आदमी को कैसे कर्म करने चाहिए? - aadamee ko kaise karm karane chaahie?

मनुष्य जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मों से महान बनता है। हम किसी भी परिवार, जाति, धर्म या संप्रदाय में जन्म क्यों नहीं लेते, यदि हमारे कर्म अच्छे हैं तो लोग हमारा सम्मान करेंगे। ऐसी स्थिति में प्रत्येक मनुष्य को सदैव अच्छे कर्म करने चाहिए। मनुष्य को अपने हर कर्म का फल अवश्य मिलता है। इसलिए अगर हम अच्छे कर्म करते हैं तो अच्छे और बुरे कर्म तो बुरे परिणाम मिलते हैं। हालाँकि कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल तुरंत मिलता है जबकि कुछ को देर से फल मिलता है लेकिन यह निश्चित है कि मनुष्य को अपने अच्छे और बुरे दोनों कर्मों का फल भोगना पड़ता है। फल भोगने के बाद ही कर्म से छुटकारा मिलता है। इसलिए सभी को बुरे कर्मों से बचना चाहिए और हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए।

आप में से ज्यादातर लोग जो इसी संस्कृति में पले-बढ़े होंगे, उन्होंने कर्म के बारे में काफी कुछ सुना होगा। फिर भी यह सवाल मन में रह जाता है कि कर्म व क्रियाकलापों या कार्य कारण के इस अंतहीन चक्र से बाहर कैसे निकला जाए? क्या कुछ ऐसे क्रियाकलाप हैं, जो मुक्ति के मार्ग पर दूसरी गतिविधियों की तुलना में ज्यादा सहायक होते हैं? दरअसल, किसी भी तरह की कोई भी गतिविधि का नहीं होना ही सबसे अच्छा है, न शरीर में, न दिमाग में किसी तरह की कोई हलचल हो। लेकिन कितने लोग ऐसा कर पाने के काबिल हैं?

अंग्रेजी शासन के अंतिम दिनों में जब स्वतंत्रता आंदोलन मजबूत होने लगा था और अंग्रेज समझने लगे थे कि जल्द ही भारत में उनका राज खत्म होने वाला है, तो जाने से पहले वह जितना हो सके, भारत को लूट लेना चाहते थे। जब दुनियाभर में आर्थिक मंदी का छाने लगी तो अंग्रेजों की नजर दक्षिण भारत के मंदिरों पर पड़ी। हालांकि लोग काफी गरीब थे, भूख से मर रहे थे, लेकिन वे अपने भगवान की देखभाल बहुत अच्छे से करते थे, जिसकी वजह से मंदिरों में भारी खज़ाना भरा पड़ा था।

एक स्वामी – जो कुछ नहीं करते थे

अंग्रेजों को ये मंदिर आय का बड़ा स्रोत लगे, जिसके चलते उन्होंने इन मंदिरों को अपने नियंत्रण में रखने का फैसला किया। एक दिन एक कलेक्टर की नजर एक मंदिर के बहीखाते में दर्ज एक एंट्री पर पड़ी, जिसमें लिखा था- ‘ओन्नम पन्नादे, स्वामीक् सापाडु,’ जिसका मतलब है ‘ भोजन -ऐसे स्वामी के लिए, जो कुछ नहीं करते हैं, के लिए पच्चीस रुपये प्रतिमाह।

उस स्वामी ने इतना ‘कुछ नहीं’ किया था कि वहां पर जबरदस्त चीजें घटित हो रही थीं। इस आयाम से पूरी तरह से अनजान कलेक्टर पूरी तहर से अभिभूत हो गया था। यह देखकर कलेक्टर ने कहा कि हम ऐसे आदमी को क्यों खाना खिला रहे हैं, जो कुछ नहीं करता। उन्हें खाना देना बंद करो। यह सुनकर मंदिर का पुजारी परेशान हो गया और वह मंदिर के ट्रस्टी के पास गया और कहने लगा कि हम उन्हें खाना देना कैसे बंद करें? उनमें से एक ट्रस्टी ने कलेक्टर से जाकर कहा कि वह उनके साथ उस कुछ न करने वाले स्वामी के पास चलें। उस ट्रस्टी ने कलेक्टर से प्रार्थना की कि वह भी स्वामी की तरह बस सहज से रूप से बैठे रहें और कुछ भी न करें। कलेक्टर को लगा कि इसमें क्या बड़ी बात है। लेकिन पांच मिनट के भीतर ही कलेक्टर ने पुजारी से कहा कि ठीक है, इस आदमी को भोजन दिया जाए। उस स्वामी ने इतना ‘कुछ नहीं’ किया था कि वहां पर जबरदस्त चीजें घटित हो रही थीं। इस आयाम से पूरी तरह से अनजान कलेक्टर पूरी तहर से अभिभूत हो गया था। फिर उसने इस बारे में बात करना छोड़ दिया।

कर्म से पूरी तरह मुक्त

जो व्यक्ति बिल्कुल कुछ नहीं करता, वह कार्मिक याद्दाश्त और कार्मिक चक्रों से पूरी तरह मुक्त होता है। जब तक आप अपने कार्मिक यादों से जुड़े रहते हैं, तब तक अतीत खुद को दोहराता रहता है। कर्म का मतलब क्रियाकलाप के साथ उसकी यादें भी है।

जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल तभी आप शांत व स्थिर होकर बैठ सकते हैं। बिना कर्म के कोई याद्दाश्त नहीं होती, इसी तरह से बिना याद्दाश्त के कोई कर्म नहीं होता। जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल तभी आप शांत व स्थिर होकर बैठ सकते हैं। इस बारे में आप एक प्रयोग करके देख सकते हैं, आप कोशिश कीजिए कि आप लगातार दस मिनट तक बिना कुछ भी किए स्थिर रहें। इस दौरान आपके भीतर न तो कोई विचार आना चाहिए, न कोई भावनाएं और न ही कोई गतिविधि होनी चाहिए। अगर फिलहाल आपके लिए यह करना संभव नहीं हो रहा, अगर आपके मन में हजार चीजें चल रही हैं और आप स्थिर होकर नहीं बैठ सकते तो गतिविधि आपके लिए बेहद जरूरी हो जाती है। यह चीज ज्यादातर लोगों पर लागू होती है। सवाल आता है कि किस तरह के काम या गतिविधि को चुनना चाहिए? क्या आपको बस चलाना चाहिए? या फिर बाइक की सवारी करनी चाहिए? या नदी में तैरना चाहिए? या फिर ऑफिस में बैठना चाहिए? अथवा अपने दोस्तों के साथ गपबाजी करनी चाहिए? या चरस का सुट्टा मारना चाहिए? आपके काम की प्रकृति महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आप उसे कैसे करते हैं – यह महत्वूपर्ण है।

खुद को लगातार गतिविधि में झोंकना होगा

अधिकतर लोगों की शारीरिक व मानसिक स्थिति ऐसी है कि उन्हें लगातार गतिविधि की जरूरत होती है। शरीर व मन को ऐसी स्थिति में लाने में जहां किसी भी तरह का कम करने की जरुरत न हो, बहुत मेहनत लगती है।

जब तक आपको कुछ करने की जरूरत है और आप गतिविधि के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हैं, तब तक वह कार्मिक रिकॉर्डर उस गतिविधि को आपके लिए रिकॉर्ड करके रखता है और इसके परिणाम कई गुणा होंगे। फिलहाल के लिए तो सलाह यही है कि आप अपने शरीर व मन को जागरूकता व चुस्ती के एक खास तरह स्तर पर रखें, जिससे वक्त आने पर आप उसके लिए तैयार हों। तब तक आपको खुद को लगातार कामों में झोंकना होगा। सबसे महत्वपूर्ण चीज है कि आपको खुद को बीच में कोई ब्रेक नहीं देना होगा। और वह गतिविधि आपके अपने लिए नहीं होनी चाहिए। जब आप कुछ ऐसा करते हैं, जो किसी दूसरे की जरूरत के लिए होता है तो आप जो काम करते हैं, वह आपका नहीं होता। उससे आपको कुछ नहीं मिलता और न ही कुछ दिखाने के लिए होता है। किसी भी काम को एक भेंट की तरह करना, अपने भीतर के कार्मिक रिकॉर्डर को बंद करने का सीधा सा तरीका है। जब तक आपको कुछ करने की जरूरत है और आप गतिविधि के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हैं, तब तक वह कार्मिक रिकॉर्डर उस गतिविधि को आपके लिए रिकॉर्ड करके रखता है और इसके परिणाम कई गुणा होंगे। इसके विपिरीत अगर आपको खुद के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, और फिर भी आप उसे इसलिए करते हैं, क्योंकि किसी दूसरे को इसकी जरूरत है, या किसी दूसरे कारण से इसकी जरुरत है, तो फिर वह काम आपके लिए कर्म बंधन की तरह काम नहीं करेगा।

ऐसे काम जिनसे कर्म नहीं बनते

अगर आप ऐसा करने में समर्थ हैं, तो बिना किसी काम के आगे बढ़ना ही सही तरीका है। शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक सहित किसी भी स्तर पर कुछ भी नहीं करने में बहुत मेहनत लगती है।

अगर आज ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो आपसे चिपका रह सके तो फिर अतीत में हुई कार्मिक स्मृतियां या कर्म बंधन आपसे अलग होने लगते हैं। जब तक आप उस स्थिति में नहीं पहुँच जाते, तब तक आप काम से किसी तरह का पहचान या जुड़ाव बनाए बिना उसे एक भेंट की तरह कीजिए। अगर कुछ करने की जरूरत है, तो आप उसे कीजिए, वर्ना सहज रूप से बैठे रहिए। अगर आप बिना खुद को महत्व दिए कोई भी काम करेंगे तो फिर आपको उस कर्म के फल नहीं भोगने पड़ेंगे। आत्म-संतुष्टि व आत्म-महत्व के चलते किए गए कामों से ही कर्म इकठ्ठे होते हैं। अगर आप पूरी तरह से जीवंत व सक्रिय हैं और कोई नए कर्म इकठ्ठा नहीं कर रहे, तो आपके पुराने कर्म टूटकर गिरने शुरू हो जाते हैं। कर्म की यही प्रकृति है। पुराने कर्म आपसे केवल तभी तक चिपके रह सकते हैं, जब तक आप कार्मिक गोंद की नई परतें तैयार करते रहते हैं। अगर आज ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो आपसे चिपका रह सके तो फिर अतीत में हुई कार्मिक स्मृतियां या कर्म बंधन आपसे अलग होने लगते हैं।

अगर आप हर काम को एक समपर्ण या भेंट की तरह करते हैं तो फिर आपके कर्म बंधन धीरे-धीरे खुलने शुरू हो जाते हैं। जब तक आप कुछ भी न करने की स्थिति तक नहीं पहुँच जाते, तब तक आप चाहे जो कुछ भी करें, उसे अपने भीतर एक समर्पण या भेंट के तौर पर करें। अर्पण की भीतरी स्थति में, आपको कृपा मिलनी शुरू हो जाएगी।

मनुष्य को अच्छे कर्म करने के लिए क्या करना चाहिए?

आचार्यश्री ने कहा कि कोई व्यक्ति राेज सामाजिक, प्रतिक्रमण करता है या कोई भी धार्मिक कर्म करता है तो उसका फल सदैव उस मानव के लिए शुभ व सुखकारी ही होगा। यदि कोई व्यक्ति तप तपस्या या धार्मिक कार्य करे तो उसकी सदैव अनुमोदना करो। कभी भी ऐसे कार्याें में विघ्न डालने या आलोचना करने का काम मत करो।

मनुष्य का कर्म क्या होता है?

कर्म हिंदू धर्म की वह अवधारणा है, जो एक प्रणाली के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती है, जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुनः अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की ...

कर्मों का फल कौन देता है?

कर्मों का फल कौन देता है? कर्मो का फल कोई नहीं देता वो सामने आ जाता है। जैसे कर्म करता है वैसा फल मिलता है। यही प्रकृति का नियम है।