महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 51वें अध्याय में संजय ने भीम और कर्ण के मध्य हुए घोर युद्ध का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]- Show विषय सूची
भीम और कर्ण के मध्य घोर युद्धसंजय कहते हैं- प्रजानाथ! महाराज! युद्धस्थल में कर्ण और भीमसेन का वह संघर्ष घोर, रौद्र और अत्यन्त भयंकर था। राजेन्द्र! वे दोनों महारथी जब परस्पकर भिड़ गये, उस समय वह देखकर मेरे मन में यह विचार उठने लगा कि न जाने यह युद्ध कैसा होगा। महाराज! तदनन्तर युद्ध का हौसला रखने वाले भीमसेन ने अपने बाणों से आपके पुत्रों के देखते-देखते कर्ण को आच्छादित कर दिया। तब उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता कर्ण ने अत्यन्त कुपित हो लोहे के बने हुए और झुकी हुई गांठ वाले नौ भल्लों से भीमसेन को घायल कर दिया। उन भल्लों से आहत हो भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीमसेन ने कर्ण को भी कान तक खींचकर छोड़े गये सात बाणों से पीट दिया। महाराज! तब विषधर सर्प के समान फुफकारते हुए कर्ण ने बाणों की भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र भीमसेन को आच्छादित कर दिया। महाबली भीमसेन ने भी कौरववीरों के देखते देखते महारथी कर्ण को बाणसमूहों से आच्छातदित करके विकट गर्जना की। तब कर्ण ने अत्यतन्त कुपित हो सुदृढ़ धनुष हाथ में लेकर सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए कंकपत्रयुक्त दस बाणों द्वारा भीमसेन को घायल कर दिया। साथ ही एक तीखे भल्ल से उनके धनुष को भी काट डाला। तब अत्यन्त बलवान महाबाहु भीमसेन ने कर्ण के वध की इच्छा से द्वितीय मृत्युदण्ड के समान एक भयंकर स्वर्णपत्र जटित परिघ हाथ में ले उसे गरजकर कर्ण पर दे मारा। वज्र और बिजली के समान गड़गड़ाहट पैदा करने वाले उस परिघ को अपने ऊपर आते देख कर्ण ने विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा उसके बहुत से टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात भीमसेन ने अत्यन्त सुदृढ़ धनुष हाथ में लेकर अपने बाणों द्वारा शत्रु सैन्यसंतापी कर्ण को आच्छानदित कर दिया। फिर तो एक दूसरे के वध की इच्छा वाले दो सिंहों के समान कर्ण और भीमसेन में वहाँ अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! उस समय कर्ण ने अपने सुदृढ़ धनुष को कान के पास तक खींचकर तीन बाणों से भीमसेन को क्षत-विक्षत कर दिया। कर्ण के द्वारा अत्यनन्त घायल होकर बलवानों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर भीमसेन ने एक भयंकर बाण हाथ में लिया, जो कर्ण के शरीर को विदीर्ण करने में समर्थ था। राजन। जैसे सांप बांबी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह बाण कर्ण के कवच और शरीर को छेदकर धरती में समा गया। उस प्रबल प्रहार से व्यथित और विह्वल-सा होकर कर्ण रथ पर ही कांपने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे भूकम्प के समय पर्वत हिलने लगता है। महाराज! तब रोष और अमर्ष में भरे हुए कर्ण ने पाण्डुपुत्र भीमसेन पर पच्चीस नाराचों का प्रहार किया। साथ ही अन्य बहुत से बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया और एक बाण से उनकी ध्वजा काट डाली। राजेन्द्र! फिर एक भल्ल से उनके सारथि को यमलोक भेज दिया और तुरंत ही एक बाण से उनके धनुष को भी काटकर बिना विशेष कष्ट के ही मुहूर्त भर में हंसते हुए से कर्ण ने भयंकर पराक्रमी भीमसेन को रथहीन कर दिया। टीका टिप्पणी व संदर्भ
