प्र २ कृति पूर्ण कीजिए कविता में प्रयुक्त खाद्यपदार्थ - pr 2 krti poorn keejie kavita mein prayukt khaadyapadaarth

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Question 1:

कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और दूसरी ओर मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ- विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है?

Answer:

प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि की जग के साथ रहकर चलने की और जग से अलग रहने की स्थिति का वर्णन करता है। कवि जानता है कि मनुष्य संसार से अलग नहीं हो सकता। वह जानता है कि वह इस संसार का एक हिस्सा है। अतः वह कितना भी चाहे परन्तु इससे कटकर रहना संभव नहीं है। वह कहीं भी जाएगा, जग उसके साथ ही होगा। उसे इस जग से चाहे कष्ट ही क्यों न मिले लेकिन इससे अलग होना उसके बस की बात नहीं है।

इस स्थिति से निकलने के लिए उसने एक नया तरीका निकाला है। वह इस जग में रहते हुए भी इसकी उपेक्षा करता है। उसे संसार के लोगों द्वारा कितना भला-बुरा कहा जाता है लेकिन वह उन बातों पर ध्यान ही नहीं देता। उसने अपने अलग व्यक्तित्व तथा जीवन का निर्माण किया हुआ है। वह यहाँ निर्भीकता पूर्वक रहता है। अतः आज वह संसार के साथ रहकर भी उससे अलग हो गया है।

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Question 2:

जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं- कवि ने ऐसा क्यों कहा होगा?

Answer:

कवि ने ऐसा संसार की स्थिति को दर्शाने के लिए कहा होगा। उसके अनुसार यह संसार उसे हैरान परेशान कर देता है। क्योंकि यहाँ पर दो विरोधी प्रवृत्ति के लोग एक साथ रहते हैं। कवि कहता है कि इस संसार में जहाँ चतुर लोग हैं, वही यहाँ पर सीधे तथा मूर्ख लोगों का अस्तित्व भी है। मूर्ख लोगों को ही उल्लू बनाकर यहाँ चतुर लोग अपना काम निकालते हैं। अर्थात यदि मूर्ख न हों, तो चतुर लोगों का अस्तित्व संभव नहीं है। अतः इस संसार में हर प्रकार के लोग साथ रहते हैं। इनमें कुछ अच्छे तथा कुछ बुरे हैं। आपस में विरोधी स्वभाव होने के बाद भी ये साथ ही रहते हैं।

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Question 3:

मैं और, और जग और कहाँ का नाता- पंक्ति में और शब्द की विशेषता बताइए।

Answer:

प्रस्तुत पंक्ति में 'और' शब्द ने तीन बार आकर कवि के भाव को बहुत ही सुंदर रूप से व्यक्त किया है। इस तरह पंक्ति में चमत्कार उत्पन्न हो गया है, जोकि बहुत सुंदर प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए यहाँ पर 'मैं और' का अभिप्राय कवि के स्वयं के अस्तित्व से है। इससे पता चलता है कि उसका व्यक्तित्व दूसरों से अलग है। दूसरे 'जग और' कहकर कवि संसार की विशेषता बताता है कि संसार उससे भिन्न है। अर्थात संसार उसकी भांति नहीं सोचता बल्कि भिन्न प्रकार से सोचता है। तीसरा 'और' शब्द कवि तथा संसार के मध्य के अंतर को दर्शाता है। यहाँ पर आया 'और' योजक है। इसके साथ ही यह कवि के उस विचार को दर्शा रहा है, जिसमें कवि स्वयं को तथा संसार को अलग-अलग मानता है। इससे पता चलता है कि कवि तथा संसार के मध्य संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं है। दोनों साथ रहते हुए भी अलग-अलग हैं।

अतः 'और' शब्द कवि तथ संसार की स्थिति तथा दोनों के संबंधों को बहुत सुंदर तरीके से व्यक्त करता है।

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Question 4:

शीतल वाणी में आग- के होने का क्या अभिप्राय है?

Answer:

इस पंक्ति का अभिप्राय है कि यदि उसकी वाणी शीतल है, तो यह मान लेना कि उसमें विनय, विनम्रता के भाव ही होंगे गलत है। उसकी वाणी में शीतलता के गुण के अतिरिक्त ओजस्वी गुण भी विद्यमान है। उसकी वाणी शीतल रहती है क्योंकि वह धीरज नहीं खोता। वह संसार का विद्रोह करता है लेकिन अपनी वाणी को शीतल बनाए रखना चाहता है। वह अपने हृदय की आग को वाणी में समाहित तो करता है लेकिन शीतलता के गुण को बनाए रखते हुए। भाव यह है कि वह अपने दिल में विद्यमान दुख को वाणी के माध्यम से व्यक्त करता है लेकिन यह ध्यान रखता है कि वाणी में कोमलता बनी रहे। इस तरह से वह अपने मन की भड़ास भी निकाल देता है और स्वयं का आपा नहीं खोता।

यह पंक्ति विरोधाभास को दर्शाती है क्योंकि शीतलता के साथ आग का मेल नहीं बैठता। जहाँ आग है, वहाँ शीतलता नहीं मिल सकती। आग का गुण है तपन देना। अतः तपन में शीतलता यानी ठंडापन नहीं मिल सकता। लेकिन यह पंक्ति कवि के विद्रोह को व्यक्त करने के लिए बड़ी उत्तम जान पड़ती है।

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Question 5:

बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे?

Answer:

बच्चों को लगता है शाम ढल आयी है। उनके माता-पिता अब उनके लिए भोजन लेकर आते ही होगें। अतः वे अपने माता-पिता को देखने के लिए नीड़ों से झाँक रहे हैं। माता-पिता से उनका मिलन हो जाएगा तथा उनके पेट की आग भी शांत हो जाएगी। इस तरह नीड़ों से झाँकना उनकी प्रतीक्षा को दर्शाता है।

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Question 6:

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है- की आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है?

Answer:

यह पंक्ति पूरी कविता में चार बार प्रयुक्त की गई है। यह इस कविता की मुख्य पंक्ति है। यह पंक्ति कविता को लय प्रदान करती है। इसके कारण ही कविता में गेयता के गुण का समावेश होता है।

यह पंक्ति हमें सूचित करती है कि जीवन की घड़ियाँ भी इसी पंक्ति के समान है। हमें चाहिए कि समय का सदुपयोग करें और अपने उद्देश्य को समय के बीतने से पहले पा लें। समय निरंतर गति से चलता रहता है। यह किसी के लिए नहीं ठहरता है। अतः हमें समय रहते अपने काम कर लेने चाहिए।

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Question 1:

संसार में कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है?

Answer:

यह सत्य सभी जानते हैं कि संसार में सुख-दुख समान रूप से आते-जाते रहते हैं। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख का आना तय है। अतः हमें दुख का इतना मातम नहीं मानना चाहिए और सुख पर इतना अधिक प्रसन्न नहीं होना चाहिए। दोनों स्थितियों में समान भाव से रहना चाहिए। अतः जो मनुष्य इस सत्य को जान गया है, उसके लिए कष्ट इतने कष्टदायी नहीं रह जाते हैं। वह जानता है कि दुख की बदली अवश्य हटेगी और सुख रूपी प्रकाश अवश्य होगा। इस स्थिति में वह प्रसन्न रह पाएगा। जो व्यक्ति दुख से उभरेगा ही नहीं और कष्ट और कष्टदायी हो जाएँगे। यदि हम कष्ट को भूलकर प्रसन्न रहते हैं तथा विश्वास करते हैं कि सुख भी अवश्य आएँगे, तो हम खुशी और मस्ती का माहौल पैदा कर सकते हैं।

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Question 1:

❖ जयशंकर प्रसाद की आत्मकथ्य कविता की कुछ पंक्तियाँ दी जा रही है। क्या पाठ में दी गई आत्मपरिचय कविता से इस कविता का आपको कोई संबंध दिखाई देता है? चर्चा करें।

             आत्मकथ्य
मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन की उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मोरी मौन व्यथा।
                                                 -जयशंकर प्रसाद

Answer:

दोनों कविताओं के मध्य आत्मनिष्ठता का भाव दिखाई देता है। बस यही सामनता दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त दोनों कविताओं में कोई समानता नहीं है। आत्मपरिचय कविता में कवि को दुनिया की बातें परेशान तो करती हैं लेकिन दूसरे ही पल वह स्वयं को संभाल लेता है। स्वयं को उससे अलग कर लेता है। इसके विपरीत आत्मकथ्य का कवि जानता है कि दुनिया उसके जीवन में दुख के क्षणों को जानकर आनंद उठाना चाहती है। वह उन्हें बताना नहीं चाहता है लेकिन कुछ कर नहीं पाता। वह स्वयं को बेबस पाता है। दुनिया और उसका दुख उसे आक्रांत कर देते हैं।

