गृहस्थ आश्रम को सबसे ऊंचा और श्रेष्ठ क्यों माना जाता है? - grhasth aashram ko sabase ooncha aur shreshth kyon maana jaata hai?

विषयसूची

  • 1 गृहस्थ आश्रम क्यों महत्वपूर्ण है?
  • 2 गृहस्थ आश्रम में मनुष्य की आयु को कितना रखा गया है?
  • 3 प्रत्येक आश्रम को कितने कितने वर्ष की आयु में बांटा गया है?
  • 4 शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को जीवन में कितने और कौन कौन से ऋण चुकाने होते हैं?

गृहस्थ आश्रम क्यों महत्वपूर्ण है?

इसे सुनेंरोकेंगृहस्थ काल में व्यक्ति सभी तरह के भोग को भोगकर परिपक्व हो जाता है। गृहस्थ के कर्तव्य : गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं।

गृहस्थाश्रम के बारे में आप क्या जानते हैं?

इसे सुनेंरोकेंगार्हस्थ्य समाज का आधार स्तंभ है। जिस प्रकार वायु के आश्रम से सभी प्राणी जीते हैं उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम के सहारे अन्य सभी आश्रम वर्तमान रहते हैं (मनु. ३७७)। इस आश्रम में मनुष्य ऋषिऋण से वेद से स्वाध्याय द्वारा, देवऋण से यज्ञ द्वारा और पितृऋण से संतानोत्पत्ति द्वारा मुक्त होता है।

ब्रह्मचर्य आश्रम की उपयोगिता छात्र जीवन को कैसे लाभ पहुंचाता है?

इसे सुनेंरोकेंयह आश्रय स्थली भी है। पुष्‍ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है।

गृहस्थ आश्रम में मनुष्य की आयु को कितना रखा गया है?

इसे सुनेंरोकेंगृहस्थ: – इस समय मनुष्य को अपने सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह चरण 25 से शुरू होता है और 50 साल तक रहता है।

गृहस्थ आश्रम से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकें’गृहस्थाश्रम’ किसे कहते हैं? – Quora. “गृहस्थाश्रम” किसे कहते हैं? संज्ञा पुलिंग चार आश्रमों में से दूसरा आश्रम जिसमें ब्रह्मचर्य अर्थात् विद्याध्ययन आदि के उपरांत लोग विवाह करके प्रवेश करते थे, और घर का कामकाज देखते थे । जीवन की वह अवस्था जिसमें लोग स्त्री पुत्र आदि के साथ रहते और उनका पालन करते हैं ।

गृहस्थ जीवन कैसे जीना चाहिए?

इसे सुनेंरोकेंजिसका पक्ष सुपक्ष है, जो सुदेव-सुगुरु-सुधर्म को मानता है। परिवार, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का पक्ष नहीं लेता है। सुदेव वही होते हैं जो इच्छा रहित होते हैं, सुगुरु वह होते हैं जो शिष्य को सत्पथ दिखाए। संप्रदायवाद से परे रखें, और जो हिंसा रहित है वह सुधर्म है, जहां दयाभाव हैं वहां धर्म है।

प्रत्येक आश्रम को कितने कितने वर्ष की आयु में बांटा गया है?

इसे सुनेंरोकेंआश्रम चार हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। आश्रम ही हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था है। आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की उम्र 100 वर्ष मानकर उसे चार भागों में बाँटा गया है। उम्र के प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और ‍बुद्धि के विकास को निर्धारित किया गया है।

कौन सा आश्रम जीवन रूपी भवन की नींव के समान है?

इसे सुनेंरोकें► ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन रूपी भवन की नींव के समान है, क्योंकि यह मनुष्य के भावी जीवन की आधारशिला रखता है। मानव के जीवन में जन्म से लेकर उसकी 25 वर्ष की आयु तक के समय को ब्रह्मचर्य काल माना जाता है।

ऋषि ऋण कैसे चुकाये?

इसे सुनेंरोकेंऋषि ऋण : यह ऋण भगवान शंकर का है। इससे व्यक्ति का जीवन घोर संकट में घिरता जाता है या मृत्यु के बाद उसे किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिलती। खास उपाय : इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति को प्रतिमाह गीता का पाठ करना चाहिए। स्वयंभू साधुओं से दूर रहकर गीता भवन में चल रहे सत्संग में जाते रहना चाहिए।

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को जीवन में कितने और कौन कौन से ऋण चुकाने होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंतीन ऋण नहीं चुकता करने पर उत्पन्न होते हैं त्रिविध ताप अर्थात सांसारिक दुख, देवी दुख और कर्म के दुख। ऋणों को चुकता नहीं करने से उक्त प्रकार के दुख तो उत्पन्न होते ही हैं और इससे व्यक्ति के जीवन में पिता, पत्नी या पुत्र में से कोई एक सुख ही मिलता है या तीनों से वह वंचित रह जाता है।

गृहस्थाश्रम को सबसे ऊँचाऔर श्रेष्ठ क्यों माना जाता है?

इसे सुनेंरोकेंगृहस्थाश्रम के विषय में संत तिरुवल्लुवर ने कहा है – गृहस्थ जीवन ही धर्म का पूर्ण रूप है। गृहस्थाश्रम इसलिए भी श्रेष्ठ है कि जीवन में आनी वाली प्रत्येक बाधा और संकट का व्यक्ति अपने जीवन कौशल से सामना करता है। वह जिम्मेदारी के बोध से भरा होता है।

धर्म शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति के लिए कितने रनों का उल्लेख किया गया है?

