शारीरिक शिक्षा का क्या तात्पर्य है? - shaareerik shiksha ka kya taatpary hai?

ए आर वेमैंन के अनुसार – शारिरिक शिक्षा,  शिक्षा का वह भाग है जिसके अंतर्गत शारिरिक गतिविधयों द्वारा यक्ति का प्रशिक्षण एवं उसका पूर्ण विकास किया जाता है।

जे बी नैस के अनुसार – शारीरिक शिक्षा समूची का वह अंग है जो बड़ी मांस पेशियों से संबंधित क्रियाओं एवं उनसे संबंधित प्रतिक्रियाओ से जुड़ा है।

चाल्स ए बुसर के अनुसार – शारिरिक शिक्षा, शिक्षा प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग एवं उद्यम क्षेत्र है। जिसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं सामाजिक रूप से संपूर्ण नागरिकों का इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा विकास करना है जिनका चयन उनके उद्देश्यों की पूर्ति को ध्यान में रखकर किया गया है।

एचसी बक के अनुसार – शारीरिक शिक्षा शिक्षा के साधारण कार्यक्रम का एक भाग है जिसका संबंध शारीरिक कार्यक्रमों के द्वारा बच्चों की वृद्धि विकास तथा शिक्षा के साथ है।
शारीरिक शिक्षा तथा मनोरंजन की राष्ट्रीय योजना के अनुसार – शारीरिक शिक्षा एक ऐसी शिक्षा है जो बच्चों को संपूर्ण व्यक्तित्व के लिए विकास हेतु क्रियाओं द्वारा शरीर, मन, मस्तिष्क तथा आत्मा की पूर्णता की ओर बढ़ती है।

शारीरिक शिक्षा का क्या तात्पर्य है? - shaareerik shiksha ka kya taatpary hai?
शारीरिक शिक्षा क्या है? शारीरिक शिक्षा के बारे में भ्रान्तियाँ

शारीरिक शिक्षा क्या है? शारीरिक शिक्षा की भ्रांतियों को स्पष्ट कीजिए। 

शारीरिक शिक्षा की परिभाषा

डेल्बर्ट ओबर्टयूकट के अनुसार शारीरिक शिक्षा उन अनुभवों का संकलन है जो वैयक्तिक क्रियाओं के माध्यम से आते हैं।”

जेस्सी फेरिंग विलियम के अनुसार- “शारीरिक शिक्षा व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं का योग है जो अपनी भिन्नता के अनुसार चुनी जाती है तथा अपने उद्देश्य के अनुसार प्रयोग की जाती है।”

जय. बी. नैश के अनुसार- “शारीरिक शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा क्षेत्र का वह पड़ाव है, जो बाहुबल से सम्बन्धित क्रियाकलापों से सरोकार रखता है।”

शारीरिक शिक्षा के बारे में भ्रान्तियाँ

शारीरिक शिक्षा को इसके व्यापक अर्थ में समझने के लिए इससे सम्बन्धित अन्य पदों की अवधारणा को समझना और इन पदों को स्पष्ट करना आवश्यक है, जिन्हें प्रायः शारीरिक शिक्षा के अवधारणा को समझना और इन पदों को स्पष्ट करना आवश्यक है, जिन्हें प्रायः शारीरिक शिक्षा के मूल सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है।

शारीरिक शिक्षा, ‘शारीरिक प्रशिक्षण’, ‘शारीरिक संस्कृति’, ‘जिम्नास्टिक’, ‘खेल’, ‘स्पोर्ट’, ‘मनोरंजन’ आदि अवधारणाओं की तुलना में अधिक व्यापक एवं सार्थक है। शारीरिक शिक्षा में ये सभी अवधारणाएँ सम्मिलित हो सकती है। अतः शारीरिक शिक्षा के सन्दर्भ में भ्रांतिवश प्रयोग की जाने वाली संकल्पनाओं को समझना आवश्यक है ताकि शारीरिक शिक्षा का वास्तविक अर्थ स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो सके। शारीरिक शिक्षा के सम्बन्ध में प्रमुख भ्रांतियाँ निम्न हैं-

