भारत में क्षेत्रवाद की समस्या –भारतीय समाज में क्षेत्रवाद और साम्प्रदायिकता की समस्या स्वतन्त्रता के पश्चात् निरन्तर बढ़ती गयी और राष्ट्रीय एकीकरण के लिये घातक बन गयी। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में अनेक बाधायें आती हैं उनमें एक है क्षेत्रवाद। एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले व्यक्तियों में अपने क्षेत्र के प्रति विशेष लगाव होना स्वाभाविक है लेकिन यदि इसकी परिणति पृथक राष्ट्र के रूप में सामने आती है तो क्षेत्रवाद अभिशाप बन जाता है। भारत के सन्दर्भ में क्षेत्रवाद का तात्पर्य है किसी छोटे से क्षेत्र के प्रति विशेष लगाव। यह एक ऐसी धारणा है जो भाषा, धर्म, क्षेत्र आदि पर आधारित है और जो प्रायः विघटनकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करती है। क्षेत्रीयता की भावना पूरे देश में व्याप्त है जोकि प्रायः सुव्यवस्थित और सुनियोजित आन्दोलनों तथा अभियानों के रूप में प्रकट होती है। Show बोगार्डस के अनुसार “क्षेत्रवाद एक क्षेत्र में पायी जाने वाली कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक समानताओं पर आधारित होता है। यह क्षेत्र एक ही राष्ट्र या समाज का एक अंग हो सकता है अथवा इसके अन्तर्गत एकाधिक छोटे-मोटे ऐसे राष्ट्रों का भी समावेश हो सकता है जोकि अपनी भौगोलिक स्थिति, आर्थिक साधन, भाषा, धर्म तथा धर्म स्वार्थों के सम्बन्ध में समान हो।” भारत में क्षेत्रवाद की निम्नलिखित समस्यायें हैं- 1. स्वार्थपरताइसके कारण बुरा प्रभाव यह होता है अर्थात यह समस्या उत्पन्न होती है कि.. इसके कारण स्वार्थी नेतृत्व का विकास होता है और यह स्वार्थी नेतृत्व जनभावनाओं को भड़काते और राष्ट्रीयता के मार्ग में बाँधायें पैदा करते हैं। कभी भाषा के आधार पर तो कभी केन्द्रीय सहायता के आधार पर केन्द्र के ऊपर पक्षपात का आरोप लगाते हैं और इसके कारण आन्दोलन कर आन्दोलनों को प्रदान करते हैं जिसके फलस्वरूप न ही क्षेत्र का भला होता है और न ही देश का किन्तु इससे नेताओं का स्वार्थ अवश्य पूर्ण होता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह दूसरों के अहित के बारे में नहीं सोचत हैं इसलिये स्वार्थपरता के कारण क्षेत्रवाद की समस्या अधिक विकट रूप धारण किये हुये है। 2. भाषागत कठिनाईभारत में क्षेत्रवाद की समस्याओं के अन्तर्गत भाषागत कठिनाई की समस्या अत्यधिक विकट रूप धारण किये हुये है। अपनी भाषा के प्रति लगाव अच्छी बात है किन्तु इस कारण राष्ट्रभाषा की उपेक्षा करना स्वीकार करने योग्य नहीं हो सकता, क्षेत्रवाद के कारण ही भाषागत समस्याओं का जन्म होता है। क्षेत्रवाद अपनी विशिष्ट पहचान बनाने, संस्कृति को बनाये रखने और अपने क्षेत्र के विकास पर अधिक ध्यान दिये जाने के लिये तो आदर्श स्थिति है किन्तु इस क्षेत्रवाद के कारण यदि राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधा पहुँचती है तो यह मान्य नहीं है। क्योंकि राष्ट्र क्षेत्र से अधिक महत्वपूर्ण है। 3. राष्ट्रीयता के लिए खतराक्षेत्रवाद की भावना का अधिक होना राष्ट्रीयता के लिए खतरा होता है। भारत में अनेक रूपों में क्षेत्रीयता की भावना देखी जा सकती है इसके कारण आज देश में क्षेत्रीयता की भावना सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी है और इसका अन्त करके देशप्रेम को विकसित करने का कार्य करना चाहिए। 4. सम्बन्धों में कड़वाहटइस आधार पर सम्बन्धों में कड़वाहट उत्पन्न होती है क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र के द्वारा जोर आजमाइश होती है और इन्हीं कारणों के कारण भारत में क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न हो जाती है। 5. संघर्षउग्र क्षेत्रवाद संघर्ष को प्रोत्साहित करता है। भारत में इसी आधार पर कई संघर्ष हुये हैं और तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई है जिससे केन्द्र सरकार को नवीन राज्यों का निर्माण करने के लिये बाध्य होना पड़ा है। यदि कहीं पर नये उद्योग-धन्धा खोलना, नया रेलवे जोन, नई रेलवे लाइन, नया विश्वविद्यालय आदि कुछ भी नया करने की बात आती है तो क्षेत्रवाद के आधार पर जोर आजमाइश शुरू हो जाती है। अतः भारत में क्षेत्रवाद की अनेक समस्यायें अथवा कठिनाइयों हमारे सामने स्पष्ट हैं जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि क्षेत्रवाद भी हमारे देश की राष्ट्रीयता की प्रगति में बाधा बनकर खड़ा है। इसी भी पढ़ें…
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क्षेत्रवाद क्या है इस को बढ़ावा देने वाले दो कारकों का उल्लेख कीजिए?क्षेत्रवाद एक ऐसी अवधारणा है जो राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से क्षेत्र विशेष के हितों को सर्वोपरि मानता है। भारत में क्षेत्रवाद के लिये कई कारक उत्तरदायी हैं। उदाहरण के लिये पृथक् भाषा, अलग भौगोलिक पहचान, नृजातीय पहचान, असमान विकास, धार्मिक पहचान आदि।
भारत में क्षेत्रवाद एक समस्या क्यों है?भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण
प्राय: भाषा और संस्कृति भी क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहयोग देते हैं। भारत के विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की अपनी-अपनी भाषा है। अपनी भाषा को वे अधिक श्रेष्ठ मानकर अन्य भाषाओं को हीन मान लेते हैं।
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