हिंदी वर्तनी की समस्या और समाधान - hindee vartanee kee samasya aur samaadhaan

हिंदी वर्तनी की समस्याएँ

ब्रजेन्द्र त्रिपाठी

हिंदी के पठन-पाठन और लेखन से जुडे प्रायः सभी लोग जानते हैं कि हिंदी लेखन में वर्तनी की अनेकरूपता दिखाई पडती है। शब्द एक है, लेकिन उसकी वर्तनी अनेक। वर्तनी की परिभाषा इस प्रकार की गई है ः भाषा साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचारसंहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं।... वर्तनी भाषा का वर्तमान है। वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है, वर्तनी शब्दों का संस्कारित पद विन्यास है।
वर्तनी की एकरूपता किस तरह कायम हो, इस संदर्भ में हिंदी के शुरुआती दौर से ही प्रयास होता रहा है। सन् 1900 ई. में सबसे पहले नागरी प्रचारिणी सभा ने इस संबंध में व्यवस्थित ढंग से विचार किया और कुछ निर्णय लिए। हिंदी गद्य का प्रचलन 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के साथ हुआ। भारतेन्दु पूर्व युग में हिंदी की स्थिति बहुत शोचनीय थी, क्योंकि उस समय भाषा का कोई निश्चित एवं सर्वमान्य रूप नहीं था; जो जैसे चाहता था, लिखता था। सन् 1900 में सरस्वती का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसकी संपादन समिति में बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर, बाबू श्यामसुंदर दास, राधाकृष्ण दास,पं. किशोरीलाल गोस्वामी और कार्तिकप्रसाद खत्री थे। जनवरी 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के संपादक बने। द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से हिंदी को मानक रूप देने का प्रयत्न किया, साथ ही हिंदी शब्दों की वर्तनी की एकरूपता पर ध्यान दिया। उन्होंने वर्तनी संबंधी अशुद्धियों की ओर लेखकों का ध्यान आकृष्ट किया। उनके समय में वर्तनी के क्षेत्र में बडी अस्तव्यस्तता और अराजकता का माहौल था। एक ही शब्द के कई-कई रूप प्रचलित थे। जैसे चाहिये-चाहिए, गये-गए, नयी -नई आदि।
लेखक कई शब्दों की वर्तनी को अशुद्ध रूप में लिखते थे, जिसकी तरफ उन्होंने उनका ध्यान आकर्षित किया और शुद्ध रूप लिखने को प्रेरित किया। जैसे दृष्य की जगह दृश्य, सिद्धि की जगह सिद्धी, भगीरथ की जगह भागीरथ।
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी वर्तनी की समस्या से जूझते रहे और इससे संबंधित उनकी कई पुस्तकें हैं; यथा शब्द मीमांसा और हिंदी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण।
हिंदी में वर्तनी की एकरूपता और स्थिरता के अभाव के कारण अस्पष्टता पैदा होती रही है और बहुत बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है। संस्कृत में ऐसी स्थिति नहीं रही। उसके प्राचीन शब्द भी पूरी स्पष्टता के साथ उच्चरित होते हैं, क्योंकि उसकी वर्तनी सदा स्थिर रही है।
हिंदी भाषा में वर्तनी संबंधी अव्यवस्था और उच्छृंखलता को देखते हुए समय-समय पर इसके निराकरण के प्रयास किए गए और वर्तनी की एकरूपता की दिशा में ठोस कदम उठाए गए। डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया ने अपनी पुस्तक हिंदी की मानक वर्तनी में इसका विवरण दिया है। उनके अनुसार भारतीय हिंदी परिषद् में इस पर व्यापक ढंग से विचार हुआ और इस संबंध में एक नियमावली बनाई गई, जिसमें निम्नलिखित दिशाओं में एकरूपता स्थापित करने पर सहमति बनी ः
1. वियुक्त शब्द, संयुक्त शब्द या हाइफन का प्रयोग
2. या, ये अथवा आ, ए, ई अंत्य ध्वनियों के रखने की
समस्या
3. हिंदी में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों का प्रयोग
4. विदेशी ध्वनियों की समस्या
5. अनुस्वार और चंद्रबिंदु
उपर्युक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए अखिल भारतीय हिंदी प्रकाशक संघ ने लेखन एवं मुद्रण में एकरूपता लाने के लिए अक्षरी नियम बनाया।
इसके पश्चात् 1966 में हिंदी विभाग, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी वर्तनी पर एक संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. भोलानाथ तिवारी, डॉ. एन.वी. राजगोपालन, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री रुद्र काशिकेय ने भाग लिया। इसमें वर्तनी के दो पक्षों पर विस्तार से चर्चा हुई -
1. य श्रुतिवाले रूप लिखे जाएँ या स्वरवाले रूप।
2. अरबी-फारसी से गृहीत शब्दों में नुक्ता का प्रयोग हो या नहीं।
रुद्र काशिकेय का मत था कि उर्दू की लिपि बिंदु बहुला है, अतः उस भाषा के शब्दों के शुद्ध उच्चारण के लिए नुक्ता अवश्य लगाया जाए। संगोष्ठी में कुछ शब्द विशेष पर विचार करते हुए, उनका कौन-सा रूप उपयुक्त होगा, इस पर निर्णय लिया गया। जैसे हिन्दी में छह लिखा जाना चाहिए, छः नहीं क्योंकि हिंदी में विसर्ग नहीं है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय ठीक है। यह भी कहा गया कि संस्कृत से तत्सम शब्दावली गृहीत करते समय उसमें हल् का प्रयोग कर सकते हैं; जैसे- भगवान्, श्रीमान् आदि।
वर्तनी को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, नई दिल्ली के मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान विभाग के तत्त्वावधान में एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ था, जिसमें पं. विद्यानिवास मिश्र, प्रो. सूरजभान सिंह, डॉ. बालमुकुंद, डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया, डॉ. गंगा प्रसाद विमल आदि विद्वानों ने भाग लिया। यहाँ पाठ्यपुस्तकों के आधार पर इस समस्या के विभिन्न पक्षों पर सामग्री एकत्र की गई। उनका भली-भाँति विश्लेषण कर कुछ नीतिनिर्धारक सिद्धांत बनाए गए।
इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा किया गया। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा बनाया गया। देश-विदेश में हिंदी सीखने वालों की संख्या भी बढी। इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि हिंदी वर्तनी का एक मानक रूप निर्धारित किया जाए, जिससे जहाँ कहीं भी हिंदी शब्द लिखे जाएँ, उनमें एकरूपता हो।
हिंदी देश के विस्तृत भू-भाग में बोली जाती है। हिंदी की लगभग 30 बोलियाँ हैं और इन मातृभाषाओं के लोग हिंदी का व्यवहार करते हैं, साथ ही हिंदीतरभाषी भी हिंदी का बोलचाल एवं लेखन में उपयोग करते हैं। स्थानीय प्रभाव के कारण इन अलग-अलग क्षेत्रों के बोलने वालों में उच्चारण संबंधी भिन्नता पाई जाती है। बोलचाल की इस भिन्नता को नियम बनाकर खत्म भी नहीं किया जा सकता; लेकिन यह जरूरी है कि लेखन, टंकण और मुद्रण में वर्तनी की एकरूपता बनी रहे और हिंदी का मानकीकृत रूप व्यवहृत हो।
शिक्षा मंत्रालय द्वारा 1961 में हिंदी वर्तनी का मानक रूप निर्धारित करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने अप्रैल 1962 में अपनी अंतिम सिफारिशें प्रस्तुत कीं जिसे सरकार द्वारा स्वीकृति दी गई। 1967 में हिंदी वर्तनी का मानकीकरण शीर्षक से एक पुस्तिका निदेशालय ने प्रकाशित की, जिसमें सोदाहरण व्याख्या द्वारा इन नियमों को स्पष्ट किया गया। इसके पश्चात् एक दूसरी समिति द्वारा पुनर्विचार कर इन नियमों में कुछ संशोधन किए गए और इन्हें 1975 और 1983 में प्रकाशित किया गया।
कुछ वर्ष पहले भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा एक समिति का गठन मानक वर्तनी निर्धारित करने के लिये किया गया था, जिसके संयोजक डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी थे। उस समिति में सदस्य के रूप में मैं भी उपस्थित था। निदेशालय की मानक वर्तनी को विचार के केंद्र में रखकर उसमें कुछ संशोधन सुझाए गए।
हिंदी वर्तनी से संबंधित मूल समस्याएँ कौन-कौन-सी हैं, उसे समझना जरूरी है। संज्ञा रूपों में भी वर्तनी की यह अराजकता देखने को मिलती है। मास्को लिखें या मस्क्वा, तोलस्तोय लिखें या टालस्टाय। अंग्रेजी वालों के समक्ष यह समस्या नहीं है, जबकि उनके यहाँ वर्तनी कुछ और लिखी जाती है, उच्चारण कुछ और होता है। कुछ लोग हिंदी के सरलीकरण के नाम पर अपने ढंग से वर्तनी को बरतते हैं और अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। यह प्रवृत्ति भाषा को सरल न बनाकर उसे कठिन बना देती है। यदि हम शकल के स्थान पर सकल का प्रयोग करें, आप्रवासी के स्थान पर अप्रवासी का प्रयोग करें तो अर्थ का अनर्थ ही होगा। हम खोलना को खौलना नहीं लिख सकते, सुर को सूर नहीं लिख सकते, साँस को सास नहीं लिख सकते। जाहिर है कि शब्दों की वर्तनी में एकरूपता और स्थिरता नहीं होगी तो भ्रम की स्थिति पैदा होगी। लेकिन हिंदी में वर्तनी की एकरूपता स्थापित करना सरल कार्य नहीं है क्योंकि अब भी अलग-अलग संस्थान और व्यक्ति वर्तनी का अपने ढंग से प्रयोग करते हैं।
वैसे तो नागरी लिपि बहुत ही वैज्ञानिक लिपि है और उसकी ध्वन्यात्मक विशेषताओं के नाते हिंदी में वर्तनी की समस्या होनी नहीं चाहिए, लेकिन व्यावहारिक रूप में वह कई स्तरों पर दिखाई पडती है। वर्णमाला, उच्चारणगत भिन्नता, संस्कृत शब्दों, विदेशी शब्दों, पारंपरिक लेखन, व्याकरण, लेखन-पद्धति, रचना शैली तथा विराम और विरामेतर चिह्नों से संबंधित वर्तनी की समस्याओं के साथ कंप्यूटर से जुडी समस्याएँ भी हैं।
एक बडी समस्या है पंचमाक्षर बनाम अनुस्वार की। इसको लेकर हिंदी में बडी अराजक स्थिति रही है। लेकिन अब अधिकतर लोगों का मानना है कि पंचमाक्षरों की जगह अनुस्वार का प्रयोग किया जाए। निदेशालय की वर्तनी नीति के अनुसार संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए; जैसे गंगा, चंचल, ठंडा, संध्या, संपादक आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आता है, अतः पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग होगा। (गङ्गा, चञ्चल, ठण्डा, सन्ध्या, सम्पादक का नहीं) यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए अथवा वही पंचमाक्षर दुबारा आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा; जैसे - वाङ्मय, अन्य, अन्न, सम्मेलन, सम्मति, चिन्मय, उन्मुख आदि। अतः वांमय, अंय, अंन, संमेलन, संमति, चिंमय, उंमुख रूप स्वीकार्य नहीं होगा। कुछ विद्वानों का मानना है कि किसी समय टाइपराइटर की सुविधा को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया गया था, लेकिन अब कंप्यूटर में पंचमाक्षरों के टाइप की सुविधा है, अतः देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को बनाए रखने के लिए पंचमाक्षरों के प्रयोग को बढावा दिया जाना चाहिए। लेकिन अब अधिकांश संस्थाएँ और प्रकाशन गृह निदेशालय की वर्तनी नीति का ही अनुपालन कर रहे हैं।
