पर्यावरण की परिभाषापर्यावरण, पृथ्वी अथवा इसके किसी भाग पर प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली सभी जैव तथा अजैव वस्तुओं को चारों ओर से घेरे रहता है। उसमें उन सभी जैव तथा अजैव कारकों को सम्मिलित किया जाता है जो प्रकृति में एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। Show
सभी सजीव तत्वों जैसे पक्षी, जन्तु, पौधे, वन आदि को जैव घटक में सम्मिलित किया जाता है। दूसरी ओर, सभी निर्जीव वस्तुएं जैसे वायु, जल, चट्टान, सूर्य आदि पर्यावरण के अजैव घटक के उदाहरण हैं। इस प्रकार पर्यावरण का अध्ययन पर्यावरण के जैव तथा अजैव घटकों में अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन है। पर्यावरण की परिभाषाएँ
वर्तमान समय में पारिस्थितिविद् Environment शब्द के स्थान पर habiat अथवा Milieu शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, जिसका तात्पर्य समस्त परिवृत्तित है। पार्क, ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण उन सभी दशाओं का योग है जो मानव जाति को निश्चित समयावधि में स्थित नियत स्थान पर आवृत्ति करती है। पर्यावरण उन सब सजीव तथा निर्जीव घटकों का सकल योग है, जो जीव के चारों ओर मौजूद है एवं उसे प्रभावित करते है। सजीव घटकों को जैविक घटक तथा निर्जीव घटकों को अजैविक घटक कहते हैं। परि और आवरण शब्दों की संधि करके पर्यावरण शब्द बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है जो पारितः (चारो ओर) आवृत (ढके हुए) है। समस्त जीवधारियों को अजैविक या भौतिक पदार्थ घेरे हुए हैं अतः हम कह सकते हैं कि हम जीवधारियों तथा वनस्पतियों के चारों ओर जो आवरण है उसे पर्यावरण कहते हैं। आम जन में सामान्य रूप से पर्यावरण की 'प्रकृति' (Nature) से समानता की जाती है, जिसके अन्तर्गत ग्रहीय पृथ्वी के भौतिक घटकों (स्थल, वायु, जल, मृदा आदि) को सम्मिलित किया जाता है जो जीवमण्डल में विकास हेतु अनुकूल दशाएँ प्रदान करते हैं। इसके साथ ही साथ में सब इससे प्रभावित भी होते हैं और उसे प्रभावित भी करते हैं। प्राकृतिक पर्यावरण शब्द से जिस बात का विचार आता है वह है भू-दृश्य जिसके अनेक पहलू हैं और मिट्टी, पानी, रेगिस्तान अथवा पर्वत जिन्हें हम भौतिकीय प्रभावों के रूप में ज्यादा जैसे आर्द्रता, तापमान, मृदा-गठन में पाए जाने वाले अंतर तथा जैविकीय प्रभावों के रूप में सही-सही एवं ठीक-ढंग से समझ सकते हैं। साधारण रूप से पर्यावरण में अजैव (निर्जीव) (Abiotic) और जैव (सजीव) (Biotic) घटक होते हैं। निर्जीव घटक
सजीव घटक
कोई भी जीव दूसरे जीव के साथ पारस्परिक क्रिया किए बिना अकेला जीवित नहीं कह सकता। अतः प्रत्येक जीव के साथ अन्य जीव भी पर्यावरण के एक अंश के रूप में होते हैं। हम सब यह जानते हैं कि पर्यावरण स्थिर नहीं रहता, जैविक और अजैविक दोनों कारक ढेर सारे होते हैं तथा लगातार बढ़ते रहते हैं। जीव अपने पर्यावरण में एक परास (Range) के भीतर ही होने वाले परिवर्तनों को सहन कर सकता है और उसे सहनता-परास (tolerance-range) कहते हैं। पर्यावरण की संरचनापर्यावरण भौतिक एवं जैविक दोनों प्रकार की संकल्पनाओं से निर्मित है। अतः इसमें पृथ्वी के दोनों अर्थात् अजीवित तथा जीवित संघटकों को सम्मिलित किया जाता है। 1. भौतिक पर्यावरण - भौतिक पर्यावरण तीन प्रकार का होता है
विभिन्न स्थानिक मापकों पर इन तीन प्रकार के पर्यावरणों को कई स्तरीय लघु इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है। जैसेपर्वत पर्यावरण, पठार पर्यावरण, मैदान पर्यावरण, झील पर्यावरण, सरिता पर्यावरण, हिमनद पर्यावरण, मरुस्थल पर्यावरण, सागर तटीय पर्यावरण, सागरीय पर्यावरण आदि। 2. जैविक पर्यावरण की संरचना पौधों तथा मानव सहित सभी प्रकार के जीव-जंतुओं द्वारा निर्मित होती है। इन सभी में मनुष्य एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। वृहद स्तर पर जैविक पर्यावरण को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
पर्यावरण मुख्यतः तीन प्रकार के तत्त्वों से मिलकर बना है- जैव तत्त्व, अजैव तत्त्व, मौसम विषयक।
पर्यावरण के ये तीनों तत्त्व एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि परस्पर संबंधित हैं। इनके संतुलन को पर्यावरणीय संतुलन या पारिस्थितिकीय संतुलन कहा जाता है। जो तत्त्व इस संतुलन को बाधित करते हैं उन्हें प्रदूषक तत्त्व कहा जाता है। पर्यावरण मानव के शारीरिक, सामाजिक तथा आर्थिक विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है। जिस प्रकार भोजन, वस्त्र, आवास के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, यातायात की समुचित व्यवस्था आदि का सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार के सर्वांगीण विकास में पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मानव जीवन के इस महत्त्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा का ही परिणाम है कि पर्यावरण की सुरक्षा आज विश्व के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर उभरी है। पर्यावरण का महत्व
