इमाम हुसैन (रअ) दरअसल इंसानियत के तरफदार और इंसाफ के पैरोकार थे। यह समझ लेना जरूरी होगा कि इमाम हुसैन कौन थे और उन्हें क्यों शहीद किया गया। मजहबे इस्लाम (इस्लाम धर्म) के प्रवर्तक और पैगंबर हजरत मोहम्मद (सल्लाहलाहु अलैहि व सल्लम) के नवासे थे इमाम हुसैन।
इमाम हुसैन के वालिदे- मोहतरम (सम्मानीय पिताजी) 'शेरे-खुदा' (परमात्मा के सिंह) अली (रजि.) हजरत मोहम्मद यानी पैगंबर साहब के दामाद थे। बीबी फातिमा दरअसल पैगंबर मोहम्मद (सल्ल.) की बेटी और इमाम हुसैन (रअ) की माताजी (वालदा) थीं।
किस्सा कोताह यह कि हजरत अली (रअ) अरबिस्तान (मक्का-मदीना वाला भू-भाग) के खलीफा हुए यानी मुसलमानों के धार्मिक-सामाजिक राजनीतिक मुखिया हुए। उन्हें खिलाफत (नेतृत्व) का अधिकार उस दौर की अवाम ने दिया था। अर्थात हजरत अली (रजि.) को लोगों ने जनतांत्रिक तरीके यानी आमराय से अपना खलीफा (मुखिया) बनाया था।
हजरत अली के स्वर्गवास के बाद लोगों की राय इमाम हुसैन को खलीफा बनाने की थी, लेकिन अली के बाद हजरते अमीर मुआविया ने खिलाफत पर कब्जा किया। मुआविया के बाद उसके बेटे यजीद ने साजिश रचकर दहशत फैलाकर और बिकाऊ किस्म के लोगों को लालच देकर खिलाफत हथिया ली।
यजीद दरअसल शातिर शख्स था जिसके दिमाग में फितुर (प्रपंच) और दिल में जहर भरा हुआ था। चूंकि यजीद जबर्दस्ती खलीफा बन बैठा था, इसलिए उसे हमेशा इमाम हुसैन (रअ) से डर लगा रहता था। कुटिल और क्रूर तो यजीद पहले से ही था, खिलाफत यानी सत्ता का नेतृत्व हथियाकर वह खूंखार और अत्याचारी भी हो गया।
इमाम हुसैन (रअ) की बैअत (अधीनस्थता) यानी यजीद के हाथ पर हाथ रखकर उसकी खिलाफत (नेतृत्व) को मान्यता देना, यजीद का ख्वाब भी था और मुहिम भी। यजीद दुर्दांत शासक साबित हुआ। अन्याय की आंधी और तबाही के तूफान उठाकर यजीद लोगों को सताता था। यजीद दरअसल परपीड़क था।
यजीद जानता था कि खिलाफत पर इमाम हुसैन का हक है क्योंकि लोगों ने ही इमाम हुसैन के पक्ष में राय दी थी। यजीद के आतंक की वजह से लोग चुप थे। इमाम हुसैन चूंकि इंसाफ के पैरोकार और इंसानियत के तरफदार थे, इसलिए उन्होंने यजीद की बैअत नहीं की।
इमाम हुसैन ने हक और इंसाफ के लिए इंसानियत का परचम उठाकर यजीद से जंग करते हुए शहीद होना बेहतर समझा लेकिन यजीद जैसे बेईमान और भ्रष्ट शासक और बैअत करना मुनासिब नहीं समझा। यजीद के सिपाहियों ने इमाम हुसैन को चारों तरफ से घेर लिया था, नहर का पानी भी बंद कर दिया गया था, ताकि इमाम हुसैन और उनके साथी यहां तक कि महिलाएं और बच्चे भी अपनी प्यास नहीं बुझा सकें। तिश्निगी (प्यास) बर्दाश्त करते हुए इमाम हुसैन बड़ी बहादुरी से ईमान और इंसाफ के लिए यजीद की सेना से जंग लड़ते रहे।
यजीद के चाटुकारों शिमर और खोली ने साजिश का सहारा लेकर प्यासे इमाम हुसैन को शहीद कर दिया। इमाम हुसैन की शहादत दरअसल दिलेरी की दास्तान है, जिसमें इंसानियत की इबारत और ईमान के हरूफ (अक्षर) हैं।
- अजहर हाशमी
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इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक नए साल की शुरुआत मुहर्रम के महीने से होती है. शिया मुसलमानों के लिए ये महीना बेहद गम भरा होता है. जब भी मुहर्रम की बात होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है. आज से लगभग 1400 साल पहले
तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे. इसलिए कहा जाता है हर कर्बला के बाद इस्लाम जिंदा होता है.
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इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था. मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला. लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से ही कांप उठते थे. पैगंबर मोहम्मद की वफात के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था. जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा. यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा.
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हुसैन को ये बिल्कुल मंजूर नहीं था और हुसैन ने यजीद को अपना खलीफा मानने से इंकार कर दिया. यजीद से हुसैन का इंकार करना सहन नहीं हुआ और वह हुसैन को खत्म करने की साजिश करने लगा. यजीद की बात न मानने के साथ ही हुसैन ने अपने नाना
पैगंबर मोहम्मद का शहर मदीना छोड़ने का भी फैसला किया. मुहर्रम की दूसरी तारीख को जब हुसैन कर्बला पहुंचे तो उस समय उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था, जिसमें औरतों से लेकर छोटे बच्चों तक कुल मिलाकर 72 लोग शामिल थे. इसी दौरान कर्बला के पास यजीद ने इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन्हें मजबूर किया. लेकिन हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इंकार कर दिया.
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हुसैन के कर्बला पहुंचने के बाद मुहर्रम की 7 तारीख को इमाम हुसैन के पास खाने पीने की जितनी भी चीजें थीं वे सभी खत्म हो चुकीं थीं. ये देखकर यजीद ने हुसैन के लश्कर का पानी भी बंद कर दिया. मुहर्रम की 7 तारीख से
10 तारीख तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोग भूखे प्यासे रहे. लेकिन इमाम हुसैन सब्र से काम लेते रहे और जंग को टालते रहे.
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हर ढलते दिन के साथ यजीद के जुल्म बढ़ते ही जा रहे थे. ये देखने के बाद इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने के लिए कहा. लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर वहां से नहीं गया. मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज
ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया. यजीद बहुत ताकतवर था. यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं. जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे.
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इसी जंग के दौरान मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया. उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद
हो गए थे. यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं.
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हुसैन का कत्ल करने के बाद यजीद ने पहले बैत समर्थकों के घरों में आग लगा दी. इसके बाद काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया. कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे. हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से ग़म जाहिर करते हैं. शिया लोग अपना ग़म जाहिर करने के लिए मातम करते हैं, मजलिस पढ़ते हैं.
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मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही सभी शिया समुदाय के लोग पूरे 2 महीने 8 दिनों तक शोक मनाते हैं. इस दौरान वे लाल सुर्ख और चमक वाले कपड़े नहीं पहनते हैं. इन दिनों ज्यादातर काले रंग के ही कपड़े पहने जाते हैं. मुहर्रम के पूरे महीने शिया मुस्लिम किसी तरह की कोई खुशी नहीं मनाते हैं और न उनके घरों में 2 महीने 8 दिन तक कोई शादियां होती हैं. वे किसी अन्य की शादी या खुशी के किसी मौके पर भी शरीक नहीं होते हैं. शिया महिलाएं और लड़कियां पूरे 2 महीने 8 दिन के लिए सभी श्रृंगार की चीजों से दूरी बना लेती हैं.
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वहीं, सुन्नी मुस्लिम नमाज और रोजे के साथ इस महीने के मनाते हैं. जबकि कुछ सुन्नी समुदाय के लोग मजलिस और ताजियादारी भी करते हैं. हालांकि सुन्नी समुदाय में देवबंदी फिरके के लोग ताजियादारी के खिलाफ हैं.