इसे सुनेंरोकेंअनिरुद्ध जोशी मनुष्य जन्म लेता है तो कर्मानुसार उसकी मृत्यु तक कई तरह के ऋण, पाप और पुण्य उसका पीछा करते रहते हैं। हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि तीन तरह के ऋण को चुकता कर देने से मनुष्य को बहुत से पाप और संकटों से छुटकारा मिल जाता है।

*धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

*ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।

*धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्‍य माना गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में धर्म प्रचार तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।

पुष्‍ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है। यही पितृ यज्ञ भी है। पाँच महायज्ञों का उपयुक्त आसन भी यही है।

सनातन धर्म में पूर्ण उम्र के सौ वर्ष माने हैं। इस मान से जीवन को चार भाग में विभक्त किया गया है। उम्र के प्रथम 25 वर्ष को शरीर, मन और ‍बुद्धि के विकास के लिए निर्धारित किया है। इस काल में ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा ली जाती है। दूसरा गृहस्थ आश्रम माना गया है। गृहस्थ काल में व्यक्ति सभी तरह के भोग को भोगकर परिपक्व हो जाता है।

गृहस्थ के कर्तव्य :

गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या अन्य कार्य को करते हुए धर्म को कायम रखते हैं। धर्म को कायम रखने से ही गृहस्थ जीवन खुशहाल बनता है और जो धर्म को कायम नहीं रखकर उस पर तर्क-वितर्क करता है या उसकी मजाक उड़ाता है, तो दुख उसका साथ नहीं छोड़ते।

गृहस्थ को वेदों में उल्लेखित विवाह करने के पश्चात्य, संध्योपासन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, दान, यज्ञ, श्राद्ध कर्म, पुत्री और पुत्र के संस्कार, धर्म और समाज के नियम व उनकी रक्षा का पालन करना चाहिए। सभी वैदिक कर्तव्य तथा नैतिकता के नियमों को मानना चाहिए। नहीं मानने के लिए भी वेद स्वतंत्रता देता है, क्योंकि वेद स्वयं जानते हैं कि स्वतंत्र वही होता है जो मोक्ष को प्राप्त है।

मनमाने नियमों को मानने वाला समाज बिखर जाता है। वेद विरुद्ध कर्म करने वाले के कुल का क्षय हो जाता है। कुल का क्षय होने से समाज में विकृतियाँ उत्पन्न होती है। ऐसा समाज कुछ काल के बाद अपना अस्तित्व खो देता है। भारत के ऐसे बहुत से समाज हैं जो अब अपना मूल स्वरूप खोकर अन्य धर्म और संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं, जो अन्य धर्म और संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं उनके पतन का भी समय तय है। ऐसा वेदज्ञ कहते हैं, क्योंकि वेदों में भूत, भविष्य और वर्तमान की बातों के अलावा विज्ञान जहाँ समाप्त होता है वेद वहाँ से शुरू होते हैं।

ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के बाद व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान का कार्य करते हुए मोक्ष की अभिलाषा रखना चाहिए अर्थात उसे मुमुक्ष हो जाना चाहिए। यही वेद सम्मत नीति है। जो उक्त नीति से हटकर कार्य करता है वह भारतीय सनातन संस्कृति, दर्शन और धर्म की धारा का नहीं है। इस सनातन पथ पर जो नहीं है वह भटका हुआ है।

पुराणकारों अनुसार गृहस्थाश्रम के दो भेद किए गए हैं। गृहस्थाश्रम में रहने वाले व्यक्ति 'साधक' और 'उदासीन' कहलाते हैं। पहला वह व्यक्ति जो अपनी गृहस्थी एवं परिवार के भरण-पोषण में लगा रहता है, उसे 'साधक गृहस्थ' कहलाते हैं और दूसरा वह व्यक्ति जो देवगणों के ऋण, पितृगणों के ऋण तथा ऋषिगण के ऋण से मुक्त होकर निर्लिप्त भाव से अपनी पत्नी एवं सम्पत्ति का उपभोग करता है, उसे 'उदासीन गृहस्थ' कहते हैं।

गृहस्थ आश्रम को सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ क्यों माना जाता है?

गृहस्थाश्रम के विषय में संत तिरुवल्लुवर ने कहा है - गृहस्थ जीवन ही धर्म का पूर्ण रूप है। गृहस्थाश्रम इसलिए भी श्रेष्ठ है कि जीवन में आनी वाली प्रत्येक बाधा और संकट का व्यक्ति अपने जीवन कौशल से सामना करता है। वह जिम्मेदारी के बोध से भरा होता है।

गृहस्थ आश्रम क्यों महत्वपूर्ण है?

गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या अन्य कार्य को करते हुए धर्म को कायम रखते हैं।

इनमें से कौन सा आश्रम सबसे ऊंचा और श्रेष्ठ माना जाता है?

गृहस्थ आश्रम को सबसे ऊंचा और श्रेष्ठ क्यों माना जाता है​

गृहस्थ आश्रम कितने वर्ष के बाद शुरू होता है?

गृहस्थ आश्रम (25 से 50 वर्ष तक)- सामाजिक विकास हेतु धर्म,अर्थ,काम की प्राप्ति हेतु। 3. वानप्रस्थ आश्रम (50 से 75 वर्ष तक)-आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु।