हो गई है पीर पर्वत सी कविता में कवि के अनुसार क्या पिघलनी चाहिए? - ho gaee hai peer parvat see kavita mein kavi ke anusaar kya pighalanee chaahie?

हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
दुष्यन्त कुमार

संदर्भ[सम्पादन]

प्रस्तुत कविता ‘साये में धूप’ के ‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए’ नामक संग्रह से ली गई है जिसके रचयिता दुष्यन्त कुमार है।

प्रसंग[सम्पादन]

इस कविता में कवि ने देशवासियों को जागरण का संदेश देते हुए अमूल्य परिवर्तन का आवाहन किया है। "कविता में कवि भारतीय जनता की पीड़ा को पर्वत जैसी विशाल बताते हुए उसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए आवाहन करते हैं करते।

व्याख्या[सम्पादन]

कवि कहते हैं कि आज यह जाति भेदभाव, धर्म और शोषण की दीवार ऐसे हिल रही है, मानो खिड़कियों व दरवाजों के लगे हुए परदे हिल रहे हैं। वास्तव में होना यह है कि सम्पूर्ण बुनियाद ही हिल जाये, ताकि फिर से कुछ नया निर्माण किया जा सके। ऐसी शर्त रख रहे हैं कि परिवर्तन करना चाहिए जिसमें धर्म-जाति, भेदभाव, शोषण, अत्याचार को जड़ से मिटाना चाहिए।

"आतंकवाद के विषय में पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट साबित होता है आतंकवाद देश की सबसे बड़ी समस्या है। समय के साथ साथ आज देश में आतंकवाद की जड़ें इतनी मजबूत हो गई हैं कि हर जनमानस के मस्तिष्क में यह गहरी जगह बनाये हुऐ है। ’’ हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए’’ के माघ्यम से यह कहा जा सकता है कि इस पर्वतरूपी आतंकवाद का ढर्रा जो आज पूरे भारत में ही नही बल्कि पूरे विश्व को भी अपनें जहन में डुबाये हुये है उसे पिधलना अर्थात एक दम से तो नहीं लेकिन धीरे धीरे खत्म होना चाहिऐ।

’’इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’’ के माध्यम से यह भी कहा जा सकता है कि धरती पर गंगा की उत्पत्ति का कारण भागीरथ के वंश का श्रापग्रस्त होना ही था जिसे शुद्ध करनें के लिए गंगा को धरती पर बुलाया गया था उसी प्रकार समाज भी इस आतंकवाद रूपी श्राप से ग्रस्त हो गया है जिसे दूर करनें के लिए हमें प्रयास करनें होगें।

’’मेरे सीनें में नही तेरे सीनें में सही ’’ आतंकवाद की ज्वलंत समस्या का प्रभाव हर मानव मस्तिष्क में जगह बना रहा है साथ ही साथ हर व्यक्ति के मन में इसे खत्म करनें की क्रान्तिकारी भावना जाग्रत हो रही है। चाहे वह समाज का किसी भी वर्ग का हिस्सा हो उसके दिल में यह भाव होना आवश्यक है क्योंकि समाज को एकता के सुत्र में बांध कर ही इसे समाप्त किया जा सकता है

"आज गरीबी ने पर्वत के रूप में आकार ले लिया है यहाँ पर गरीबी बढती जा रही है गरीबी रूपी पर्वत को कम करने की आवश्कता है। आज का गरीब गरीब होता जा रहा है ओर अमीर अमीर होता जा रहा है अमीरों का ध्यान गरीबी मिटने की और नहीं जाता है क्योकि उन्हें गरीबो की परिस्थितिया मालूम नहीं होती है गरीबी से आशय हम मुलभुत सुविथाओ से लगते है जिसमे रोटी कपड़ा और मकान है। आज इसमे स्वस्थ सुविधाएं भी होनी चाहिए शिक्षा के क्षेत्र में भी इसका स्तर कम होता है यदि हमें वास्तव में गरीबी को दूर करना है तो हमें गरीबी मिटाने के प्रयास करने होगे समाज के लोगो में किसी न किसी पहल करनी होगी समाज में जागृति लानी होगी बेरोजगारी कम करने के तरीके जानने होगे और उन तरीको पर अम्ल करना होगा बोधिक स्तर में सुधार करना होगा गांव देहातो में रोजगार के साधनों को बढ़ाना होगा स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमे उन गरीबो का विशेष ध्यान रखना होगा जिनकी म्रत्यु चिकित्सा के आभाव में हो जाती है हमारी सरकार को गरीबी मिटाने की पहल करनी होगी आम आदमी का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की कोशिश करनी होगी हमें गरीबी को दूर करने के लिए संशाधन जुटाने होगे। शिक्षा,स्वास्थ्य, मनोरजन गरीबो को उपलब्ध करना होगा जिससे उनमे शिक्षा के प्रति जागरूकता हो, स्वस्थ हो और उनके मनोरजन के लिए हमे आधुनिक संसाधनों की आवश्यकता होगी जिससे मनोरजन के साथ साथ उनमे हम अत्यंत और आधुनिक संसाधनों से उनका परिचय करा सके जिससे उनका बोधिक स्तर ऊंचा होने से उनमे अच्छी समझ होगी समाज के सभी वर्ग को गरीबी मिटने की पहल करनी होगी शोषण रहित समाज का निर्माण करना होगा जो की इसके लिए हमे मुहीम चलानी होगी इस मुहीम में किसी न किसी को आगे आना होगा ।

विशेष[सम्पादन]

1 भाषा खड़ी बोली है।

2 कविता में बदलाव की अनुभूति है।

3 मानवीय, रूपक ,यमक, अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

4 गजल संग्रह "साये में धूप" से अवतरित की गई है।

5 छंदों का प्रयोग किया गया है।

6 आज की सामाजिक स्थिति पर व्यंग किया गया है।

7 कविता में आपातकाल पूर्व भारत की राजनीतिक स्थिति की आहटे महसूस की जा सकती है।

8 यह कविता देशवासियों को जागरण का संदेश देती है।

9 कविता में दीन दयालो के प्रति संवेदना व्यक्त की है।

10 कविता में कवि भारतीय जनता की पीड़ा को विशाल पर्वत के समान बताते हुए उसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए आवाहन कर रहे है।

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हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए