वरदान का प्रसंग रखा और न मंथरा की कल्पना । चस-- “यह बात भरत्थ को मातु सुनी | पठहूँ बन रामई चुद्धि शुनी ॥” ओर :--- “विभिन्न भारत राम विराजहीं ।॥! इन तीन पंक्तियों में केशव ने राम के वनगमन की कथा का बरणंन कर दिया है। इससे केकयी के चरित्र की विकृति तो हुई ही है, दशरथ के हृदय की संर्सान्तक चेदना और राम वनगमन करते समय अवधपुरवासियों को जो सन्ताप हो रहा है और स्वयं रामचन्द्र के हृदय में उस समय जो भावनाएँ कार्य कर रही हूँ वह प्रकट नहीं हो सकी। इस पकार “प्राण जाय चद १६ रछर रासचन्द्रिका बचन न जाहीं” जो रघुवंशियों का स्वभाव सा है, वह केशव ने अंकित ही नहीं किया।.. ; भरत ननिहाल से आने पर श्रीविहीन अथोध्या को देखते हं। कैकयी के अतिरिक्त और कोई असन्न नहीं हे । उस समय माता के मुख से राम वनगमन तथा दशरथ-मरण का दुखद समाचार सुनकर भरत को जो भीपण आत्म-ग्लानि हुई, वह स्वाभाविक ही हे। भरत की अनुपस्थिति में उसकी माता ने अपने पुत्र को राज्य ओर रास को चौदह वर्ष का बनवास माँगा । जनता में इस प्रकार का प्रवाद फेल गया कि इस कुमन्त्रणा में भरत का हाथ अवश्य होगा। स्वयं भरत इस बात को समझे गये थे कि चाहे वे कितने ही निरपराध क्यों न हों लेकिन, संसार दोपारोपण किये बिना न मानेगा। क्षुब्ध होकर भरत वपनी माँ से कहते हूँ कि प्रभु की कृपा से दशरथ जेसे मुझे पिता मिले जिन्होंने पुत्र-वियोग में प्राण देकर अपनी प्रीति की रक्ा की ओर जन-मनरंजक तथा आज्ञाकारी राम लक्ष्मण से भाई मिले, लेकिन ईश्वर ने तुम जेसी माता भी दी जिसने न केवल राज परिवार पर किन्तु समस्त अयोध्या नगरी पर भीपण विपत्ति की चर्षा करायी । “इंस-वंस में जन्म मम, राम लखन से भाइ। जननी तू जननी भई, विधि से कद्दा बसाइ |” कौशिल्या के पेरों पर गिरकर भरत इस बात का विश्वास दिलाते हैँ कि इस कुमन्त्रणा में मेरा कोई हाथ नहीं हे । विशाल- हृदया माता कोशिल्या भरत को सममाती हैं लेकिन फिर भी भरत का छूद॒य थेये| नहां घारण करता। भरत राम को लौटा लाने के लिये पुर्वासी तथा माताओं सहित पंचवटी को जातेः दूं, मार्ग की अन्य मर्मस्पर्शिनी घटनाओं को व्यंजित करते ठुलसी ससी, उड़ुगन केशवदास २४३ हुए तुलसीदास ने राम और भरत का जो वार्तालाप कराया है वह लोकनीति, राजनीति तथा धर्मनीति का उत्कृष्ट नमूना है । भरत लौटने के लिये राम से कहते हैँ । लेकिन कथा का भर्मस्पर्शी स्थल उस समय उपस्थित होता है। जब राम भरत पर ही इस निर्णय के भार को छोड़ देते हैं। राम जानते हैं. कि धर्मधुरीण भरत लोकमयांदा के प्रतिकूल विचार प्रकट नहीं कर सकता। केशवदास ने इस असंग को भी अत्यन्त सूच््मता से वर्शित किया है और गड्ए से उपदेश कराकर वे भरत को अयोध्या लौट आने का आदेश करा देते हैं । केशवदास चमत्कारवादी थे इसलिये उन्हीं प्रसंगों की उन्होंने अवत्तारणा की है जहाँ वे . वाग्बैदश्ध्य प्रदर्शित कर सकते थे | करुण स्थलों में केशव की प्रवृत्ति को आकर्षण न था, यही कारण है कि रामायण कीं करुण से करुण घटनाएँ केशव के हृदय को द्रवीभूत न कर सकी, लेकिन जिल असल्जों पर केशव उक्ति-वेचित््य दिखला सकते थे, वहाँ के असज्ञः साधारण होने पर भी उनका वर्णन विस्तार- 22304 अं लक प्रवन्धकार अपनी कृति से पाठक को भी उसी भावना से अभिभूत करा देता है, जिससे प्रेरित होकर .कि उसने रचना की है। केशवदास के कारुशिक स्थल पाठक के हृदय में करुणा की भावना का उद्रेक नहीं करा पाते। यही नहीं, घटना-परिवतेन इतनी शीघ्रता से 'रामचन्द्रिका' में कराया गया है कि पाठक एक असझ्ञ में रस ही नहीं पाता कि दूसरा प्रसंग आ जाता हट! तुलसीदास ने अवधी भाषा में तथा दोहे चौपाई की पद्धति पर रचना की | दोहा, चौपाई अवधी "भाषा के प्रिय छन्द हैं ओर उत्तके प्रयोग की सफलता का प्रदर्शन भेमाख्यानक कवि कर २४७ रासचन्द्रिका चुके थे । अवधेश जिनके चरित्र का गुणगान तुलसी को करना था वे भी अबध के निवासी थे इसलिये अवधी को तुलसी ने काउय-भाषा बनाया, जिस प्रकार कृष्ण कवि त्रजभाषा में ऋष्ण का चरित्र अंकित कर रहे थे। प्रबन्ध काव्य के लिये जिस छन्द का प्रयोग तुलसी ने किया, वह सर्वथा समीचीन हे, क्योंकि एक छुन्द को लेकर एक कांड की रचना करना ही प्रबन्ध काव्य के लिये नियमानुकूल है, तथा रसोद्रेक की दृष्टि से भी आवश्यक है । केशवदास के जल्दी-जल्दी बदलते हुए छन्द रसानुभूति सें बाधा पहुँचाते हैं । अलंकार कविता-कामिनी के सोन्दय की अभिवृद्धि के लिये अलंकार योजना ठीक ही है। लेकिन काव्य की रमणीयता का वृद्धि के लिये अलंकार साथन हैँ, साध्य नहीं । अलंकारों का यदि अत्यधिक प्रयोग किया जावेगा अथवा अलंकारों का समावेश करने के लिये ही यदि रचना की जावेगी तो कविता रूपी-वनिता अलंकारों के भार से दव जायगी। तुलसीदास भक्त कवि थे। यदि उन्हें कुछ प्रिय था तो राम-गुण वर्णन | काव्य रचना भी किसी को प्रसन्न करने या साथुवाद लेने की इच्छा से न करके अपनी आत्मा के परितोप के लिये ही की हे । अतः उनकी रचना में सरलता, स्वाभाविकता, स्वच्छन्द्रता तथा आकर्षण है। विविध अलंकारों का सहसा दर्शन हमें तुलसीदास की ऋृतियों में दाता है, लेकिन कहीं भी एसा प्रतीत नहीं होता कि इन अलंकारों को समाविष्ट करने में तुलर्सी कों कोइ प्रयत्न करना पढ़ा हो । अलंकार यदि साधन से साध्य बना द्विये जायें और रूपक, उत्प्रेज्ञा, अपदृतिं, निदर्शना आदि एक के पश्चात् दूसरे अलंकार तुलसी ससी, उड़गन केशवदास स्ष््श का प्रयोग यदि प्रबन्ध काव्य में कर दिया जावेगा तो इस बुद्धि व्यायाम से पाठक शीघ्र दी ऊबने लगेगा और उसे न तो कथा प्रसंग की अनुभूति होगी और न वह रसास्वादन ही कर सकेगा। केशव ने जिस परम्परा का प्रचलन किया उसमें हि न विराजहीं, कविता वनिता सित्र' ही उनका मूल सिद्धान है। बस कविता अलंकारों के लिये ही की जाने लगी। राज- परिवार में रहने के कारण केशव की रुचि बनावं, झद्भार की ओर थी तथा कविता भी आश्रय प्रदान करने वालों के मन- वहलाव के लिये की जाती थी अतः उसमें आत्म-परितोप के स्थान पर अन्य परितोप की ही भावना थी। केशवदास अपनी चमस्कृत उक्तियों से औरों को प्रसन्न करना चाहते थे । यही कारण हे कि उनकी रामचन्द्रिका अलंकार-मंजूपा बनी | काव्य की आत्मा रस! है। कोई भी प्रसंग ऐसा न आना चाहिये जिससे रसानुभूति में वाधा पहुँचे। अलंकार तो क्राव्य के बाह्म-रूप हैँ || यदि अलंकारों का द्वी निरूपण किया जायेगा तो यह काव्य निष्प्राण होगा, हृदय वहाँ न होगा । जहाँ तक अलंकार ज्ञान का प्रश्न है वहाँ तक“हम यह कह सकते हैँ कि तुलसी अलंकार शास्त्र के पंडित थे। संस्कृत के प्रकांड विद्वानू तथा 'नाना पुराण निगमागस फा उन्होंने अध्ययन किया था। संस्कृत में भी तुलसी ने रचना की है, लेकिन अपने इस ज्ञान वाहुल्य को तुलसी ने रचना में बलपूर्तक प्रदर्शित करने की चेष्टा नहीं की। जहाँ जेसा प्रसद्ध आया वहाँ अत्यन्त सन्तुलित रूप से अत्येक वस्तु रखी गई है। इसके विपरीत केशवदास ने प्रतिकूल स्थलों पर भी निरन्तर अलंकारों फा प्रयोग किया है जिससे स्वाभाविक सरसता का प्रस्फुटन नहीं सका | ; ल््रैँँ ०८ लकी रामचन्द्रिका रस साहित्य दर्पणकार ने प्रवन्ध-काव्य में झआज्वार, बीर और शान्त रस का प्राधान्य होना आवश्यक बतलाया है। इसी सिद्धान्त के अनुसार महाकाव्यकारों ने इन्हीं ४ रसों की प्रमुखता काव्यों में रक्खी | अन्य रसों का समावेश गौणरूप से ही हुआ हे। तुलसीदास ने इसी व्यापक सिद्धान्त का पालन रामचरित मानस में किया है। तुलसीदास ने प्रत्येक शब्द् का अयोग बहुत सोच-विचार करके किया है। भापा के ऊपर गोस्वासी जी का अपरिमित अधिकार था। रस ओर परिस्थिति के अनुरूप भाषा का प्रयोग स्वेत्र किया गया है.। 'रामचरित मानस! में करुणरस का पूर्ण परिपाक हुआ है। तुलसीदास ने रामचरित के करुण स्थलों के ऊपर विशेष दृष्टि रक्खी है। राम- चनगमन, दशरथ मरण, सीताहरण, लक्ष्मण के शक्ति का लगना आादि रामायण के करुण स्थल हैँ । जिन महालुभावों ने रामचरित मानस का रवय॑ अध्ययन किया है, उन्हें विदित कि इन स्थलों पर शोक एवं विपाद की भावनाओं का ऐसा उद्रक हुआ है कि पाठक का हृदय द्रवीभूत हुए बिना नहीं रहता | राम के वनगमन का दुःख राजपरिवार को ही नहीं हे, प्रत्युत सभी अयोध्यावासियों और पशु-पत्षियों तक को है राम- चनगमन का शोक “रामचरित मानस” में सर्वभूतात्मक हे। हन परिम्थित्यिं में तुलसी ने धर्म और कर्तव्य की महान भूमियों का सम्यक विवेचन किया है | गोस्वामी जी ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा से इन प्रसत्नों में ज्ञान, धर्मे, दर्शन एवं नीति का सांगोपांग विवेचन किया है| फेशबदास की प्रवृत्ति पांडित्य प्रदर्शन की ओर थी | इन करुण स्थलों पर चमत्कार प्रदर्शन के लिये स्थल नहीं था इसीलिए इन कारुणिक स्थलों को केशव ने 'अल्परूप में तुलसी ससी, उडुगन केशवदास श्ष्ट अ्कट कियां है और उनमें भी केशव की प्रवृत्ति चमस्कार-प्रदर्शन फी ओर ही रही इसलिये करुण रस का पर्ण परिपाक केशव की रचना में नहीं हुआ है । वसल्थ रद्धित मन्दोदरी के संकट की आर कवि का ध्यान नहीं जाता ओर चह उसके अंग-प्रत्यक्ञ के आद्भरिक वर्णन में प्रवृत्त हो जाता है। इस प्रकार करुण रस के अंकन में केशव की रुचि न थी । रीतिकालीन कवियों ने खूट्डार को रसराज कहा है।इस परम्परा के प्रवर्तंक तथा प्रथम आचार्य केशब थे। कविप्रिया तथा रसिकमप्रिया में तो झूंगारिक रचनाएँ ही हैँ और वहाँ ख्न्नार का आदर्श भी अत्यन्त नीचा है । ' आज यातों हंति खेल बोलि चालि लेहु लाल, कालि एक बाल ल्यार्ऊँ काम की कुमारी ठी । रामचन्द्रिका में भी केशव ने रज्ञारिक चर्णनों की प्रधानता रक़्खो है | सीता के सौंदर्य , उसकी सखियों का नख-शिख चणुन ओर भन्दोदरी का रूप वर्णन किया है। शंगारिक वर्णन में केशव ने इस ओऔचित्य पर ध्यान नहीं दिया कि गुणी जनों के सौंदर्य का पे श्रद्धालु को करना चाहिये अथवा नहीं। सीता जी भी रीतिकालीन सायिका के समान भ्र-विक्तेपष करती हूँं। चंचल चार हृर्गंचल” से राम के हृदय को प्रसन्न करती हैँ । रामचरित भानस में दो स्थलों पर गोरचासी जी शद्वार रस का समावेश कर सकते थे (१) महादेव-पार्वती विचाह में पावेती का। (२) पुष्पवाटिका सें सीता जी फा। लेकिन इन दोनों स्थलों पर मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखने वाले तुलसीदास श्ंगार को बचा गये डँ। पावती के लिये तुलसीदास कहते हँ-- जगत मातु पितु शंभु भवानी । तेदि आऋक्वार न कहीं बखानी।