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उद्देश्यइस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात, आपः - स्वास्थ्य और उस पर पड़ने वाले विभिन्न प्रकार के प्रभावों (आनुवांशिक, व्यावहारिक, पर्यावरणीय) को परिभाषित कर सकेंगे; - रिहाइशी-इलाकों (गाँव/नगर/शहर) में स्वच्छता और स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी समस्याओं की सूची बना सकेंगे और वर्णन कर सकेंगे; - जल द्वारा उत्पन्न रोग, जो रोगजनक, वाहक और रासायनिक प्रदूषकों के कारण होते हैं, उनके विभिन्न प्रकारों में अन्तर कर सकेंगे; - कुछ जल-जनित रोगों के सम्बन्ध में, कैसे फैलते हैं और क्या परिणाम होते हैं, वर्णन कर सकेंगे; - उन विशेष वायु प्रदूषकों की सूची तैयार कर पायेंगे जो कृषि, कुटीर उद्योग, बड़े उद्योगों, खनन क्षेत्र और घनी आबादी में होते हैं; - पर्यावरणीय कैंसरजन्य पदार्थों के उदाहरण दे सकेंगे और उसके नियंत्रण की विधियों को बता पायेंगे; - उन रोगों की सूची जो भारी धातुओं की विषाक्तता के कारण फैलते हैं और उनके रोक-थाम के उपायों का वर्णन कर सकेंगे; - विभिन्न प्रकार के व्यवसायजनित स्वास्थ्य खतरों (संकटों) की सूची बना पायेंगे; - उन तरीकों को बता पायेंगे जिनके कारण खदानों, कपड़ा मिलों, सीमेन्ट, रसायन और कागज उद्योग में कार्यरत मनुष्य वायु प्रदूषण के खतरे सम्पर्क में आते हैं। 11.1 स्वास्थ्य और उस पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावकिसी व्यक्ति के ऊपर बड़ी संख्या में पड़ने वाले प्रभावों की क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम स्वास्थ्य पर होता है। ये प्रभाव आनुवांशिक प्रभाव, व्यवहारिक प्रभाव और पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं। आनुवांशिक प्रभावः किसी भी जीव की शारीरिक और शरीर-तंत्र की विशिष्टताओं को निर्धारित करते हैं। पैतृक असमान्यताएँ ही आनुवांशिक रोग के रूप में माता-पिता से बच्चों में स्थानान्तरित हो जाती हैं। एलर्जी, ब्लडप्रेशर, मधुमेह (डायबिटीज) आदि पूर्ण रूप से जीन सम्बन्धी नहीं हैं। फिर भी इन जीनाें की वातावरण से अन्योन्य क्रिया के फलस्वरूप ये बीमारियाँ होती हैं। पोषण, तनाव, संवेगों, हार्मोन, औषध (डंग) और अन्य पर्यावरणीय व्यवहार के कारण ये आगे प्रवर्तित हो जाती हैं। व्यावहारिक प्रभावः मद्यव्यसनिता, धूम्रपान, दवाइयाँ (औषध) का उपयोग, तम्बाकू की लत और भोजन की अनियमित आदतों के कारण अनेक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। पर्यावरणीय प्रभावः पर्यावरण के अनेक घटक हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव छोड़ते हैं। इनको भौतिक, रासायनिक, जैविक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 11.2 स्वच्छता और निवास स्थानों की अन्य समस्याएँ- रिहाइशी स्थानों की अनियमित वृद्धि, अपर्याप्त आधारभूत सुविधाएँ और कूड़े के अनुचित संग्रहण, परिवहन, उपचार और निपटान की सुविधाओं की कमी के कारण प्रदूषण बढ़ता है और स्वास्थ्य संकट खड़ा हो जाता है। - उचित शौचालयों के अभाव में, विशेषकर गाँवों, नगरों और झोपड़-पट्टियों में मल विसर्जन का उचित प्रबन्ध न होने के कारण गन्दगी फैलती है और स्वास्थ्य संकट पैदा हो जाता है। - शुद्ध पेयजल की कमी के कारण अनेक जल-जनित रोग उत्पन्न होने का एक सबसे प्रमुख कारण हैं। - गाँव, कस्बों और शहरों में नालियों का उचित प्रबन्ध न होने से सार्वजनिक स्थानों पर गंदा पानी इकट्ठा हो जाता है। जानवरों का मल गड्ढों और कीचड़ में से जानवरों के अन्दर बाहर आने-जाने से यह गन्दगी दूर-दूर तक चारों ओर फैल जाती है जिसके कारण स्वच्छता और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ शुरू हो जाती हैं। भोजन का संक्रमित होना प्रायः पता ही नहीं चलता है। उसके कारण और प्रभावों से अनभिज्ञ होने के कारण मनुष्य को नई-नई स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। - व्यक्तिगत सफाई की ओर ध्यान न देना और बिना हाथ धोये खाना खाने आदि से भी कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। 11.2.1 गाँव
11.2.2 नगर या कस्बाअधिकतर नगरों में नालियों की समुचित व्यवस्था नहीं होती। फलस्वरूप गन्दा पानी इकट्ठा होकर गन्दे पानी (कीचड़) का गड्ढा बन जाता है। गाय, कुत्ते और अन्य जानवर शहरों में स्वतंत्र घूमते हैं और कहीं भी पड़ा उनका मल स्वास्थ्य समस्या को और बढ़ा देता है। सड़कें ठीक नहीं होती हैं और विभिन्न प्रकार के परिवहन साधनों से पर्यावरण और अधिक प्रदूषित होता है और स्वास्थ्य समस्या बढ़ जाती है। 11.2.3 शहर (City)शहरीकरण की तीव्र वृद्धि ने पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। शहरों की आबादी का 1/5वां भाग झोपड़-पट्टी में रहता है और एक तिहाई आबादी को स्वच्छता और शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है जिसका परिणाम है खराब स्वास्थ्य। अधिकतर शहर अनियोजित और अव्यवस्थित (Haphazard) क्षेत्रों से बने हैं जिनका आधारभूत ढाँचा ही अनुचित है। पर्यावरण का ध्यान किये बिना ही औद्योगिक क्षेत्र बना दिये गये हैं। अनुचित व्यावसायिक क्षेत्र, अनुचित परिवहन नेटवर्क, अनुचित हरित और मनोरंजन क्षेत्र और योजना में पर्यावरण के विचार की कमी से पर्यावरण का प्रदूषण और अवक्रमण में वृद्धि हुई है। सीवेज (मल-जल) का खुली नालियों में विसर्जन, शहर की जल-आपूर्ति को संदूषित करता है विशेषकर वर्षाऋतु में। (क) झुग्गी-झोपड़ी (झोपड़पट्टी, Slum): यह झोपड़ियों का ऐसा समूह है जो अनियोजित ढंग से, पास-पास, स्थापित हो जाता है। यहाँ सड़कों, नालियों, खुला स्थान या मैदान के लिये कोई जगह नहीं छोड़ी जाती। बहुत सी झोपड़ी ऐसे बनी होती हैं जहाँ शुद्ध हवा के आने जाने के लिये कोई स्थान नहीं होता। उसी में लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने से वहाँ धुआँ भर जाता है जिसके फलस्वरूप श्वसन सम्बन्धी समस्याएँ और रोग उत्पन्न हो जाते हैं। प्रायः शौचालय तो होते ही नहीं जिसके कारण जीवन दूभर हो जाता है खासतौर से महिलाओं का। उचित नालियों का प्रबन्ध न होने से स्वास्थ्य के लिये हानिकारक और अस्वच्छ स्थिति हो जाती है। शुद्ध पेयजल उपलब्ध न होने के कारण इन क्षेत्रों में पेचिश और डायरिया जैसी पेट की बीमारियाँ हो जाती हैं जो प्रायः बच्चों के लिये तो जानलेवा ही होती हैं। (ख) औद्योगिक क्षेत्रः अनेक उद्योग अनियोजित ढंग से स्थापित कर दिये जाते हैं। वातावरण पर उसका क्या और कैसा प्रभाव पड़ेगा इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जाता। अतः वायु, जल, भूमि और ध्वनि प्रदूषण अपने अवांछित परिणामों के साथ फैलता जाता है। औद्योगिक कचरा और निकलने वाला मल प्रायः बहुत हानिकर होते हैं। इसमें भारी धातु और अन्य विषाक्त पदार्थ भी मिले हो सकते हैं। जो अन्त में नीचे जाकर भूमिगत जल को संदूषित करते हैं जिसके कारण पानी पीने और अन्य कामों के योग्य नहीं रह जाता। (ग) रिहायशी और वाणिज्यिक क्षेत्रः शहरों में यह बहुत सामान्य बात है कि केवल निवास के लिये बनाये गये क्षेत्रों में भी व्यावसायिक गतिविधियाँ शुरू हो जाती हैं क्योंकि ये सब अनियोजित होती हैं तो इनका कोई आधारभूत ढाँचा नहीं होता। एक छोटे से क्षेत्र में बहुत भीड़ हो जाती है। गाड़ियों की अनियंत्रित पार्किंग से ट्रैफिक और लोगों को आने जाने में बहुत असुविधा होती है। ध्वनि स्तर भी बहुत बढ़ जाता है क्योंकि रेहड़ी वाले अपना सामान बहुत जोर से आवाज लगा कर बेचते हैं। घरेलू और रोज का व्यावसायिक कचरा सड़क के किनारे ढेर लगा दिया जाता है जिससे पूरा क्षेत्र गन्दगी से भर जाता है। यह स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिप्रद है। पेड़ों की पत्तियाँ और पौधों का कचरा जलाने से वायु प्रदूषण होता है विशेषकर सर्दियों में। (द) यातायातः खराब सड़कों के कारण यातायात भी खराब होता है। यातायात नियमों के उल्लंघन, बहुत अधिक गाड़ियाँ होने और जन-परिवहन की कमी के कारण यातायात अव्यवस्थित ही बना रहता है। गाड़ियों से निकलने वाले धुएँ, उनके कारण उड़ने वाली धूल से वातावरण प्रदूषित होता है। विशेषरूप से डीजल की गाड़ियों से और अन्य गाड़ियों से निकलने वाले हवा में तैरते कण, धुएँ और धूल से बहुत प्रदूषण होता है। पाठगत प्रश्न 11.1
11.3 रोग जनक, वाहक और रासायनिक प्रदूषकों के कारणजल-जन्य रोगों के फैलने के भिन्न-भिन्न तरीके विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 1/5वाँ भाग को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। विकासशील देशों में लगभग 80 से 90% सीवेज को अनुपचारित ही नदियों और जल-धाराओं में बहा दिया जाता है, ये नदियां और जल धाराएं ही पीने के लिये और घरेलू उपयोग के लिये जल प्रदान करती हैं। सीवेज को उपचारित न करने के कारण रोग-जन्य जीव जल-जन्य रोगों को फैलाते हैं। रोगों को फैलाने वाले वाहक जैसे मच्छर आदि जल में ही रहते हैं और दुनिया में लगभग एक तिहाई मृत्यु के लिये ये जीव ही उत्तरदायी हैं। नदियों और अन्य जल निकायों में बढ़ने वाला प्रदूषण जन-स्वास्थ्य के लिये बड़ा खतरा बन गया है। प्रदूषित जल अनेक आंत संबंधी (गस्ट्रों) समस्याओं का प्रमुख कारण है। यकृत का संक्रमण और कैंसर आदि रोग भी इसके कारण हो सकते हैं। डायरिया (पेचिश) के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की मृत्यु हो जाती है। 