हमारे जीवन के लिए पर्यावरण बहुत ही आवश्यक है क्योंकि जब हमारा जन्म होता है तभी हम पर्यावरण में प्रवेश करते हैं और संपूर्ण जीवन पर्यावरण से संबंधित रहता है क्योंकि कोई भी प्राणी बिना पर्यावरण के जीवित नहीं रह सकता अर्थात इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है अथवा जो कुछ भी विद्दमान है उसे पर्यावरण कहते हैं इसलिए हमारे जीवन के लिए पर्यावरण अत्यंत महत्व रखता है। कोई भी जीव जंतु अथवा मनुष्य या प्राणी पेड़ पौधे जब तक पर्यावरण में अपना पैर नहीं रखता है तब तक उसका विकास संभव नहीं है अतः पर्यावरण हमारे जीवन के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। पता हमें अपने आसपास के पर्यावरण को स्वच्छ रखना चाहिए जिससे हमारा जीवन का विकास संपूर्ण ढंग से हो सके। क्योंकि हमें पर्यावरण से ही ऑक्सीजन पानी और अनाज तथा अन्य जीवन से संबंधित सभी पदार्थ प्राप्त होते हैं इसलिए पर्यावरण के बिना जीवन असंभव है सामान्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि यदि पर्यावरण नहीं तो जीवन नहीं। क्या आप जानते हैं? चालू अनुमानों के आधार पर संसार का सारा निष्कर्षण योग्य कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस तथा यूरेनियम-235 के भंडार अर्थात हमारे ऊर्जा के सभी वर्तमान स्रोत लगभग 50-75 वर्षों के अन्दर समाप्त हो जायेंगे। पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएंमानवीय सभ्यता की उन्नति के साथ मानवीय आवश्यकताओं में वृद्धि तथा विविधता उत्पन्न हुई है। इससे प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से क्षय हुआ है। अनेक संसाधन तीव्र गति से खर्च किये जा रहे हैं जिससे बहुत से संसाधनों का अत्यधिक प्रयोग और क्षय हुआ है। संसाधनों के अत्यधिक प्रयोग से अनेक पर्यावरण संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। इनमें वायु-प्रदूषण, जल प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि तथा वनों का निम्नीकरण तथा गैर-नवीकरणीय संसाधनों जैसे जीवाश्म ईंधन और खनिजों का निम्नीकरण सम्मिलित हैं। निम्न भागों में आप इन पर्यावरण संबंधी समस्याओं का अध्ययन करेंगे और उनके अर्थव्यवस्था तथा पृथ्वी ग्रह पर पड़ने वाले प्रभाव के महत्व को समझ पायेंगे। पर्यावरण प्रदूषण के प्रकारप्रदूषण शब्द से अभिप्राय प्राकृतिक संसाधनों अथवा प्राकृतिक जैव तंत्र की गुणवत्ता में अवांछनीय परिवर्तन से है। यह परिवर्तन तत्काल अथवा लम्बी समय अवधि में जीवन के लिये हानिकारक हो सकता है। इस प्रकार प्रदूषण जीवधारियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। पर्यावरण प्रदूषण किसी प्रदूषक द्वारा होता है। प्रदूषक कोई व्यर्थ पदार्थ अथवा वस्तु होता है जो प्राकृतिक संसाधनों अथवा प्राकृतिक जैवतंत्र में अवांछनीय परिवर्तन लाता है।धुआं, वातावरण में धूल तथा जहरीली गैसें, जल में औद्योगिक स्राव तथा शहरों से जल में मल पदार्थ प्रदूषकों के कुछ सामान्य उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त मानवीय गतिविधियां भी उष्मा तथा ध्वनि उत्पन्न करती हैं तथा जीवधारियों को अन्य अनेक प्रकार से हानि पहुंचाती हैं। पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार
वायु प्रदूषणवायु प्रदूषण, रासायनिक पदार्थों, पदार्थों के कण अथवा जैव पदार्थों जो मनुष्यों अथवा अन्य जीवधारियों को हानि या असुविधा का कारण बनते हैं अथवा प्राकृतिक या स्थित पर्यावरण को हानि पहुंचाते है, का वातावरण में आने से है। प्रमुख वायु प्रदूषकों में सल्फर के आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, कार्बन डाइआक्साइड (जो एक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस भी है), जहरीले पदार्थ तथा पदार्थों के कणों को सम्मिलित किया जाता है। क्या आप जानते है? विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि प्रत्येक वर्ष 24 लाख लोगों की प्रत्यक्ष रूप से वायु प्रदूषण से संबंधित कारणों से मृत्यु हो जाती है। प्रत्येक वर्ष पूरे विश्व में मोटर गाड़ी दुर्घटनाओं की अपेक्षा अधिक मृत्यु वायु प्रदूषण से जुड़ी होती हैं। वायु प्रदूषण के स्रोत वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों में सांस लेने में कठिनाई, घरघराहट के किया जा सकता है। इन प्रभावों के परिणामस्वरूप औषधि प्रयोग, चिकित्सकों की संख्या अथवा आपातकालीन विभागों में आगमन में वृद्धि, अस्पतालों में अधिक प्रवेश तथा असामयिक मृत्यु में वृद्धि हो सकती है। वायु प्रदूषण के स्रोत
वायु प्रदूषण के प्रमुख प्राकृतिक स्रोतों में सम्मिलित हैं:
जल प्रदूषणजल प्रदूषण हानिकारक यौगिकों को हटाये बिना उनका जल स्रोतों (जैसे, झील, नदियां, महासागर तथा भू-जल) में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निस्सरण है। जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों में औद्योगिक रासायनिक पदार्थ तथा स्राव, पोषक पदार्थ, व्यर्थ जल, मल पदार्थ आदि सम्मिलित हैं। जल प्रदूषण के प्रभाव जल से उत्पन्न अनेक बीमारियां जैसे हैजा, टायफाइड, अतिसार आदि प्रदूषित जल में उपस्थित रोगाणुाओं द्वारा उत्पन्न होती हैं जो मनुष्यों तथा जन्तुओं को समान रूप से प्रभावित करती हैं। प्रदूषण जल के गुणों को प्रभावित करता है। प्रदूषक, जिसमें जहरीले रसायन शामिल हैं, जल की अम्लीयता संचालकता तथा तापक्रम में परिवर्तन कर सकते हैं। यह जलीय जैवतंत्रों में निवास करने वाले जीवों जैसे मछली, पक्षी, पौधे आदि को भी मार देते हैं और इस प्रकार प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला में बाधा उत्पन्न कर देते हैं जिसके कारण जैव तंत्रों में अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है। जल प्रदूषण के स्रोत जल प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में निम्नलिखित हैं:
ध्वनि प्रदूषणध्वनि प्रदूषण अत्यधिक तथा अप्रिय पर्यावरण संबंधित ध्वनि है जो मानव अथवा जन्तु जीवन की गतिविधियों अथवा संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है। ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव अवांछनीय ध्वनि के रूप में ध्वनि प्रदूषण शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य को हानि पहुंचा सकता है। ध्वनि प्रदूषण चिड़न तथा आक्रामकता, उच्च रक्तचाप, उच्च तनाव स्तर, बहरापन, नींद में बाधा तथा अन्य हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। दीर्धकाल तक ध्वनि का अपावरण ध्वनि-प्रेरित बहरापन उत्पन्न कर सकता है। वे लोग जो अधिक व्यवसायिक ध्वनि के संपर्क में रहते हैं, ध्वनि के संपर्क में न रहने वालों की तुलना में, श्रवण संवेदनशीलता में अधिक कमी प्रदर्शित करते हैं। उच्च तथा मध्यम श्रेणी की उच्च ध्वनि स्तर हृदय की रक्त वाहिनियों पर प्रभाव, रक्तचाप तथा तनाव में वृद्धि कर सकती है और इस प्रकार लोगों का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। ध्वनि प्रदूषण के स्रोत ध्वनि प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में सम्मिलित हैं:
उपर्युक्त भाग में आपने विभिन्न प्रकार के प्रदूषण, उनके स्रोत तथा प्रभावों के बारे में पढ़ा है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषण पर विचार कीजिये जो आप को और आपके परिवार को प्रभावित करते हैं और उनकी एक सूची तैयार कीजिये। वे कौन से उपाय हैं जो आप, आपका परिवार तथा समाज प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिये कर सकते हैं? मनुष्य के जीवन पर पर्यावरण का प्रभाव पूरा विश्व नगरीय जनसंख्या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं भौतिक पर्यावरण से प्रभाव में रहती हैं। पर्यावरणीय भौतिक तत्व सबसे अधिक मानव समाज और उसकी जीवन शैली को प्रभावित करता है। इसके समकक्ष मध्य एशिया क्षेत्र और अफ्रीका और भी कई विषम जलवायु वाले क्षेत्र में वहां के निवासियों के लिए पर्यावरण (Paryavaran) उनके जीवन पर स्पष्ट रूप से प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए मद्ध एशिया क्षेत्र के लोग पशुओं को चारण के द्वारा तथा कालाहारी और कांगो बेसिन के निवासी शिकारी बनकर तथा पारंपरिक रूप से की जाने वाली खेती करके और ध्रुवीय क्षेत्रों के निवासी बर्फ के घर (इग्लू) में रहने और साथ ही उन क्षेत्रों में उपलब्ध जीव जंतुओं के सहारे ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसके अलावा जलवायु, प्रत्यक्ष रूप से वहा रहने वाले प्रजातियों के रंग रूप, आंख, शारीरिक बनावट, सिर, चेहरे की आकृति को भी प्रभावित करती है। पर्यावरण पर मनुष्य का प्रभाव पर्यावरण पर पड़ने वाला माननीय प्रभाव मुख्यता दो रूपों में विभक्त है:
प्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाला प्रभाव कथित रूप से पड़ने वाले प्रभाव के अंतर्गत सुनियोजित और संकल्पित रूपों में प्रभाव का सम्मिलन है। क्योंकि मानव अपने द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों से अच्छी तरह अवगत रहता है। जैसे -भूमि उपयोग परिवर्तित होना, नाभिकीय कार्यक्रम, मौसम को रूपांतरित कर देने वाले कार्यक्रम, निर्माण आदि। प्रत्यक्ष प्रभाव कुछ समय के लिए ही दिखाई पड़ते हैं लेकिन यह लंबे समय तक पर्यावरण (Paryavaran) को अपने प्रभाव में रखते हैं, इनकी प्रकृति परिवर्तनीय होती है। अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाला प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रभाव के अंतर्गत ऐसे प्रभाव आते हैं, जो पहले से सुनियोजित नहीं होते हैं। जैसे औद्योगिक विकास के लिए किए जाने वाला कार्य और उसके प्रभाव। यह तुरंत ही परिलक्षित नहीं हो जाता ऐसे कैसे लेकिन इनमें ज्यादातर प्रदूषण और पर्यावरण अवनयन का प्रभाव रहता है। यह पारिस्थितिकी तंत्र को कैसे प्रभावित करता है कि जो आगे चलकर मनुष्य के जीवन के लिए बहुत घातक सिद्ध होते हैं। मृदा प्रदूषणप्राकृतिक स्त्रोतों या मानव-जनित स्त्रोतों से मिट्टियों की गुणवत्ता में ह्रास होने को मृदा प्रदूषण कहते हैं। मृदा की गुणवत्ता में ह्रास या अवनयन निम्न कारणों से होते हैं- तीव्र गति से मृदा अपरदन, मिट्टियों में रहने वाले सूक्ष्म जीवों में कमी, मिट्टियों में नमी का आवश्यकता से अधिक या बहुत कम होना, तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव, मिट्टियों में ह्यूमस की मात्रा में कमी तथा मिट्टियों में विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों का प्रवेश एवं सान्द्रण। मृदा प्रदूषण के कारण या स्त्रोत मृदा प्रदूषण के प्रमुख स्त्रोत निम्नलिखित हैं:
इन्हें 4 वर्गों में बांटा गया है:-
उक्त स्त्रोतों से सूक्ष्म जीव मिट्टियों में प्रवेश करके उन्हें प्रदूषित करते हैं। ये सूक्ष्म जीव आहार श्रृंखला में भी प्रविष्ट होकर मानव शरीरों में पहुंच जाते हैं।
भू-निम्नीकरण या मृदा प्रदूषण भूमि निम्नीकरण का सामान्य अर्थ भूमि की गुणवत्ता में होने वाली कमी है। यह कमी मृदा प्रदूषण, मृदा अपरदन, लवणता, जलाकान्ति आदि कारणों से होती है। इसके कारण भूमि की उत्पादकता में अस्थायी या स्थायी तौर पर कमी आ जाती है। भूमि का निम्नीकरण भौतिक एवं मानवीय दो कारणों से होता है भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान ने इस प्रकार की भूमियों का आगणन किया है जो निम्न तालिका में दिया है-