ा श्ध्र्प रामचन्द्रिका सीता के सौन्दर्य को तुलसीदास जी सृष्टि में अद्वितीय बतलाते हैं । इस शैत्ती के प्रयोग से झंगारिक भावनाओं को तुलसी ने प्रकट नहीं किया है । अपने गुरुजनों का खंगारिकः धर्णन उचित भी तो नहीं है। रामचरित मानस में जहाँभी खंगार का वर्णन आया है वहाँ मर्यादा का पालन किया गया है, उच्छद्धलता कहीं भी नहीं आने पायी है । राम असाधारण चीर हूँ। उन्होंने अपले प्रवल पराक्रम से वालि को मारा तथा रावण का सकुल नाश किया। राम में हम दानवीर, दयावीर, धर्मवीर तथा युद्धवीर के समस्त गुणों को देखते हैँ | बीर रस का वर्णन लंकाकांड में प्रधान है वहाँ . ओज गुण प्रधान वाक््यों का प्रयोग किया गया है। चीरगाथा काल की छप्पय पद्धति में युद्ध की भयंकरता वर्शित है। केशव ने वीर रस के स्थलों को अच्छाई से निभाया है। लबकुश युद्ध, राम-रावण युद्ध में चीर रस का पूर्ण परिपाक हुआ है केशव की ओजपूर्ण भाषा वीर रस के लिये बहुत उपयुक्त प्रमाणित छाप भरी बट ० :१* तुलसीदास जी ने कथा की क्रमबद्धता पर ध्यान रख कर रसों के अनुरूप शब्दावली का प्रयोग किया है | उसी कवि की रचना सफल है जो पाठकों के हृदय में भी उस भावना की अनुभूति करा दे जिससे प्रेरित होकर उसने रचना की है| इस शुगा की प्रधानता हमें क्रेशव की अपेक्षा तुलसी में छधिक दृष्टि- गाचर दोती है । प्रकृति वणन संम्झत के आदि कवि वाल्मीकि ने शरद, वर्षा आदि तुंतढसी ससी, उड़गन फेंशवदास ऋतुओं का स्वतन्त्र वर्णन किया है लेकिन रोमंचरित काज्यकारों ने वाल्मीकि की कथा को आधार मान लेने पर भी प्रकृति के चित्रण सें उस सनोव॒त्ति का परिचय नहीं दिया। हिन्दी के कवियों ने प्रकृति को उद्दीपन के रूप ही में लिया। आलंबन के सोन्दर्य के उत्कृष्ट वर्णन में करोड़ों कामदेव न्यौंद्धाचर किये जाने लगे । 'कंज सकोच दहे जल वीचहि (? प्रबन्ध काव्य के कथानक की क्रमबद्धता चनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि उसमें कोई अन्य प्रसंग ऐसा न आ जाना चाहिये जिसका कि ऐसा प्राधान्य हो जावे जिससे मुख्य-कथा दव जाय । प्रकृति का स्वतन्त्य वर्णन यदि वह 'अति बिस््तार से किया जावे तो कथा की क्रमबद्धता में आधात पहुँचा सकता है। तुलसीदास जी ने वस्तु-परिगणन शैली पर ही प्रकृति का वर्णन किया है| प्रकृति को कवि सानव सापेद्य मानता है । भकृति में घटित होने चाली भिन्न-भिन्न घटनाओं से गोस्वासी जी ने अपनी प्रत्तिभा बल से मनुप्य के स्वभाव व परिस्थितियों का तादात्म्य प्रकट किया है। प्रकृति-चर्णन रामचरित मानस में है अवश्य लेकिन वह गोण रूप से ही है । एक त्तो उस समय में प्रकृति के स्वच्छन्द वर्णन की परिपाटी ही न थी दूसरी प्रवन्ध-रचना पढु तुलसी को यह भय था कि यदि प्रकृति चर्णंत को प्राधान्य दिया जावेगा तो कथावस्तु का सूत्र ढीला पड़ जायगा। इसीलिये उन्होंने प्रकृति का संश्लिप्ठ चित्रण नहीं किया है। केशवदास जी ने कुछ स्थलों पर प्रकृति का अच्छा वर्णन किया है लेकिन उनकी अनूठी उक्तियों के साथ कहीं-कहीं घुझेत्पादक उक्तियों का समावेश हो गया है जिससे पाठक का मन छुब्ध हो जाता है और वह सुन्दर उक्ति का भी आनन्द नहीं ले पाता। सूर्य को कापालिक का रक्त भरा खप्पर कहना घृणोत्पयादक ही है। वर्षा केशव को कालिका के रूप के समान लगती हे । २४० रामचन्द्रिका कालिका कि वरखा हरखि हिय आई है| कमल ओर चन्द्र भी केशव के लिये निरथक हैं । देखे मुख भावे अनेदेखेहि कमल चन्द, तासे मुख मुखे कमलो न चन्द री।” तुलसीदास जी ने स्थल की उपयुक्तता को ध्यान में रखकर प्रकृति के पदार्था का वर्णन किया है। केशवदास ने विश्वामित्र के तपोवन वर्णन में 'एला ललित लवंग' के बृक्ष लगा दिये हैं जो वहां नहीं उगते | नदियों का वर्णन भी केशव ने किया लेकिन विरोधाभास की ही योजना वहाँ की गई है | विपमय यह गोदावरी, अ्रम्गतन वे फल देत | केशव जीवनहार वे हुख अशेप हर लेत ॥ नियमानुसार केशव ने प्रकृति के पदार्था का वर्णन तो किया है, लेकिन आलंकारिक योजना के कारण तथा भौगोलिक त्रटियों के कारण उन बणनों में सजीवता नहीं आने पाई है । तुलसीदास जी ने भी प्रकृति के श्रति विशेष रुचि नहीं दिखलाई । प्रवन्ध काव्य में प्रकृति बणन के लिये उतना उपयुक्त स्थल ही नहीं है। मुक्तक काव्य में प्रकृति के संश्ल्िप्ठ चित्र खींचना समीचीन हे | सम्बराद यद्यपि कथोपकथन का महत्व नाटकों में ही है, लेकिन यदि उपयुक्त स्थानों पर उनका समावेश प्रचन्ध काव्य में, भी किया जाये तो चरित्र-नित्रगां में अ्रच्छी सहायता मिलती हे। रचना- कार अपनी ओर से बणनात्मक श्री में चाहे जितना कह्ठे लेकिन पात्र के चरित्र का विकास उतना नहीं होता जितना कि पारस्परिक कथापक्थन से। भरत राम-बनगमन की घटना में अपने को तुलसी ससी, उडुगन केशवदास २४५९ “निरपराघ सिद्ध करने के लिये वार-वार शपथ करते हूँ कि यदि इस अशिय घटना का ज्ञान मुझे हो तो-- लोभी लम्पट लोल लबचारा | जे ताकि परघन परदारा ॥ पाऊँ में तिनकी गति घोरा | जो जननी यद्द सम्मत मोराव लेकिन जब माता कोशिल्या यह कहती हैं. कि हे पुत्र | तुम बान्धच प्रेम के अग्रणी हो और ऐसी निद्य घटनाओं में तुम सहयोग नहीं दे सकते, तो भरत का चारित्रिक विकास पृर्णता से होता है। सानव स्वभाव ही ऐसा है कि जब हस किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा वर्णन सुनते हैँ, उसी समय हमारे हृदय पर उसका प्रभाव पड़ता है। रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने मुख्यतः चार सम्वाद रक्खे हैं | लक्ष्मण-परशुराम संवाद, दशरथ-कैकयी संवाद, राम आर भरत सम्बाद तथा अंगद और रावण सम्बाद। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे सम्बाद तो कथा-प्रसंग में कितने ही स्थलों पर आये हैं, जेसे भरत और निपादराज सम्धाद, रावण 'विभीपण. सम्वाद, राम-वालि सम्वाद आदि । उपर्युक्त चार सम्बादों ने रामचरित मानस को एक लोक पथप्रदशक तथा फेल्याणकारी भ्ंथ बना दिया है। इन स्थलों में तुलसी ने -सबंतोमुखी प्रतिभा से जीवन की विविध परिस्थितियों का विशेष विवेचन किया है तथा दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रतिपादित करते हुए लोकतीति, घर्मनीति तथा राजनीति की संस्थापना की - है। धर्महीकी ऊँची-नीची जितनी भूमि हो सकती है उन सबका प्रदर्शन करते हुए तुलसीदास ने अपने प्रतिभा-चल से उस मार्ग का उद्घाटन किया है जिसका शील तथा सर्यांदावान व्यक्ति को अनुसरण फरना चाहिये। लक्ष्मण-परशुराम संवाद तथा अंगद-रावण स्वाद में आपस में चुभने वाली बातों फा वर्णन 4४० रामचन्द्रिका कालिका कि वरखा हरखि हिय आई है ।” कमल और चन्द्र भी केशव के लिये निरथक हैं । देखे मुख भावे अनेदेखेहि कमल चन्द, तासे मुख मुखें कमलो न चन्द री। तुलसीदास जी ने स्थल की उपयुक्तता को ध्यान में रखकर अ्रकृति के पदार्थों का बणन किया है। केशवदास ने विश्वामित्र के तपोवन वर्णन में 'एला ललित लवंग' के वृक्ष लगा दिये हैं. जो वहाँ नहीं उगते । नदियों का वर्शन भी केशव ने किया लेकिन विरोधाभास की ही योजना वहाँ की गई है | विषमय यद्द गोदावरी, अम्तन वे फल देत | केशव जीवनहार वे दुख अशेष इर लेत ॥ नियमानुसार केशव ने प्रकृति के पदार्था का वर्णन तो किया है, लेकिन आलंकारिक योजना के कारण तथा भौगोलिक शत्रुटियों के कारण उन बणनों में सजीवता नहीं आने पाई है । तुलसीदास जी ने भी प्रकृति के प्रति विशेष रुचि नहीं दिखलाई । प्रवन्ध काव्य में प्रकरति चर्णेन के लिये उतना उपयुक्त स्थल्न ही नहीं हे। मुक्तक काव्य में प्रकृति के संश्लिष्ट चित्र खींचना समीचीन है । सम्बाद यद्यपि कथोपकथन का महत्व नाटकों में ही हे, लेकिन यदि उपयुक्त स्थानों पर उनका समावेश प्रवन्ध काव्य है भी किया जावे तो चरित्र-चित्रणों में अच्छी सहायता मिलती हे। रचना- कार अपनी ओर से वर्णुनात्मक शैली में चाहे जितना कद्टे लेकिन पात्र के चरित्र का विकास उतना नहीं होता जितना कि पारस्परिक ऋथोपकथन से। भरत राम-बनगमन की घटना में अपने को तुलसी ससी, उडुगन केशवदास २५९ पनिरपराध सिद्ध करने के लिये वार-वार शपथ फरते दूँ कि यदि इस अग्निय घठना का ज्षान मुझे हो तो-- लोभी लम्पट लोल लबारा | जे ताकि परधघन परदारा ॥ पाऊँ में तिनकी गति घोरा | जो जननी यद सम्मत मोरा ॥ लेकिन जब माता कौशिल्या यह कहती हैं कि द्वे पुत्र ! तुम बान्धव प्रेम के अग्रणी हो और ऐसी निद्य घटनाओं में तुम सहयोग नहीं दे सकते, तो भरत का चारित्रिक विकास पूर्णता से होता है। मानव स्वभाव ही ऐसा है कि जब हम फ़िसी व्यक्ति के सम्बन्ध में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा वर्णन सुनते हूं, उसी समय हमारे हृदय पर उसका प्रभाव पड़ता है । रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने मुख्यतः चार सम्बाद रक्खे हैं | लच्मण-परशुराम संवाद, दशरथ-कैकयी संचाद, रास ओर भरत सस्वाद तथा अंगद और राबण सम्बाद। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे सम्बाद तो कथा-असंग में कितने ही स्थलों पर आये हूँ, जैसे भरत और निपादराज सम्बाद, रावण विभीषण सम्वाद, राम-बालि सम्बाद आदि । उपर्युक्त चार सम्बादों ने रामचरित मानस को एक लोक पथ्प्रदर्शक तथा कल्याणकारी ग्रंथ बना दिया है। इन स्थलों में तुलसी ने सर्वतोमुखी प्रतिभा से जीवन की विविध परिस्थितियों का विशेष विवेचन किया है. तथा दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रतिपादित फरते हुए लोकनीति, धर्मनीति तथा राजनीति की संस्थापना की दे। धमहकी ऊँची-नीची जितनी भूमि हो सकती है उन सबका प्रदर्शन करते हुए तुलसीदास ने अपने प्रतिभा-वचल से उस मार्म का उद्घाटन किया है जिसका शील तथा मर्यांदावान व्यक्ति को अनुसरण करना चाहिये। लक्ष्मण-परशुराम संवाद तथा अंगद-रावश् सम्बाद में आपस में चुमने वाली बातों का वर्णन २४५२ रामचन्द्रिका करके तुलसी ने पात्रों में क्रोध का संचार कराया हे तथा दशरथ-कैकयी सम्बाद में करुण रस ही मूर्तिसमान बनकर आ गया हे । तुलसीदास जी राम के भक्त थे, उन्होंने पात्रों की शील तथा मर्यादा का सर्वत्र ध्यान रखा है, किन्तु जहाँ पात्र राम विरोधी हैं वहाँ कवि ने इस पर विचार नहीं किया | अंगद राजद्रबार में रावण को “हें तव दसन तोरिबे लायक' कहता है, यह