सम्बंधित लेखवर्णमाला क्रमानुसार लेख खोजमहाभारत द्रोण पर्व मेंं जयद्रथवध पर्व के अंतर्गत 19वें अध्याय मेंं संजय ने धृतराष्ट्र से युद्ध में पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-[1] विषय सूची
कर्ण द्वारा भीम पर आक्रमण करनासंजय कहते है- राजन! अधिरथ पुत्र कर्ण का भयंकर शरीर सैकड़ों बाणों से व्याप्त था। वह किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान जान पड़ता था। उस रणभूमि में दोनों हाथों से बाणों को लेते, धनुष पर रखते, खींचते और छोड़ते हुए कर्ण के इन कार्यों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था। भूपाल! दायें-बायें बाण चलाते हुए कर्ण का मण्डलाकार धनुष अग्नि चक्र के समान भयंकर प्रतीत होता था। महाराज! कर्ण के धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले अत्यन्त तीखे बाणों ने सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्य की प्रभा को भी ढक दिया। तदनन्तर धनुष से छूटे हुए झुकी हुई गाँठ तथा सुवर्णमय पंख वाले बहुत से बाणों के समूह आकाश में दृष्टिगोचर होने लगे। राजन! अधिरथ पुत्र के धनुष से जो बाण छूटते थे, वे श्रेणबद्ध होकर आकाश में क्रौंच पक्षियों के समान सुशोभित होते थे। धनुष के बल से उठे हुए वे सुवर्ण भूषित बाण भीेमसेन के रथ पर लगातार गिर रहे थे। कर्ण के चलाये हुए सहस्रों सुवर्णमय बाण आकाश में टिट्डी दलों के समान प्रकाशित हो रहे थे। सूत पुत्र के धनुष से गिरते हुए बाण ऐसी शोभा पा रहे थे मानो एक ही अत्यन्त विशाल सा बाण आकाश में खड़ा हो। क्रोध में भरे हुए कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा से भीमसेन को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल जल की धाराओं से पर्वत को ढक देता है। भारत! वहाँ सैनिकों सहित आपके पुत्रों ने भीमसेन के बल, वीर्य, पराक्रम और उद्योग को देखा। भीम और कर्ण द्वारा एक-दूसरे पर बाणों की वर्षा करनाक्रोध में भरे हुए भीमसेन ने समुद्र की भाँति उठी हुई उस बाण वर्षा की तनिक भी परवा न करके कर्ण पर धावा बोल दिया। प्रजानाथ! सुवर्णमय पृष्ठ वाला भीमसेन का विशाल धनुष प्रत्यंचा खींचने से मण्डलाकार हो दूसरे इन्द्र धनुष के समान प्रतीत हो रहा था। उससे जो प्रकट होते थे, वे मानो आकाश को भर रहे थे।[1] भीमसेन ने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंख वाले बाणों से आकाश में सोने की माला सी रच डाली थी, जो बड़ी शोभा पा रही थी। उस समय भीमसेन के बाणों से आहत होकर आकाश में फैले हुए बाणों के जाल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गये। कर्ण और भीमसेन दोनों के बाण समूह स्पर्श करने पर आग की चिंगारियों के समान प्रतीत होते थे। अनायास ही उनकी युद्ध में सर्वत्र गति थी। सुवर्णमय पंख वाले उन बाण के समूह से सारा आकाश छा गया था। उस समय न तो सूर्य का पता चलता था