1. शारीरिक प्रशिक्षण एवं शारीरिक शिक्षा एक एवं समान हैं। सामान्य तौर पर शारीरिक प्रशिक्षण को शारीरिक शिक्षा के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता है, किन्तु इन दोनों की अवधारणा निम्न है। शारीरिक प्रशिक्षण शब्द का अस्तित्व सैन्य गतिविधियों से सम्बन्धित है। सेना में शारीरिक प्रशिक्षण अनिवार्य है क्योंकि सैन्य सेवा के अन्तर्गत अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए व्यक्ति का सशक्त एवं स्वस्थ होना प्राथमिक आवश्यकता है। अतः शारीरिक प्रशिक्षण मुख्य रूप से व्यक्ति की शारीरिक योग्यता (फिटनेस) में सुधार के साथ सम्बन्धित है। शारीरिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत निम्न गतिविधियों शामिल होता है- (1) अनुकूलन व्यायाम (2) कैलिस्थैनिक्स (3) प्रशिक्षण अभ्यास एवं माचिंग (4) जिम्नास्टिक

2. शारीरिक शिक्षा शारीरिक संस्कृति या शरीर सौष्ठव है। शारीरिक संस्कृति शब्द को यू.एस.एस.आर में शारीरिक शिक्षा के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता है। शारीरिक संस्कृति का मुख्य ध्येय शारीरिक सममिति के अनुरूप पेशियों के सुसंगत विकास द्वारा सुन्दर, आकर्षक एवं सुगठित शरीर का विकास करना है। इस प्रणाली में भारोत्तोलन, भार प्रशिक्षण एवं अन्य चयनित व्यक्तिगत व्यायामों के माध्यम से शरीर के पेशियों को विकसित एवं नियंत्रित किया जाता है।

3. शारीरिक शिक्षा जिम्नाटिक व्यायामों का समुच्चय है जिन्हें विशेषतः फिटनेस के विकास हेतु किया जाता है। सामान्य तौर पर जिम्नेजियम या अखाड़ों में विभिन्न उपकरणों के साथ या उनके बिना अभ्यास किये जाने वाले व्यायामों को जिम्नास्टिक कहा जाता है, किन्तु जिम्नास्टिक के अन्तर्गत स्वाभाविक एवं प्रारम्भिक दोनों प्रकार की शारीरिक गतियाँ आती हैं जो खेलों से सम्बन्धित व्यायामों के सुधार एवं अनुरक्षण के लिए उपयोगी है, और व्यक्ति के सामान्य एवं बहुउद्देशीय विकास में भी सहायक है। जिम्नास्टिक के प्रमुख उद्देश्य निम्न है- 1. स्वस्थ शारीरिक विकास के लिए शारीरिक गतियुक्त कौशलों का विकास करना और गामक कौशलों में सुधार लाना। 2. खेल संस्कृति को विकसित करने एवं खेल प्रदर्शनों में सुधार हेतु अवसर उपलब्ध कराना। 3. सक्रिय और नियमित प्रशिक्षण एवं खेलों के प्रति रुचि जाग्रत करना और उसे ‘बनाए रखना।

सामान्यतः जिम्नास्टिक में व्यायामों को तीन रूपों में वर्गीकृत किया जाता है—

(i) सामान्य व्यायाम- इस श्रेणी के अन्तर्गत ऐसे व्यायामों को शामिल किया जाता है जो आधारभूत कौशलों का विकास करते हैं।

(ii) विशिष्ट व्यायाम- इस श्रेणी के अन्तर्गत ऐसे व्यायामों को शामिल किया जाता है जो समन्वयनात्मक कौशलों का विकास करते हैं।

(iii) बहुउद्देशीय व्यायाम- इस श्रेणी के अन्तर्गत ऐसे व्यायामों को शामिल किया जाता है जो सन्धि सुनम्यता का विकास करते हैं।

4. शारीरिक शिक्षा मुख्यतः खेल क्रियाओं से सम्बन्धित है जिसमें अनुदेशन एवं पर्यवेक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। – हुजिन्गा ने खेल की निम्न रूप में परिभाषित कर खेल का प्रतिरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है- “खेल एक गतिविधि है जो समय और स्थान की निश्चित सीमा के भीतर आवश्यकता या सामग्री उपयोगिता क्षेत्र के बाहर, प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार्य नियमों के अनुसार आगे बढ़ती है। खेल के समय व्यक्ति की मनोदशा उत्साह और उमंगयुक्त होती है तथा अवसर के अनुरूप यह उत्सवमय या गंभीरतापूर्ण भी होती है। इस क्रियाशीलता में तनाव एवं उमंग की भावना भी जुड़ी हुई है जिसके परिणामस्वरूप विश्राम और खुशी की सुखद अनुभूति होती है।”