11.3.1 रोगों के फैलने के तरीकेरोग फैलाने वाले रोगजनक भिन्न-भिन्न ढंग से मानव शरीर में पहुँचते हैं। उसका वर्णन नीचे दिया जा रहा है- 1. स्पर्श या संपर्क द्वाराः संक्रमित व्यक्ति के साथ सीधे शारीरिक संपर्क से अथवा संक्रमित व्यक्ति की स्पर्श की हुई वस्तुओं के सम्पर्क में आने से अप्रत्यक्ष रूप से संक्रमण फैल जाता है। 2. माध्यमों द्वारा रोगों का संचरणः (क) रोगजन्य जीव जल, भोजन आदि द्वारा संचारित होते हैं। जब जल में संक्रमण यदि स्रोत पर ही होता है तो संक्रमण बड़ी जनसंख्या तक फैल जाता है। घरेलू जल आपूर्ति द्वारा ही हैजा, टाइफाइड और हैपिटाइटिस के रोग-जन्य (रोगजनक, Pathogen) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल जाते हैं। पानी में रहने वाले जीवों से भी संक्रमण फैलता है- उदाहरण के लिये हेल्मंथीज (परजीवी कृमि) जो अपने जीवन चक्र का बड़ा हिस्सा जल में ही बिताते हैं। (ख) अनेक रासायनिक प्रदूषक जैसे खाद्यपदार्थ के योग्य, खाद्यपदार्थों में मिलावट (अपमिश्रक), औद्योगिक कचरे की विषाक्तता, पीड़कनाशक और धातु जल में मिल जाते हैं यहाँ तक कि भूजल में भी और यही जल जब मनुष्यों और पशुओं द्वारा प्रयोग किया जाता है तो परिणामस्वरूप बीमारी फैलती है। जल की अपर्याप्त उपलब्धता और व्यक्तिगत स्वच्छता के अभाव में आँखों में जलन और लाली (टैंकोमा) और त्वचा का संक्रमण जैसे रोग फैलते हैं। 3. रोगवाहक (वैक्टर, Vector) का संचरणः वैक्टर रोगजनक का एक वाहक है। मच्छर जो अपने जीवन चक्र का हिस्सा जल में बिताते हैं। वैक्टर कुछ रोग जैसे मलेरिया, पीत ज्वर, इनसैफेलिटिस (हाथी पांव, फाइलेरिया) और डेंग्यू जैसी बीमारियों को फैलाते हैं। 11.3.2 जल जनित रोग, उनका फैलना और परिणामयह अनुमान लगाया गया है कि भारत में प्रतिवर्ष 73 मिलियन कार्य दिवसों का नुकसान जल-जन्य बीमारियों के कारण होता है। भारत नदी बाहुल्य देश है और यहाँ का सतही प्रवाह 97% उपलब्ध जल का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन वरदान की जगह ये नदियाँ प्रदूषण के कारण भारत के लिये अभिशाप सिद्ध होने लगीं। दिल्ली में प्रवेश के बाद यमुना बड़े स्तर पर प्रदूषित हो गई है। इसका कारण अनुपचारित सीवेज का इसमें मिलना है। सीवेज के अतिरिक्त औद्योगिक कचरा और अन्य प्रदूषक भी इसमें मिल जाते हैं। ऐसा पाया गया है कि दिल्ली में प्रवेश करने के बाद यमुना के जल में, दिल्ली में प्रवेश करने से पहले के जल की तुलना में 20 गुना अधिक प्रदूषण पाया गया है। जल-जन्य रोग संदूषित पेय जल से फैलते हैं। मल त्याग, नहाने धोने और खाद्य पदार्थ या अन्य वस्तुओं को धोने से जल संदूषित होता है। जल के दूषित होने से जलजन्य रोग जैसे त्वचा के रोग स्कैबीज और आँख के रोग ट्रैकॉमा और नेत्र श्लेष्मा शोथ (कन्जंकटिवाइटिस) आदि फैलते हैं। जल के कारण फैलने वाले रोग उन परजीवियों से फैलते हैं जो जल में रहते हैं इसमें घोंघा द्वारा संक्रमित रोग स्काइस्टोमियासिस है। प्रदूषित जल के कारण पेट में हुक वर्म और गोल कृमि भी हो जाते हैं। बीमारियों की एक बड़ी संख्या जल के द्वारा भिन्न-भिन्न ढंग से संचारित होती है। नीचे दी गई तालिका में बीमारी, फैलने का ढंग और उनके लक्षण दिये गये हैं-पाठगत प्रश्न 11.2
11.4 कृषि, उद्योग, खनन और शहरी क्षेत्रों से जुड़े वायु-प्रदूषकपूरे विश्व में पर्यावरणीय प्रदूषण स्वास्थ्य के लिये एक खतरा बन गया है। खासतौर से विकासशील देशों में यह और भी अधिक है जैसे भारत में। वायु प्रदूषण उस वायु की गुणवत्ता को नष्ट करता है जिसमें हम सांस लेते हैं। दूषित हवा में अनेक ऐसे तत्व मिल जाते हैं जो फेफड़ों के लिये हानिकारक होते हैं। वायु प्रदूषकों के कारण आँखों में जलन और सूजन, नाक का बंद होना, छींके और सिरदर्द आदि समस्याएँ होती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिक गम्भीर समस्याएँ भी पैदा करते हैं जो प्राणघातक भी हो सकती हैं। दूषित वायु के सम्पर्क में बहुत देर रहने से ब्रांकाइटिस, खांसी, अस्थमा और एम्फिसिमा रोग हो सकते हैं 11.4 कृषि कार्यों से होने वाला वायु प्रदूषणपीड़कनाशकः फसलों पर छिड़का जाने वाले पीड़कनाशकों की एक बड़ी मात्र भाप बन कर उड़ जाती है और खेती के ऊपर के वायुमंडल (पर्यावरण) को संदूषित करती है। धुआँ: फसलों के बचे अपशिष्टों (कचरे) को जलाने से धुआँ पैदा होता है और जिससे अनेक विषाक्त गैसें भी उत्पन्न होती हैं। जल-वाष्पः सिंचाई के बाद और पहले भी खेतों में आर्द्रता अधिक होती है। इसके अतिरिक्त उपकरणों के इस्तेमाल से उत्पन्न गैसें जैसे डीजल पम्प, ट्रैक्टर आदि भी कृषि क्षेत्र को संदूषित करते हैं। 11.4.2 औद्योगिकधुआँ: औद्योगिक क्षेत्र का सबसे बड़ा प्रदूषक धुआँ ही है। ये कोयले जैसे पुराने ईंधन को जलाने से उत्पन्न होता है। चिमनियों से प्रदूषकों का गहरा काला बादल निकलता है जो आस-पास के क्षेत्र को सफेद धूल या राख की मोटी चादर से ढक देता है। कार्बन डाइऑक्साइडः जीवाश्म ईंधन, लकड़ी और खेती के कचरे को जलाने से बहुत अधिक मात्र में कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न होती है जिससे वैश्विक ऊष्मण होता है और जलवायु में परिवर्तन आता है।सल्फर के ऑक्साइडः जीवाश्म ईंधन को जलाने से सल्फर डाइऑक्साइड उत्पन्न होती है। तेल रिफाइनरियों (तेलशोधक कारखाने) से निकलने वाला यह प्रमुख प्रदूषक है। उपर्युक्त किये गये वर्णन के अतिरिक्त कुछ अन्य उद्योग जैसे चीनी मिल, चर्मशोधक कारखाने आदि से बहुत दुर्गन्ध युक्त गैसें वातावरण में प्रसारित करते हैं। शहरी वातावरण में बहुत से दूसरे प्रदूषक और भारी धातुएँ सामान्य रूप से पाये जाते हैं। 11.4.3 खनन क्षेत्र (Mining areas)इन क्षेत्रों में हवा में तैरने वाले कण मुख्य प्रदूषक होते हैं। यह पत्थर कूटने वाली छोटी खान और आयरन (लौह) खदान में मुख्य रूप से होता है। दूसरे प्रदूषक सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड हैं। एस्बेस्टस खदानों के वायुमंडल में एस्बेस्टस डस्ट (धूल) पाई जाती है जिसके कारण ‘एस्बेस्टोसिस’ और सिलिका के कारण ‘सिलिकोसिस’ होता है। सीसा (लैड), जिंक के ही जैसे अन्य भारी धातुएँ जैसे क्रोमियम, आर्सेनिक, कॉपर और मैंगनीज एवं रेडान गैस भी विभिन्न खदानों में उच्च घनत्व के साथ एकत्र होती हैं। अल्फा और गामा विकिरण (रेडिएशन) का उच्च स्तर यूरेनियम की खानों और यूरेनियम अयस्क (कच्ची धातु) की टेलिंग (tailing) के आस-पास के वातावरण में पाया जाता है। 11.4.4 शहरी क्षेत्रों में प्रदूषणशहरी क्षेत्रों में हवा में तैरने वाले कणीय पदार्थ सबसे बड़े प्रदूषक हैं। ये मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों का परिणाम हैं जैसे ट्रैफिक, उद्योगों का धुआँ और डीजल गाड़ियों का धुआँ और रेल इंजन की गैसों जैसे सल्फर के ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड। इसके साथ ही आयरन, जिंक और मैग्नीशियम के कण भी हवा में तैरने वाले कणीय प्रदूषकों के साथ पाये जाते हैं। पाठगत प्रश्न 11.3
11.5 कैंसर उत्पन्न करने वाला (कैंसर जन्य) पर्यावरणी पदार्थ और उसके नियंत्रण की विधियांशरीर की कोशिकाओं में होने वाले सम्बन्धित रोगों का समूह कैंसर कहलाता है। सामान्य रूप से शरीर के विकास, वृद्धि और बेकार (क्षतिग्रस्त) कोशिकाओं को ठीक करने के लिये आवश्यकतानुसार एक कोशिका अनेक कोशिकाएं उत्पन्न कर सकता है। कोशिकाओं का निरन्तर विभाजन और वृद्धि मानव शरीर को सामान्य और स्वस्थ रखती है। परन्तु कभी-कभी बिना आवश्यकता के भी ये कोशिकाएं विभाजित होती रहती हैं। ये कोशिकाएं मिलकर एक समूह सा बना लेती हैं जिसे ‘ट्यूमर’ (Tumor अर्बुद) कहते हैं। ये ट्यूमर या तो सुर्दम्य (Benign बिनाइन) हो सकते हैं या दुर्दम्य (malignant मैलिग्नैन्ट) हो सकते हैं। प्रायः सर्जरी के द्वारा इन्हें निकाल दिया जाता है और ये दोबारा नहीं निर्मित होते। ये सुर्दम्य ट्यूमर शरीर के दूसरे अंगों में भी नहीं फैलते और ना इनसे जीवन को कोई खतरा होता है। इसके ठीक विपरीत ‘दुर्दम्य ट्यूमर’ कैंसर फैलाने वाले होते हैं। इन ट्यूमर की कोशिकायें असामान्य होती हैं और ये बिना किसी नियंत्रण के विभाजित और पुनः विभाजित होती रहती हैं। ये आस-पास के ऊतकों और अंगों पर प्रभाव डालकर उन्हें हानि पहुँचाती हैं। इस ट्यूमर की कोशिकाएं विभक्त होकर रक्त की धारा में या लसिका सम्बन्धी तंत्र में पहुँच जाती हैं और अपने स्थान से शरीर के अन्य अंगों में पहुँचकर नये ट्यूमर बनाने लगती हैं। ल्यूकेमिया और लिम्फोमा कैंसर रक्त बनाने वाली कोशिकाओं में ही प्रारम्भ होती हैं। अधिकतर कैंसर का नाम प्रभावित अंगों के आधार पर ही रखा जाता है जैसे फेफड़ों में शुरू होने वाले कैंसर को फेफड़ों का कैंसर और त्वचा में होने वाला कैंसर मेलानोमा के नाम से जाना जाता है। कैंसर का कारण बनने वाले एजेंटों को कार्सिनोजन (carcinogen) कहते हैं। और उन एजेंटों का वातावरण में उत्पन्न होना ‘पर्यावरणीय कार्सिनोजन’ कहलाता है। 11.5.1 तम्बाकूतम्बाकू खाना या पीना या तम्बाकू के धुएँ का निरन्तर सम्पर्क कैंसर के द्वारा हुई सभी मौतों का 85% कारण है। बीड़ी-सिगरेट पीने से पेट, यकृत, प्रोस्टेट, कोलन और मलद्वार का कैंसर होने की सम्भावनाएँ बहुत बढ़ जाती हैं। बिना धुएँ वाले तम्बाकू का प्रयोग, तम्बाकू का चबाना या सूंघना मुख और गले के कैंसर के कारण हैं। तम्बाकू के धुएँ के वातावरण में रहने से, जिसे ‘सक्रिय धूम्रपान’ (Active smoking) कहते हैं, धूम्रपान न करने वालों के लिये फेफड़ों के कैंसर की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। धूम्रपान और तम्बाकू को छोड़ते ही कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। छोड़ने के बाद धीरे-धीरे यह खतरा घटता ही जाता है। 11.5.2 पराबैंगनी (UV) विकिरण
11.5.3 आयनों में परिवर्तित होने वाला (आयोनाइजिंग) विकिरणउच्च स्तर का विकिरण जैसे विकिरण उपचार और एक्स-रे, और रेडियोएक्टिव पदार्थ कायिक (सोमेटिक) कोशिकाओं को हानि पहुँचा सकते हैं। इसके कारण ल्यूकेमिया और स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। थायराइड, फेफड़े, पेट और अन्य अंग भी कैंसर के खतरे से घिर जाते हैं। जापान में फेंके गये एटम बम में बचने वालों के अध्ययन से पता चलता है कि आयोनाइजिंग विकिरण से ल्यूकेमिया और अन्य कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। जहाँ तक संभव हो आयोनाइजिंग विकिरण द्वारा रोगों को पहचानना और उपचार करना कम से कम करें और इस प्रक्रिया के समय शरीर के अन्य अंगों को ढक कर रखें। 11.5.4 रसायन और अन्य तत्व
पीड़कनाशकः पीड़कनाशकों का अत्यधिक प्रयोग विशेषतौर से शाकनाशकों का प्रयोग करने से कैंसर की संभावना बढ़ जाती है। जैसे 2,4 डाइक्लोरोफिनोक्सिएसीटिक अम्ल (2-4-D) जैसे खरपतवारनाशकों से होने वाले एक विशेष कैंसर एनएचएल स्वीडन में पाया जाने वाला कैंसर (नॉन-हांजकिन्स लिम्फोमा) की संभावना 200 से 800% तक बढ़ जाती है। टॉक्साफिन, हैक्साक्लोरो साइक्लो हैक्सेन (बीएचसी), ट्राइ क्लोरोफिनोल, डैल्डिंन, डीडीटी जैसे कीटनाशकों से चूहे, चुहियों में लिम्फैटिक कैंसर हो जाता है। वातावरण में इन कीटनाशकों का अंश निरंतर पाये जाने से खतरा बना ही रहता है और कीटनाशकों के निम्नस्तर से हमारा सम्पर्क बना ही रहता है। इन कीटनाशकों का प्रयोग प्रतिबन्धित और सीमित कर दिया गया है। जैविक खेती और एकीकृत कीट प्रबन्धन कीट नियंत्रण की एक वैकल्पिक विधि है और यह पर्यावरण-मित्रवत विधि भी है। एस्बेस्टस, निकिल, कैडमियम, रेडॉन, विनाइल क्लोराइड, बैन्जिडाइन और बैन्जीन जाने माने कैंसरजन्य हैं। इनके प्रयोग में कमी लाने से और इनके सम्पर्क में कम से कम आने पर विभिन्न प्रकार के कैंसर से बचाव हो सकता है। 11.5.5 एलर्जन (प्रत्यूर्जक) और एलर्जीवातावरण में उपस्थित ऐसे तत्व जिनसे एलर्जी हो उन्हें एलर्जन (Allergen) कहते हैं। एलर्जन के कारण शरीर के अंदर एक प्रतिरोधन उत्तेजना पैदा हो जाती है जो एक प्रतिक्रिया का रूप ले लेती है। जिस व्यक्ति को एलर्जी होती है उसकी रोग से लड़ने की क्षमता को एलर्जन के कारण कम होती है जिससे एक विशेष एंटीबॉडी इम्युनोग्लोब्युलिन E (immunoglobulin E, lg E) की उत्पत्ति होती है जो उस आक्रमणकारी तत्व से लड़ सकता है। इससे रक्त कोशिकाओं से अन्य रसायन उत्सर्जित होते हैं, (जिसमें हिस्टमीन भी है) के साथ मिल कर एलर्जिक प्रतिक्रिया के लक्षण पैदा करते हैं। इसमें सबसे सामान्य लक्षण हैं छींक, नाक का बहना, आँखों और कानों में खुजली सी पैदा होना, सांस में तेज घरघराहट, खांसी, सांस फूलना, साइनस समस्या, गले में सूजन, बिच्छू-बूटी जैसी खुजली वाले दाने। अस्थमा, एक्जिमा और सिरदर्द भी एलर्जी की ही दूसरी अन्य समस्याएँ हैं। सबसे अधिक एलर्जी फैलाने वाले कारण एलर्जन हैं- विशेष पेड़ों और घास के परागकण, घरेलू बारीक धूल, निर्माण के सामान, कुत्ते, बिल्ली, ततैया और मधुमक्खी जैसे कीड़े, औद्योगिक और घरेलू रसायन, दवाइयाँ और कुछ खाद्य पदार्थ जैसे दूध और अंडे। एलर्जन में प्रोटीन होता है जो हमारे खाद्य-पदार्थों का एक आवश्यक अंग है। कुछ ऐसे एलर्जन भी होते हैं जिनमें प्रोटीन नहीं होता। इनमें दवाइयाँ भी शामिल हैं जैसे पैनिसिलीन-परन्तु शरीर में जाने के बाद इनका प्रोटीन से बंधना आवश्यक है। एलर्जी से बचने का सबसे अच्छा तरीका है एलर्जन को पहचानना, जो कठिन ही होता है, और फिर उसके सम्पर्क में आने से बचना चाहिए। ब्लू बेबी रोग (Blue Baby disease)आधुनिक कृषि में बहुत प्रकार के नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों और खादों का बहुत प्रयोग होता है। नाइट्रेट पानी में घुलनशील होता है, इसके कारण भूमिगत जल में नाइट्रेट का स्तर बढ़ जाता है और मिट्टी में घुल जाता है। भूमि में और जल में नाइट्रेट का स्तर जब 10ppm तक बढ़ जाता है तो यह हानिप्रद हो जाता है। जहाँ पर पेयजल के रूप में केवल भूमिगत जल का प्रयोग ही होता है वहाँ इसके कारण मैथाइमोग्लोबिनेमिया (Methaemoglobinaemia) नामक रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। यह रोग दूध पीते शिशुओं को अधिक होता है क्योंकि वे इस प्रदूषक के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। बच्चे बड़ी मात्रा में पानी पीते हैं, उनके जूस और सांद्रित खाद्यों, पाउडरों को पानी में मिलाते हैं, इससे उनमें पानी की मात्रा अधिक होती है। जब नाइट्रेटयुक्त जल उपभोग किया जाता है और आंतों में पहुँचता है तो आंतीय बैक्टीरिया नाइट्रेट को नाइट्राइटस में परिवर्तित कर देते हैं। नाइट्राइट आयन जब होमोग्लाबिन से जुड़ते हैं तो मैथाइमोग्लोबिन बनता है जिसके कारण रक्त की ऑक्सीजन लेने की क्षमता में बाधा पड़ती है जिसके कारण रक्त की कमी (एनीमिया) होती है जिसे मैथाइमोग्लोबिनेमिया कहा जाता है। इसके कारण मीथेनोग्लोबिन बनता है जब हीमोग्लोबिन का अणु आक्सीकृत होकर Fe2+ (फेरस) से Fe3+ (फेरिक) रूप में बदल जाता है। इस कारण रक्त में ऑक्सीजन लेने की कमी होने से बच्चों का शरीर धीरे-धीरे नीलापन लेने लगता है। इसीलिये इस रोग का नाम ‘‘ब्लू बेबी रोग’’ है। इसके लक्षण हैं, अधिक सोना, दूध का कम पीना, ऊर्जा की कमी, कमजोरी आदि। पानी से नाइट्रेट को इलेक्ट्रोडायलिसिस तथा विपरीत परासरण प्रक्रिया को अपनाकर हटाया जा सकता है। पानी के नाइट्राइटस को नाइट्रेट में ऑक्सीकृत करने के लिये पानी में एक तीव्र ऑक्सीकारक जैसे ओजोन को मिलाना पड़ता है। अस्थमा (Asthma)यह श्वसन नलिकाओं की एक लम्बी चलने वाली क्रॉनिक (दीर्घकालीन) बीमारी है। इसमें हवा का प्रवाह बाधित होता है (वायु मार्ग के पास की कोमल मांसपेशियां सख्त हो जाती हैं), सूजन हो जाती है और विभिन्न उत्तेजकों के सम्पर्क में आते ही कफ भी बनने लगता है। अस्थमा का कोई इलाज नहीं है परन्तु उसको नियंत्रित करने और उसकी तीव्रता को रोकने के लिये अनेक दवाइयाँ उपलब्ध हैं। अस्थमा प्राणघातक रोग है, इसमें आपातकालीन स्थिति में अस्पताल में रहना आवश्यक है। अस्थमा किसी भी आयु में हो सकता है। ब्रान्कियल नलियां क्यों सूजती हैं इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका। परन्तु बचपन में अस्थमा होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:- - एलर्जी और एलर्जी से उत्पन्न समस्याओं का कोई पारिवारिक इतिहास। सांस का फूलना, घरघराहट होना, छाती में या छाती के पास की मांसपेशियों में अकड़न या दर्द होना, कुछ हफ्तों तक निरन्तर चलने वाली खांसी (कफ) अस्थमा के लक्षण हैं। पाठगत प्रश्न 11.4
11.6 भारी धातु (हैवी मैटल) विषाक्तता और उसके रोकथाम के उपायहवा में विषाक्त धातुएँ, धातु निकालने वाले उद्योगों से, जैविक कचरा जलाने से, ऑटोमोबाइलों और कोयले पर आधारित ऊर्जा बनाने वाले उद्योगों के कारण फैल जाती है। ये भारी धातुएँ वायु में मिलकर वायु के साथ अपने स्रोत स्थान से बहुत दूर तक फैल जाते हैं, विशेषतौर से जब ये गैस के रूप में या बहुत बारीक कण रूप में उत्सर्जित होते हैं। वर्षा होने से ये धातु प्रदूषक हवा से निकलकर धरती पर और जल-निकायों में पहुँच जाते हैं। इन भारी धातुओं के कारण जन स्वास्थ्य पर तब प्रभाव पड़ता है जब ये खाद्य श्रृंखला में जुड़ जाते हैं। हैवी मैटल (भारी धातुओं) का नाश जैविक निम्नीकरण से नहीं हो सकता। मछलियों, ऑयस्टर (घोंघा), मसैल (सीप), तलछट और अन्य जलीय पारितंत्र के घटकों में भारी धातुओं के एकत्रित होने की रिपोर्ट पूरे विश्व से आती रही हैं। लैड, मरकरी, आर्सेनिक, और क्रोमियम जैसी भारी धातुएँ अक्सर वातावरण में पाई जाती हैं। इनके कारण जीवधारियों पर विषाक्त प्रभाव पड़ता है। 11.6.1 लैडगाड़ियों से निकलने वाले धुएँ से सीसा वातावरण में फैलता है। टेट्राइथाइल लैड (Tetraethyl lead, TEL) को गाड़ियों के इंजन को सुगमता से चलाने के लिये पेट्रोल में मिलाया जाता था जो कि एक एन्टीलॉक के रूप में काम करता है। तेल को एन्टीलॉक के लिये अन्य मिश्रण के द्वारा बदला जाता है जिससे गाड़ियों से लैड का उत्सर्जन कम हो जाता है। पेट्रोल में से लैड को हटा कर अब लैड-मुक्त पैट्रोल मिलने लगा है। बहुत सी औद्योगिक प्रक्रियाएँ में अभी भी लैड का प्रयोग होता है और इस प्रदूषक को उत्सर्जित करती हैं। बैटरी की छीलन में भी लैड पाया जाता है। यह पानी और खाने में मिलकर दोगुना-तिगुना विष उत्पन्न करता है। इसके कारण ठीक न होने वाले व्यवहारिक रोग, स्नायुतंत्र की क्षति और छोटे बच्चों और शिशुओं में अन्य विकास सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसके कारण फेफड़ों और गुर्दों का कैंसर भी हो सकता है। 