और न वायु ही चल पाती थी। बाणों के समूह से आच्छादित हुए आकाश में कुछ भी जान नहीं पड़ता था। सूत पुत्र कर्ण नाना प्रकार के बाणों द्वारा भीमसेन को आच्छादित करता हुआ उन महामनस्वी वीर के पराक्रम का तिरस्कार करके उन पर चढ़ आया। माननीय नरेश! उन दोनों के छोड़े हुए बाण समूह वहाँ परस्पर सटकर अत्यन्त वेग के कारण वायु स्वरूप दिखायी देते थे। भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुषसिंहों के बाणों के परस्पर टकराने से आकाश में आग प्रकट हों जाती थी।[2] देवता आदि द्वारा कर्ण और भीम के पराक्रम की प्रशंसा करनाकर्ण ने कुपित होकर भीमसेन के वध की इच्छा से सुनार के माँजे हुए सुवर्ण भूषित तीखे बाणों का प्रहार किया। परंतु भीमसेन ने अपने को सूत पुत्र से विशिष्ट सिद्ध करते हुए बाणों द्वारा आकाश में उन बाणों में से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े कर डाले और कर्ण से कहा- ‘अरे! खड़ा रह’। फिर क्रोध एवं अमर्ष में भरे हुए बलवान भीमसेन ने जलाने की इच्छा वाले अग्नि देव के समान भयंकर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। उस समय उन दोनों के गोह चर्म के बने हुए दस्तानों के आघात से चटाचट की आवाज होने लगी। साथ ही हथेली का शब्द और महाभयंकर सिंहनाद भी होने लगा। रथ के पहियों की घरघराहट और प्रत्यन्चा की भयंकर टंकार भी कानों में पड़ने लगी। राजन! परस्पर वध की इच्छा रखने वाले कर्ण और भीमसेन के पराक्रम को देखने की अभिलाषा से समस्त योद्धा युद्ध से उपरत हो गये। देवता, ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व और विद्याधर गण ‘साधु साधु’ कहकर उन दोनों की प्रशंसा और फूलों की वर्षा करने लगे। भीम और कर्ण का युद्धतदनन्तर क्रोध में भरे हुए सुदृढ़ पराक्रमी महाबाहु भीमसेन ने अपने अस्त्रों द्वारा कर्ण के अस्त्रों का निवारण करके उसे बाणों से बींध डाला। महाबली कर्ण ने भी रणक्षेत्र में भीमसेन के बाणों का निवारण करके उनके ऊपर विषैले सर्पों के समान नौ नाराच चलाये। भीमसेन ने उतने ही बाणों से आकाश में सूत पुत्र के सारे नाराच काट डाले और उससे कहा ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। तत्पश्चात् महाबाहु वीर भीमसेन ने कर्ण के ऊपर ऐसा बाण चलाया, जो क्रुद्ध यमराज के समान तथा दूसरे यमदण्ड के सदृश भयंकर था। राजन! अपने ऊपर आते हुए भीमसेन के उस बाण को प्रतापी राधा नन्दन कण ने तीन बाणों द्वारा हँसते हुए से काट डाला। तब पाण्डु नन्दन भीमसेन ने पुनः भयानक बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी; परंतु कर्ण ने उन सब अस्त्रों को निर्भयता पूर्वक आत्मसात कर लिया।[2] क्रोध में भरे हुए सूत पुत्र कर्ण ने अपने अस्त्रों की माया से तथा झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा युद्ध परायण भीमसेन के दो तरकसों, धनुष की प्रत्यंचा, बागडोर तथा घोड़े जोतने की रस्स्यिों को भी युद्ध स्थल में काट डाला। फिर घोड़ों को भी मारकर सारथि को पाँच बाणों से घायल कर दिया। सारथि वहाँ से भागकर तुरंत ही युधामन्यु के रथ पर चढ़ गया। इधर क्रोध में भरे हुए काष्ठााग्नि के समान तेजस्वी राधा पुत्र कर्ण ने भीमसेन का उपहास-सा