कविता का मुख्य तत्व क्या है? - kavita ka mukhy tatv kya hai?

कविता के प्रमुख तत्व हैंः

  1. रस, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व।
  2. रस, आनन्द, अनुभूति, व्यंजना इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व
  3. रस, आनन्द, लक्षणा, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व
  4. अभिधा, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व।

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Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : रस, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व।

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MP Police Constable: Memory Based Paper: 8 Jan 2022 Shift 1

100 Questions 100 Marks 120 Mins

 

उपरोक्त विकल्पों में से सही उत्तर विकल्प 1 'रस, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व' है। अन्य विकल्प सही उत्तर नहीं हैं।

 

कविता का मुख्य तत्व क्या है? - kavita ka mukhy tatv kya hai?

  • कविता के प्रमुख तत्व हैंः रस, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व।
  • काव्‍य के अव्यव से हमारा तात्पर्य उन तत्त्वों से है जिनसे मिलकर कविता बनती है, अथवा कविता पढ़ते समय जिन तत्त्वों पर मुख्य रूप से हमारा ध्यान आकर्षित होता है।
  • आधुनिक काल तक आते-आते इन अवयवों के विषय में विद्धानों की मान्यता बदल गई। छंद, रीति, रस और अलंकारों पर विषेश ध्यान नहीं दिया गया। इसके स्थान पर कविता में कथ्य अर्थात् कही जाने वाली बात और विचार-दृष्टि अर्थात् कवि के चिंतन को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा। किंतु उपर्युक्त अव्यवों को पूरी तरह बेकार साबित करके इन्हें कविता से अलग नहीं किया जा सकता।
  • इसीलिए कविता के बारे में अब कहा जाने लगा है कि काव्य का अंतरंग उसका बोधपक्ष (भाव पक्ष) है और बहिरंग कलापक्ष (शिल्प सौंदर्य)। दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। अंतरंग काव्य को उत्कर्षमय बनाते हैं तो बहिरंग कलापक्ष को सार्थकता प्रदान करते हैं।

कविता का मुख्य तत्व क्या है? - kavita ka mukhy tatv kya hai?
Additional Information

कविता की परिभाषा  कविता वह साधन है जिसके द्वारा सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। कविता में भावों एवं कल्पना की प्रधानता रहती है। कविता मे कवि की अनुभूति की अभिव्यक्ति रहती हैं।

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Last updated on Sep 26, 2022

The Madhya Pradesh Professional Education Board is very soon going to release the notification for recruitment for the post of MP Police SI (Sub-Inspector). In the last recruitment cycle, a total of 611 vacancies were released. The expected vacancy this year is to be much higher than that of the previous cycle. The candidates must be at least 18 years old to be able to apply for the post. The candidates can go through the MP Police SI Syllabus and Exam Pattern to have a better understanding of the requirements of the exam.

कविता का मुख्य तत्व क्या है? - kavita ka mukhy tatv kya hai?

कविता

कविता पद्यात्मक एवं छन्द-बद्ध होती है। चिन्तन की अपेक्षा, उसमें भावनाओं की प्रधानता होती है। उसका आनन्द सृजन करता है। इसका उद्देश्य सौन्दर्य की अनुभूति द्वारा आनन्द की प्राप्ति है। आनुषंगिक रूप से कविता द्वारा भाषा की भी समृद्धि होती है, परन्तु मूलतः वह आनन्द का साधन है। तर्क, युक्ति एवं चमत्कार आदि का आश्रय न लेकर कवि रसानुभूति का समवेत प्रभाव उत्पन्न करता है।

अतः कविता में यथार्थ का यथारूप चित्रण नहीं मिलता वरन् यथार्थ को कवि जिस रूप में देखता है तथा जिस रूप में उससे प्रभावित होता है, उसी का चित्रण करता है। कवि का सत्य सामान्य सत्य से भिन्न प्रतीत होता है। वह इसी प्रभाव को दिखाने के लिए अतिशयोक्ति का सहारा भी लेता है; अत: काव्य में अतिशयोक्ति भी दोष न होकर अलंकार बन जाती है।

कविता की विधाएँ

कविता की एक नहीं बल्कि कई सारी विधाएं होती है जैसे- गीत, दोहा, भजन, गज़ल, इत्यादि विधाएं हैं।

कविता के विषय

मूलतः मानव ही काव्य का विषय है। जब कवि पशु-पक्षी अथवा प्रकृति का वर्णन करता है, तब भी वह मानव-भावनाओं का ही चित्रण करता है। व्यक्ति और समाज के जीवन का कोई भी पक्ष काव्य का विषय बन सकता है। आज के कवि का ध्यान जीवन के सामान्य एवं उपेक्षित पक्ष की ओर भी गया है। उसके विषय महापुरुषों तक ही सीमित नहीं हैं, अपितु वह छिपकली, केंचुआ आदि पर भी काव्य-रचना करने लगा है। काव्य के उन्नत विषय, भाव, विचार, आदर्श-जीवन और उसमें निहित संदेश कविता को स्थायी, महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावकारी बनाने में अधिक समर्थ होते हैं।

कविता और संगीत

कविता छन्द-बद्ध रचना है। छन्द उसे संगीत प्रदान करता है। छन्द की लय यति-गति, वर्गों की आवृत्ति, तुकान्त पदावली इस संगीत के प्रमुख तत्व हैं किन्तु संगीत और काव्य के क्षेत्र अलग-अलग है। संगीत का आनन्द मूलतः नाद का आनन्द है, जबकि काव्य में मूल आनन्द अर्थ का है। उसमें नाद-सौन्दर्य अर्थ का ही अनुगामी होता है और रसानुभूति में सहायक बनता है।

सादृश्य-विधान

कविता भाव-प्रधान होती है। अपने भावों को पाठक के हृदय तक पहुँचाने के लिए कवि वर्ण्य-विषयों के सदृश अन्य वस्तु-व्यापार प्रस्तुत करता है, जैसे-कमल के सदृश नेत्र, चन्द्र-सा मुख, सिंह के समान वीर। इसी को सादृश्य-विधान या अप्रस्तुत-योजना कहते हैं।

शब्द-शक्ति

शब्द का अर्थ– बोध कराने वाली शक्ति ही शब्द-शक्ति है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ही शब्द-शक्ति है। शब्द शक्तियाँ तीन हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। अभिधा से मुख्यार्थ का बोध होता है तथा मुख्यार्थ में बाधा होने पर लक्षणा का आश्रय लेना पड़ता है। लक्ष्यार्थ का बोध कराने वाली शब्द-शक्ति लक्षणा कहलाती है। व्यंजना शब्द-शक्ति ध्वनि पर आधारित है। इसमें अर्थ ध्वनित होता है। कवि का अभिप्रेत अर्थ मुख्यार्थ तक ही सीमित नहीं रहता।

काव्यानन्द लेने हेतु शब्दों के लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ तक पहुँचना आवश्यक होता है। कवि फूलों को हँसता हुआ और मुख को मुरझाया हुआ कहना पसन्द करते हैं, जबकि सामान्यतः हँसना मनुष्य के लिए प्रयुक्त होता है और मुरझाना फूल के लिए परन्तु मुख्यार्थ जाने बिना हम लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ तक नहीं पहँच सकते। कवि बड़ी सावधानी से शब्द-चयन करता है। कविता के शब्दों का आग्रह जिधर सहज रूप में बढ़े, पाठक अथवा श्रोता को उधर ही अभिमुख होना चाहिए।

कविता के सौन्दर्य तत्व

काव्य-भाषा: काव्य-भाषा सामान्य भाषा से अलग होती है। उसमें रागात्मकता, प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता नादात्मकता आदि तत्व होते हैं। वह सामान्य भाषा की तुलना में विचलित और अटपटी, सुसंस्कृत और परिमार्जित, स्वच्छंद और लचीली तथा जीवंत और प्रभावी होती है। अनुभूति को प्रेषणीय बनाने के लिए कवि भाषा के नए प्रयोग भी करता है। कवि के लिए नितांत आवश्यक तत्व हैं-प्रेषणीयता। इस उद्देश्य के लिए वह सामान्य भाषा से काव्य-भाषा को विचलित कर देता है। शब्द के स्तर पर उपलब्ध अनेक विकल्पो में से वह ऐसे विकल्प का चयन करता है, जो उसकी अनुभूति को भली-भाँति व्यक्त करने में समर्थ होता है।

काव्य-भाषा में चित्रोपम एवं बिम्ब-विधायिनी शक्ति भी होती है। सफल कवि वही है, जो दृश्य का इस प्रकार वर्णन करे कि पाठकों की कल्पना के समक्ष उसका चित्र उपस्थित हो जाए। काव्य-भाषा में सुकुमारता, कोमलता और नाद-सौन्दर्य विद्यमान होता है, साथ ही उसमें रसानुकूल वर्ण-योजना भी की जाती है।

कविता के सौन्दर्य-तत्व हैं:

  1. भाव-सौन्दर्य
  2. विचार-सौन्दर्य
  3. नाद-सौन्दर्य
  4. अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य

1. भाव-सौन्दर्य

प्रेम, करुणा, क्रोध, हर्ष, उत्साह आदि का विभिन्न परिस्थितियों में मर्मस्पर्शी चित्रण ही भाव-सौन्दर्य है। भाव-सौन्दर्य को ही साहित्य-शास्त्रियों ने रस कहा है। प्राचीन आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा माना है।

शृंगार, वीर, हास्य, करुण, रौद्र, शान्त, भयानक, अद्भुत और वीभत्स, नौ रस कविता में माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने वात्सल्य और भक्ति को भी अलग रस माना है। सूर के बाल-वर्णन में वात्सल्य का, गोपी-प्रेम में श्रृंगार का, भूषण की ‘शिवा बावनी’ में वीर रस का चित्रण है। भाव, विभाव और अनुभाव के योग से रस की निष्पत्ति होती है।

2. विचार-सौन्दर्य

विचारों की उच्चता से काव्य में गरिमा आती है। गरिमापूर्ण कविताएँ प्रेरणादायक भी सिद्ध होती हैं। उत्तम विचारों एवं नैतिक मूल्यों के कारण ही कबीर, रहीम, तुलसी और वृन्द के नीतिपरक दोहे और गिरधर की कुण्डलियाँ अमर हैं। इनमें जीवन की व्यावहारिक-शिक्षा, अनुभव तथा प्रेरणा प्राप्त होती है।

आज की कविता में विचार-सौन्दर्य के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं। गुप्तजी की कविता में राष्ट्रीयता और देश-प्रेम आदि का विचार-सौन्दर्य है। ‘दिनकर‘ के काव्य में सत्य, अहिंसा एवं अन्य मानवीय मूल्य हैं। ‘प्रसाद‘ की कविता में राष्ट्रीयता, संस्कृति और गौरवपूर्ण ‘अतीत के रूप में वैचारिक सौन्दर्य देखा जा सकता है।

आधुनिक प्रगतिवादी एवं प्रयोगवादी कवि जनसाधारण का चित्रण, शोषितों एवं दीन-हीनों के प्रति सहानुभूति तथा शोषकों के प्रति विरोध आदि प्रगतिवादी विचारों का ही वर्णन करते हैं।

3. नाद-सौन्दर्य

कविता में छन्द नाद-सौन्दर्य की सृष्टि करता है। छन्द में लय, तुक, गति और प्रवाह का समावेश सही है। वर्ण और शब्द के सार्थक और समुचित विन्यास से कविता में नाद-सौन्दर्य और संगीतात्मकता अनायास आ जाती है एवं कविता का सौन्दर्य बढ़ जाता है। यह सौन्दर्य श्रोता और पाठक के हृदय में आकर्षण पैदा करता है। वर्णों की बार-बार आवृत्ति (अनुप्रास), विभिन्न अर्थ वाले एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग (यमक) से कविता में नाद-सौन्दर्य का समावेश होता है, जैसे-

खग-कुल कुलकुल सा बोल रहा।
किसलय का अंचल डोल रहा॥

यहाँ पक्षियों के कलरव में नाद-सौन्दर्य देखा जा सकता है। कवि ने शब्दों के माध्यम से नाद-सौन्दर्य के साथ पक्षियों के समुदाय और हिलते हुए पत्तों का चित्र प्रस्तुत किया है। ‘घन घमण्ड नभ गरजत घोरा‘ अथवा ‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि‘ में मेघों का गर्जन-तर्जन तथा नूपुर की ध्वनि का सुमधुर स्वर क्रमशः है। इन दोनों ही स्थलों पर नाद-सौन्दर्य ने भाव भी स्पष्ट किया है और नाद-बिम्ब को साकार कर भाव को गरिमा भी प्रदान की है।

बिहारी के निम्नलिखित दोहे में वायु रूपी कुंजर की चाल का वर्णन है। भ्रमरों की ध्वनि में हाथी के घण्टे की ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। कवि की शब्द-योजना में एक चित्र-सा साकार हो उठा है।

रनित भंग घण्टावली झरित दान मधु नीर।
मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर॥

इसी प्रकार ‘घनन घनन बज उठी गरज तत्क्षण रणभेरी‘ में मानो रणभेरी प्रत्यक्ष ही बज उठी है। आदि, मध्य अथवा अन्त में तुकान्त शब्दों के प्रयोग से भी नाद-सौन्दर्य उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ-

ढलमल ढलमल चंचल अंचल झलमल झलमल तारा।

इन पंक्तियों में नदी का कल-कल निनाद मुखरित हो उठा है। पदों की आवृत्ति से भी नाद-सौन्दर्य में वृद्धि होती है, जैसे-

हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा।
हमकौं लिख्यौ है कहा, कहन सबै लगीं।

4. अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य

कवि विभिन्न दृश्यों, रूपों तथा तथ्यों को मर्मस्पर्शी और हृदयग्राही बनाने के लिए अप्रस्तुतों का सहारा लेता है। अप्रस्तुत-योजना में यह आवश्यक है कि उपमेय के लिए जिस उपमान की, प्रकृत के लिए जिस अप्रकृत की और प्रस्तुत के लिए जिस अप्रस्तुत की योजना की जाए, उसमें सादृश्य अवश्य होना चाहिए।

सादृश्य के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि उसमें जिस वस्तु, व्यापार एवं गुण के सदृश जो वस्तु, व्यापार और गुण लाया जाए, वह उसके भाव के अनुकूल हो। इन अप्रस्तुतों के सहयोग से कवि भाव-सौन्दर्य की अनुभूति को सहज एवं सुलभ बनाता है। कवि कभी रूप-साम्य, कभी धर्म-साम्य और कभी प्रभाव-साम्य के आधार पर दृश्य-बिम्ब उभारकर सौन्दर्य व्यंजित करता है। यथा-

रूप-साम्य

करतल परस्पर शोक से, उनके स्वयं घर्षित हुए,
तब विस्फुटित होते हुए, भुजदण्ड यों दर्शित हुए,
दो पद्म शुण्डों में लिए, दो शुण्ड वाला गज कहीं,
मर्दन करे उनको परस्पर, तो मिले उपमा कहीं।

शुण्ड के समान ही भुजदण्ड भी प्रचण्ड हैं तथा करतल अरुण तथा कोमल हैं, यह प्रभाव आकार-साम्य से ही उत्पन्न हुआ है।

धर्म-साम्य

नवप्रभा परमोज्ज्वलालीक सी गतिमती कुटिला फणिनी समा।
दमकती दुरती धन अंक में विपुल केलि कला खनि दामिनी॥

फणिनी (सर्पिणी) और दामिनी दोनों का धर्म कुटिल गति है। दोनों ही आतंक का प्रभाव उत्पन्न करती हैं।

भाव-साम्य

प्रिय पति, वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,
वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है?

यशोदा की विकलता को व्यक्त करने के लिए कवि ने कृष्ण को दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा, प्राण-प्यारा, नेत्र-तारा, हृदय हमारा कहा है।

निम्नलिखित पंक्तियों में सादृश्य से श्रद्धा के सहज सौन्दर्य का चित्रण किया है। मेघों के बीच जैसे बिजली तड़पकर चमक पैदा कर देती है, वैसे ही नीले वस्त्रों से घिरी श्रद्धा का सौन्दर्य देखने वाले के मन पर प्रभाव डालता है-

नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग॥

इसी प्रकार-

लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु युग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ॥

लता-भवन से प्रकट होते हुए दोनों भाइयों की उत्प्रेक्षा मेघ-पटल से निकलते हुए दो चन्द्रमाओं से की गयी है।

काव्यास्वादन

कविता का आस्वादन उसके अर्थ-ग्रहण में है; अतः पहले शब्दों का मुख्यार्थ समझना आवश्यक है। मुख्यार्थ समझने के लिए अन्वय करना भी आवश्यक है, क्योंकि कविता की वाक्य-संरचना में प्रायः शब्दों का वह क्रम नहीं रहता, जो गद्य में होता है; अत: अन्वय से शब्दों का परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है और अर्थ खुल जाता है। इस प्रक्रिया में शब्द के वाच्यार्थ के साथ-साथ उसमें निहित लक्ष्यार्थ और व्यङ्गार्थ भी स्पष्ट हो जाते हैं।

कभी-कभी कवि कविता में ऐसे शब्दों का साभिप्राय प्रयोग करता है, जिनके स्थान पर उनके पयार्य नहीं रखे जा सकते। कभी-कभी एक शब्द के एकाधिक अर्थ होते हैं तथा सभी उस प्रसंग में लागू होते हैं, कभी एक ही शब्द अलग-अलग अर्थों में एकाधिक बार प्रयुक्त होता है, कभी विरोधी शब्दों का प्रयोग भाव-वृद्धि के लिए किया जाता है और कभी एक ही प्रसंग के कई शब्द एक साथ आते हैं। ऐसे शब्दों की ओर ध्यान देकर अपेक्षित अर्थ जानना चाहिए।

कविता के जिन तत्वों का उल्लेख किया गया है, उनके संदर्भ में कविता के आस्वादन का प्रयास करना चाहिए।

काव्यास्वादन हेतु बार-बार सस्वर पढ़ना चाहिए, एतदर्थ आवश्यक है-

  1. कविता के मूलभाव को समझकर उसे अपने शब्दों में लिखना।
  2. रस, अलंकार, गुण और छन्द आदि को समझकर कविता में इनकी उपयोगिता को हृदयंगम करना।
  3. अच्छे भाव वाले पदों को कण्ठस्थ करना तथा उनका सस्वर पाठ करना।

काव्य के भेद

काव्य के मुख्य दो भेद हैं- श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य।

  1. श्रव्य-काव्य: श्रव्य-काव्य वह काव्य है, जो कानों से सुना जाता है। श्रव्य-काव्य के दो भेद है- प्रबन्ध-काव्य और मुक्तक-काव्य। प्रबन्ध-काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य, खण्डकाव्य तथा आख्यानक गीतियाँ आती हैं। मुक्तक-काव्य के भी दो भेद हैं- पाठ्य-मुक्तक तथा गेय-मुक्तक।
  2. दृश्य-काव्य: दृश्य-काव्य वह है, जो अभिनय के माध्यम से देखा-सुना जाता है, जैसे नाटक।

प्रबन्ध-काव्य

1. महाकाव्य

प्राचीन आचार्यों के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं-

महाकाव्य में जीवन का चित्रण व्यापक रूप में होता है। इसकी कथा इतिहास-प्रसिद्ध होती है। इसका नायक उदात्त और महान् चरित्र वाला होता है। इसमें वीर, शृंगार तथा शान्तरस में से कोई एक रस प्रधान तथा शेष रस गौण होते हैं। महाकाव्य सर्गबद्ध होता है, इसमें कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य की कथा में धारावाहिकता तथा हृदय को भाव-विभोर करने वाले मार्मिक प्रसंगों का समावेश भी होना चाहिए।

आधुनिक युग में महाकाव्य के प्राचीन प्रतिमानों में परिवर्तन हुआ है। अब इतिहास के स्थान पर मानव-जीवन की कोई भी घटना, कोई भी समस्या, इसका विषय हो सकती है। महान् पुरुष के स्थान पर समाज का कोई भी व्यक्ति इसका नायक हो सकता है। परन्तु उस पात्र में विशेष क्षमताओं का होना अनिवार्य है। हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध महाकाव्य हैं- ‘पद्मावत’, ‘रामचरितमानस’, ‘साकेत’, ‘प्रियप्रवास’, ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’, ‘लोकायतन’।

2. खण्डकाव्य

खण्डकाव्य में नायक के जीवन के व्यापक चित्रण के स्थान पर उसके किसी एक पक्ष, अंश अथवा रूप का चित्रण होता है। लेकिन महाकाव्य का संक्षिप्त रूप अथवा एक सर्ग खण्डकाव्य नहीं होता है। खण्डकाव्य में अपनी पूर्णता होती है। पूरे खण्डकाव्य में एक ही छन्द का प्रयोग होता है।

‘पंचवटी’, ‘जयद्रथ-वध’, ‘नहुष’, ‘सुदामा-चरित’, ‘पथिक’, ‘गंगावतरण’, ‘हल्दीघाटी’, ‘जय हनुमान’ आदि हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध खण्डकाव्य हैं।

3. आख्यानक गीतियाँ

महाकाव्य और खण्डकाव्य से भिन्न पद्यबद्ध कहानी का नाम आख्यानक गीति है। इसमें वीरता, साहस, पराक्रम, बलिदान, प्रेम और करुणा आदि से सम्बन्धित प्रेरक घटनाओं का चित्रण होता है। इसकी भाषा सरल, स्पष्ट और रोचक होती है। गीतात्मकता और नाटकीयता इसकी विशेषताएँ हैं। ‘झाँसी की रानी’, ‘रंग में भंग’, “विकट भद’ आदि रचनाएँ आख्यानक गीतियों में आती हैं।

मुक्तक-काव्य

मुक्तक-काव्य महाकाव्य और खण्डकाव्य से भिन्न प्रकार का होता है। इसमें एक अनुभूति एक भाव या कल्पना का चित्रण किया जाता है। इसमें महाकाव्य या खण्डकाव्य जैसी धारावाहिता नहीं होती। फिर भी वर्ण्य-विषय अपने में पूर्ण होता है। प्रत्येक छन्द स्वतन्त्र होता है। जैसे कबीर, बिहारी, रहीम के दोहे तथा सूर और मीरा के पद।

1. पाठ्य-मुक्तक

इसमें विषय की प्रधानता रहती है। किसी मुक्तक में किसी प्रसंग को लेकर भावानुभ का चित्रण होता है और किसी मुक्तक में किसी विचार अथवा रीति का वर्णन किया जाता है। कबीर, तुलसी, रहीम के भक्ति एवं नीति के दोहे तथा बिहारी, मतिराम, देव आदि की रचनाएँ इसी कोटि में आती हैं।

2. गेय-मुक्तक

इसे गीतिकाव्य या प्रगीति भी कहते हैं। यह अंग्रेजी के लिरिक का समानार्थी है। इसमें भावप्रवणता, आत्माभिव्यक्ति, सौन्दर्यमयी कल्पना, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि गुणों की प्रधान होती है।

हिन्दी पद्य साहित्य का इतिहास

हिन्दी पद्य साहित्य के इतिहास को विद्वानों ने मुख्यतः चार भागों में बांटा है। यह विभाजन युग-विशेष की प्रमुख साहित्यिक प्रव्रत्तियों के आधार पर किया गया है-

  1. आदिकाल (वीरगाथा काल): 800 वि. स. से 1400 वि. स. तक
  2. पूर्व मध्य काल (भक्तिकाल): 1400 वि. स. से 1700 वि. स. तक
  3. उत्तर मध्य काल (रीतिकाल): 1700 वि. स. से 1900 वि. स. तक
  4. आधुनिक काल: 1900 वि. स. से अब तक

कविता की विशेषताएँ

  • सबसे पहले, कविता में कविता को एक कविता में एक  रेखा, वाक्यांश या वाक्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है यानि की काव्य के गुण या लय के साथ।
  • दूसरा एक मूल रूप से पहले का विस्तारित संस्करण है।
  • पद्य को एक काव्य स्वर समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है या एक कविता में संपूर्ण छंद भी हो सकता है।
  • तीसरा, ‘कविता’ शब्द भी कविता के एक टुकड़े का एक अंश हो सकता है जिसे कविता का विनाशकारी आघात माना जाता है।
  • अंत में, कविता में कविता केवल एक ऐसी चीज है जो एक संवादी या अभियोगात्मक व्याख्या नहीं है।
  • अनेक विधाएं हैं- गीत, गजल, दोहा, भजन आदि।
  • अपने जीवन के अनुभव को हम गीत काव्य के रूप में व्यक्त करते है।
  • गज़ल उर्दू भाषी द्वारा अधिक रचा जाता है।
  • दो पद जिसमें होते हैं उसे दोहा कहते हैं और इसमें चरण भी दो होते हैं।

इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूल कर, विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।

कविता कैसे लिखे?

कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरुप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास के हमारे मनोविकार का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।

जिस प्रकार जगत अनेक रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इस अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाय। इन्हीं भावों के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत के साथ तादात्मय का अनुभव चिरकाल से करती चली आई है।

जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पा कर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है।

अतः काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं| इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्ही मूल रूपों में और व्यापारों में परिणत करना पड़ता है। जबतक वे इन मूल मार्मिक रूपों में नहीं लाये जाते तब तक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पड़ती।

वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, फूस, शाखा, पशु, पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र इत्यादि ऐसे ही चिर-सहचर रूप हैं।

खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़े, चौपाये इत्यादि भी कुछ कम पुराने नहीं हैं। इसी प्रकार पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का घिरना, नदी का उमड़ना, मेह का बरसाना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से बांह पकड़ कर निकालना, हाथ से खिलाना, आग में झोंकना, गला काटना ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य जाति के भावों के साथ अत्यंत प्राचीन साह्चर्य्य है।

ऐसे आदि रूपों और व्यापारों में वंशानुगत वासना की दीर्घ-परंपरा के प्रभाव से, भावों के उद्बोधन की गहरी शक्ति संचित है; अतः इसके द्वारा जैसा रस-परिपाक संभव है वैसा कल-कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज ऐसी वस्तुओं तथा अनाथालय के लिए चेक काटना, सर्वस्वहरण के लिए जाली दस्तावेज़ बनाना, मोटर की चरखी घुमाना या एंजिन में कोयला झोंकना आदि व्यापारों द्वारा नहीं।

अन्य हिन्दी साहित्य की विधाएँ

नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, आलोचना, निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा, जीवनी, डायरी, यात्रा व्रत्त, रिपोर्ताज, कविता

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Kavita के प्रमुख तत्व कौन कौन से हैं?

कविता के प्रमुख तत्व हैंः रस, आनन्द, अनुभूति, रमणीयता इत्यादि संवेदना से जुड़े तत्व। काव्‍य के अव्यव से हमारा तात्पर्य उन तत्त्वों से है जिनसे मिलकर कविता बनती है, अथवा कविता पढ़ते समय जिन तत्त्वों पर मुख्य रूप से हमारा ध्यान आकर्षित होता है। आधुनिक काल तक आते-आते इन अवयवों के विषय में विद्धानों की मान्यता बदल गई।

कविता का मूल तत्व क्या होता है?

कविता के तत्व कविता भाव प्रधान के माध्यम से मनुष्य अपनी हृदयगत अनुभूतियों को व्यक्त करता है, कविता के द्वारा जिन विचार, भाव, नीति, रस की अभिव्यक्ति होती है, वह कविता का भाव तत्व कहलाता है। जिसे अनुभूति तत्व भी कहते हैें।

कविता के कितने तत्व होते हैं?

Answer: काव्य का स्वरूप एवं भेद कविता के चार सौंदर्य तत्व है – भाव सौंदर्य , विचार सौंदर्य , नाद सौंदर्य और अप्रस्तुत – योजना का सौंदर्य।

कविता के तत्व का उद्देश्य क्या है?

कविता का उद्देश्य सौन्दर्यभाव को जागृत करना है। जिस सौन्दर्य को हम अपने आस - पास विद्यमान होते हुए भी अनुभव नहीं कर पाते उसे कविता के माध्यम से अनुभव करने लगते हैं। क्योंकि कविता श्रोता को एक सौन्दर्य बोधक दृष्टि प्रदान करती है और वे भाव - सौन्दर्य, शब्द सौन्दर्य तथा ध्वनि सौन्दर्य सभी की अनुभूति करने लगते हैं ।