11.6.2 पारद (मरक्युरी)जापान में 1960 में पारद विष की घटनाएँ (मिनामाता रोग) बड़े अनुपात में देखने में आई थी। इसका कारण मिनामाता खाड़ी की मछलियां खाना था क्योंकि ये मछलियां मिथाइल मरकरी से संदूषित थीं। पारद प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत जलीय जीव ही हैं। जैसे मछलियां, जिनमें पारद मिथाइल पारद के रूप में जमा हो जाता है। पारद से शरीर की कोशिकाएँ मर जाती हैं और मरकरी के सम्पर्क में आने वाले अंग क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और इस प्रकार उन अंगों का क्रियाकलाप बाधित हो जाता है। पारद का भाप के रूप में श्वास के साथ जाना और भी खतरनाक होता है। पारद का लम्बे समय तक सम्पर्क होने से मुख और त्वचा में घाव हो जाते हैं और स्नायुतंत्रीय समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। पारद विष के कुछ विशेष लक्षण हैं जैसे चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, स्मरणशक्ति की कमी, अनिद्रा, कंपकपी और मसूड़ों में सूजन। पारद के सम्पर्क से बचाव के लिये आवश्यक है कि इस बात की सावधानी रखी जाय कि पारद को वातावरण में निष्कासित न किया जाय, साथ ही पारद के स्थान पर किसी अन्य धातु का प्रयोग किया जाय। पारद थर्मामीटर का स्थान अब पारद मुक्त थर्मामीटरों ने ले लिया है। 11.6.3 आर्सेनिक (संखिया)
11.6.4 कैडमियम
11.6.5 अन्य भारी धातुएँ
पाठगत प्रश्न 11.5
11.7 व्यवसाय सम्बन्धी स्वास्थ्य बाधाएँ
11.7.1 भारी शारीरिक कार्य भारभारी शारीरिक कार्य करने वालों में खनिक, लकड़हारे, निर्माण कार्य करने वाले मजदूर, किसान, मछुआरे, भंडारण मजदूर और चिकित्सालयों के कर्मी आते हैं। बार-बार एक सा ही कार्य करने और निरन्तर मांसपेशियों पर भार पड़ने से चोट लगना और मांसपेशियों सम्बन्धी विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इनके कारण अल्पावधि के लिये या दीर्घकाल के लिये कार्य करने की अक्षमता आ जाती है। यह अक्षमता सदा के लिये भी हो सकती है। अनावृत और असुरक्षित मशीनें, असुरक्षित ढाँचा और खतरनाक औजार कार्य स्थल की मुख्य और सामान्य बाधाएं हैं। कृष्ण फुफ्फुस रोग (Black lung disease)कोयले की खानों में कोयले की धूल मुख्य वायु प्रदूषक होती है जिससे खनिक प्रतिदिन उसके सम्पर्क में रहते हैं। कोयले की धूल के इस जमाव के कारण खनिकों के फेफड़े काले दिखाई देते हैं। उनका स्वस्थ गुलाबी रंग कोयले की धूल की कालिमा से ढक जाता है इसीलिये इसका नाम ‘कृष्ण फुफ्फुस रोग’ रखा गया है। कृष्ण फुफ्फुस न्युमोकॉनियोसिस (Pneumoconiosis CWP) का प्रचलित नाम है। इसे एन्थ्राकोसिस (Anthracosis) भी कहते हैं। फेफड़ों की यह बीमारी खानों में काम करने वाले पुराने मजदूरों को होती है जो वर्षों से कोयले की धूल से प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं। उस शहर में रहने वाले लोगों के फेफड़ों में भी प्रदूषित हवा के कारण कालापन जम जाता है पर कोयले के खनिकों के फेफड़ों में यह बहुत बड़ी मात्र में जमती है। कोयले के बारीक कण फेफड़ों में जम जाते हैं क्योंकि ये फेफड़ों में नष्ट नहीं हो सकते और ना ही हटाये जा सकते हैं। साथ ही इस कालिमा के जमने से और फेफड़ों पर चोट लगने से ऑक्सीजन को रक्त में प्रवाहित करने की फेफड़ों की क्षमता घटती जाती है। इसका प्रारम्भिक लक्षण सांस की क्षमता घटती जाती है जो बीमारी के बढ़ने के साथ बढ़ता ही जाता है। कभी-कभी इसके कारण हार्टफेल भी हो जाता है। कुछ बीमारी की घटनाओं में निरन्तर बढ़ने वाली तंतुओं की एक गांठ (फाइब्रोसिस) विकसित हो जाती है, जिसके कारण ऊपरी भाग में क्षति होती ही रहती है। कुछ रोगियों में एम्फीसेमा (सांस का उखड़ना) रोग हो जाता है जो कृष्ण फुफ्फुस रोग का ही विकृत रूप है। एक्स-रे से इस रोग का पता लक्षणों के दिखने से पहले ही चल सकता है। जो रोगी जल्दी कम आयु में ही इस रोग के शिकार हो जाते हैं या जिनमें बढ़ने वाली गांठ बन जाती है उनमें असमय मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। रोकथामः कृष्ण फुफ्फुस रोग की रोकथाम का एक मात्र उपाय है कि कोयले की धूल के दीर्घकालीन सम्पर्क में रहने से बचें। कोयले की खानों में कोयले की धूल का स्तर कम रखने से और खनिक मजदूरों को सुरक्षात्मक कपड़े देने से इस दशा में कुछ हद तक बचाव हो सकता है। 