करते हुए उनकी ध्वजा और पताका को भी काट गिराया। धनुष कट जाने पर कुपित हुए महाबाहु भीमसेन ने शक्ति हाथ में ली और उसे घुमाकर कर्ण के रथ पर दे मारा। कर्ण कुछ थक सा गया था, तो भी उसने बहुत बड़ी उल्का के समान अपनी ओर आती हुई उस सुवर्ण भूषित शक्ति को दस बाणों से काट दिया। मित्र के हित के लिये विचित्र युद्ध करने वाले तथा बाण प्रहार में तत्पर सूत पुत्र कर्ण के तीखे बाणों से दश टुकड़ों में कटकर वह शक्ति धरती पर गिर पड़ी। तब कुन्ती कुमार भीमसेन ने युद्ध में सम्मुख मृत्यु अथवा विजय इन दो में से एक का निश्चित रूप से वरण करने की इच्छा रखकर ढाल और सुवर्ण भूषित तलवार हाथ में ले ली।[3] भारत! उस समय क्रोध में भरे हुए कर्ण ने हँसते हुए से वेग पूर्वक बहुत से अत्यंत भयंकर बाण मारकर भीमसेन की चमकीली ढाल नष्ट कर दी। महाराज! ढाल और रथ से रहित हुए भीमसेन ने क्रोध से आतुर हो बड़ी उतावली के साथ कर्ण के रथ पर तलवार घुमा कर चला दी। राजेन्द्र! वह बड़ी तलवार आकाश से कुपित सर्प की भाँति आकर सूत पुत्र कर्ण के प्रत्यन्चा सहित धनुष को काटती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देख अधिरथ पुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा और समरांगण में कुपित हो उसने शत्रु विनाशकारी सुदृढ़ प्रत्यन्चा वाला अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथ में लेकर उस पर कुन्ती पुत्र के वध की इच्छा से सुवर्णमय पंख वाले सहस्रों अत्यन्त तीखे बाणों का संधान किया। कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा घायल किये जाते हुए बलवान भीमसेन कर्ण के मन में व्यथा उत्पन्न करते हुए उसे पकड़ने के लिये आकाश में उछले। संग्राम में विजय चाहने वाले भीमसेन का वह चरित्र देख राधा पुत्र कर्ण ने अपना अंग सिकोड़कर भीमसेन के आक्रमण को विफल कर दिया। कर्ण की सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो गयीं थीं। वह रथ के पिछले भाग में दुबक गया था। उसे उस अवस्था में देखकर भीमसेन उसके ध्वज का सहारा लेकर पृथ्वी पर खड़े हो गये। जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेते हैं, उसी प्रकार भीमसेन ने कर्ण को उसके रथ से पकड़ ले जाने की जो इच्छा की थी, उनके इस कर्म की समसत कौरवों तथा चारणों ने भी प्रशंसा की। धनुष कट जाने तथा रथहीन होने पर स्वधर्म का पालन करते हुए भीमसेन अपने रथ को पीछे करके युद्ध के लिये ही खड़े रहे।[3] उनके रथ आदि साधनों को नष्ट करके राधा नन्दन कर्ण ने फिर क्रोध पूर्वक रणक्षेत्र में युद्ध के लिये उपस्थित हुए इन पाण्डु पुत्र भीमसेन पर आक्रमण किया। महाराज! एक दूसरे से स्पर्धा रखने वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ महाबली वीर परस्पर भिड़कर वर्षा ऋतु में गर्जना करने वाले दो मेघों के समान गरज रहे थे। युद्ध स्थल में अमर्ष और क्रोध से भरे हुए उन दोनों पुरुषसिंहों का संग्राम देव-दानव युद्ध के समान भयंकर हो रहा था।