प्राचीन भारत के इतिहास का काल कब से कब तक है? - praacheen bhaarat ke itihaas ka kaal kab se kab tak hai?

प्राचीन भारत के दौरान किलों के विकास की चर्चा एक महत्वाकांक्षी प्रयास है। इस अवधि में देश के कोने-कोने में अनेक साम्राज्यों और राजवंशों का उत्थान और पतन देखा गया। इस अवधि के दौरान उपमहाद्वीप के किले महान विविधता प्रदर्शित करते हैं और विकास के सीधे स्वरूप का पालन नहीं करते हैं। इस अवधि में उन कला और वास्तुशिल्पीय परंपराओं का संश्लेषण देखा गया जो इस उपमहाद्वीप के भीतर विकसित हुईं तथा साथ ही साथ जो दूर देशों से विजेताओं और साहसी लोगों के साथ यात्रा करते हुए यहाँ आईं थीं। इस प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य इन विकासों का व्यापक अवलोकन प्रदान करना है।

किलों को आज अतीत के राज्यों की सैन्य शक्ति के मूर्त अनुस्मारक के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, भारत में किलों की शुरुआत उस समय से होती है जब राज्य और साम्राज्य अस्तित्व में ही नहीं थे। शुरुआती किलेबंदी तो शायद मानव निर्मित भी नहीं थी। प्राकृतिक संरचनाएँ जैसे नदियों, पहाड़ियों और जंगलों का उपयोग संरक्षण रेखाओं और सुरक्षा के स्थानों के रूप में किया जाता था। भारतीय उपमहाद्वीप पर निर्मित किलेबंदी के कुछ शुरुआती साक्ष्य सिंधु घाटी सभ्यता से पहले के हैं। सिंधु नदी के आसपास के क्षेत्रों में खुदाई से हड़प्पा-पूर्व चरण के अस्तित्व का पता चला जिसमें बड़ी किलेबंद बस्तियां मौजूद थीं। इस अवधि के दौरान पत्थर और धातुओं के काम जैसे शिल्प में उल्लेखनीय स्तर की विशेषज्ञता भी हासिल हुई थी।

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सिंधु घाटी काल

जैसे ही हम सिंधु घाटी काल में आते हैं, मिट्टी, पकी हुई ईंटों और यहाँ तक कि पत्थरों से भी निर्मित काफी विस्तृत किलेबंदी दिखाई देती है। यह अवधि पुरातात्विक साक्ष्यों से समृद्ध है जो इसकी वास्तुशिल्पीय विरासत को गहराई से समझने में मदद करती है। सिंधु घाटी नगर नियोजन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी वहाँ की बस्तियों को दो अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित करना: नगरकोट (गढ़) और निचला शहर। मोहनजोदड़ो का शहर भी इन दो व्यापक भागों में विभाजित था, और नगरकोट (गढ़) क्षेत्र अतिरिक्त रूप से एक खाई से घिरा हुआ था। कोट दीजी (3300 ईसा पूर्व) चूना पत्थर के मलबे और मिट्टी के ईंट से बनी एक विशाल दीवार से युक्त दृढ़ीकृत स्थान था, और इस बस्ती में एक नगरकोट (गढ़) परिसर तथा एक निचला आवासीय क्षेत्र शामिल था। कालीबंगा (2920-2550 ईसा पूर्व) बड़े पैमाने पर मिट्टी के ईंट से बनी किलेबंदी से घिरा हुआ था। कच्छ और सौराष्ट्र के चट्टानी इलाकों में दृढ़ीकृत दीवारों के निर्माण में पत्थर का व्यापक रूप से उपयोग हुआ था। कच्छ के रण में धोलावीरा को, मिट्टी के गारे में स्थापित पत्थर के मलबे से बनी, एक शानदार दीवार के साथ मजबूत बनाया गया था। किलेबंदी की यह विशाल दीवार और गढ़ में पत्थर के खंभों के अवशेष बहुत विशिष्ट हैं तथा ये किसी भी अन्य हड़प्पा स्थल पर नहीं देखे गए हैं। कई विद्वान इन निर्माणों को रक्षात्मक कार्य के लिए निर्मित नहीं मानते हैं, लेकिन उन्हें या तो बाढ़ के खिलाफ सुरक्षात्मक तटबंध या सामाजिक कार्यों के लिए बनाए गए ढांचे के रूप में मानते हैं। हालांकि, किलेबंदी, विशेष रूप से धोलावीरा जैसी भव्य किलेबंदी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। सिंधु घाटी सभ्यता को सम्मिलित करते इतने लंबे समय में इतने बड़े क्षेत्र में बल और संघर्ष पूरी तरह से अनुपस्थित नहीं हो सकता था।