इसी तरह अनुस्वार तथा अनुनासिकता के चिह्न चंद्रबिंदु ( ँ) को लेकर भी अराजकता की स्थिति रही है। लोग चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार के चिह्न बिंदु ( ं ) का प्रयोग करते हैं। इससे शब्दों के उच्चारण में भ्रम की स्थिति बनती है, खास तौर से हिंदी सीख रहे हिंदीतर भाषाभाषी और विदेशी लोगों को। चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग का चलन भी टाइपराइटर एवं मुद्रण की सुविधा को देखते हुए किया गया था। कंप्यूटर के आने के बाद ऐसी कोई समस्या नहीं रही, अतः चंद्रबिंदु का प्रयोग जरूर किया जाना चाहिए। लेकिन जहाँ (विशेष रूप से शिरोरेखा के ऊपर जुडने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार चिह्न का प्रयोग उच्चारणगत भ्रम न पैदा करता हो, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट दी गई है; जैसे- नहीं, में, मैं आदि। हालाँकि अब भी कई प्रकाशन संस्थान और पत्रिकाएँ चंद्रबिंदु का प्रयोग न करके बिंदु का ही प्रयोग कर रही हैं। मैंने पुराने कई ग्रंथ ऐसे देखे हैं, जिनमें शिरोरेखा के ऊपर जुडनेवाली मात्रा के साथ भी चंद्रबिंदु का प्रयोग किया गया है, लेकिन अब यह चलन में नहीं है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय और भारतीय मानक ब्यूरो ने कुछ प्रचलित संयुक्ताक्षरों की जगह वर्ण के नीचे हल् लगाकर शब्द लिखने का नियम बनाया है; जैसे- द्वारा शुद्ध, समृद्धि, यद्यपि, विद्या, उद्धृत। एन.सी.ई.आर.टी के प्रकाशनों और निदेशालय के अपने प्रकाशनों में इसे चलन में लाया भी गया है; लेकिन साहित्य अकादेमी और नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाएँ पारंपरिक संयुक्ताक्षर का ही प्रयोग करती हैं, जैसे - द्वारा, शुद्ध, समृद्धि, यद्यपि, विद्या, उद्धृत। अब निदेशालय ने भी इस संयुक्ताक्षर वाले रूप को स्वीकार कर लिया है।
एक समस्या नुक्ता के प्रयोग की है। नुक्ता का प्रयोग क, ख, ग, ज और फ व्यंजनों में होता है, जैसे - इ*जत, कमजोर, तेजी, जंदा, रुख्सत, राज, नाज आदि। इसमें अपवादस्वरूप अरबी, फारसी या अंग्रेजी के वे शब्द जो हिंदी का अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी में रूपांतर हो चुका है, उनके हिंदी रूप स्वीकार्य हैं और इनमें नुक्ता का प्रयोग जरूरी नहीं, जैसे- कागज, कलम, जमीन, कमीज, दरवाजा, किला, दाग, बाजार, मजदूरी आदि। इस नियम को प्रायः स्वीकार किया जाता है, लेकिन इसमें भी इसका निर्णय सरल नहीं है कि कौन से विदेशी शब्द हिंदी के अंग बन चुके हैं। साहित्य अकादेमी अपने प्रकाशनों में जहाँ तक संभव है, इस तरह के विदेशी शब्दों में नुक्ता का प्रयोग करती है।
श्रुतिमूलक य और व के प्रयोग में भी भिन्नता देखी जाती है। इस संदर्भ में नियम यह बनाया गया है कि किए - किये, नई-नयी, हुवा - हुआ आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का ही प्रयोग हो। यह नियम त्रि*या, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाएगा। अर्थात् गए (गये), हुए (हुये), आएँगे (आयेंगे), लिखिए (लिखिये), चाहिए (चाहिये), बताइए (बताइये), इसलिए (इसलिये) - सभी में पहला रूप प्रयुक्त होगा।
जहाँ य श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्त्व हो, वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक परिवर्तन आवश्यक नहीं; यथा स्थायी, दायित्व, अनुयायी, रुपये, किराये आदि। हल् चिह्नों के प्रयोग में यह नियम बनाया गया है कि तत्सम शब्दों की वर्तनी में संस्कृत शब्द ही रखे जाएँ लेकिन जिन शब्दों के प्रयोग में हिंदी में हल् चिह्न लुप्त हो चुका है, वहाँ उसे न लगाया जाए। सन्, प्राक, वाक, साक्षात्, भगवन्, यथावत्, वृहद् में हल् चिह्न का प्रयोग होगा, लेकिन महान, विद्वान, पृथक, सम्यक, पश्चात आदि में नहीं।
अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्धविवृत ओ ध्वनि का प्रयोग होता है, हिंदी में उन्हें लिखने पर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ाॅ); जैसे डॉक्टर, कॉलेज, हॉस्पिटल आदि।
हिंदी लेखन में हाइफन का उपयोग सुस्पष्टता के लिए किया जाता है। द्वंद्व समास में पदों के बीच हाइफन रखा जाता है, जैसे - शिव-पार्वती, हँसी-मजाक, लेन-देन, खेलना-कूदना, जहाँ-तहाँ आदि। सा, जैसा आदि से पहले हाइफन रखने का विधान है; जैसे - तुम-सा, मीठा-सा, चाकू-से तीक्ष्ण, मोहन-जैसा आदि, लेकिन कई विद्वान जैसा के पहले हाइफन लगाना आवश्यक नहीं मानते। सामान्यतः तत्पुरुष समास में हाइफन का प्रयोग नहीं होता, यथा राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी आदि, लेकिन जहाँ उसके बगैर भ्रम की संभावना हो, वहाँ उसका उपयोग होता है, जैसे भू-तत्व (भूतत्व से भ्रम हो सकता है), अ-नख (बिना नख का, अनख लिखने से ऋोध का अर्थ निकल सकता है)। कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफन का प्रयोग होता है, जैसे द्वि-अर्थक। कुछ शब्द युग्मों के बीच इनका प्रयोग किया जाता है, जैसे मन-ही-मन, कुछ-न-कुछ, एक-से-एक, ज्यों-का-त्यों आदि।
अव्ययों के संदर्भ में नियम है कि उन्हें पृथक ही लिखा जाना चाहिए, जैसे एक साथ, सब कुछ, यहाँ तक। हिंदी में कई प्रकार के भावों को व्यक्त करनेवाले अव्यय हैं। इनमें से कुछ के आगे विभक्ति चिह्न भी लगते हैं, जैसे अब से, यहाँ से, रात भर। सम्मान सूचक श्री और जी अव्यय भी पृथक लिखे जाने चाहिए। वर्तनी संबंधी कुछ और बातें हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए ः
1. हिंदी में कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनके दो-दो रूप प्रचलन में हैं- गरमी/गर्मी, बरफ/बर्फ, बिलकुल/बिल्कुल, फुरसत/फुर्सत, दोबारा/दुबारा, दूकान/दुकान। इन दोनों रूपों को ही ठीक माना गया है। वैसे अधिकांश लोग प्रथम रूप के प्रयोग का समर्थन करते हैं।
2. संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, तत्सम रूप में प्रयुक्त होने पर वहाँ विसर्ग का प्रयोग किया जाना चाहिए, जैसे दुःखानुभूति, अंतःकरण, लेकिन यदि तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो तो, उसे बिना विसर्ग के लिखा जा सकता है; जैसे दुख-सुख के साथी।
3. पूर्वकालिक प्रत्यय कर को क्रिया से मिलाकर लिखा जाना चाहिए, जैसे खाकर, मिटाकर आदि।
4. संबोधन में अनुस्वार का प्रयोग नहीं होगा- भाइयो, बहनो।
हिंदी भारत की वृहद् क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा है। इसने दूसरी भारतीय भाषाओं से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है और हिंदीतरभाषी भी बडी संख्या में इसका प्रयोग करते हैं। एक बहुभाषी समाज में व्यवहृत होने के कारण उच्चारणगत विभिन्नता का होना स्वाभाविक है। इसके प्रयोगकर्ताओं में किसी शब्द के जो रूप प्रचलित हैं, या समानांतर दो रूप प्रचलित हैं, उन्हें नियम बनाकर किसी एक रूप के प्रयोग के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। केंद्रीय हिंदी निदेशालय और भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा वर्तनी संबंधी नियमावली बना देने के बावजूद शब्दों के कुछ परंपरागत रूप वैसे ही चल रहे हैं। इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि लेखन, टंकण और मुद्रण में वर्तनी की एकरूपता स्थापित हो, ताकि उसका एक अखिल भारतीय मानक स्वरूप उभर कर सामने आ सके।
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