[4] जब कुन्ती कुमार भीमसेन के सारे अस्त्र शस्त्र नष्ट हो गये, उनके पास एक भी आयुध शेष नहीं रह गया और कर्ण के द्वारा उन पर पूर्ववत आक्रमण होता रहा, तब वे रथ के मार्ग को बंद कर देने के लिये अर्जुन के मारे हुए पर्वताकार हाथियों को वहाँ गिरा देख उनके भीतर प्रवेश कर गये। हाथियों के समूह में पहुँचकर मानो वे रथ के आक्रमण से बचने के लिये दुर्ग के भीतर प्रविष्ट हो गये हों, ऐसा अनुभव करते हुए पाण्डु पुत्र भीम केवल अपने प्राण बचाने की इच्छा करने लगे, उन्होंने राधा पुत्र कर्ण पर प्रहार नहीं किया। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले कुन्ती कुमार भीमसेन यह चाहते थे कि कर्ण के बाणों से बचने के लिये कोई व्यवघान (आड़) निकल जाय; इसीलिये वे अर्जुन के बाणों से मारे गये एक हाथी की लाश को उठाकर चुपचाप खड़े हो गये। उस समय वे संजीवन नामक महान औषधि युक्त पर्वत को उठाये हुए हनुमान जी के समान जान पड़ते थे। कर्ण ने बाणों द्वारा उस हाथी के भी टुकड़े टुकड़े कर दिये। तब पाण्डु नन्दन भीम ने हाथी के कटे हुए अंगोें को ही कर्ण पर फेंकना शुरु किया। रथों के पहिये, घोड़ों की लाशे तथा और भी जो-जो वस्तुएँ वे धरती पर पड़ी देखते, उन्हें उठाकर क्रोध पूर्वक कर्ण पर फेंकते थे; परंतु वे जो जो वस्तु फेंकते, उन सबको कर्ण अपने तीखे बाणों से काट डालता था। अब भीमसेन ने अपने अंगूूठे को मुट्ठी के भीतर करके वज्र तुल्य अत्यन्त भयंकर घूँसा तानकर सूत पुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा की। तब तक क्षण भर में उन्हें अर्जुन की याद आ गयी। अतः सव्यसाची अर्जुन ने पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी रक्षा करते हुए पाण्डु नन्दन भीम ने समर्थ एवं शक्तिशाली होने पर भी उस समय कर्ण का वध नहीं किया। इस प्रकार वहाँ बाणों के आघात से व्याकुल हुए भीमसेन को सूत पुत्र कर्ण ने बारंबार अपने पैने बाणों की मार से मूर्च्छित सा कर दिया। परंतु कुन्ती के वचन का स्मरण करके उसने शस्त्रहीन भीमसेन का वध नहीं किया। कर्ण ने उनके पास जाकर अपने धनुष की नोक से उनका स्पर्श किया। धनुष का स्पर्श होते ही वे क्रोध मे भरे हुए सर्प के समान फुफकार उठे और उन्होंने कर्ण के हाथ से वह धनुष छीनकर उसे उसी के मस्तक पर दे मारा। कर्ण - भीम का संवादभीमसेन की मार खाकर राधा पुत्र कर्ण की आँखें लाल हो गयीं। उसने हँसते हुए से यह बात कही- ‘ओ बिना दाढ़ी मूंछ के नपुंसक! ओ मूर्ख! अरे पेटू! तू तो अस्त्र शस्त्र के ज्ञान से सर्वथा शून्य है। युद्ध भीरु कायर! छोकरे! अब फिर कभी युद्ध न करना।[4] ‘दुर्बुद्धि पाण्डव! जहाँ अनेक प्रकार की खाने पीने की वस्तुएँ रखी हों, तू वहीं रहने के योग्य है। युद्धों में तुझे कभी नहीं आना चाहिये। ‘भीम! वन में रहकर तू फल मूल और फूल खाकर व्रत एवं नियम आदि पालन करने के योग्य है। युद्ध कौशल तुझ में नाम मात्र को भी नहीं है। ‘वृकोदर! कहाँ युद्ध और कहाँ मुनिवृत्ति। जा, जा, वन में चला जा। तात! तुझमें युद्ध की योग्यता नहीं है। तू तो वनवास का ही प्रेमी है। ‘मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू मत्स्यराज विराट का नौकर एक रसोईया रहा है। वृकोदर! तू तो घर में रसोईये, भृत्यजनों तथा दासों को बहुत जल्दी भोजन तैयार करने के लिये प्रेरणा देते हुए क्रोध से उन्हें डाँटने और मारने पीटने की योग्यता रखता है। ‘दुर्मति कुन्ती कुमार भीम! अथवा