5. शारीरिक शिक्षा मनोरंजनात्मक क्रियाएँ है जो व्यक्ति को सामान्य चिंताओं एवं समस्याओं से दूर ले जाती हैं।- मनोरंजन अवकाश का एक सकारात्मक पक्ष है और यह शब्द पश्चिमी जगत् में व्यापक रूप से सक्रिय अवकाश का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है। चूँकि शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य अवकाश के समय का सदुपयोग करना है, इसलिए इसे भ्रान्तिवश शारीरिक शिक्षा के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है।

6. शारीरिक शिक्षा संगठित स्पोर्ट के कुछ रूपों में प्रतिभागिता के अतिरिक्त कुछ नहीं है।— खेल एवं शारीरिक शिक्षा की अंतर्राष्ट्रीय परिषद् ने स्पोर्ट को निम्न रूप में परिभाषित किया है-

‘शारीरिक क्रिया का कोई भी रूप जो खेल के लक्षणों को शामिल करे और जिसमें स्वयं के साथ संघर्ष का कोई रूप हो या दूसरों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना शामिल हो, सपोर्ट कहलाता है।”

मिशेनर (1977) भी सपोर्ट को उपर्युक्त लक्षणों के अनुरूप ही परिभाषित किया है- “प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रकृति की एथेलटिक गतिविधि जिसमें शारीरिक क्षमता या कौशल की आवश्यकता होती है, स्पोर्ट कहलाती है।”

इस प्रकार वर्तमान में भी हमारे समाज में शारीरिक शिक्षा के संदर्भ में गलत धारणाएँ विद्यमान हैं। इन्हीं कारणों से, शारीरिक शिक्षा को अब तक देश में अपना उचित स्थान नहीं मिला है। समाज का अधिकांश वर्ग शारीरिक शिक्षा के वास्तविक अर्थ से अच्छी तरह से परिचित नहीं है। विस्मय की बात यह है कि विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के शिक्षक भी शारीरिक शिक्षा के वास्तविक अर्थ में अवगत नहीं है, तो हम एक अशिक्षित व्यक्ति से क्या आशा कर सकते हैं? समाज में व्याप्त गलत धारणाओं के कारण ही शारीरिक शिक्षा के मानक अपनी दयनीय स्थिति में सुधार हेतु वर्तमान में भी संघर्षरत हैं।

‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, जो खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब’ इस तरह की लोकोक्तियाँ एवं सामाजिक अवधारणाएँ शारीरिक शिक्षा के विकास में एक स्थायी बाधा है।

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शारीरिक शिक्षा से क्या तात्पर्य है बताइए?

शारीरिक शिक्षा से आशय शरीर से संबंधित शिक्षा प्रदान करना हैं। यह शिक्षा सामान्यतः व्यायाम,योग,साफ-सफाई,जिमनास्टिक, सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों आदि के माध्यम से प्रदान की जाती हैं। शारीरिक शिक्षा प्रदान करने का उद्देश्य मात्र छात्रों को स्वस्थ रखना ही नही हैं।

शारीरिक शिक्षा का महत्व क्या है?

एक बालक के सर्वांगीण विकास हेतु शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है व स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है । शारीरिक शिक्षा का कार्य क्षेत्र व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है ।

शारीरिक शिक्षा की विशेषता क्या है?

शारीरिक शिक्षा का तात्पर्य शारीरिक व्यायाम, खेल और स्वच्छता में व्यवस्थित निर्देश प्रदान करने की प्रक्रिया को दर्शाता है। यह शब्द आमतौर पर स्कूल और कॉलेजों में शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों के लिए उपयोग किया जाता है। इस शिक्षा का उद्देश्य एक छात्र को स्वस्थ शरीर, मन और आचरण का प्रशिक्षण देना है।

शारीरिक शिक्षा के कितने क्षेत्र होते हैं?

वर्तमान काल में शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम के अंतर्गत व्यायाम, खेलकूद, मनोरंजन आदि विषय आते हैं। साथ साथ वैयक्तिक स्वास्थ्य तथा जनस्वाथ्य का भी इसमें स्थान है। कार्यक्रमों को निर्धारित करने के लिए शरीररचना तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान, मनोविज्ञान तथा समाज विज्ञान के सिद्धान्तों से अधिकतम लाभ उठाया जाता है।