11.7.2 शोर (ध्वनि)खदानों में, निर्माण स्थलों पर काम करने वाले मजदूर बहुत उच्च स्तर के शोर को झेलते हैं। यह शोर तनाव बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण तथ्य है। 80 से 90 db (db - डेसिबल-ध्वनि का माप) से उच्च स्तर के शोर में यदि आठ घंटे से अधिक काम करें तो यह कानों के लिये अत्यधिक हानिप्रद होता है। आवाज के कुछ विपरीत प्रभाव इस प्रकार हानि पहुँचाते हैं- (क) मनोवैज्ञानिकः शोर से संवेगात्मक समस्याएँ जैसे चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, एकाग्रता की कमी और क्षमता में कमी आदि उत्पन्न हो जाती हैं। (ख) श्रवण सम्बन्धी प्रभाव (ii) बहरापन या बाधित श्रवणः यह अस्थाई भी हो सकता है और स्थाई भी। अस्थाई बहरापन निरन्तर शोर के बीच रहने से हो जाता है जैसे टेलीफोन ऑपरेटरों का बहरापन अस्थाई होता है जो कुछ देर के आराम के बाद 24 घंटे के अन्दर ठीक हो जाता है। 90 dB से उच्च स्तर का शोर यदि बार-बार और लम्बे समय तक सहना पड़े तो परिणामस्वरूप स्थाई बहरापन हो सकता है। जिन लोगों को कान की कोई तकलीफ होती है, उनके लिये यह स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है। उनको शोर भरे वातावरण और कार्यस्थल से दूर ही रहना अच्छा है। (ग) गैर श्रव्य प्रभाव(i) बोलने और वार्तालाप (संचार) में बाधा: उच्च स्तर के शोर में अपनी बात को सुनाने के लिये आवाज को ऊँची करना पड़ता है। उदाहरण के लिये ढलाई के कारखाने में बॉयलर केबिन आदि में। गलियों में रेहड़ी लगाकर सामान बेचने वाले और छोटी दुकानों के दुकानदार भीड़ भरे बाजार में निरन्तर अपनी ऊँची आवाज में चिल्लाते हैं जिससे उनकी आवाज सुनाई दे सके। इसके कारण वे आवाज के विकार से ग्रसित हो जाते हैं जो जीवन में बाद में वॉयस बॉक्स (Voice box) के कैंसर में भी बदल सकता है। (ii) चिड़चिड़ापनः बहुत से लोग तेज आवाज से चिढ़ जाते हैं, खीझ जाते हैं, कुछ मनोरोगी भी हो जाते हैं। मनोरोगी शीघ्र ही क्रोधित हो जाते हैं और बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं। (iii) क्षमता (कुशलता): कार्य स्थल पर उच्च स्तर का शोर कार्य क्षमता और कुशलता में कमी लाता है। शान्त वातावरण कुशलता और क्षमता को बढ़ाने में सहायक होता है। (iv) अन्य शारीरिक परिवर्तनः शोर का अधिक सम्पर्क रक्तचाप बढ़ाता है। नाड़ी की गति, श्वास की गति और पसीना भी अधिक होता है। सिरदर्द, चक्कर, मतली, थकान, अनिद्रा, रंगो के प्रत्यक्षीकरण में व्यवधान, और रात्रि में दृष्टि कमजोर होना प्रायः शोर के शिकार रोगियों के लक्षण हैं। जो व्यक्ति रात्रि की पारी में काम करते हैं या जो उच्च रक्तचाप के रोगी हैं उन पर ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव दूसरों से अधिक होता है। 11.7.3 रसायन और जैविक कारक (एजेंट)
पाठगत प्रश्न 11.6
आपने क्या सीखा
पाठांत प्रश्न
पाठगत प्रश्नों के उत्तर11.1 11.2 11.3 11.4 11.5 11.6 पर्यावरण का मानव स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?रोटावायरस, हैजा, और टाइफाइड जैसी डायरिया संबंधी बीमारियां, अपशिष्ट जल प्रदूषण से संबंधित प्रमुख स्वास्थ्य चिंता हैं, जिससे 1.6 में 2017 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई। रेफरी लक्षणों में गंभीर निर्जलीकरण और कुपोषण और बच्चों के विकास और मानसिक विकास में कमी शामिल है।
पर्यावरण का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?1) पर्यावरण वह परिवेश है जहां हम रहते हैं, जीवित रहते हैं और फलते-फूलते हैं। 2) सभी सजीवों के अस्तित्व के लिए स्वच्छ वायु व वातावरण परम आवश्यक है। 3) स्वच्छ पर्यावरण सभी जीवित प्रजातियों के विकास और पोषण में मदद करता है। 4) पर्यावरण हमारे जीवन की सभी मूलभूत चीजें प्राप्त करने में सहायता करता है।
पर्यावरण का क्या अर्थ है पर्यावरण का मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?अन्य शब्दों में पर्यावरण उस परिवेश को दर्शाता है जो कि सजीवों को सभी तरफ से घेरे रहता है व उनके जीवन को प्रभावित करता है | यह वायुमंडल, जलमंडल, स्थलमंडल और जीवमंडल से बना होता है। इसके प्रमुख घटक मिट्टी, पानी, हवा, जीव और सौर ऊर्जा हैं। पर्यावरण ने एक आरामदायक जीवन जीने के लिए हमें सभी संसाधन प्रदान किए हैं ।
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