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हड़प्पा शहर का एक कलाकार द्वारा किया गया चित्रण

वैदिक काल

वैदिक काल से मिले साक्ष्य साहित्य के रूप में अधिक और भौतिक पुरातात्विक साक्ष्य के रूप में कम मिलते हैं। ऋग्वेद में दिवोदास के नाम से एक प्रसिद्ध भरत राजा का उल्लेख है, जिन्होंने दास शासक शंबर को हराया था, जिन्होंने कई पहाड़ी किलों की कमान संभाली हुई थी। इसमें पुर नामक किलेबंदी में रहने वाली जनजातियों का भी उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण तीन यज्ञ अग्नियों को तीन किलों के रूप में संदर्भित करता है जो असुरों (राक्षसों) को यज्ञ बलिदान में बाधा डालने से रोकती हैं। इंद्र को वैदिक साहित्य में पुरंदर या किलों के विनाशक के रूप में संदर्भित किया गया है।

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महाजनपदों का मानचित्र (6वीं शताब्दी ईसा पूर्व)

किलों के लिए अगला पुरातात्विक साक्ष्य भारत की दूसरी शहरीकरण अवधि (छठी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) से आता है, जब मध्य गंगा घाटी में बड़े पैमाने पर शहरी जीवन का विकास हुआ। इस अवधि में महाजनपदों या सोलह गणराज्यों का भी उदय हुआ, और ये राज्य थे - अंग, अवंती, अस्सक, चेदि, गांधार, काशी, कम्बोज, कोसल, कुरु, मल्ल, मत्स्य, मगध, पांचाल, सुरसेन, वत्स और व्रिजी। शक्तिशाली राज्यों के विकास के साथ, निरंतर युद्ध का वातावरण उत्पन्न हुआ, और परिणामस्वरूप उन राज्यों की सुरक्षा और सैन्य शक्ति को मजबूत करने की आवश्यकता का भी उदय हुआ। पटना के करीब राजगीर, मगध की पहली राजधानी, प्राचीन राजगृह का स्थल है। यहाँ दो शहर हुआ करते थे - पुराना राजगृह और नया राजगृह। पुराना राजगृह पाँच पहाड़ियों के बीच स्थित था और पत्थर की दो किलेबंदी दीवारों से घिरा हुआ था। नया राजगृह भी पत्थर की किलेबंदी से घिरा हुआ था। पुराने राजगृह की बाहरी किलेबंदी बिंबिसार के समय से संबंधित है, यानी, छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व और नए राजगृह के चारों ओर की दो दीवारें अजातशत्रु के समय की हैं, यानी 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व की।
बौद्ध ग्रंथ महापरिनिब्बाण सुत्त (महापरिनिर्वाण सूत्र) में उल्लेख किया गया है कि राजगृह के राजा अजातशत्रु के आदेश के तहत पाटली गाँव के पास एक किला बनाया गया था। यह बाद में पाटलिपुत्र शहर के रूप में उभरा। मगध शासक उदयिन ने अपनी राजधानी को राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया। अंग की राजधानी, प्राचीन चंपा (जोकि अब दक्षिण बिहार में चंपापुर और चंपानगर गाँवों के नाम से मौजूद है), किलेबंदी और खाई से घिरी हुई थी। वत्स की राजधानी कौशाम्बी भी एक मिट्टी की किलेबंदी की दीवार से घिरी हुई थी। पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र भी एक विशाल किलेबंद शहर था। क्षिप्रा (सिपरा) नदी के तट पर स्थित उज्जयिनी (आधुनिक उज्जैन) अवंती की राजधानी थी। यह बस्ती मिट्टी की भव्य किलेबंद दीवार के साथ-साथ एक खाई से घिरी हुई थी।

326 ईसा पूर्व में सिकंदर महान मगध की सीमा तक पहुँच गया था। पहली या दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास एरियन द्वारा लिखे गए सिकंदर के अभियानों का इतिहास - एनाबैसिस ऑफ़ अलेक्जेंडर - सिकंदर के मल्ल अभियान (पंजाब क्षेत्र के मलोई के खिलाफ, जिन्हें मालवा के रूप में भी जाना जाता है) का विस्तार से वर्णन करता है। इसमें दीवारों से युक्त शहरों के बारे में बात की गई है, जिनमें बहुत ऊँचे गढ़ होते थे जहाँ तक पहुँचना मुश्किल हुआ करता था। कहा जाता है कि दीवारों में नियमित अंतराल पर मीनारें हुआ करती थीं।

मौर्य काल

नंद वंश के पतन के बाद, चंद्रगुप्त मौर्य अपने सुप्रसिद्ध मंत्री कौटिल्य की मदद से महान मौर्य वंश (321 ईसा पूर्व) के पहले राजा बने। कौटिल्य का राजनीतिक ग्रंथ, अर्थशास्त्र, वास्तव में सैन्य संस्थानों और उस अवधि की किलेबंदी को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक स्रोतों में से एक है। इसमें दी गई सप्तांग राज्य की अवधारणा राज्य को सात अंतर-संबंधित तत्वों से युक्त मानती है - स्वामी (राजा), अमात्य (मंत्री), जनपद (क्षेत्र और लोग), दंड (न्याय), दुर्ग (किलेबंदी वाली राजधानी), कोष (खजाना), और मित्र (सहयोगी)। चौथे तत्व अर्थात दुर्ग का वर्णन करते हुए उन्होंने इसकी रचना के लिए विस्तृत निर्देश दिए हैं। वे ईंट या पत्थर की मुँडेरों के साथ मिट्टी के परकोटे बनाने की सलाह देते हैं, और सुझाव देते हैं कि किले के चारों ओर सैनिकों को तैनात किया जाए। किले की दीवारों को कमल और मगरमच्छों से भरी तीन खाइयों (खंदकों) से घिरा होना चाहिए। किले में, घेराबंदी के अंत तक अच्छी तरह से चलने वाली खाद्य आपूर्ति की जानी चाहिए और भागने के लिए गुप्त मार्ग होने चाहिए। कौटिल्य ने किलों की विभिन्न श्रेणियों का भी उल्लेख किया है: धन्व दुर्ग या रेगिस्तान का किला; माही दुर्ग या मिट्टी का किला; जल दुर्ग या जल किला; गिरि दुर्ग या पहाड़ी किला; वन दुर्ग या वन किला; वफादार सैनिकों द्वारा संरक्षित किला या नर दुर्ग। अंतिम मौर्य राजा को पुष्यमित्र शुंग ने उखाड़ फेंका, और उन्होंने 187 ईसा पूर्व में शुंग वंश की स्थापना की। शुंग काल से संबंधित किलेबंदी की पहचान बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के कटरागढ़ में की गई थी, जिसमें, मिट्टी के भीतरी भाग और खाई से युक्त, पकी हुई ईंट की दीवारों से बने परकोटे शामिल थे।

प्रायद्वीपीय भारत (संगम काल)

साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य इंगित करते हैं कि प्रारंभिक प्रायद्वीपीय भारत का नक्शा सैकड़ों किलों से भरा हुआ था। संगम काल (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व- तीसरी शताब्दी ईस्वी) के दौरान अपनी सभी वास्तुशिल्पीय विशेषताओं जैसे खाइयों, बुर्जों और गढ़ों के साथ, एक पूरी तरह से निर्मित किले की अवधारणा, विकास के एक परिपक्व चरण में पहुँच गई थी। किले या तो मिट्टी या विशाल लेटराइट ब्लॉक या ईंटों से बने होते थे। परकोटों को मजबूत करने के लिए बाद में जीर्णोद्धार के दौरान ईंट के टुकड़ों और चिकने पत्थरों का उपयोग किया जाता था। बड़े किले राजधानी शहरों (जैसे मदुरई, कांची, वंजी - क्रमशः पांड्यों, पल्लवों और चेरों की राजधानी) और महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्रों के आसपास बनाए जाते थे, जबकि छोटे किले शाही महलों के आसपास बनाए जाते थे। आंध्र प्रदेश के नेल्लोर के पुदुर गांव में, पत्थरों और ईंटों से निर्मित किला, सबसे पुराने दक्षिण भारतीय किलों में से एक है। किला योजना में आयताकार था और बड़ी ईंटों से निर्मित था। किले के चारों ओर खाई लगभग 30 मीटर चौड़ी थी। संगम साहित्य में स्पष्ट रूप से वर्णित सबसे भव्य किलों में से एक किला मदुरई में था। पुरम (युद्ध से संबंधित तमिल शास्त्रीय कविता) में कहा गया है, "मदुरई में विशाल किले की दीवारें पहाड़ की तरह दिखती थीं जबकि किले के द्वार एक चौड़ी नदी की तरह थे। पूरा शहर पेड़ों, झाड़ियों से युक्त घने जंगलों से घिरा हुआ था; इसके आगे साफ पानी से भरी एक बहुत गहरी खाई थी।”

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प्रायद्वीपीय भारत का मानचित्र (संगम युग)

गुप्त काल

गुप्त साम्राज्य तीसरी और छठी शताब्दी ईस्वी के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में फैला हुआ था। वास्तुकला के संदर्भ में, गुप्त काल मुख्य रूप से अपनी धार्मिक वास्तुकला के लिए जाना जाता है जिसमें बौद्ध और जैन गुफा मंदिर और कुछ शुरुआती मुक्त रूप से खड़े हिंदू मंदिर शामिल हैं। शाही गुप्तों की किलेबंदी और सैन्य वास्तुकला पर विद्वानों का बहुत अधिक ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है। इलाहाबाद स्तंभ शिलालेख में दर्ज है कि समुद्रगुप्त, चौथी शताब्दी ईस्वी में अपने दक्षिणी अभियान के दौरान, महेंद्रगिरि पहुँचे और उन्होंने स्वामीदत्त नामक एक राजा को हराया। कहा जाता है कि उन्होंने गंजम में महेंद्रगिरि और कोट्टुरा के पहाड़ी-किलों पर भी कब्जा कर लिया था। महेंद्रगिरि का पहाड़ी-किला प्रारंभिक गंग राजाओं द्वारा बनाया गया था। गढ़वा किले परिसर में गुप्त काल के कुछ सबसे पुराने अवशेष मिलते हैं, जिनमें 5वीं-6वीं शताब्दी के मंदिरों और हौजों के वास्तुशिल्पीय अवशेष शामिल हैं। हालांकि वह बारा (यूपी) के राजा, बघेल राजा विक्रमादित्य थे जिन्होंने 18वीं शताब्दी में गढ़वा में मंदिर के खंडहरों को चौकोर बाड़ों और मुँडेरों के साथ सुरक्षित करवाया था। माना जाता है कि बसाढ़ किला, जिसको वर्तमान बिहार में राजा बीसल-का-गढ़ कहा जाता है, गुप्तों के तहत बनाया गया था।

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अशोक स्तंभ, इलाहाबाद, चित्र स्रोत: एएसआई

