लेखक: सुदर्शन भगवान ही जानता है कि जब मैं किसी को साइकिल की सवारी करते या हारमोनियम बजाते देखता हूं तब मुझे अपने ऊपर कैसी दया आती है. सोचता हूं, भगवान ने ये दोनों विद्याएं भी ख़ूब बनाई हैं. एक से समय बचता है, दूसरी से समय कटता है. मगर तमाशा देखिए, हमारे प्रारब्ध में कलियुग की ये दोनों विद्याएं नहीं लिखी गईं. न साइकिल
चला सकते हैं, न बाजा ही बजा सकते हैं. पता नहीं, कब से यह धारणा हमारे मन में बैठ गई है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, मगर ये दोनों काम नहीं कर सकते हैं. हमने ज़रा रोब से कहा,‘आख़िर बाइसिकिल से एक दो बार गिरेंगे या नहीं? और गिरने से कपड़े फटेंगे या नहीं? जो मूर्ख हैं, वो नए कपड़ों का नुकसान कर बैठते हैं. जो बुद्धिमान हैं, वो पुराने कपड़ों से काम चलाते हैं. मालूम होता है हमारी इस युक्ति का कोई जवाब हमारी स्त्री के पास न था, क्योंकि उन्होंने उसी समय मशीन मंगवाकर उन कपड़ों की मरम्मत शुरू कर दी. हमने इधर बाजार जाकर जंबक के दो डिब्बे खरीद लिए कि चोट लगते ही उसी समय इलाज किया जा सके. इसके बाद जाकर एक खुला मैदान तलाश किया, ताकि दूसरे दिन से साइकिल-सवारी का अभ्यास किया जा सके. अब यह सवाल हमारे सामने था कि अपना उस्ताद किसे बनाएं. इसी उधेड़बुन में बैठे थे कि तिवारी लक्ष्मीनारायण आ गए और बोले,‘क्यों भाई हो जाए एक बाजी शतरंज की?’ हमने सिर हिलाकर जवाब दिया, ‘नहीं साहब! आज तो जी नहीं चाहता.’ ‘क्यों?’ ‘यदि जी न चाहे तो क्या करें?’ यह कहते कहते हमारा गला भर आया. तिवारी जी का दिल पसीज गया. हमारे पास बैठकर बोले, ‘अरे भाई मामला क्या है? स्त्री से झगड़ा तो नहीं हो गया?’ हमने कहा, ‘तिवारी भैया, क्या कहें? सोचा था, लाओ, साइकिल की सवारी सीख लें. मगर अब कोई ऐसा आदमी दिखाई नहीं देता जो हमारी सहायता करे. बताओ, है कोई ऐसा आदमी तुम्हारे ख़्याल में?’ तिवारी जी ने हमारी तरफ़ बेबसी की आंखों से ऐसे देखा, मानों हमको कोई खजाना मिल रहा है और वे खाली हाथ रह जाते हैं. बोले, ‘मेरी मानो तो यह रोग न पालो. इस आयु में साइकिल पर चढ़ोगे? और यह भी कोई सवारियों में कोई सवारी है कि डंडे पर उकड़ूं बैठे हैं और पांव चला रहे हैं. अजी लानत भेजो इस ख़्याल पर आओ एक बाजी खेलें.’ मगर हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थी. साफ समझ गए कि तिवारी ईर्ष्या की आग में फुंका जाता है. मुंह फुलाकर हमने कहा, ‘भाई तिवारी हम तो जरूर सीखेंगे. कोई आदमी बताओ.’ ‘आदमी तो है ऐसा एक, मगर वह मुफ्त में नहीं सिखाएगा. फीस लेगा. दे सकोगे?’ ‘कितने दिन में सिखा देगा?’ ‘यही दस-बारह दिनों में!’ ‘और फीस क्या लेगा हमसे?’ ‘औरों से पचास लेता है. तुमसे बीस ले लेगा हमारी खातिर.’ हमने सोचा दस दिन सिखाएगा और बीस रुपये लेगा. दस दिन बीस रुपये. बीस रुपये-दस दिन. अर्थात् दो रुपये रोजाना अर्थात् साठ रुपये महीना और वो भी केवल एक दो घंटे के लिए. ऐसी तीन चार ट्यूशनें मिल जाएं तो ढाई-तीन सौ रुपये मासिक हो जाएंगे. हमने तिवारी जी से तो इतना ही कहा कि जाओ जाकर मामला तय कर आओ, मगर जी में खुश हो रहे थे कि साइकिल चलाना सीख गए तो एक ट्रेनिंग स्कूल खोल दें और तीन-चार सौ रुपये मासिक कमाने लगे. इधर तिवारी जी मामला तय करने गए इधर हमने यह शुभ समाचार जाकर श्रीमती जी को सुना दिया कि कुछ दिनों में हमलोग ऐसा स्कूल खोलने वाले हैं जिससे तीन-चार सौ रुपये मासिक आमदनी होगी. श्रीमती जी बोली, ‘तुम्हारी इतनी आयु हो गई मगर ओछापन न गया. पहले आप तो सीख लो, फिर स्कूल खोलना. मैं तो समझती हूं कि तुम ही न सीख सकोगे दूसरों को सिखाना तो दूर की बात है.’ हमने बिगड़कर कहा, ‘यह बड़ी बुरी बात है कि हर काम में टोक देती हो. हमसे बड़े बड़े सीख रहे हैं तो क्या हम न सीख सकेंगे? पहले तो शायद सीखते या न सीखते, पर अब तुमने टोका है तो जरूर सीखेंगे. तुम भी क्या कहोगी.’ श्रीमती जी बोली, ‘मैं तो चाहती हूं कि तुम हवाई जहाज चलाओ. यह बाइसिकिल क्या चीज है? मगर तुम्हारे स्वभाव से डर लगता है. एक बार गिरोगे, तो देख लेना वहीं साइकिल फेंक-फांककर चले आओगे.’ इतने में तिवारी जी ने बाहर से आवाज दी. हमने बाहर जाकर देखा तो उस्ताद साहब खड़े थे. हमने शरीफ विद्यार्थियों के समान श्रद्धा से हाथ जोड़ का प्रणाम किया और चुपचाप खड़े हो गए. तिवारी जी बोले, ‘यह तो बीस पर मान ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से मनाया है. पेशगी लेंगे. कहते हैं, पीछे कोई नहीं देता.’ अब हम साइकिल चलाते थे और दिल ही दिल फूले न
समाते थे. मगर हाल यह था कि कोई आदमी सौ गज के फासले पर होता तो हम गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना शुरू कर देते-साहब! बाईं तरफ़ हट जाइए. दूर फासले पर कोई गाड़ी दिख जाती तो हमारे प्राण सूख जाते. उस समय हमारे मन की जो दशा होती वो परमेश्वर ही जानता है. जब गाड़ी निकल जाती तब कहीं जाकर हमारी जान में जान आती. सहसा सामने से तिवारी जी आते हुए दिखे. हमने उन्हें भी दूर से ही अल्टीमेटम दिया कि तिवारी जी, बाईं तरफ़ हो जाओ, वरना साइकिल तुम्हारे ऊपर चढ़ा देंगे. आरेखन साभार: पिंटरेस्ट Next Story लेखक के मन में साइकिल सीखने का ख्याल क्यों आया?इसलिए लेखक ने साइकिल चलाना सीख लेने का निर्णय किया । सन् 1932 की बात है। लेखक के मन में ख्याल आया कि क्या हमी जमाने भर में फिसड्डी रह गए हैं कि साइकिल नहीं चला सकते। इस कारण उन्होंने निश्चय कर लिया कि चाहे जो भी हो जाए, साइलिक चलाना सीखेंगे।
लेखक ने साइकिल कहाँ और क्यों सीखने का निश्चय किया?साइकिल चलाना सीखने के लिए लेखक ने अनेक तैयारियां की । सबसे पहले लेखक ने अपने लिए कपड़े बनवाए फिर अपने उस्ताद को ठीक किया। उसके बाद लेखक कहीं से एक साइकिल मांग कर लेकर आया और जेबक के दो डब्बे भी खरीद कर लाया।
लेखक ने साइकिल सीखने के लिए कौन कौन सी तैयारी की थी?लेखक ने साइकिल सीखने के लिए कौन-कौन-सी तैयारियाँ की? उत्तर: लेखक ने साइकिल सीखने के लिए कपडे बनवाये । उस्ताद ठीक किए ।
लेखक को साइकिल सीखने का विचार कैसे आया?Expert-Verified Answer. लेखक के मन में साइकिल सीखने के ख्याल क्यों आया ? लेखक के मन में साइकिल चलाने का ख्याल बैठे-बैठे आया , चलो साइकिल चलाना सीख लें | जब उन्होंने अपने बेटे को साइकिल चलाते हुए देखा , तब उन्हें अहसास हुआ कि जब मुझसे छोटे साइकिल चलाना सीख सकते है , तो मैं क्यों नहीं सीख सकता ?
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