उक्ति' दूत के मुख से कहलाना उचित नहीं है। केशवदास ने सम्वादों की योजना उन्हीं स्थलों पर की है जहाँ वे उत्ति-वैचित्र्य एवं चमत्कारपूर्ण वर्णन कर सकते थे। रामचन्द्रिका के संवादों में पात्र अधिक सजीवता एवं चंचलता लिये हुए हैं। केशवदास ने ज़िन जिन स्थलों पर सम्वाद रखे हैं वहाँ उन्हें निस्संदेह सफलता मिली है। भक्त-हृदय तुलसी के सम्वादों में हम शान्त रस की ही ग्रधानता पाते हैं। . * तुलसीदास एवं केशव के व्यक्तित्व की अमिट छाप उनके काव्यां में अन्तर्निहित है। गोस्वामी जी ने भक्ति-भावना के प्राकत्य के लिये कविता को माध्यम बनाया। वे भक्त पहिले हैं, कवि बाद में। भक्ति-भाव उनका ध्येय और साध्य है ओर कविता उसका साधन मात्र ही है। इसके विपरीत केशव- दास जी प्रधानतया कवि और पंडित थे ओर भक्त गोण रूप से । राजघरानों से संबंध होने के कारण उनके वर्णनों में ऐश्वय की मात्रा अधिक है। केशवदास जी की काव्य-रचना में कलापक्ष की ही प्रधानता है। हृदय पक्त गोण है। सूर और तुलसी ने जिस प्रकार अपने हृदय को खोलकर कविता में प्रकट किया है, जो भावुकता तथा तल््लीनता हम इन कवियों की रचना में प्राप्त करते हैं वह चमत्कारवादी केशव के काव्य में दिखिलाई तुलसी ससी, उडुगन केशवदास ब्ध्३ नहीं देती, केशव में न तो तुलसीदास जी के समान भावुकता है और न उनकी भाँति प्रकृति के अन्तर और वाह्म-चित्रण में ही सफल हुए हैं। तुलसी के भक्त-हृदय से भक्ति की जो पावन- धारा प्रवाहित हुईं उसने नगर और ग्राम की भारतीय जनता के हृदयों को समानरूप से घोषित किया है। रामचरितसानस का हिन्दू घरों में बही सम्मान एवं स्थान है जो पचीन धार्मिक अंथों।को है। केशवदास अपनी क्लिएता के कारण जनसाधारण के हृदय को आकर्पित न कर सके | उनके काव्य में हृदय पत्त की कमी है, कोमल भावना का अभाव है तथा जीवन से संबंध रखते वाली उन्त परिस्थितियों का समावेश नहीं है जो पाठक के हृदय को तल्लीन तथा रसमग्न करती है। केशव तथा तुलसी की सेद्धान्तिक पृथकता के कारण ही उनके रास-काव्य में अन्तर उपस्थित हुआ हे । तुलसी नर काव्य के पूर्ण विरोधी थे । कीन्हें प्राकतत जन गुन गाना | सिर धुनि गिरा लागि पछताना || उसके विपरीत केशव तास्कालिक राजाओं के अतिरंजित चर्णनों से ही अपने वेसव की बुद्धि कर रहे थे। वेश्याओं के सीन्दर्य से अभिभूत तथा आक्ृष्ट होकर फेशव उन्हें 'रमा' और 'वीणा-पुस्तक॑-घारिणी' के समान सममते हैं । केशवदास जी प्रतिसावान थे ओर उनकी कल्पना शक्ति भी अत्यन्त सीन्र थी। रस के अनुकूल भापा तथा छन्दों के अयोग में उन्होंने रस-ज्ञान का पारिडत्यपूर्ण परिचय दिया है। उनके काव्य सें कुछ ।वशिष्ट गुण ऐसे हूं, जो हमें हिन्दी के अन्य कवियों में दृष्टिगोचर नहीं होते । आलोचना सें भावुकता का समावेश हानिकर ही है । केवल सूच्म उक्ति द्वारा किसी व्यक्ति के ज्ञान, भावना तथा शुर्खो का २४५७ 'रामचन्द्रिका प्रदर्श होना असंभव ही है। संस्कृत की आलोचना संबंधी प्राचीन परिपाटी का अनुकरण हिन्दी में भी किया गया था। किसी कवि ने अनुआस के लोभ में आकर ही यह दोहा लिखा है :-- धसूर सूर् तुलसी शशी, उड्ुगन केशवदास [ .यदि इस पंक्ति में उल्लिखित ग्रत्येक कवि के बतलाये हुए गुण का आरोप हम उनकी रचनाओं पर करें तो हमें यह यक्ति यथार्थ प्रतीत न होगी | सहाकवि सूरदास को काव्य का सूर माना गया हे । सूर्य” की प्रखर रश्मियों से प्रकट होने वाली भीपण गर्मी असझ्य हो जाती है। इसके विपरीत कृष्ण के जीवन की साधुयपू्ण भावनाओं को लेकर त्रजभाषा की कोसल कान्त पदावलि में जिन पदों की रचना सूर ने की है वे हृदय को शीतलता तथा सान्त्वना अदान करते हैं। यह निस्संदेह है कि सूर के पदों में जो कोमलता, सरलता तथा माघुय है बह तुलसी के गीत-काव्य में भी नहीं है। फिर भी सूरदास को सूर्य तथा तुलसी को 'शशि' कहना इन कवियों की कृृतियों से अनभिज्ञ होने का परिचय देना हे | वास्तव में महाकवि सूरदास, तुलसीदास तथा कफेशवदास अपने-अपने क्षेत्रों में विभिन्न व्यक्तित्व रखते हैं । १५ . ' केशव थोर जायसी की प्रवन्ध-कपना भक्ति तथा रीति काल के लगभग चार सौ वर्षा में निर्माण किए गये साहित्य का पर्यवेज्षण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन दोनों युगों में जो रचनाएँ हुई' वे अधिकतर मुक्तक की कोटि में ही रक्खो जा सकती हैं। हृदय की किसी एक सुकुमार अनुभूति की ही अथवा जीवन के केवल एक पक्ष का ही चित्रण कवियों ने अपने काव्यों में किया है। इस युग के प्रमुख प्रवन्धकार केवल तीन ही कवि हैं। १. जायसी, २. गोस्वामी तुलसीदास ३. केशवदास । रास के जीवन को अपने काव्य का विपय बनाकर गोस्वामी जी तथा फेशवदास ले क्रमशः रामचरित मानस तथा रामचन्द्रिका प्रवन्ध-काव्यों की रचना की, अतः विपय एवं शेल्ञी की दृष्टि से इन दो महाकबियों की तुलनात्मक आलोचना किया जाना समीचीन हे । प्रेमाख्यानक सूफी कवियों ने हिन्दुओं के घर की कहानियों को लेकर उसमें अपने सिद्धान्तों का मधुर सम्मिश्रण करके जो रचनाएँ कीं, वे इस बात की परिचायका दे कि एक ही माननीय तत्व हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के हृदय फे भीतर समानरूप से विद्यमान है | सूफी कवियों ने प्रेम की पीर की अमिर्ग्याक्त अत्यन्त - सहृदयतापूर्वक अपने अआख्यानों में की है। प्रेमास्यान काव्य के रचयिताओं में मलिक मुदस्मद जायसी का स्थान 'अम्रगण्य है । पद्सावत प्रवन्ध काज्य है और इसी आधार पर फेशव और जायसी के प्रवन्धकत्व की तुलना की जा सकती हे । घे “२४६ रामचन्द्रिका केशवदास ने चिरपरम्परा से प्रचलित राम-गाथा को अपने काव्य का विषय माना तथा कथावस्तु के वर्णन में उन्होंने वाल्मीकि रामायण, हनुमन्नाटक तथा प्रसन््नराघव नाटकों से तथा संस्कृत के अन्य कवियों से पर्याप्त सहायता अहण की है । पद्मावत की कथा को दो भागों में विभक्त किया जाजसकता है | इसका पूर्वाझ् भाग कल्पित है तथा उत्तराद्ध ऐतिहासिक | कथावस्तु की मोलिकता का जहाँ तक प्रश्न हैः वहाँ हमें जायसी के ग्रंथ की ही प्रशंसा करनी पड़ती है । प्रवन्ध-काव्य के लिये एक उद्देश्य का होना आवश्यक है । कुछ कवि तो इसमें एक आदश पद्धति का पालन करते हैं और एक निर्दिष्ट उद्देश्य की ओर काव्य की घारा को पबाहित करते हूँ और दूसरे कवि घटनाओं को स्वाभाविक रूप से विकसित होने देते हैं, आदर्श परिणाम की ओर काव्य को नहीं ले जाते । आदर्शपद्धति वह है जिसमें भले को भला और बुरे को घुरा प्रकट किया जाय | इस पद्धति के अनुसरण में सद्शुणी का जीवन सुखमय तथा दुराचारी का जीवन दुःखमय अंकित किया- जावेगा । लेकिन संसार में कभ्षी कभी इसके विपरीत दृश्य दिखलाई देते हूँ । पद्मावत में आदर्श पद्धति की ओर कोई लक्ष्य हीं है । राघव चेतन का कोई भी बुरा परिणाम नहीं प्रकट किया गया । भारतीय-परम्परा के अनुसार काव्य सुखान्त होना चाहिये | दुःखान्त की सृष्टि भारतीय सिद्धान्तों के प्रतिकूल है । पद्मावव की कथा दुःखान्त है। नायक रत्नसेन की झत्यु के पश्चात् उसकी दानों रानियाँ नागमत्ती एवं पद्मावती सती हो जाती हूं, पर काव्य के उपसंहार में कवि ने शान्त रस की योजना की है ; इससे हम यह संकेत ले सकते हैं कि कवि जीवन -की अन्तिम परिणति दुःख में नहीं देखता । हाहाकार की केशव और जायसी को प्रवन्ध-कल्पना श्श्७ ३5 अम्तिम परिणति चरमशान्ति में हे। रत्नसेन की झत्यु पर सागमती तथा पद्मात्रती शोक प्रकर नहीं करतीं परन्तु शान्तरूप से परलोक की मंगल कामना ऋरते हुए चितारोदण करती दे । इसका प्रभाव अज्वाउदीन पर भी पड़ा । 'छ्वार उठाइ लीन्द् इक मूठढी ॥ दीन्द उठाइ पिस्थित्री झूठी ॥ गमचन्द्रिका भारतीय काव्य-प्रणाली के अनुसार लिखी गई है और पद्माचत में फारसी तथा भारतीय दोनो पद्धतियों का सम्मिश्रण पाते हैं । पद्मावत्त का प्रारम्भ भी भारतीय काव्यों फे अबुसार न होकर मसनवी पद्धति पर हुआ हे । प्रन्न्ध काव्य में घटनाओं की योजना यव््धलावद होनी चाहिये उसमें भावुकता उत्पन्त करने बाले रसात्मक प्रसंग बीच- चीच में आने चाहिये। जो भावुक कबि जीवन की जितनी व्यापक परिस्थितियों का अनुभव कर सकता है वही सफल प्रब्धकार हे। प्रबन्धकार को इतिबवृत्त के सहारे भावात्मक स्थलों की योजना करनी पड़ती है। पदूमावत में इतिदृत्तात्मक अंश थोड़ा ही है, पर जञायसा ने भावुकता के सहारे बीच-बीच में पात्रों की भाव-संगिमा पर ध्यान दिया है। यह कह्दानी रखात्मक कोटि की है। वीच-वीच में ऐसी घटनाएँ हेँ। जिनमें भावों का स्फुरण हुआ है। प्रेम, वियोग , माता की समता आनन्दोत्सव के साथ छल, घीरता, पातित्रत धर्म आदि का भी समावेश है । जायसी का मुख्य लक्ष्य प्रेम-पथ का निरूपण है। रामचन्द्रिका में केशव की चमत्कार एवं अलंकारप्रियता फा पूर्ण प्रस्कुटन हुआ है, परन्तु उसमें ऐसे स्थलों का अभाव छ जहाँ कवि ने दृदय के भावों फो स्व॒तन्त्रता के साथ अंकित किया श्७ श्श्प र मचनिद्रका हो | चमत्कृत वर्णमैत्री तथा अलंकार-योजना केशव फे हृदय को अत्यधिक प्रभावित किये हुए थी और फल्नतः रामचन्द्रिका में हृदय पक्ष गोण ही रह गया। पद्मावत को स्वयं जायसी ने एक अन्योक्ति माना है | इसका तात्पर्य यह है कि पद्सावत के कथानक में प्रच्छन्त रूप से एक दूसरी कथा भी प्रवाहित है, जो रहस्यात्मक रूप से मुख्य कथानक का आरोप ईश्वर पक्ष में करती हे। प्रवन्धकार अपनी रचना में ऐसे एक सी स्थल को स्थान न देगा जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध कथानक से नहीं। आद्योपान्त अन्योक्ति की योजना प्रवन्ध कला की दृष्टि से ही अनुपयुक्त न होती अपितु बह पद्माचत को एक क्लिप्ट काव्य तथा गूढ़ पहेली बना देती। पदूमावत में रहस्यात्मक संकेत सत्र नहीं है। कहीं-कहीं श्लेष . केद्धारा कवि ने अपने प्रतिभा-बल से मुख्य वस्तु वर्णन को परोक्ष के ऊपर घटाया है। रहस्यात्मक संकेतों में भी कथासूत्र नहीं छूटने पाया हे । उन स्थलों का वर्णुंत मुख्य रूप से तो कथा प्रवाह के लिये ही है । पदूमावत में अत्यन्त सश्सता के साथ कथा की क्रमवद्धता की ओर ध्यान दिया गया है। रामचन्द्रिका में मुख्यतः वे ही स्थल पूर्णेता के साथ प्रदर्शित किए गये हैं जहाँ उक्ति-बैचित्य का समावेश किया जा सकता है। कवि ने घटनाओं को इतनी शीघ्रता के साथ परिवर्तित किया है कि पाठक एक दृश्य में सग्न ही नहीं होने पाता कि दूसरा हृश्य आ जाता है। रामकथा की करुण एवं भावुक घटनाओं की ओर कवि उदासीन है । जायसी का दृष्टिकोण केवल श्रेम की अभिव्यंजना में ही तलल््लीन होने के कारण संकुचित तो हे पर प्रेम की पीर को इतनी तीत्रता एवं व्यापकता के साथ कवि ने चशित किया हे कि उप्तका प्रभाव पड़े बिता नहीं रह सकता । केशव ओर जायसी को प्रवन्ध-कल्पना २४६ करुण स्थलों की उक्तियाँ पद्मावत में इतनी स्वासाविक एवं मर्मस्प्शिती दे कि सहसा ध्यान उनकी ओर आकर्षित दो जाता है। राम की कथा में मनुष्य जीवन के व्यापक्र दृष्टिकोण को रखने का सुयोग है, लेकिन कल्वापक्ष ही में केशव की वुद्धि उलमनी रही, चहाँ कवि ने न तो प्रचनन््ध की क्रमबद्धता की ओर ध्यान दिया है और न भावोद्रेक करने वाले प्रसंगों की ओर । रामचन्द्रिका में रास कथा का सम्यक निर्वाह नहीं किया शया है। स्थान-स्थान पर कथासूत्र ढीला पड़ गया है शायद् केशव दास ने यह सममककर कि रासकथा के लिये तो वाल्मीकि रामायण हलुमनन््नाटक, प्रसन्तरावब लाटक आदि पंथ हैं. ही, इसलिये गामचन्द्रिका में केवल चसत्कृत एवं पारिडित्यपूर्ण स्थलों को समाविष्ट करने का ही लक्ष्य बनाया हो | प्रवन्ध काव्यों में छनन््दों का परिचर्त्तत अधिक न होना चाहिये, अन्यथा कथा की रसानुभूति तथा एकता में व्याघात पहुँचने की संभावना है । सा सर्ग में एक ही छंद का प्रयोग किया जाना चाहिये कचल सगान्त भ॑ भिन्न छुन्द रखा जा सकता है। रामचन्द्रिका में केशवदास जी ने विविध छुन्दों का प्रयोग किया दे । एकाक्षरी से लेकर अष्टाक्षरी छन्दों तक के छन्द रामचन्द्रिका में अयुक्त हुए हैं और पग पग पर इन छन्दों में परिवर्तन क्रिया गया है, जिससे पाठक कथा के प्रवाह की अजुभूति नहीं कर पाता है, और वार बार बदलते हुए छन्दों के चमत्कार में ही पड़ जाता है। पत्रन्ध की घारा अवरुद्ध ही है । प्रचन्ध की एकता पर विचार करते समय जायसी में कुछ विराम अवश्य मिलते हैँ जैसे तोता खरीदने वाले ब्राह्मण का इत्तान्त, राघव चेतन, वाद्य का प्रसंग | साध्यमिक काल के कवि अपनी बहुज्ता प्रकट करने के लिये किसी विपय का अति २६० शामचन्द्रिका विस्तार से वर्णन करते थे। जायसी ने भी कहीं-कहीं ऐसी वहुज्ञता प्रकट की है; जैसे सिंदल द्वीप के वर्णन में फल फूलों के नाम, भिन्न-भिन्न घोड़ों के प्रकार, तथा विवाहादि के अवसरों पर पकवानों की सूची | लेकिन पद्मावत में कथा-प्रवाह केशव दास की भाँति कहीं भी खंडित नहीं है, वह श्ृृंखलाबद हे । अपत्ती काव्य-रचना के लिये केवल दोहे चौपाई छन्द को ही जायसी ने चुना है। प्रबन्ध-रचना में अवधी भाषा में दोहे चौपाइयों की रचना की इतनी उत्क्ृष्टता प्रमाशित हुई कि आगे गोस्वामी जी ने भी रामचरित मानस की रचना के लिये इसी छन्द्र को अपनाया | जायसी ने अपने हृदय की कोमलता वो अपने हृदय की सुकुमार मनोवृत्तियों को अत्यन्त सजीवता के साथ पद्मावत में अंकित किया है। कवि अपने उद्देश्य में. पूर्ण सफल हुआ है। नागमती का विरह वर्णन सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। नागमती के करुण-क्रन्दन में प्रकृति भी सहानुभूति प्रकट करती है। पिय वियोग में नागसती दुःखित होकर करती है :-- कमल जो विगसा मानसर, बिनु जल गयेहु सुखाय । अबृरह्िं वेलि पुनि पलुहे,ज्ो पिय सींचहि.ः आय ॥। प्रेमी अपने प्रिय के सुख के लिये अत्यन्त उत्सुक होता है। वन को जाते हुए सीताराम के चरणों की कोमलता को लक्ष्य करके ही गोस्वामी जी ने लिखा था। जौ विधि जानि इनहिं बन दीन्हा | कसम न सुमनमश्र मारग कीन्हां। लेकिन नागमती तो अपने शरीर को भस्मसांत करके उसकी राख को उस मार्ग में विछा देना चाहती हैं जिस सार्ग से उसका पति जा रहा है ; कितनी कारुण्यपूर्ण कल्पना है :-- केशव और जायसी का प्रवन्ध-कठ्पना २६१- यह तनु जारों छारि के, कहीं कि पवन उड़ाव | मकु चहि मारग गिरि परै, कन्त धरदि लेहि पाँव || जायसी ने पदूमावत में घटनाओं के पूर्वापर सम्बन्ध की ओर पूर्ण ध्यान रखा है यथा समुद्र से मिले हुए पाँच रत्तों की भी सार्थकता अलाउद्दीन और रत्नसेन के सन्धि प्रस्ताव वर्णन में दिखाई है । पदूमावत के उत्तरार्ध में वीर, भयानक एवं शान्तरस का परिपाक हुआ है , किन्तु जिस झंगार--वियोग तथा संयोग- का हृदयाकर्पक प्रवाह काव्य के प्रारम्भ से ही हुआ है बह पर्येवसान तक हमें दृष्टिगोचर होता है| वियोग तथा संयोग खब्दार में प्रेमी की जो दशा हो सकती है उन सब की ओर कवि फा ध्यान गया हे । विरह चर्णंत में बारहमासा की योजना करके कवि ने दुःख की व्यापकता का अच्छा निर्वाह किया है। इस विरह वर्णन में स्वाभाविकता, सजीवता एवं सरलता हे। नागसती अपने उस प्रियतम के वियोम में रुदन करती हे जो एक अस्यन्त दूरस्थ देश को चलता गया है ; गोपियों की भाँति किसी भाड़ी में छिपे हुए अथचा ३ मील दूर चले गये कृष्ण के लिये किये गये बिल्ञाप के समान उसका विलाप नहीं हे। जायसी फा भावुक हृदय था। प्रेम की पीर की कसक उसमें थी और कवि की ये ही भावनाएँ अत्यन्त व्यापकता के साथ हम उसके काव्य में भी प्रतिविम्बित पाते हूँ । प्रकांड पंडित तथा बहुक्ष होने के कारण यदि केशवदास चाहते तो सावुकता- पूर्ण ऐसे मनोरम काव्य की रचना कर सकते थे, जो हिन्दी साहित्य में अद्वितय होता । लेकिन राजसीय वातावरण, पांडित्य-दर्शन तथा चमत्कृत शैली ने केशव के हृदय पर अधिकार कर लिया था, इसलिये रसात्मक स्थल रामचनिद्रिका में धर रामचन्द्रिका है ही नहीं । सीता तथा राम का वियोग भी गहराई के साथ अंकित नहीं किया है वहाँ पर भी कबि ने अलंकृत शैल्ली का ही प्रयोग किया है । जायसी की विरह-वेदना पाठक के हृदय को वबरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। सूर एवं जायसी का विरह वरणणुन की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्व- यूण स्थान है । अपने-अपने काव्य-्ग्रंथों में केशव तथा ज्ञायसी दोनों से समुद्र का वर्णन किया है लेकिन प्रकृति वर्णन की दृष्टि से जायसी ने समुद्र का चित्र सचाई के साथ अंकित किया है :-- उठे लद्दरे जनु ठाढ पहारा । चढ़े सरग औ परे पतारा ॥ डोलहिं. बोहित लहरें खाहीं | खिन तर द्वोहिं, खिनहिं उपराहीं ॥ उठे लदरि परब्रत के नाई । किरि थआ्रावँ जोजन सों ताई॥ घरती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद्र जानहु या ठाढ़ा॥ केशबदास ने काव्य शास्त्र के प्रतिपादित सभी नियमों का 'पालन तो किया है, लेकिन चमत्कारपू्े शैली के कारण केशव डउपमा ओर सन्देह आदि अलंकारों की योजना में पड़ जाते जिससे प्रस्तुत व्शन ठीक-ठीक नहीं होता । यह समुद्र केशब को कमी तो नागरिक के रूप में दिखलाई देता है. और कभी अपने ब्रह्म ज्ञान का परिचय देता है। (१) भूति विभूति पियूपहु की विष ईस सरीर कि पाय वियौ है | है कियों केसव कश्यप को घर देव श्रदेवन को मन मोहे॥ ना केशब और जायसी की प्रबन्ध कल्पना र्६) संत्त हिंयौ कि बरसे इरि संतत सोमा अनन्त कहे कवि कोहे | चंदन मीर तरंग तरंगित नागर कोड कि सागर सोहै॥ (२) सेप धरे धरनी, घरनी घरे केसब, जीव्र रचे विधि जेते । चौदद लोक समेत तिन्हे हरि के प्रतिरोमह्दि में चित चेते ॥ सोवत तेठ सुने इनहीं मैं अनादि अनन्त अगाघ हैं ऐसे । खद्भुत सागर को गति देखहु सागर ही यह सागर केते ॥ कवि करना तो चाहता है समुद्र वर्णन; लेकिन समुद्र के रूप का और उसमें उठती हुई पर्ताकार दविलोरें का कहीं संकेत भी नहीं हैं। केशव में यदि कलापक्षु की प्रधानता है तो जायसी में भाषपक्ष की | केशव संस्कृतज्ञ परिवार में उत्पन्न होकर शालरों के प्रकांड विद्वान थे लेकिन जायती -- हो पंडितन केर पछुलगा | कछु फहि चला तबल देइ डगा।! जायसी की कविता का क्रिसी समय बहुत प्रचार था। फकीर नागमती के वारहमासे को गाकर भिक्षा माँग्ते थे। सरल हृदय फवि जायसी की कविता का समादर होना इस घात का गप्रचल प्रमाण है कि काव्य में सरलता, स्वाभाविकता तथा एक ऐसी भावना होनी चाहिये जिसका सामव्जस्थ भन्ुष्यमान्र के हृदय हो। काव्य-नियमों से अनभिज्ञ, भापा पर अधिकार न रखने वाले तथा भौगोलिक ज्ञान की भी परिमिति वाले जायसी ने अपने ग्रेम-पीर-जन््य दुःख को काज्य- पटल पर इतनी सजीवता के साथ अंक्षित किया कि उसे सुनकर-- आधी रात विहृगम बोला | तू फिरि फिरि दाहे सब्र पाँखी। फेटि दुख रैन न लाचसि आँखी।॥ २६४ रामचन्द्रिका नागमती का विरह दुःख सवंभूतात्मक हे। उसके दुःख को सुनकर प्राकृतिक पदाथे भी प्रभावित हुए ज्िना नहीं रद्द सके-- जेहि पंखी के नियर होइ, बहै विरह के बात । सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ॥ प्रचन्ध कवि की दृष्टि से जायसी को अधिक सफलता प्राप्त हुईं है; लेकिन अपनी विशिष्ट शैज्ी के कारण केशवदास का भी हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्वपूण स्थान है। जायसी ओर केशव हिन्दी साहित्याकाश के उन उज्ज्बल नक्षत्रों में से हैं: जिनका थश-प्रकाश अमन्दगति से सबंदा इस प्रथ्वी पर हा रहेगा । दोनों ही प्रवन्धकार होने के नाते महाकवि माने जाते हूँ । ६ इति शमू घड रामचंद्रिका किसका महाकाव्य है?रामचंद्रिका के नाम से विख्यात रामचंद्र चंद्रिका (रचनाकाल सन् १६०१ ई०) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के आरंभ के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास रचित महाकाव्य है। उनचालीस प्रकाशों (सर्गों) में विभाजित इस महाकाव्य में कुल १७१७ छंद हैं।
रामचंद्रिका महाकाव्य की रचना कब समाप्त हुई?रामचंद्रिका के नाम से विख्यात रामचंद्र चंद्रिका (रचनाकाल सन् १६०१ ई०) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के आरंभ के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास रचित महाकाव्य है। उनचालीस प्रकाशों (सर्गों) में विभाजित इस महाकाव्य में कुल १७१७ छंद हैं।
रामचंद्रिका के रचयिता का नाम क्या है?केशवदासरामचंद्रिका / लेखकnull
रामचंद्रिका के प्रमुख पात्र कौन है?रामचन्द्रिका में पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय उपर्युक्त सभी विधियों का आश्रय लिया गया है। इसमें वर्णित पात्रों को दो वर्णों में विभाजित किया जा सकता है- पुरुष और नारी - पात्र । पुरुष पात्रों में राम, भरत, लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, रावण आदि और स्त्री पात्रों में सीता प्रमुख हैं ।
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