मृदा या भूमि प्रदूषण का प्रभाव (Effects of Land Pollution) भूमि प्रदूषण के कई प्रभाव हमें देखने को मिलते हैं मृदा भूमि-प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव हैं-
मृदा प्रदूषण का नियंत्रण (Control of Land Pollution)
जैव-प्रदूषणरोगकारक सूक्ष्म जीवों से संक्रमित कर मनुष्यों, फसलों, फलदायी वृक्षों व सब्जियों का विनाश करना जैव-प्रदूषण है।
निम्नलिखित वर्षों में रोगाणुओं का प्रयोग जैव हथियार के रूप में किया गया-
जैव प्रदूषण के आतंक से निबटने के उपाय
रेडियोधर्मी प्रदूषणरेडियोधर्मी प्रदूषण, प्रदूषण के सबसे घातक स्वरूपों में से एक है। रेडियोधर्मी तत्वों के बढ़ते उपयोग के कारण वैश्विक स्तर पर रेडियोधर्मी प्रदूषण की समस्या भयावह और विकराल हुई है। रेडियोधर्मी तत्वों का उपयोग इसलिये बढ़ा है, क्योंकि ये ऊर्जा के असीमित स्त्रोत होते हैं तथा इनसे प्रचुर मात्रा में ऊर्जा प्राप्त की जाती है। यूरेनियम तत्वों की ऊर्जा क्षमता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि यूरेनियम-235 की एक टन की मात्रा से उतनी ही ऊर्जा पैदा की जा सकती है, जितनी कि 30 लाख टन कोयले से अथवा 1 करोड़ 20 लाख बैरल पेट्रोलियम पदार्थों से। रेडियोधर्मी तत्वों ने हमें ऊर्जा का असीमित भंडार तो दिया, किन्तु साथ ही भयावह प्रदूषण की सौगात भी दी।
मानव निर्मित रेडियोधर्मी प्रदूषणों में मुख्य हैं-
परमाणु विस्फोट (Nuclear Explosion) परमाणु विस्फोट न सिर्फ रेडियोधर्मी प्रदूषण का सबसे बड़ा स्त्रोत है, बल्कि यह सर्वाधिक घातक भी है। शक्ति हासिल करने की होड़ में राष्ट्रों द्वारा बढ़-चढ़कर परमाणु परीक्षण किये जाते हैं। इस दौरान रेडियोन्यूक्लाइड्स (Radionuclides) का उत्सर्जन व्यापक पैमाने पर होता है। यह व्यापक मात्रा में बारिश के साथ पृथ्वी पर जम जाती है और अनेक घातक प्रभावों का कारण बनती है। धरती पर इसके जमाव के कारण इसके घातक तत्व विभिन्न भोजन श्रृंखलाओं में प्रवेश कर पशुओं के शरीर में पहुंच जाते हैं और गंभीर समस्याओं का कारण बनते हैं। पशुओं के मांस आदि के जरिये इनकी पहुंच मनुष्यों तक होती है और ये अनेक प्राणघातक बीमारियों की सौगात देते हैं, जिनमें कैंसर, श्वास रोग व चर्मरोग आदि प्रमुख हैं। परमाणु ऊर्जा संयंत्र (Nuclear Power Plants) विश्व के अधिकांश देशों में ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिये परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना की गई है। वर्तमान समय में समूचे विश्व में लगभग 300 परमाणु ऊर्जा संयंत्र काम कर रहे हैं। इनसे उत्सर्जित होने वाले रेडियोधर्मी पदार्थ रेडियोधर्मी प्रदूषण का बड़ा कारण बनते हैं। यह प्रदूषण तब और बढ़ जाता है, जब इन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में कोई दुर्घटना हो जाती है और रेडियोधर्मी पदार्थों का रिसाव बढ़ जाता है। कुछ समय पहले जापान के फुकुशिमा संयंत्र में हुई दुर्घटना के चलते मची तबाही इसका ज्वलंत उदाहरण हुआ करता है, जो कि पर्यावरण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाला कचरा भी एक बड़ी समस्या होता है। इस रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निस्तारण की कोई कारगर विधि हम आज तक विकसित नहीं कर पाये हैं। या तो इस कचरे को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है और यह समुद्र की अतल गहराइयों में समा जाता है अथवा जमीन में बहुत नीचे इसे गाड़ दिया जाता है। ये दोनों ही विधियाँ सुरक्षित नहीं हैं और इस प्रकार निस्तारित किया गया कचरा पर्यावरण को क्षति पहुंचाता है और इसके दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं। ये वातावरण को तो जहरीला बनाते ही हैं. भू-गर्भीय प्रदूषण को बढ़ाकर अनेक समस्याएँ पैदा करते हैं। रेडियो आइसोटोप (Radio Isotopes) भांति-भांति के अनुसंधानों के लिये प्रयोगशालाओं में रेडियो आइसोटोप्स का निर्माण और उपयोग किया जाता है। प्रयोग किये जाने के बाद इनका सुरक्षित निस्तारण करने के बजाये इन्हें यूं ही फेंक दिया जाता है, जिससे जल व मृदा प्रदूषण बढ़ता है। इनके जहरीले तत्व पर्यावरण के लिये घातक साबित होते हैं। विकिरण के रूप में रेडियोधर्मी प्रदूषण (Radio Active Pollution in form of Radiations) विकिरण के रूप में भी रेडियोधर्मी प्रदूषण फैलता है। इसका माध्यम बनती हैं- अल्फा (Alfa), बीटा (Beta) व गामा (Gamma) किरणें। यहाँ इनके बारे में जान लेना भी उचित होगा।
जीवित अवयवों पर रेडियोधर्मी प्रदूषण के दुष्परिणाम (Effects of Radioactive Pollution on Living Organisms) रेडियोधर्मी पदार्थों से होने वाला विकिरण जीवित अवयवों के शरीर में ऑयनीकरण (lonization) उत्पन्न करता है, जिससे अवयवों को भारी क्षति पहुंचती है। यह अवयवों के आनुवांशिक स्तर में भी परिवर्तन लाता है, जिससे न केवल उस अवयव को,, बल्कि उसकी आगामी पीढ़ियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्वास्थ्य को होने वाली यह क्षति विकिरण के साथ होने वाले सम्पर्क की अवधि और मात्रा पर निर्भर करती है। ऊतक, कोशिकाओं, क्रोमोसोम और डीएनए के स्तरों पर रेडियोधर्मी विकिरण असमान्यताएँ पैदा करता है। मुख्य दुष्प्रभावों को यहाँ बिन्दुवार दिया जा रहा है.
रेडियोधर्मी कचरे का प्रबंधन हम पहले ही बता चुके हैं कि परमाणु कचरे के भयावह दुष्परिणाम सामने आते हैं। अभी तक हम इस कचरे के निस्तारण की सुरक्षित विधियाँ तलाश नहीं पाये हैं। कचरा प्रबंध न हेतु फिलहाल तीन विधियों का प्रयोग वैश्विक स्तर पर किया जा रहा है। ये हैं-
यहाँ इन विधियों के बारे में जान लेना आवश्यक होगा।
उक्त विधियों के अलावा रेडियोधर्मी कचरे की समुद्री निस्तारण की विधि भी प्रचलित रही है। हालांकि अब इससे बचा जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि परमाणु ऊर्जा उद्योगों द्वारा 'रेडियोन्यूक्लाइड्स' की एक बहुत बड़ी मात्रा पहले से ही समुद्र में फेंकी जा चुकी है। रेडियोधर्मी कचरे को समुद्र में फेंके जाने की प्रक्रिया बहुत महंगी है। यूरोपीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी, इंग्लैण्ड और अमेरिका भले ही पहले इस विधि को अपना चुके हैं, किन्तु अब यह विधि चलन से बाहर है, क्योंकि यह खर्चीली भी ज्यादा है और यह समुद्री पर्यावरण को नुकसान भी पहुंचाती है। रेडियोधर्मी प्रदूषण पर नियंत्रण के उपाय (Control of Radioactive Pollution) रेडियोधर्मिता से पैदा होने वाले घातक प्रदूषण को रोकने की। कोई कारगर विधि हम अभी तक खोज नहीं पाये हैं। इस दिशा में तेज प्रयासों की आवश्यकता है, क्योंकि यह एक ऐसी भयावह समस्या है, जो कि मानव अस्तित्व को ही मिटा सकती है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि रेडियोधर्मी प्रदूषण को रोकने के उपाय हर स्तर से किया जाये। यहाँ ऐसे ही कुछ प्रमुख उपाय सुझाये जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर काफी हद तक इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है। तो आइये इनके बारे में जानें-
विकिरण खतरों का नियंत्रण परमाणु ऊर्जा इकाईयों में कार्यरत् लोगों की सुरक्षा हेतु समुचित उपायों का प्रबंध किया जाना चाहिये। परमाणु रिएक्टरों के दुष्परिणमों को भुगतने वालों में सबसे अधिक संख्या वहाँ कार्यरत कर्मचारियों की ही होती है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय कारगर हो सकते हैं-
प्लास्टिक प्रदूषणअपनी उपादेयता के कारण प्लास्टिक जहाँ हमारी रोजमर्रा के जिंदगी में इस हद तक सम्मिलित हो चुका है कि इसे अब जीवन से बाहर निकाल पाना संभव नहीं रह गया है, वहीं इसने प्रदूषण की समस्या को भी बढ़ाया है, जो कि एक नये प्रकार का प्रदूषण है तथापि जसे हम ‘प्लास्टिक प्रदूषण' की समस्या कहते हैं। प्लास्टिक में तमाम खूबियाँ होती हैं। मसलन, यह हल्का होता है, जलावरोधी होता है, इसमें जंग प्रतिरोधक शक्ति तो होती ही है, यह सर्द-गर्म को सहन करने की भी क्षमता रखता है। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण प्लास्टिक ने देखते ही देखते मानव जीवन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया और जीवन के हर क्षेत्र में इसका दखल बढ़ा। इन सारी खूबियों के बावजूद प्लास्टिक ने खतरनाक हद तक प्रदूषण की समस्या को बढ़ाया भी है। प्लास्टिक की तमाम खूबियों पर इसका एक अवगुण भारी पड़ता है वह यह है कि प्लास्टिक प्राकृतिक रूप से विघटित नहीं हो पाता है। दीर्घ अवधि तक अपना अस्तित्व बनाये रखने के कारण यह पर्यावरण और प्रकति को व्यापक पैमान पर क्षति पहुंचाता है।
प्लास्टिक का संयोजन (Composition of Plastic) वस्तुतः प्लास्टिक कार्बनिक पदार्थों से निकाला गया एक वृहद आण्विक बहुलक पदार्थ होता है। ये हाइड्रोकार्बन के सूक्ष्म अणु होते हैं, जो एक साथ जुड़कर वृहद अणुओं का निर्माण करते हैं। इस कार्बनिक पदार्थ का सबसे प्रमुख स्त्रोत नेप्था (3-तैल) होता है, जो कच्चे पेट्रोलियम तेल से प्राप्त किया जाता है। प्लास्टिक को मुख्यतः दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है। ये हैं-
थार्मोप्लास्टिक (Thermoplastic) के अन्तर्गत आते हैं-
थर्मोसेटिंक के अन्तर्गत आते हैं-
गौरतलब है कि सभी प्रकार के थर्मोप्लास्टिक गर्म किये जाने पर मुलायम हो जाते हैं तथा ठण्डा किये जाने पर भण्डारण योग्य करके उसकी मूल अवस्था में वापस नहीं लाया जा सकता। अतः मात्र थर्मोप्लास्टिक की ही रीसाइकिलिंग (पुनश्चक्रण) संभव हो पाती है। रीसाइकिलिंग की दृष्टि से ही थर्मोप्लास्टिक से जुड़े न सिर्फ कुछ कोड निर्धारित किये गये हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर थर्मोप्लास्टिक सामग्री के निर्माताओं के लिये यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वे अपने उत्पादों पर निम्न विवरण के अनुसार कोड संकेतों का उल्लेख करें- प्लास्टिक प्रदूषण को हराया विश्व पर्यावरण दिवस 2018 की थीम 'बीट प्लास्टिक प्रदूषण', हमारे समय की महान पर्यावरणीय चुनौतियों में से एक का मुकाबला करने के लिए हम सभी के लिए एक कार्रवाई के लिए एक काल है। इस वर्ष के मेजबान भारत द्वारा चुना गया, विश्व पर्यावरण दिवस 2018 का विषय हम सभी को यह विचार करने के लिए आमंत्रित करता है कि हम अपने प्राकृतिक स्थानों, अपने वन्यजीवों और अपने स्वयं के स्वास्थ्य पर प्लास्टिक प्रदूषण के भारी बोझ को कम करने के लिए अपने रोजमर्रा के जीवन में बदलाव कैसे कर सकते हैं। जबकि प्लास्टिक के कई मूल्यवान उपयोग हैं, हम गंभीर पर्यावरणीय परिणामों के साथ एकल उपयोग या डिस्पोजेबल प्लास्टिक पर निर्भर हो गए हैं। दुनिया भर में, हर मिनट में 1 मिलियन प्लास्टिक पीने की बोतलें खरीदी जाती हैं। हर साल हम 5 ट्रिलियन डिस्पोजेबल प्लास्टिक बैग का उपयोग करते हैं। कुल मिलाकर, हम जो प्लास्टिक इस्तेमाल करते हैं, उसका 50 फीसदी सिंगल यूज है। प्लास्टिक के प्रकार एवं सामान्य उपयोग
भारत में इन कोड संख्याओं को चिन्हित किये जाने की परम्परा का कठोरता से पालन नहीं किया जाता जिसके परिणामस्वरूप रीसाइक्लिंग के दृष्टिकोण से प्लास्टिक की छंटाई किया जाना कठिन हो जाता है। प्लास्टिक की वैश्विक खपत एक अनुमान के मुताबिक इस समय समूचे विश्व में लगभग 1500000000 टन प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा है. जो कि हर गुजरते दिन के साथ बढ़ता ही जा रहा है। वैसे तो प्लास्टिक के उत्पादों एवं उपयोग क्षेत्र की फेहरिस्त बहुत लंबी-चौड़ी है, तथापि इसकी व्यापक को समझने के लिये यहाँ संक्षेप में इसके कुछ प्रमुख उपयोगों के बारे में बताया जा रहा है-
प्लास्टिक जनित समस्याएँ उक्त फेरहिस्त से प्लास्टिक की उपादेयता का तो पता चलता है, किन्तु प्लास्टिक जनित क्या-क्या समस्याएँ हमारे सामने आ रही हैं, यह भी जान लेना जरूरी है। इन्हीं समस्याओं ने प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या को बढ़ाया है। तो आइये इन पर नजर डालते हैं-
वन्यजीवन को खतरा प्लास्टिक प्रदूषण से उत्पन्न खतरों में धरती पर रहने वाले पशुओं की अपेक्षा समुद्री जीव जन्तु अधिक बड़े खतरे से घिरे हुये हैं। समुद्री जीव जन्तु समुद्र में फेंकी गई प्लास्टिक की वस्तुओं में उलझ कर फंस जाते हैं और मारे जाते हैं। इसके अलावा यदि वे गलती से प्लास्टिक को भोजन के रूप में ख लेते हैं तो भी इससे उनकी मृत्यु हो जाती है। समुद्री जीवों में सबसे अधिक दुष्प्रभावित होने वाले प्रमुख जीव इस प्रकार हैं-
प्लास्टिक निस्तारण से जुड़ी समस्याएँ प्लास्टिक कचरे का निस्तारण एक दुश्वासी भरा काम है। वैश्विक स्तर पर इसके निस्तारण की दो विधियाँ ही प्रचलित हैं पहली विधि के अंतर्गत इसे जला दिया जाता है तथा दूसरी विधि के अंतर्गत से जमीन में गड्डे खोदकर गाड़ दिया जाता है। इन दोनों ही विधियों की अलग-अलग समस्याएं हैं, जिनके बारे में | यहां जान लेना उचित होगा। ये समस्याएं निम्नांकित हैं
उल्लेखनीय है कि कुछ विकसित राष्ट्र आज जैविक रूप से विघटित होनेवाले प्लास्टिक की खोज कर रहे हैं। दुश्वारी यह है कि इसकी उत्पादन लागत इतनी अधिक है कि आर्थिक . दृष्टि से यह अनुपयोगी है। साथ ही यह शत-प्रतिशत प्रदूषण मुक्त भी नहीं है। यानी पूर्णतः सुरक्षित नहीं है। आजकल प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कागज, कपड़े तथा जूट आदि के बने थैलों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। आर्थिक दृष्टि से यह भी महंगा पड़ता है। इसके आर्थिक पहलू से जुड़े कुछ तथ्यों को रेखांकित करना आवश्यक है। कागज, कपड़े या जूट का प्रयोग करने पर जहां पैकेजिंग का वजन 300% तक बढ़ जाता है, वहीं अपशिष्ट का परिमाप 160% तक बढ़ जाता है। जहां ऊर्जा की आवश्यकता 110% तक बढ़ जाती है, वहीं पैकेजिंग की लागत भी 210% तक बढ़ जाती है। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्लास्टिक का कोई ऐसा किफायती विकल्प नजर नहीं आता, जो पर्यावरण की दृष्टि से अनुकल हो। रीसाइकिल प्लास्टिक से जुड़ी समस्याएं एक तो प्लास्टिक की रीसाइकिलिंग को सुरक्षित नहीं माना जाता है, दूसरे इससे जुड़ी समस्याएं भी कम नहीं है। वर्तमान समय में हम जितनी भी प्लास्टिक का उपयोग कर रहे हैं, उसमें से ज्यादातर रीसाइकिल की गई प्लास्टिक ही होती है, जिसे बाजार के अनुरूप बनाने के लिए इसमें अनेक प्रकार के पदार्थों, रंगों तथा रसायनों का मिश्रण किया जाता है। इस प्रकार ऐसी प्लास्टिक कभी भी विशुद्ध प्लास्टिक नहीं रह जाती। इसके अलावा सरकार भी ऐसी प्लास्टिक सामग्री के निर्माताओं पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं लगाती जिससे वे इनमें उपयोग किए गए पदार्थों की सार्वजनिक घोषणा करें। परिणामस्वरूप हमें छंटाई में कभी भी एक समान प्लास्टिक नहीं मिल सकती। विभिन्न प्लास्टिक वस्तुओं में से कुछ विशुद्ध तथा कुछ रिसाइकिल किए गए प्लास्टिक से बनाई गई होती हैं। इसके अलावा बार-बार प्लास्टिक को रिसाइकिल किए जाने से ये बेकार और गुणवत्ताहीन हो जाती हैं जिनके अपने दुष्प्रभाव होते हैं। इनमें से कुछ दुष्प्रभाव इस प्रकार है-
रिसाइकिल किए गए पॉलीमर से निर्मित पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी वस्तुएं
रिसाइकिल से मिश्रित प्लास्टिक के द्वारा विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता सामग्री बनाई जा सकती है जिनमें से प्रमुख हैं-
प्लास्टिक के विकल्प साधारण प्लास्टिक का सर्वोत्तम विकल्प प्राकृतिक रूप से विघटित होने योग्य थैले होते हैं। ऐसे थैले 3 से 6 महीनों में अपने आप ही प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाते हैं। ऐसे थैलों में स्टार्च के पॉलीमर, सूक्ष्म धागों से निर्मित थैले इत्यादि प्रमुख होते है। इनका एक अतिक्ति लाभ यह होता है कि ये बिना अधिक ऊर्जा के उपयोग के बनाए जा सकते हैं। तथा इनसे किसी प्रकार की ग्रीनहाउस गैसें भी नहीं निकलती। यद्यपि आर्थिक दृष्टिकोण से ये थोड़े महंगे अवश्य पड़ते हैं परन्तु पर्यावरण की रक्षा के दृष्टिकोण से ये अत्यन्त उपयोगी होते हैं। हालांकि प्राकृतिक रूप से विघटित हो सकते योग्य कुछ ऐसे थैले भी होते हैं जो समुद्र में 6 महीनों से अधिक टिके रह सकते हैं और समुद्री जीवों को मार सकते हैं। इसके अलावा ऐसे थैले गढ्ढों में भी तब तक पूरी तरह से विघटित नहीं होते जब तक इन्हें निरंतर रूप से पलटा न जाता रहे। ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने ऐसे प्राकृतिक रूप से विघटित हो सकने योग्य थैलों के निर्माण के मानक निर्धारित किए हैं जिन्हें एक निश्चित अवधि में कम्पोस्ट में परिवर्तित किया जा सके। कुछ वैकल्पिक थैलों के प्रकार निम्नवत् हैं जो निकट भविष्य में बाजार में उपलब्ध हो सकते हैं-