राजपूत

राजस्थान की स्थलाकृति, अरावली पहाड़ियों के अस्तित्व से परिभाषित होती है, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ की ज़मीन चट्टानी है और छोटी झाड़ियों से ढकी हुई है। राजपूतों की कबीले के प्रति मजबूत वफादारी के अलावा, उनकी परिभाषित विशेषताओं में से एक किलों का व्यापक निर्माण भी है। आज हम जिन राजपूत किलों को उनके सम्पूर्ण शौर्य के रूप में देखते हैं, ये वे संरचनाएँ हैं जो सदियों से वहीं अवस्थित हैं और जिन्होंने निर्माण की परतों को देखा है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, चित्तौड़गढ़ किला एक स्थानीय मौर्य शासक चित्रांगद मौर्य द्वारा बनाया गया था। माना जाता है कि किले पर 8वीं शताब्दी में गुहिला (एक राजपूत वंश) शासक बप्पा रावल ने कब्जा कर लिया था। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, ग्वालियर का किला तीसरी शताब्दी ईस्वी में सूरज सेन (राजपूतों के साकरवार कबीले के) नामक एक स्थानीय राजा द्वारा बनाया गया था। उन्होंने किले का नाम ग्वालिपा नामक एक ऋषि के नाम पर रखा, जिसने उन्हें कुष्ठ रोग से मुक्ति दिलाई थी। आमेर के किले का भी एक लंबा इतिहास है। माना जाता है कि यहाँ पहली राजपूत संरचना 11वीं शताब्दी में बनाई गई थी। किला, जैसा कि आज दिखता है, आमेर के कछवाहा राजा मान सिंह द्वारा, 16वीं और 17वीं शताब्दी के बीच इस पुराने ढांचे पर बनवाया गया था। माना जाता है कि जैसलमेर किले का निर्माण 12वीं शताब्दी में रावल जैसल ने करवाया था, जो कि भाटी वंश के राजपूत थे।

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अपनी पूर्ण विकसित चरण में राजपूत वास्तुकला: आमेर किला, जयपुर

राजपूत किले, जो ज्यादातर प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दौरान बनाए गए थे, मध्ययुगीन काल में अच्छी देख-रेख में रहे, जिस दौरान उनके स्वरूप और अधिक जटिल और परिष्कृत हो गए। अपने परिपक्व चरणों में राजपूत किले विशिष्ट विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं। किलों में विशाल मजबूत द्वार हैं, जो प्रहरी मीनारों से घिरे हुए हैं। अधिकांश किलों में द्वारों की एक श्रृंखला थी। ये द्वार अक्सर युद्ध में जीत की स्मृति में बनाए जाते थे। परकोटों और बाहरी मजबूत दीवारों में नियमित अंतराल पर प्रहरी मीनारें होती थीं। परकोटों में सुरंगों और सीढ़ियों की एक अनूठी प्रणाली भी होती थी। परकोटों की रूपरेखा को हथियारों के उपयोग के अनुसार अनुकूलित किया जाता था। धनुष और बाण के दिनों में, इनमें संकीर्ण छिद्र होते थे जो केवल तीर को ही बाहर आने देते थे। बाद में, मध्ययुगीन काल के दौरान बारूद और तोपों की शुरूआत के साथ, तोपों और उनको चलानेवालों (जवानों) दोनों को समायोजित करने के लिए, परकोटों की रूपरेखा बदल दी गई। तोप की आग को सहन करने के लिए दीवारों को शक्तिशाली और प्रबलित किया गया। सभी किलों में शासक के कुल देवता को समर्पित पूजा का एक विशेष स्थान होता था।

प्राचीन इतिहास का काल कब से कब तक है?

प्राचीन भारत के इतिहास की शुरुआत 1200 ईसापूर्व से 240 ईसा पूर्व के बीच नहीं हुई थी। यदि हम धार्मिक इतिहास के लाखों वर्ष प्राचीन इतिहास को न भी मानें तो संस्कृ‍त और कई प्राचीन भाषाओं के इतिहास के तथ्‍यों के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास की शुरुआत लगभग 13 हजार ईसापूर्व हुई थी अर्थात आज से 15 हजार वर्ष पूर्व।

प्राचीन भारत का समय काल क्या है?

प्राचीन भारत - 1200 ई. पू–240 ई. 230 ई. पू-199 ई.

भारत में इतिहास के कितने काल हैं?

इसके तीन चरण माने जाते हैं; पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल एवं नवपाषाण काल जो मानव इतिहास के आरम्भ (२५ लाख साल पूर्व) से लेकर काँस्य युग तक फैला हुआ है