महाराणा प्रताप के घोड़े की मृत्यु कैसे हुई थी? - mahaaraana prataap ke ghode kee mrtyu kaise huee thee?

Updated: | Fri, 04 Aug 2017 08:38 AM (IST)

हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच जमकर संग्राम चला था। इस युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप का बड़ा सहयोगी माना जाने वाला उनका घोड़ा 'चेतक' भी हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।

माना जाता है की चेतक बहुत ही समझदार और वीर घोड़ा था। हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना से अपने स्वामी महाराणा प्रताप की जान की रक्षा के लिए चेतक 25 फीट गहरे दरिया से कूद गया था।

हल्दीघाटी में बुरी तरह घायल होने पर महाराणा प्रताप को रणभूमि छोड़नी पड़ी थी और अंत में इसी युद्धस्थल के पास चेतक घायल हो कर उसकी मृत्यु हो गई। आज भी चेतक का मंदिर वहां बना हुआ है और चेतक की पराक्रम कथा वर्णित है।

हिंदी साहित्य में चेतक के बारे में कई रचनाएं हुई। वास्तव में चेतक काफी उत्तेजित और फुर्तीला था और वो खुद अपने मालिक को ढूंढ़ता था, चेतक ने महाराणा प्रताप को ही अपने स्वामी के रूप में चुना था। कहा जाता है की महाराणा प्रताप और चेतक के बीच एक गहरा संबंध था। वास्तव में यदि देखा जाए तो महाराणा प्रताप भी चेतक को बहुत चाहते थे। वह केवल इमानदार और फुर्तीला ही नही बल्कि निडर और शक्तिशाली भी था।

उस समय चेतक की अपने मालिक के प्रति वफादारी किसी दूसरे राजपूत शासक से भी ज्यादा बढ़कर थी। अपने मालिक की अंतिम सांस तक वह उन्ही के साथ था और युद्धभूमि से भी वह अपने घायल महाराज को सुरक्षित रूप से वापस ले आया था। इस बात को देखते हुए हमें इस बात को वर्तमान में मान ही लेना चाहिए की भले ही इंसान वफादार हो या ना हो, जानवर हमेशा वफादार ही होते हैं।

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महाराणा प्रताप के घोड़े की मृत्यु कैसे हुई थी? - mahaaraana prataap ke ghode kee mrtyu kaise huee thee?

महाराणा प्रताप और चेतक का स्मारक

महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध नीलवर्ण ईरानी मूल के घोड़े का नाम चेतक था।[1] चेतक अश्व गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाड़ी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मेवाड़ आए। अटक परीक्षण में काम आ गया।[2] त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया। इन घोड़ों के बदले महाराणा ने चारण व्यापारियों को जागीर में गढ़वाड़ा और भानोल नामक दो गाँव भेंट किए।[3]

चेतक को 'ग्रुलो' रंग का स्टालियन (नीला रंग, काठियावाड़ी नस्लों में पाया जाने वाला एक आदिम रंग) या ग्रे रंग (स्थानीय भाषा में 'रोजो') का माना जाता है, इसलिए "हो नीला घोड़ा रा अस्वार" अथवा "ओ नीले घोड़े के सवार" से ऐतिहासिक साहित्य में प्रताप को संबोधित किया गया है।[3]

हल्दी घाटी-(१५७६) के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल वह एक बरसाती नाला उलांघ कर अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ। हिंदी कवि श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य हल्दी घाटी में चेतक के पराक्रम एवं उसकी स्वामिभक्ति की मार्मिक कथा वर्णित हुई है। आज भी राजसमंद के हल्दी घाटी गांव में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहाँ स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था। चेतक की स्वामिभक्ति पर बने कुछ लोकगीत मेवाड़ में आज भी गाये जाते हैं।[4]

चेतक की वीरता[संपादित करें]

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्यामनारायण पाण्डेय ने 'चेतक की वीरता' नाम से एक सुन्दर कविता लिखी है-