प्लास्टिक समस्या का भारतीय परिदृश्य (The Indian Scenario of Plastic Problem) अन्य देशों की तरह भारत में भी प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या भयावह और विकराल है। यहां की रोजमर्रा की जिंदगी में प्लास्टिक की खपत दिन-ब-दिन बढ़ रही है। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में जहां न्यूनतम प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग 2.4 किलोग्राम है, वहीं सर्वाधिक प्लास्टिक रीसाइकिलिंग का प्रतिशत 60 है। ठोस अपशिष्ट में (Plastic in Solid Waste) प्लास्टिक के अंश 0.5 से 4% तक पाए जाते हैं। भारत में गरीबी, प्रबंधन के अभाव तथा अपर्याप्त सफाई सुविधाओं के कारण जहां यह समस्या और विकराल हुई है, वहीं इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। प्लास्टिक प्रदूषण के कारण शहरों में सीवेज व्यवस्था ठप पड़ जाती है। नाले-नालियाँ अवरूद्ध होने से गंदे पानी की कृत्रिम बाढ़ जा जाती है। गंदगी फैलने से मच्छर बढ़ते हैं, जो डेंगू और मलेरिया जैसी प्राण घातक बीमारियों का कारण बनते हैं। पॉलीथिन बैगों को खाकर गायें व आवारा पशु मर जाते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण के दुष्प्रभावों एवं घातक परिणामों को लेकर भारत सरकार खासी गंभीर है, यही कारण है कि सरकार द्वारा 20 माइक्रान की मोटाई से कम तथा "8x12" ऊंचाई के प्लास्टिक कैरी बैगों पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया गया है। राज्यवार भी प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। वनों अभ्यारण्यों, प्राणी उद्यानों, पर्यटन स्थलों तथा राष्ट्रीय धरोहरों आदि क्षेत्रों में प्लास्टिक के बैगों, पॉलीथिन आदि को प्रतिबंधित किया जा रहा है। भारत में प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के उपाय व समस्या समाधान:-
क्या हैं प्लास्टिक के फायदे (What aretheAdvantages of using Plastic) प्लास्टिक को एकदम से नकारा नहीं जा सकता अनेक खूबियां भी हैं, जो फायदेमंद हैं। हम इन्हें यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
कीटनाशक प्रदूषणविश्व की विशाल जनसंख्या के भोजन की मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर खाद्यान्न उत्पादन की आवश्यकता है परन्तु इसमें एक बड़ी चुनौती कीटों द्वारा बड़े पैमाने पर फसलों का नष्ट किया जाना है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में उत्पादित की जाने वाली कुल फसल का लगभग 1/3 भाग कीटों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे में इन कीटों पर नियंत्रण करने का सर्वाधिक सुलभ एवं लोकप्रिय तरीका जहरीले रसायनों, जिसे कीटनाशक कहा जाता है, का प्रयोग किया जाना है। परंतु चिंता का विषय यह है कि कीटनाशक भले ही कीटों से तत्कालीन निजात दिला देते हों परंतु इनके दीर्घकालिक उपयोग के कारण पर्यावरण पर अनेक प्रकार के हानिकारक प्रभाव भी सामने आ रहे हैं। कीटनाशकों के प्रकार (Types of Pesticides) कृषि कार्यों में प्रयोग में आने वाले कीट नाशकों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
ऐसे कीटनाशकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। (i) प्राकृतिक कीटनाशक (Natural Pesticides) : ये पौधों पशुओं अथवा अन्य सूक्ष्म जीवाणुओं से उत्पन्न हुई हो सकती हैं, उदाहरणार्थ विभिन्न प्रकार के आवश्यक तेल जैसे-
(ii) कृत्रिम कार्बनिक कीटनाशक (Synthetic Organic Pesticides) : ये कीटनाशक आधुनिक हैं तथा विभिन्न प्रकार के कीटों के विरूद्ध तेजी से और बड़ी मात्रा में प्रभाव डालते हैं। इनके आण्विक संगठन के अनुसार इन्हें प्रमुख रूप से 5 भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. क्लोरीनेटेड हाइड्रोकार्बन : इस कीटनाशक के सर्वाधिक प्रचलित उदाहरण हैं- डी.डी.टी., मेथाऑक्सीक्लोर, बी.एच.सी., एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन, हेफ्टाक्लोर, एंड्रिन इत्यादि। रासायनिक रूप से ये सभी कीटनाशक अत्यधिक स्थिर एवं स्थाई प्रकृति के हैं। एक बार इनका छिड़काव कर दिए जाने के बाद ये प्राकृतिक रूप से विघटित होकर समाप्त नहीं होते। प्रयोग यह बताते हैं कि एक बार इन रसायनों का उपयोग प्राकृतिक क्षेत्रों में कर दिए जाने के बाद ये भोजन श्रृंखला में प्रवेश कर जाते हैं तथा वसा की कोशिकाओं में एकत्रित हो जाते हैं। जब ऐसी वसा को ऊर्जा उत्पादन हेतु ऑक्सीकरण किया जाता है तो ये मानव रक्त में मिल जाते हैं और अपने विषैले प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। क्लोरीनेटेड हाइड्रोकार्बन के दुष्प्रभाव
2. आर्गेनोफास्फोरस यौगिक (Organophosphorus Compound) : इसमें से प्रमुख पैराथियान तथा मैलाथियान आदि बहुत अधिक प्रसिद्ध है। यद्यपि ये स्थाई प्रकृति के नहीं होते तथा उपयोग के पश्चात सहजतापूर्वक विघटित हो जाते हैं। परन्तु ये स्नाय प्रेरित संचरण पर हमला करते हैं। ये रसायन कोलीन एस्टीरेज एंजाइमों की गतिविधियों को रोक देते हैं जिसके कारण स्नायु प्रभाव निरंतर रूप से जारी रहता है जो सामान्य जीवन प्रणाली को अवरोधित करता है। इन यौगिकों के भारी प्रयोग से मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की स्नायुविक बीमारियाँ देखी जा रही हैं। क्लोरोसिस जैसी बीमारियाँ एवं पौधों में अनियमित एवं बाधित विकास जैसी समस्याएँ सामने आ रही है। 3. कार्बामेट्स (Carbamates) : घरेलू तथा कृषि कीटों के नियंत्रण में इनका प्रयोग होता है। इनमें से सबसे अधिक प्रसिद्ध यौगिकों में कार्बारिल, कार्बोफुरान, प्रापाक्सर (बेगान), आल्डीकार्ब, मेथीकार्ब (मेसुरल) इत्यादि हैं। ये सस्ते एवं प्रभावी कीटनाशक हैं। परन्तु ये गंभीर पर्यावरणीय असंतुलन पैदा करते हैं तथा मधुमक्खियों, बरे तथा ततैया आदि कीटों को नष्ट कर देते हैं। 4. कृत्रिम पाइरेथ्राइड्स : ये चुनिंदा कीटों के प्रति ही प्रभावी होते हैं तथा सूर्य के प्रकाश में आसानी से विघटित हो जाते है। 5. कीट विकास नियामक (Insect Growth Regulators IGRS) : इनका निर्माण विभिन्न आण्विक घटकों से मिलकर होता है। ये किसी भी कीट के जीवनचक्र के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव डालते हुये उनके जीवन चक्र को पूरा होने से रोक देते हैं और इस प्रकार उनकी जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित करते हैं। ऐसे रसायनों में प्रमुख हैं मेथेप्रीन (आल्टोसिड), डाइफ्लूबेन्जोरॉन (डिमलिन), किनोप्रीन (यूस्टर) आदि। इन रसायनों को प्रमुख रूप से कीटनाशक, फफूंदनाशक, शाकनाशक अथवा व्यापक प्रभाव वाले जैवनाशकों के रूप में जाना जाता है।
कीट नाशकों के दुष्प्रभाव लंबे समय तक वायुमंडल से बने रहनाः इससे पर्यावरण पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हैं। ये अत्यंत मंद गति से डी०डी०डी० तथा डी०डी०ई० में विघटित होते हैं जो मूल डी०डी०टी० की तुलना में और अधिक विषैले होते हैं। अतः एक बार इनका प्रयोग किये जाने के बाद डी०डी०टी० का विषैला प्रभाव दिनों-दिन बढ़ता ही जाता है।
जैविक नियंत्रण के लाभ (Advantages of Biological Control)
जैविक नियंत्रण के प्रति सावधानियां (Precautions of Biological Control)
सूक्ष्म जीवाणु माध्यमों से कीटों का जैविक नियंत्रण (Biological Control of Insects Through Microbial Agents) अधिकांश रोग उत्पादक जीवाणु विशिष्ट प्रजातियों से संबंध रखते हैं और मनुष्यों हेतु किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न नहीं करते हैं। इनमें प्रोटोजोआ, वायरस, बैक्टीरिया तथा फुगी आदि विभिन्न श्रेणियों के रोग उत्पादक अवयव सम्मिलित होते हैं।
एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) ऐसी प्रक्रिया जिसमें कीटों के जीव विज्ञान तथा पर्यावरण में उनके प्राकृतिक नियामक कारकों के ज्ञान के द्वारा समस्त संभावित कीट नियंत्रणों को एकीकृत किया जाता है, एकीकृत कीट प्रबंधन कहलाती है। इसमें विभिन्न प्रकार के कीटनाशक उपायों जेसे रासायनिक, जैविक, सांस्कृतिक, व्यवहारिक, पर्यावरण परिवर्तन तथा प्रतिरोधक किस्मों के विकास आदि की प्रणालियों को सम्मिलित किया जाता है। एकीकृत कीट प्रबंधन के महत्वपूर्ण पहलू
पर्यावरण की रक्षा कैसे करेंहमें अपना जीवन जीने के लिए पर्यावरण की अत्यंत आवश्यकता होती है इसलिए इस पर्यावरण को साफ और सुरक्षित रखना हमारी पूर्ण जिम्मेदारी होती है परंतु आधुनिक युग में स्वार्थ बस लोग पर्यावरण को नष्ट करते रहते हैं। अतः हमें पर्यावरण को नष्ट होने से बचाने के लिए कुछ सावधानियों को ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि लालच और स्वार्थ के बस में आकर हमें अपना पर्यावरण नष्ट करना बहुत भारी पड़ सकता है अभी जल्द ही आप लोगों ने देखा होगा दिल्ली में ऑक्सीजन की किस तरह से किल्लत हुई है कोरोना महामारी में जगह-जगह ऑक्सीजन के लिए भारी किल्लत हो रही थी क्योंकि हम स्वार्थ में आकर प्राकृतिक वस्तुओं का विनाश कर रहे हैं। और यह विनाश मनुष्यों के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होता है। अतः हमें अपने पर्यावरण की किस प्रकार रक्षा करनी चाहिए जिससे हमारा जीवन स्वस्थ और सुरक्षित बन सके। हमें वृक्षारोपण करना चाहिए जिससे हमें पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन मिल सके। वन कटाई पर सरकार को रोक लगाना चाहिए तथा पेड़ की कटाई पर नए कानून लाना चाहिए। हमें पानी का miss use नहीं करना चाहिए क्योंकि पानी हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है हमें 2 दिन भोजन ना मिले तो हम जीवित रह सकते हैं परंतु यदि 2 घंटे पाई ना मिले तो हम जीवित नहीं रह सकते हैं अतः हमें सिर्फ जरूरत भर का ही पानी का इस्तेमाल करना चाहिए। मिट्टी की खुदाई हमारे प्रकृति के लिए बहुत ही हानिकारक है इसलिए हमें मिट्टी की खुदाई पर रोक लगाना आवश्यक है जिससे खेतों की मात्रा कम ना हो और हमें फसल तथा खाने के लिए अनाज पर्याप्त मात्रा में मिल सके। हमारे जीवन के लिए ओक्सीजन अत्यंत आवश्यक है। पर्यावरण का क्या अर्थ है इसके लक्षण क्या है?"परि" जो हमारे चारों ओर है"आवरण" जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है,अर्थात पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ होता है चारों ओर से घेरे हुए। पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत एक इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं।
पर्यावरण को परिभाषित कैसे करें?वह सभी कुछ जो हम अपने चारों ओर देखते हैं, अनुभव करते हैं, जिनके साथ अंतःक्रिया करते हैं तथा जिन पर हमारा तथा अन्य जीवों का जीवन निर्भर करता है, पर्यावरण कहलाता है ।
पर्यावरण किसे कहते हैं पर्यावरण कितने प्रकार का होता है?पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – परि + आवरण जिसमे परि का अर्थ है चरों तरफ से तथा आवरण का अर्थ घिरा हुआ। अर्थात पर्यावरण का शब्दिक अर्थ हुआ – चारों से तरफ से घिरा हुआ। हमारे आस पास जो भी वस्तु है चाहे वह प्राकर्तिक हो या मानव निर्मित हमारे पर्यावरण का एक भाग है – जैसे – नदी, पुस्तक, कपड़े, जानवर आदि।
पर्यावरण क्या है इसके कारण लिखिए?पर्यावरण शब्द 'परि' एवं 'आवरण' से मिलकर बना है। परि का अर्थ चारों ओर व आवरण का अर्थ घेरा होता है अर्थात् हमारे चारों ओर जो कुछ भी दृश्यमान एवं अदृश्य वस्तुएँ हैं, वही पर्यावरण है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि हमारे आस-पास जो भी पेड़-पौधें, जीव-जन्तु, वायु, जल, प्रकाश, मिट्टी आदि तत्व हैं वही हमारा पर्यावरण है।
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