3. साहित्यिक विशेषताएँ श्री रामवृक्ष बेनीपुरी की रचनाओं में प्रमुख रूप से स्वाधीनता की चेतना, मनुष्यता की चिंता और इतिहास की युगानुरूप व्याख्या है। वे निष्ठावान भारतीय संस्कृति के पुजारी भी हैं। इनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। इनके साहित्य में गहन अनुभूतियों और उच्च कल्पनाओं का सुंदर मिश्रण है। इनकी रचनाओं में जहाँ जीवन से संबंधित ज्वलंत समस्याओं को उठाया गया है, वहाँ उनके समाधानों की ओर संकेत भी किए गए हैं। सार रूप में कहा जा सकता है कि रामवृक्ष बेनीपुरी जी का साहित्य उच्चकोटि का साहित्य है, जिससे मानवता के विकास की प्रेरणा मिलती है। 4. भाषा-शैली-श्री रामवृक्ष बेनीपुरी के साहित्य की भाषा सरल, सहज, रोचक एवं ओजस्वी है। अलंकृत एवं भावनापूर्ण शैली के कारण हिंदी गद्य-साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने अपनी रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तद्भव, देशज, उर्दू-फारसी व अंग्रेज़ी के शब्दों का अत्यंत सटीक एवं सार्थक प्रयोग किया है। इन्होंने लोक प्रचलित मुहावरों व लोकोक्तियों का भी सफल प्रयोग किया है। बालगोबिन भगत पाठ का सार प्रश्न- बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे वर्ण के व्यक्ति थे। उनकी आयु साठ से ऊपर की थी। उनके सिर के बाल और दाढ़ी सफेद थे। वे शरीर पर कपड़ों के नाम पर केवल एक लंगोटी बाँधते थे और सिर पर कबीर टोपी पहनते थे और सर्दी के मौसम में काली कमली ओढ़ लेते थे। वे माथे पर चंदन और गले में तुलसी की जड़ों की माला पहनते थे। वे संन्यासी नहीं, गृहस्थ थे और थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी भी करते थे। वे गृहस्थ होते हुए भी साधु की परिभाषा में खरे उतरते थे। वे कबीर के विचारों से बहुत प्रभावित थे। वे सदा सत्य बोलते और सद्व्यवहार करते थे। वे किसी से व्यर्थ में झगड़ा मोल नहीं लेते थे। वे बिना पूछे किसी वस्तु को नहीं छूते थे। उनके लिए कबीर ‘साहब’ थे और उनका सब कुछ ‘साहब’ का था। उनके खेत में जो फसल उत्पन्न होती थी, उसे वे सबसे पहले साहब के दरबार में ले जाते थे। वह उनके घर से चार कोस दूर था। बालगोबिन भगत एक अच्छे गायक भी थे। उनका मधुर गान सदा सुनाई पड़ता था। वे कबीर के पदों को गाते रहते थे। आषाढ़ आते ही खेतों में धान की रोपाई शुरू हो जाती थी। पूरा गाँव, अर्थात् आदमी, औरतें और बच्चे खेतों में दिखाई देते थे। खेतों में रोपाई करते समय हर किसी के कानों में गाने का स्वर गूंजता रहता था। उनके संगीत से सारा वातावरण संगीतमय हो जाता था। सभी लोग एक ताल में एक क्रम में काम करने लगते थे। वे भादों की अंधेरी रातों में पिया के प्यार के गीत गाते थे। उनके अनुसार पिया के साथ होते हुए भी प्रियतमा अपने-आपको अकेली समझती है और बिजली की चमक से चौंक उठती है। जब सारा संसार सो रहा होता था, उस समय बालगोबिन का संगीत जाग रहा होता था। बालगोबिन कार्तिक से फागुन तक प्रभाती गाया करते थे। वे सुबह अंधेरे में उठकर, दो मील चलकर नदी स्नान करते थे। वापसी में गाँव के बाहर पोखरे पर वे अपनी खजड़ी लेकर बैठ जाते और गीत गाने लगते थे। लेखक को देर तक सोने की आदत थी, परंतु एक दिन उसकी आँख जल्दी खुल गई। वे माघ के दिन थे। लेखक को बालगोबिन का संगीत गाँव के बाहर पोखर पर ले गया। वे अपने संगीत में बहुत मस्त थे। उनके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं लेकिन लेखक ठंड के मारे काँप रहा था। गर्मियों में उमसभरी शाम को वे अपने गीतों से शीतल कर देते थे। उनके गीत लोगों के मन से होते हुए तन पर हावी हो जाते थे। वे भी बालगोबिन की तरह मस्ती में नाचने लगते थे। उनके घर का आँगन संगीत-भक्ति से ओत-प्रोत हो जाता था। बालगोबिन की संगीत साधना का चरमोत्कर्ष उस दिन देखने को मिला जिस दिन उनके बेटे की मृत्यु हुई थी। उनका एक ही बेटा था जो कुछ सुस्त रहता था। वे उसे अत्यधिक प्रेम करते थे और उसका ध्यान भी रखते थे। वह उनका इकलौता बेटा था। उसकी शादी भी उन्होंने बड़ी साध से करवाई थी। उनकी पुत्रवधू गृह प्रबंध में अत्यंत कुशल थी। उसने आते ही घर का सारा काम-काज संभाल लिया था। लेखक बालगोबिन भगत के उस कार्य से हैरान रह गया था। उन्होंने अपने पुत्र के शव को सफेद वस्त्र से ढक रखा था। उसके सिर की ओर चिराग जला रखा था। वे अपनी पुत्रवधू को भी उत्सव मनाने के लिए कहते हैं, क्योंकि उनका मानना था कि उसकी आत्मा परमात्मा के पास चली गई है। भला इससे बढ़कर आनंद की क्या बात हो सकती है? यह उनका विश्वास बोल रहा था। वह विश्वास जो मृत्यु पर विजयी होता आया है। उन्होंने अपनी पतोहू से ही बेटे की चिता में अग्नि दिलवाई थी। बालगोबिन ने अपनी पुत्रवधू के भाई को बुलाकर कहा था कि इसे यहाँ से ले जाओ और इसका विवाह कर दो। किंतु वह वहाँ रहकर बालगोबिन भगत की सेवा करना चाहती थी। लेकिन बालगोबिन का कहना था कि वह अभी जवान है और उसका अपनी इंद्रियों पर काबू रखना मुश्किल है। किंतु वह आग्रह कर रही थी कि मुझे अपने चरणों में ही रहने दो। भगत भी अपने निर्णय पर अटल थे। उन्होंने कहा कि यदि तू यहाँ रहेगी तो मुझे घर छोड़कर जाना पड़ेगा। बालगोबिन भगत की मौत वैसे ही हुई जैसी वह चाहते थे। वे हर वर्ष गंगा-स्नान तथा संत-समागम के लिए जाते थे। वे घर से खाकर चलते थे और घर पर ही आकर खाते थे। उन्हें गंगा-स्नान के लिए आने-जाने में चार-पाँच दिन लग जाते थे। वे गृहस्थी थे, इसलिए किसी से भीख भी नहीं माँग सकते थे। इस बार जब गंगा-स्नान करके लौटे तो खाने-पीने के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ। तेज़ बुखार में भी उनके नेम-व्रत वैसे ही चलते रहे। लोगों ने नहाने-धोने व काम करने से मना किया और आराम करने के लिए कहा। उस संध्या को भी गीत गाए। ऐसा लगता था कि उसके जीवन का धागा टूट गया हो। मानो माला का एक-एक मनका बिखर गया हो। भोर में लोगों ने उनका गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो पता चला कि बालगोबिन नहीं रहे। वहाँ सिर्फ उनका पिंजर ही पड़ा था। कठिन शब्दों के अर्थ- (पृष्ठ-70) मँझोले = न अधिक लंबे न छोटे। गोरे-चिट्टे = बहुत गोरे। जटाजूट = लंबे बाल। कबीरपंथी = कबीर के पंथ को मानने वाले। कनफटी. = ऐसी टोपी जिस पर कान के स्थान पर जगह कटी रहती थी। कमली = कंबल। मस्तक = माथा। (पृष्ठ-71) पुरवाई = पूर्व दिशा से बहने वाली हवा। स्वर-तरंग = स्वर की लहर। झंकार = बजती हुई आवाज़। पंक्तिबद्ध = पंक्ति में बाँधे हुए। जीने = सीढ़ी। हलवाहों = किसान। ताल = संगीत। क्रम = सिलसिला। अधरतिया = आधी रात। मुसलधार वर्षा = तेज वर्षा। झिल्ली की झंकार = गहरी काली रातों में झाड़ियों से उठने वाला झींगुरों का स्वर। दादुर = मेंढक। खैजड़ी = डपली के आकार का उससे कुछ छोटा वाद्य-यंत्र। सखिया = सखी। चिहुँक = खुशी से चिल्ला पड़ना। कौंध उठना = चमक उठना। निस्तब्धता = सन्नाटा। प्रभाती = प्रातःकाल गाया जाने वाला गीत। (पृष्ठ-72) पोखरे = छोटा तालाब। भिंडे = ऊँची उठी जगह। टेरना = ऊँची आवाज़ में बोलना। दाँत किटकिटानेवाली = ठंड के कारण दाँतों को कैंपाने वाली। लोही लगना = सुबह की लाली। कुहासा = कोहरा। रहस्य = छिपी हुई बात। आवृत = ढका हुआ। कुश = एक प्रकार की लंबी घास। ताँता लगना = लगातार निकलना। सुरूर = नशा। उत्तेजित = जोश से भड़का हुआ। श्रमबिंदु = पसीने की बूंदें। उमस = घुटन। करताल = तालियाँ। भरमार = अधिकता। तिहराती = तीसरी बार कहती। हावी होना = भारी पड़ना। नृत्यशील = नाचने को होना। ओतप्रोत = भरा हुआ। चरम उत्कर्ष = सबसे अधिक ऊँचाई। बोदा = कमज़ोर। निगरानी = देखभाल। साध = इच्छा, कामना। सुभग = सुंदर। सुशील = भले व्यवहार वाली। प्रबंधिका = प्रबंध करने वाली। निवृत्त = आज़ाद, मुक्त, अलग। कुतूहलवश = जानने की इच्छा के कारण। दंग = हैरान। चिराग = दीपक। (पृष्ठ-73) तल्लीनता = पूरे मन से। उत्सव मनाना = त्योहार के समान खुशी मनाना। क्रिया-कर्म = मृत्यु के बाद निभाई जाने वाली रस्में। तूल करना = महत्त्व देना। आग दिलाना = मुर्दे को आग लगाना। श्राद्ध = मृत्यु के बाद पितरों की शांति के लिए किया गया क्रिया-कर्म। निर्णय = फैसला। अटल = जिसे टाला न जा सके। दलील = तर्क। आस्था = विश्वास। संत-समागम = संतों के साथ संगति करना। लोक-दर्शन = संतों के दर्शन। संबल = सहारा। भिक्षा = भीख। उपवास = भूखे रहना, व्रत रखना। टेक = आदत, नियम। तबीयत = स्वास्थ्य। नेम-व्रत = नियम-व्रत आदि। जून = समय। छीजन = कमज़ोर होना। तागा टूटना = जीवन की साँसें पूरी होना। पंजर = शरीर। पाठ 11 बालगोबिन भगत प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 1. बालगोबिन भगत के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 2. बालगोबिन भगत पाठ का सार HBSE 10th Class प्रश्न 3. बालगोबिन भगत पाठ के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 4. Bal Govind Bhagat Class 10th Hindi HBSE प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. रचना और अभिव्यक्ति- प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. (क) ईश्वर में आस्था होनी चाहिए और उसका जीवन प्रभु के प्रति समर्पित होना चाहिए। प्रश्न 13. भाषा-अध्ययन- प्रश्न 14. (2) कपड़े बिल्कुल कम पहनते (3) थोड़ी देर पहले मूसलाधार वर्षा हुई। (4) न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। (5) वे दिन-दिन. छीजने लगे। (6) जो सदा-सर्वदा सुनने को मिलते। (7) धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगा। (8) मैं कभी-कभी सोचता हूँ। (9) इधर पतोहू रो-रोकर कहती।। (10) उस दिन संध्या में गीत गाए। पाठेतर सक्रियता पाठ में ऋतुओं के बहुत ही सुंदर शब्द-चित्र उकेरे गए हैं। बदलते हुए मौसम को दर्शाते हुए चित्र/फोटो का संग्रह कर एक अलबम तैयार कीजिए। पाठ में आषाढ़, भादो, माघ आदि में विक्रम संवत कलैंडर के मासों के नाम आए हैं। यह कलैंडर किस माह से आरंभ होता है? महीनों की सूची तैयार कीजिए। कार्तिक के आते ही भगत ‘प्रभाती’ गाया करते थे। प्रभाती प्रातःकाल गाए जाने वाले गीतों को कहते हैं। प्रभाती गायन का संकलन कीजिए और उसकी संगीतमय प्रस्तुति कीजिए। इस पाठ में जो ग्राम्य संस्कृति की झलक मिलती है वह आपके आसपास के वातावरण से कैसे भिन्न है? यह भी जानें- प्रभातियाँ मुख्य रूप से बच्चों को जगाने के लिए गाई जाती हैं। प्रभाती में सूर्योदय से कुछ समय पूर्व से लेकर कुछ समय बाद तक का वर्णन होता है। प्रभातियों का भावक्षेत्र व्यापक और यथार्थ के अधिक निकट होता है। प्रभातियों या जागरण गीतों में केवल सुकोमल भावनाएँ ही नहीं वरन् वीरता, साहस और उत्साह की बातें भी कही जाती हैं। कुछ कवियों ने प्रभातियों में राष्ट्रीय चेतना और विकास की भावना पिरोने का प्रयास किया है। श्री शंभूदयाल सक्सेना द्वारा रचित एक प्रभाती HBSE 10th Class Hindi बालगोबिन भगत Important Questions and Answersविषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. बालगोबिन भगत अत्यंत संतोषी व्यक्ति थे। उनकी इच्छाएँ अत्यंत सीमित थीं। वे सबके साथ खरा एवं सच्चा व्यवहार करते थे। उनके मन में ईश्वर के प्रति अगाध आस्था थी। सांसारिक मोह उन्हें छू भी नहीं सकता था। वे शरीर को नश्वर और आत्मा को परमात्मा का अंश मानते थे। मृत्यु उनके लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन थी। वे उसे एक उत्सव के रूप में मानते थे। विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. अति लघुत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. बालगोबिन भगत गद्यांशों के आधार पर अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (1) ऊपर की तसवीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे। नहीं, बिलकुल गृहस्थ! उनकी गृहिणी की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ-सुथरा मकान भी था। प्रश्न- (ख) ऊपर की तस्वीर के अनुसार बालगोबिन एक साधु लगते थे। उनकी आयु साठ वर्ष के लगभग होगी। वे रंग-रूप में अत्यधिक गोरे थे। उनके सिर और दाढ़ी के बाल सफेद हो चुके थे। उनका कद मँझोला था। वे प्रायः एक लंगोटी में रहते थे। सिर पर कबीरपंथियों के समान कनफटी टोपी धारण करते थे। सर्दी आने पर काला कंबल ओढ़ते थे। उनके माथे पर चंदन का लेप रहता था और गले में तुलसी की माला रहती थी। (ग) बालगोबिन भगत वास्तव में ही गृहस्थ थे। वे देखने में भले ही संन्यासी लगते हों, किंतु एक सच्चे गृहस्थी के सारे कर्तव्यों का पालन करते थे। उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी किंतु उनका बेटा और बहू उनके साथ रहते थे। वे दूसरों से सदा ही सद्व्यवहार करते थे। वे दूसरों से कोई भी वस्तु माँगने से या उधार लेने से बचते थे। यहाँ तक कि वे किसी दूसरे के खेत में शौच तक न जाते थे। (घ) बालगोबिन संत कबीर को अपना ‘साहब’ अर्थात् स्वामी मानते थे। (ङ) बालगोबिन भगत गृहस्थी थे और एक सच्चे गृहस्थी की भाँति व्यवहार करते थे। किंतु उनका व्यवहार साधु-संन्यासियों जैसा था। उन्हें ईश्वर (साहब) में पूर्ण विश्वास था। उन्हें संसार की किसी भी वस्तु से मोह नहीं था। वे सबसे सच्चा और खरा व्यवहार करते थे। उनकी बातों में जरा भी संदेह नहीं होता था। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं गया था। (च) बालगोबिन का दूसरों के प्रति अत्यंत उचित व्यवहार था। वे कभी किसी से झूठ नहीं बोलते थे और न ही किसी प्रकार का धोखा करते थे। किसी से उधार माँगकर कभी किसी को तंग नहीं करते थे। कभी किसी बात पर दूसरों से झगड़ा नहीं करते थे। (छ) कबीरपंथी मठ का सेवक बालगोबिन की फसल में से कुछ अंश अपने पास रख लेता था और शेष उन्हें प्रसाद के रूप में लौटा देता था। इस अनाज को लेकर बालगोबिन घर आ जाता था और उसी से घर का गुजारा चलाता था। (ज) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बालगोबिन भगत के जीवन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है। वे कभी किसी से झूठ, लोभ व क्रोधयुक्त व्यवहार नहीं करते थे। वे पूर्णरूप से ईश्वर में विश्वास रखते थे। वे अपनी नेक कमाई को पहले भगवान के प्रति अर्पित करते थे और फिर भोग करते थे। उनके भोग में त्याग की भावना सदैव बनी रहती थी। कहने का भाव है कि यदि हम भी बालगोबिन के इन गुणों को अपना लें तो हमारा भी कल्याण हो जाएगा। (झ) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित एवं रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित ‘बालगोबिन भगत’ नामक पाठ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने बालगोबिन भगत के जीवन और आदर्शों पर प्रकाश डाला है। आशय/व्याख्या-बालगोबिन भगत की बनाई गई तस्वीर से वे एक साधु लगते थे, किंतु वास्तव में वे एक गृहस्थी थे। उनकी पत्नी की तो लेखक को याद नहीं है, किंतु उनके बेटे और बेटे की पत्नी को अवश्य देखा था। वे थोड़ा-बहुत खेतीबाड़ी (कृषि) का काम भी करते थे। उनका एक साफ-सुथरा मकान भी था। बालगोबिन भगत खेतीबाड़ी के साथ-साथ पारिवारिक काम भी करते थे। इन सबके होते हुए भी वे भगत एवं साधु-संन्यासी थे। उनमें साधु-संन्यासियों वाले सभी गुण थे। वे कबीर को ‘साहब’ मानते थे। उन्हीं के आदर्शों पर चलते थे और कभी झूठ नहीं बोलते थे। वे दूसरों के साथ सच्चा एवं खरा व्यवहार करते थे। किसी के साथ बिना बात के झगड़ा भी नहीं करते थे। दूसरों की वस्तुओं को स्पर्श तक नहीं करते थे। बिना पूछे कभी किसी की वस्तु का प्रयोग भी नहीं करते थे। उनके ऐसे व्यवहार को देखकर लोग हैरान रह जाते थे। वे दूसरों के खेत में शौच भी नहीं जाते थे। वे अपनी हर वस्तु को ईश्वर की वस्तु मानते थे। उनके खेत में जो अनाज उत्पन्न होता, उसे अपने सिर पर उठाकर साहब के दरबार में ले जाते थे। दरबार कबीरपंथी मठ था। वहाँ से जो अनाज उन्हें प्रसाद रूप में मिलता था, उसे घर लाते और उसी में गुजारा करते थे। (2) आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी। यह क्या है यह कौन है! यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक-एक धान के पौधे को, पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं, वे गुनगुनाने लगती हैं; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोपनी करने वालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू! [पृष्ठ 71] प्रश्न- (ख) लेखक ने आषाढ़ के महीने में होने वाली रिमझिम वर्षा का वर्णन किया है। इस अवसर पर गाँव में किसान धान की फसल रोपने का काम करते हैं। आकाश बादलों से घिरा हुआ था तथा पुरवाई हवाएँ चल रही थीं। (ग) बालगोबिन भगत अपने खेत में धान के रोपने का काम कर रहे थे। वे हर पौधे को पंक्ति में लगा रहे थे। (घ) बालगोबिन भगत धान के रोपन के साथ-साथ मधुर कंठ से गीत गा रहे थे। उनके गीत का वहाँ उपस्थित लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे मंत्रमुग्ध हो गए तथा गीत की ताल पर क्रम से काम करने लगे। (ङ) भगत जी के संगीत को जादू इसलिए कहा गया है क्योंकि उसका सभी के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। उसे सुनकर बच्चे मस्त हो जाते तथा स्त्रियाँ उसके साथ-साथ गुनगुनाने लगती थीं। किसानों के पैरों में तो मानो लय-सी आ जाती थी। धान रोपते हुए किसानों की अँगुलियाँ क्रम से चलने लगती थीं। (च) बच्चे उछल-उछलकर मौसम का आनंद उठा रहे थे और गीली मिट्टी में लिथड़कर खुश हो रहे थे। औरतें किसानों के लिए नाश्ता भोजन लेकर खेतों की मेंड़ों पर बैठी थीं। (छ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने वर्षा ऋतु के प्राकृतिक वातावरण का सजीव चित्रण किया है। आषाढ़ के महीने में सभी किसान अपने-अपने खेतों में धान रोपने के काम में जुट जाते हैं। लेखक बालगोबिन भगत की मस्ती, तल्लीनता और उसकी संगीत-कला की जादुई मिठास का वर्णन करना चाहता है। वह किसान भी है और संगीतकार भी। (ज) प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘बालगोबिन भगत’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। इन पंक्तियों में लेखक ने आषाढ़ के महीने में होने वाली वर्षा और बालगोबिन भगत द्वारा धान रोपने का वर्णन किया है। आशय/व्याख्या-लेखक कहता है कि आसमान पर बादल छाए हुए थे, धूप कहीं भी दिखाई नहीं देती थी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। ऐसे मनभावन समय में एक मधुर स्वर की झंकार कानों में सुनाई पड़ रही थी। वहाँ के लोगों को इस मधुर स्वर व उसके गाने वाले के विषय में पूछना नहीं पड़ता। बालगोबिन भगत जिनका समूचा शरीर कीचड़ से लथपथ है, अपने खेत में धान की फसल का आरोपण कर रहे हैं। उनके हाथों की अगुलियाँ जहाँ धान के एक-एक पौधे को पंक्ति में बैठा रही हैं, वहीं उनके कंठ से निकला एक-एक शब्द संगीत की सीढ़ियों से चढ़कर स्वर्ग की ओर जा रहा है। उनके मधुर स्वर को सुनकर बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं। स्त्रियाँ उन शब्दों को अपने स्वर में गुनगुनाने लगती हैं। हल चलाने वालों के पैर उसके शब्दों की ताल के अनुसार ही उठने लगते हैं। खेत में धान के पौधों को रोपने वाले लोगों की अंगुलियाँ भी उनके संगीतमय स्वर के अनुकूल ही काम करने लगती हैं। बालगोबिन भगत के संगीत का प्रभाव आस-पास के लोगों पर जादू-सा काम करता है। (3) भादो की वह अँधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मुसलधार वर्षा खत्म हुई है। बादलों की गरज, बिजली की तड़प .. में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकती। उनकी बँजड़ी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं-“गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया, चिहुँक उठे ना!” हाँ, पिया तो गोद में ही है, किंतु वह समझती है, वह अकेली है, चमक उठती है, चिहक उठती है। उसी भरे-बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता? अरे, अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है, जगा रहा है! तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा! [पृष्ठ 71] प्रश्न- (ख) लेखक ने भादो की रात का वर्णन करते हुए कहा है कि भादो की रात अत्यधिक अँधेरी थी। आकाश में घने काले बादल छाए हुए थे। वर्षा होने वाली थी। बादल गरज रहे थे और बिजली कड़क रही थी। झाड़ियों से झिल्ली की झंकार सुनाई दे रही थी। मेंढकों के टर्राने की ध्वनि भी सुनाई पड़ रही थी। ऐसे वातावरण को बालगोबिन का गीत और भी मधुर बना रहा था। (ग) बालगोबिन भगत के गीत ईश्वर-भक्ति की भावना से भरे होते थे। उनमें परमात्मा से बिछुड़ने की पीड़ा और भूले हुओं को जगाने के भाव भरे होते थे। (घ) इस पंक्ति में कवि ने मनुष्य को विषय-वासनाओं से सावधान रहते हुए जीवन व्यतीत करने की चेतावनी दी है। कवि कहता है, हे मानव! तेरे जीवन का हर क्षण नष्ट हो रहा है। जीवन रूपी गठरी को पंच विकार रूपी चोर चुराने में लगे हुए हैं। अतः समय रहते तू सावधान हो जा और प्रभु का भजन कर जिससे तुझे मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। (ङ) जब सारा संसार खामोशी में सो रहा था तब बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा था अर्थात् उस समय बालगोबिन जागकर प्रभु-भजन कर रहे थे। (च) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बालगोबिन भगत के व्यक्तित्व के विषय में बताया है कि वे एक सच्चे भगत थे। उनका जीवन साधु-संन्यासियों जैसा त्यागशील एवं मोह रहित था। वे गृहस्थी होते हुए भी सच्चे साधु थे। उनकी ईश्वर में गहन आस्था थी। वे रात को जाग-जागकर प्रभु-भक्ति के गीत गाते थे। उसे प्रभु को भूले हुए लोगों को प्रभु की याद दिलाना बहुत अच्छा लगता था। (छ) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में से संकलित एवं श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित ‘बालगोबिन भगत’ नामक पाठ से अवतरित है। इस पाठ में लेखक ने बालगोबिन भगत के जीवन के गुणों का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में बताया गया है कि भादो की अंधेरी रातों में बालगोबिन भगत जाग-जाग कर ईश्वर-भक्ति के गीत गाते थे। वे अपने गीतों के माध्यम से लोगों को ईश्वर-भक्ति की याद दिलाते थे। आशय/व्याख्या-लेखक ने भादो की रात का वर्णन करते हुए कहा है कि भादो की अंधेरी रात थी। आकाश में घने काले बादल छाए हुए थे। अभी-अभी वर्षा समाप्त हुई थी। बादल गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी। झिल्ली की झंकार और मेंढकों के टर्राने की ध्वनि सुनाई दे रही थी, किंतु ये सब मिलकर भी बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सके। उनकी बँजड़ी धीरे-धीरे, डिमक-डिमक कर बज रही थी और वे मधुर ध्वनि में गा रहे थे ‘गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया चिहुँक उठे ना” हाँ, पिया तो गोद में ही है, किंतु वह समझती है कि वह अकेली है। वह चमक उठती है। कहने का भाव है कि आत्मा और परमात्मा सदा साथ-साथ रहते हैं। उस बादलों से भरी हुई भादो की आधी रात को उनका यह मधुर गीत अँधेरे में एकाएक ऐसे कौंध जाता है जैसे अँधेरी रात में बादलों में बिजली चमक उठती है। जब सारा संसार एकांत में सोया होता है, तब बालगोबिन भगत का संगीत निरंतर जाग रहा होता है (4) बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह! कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज़्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है, इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत! किंतु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता। [पृष्ठ 72-73] प्रश्न- (ख) जिस दिन बालगोबिन का बेटा मरा, उस दिन उनके संगीत का चरमोत्कर्ष देखा गया। उस दिन एक सच्चे संगीतकार की साधना की सफलता भी देखी गई थी। (ग) लेखक के अनुसार साधना वही है जब व्यक्ति अपनी सुध-बुध खोकर परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाए और उसको किसी प्रकार का दुःख प्रभावित न कर सके। इकलौते बेटे की मृत्यु से बढ़कर और कोई दुःख नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने बेटे की मृत्यु पर भी भजन गा सकता है, उसके लिए उससे बढ़कर संगीत साधना और क्या हो सकती है। (घ) बालगोबिन भगत अपने पुत्र से बहुत प्यार करते थे। उनका वह पुत्र बहुत ही कमज़ोर और सुस्त था। उनका मानना था कि ऐसे बच्चों को प्यार की अधिक ज़रूरत होती है। इसलिए वे अपने पुत्र को अधिक प्यार करते थे। (ङ) बालगोबिन भगत की पुत्रवधू बहुत ही सुंदर एवं सुशील युवती थी। वह घर के काम-काज में निपुण थी तथा एक अच्छी प्रबंधिका भी थी। उसके इस प्रबंधन के गुण के कारण ही बालगोबिन जी गृहस्थ जीवन से मुक्त हो पाए थे। (च) लेखक को इस बात को लेकर कुतूहल था कि उसका इकलौता बेटा मर गया है तथा उसका शव अभी घर में ही पड़ा हुआ है। ऐसे में वह कैसे गा सकता है? उसे तो शोक मनाना चाहिए था किंतु लेखक ने देखा कि वह पुत्र की लाश के पास ही आसन जमाकर गाए जा रहा था। (छ) प्रस्तुत गद्यांश के अनुसार, बालगोबिन भगत की सच्ची भक्ति, तल्लीनता, धैर्य और संगीत की मस्ती हमें अत्यधिक प्रभावित करती है। उनके हृदय में प्रभु के प्रति अडिग विश्वास था जो सबके हृदय को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। (ज) प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘बालगोबिन भगत’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पाठ के लेखक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। इन पंक्तियों में उन्होंने बालगोबिन भगत के बेटे की मृत्यु की घटना का वर्णन किया है। आशय/व्याख्या-लेखक का कथन है कि जिस दिन बालगोबिन भगत का बेटा मरा था, उस दिन उनकी संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष अर्थात् चरम सीमा देखी गई थी। एक सफल एवं सच्चे संगीतकार की सफलता देखी गई थी। बालगोबिन का इकलौता बेटा कुछ सुस्त एवं कमजोर था। इसी कारण बालगोबिन उसका अधिक ध्यान रखते थे। बालगोबिन का मत था कि ऐसे व्यक्तियों पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए और दूसरों की अपेक्षा उन्हें प्यार भी अधिक करना चाहिए। वे देखभाल और प्यार के ज्यादा हकदार होते हैं। उन्होंने बहुत-ही सीधे ढंग से अपने बेटे का विवाह करवाया था। उसकी पत्नी बहुत सुशील एवं विनम्र स्वभाव वाली थी। उसने घर का सारा काम-काज संभाल लिया था, जिससे बालगोबिन भगत ने दुनियादारी से छुटकारा पा लिया था। बालगोबिन का बेटा बीमार पड़ गया, परंतु काम-काज की व्यस्तता से किसको फुर्सत जो बीमार का हाल जानें, किंतु मृत्यु तो सबका ध्यान अपनी ओर दिला देती है और एक दिन उसकी मौत हो गई। उसकी मौत का समाचार सारे गाँव को मिल गया। लेखक भी उसके घर गया। यह देखकर हैरान था कि बालगोबिन ने अपने बेटे के शव को आंगन में एक चटाई पर लिटाकर सफेद कपड़े से ढक रखा था। उस पर कुछ फूल और तुलसी के पत्ते बिखेर दिए थे। उसके सिराहने एक दीप जलाया हुआ था। वे उसके सामने बैठकर गीत गा रहे थे। उनके गीत का स्वर पहले जैसा ही था और उतनी ही तल्लीनता भी थी। कहने का भाव है कि बालगोबिन भगत की ईश्वर-भक्ति और गीत की तल्लीनता को बेटे की मौत जैसा आघात भी नहीं डिगा सका था। (5) बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू प्रश्न- (ख) बालगोबिन भगत उदार एवं प्रगतिशील विचारों वाले व्यक्ति हैं। उनकी दृष्टि में स्त्री-पुरुष बराबर हैं। हमारे समाज में प्राचीनकाल से माना जाता है कि मृतक को आग लगाने का अधिकार पुत्र या किसी पुरुष को है। स्त्री इस कार्य को नहीं कर सकती। नारी को तो श्मशान भूमि में जाने तक की अनुमति नहीं है। किंतु बालगोबिन भगत ने इन मान्यताओं को नहीं माना और अपने बेटे की चिता को अपनी पुत्रवधू से आग दिलवाई थी। इससे पता चलता है कि बालगोबिन भगत की दृष्टि में नर-नारी सब एक समान हैं। (ग) निश्चय ही बालगोबिन भगत सामाजिक रूढ़ियों को नहीं मानते। उन्होंने अपनी पुत्रवधू से अपने बेटे की चिता को आग दिलवाकर सदियों से चली आ रही परंपरा को सहज ही तोड़ डाला। ऐसी हिम्मत किसी-किसी व्यक्ति में ही होती है। इससे पता चलता है कि भगत जी सामाजिक रूढ़ियों में विश्वास नहीं रखते थे। (घ) बालगोबिन भगत की पुत्रवधू पति की मृत्यु के पश्चात् बालगोबिन भगत के पास रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी। वह उनके लिए भोजन बनाने व गृहस्थी के अन्य कार्य करने के लिए ही उनके पास रहना चाहती थी। (ङ) जब बालगोबिन भगत ने अपनी पुत्रवधू को उसके भाई के साथ जाने के लिए कहा तो वह जिद्द करने लगी कि वह उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएगी। आजीवन उनकी सेवा करती रहेगी। किंतु बालगोबिन भी अपने इरादे के पक्के थे। उन्होंने कहा यदि (च) भगत जी की पुत्रवधू उनके पास रहकर उनके बुढ़ापे का सहारा बनना चाहती थी। वह उनके लिए भोजन बनाना चाहती थी और उनकी सेवा करना चाहती थी। (छ) प्रस्तुत गद्यांश के आधार पर हम कह सकते हैं कि बालगोबिन भगत एक उदार हृदय और सुलझे हुए व्यक्ति थे। वे अपने निजी स्वार्थ के लिए दूसरों के जीवन में किसी प्रकार की बाधा नहीं बनना चाहते थे। यही कारण है कि वह अपनी चिंता किए बिना अपनी पुत्रवधू को उसके भाई के साथ भेज देते हैं ताकि वह पुनः विवाह करके सुखी जीवन व्यतीत कर सके। बालगोबिन भगत दृढ़ विचारों वाले व्यक्ति थे। वे जिस काम को करने का निश्चय कर लेते, उसे पूर्ण करके छोड़ते थे। (ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘बालगोबिन भगत’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पाठ में लेखक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने बालगोबिन भगत के जीवन का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में बालगोबिन भगत के विषय में बताया गया है कि वे स्त्री-पुरुष में कोई अन्तर नहीं समझते थे और न ही सामाजिक रूढ़ियों में विश्वास करते थे। आशय/व्याख्या-लेखक ने बताया है कि बालगोबिन भगत ने अपने बेटे की चिता को आग स्वयं न देकर उसकी पत्नी से ही दिलवाई थी। समाज में ऐसा नहीं होता था। चिता को आग हमेशा से पुरुष ही देते आए थे। ज्यों ही श्राद्ध का समय पूरा हुआ पतोहू के भाई को बुलाकर उसे उसके साथ भेज दिया तथा यह आदेश भी दे दिया कि इसका दूसरा विवाह अवश्य कर देना। कहने का भाव है कि बालगोबिन भगत विधवा विवाह के पक्ष में थे, किंतु बालगोबिन की पतोहू जिद्द करने लगी कि वह उनके साथ रहकर उनकी सेवा करेगी। यदि मैं चली जाऊँगी तो इस बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा। यदि बीमार पड़ गए तो कौन आपको पानी देगा। मैं आपके पैर पड़ती हूँ आप मुझे अपने से अलग मत कीजिए, किंतु बालगोबिन भगत का निर्णय अटल था। उन्होंने कहा कि यदि तू इस घर से नहीं जाएगी तो मैं यह घर छोड़कर चला जाऊँगा। यह उनका आखिरी तर्क था। इस तर्क के सामने पतोहू की एक न चली। उसे अपने भाई के साथ जाना पड़ा। कहने का भाव है कि बालगोबिन भगत दृढ़ निश्चयी और उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे। |