तू मुनि होकर वन में चला जा। वहाँ इधर उधर से फल ले आ और खा। तू युद्ध में निपुण नहीं है। ‘वृकोदर! तू फल मूल खाने और अतिथि सत्कार करने में समर्थ है। मैं तुझे हथियार उठाने के योग्य ही नहीं मानता’। प्रजा पालक नरेश! कर्ण ने बाल्यावस्था में जो अप्रिय वृत्तान्त घटित हुए थे, उन सबका उल्लेख करते हुए बहुत सी रूखी बातें सुनायीं। तत्पश्चात् वहाँ छिपे हुए भीमसेन का कर्ण ने पुनः धनुष से स्पर्श किया और उस समय उनका उपहास करते हुए फिर कहा - ‘आर्य! तुझे और लोगों के साथ युद्ध करना चाहिये। मेरे जैसे वीरों के साथ नहीं। मेरे जैसे योद्धाऔ से जूझने वालों की ऐसी ही अथवा इससे भी बुरी दशा होती है। ‘अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं चला जा। वे रणभूमि में तेरी रक्षा करेंगे। अथवा कुन्ती कुमार! तू घर जा। बच्चे! तुझे युद्ध से क्या लाभ है?’[5] कर्ण के ये अत्यन्त कठोर वचन सुनकर भीमसेन ठठाकर हँस पड़े और सबके सुनते हुए उससे इस प्रकार बोले - ‘अरे, दुष्ट! मैंने तुझे एक बार नहीं बारंबार हराया है; फिर क्यों व्यर्थ अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई कर रहा है। संसार में पूर्व पुरुषों ने देवराज इन्द्र की भी कभी जय और कभी पराजय होती देखी है। ‘नीच कुल में पैदा हुए कर्ण! आ, मेरे साथ मल्ल युद्ध कर ले। जैसे मैंने महान बलशाली महाभोगी कीचक को पीस डाला था, उसी प्रकार इन समसत राजाओं के देखते-देखते मैं तुझे अभी मौत के हवाले कर दूँगा’। भीमसेन का यह अभिप्राय जानकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कर्ण समस्त धनुर्धरों के सामने ही उस युद्ध से हट गया।[5] टीका टिप्पणी व संदर्भ
सम्बंधित लेखमहाभारत द्रोण पर्व में उल्लेखित कथाएँद्रोणाभिषेक पर्व वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोजकर्ण ने भीम को क्यों नहीं मरा?Explanation: क्योकि करन ने कुंती से वायदा क्या था की आपके 5 पुत्र जीवित रहेंगे और उसने सिर्फ अर्जुन को मारने का वायदा दुर्योधन से क्या था ! इसलिए उसने भीम को नहीं मारा !
भीम ने कर्ण को कितनी बार हराया?भीम २ बार पराजित हुए और कर्ण ०३ बार पराजित हुए। दोनों ने एक दूसरे को जीवन दान भी दिया है। पहले भीम ने जीवन दान दिया था क्योंकि कर्ण को मारने की प्रतिज्ञा अर्जुन ने की थी।
भीम और कर्ण में शक्तिशाली कौन था?1. बल- बल के मामले में कर्ण, भीष्म से आगे है क्योंकि वेदव्यास के एक श्लोक के अनुसार उनके शरीर में लगभग एक लाख हाथियों का बल था। किन्तु, भीष्म इतने शक्तिशाली नहीं थे। उन्हें केवल धनुर्विद्या में ही महारत हासिल थी जबकि कर्ण सभी प्रकार के अस्त्रों और शस्त्रों को चलाने की महारत हासिल थी।
क्यों कर्ण अर्जुन से बेहतर था?अर्जुन की शक्ति को कर्ण से इसलिए कम नहीं आंका जा सकता है कि कर्ण को अर्जुन जैसा जीवन नहीं मिला। जहां महाभारत का युद्ध कर्ण ने मित्रता के आधार पर लड़ा था तो वहीं अर्जुन ने नीति और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध में भाग लिया और जीता भी। ऐसे में कर्ण एक बेहतर मित्र हो सकते हैं लेकिन अर्जुन एक बेहतर योद्धा थे।
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