रणबीच चौकड़ी भर-भर करचेतक बन गया निराला थाराणाप्रताप के घोड़े सेपड़ गया हवा का पाला थाजो तनिक हवा से बाग हिलीलेकर सवार उड़ जाता थाराणा की पुतली फिरी नहींतब तक चेतक मुड़ जाता था गिरता न कभी चेतक तन परराणाप्रताप का कोड़ा थावह दौड़ रहा अरिमस्तक परवह आसमान का घोड़ा थाथा यहीं रहा अब यहाँ नहींवह वहीं रहा था यहाँ नहींथी जगह न कोई जहाँ नहींकिस अरि मस्तक पर कहाँ नहीं निर्भीक गया वह ढालों मेंसरपट दौडा करबालों मेंफँस गया शत्रु की चालों मेंबढ़ते नद सा वह लहर गयाफिर गया गया फिर ठहर गयाविकराल वज्रमय बादल साअरि की सेना पर घहर गया। भाला गिर गया गिरा निशंगहय टापों से खन गया अंगबैरी समाज रह गया दंगघोड़े का ऐसा देख रंग

हल्दीघाटी के वीर योद्धा[संपादित करें]

  • महाराणा प्रताप
  • भीम सिंह डोडिया
  • राणा पूंजा
  • हकीम खाँ सूरी
  • भामाशाह
  • झालामान
  • शालिवान सिंह तोमर
  • आचार्य राघवेन्द्र

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Tod, James (1873). Annals and Antiquities of Rajast'han, Or, The Central and Western Rajpoot States of India (अंग्रेज़ी में). Higginbotham and Company. अभिगमन तिथि 1 मार्च 2020.
  2. Chandra, Yashaswini (2021-01-22). The Tale of the Horse: A History of India on Horseback (अंग्रेज़ी में). Pan Macmillan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-89109-92-4.
  3. ↑ अ आ Gadhvi, Priyvrat (2020-05-26). "HISTORICAL REFERENCES TO THE HORSE IN INDIA". Influx of the Kathiawari into Mewar was historically older, and apart from Charan traders regularly trading horses (a sub-class of Charans are known as ‘sauda’ barhats, such as those from Soniyana village in Mewar)... According to popularly held folk-view and backed by historical logic, Chetak was a Kathiawari stallion, presented as a young foal to Rana Pratap along with his older sibling Natak by Danti Charan traders. Chetak was believed to be bred at the Kathi darbar’s place in Bhimora village, in Chotila taluka of Surendranagar district. The Danti Charan traders were originally from village Khod near Chotila and subsequently were given grants of villages Gadhwada and Bhanol in Mewar. Till very recently, their descendants in these villages must have been well aware of this history. There is a story, perhaps apocryphal, of Rana Pratap selecting Chetak based on the spirit displayed by Natak when he was tested for swiftness of response.
  4. Rima, Hooja (1 मार्च 2020). Maharana Pratap : the invincible warrior. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9386228963.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • LEGENDARY MAHARAJAS AND THEIR HORSES - LAPOLO[मृत कड़ियाँ]

महाराणा प्रताप के घोड़े की मौत कैसे हुई?

हल्दी घाटी-(१५७६) के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल वह एक बरसाती नाला उलांघ कर अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ।

महाराणा प्रताप के घोड़े की मृत्यु कब हुई थी?

हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना से अपने स्वामी महाराणा प्रताप की जान की रक्षा के लिए चेतक 25 फीट गहरे दरिया से कूद गया था। हल्दीघाटी में बुरी तरह घायल होने पर महाराणा प्रताप को रणभूमि छोड़नी पड़ी थी और अंत में इसी युद्धस्थल के पास चेतक घायल हो कर उसकी मृत्यु हो गई।

महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने कितनी लंबी छलांग लगाई थी?

4. अपना एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए चेतक बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।