ऑस्टिन का संप्रभुता सिद्धांत क्या कहलाता है? - ostin ka samprabhuta siddhaant kya kahalaata hai?

Austin’s theory of sovereignty

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 Hello दोस्तो ज्ञान उदय में आपका स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में ऑस्टिन के संप्रभुता सिद्धांत के बारे में । ऑस्टिन ने हॉब्स और बेन्थम के विचारों से प्रभावित होकर 1832 में एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था ‘Lectures on Jurisprudence’ (लेक्चरर ऑफ जुरिस्प्रूडेंस) जिसके द्वारा सम्प्रभुता या प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया।

 ऑस्टिन की संप्रभुता की परिभाषा

ऑस्टिन के विचार हॉब्स और बेन्थम के विचारों से मिलते जुलते थे । ऑस्टिन का उद्देश्य भी कानून और परम्परा के बीच अंतर करना था और परम्परा पर कानून की श्रेष्ठता स्थापित करना था । कानून के विषय में ऑस्टिन का विचार था कि

“कानून उच्चतर द्वारा निम्नतर को दिया गया आदेश है।”

यानी कानून उच्च और श्रेष्ठ कहलाये जाने वाले व्यक्तियों द्वारा उनसे निम्न स्तर के लोगों के लिए बनाया जाता है । अपने इसी विचार के आधार पर ऑस्टिन ने सम्प्रभुता की धारणा को प्रतिपादन किया । ऑस्टिन के अनुसार,

“यदि कोई निश्चित मानव श्रेष्ठ, जो खुद किसी समान श्रेष्ठ व्यक्ति के आदेश का पालन करने का अभ्यस्त ना हो और समाज के एक बड़े भाग से स्थाई रूप से अपने आदेशों का पालन कराने में समर्थ हो । तो वह निश्चित श्रेष्ठ व्यक्ति संप्रभु होता है और वह समाज जिसमें वह संप्रभु भी सम्मिलित हैं, एक राजनीतिक तथा स्वाधीन समाज अथवा राज्य होता है ।”

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ऑस्टिन के संप्रभुता की विशेषताएं

ऑस्टिन के संप्रभुता सिद्धान्त की विशेषताएं, इनके द्वारा लिखी गई किताब और इनके विचारों में देखी जा सकती है । ऑस्टिन ने राजा की शक्ति पर ज़ोर दिया है, एक राजा में संप्रभुता निहित होनी चाहिए । ऑस्टिन के अनुसार संप्रभुता ही राज्य का सार है । कुछ विशेषताएं जो कि निम्नलिखित है ।

1 मानव श्रेष्ठ (Human Superior)

2 निश्चित (Determinate)

3 आज्ञा का स्वतः तथा स्वभाविक पालन

4 स्वंय दूसरे की आज्ञा का पालन न करना

5 अनियंत्रित तथा असीमित

6 सत्ताधारी का आदेश ही कानून है

7 अविभाज्य

8 सार्वभौमिक

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ऑस्टिन के सिद्धान्त की आलोचना

ऑस्टिन के  संप्रभुता के सिद्धांत की विशेषताओं के बावजूद इस सिद्धान्त की आलोचना भी की जाती है । कई सारे विचारकों ने इस सिद्धान्त की आलोचना की है, जिसमें  प्रमुखता हेनरीमेन, सिजविक, लीलाक, ब्लंटश्ली और लास्की आदि हैं । निम्न तथ्यों के आधार पर ऑस्टिन के संप्रभुता सिद्धान्त की आलोचना की जा सकती है ।

1 निश्चित व्यक्ति की अवधारणा भ्रामक

ऑस्टिन के अनुसार संप्रभुता राज्य में निश्चित व्यक्ति के पास होना चाहिए । परंतु विचारक सर हेनरीमेन के अनुसार,

“यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्प्रभुता एक ही समय पर कई व्यक्तियों में निहित होती है,जो निश्चित नहीं होते।”

हेनरीमेन के अनुसार यह जान पाना कठिन है की कितनी शक्ती किसके पास है । जैसे भारत में शक्ति संसद के पास समझी जाती है ।

2 लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं ।

ऑस्टिन का सम्प्रभुता सिद्धान्त व्यवहारिक नही माना जाता क्योंकि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नही है ।

3 कानून संबंधी विचार भ्रामक

लास्की के अनुसार-

“कानून संप्रभु का आदेश मात्र नहीं है । कानून के पीछे रीति, रिवाज, प्रथम तथा परंपराओं आदि की भी शक्ति होती है ।”

डिगवी के अनुसार-

“राज्य कानून का निर्माण नहीं करता बल्कि कानून ही राज्य का निर्माण करते हैं ।”

4 असीमित शक्ति पर बल

कानून का पालन केवल इसलिए नहीं करते क्योंकि इसके पीछे संप्रभु की शक्ति निहित है । बल्कि अधिकांश लोग कानून का पालन इसलिए करते हैं कि इसमें उनका हित होता है ।

5 संप्रभुता अविभाज्य नहीं

गार्नर के अनुसार-

“ऑस्टिन का सिद्धान्त लोकप्रिय सम्प्रभुता के आज के विचार के बिल्कुल विपरीत है।”

6 अंतर्राष्ट्रीयता के अनुकूल नहीं बल्कि प्रतिकूल है । वर्तमान में राज्य की संप्रभुता अंतरराष्ट्रीय नियमों के कारण सीमित हुई है ।

इतनी सारी आलोचनाओं के बाद भी ऑस्टिन का संप्रभुता का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण और तर्कसंगत माना जाता है । व्यवहारिक रूप में देखें तो ऑस्टिन का संप्रभुता का सिद्धांत खरा नहीँ उतरता इसमें बहुत सारी खामियां हैं । अगर कानून और सैद्धान्तिक दृष्टि से देखें तो इस सिद्धांत में कोई कमी नहीं है और ये आज के समय में भी महत्वपूर्ण माना जाता है ।

तो दोस्तों ये था ऑस्टिन का संप्रभुता का सिद्धांत । इसकी विशेषताएं और आलोचना । अगर Post अच्छी लगी तो अपने दोस्तों के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

B.A. I, Political Science I 

प्रश्न 10. ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। अथवा ऑस्टिन के प्रभुसत्ता सम्बन्धी सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

उत्तर- जॉन ऑस्टिन इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध विधिशास्त्री था। उसने 1832 ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'Lectures on Jurisprudence'में सम्प्रभुता (प्रभुसत्ता) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ऑस्टिन हॉब्स और बेन्थम के विचारों से प्रभावित पा और बेन्थम के समान ही ऑस्टिन का उद्देश्य भी कानून और परम्परा के बीच भेद करना तथा परम्परा पर कानून की श्रेष्ठता स्थापित करना था। 

कानून के सम्बन्ध में ऑस्टिन का विचार था कि कानून उच्चतर द्वारा निम्नतर को दिया गया आदेश है।" अपने इसी विचार के आधार पर ऑस्टिन ने सम्प्रभुता की धारणा का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार है-यदि एक निश्चित सर्वोच्च मानव, जो अन्य किसी सर्वोच्च व्यक्ति की आज्ञा का पालन करने का अभ्यस्त न हो और जिसकी आज्ञा का पालन एक समाज का अधिकांश भाग स्वाभाविक रूप से करता हो, तो वह सर्वोच्च मानव उस समाज में सम्प्रभु है तथा उस सम्प्रभु सहित वह समाज एक राजनीतिक व स्वतन्त्र समाज होता है।"

ऑस्टिन का संप्रभुता सिद्धांत क्या कहलाता है? - ostin ka samprabhuta siddhaant kya kahalaata hai?


·         ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की विशेषताएँ

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सम्बन्धी इस कथन के विश्लेषण से सम्प्रभुता की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं

(1) सम्प्रभुता राज्य का एक आवश्यक तत्त्व है- 

ऑस्टिन के अनुसार प्रत्येक राजा मे एक  सर्वोच्च शक्ति अर्थात् सम्प्रभुता का होना आवश्यक है । सम्प्रभुता से ही एक समाज स्वतन्त्र तथा राजनीतिक बनकर राज्य का रूप धारण करता है । सम्प्रभुता ही राज्य का सार है।

(2) सम्प्रभुता निश्चित व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह में निहित होती है  - 

राज्य में कोई न कोई ऐसा निश्चित व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह होता है जो राज्य की सत्ता का प्रयोग करता है। सम्प्रभुता का किसी ऐसे स्थान पर प्रयोग नहीं हो सकता जिसका रूपनिश्चित अथवा संगठित न हो । दूसरे शब्दों में,सम्प्रभुता ईश्वरीय इच्छा, सामान्य इच्छा, जनमत व प्राकृतिक कानून में निवास नहीं करती। यह एक ऐसा निश्चित व्यक्ति या एक निश्चित सत्ता होनी चाहिए जिस पर स्वयं कोई कानूनी प्रभुत्व न हो ।

 (3) सम्प्रभुता निरंकुश व असीमित है - 

ऑस्टिन ने राज्य के सम्प्रभु को सर्वोच्च कहा है। राज्य सत्ता किसी दूसरे सम्प्रभु के अधीन नहीं होती। वह किसी की आज्ञा का पालन नहीं करती, परन्तु उसकी आज्ञा का पालन सभी लोग करते हैं। ऑस्टिन सम्प्रभुता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाता।

(4) सम्प्रभुता कानून से उच्च है - 

ऑस्टिन ने बताया है कि सम्प्रभु का आदेश ही कानून है । दूसरे शब्दों में, सम्प्रभुता कानून का एकमात्र स्रोत है। कानून सबके लिए सर्वोच्च है ,परन्तु सम्प्रभुता कानून से भी उच्च है,क्योंकि सम्प्रभुता ही समस्त कानूनों का स्रोत है।

(5) अधिकांश लोगों द्वारा आज्ञापालन की आदत -

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की एक विशेषता यह है कि राज्य में सम्प्रभु वही होता है जिसकी आज्ञा का पालन समाज के अधिकांश लोग स्थायी अथवा स्वाभाविक रूप से करते हों। जो लोग कानूनों का पालन नहीं करते, उन्हें दण्ड मिलता है । तात्पर्य यह है कि समाज का अधिकांश भाग आदत के रूप में सम्प्रभु के आदेशों का पालन करे।

(6) सम्प्रभुता अविभाज्य है - 

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त में एक भाव यह है कि राज्य में निश्चित तथा सर्वोच्च शक्ति केवल एक ही होती है। इस सत्ता का विभाजन नहीं हो सकता।

संक्षेप में ,सम्प्रभुता राज्य की आवश्यक ,असीमित ,स्थायी तथा अविभाज्य शक्ति है,जो किसी निश्चित व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह में निहित होती है और जिसकी आज्ञा का पालन समाज का अधिकांश भाग स्वाभाविक रूप से करता है।

·         ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की आलोचना

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है।

 (1) सम्प्रभुता सदैव निश्चित नहीं होती - 

ऑस्टिन का मत है कि यह निश्चित रूप से ज्ञात होता है कि राज्य में सम्प्रभुता किसमें निहित है। परन्तु सर हेनरी मेन का विचार है कि कई राज्यों में यह ज्ञात करना कठिन होता है कि सम्प्रभुता निश्चित रूप से कहाँ निवास करती है। उदाहरण के लिए,भारत में यह शक्ति संसद के पास समझी जाती है, परन्तु हम देखते हैं कि राष्ट्रपति को भी कुछ अधिकार प्राप्त हैं । न्यायालय भी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। सर हेनरी मेन के अनुसार, “यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्प्रभुता एक ही समय पर कई व्यक्तियों में निहित होती है,जो निश्चित नहीं होते।" ,

 (2) यह सिद्धान्त अमूर्त अधिक है - 

ऑस्टिन सम्प्रभुता के कानूनी विचार का समर्पक था, इसलिए उसका सिद्धान्त कदापि व्यावहारिक नहीं है । एक राज्य में नैतिक नियम, जनमत आदि होते हैं तथा राज्य सत्ता के वास्तविक प्रयोग में इनका महत्त्व होता है। परन्तु ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त का मुख्य दोष सम्प्रभुता के कानूनी पहलुओं को अधिक महत्त्व देना तथा उसके व्यावहारिक पक्ष की अवहेलना करना है। |

(3) यह लोकप्रिय सम्प्रभुता की उपेक्षा करता है 

-यह सोचना सही है कि लोगों की इच्छा ईश्वर की आवाज होती है। गार्नर के अनुसार, “ऑस्टिन का सिद्धान्त लोकप्रिय सम्प्रभुता के आज के विचार के बिल्कुल विपरीत है।आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में यह सिद्धान्त उपयुक्त नहीं है।

(4) इसमें जनमत तथा राजनीतिक शक्ति के लिए कोई स्थान नहीं -

लोकप्रिय सम्मभुता की भाँति ऑस्टिन के सिद्धान्त में राजनीतिक सम्प्रभुता के लिए भी कोई स्थान नहीं है। गार्नर का मत है कि ऑस्टिन जनमत की शक्ति की उपेक्षा करता है।

(5) कानून सम्बन्धी धारणा गलत - 

कानून का स्रोत केवल कानूनी सम्प्रभु नहीं है। सर हेनरी मेन कानून का मुख्य स्रोत रीति-रिवाज बताते हैं। पंजाब के राजा रणजीत सिंह का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है कि यद्यपि रणजीत सिंह की शक्ति | असीम थी, किन्तु वे परम्पराओं के अनुसार शासन करते थे। रीति-रिवाजों व परम्पराओं के पीछे कानूनी सम्प्रभु की शक्ति नहीं होती,लेकिन उनका पालन कानूनों की तरह ही होता है। ऑस्टिन की कानून सम्बन्धी धारणा से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति कानूनों का पालन सम्प्रभु शक्ति के भय से करते हैं, लेकिन ऐसा सदैव नहीं होता। व्यक्ति कानूनों का पालन उनकी उपयोगिता तथा उन्हें उचित मानने की भावना के कारण भी करते हैं।

(6) सम्प्रभुता निरंकुश नहीं है - 

व्यवहार में सम्प्रभुता की शक्ति कई प्रतिबन्धों सीमित है। इन प्रतिबन्धों में प्राकृतिक नियम, नैतिक नियम, अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संवैधानिक नियम शामिल हैं। यदि सम्प्रभुता को निरंकुश समझा जाए, तब यह मालोचना की जाती है कि इससे व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होता है।

(7) सम्प्रभुता का विभाजन हो सकता है - 

संघवादियों का यह मत रहा है कि संघ वराज्यों में सम्प्रभुता का विभाजन होता है । कई विद्वान् सरकार के तीन अंगों में सत्ता को विभाजित करते हैं,परन्तु ऑस्टिन सम्प्रभुता को अविभाज्य मानता है।

(8) बहुलवादियों द्वारा आलोचना - 

लास्की जैसे बहुलवादियों ने ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त के प्रत्येक पहलू की कड़े शब्दों में आलोचना की है। उनका | विश्वास है कि राज्य अन्य समुदायों की भाँति एक साधारण समुदाय है। समाज केविभिन्न समुदाय व्यक्ति की अनेक प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं । इन समुदायों का निर्माण राज्य द्वारा नहीं हुआ । इसलिए सम्प्रभुता केवल राज्य की शक्ति न होकर सभी समुदायों में विभाजित है।

निष्कर्ष - इस प्रकार ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की अनेक पहलुओं के आधार पर आलोचना की गई है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि व्यावहारिक और व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो इस सिद्धान्त में बहुत-सी शुटियाँ दिखाई देती हैं, परन्तु सैद्धान्तिक व कानूनी दृष्टि से ऑस्टिन के सिद्धान्त में त्रुटि नहीं है और इस रूप में सम्प्रभुता का कोई दूसरा सिद्धान्त इससे अधिक आदर्श नहीं हो सकता । गैटेल ने ठीक ही लिखा है,“यद्यपि इस सिद्धान्त के मूल तत्त्वों पर कई लेखकों ने आक्रमण किया है,तथापि ये तत्त्व आधुनिक विधिशास्त्र का आधार बने हुए हैं।"


ऑस्टिन के संप्रभुता सिद्धांत क्या है?

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की एक विशेषता यह है कि राज्य में सम्प्रभु वही होता है जिसकी आज्ञा का पालन समाज के अधिकांश लोग स्थायी अथवा स्वाभाविक रूप से करते हों। जो लोग कानूनों का पालन नहीं करते, उन्हें दण्ड मिलता है । तात्पर्य यह है कि समाज का अधिकांश भाग आदत के रूप में सम्प्रभु के आदेशों का पालन करे।

ऑस्टिन के संप्रभुता संबंधी सिद्धांत को क्या कहा जाता है Austin theory Ofsovereignty is also?

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धांत की व्याख्या – सम्प्रभुता मनुष्य से चिंतित हैं। सम्प्रभुता किसी के आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सम्प्रभुता सर्वोच्च है। यह बल, जनमत, स्वतंत्रता और राजनीतिक इच्छा पर आधारित हैं।

संप्रभुता के सिद्धांत का जनक कौन है?

जीन बोंदा ने 1756 में अपनी किताब Six Book Concerning Republic में संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। उन्होंने फ्रांसीसी राजा की ताकत को और को मजबूत करने के लिए संप्रभुता की नई अवधारणा का प्रयोग किया था। किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता संप्रभुता कहलाती है।

3 सम्प्रभुता से आप क्या समझते हैं ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए?

हॉब्स से पहले सेंट ऑगस्टीन ने एक ऐसे सम्प्रभु की ज़रूरत पर बल दिया था जो मानवता में अंतर्निहित नैतिक बुराइयों को काबू में रखेगा। इसी तर्क का और विकास करते हुए हॉब्स ने सम्प्रभुता को दमनकारी सत्ता पर एकाधिकार के रूप में परिभाषित करते हुए सिफ़ारिश की कि यह ताकत अकेले शासक के हाथ में होनी चाहिए।