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Question 1:

'सबसे तेज़ बौछारें गयीं, भादों गया' के बाद प्रकृति में जो परिवर्तन  कवि ने दिखाया है, उसका वर्णन अपने शब्दों में करें।

Answer:

दी गई पंक्ति से पता चलता है कि भादों का महीना समाप्त हो गया है। अर्थात बारिश का मौसम बीत गया है। अब क्वार का महीना है और इसके आने से वातावरण में सुंदर परिवर्तन होने लगते हैं। सुबह चमकीली, सुरमयी और सिंदूरी हो गई है। भाव यह है कि सूरज की लालिमा तथा प्रकाश बढ़ गया है। शरद ऋतु आ गई है। तेज़ गर्मी समाप्त हो गई है। बच्चे छतों पर पतंग उड़ाने लगे हैं। फूल खिल गए हैं। उन पर रंग-बिरंगी तितलियाँ मंडराने लगी हैं।

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Question 2:

सोचकर बताएँ कि पतंग के लिए सबसे हलकी और रंगीन चीज़, सबसे पतला कागज़, सबसे पतली कमानी  जैसे विशेषणों का प्रयोग क्यों किया है?

Answer:

प्रस्तुत कविता में कवि ने पतंग की विशेषताओं को और अच्छे तरीके से बताने के लिए इन विशेषणों का प्रयोग किया है। पंतग का कागज़ जितना पतला और हल्का होगा, वह उतनी ही आकाश में ऊँचाई में जाएगी। इसके अतिरिक्त उसके भार को कम बताने के लिए कवि ने इन विशेषणों का प्रयोग किया है। इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करके पंतग को रंग-बिरंगी, हलकी तथा आकर्षित बताने का प्रयास किया गया है।

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Question 3:

बिंब स्पष्ट करें-
सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादो गया
सवेरा हुआ
खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके।

Answer:

इस काव्यांश में गतिशील बिंब को साकार किया गया है। इस पंक्ति में चाक्षु बिंब भी विद्यमान है। भादों के जाते ही सुबह नई चमक-दमक के साथ आती है। शरद ऋतु की भोर को खरगोश की आँखों के समान लाल दिखाया गया है। इस पंक्ति को बोलते ही खरगोश की आँखों का बिंब हमारे सामने आ जाता है। शरद साइकिल चलाता तथा घंटी बजाता हमें दिखाई देता है। आकाश को मुलायम बताकर कवि ने जो कल्पना की है, वह अद्भुत है। यहाँ पतंग का आकाश में उड़ना एक नए दृश्य को दृष्टिगोचर करता है।

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Question 4:

जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास- कपास के बारे में सोचें कि कपास से बच्चों का संबंध बन सकता है।

Answer:

'जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास' इस पंक्ति में कपास का तात्पर्य कपास (रूई) से नहीं बल्कि उसकी कोमलता तथा उसके सफ़ेद रंग की पवित्रता से लिया गया है। बच्चों का स्वभाव कपास (रुई) के समान कोमल, पवित्र तथा निश्छल होता है। वे स्वभाव से कोमल होते हैं। उनके मन में किसी प्रकार का कपट नहीं होता है। वे पवित्रता लिए होते हैं। इसके अतिरिक्त वे शारीरिक रूप में भी कोमल होते हैं। अतः कपास और बच्चों में बहुत अधिक संबंध है। यही कारण है कि कवि ने उनका कपास से संबंध स्थापित किया है।

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Question 5:

पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं- बच्चों का उड़ान से कैसा संबंध बनाता है?

Answer:

बच्चों को पतंग बहुत प्रिय है। आकाश में उड़ती पतंग को देखकर बच्चे भी उड़ने लगते हैं। अर्थात उनका मन भी मतंग के साथ उड़ान भरने लगता है। जैसे-जैसे पतंग आकाश में ऊँचाई में जाने लगती है, वैसे-वैसे उनका उत्साह बढ़ने लगता है। वे सारी दुनिया को भूल जाते हैं। बस पतंग के साथ हो जाते हैं। यह ऐसा संबंध बन जाता है कि जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है। पतंग की प्रत्येक हिलोरों के साथ उनका मन में हिलोरों से भर जाता है। चारों और बस वे तथा उनकी पतंग रह जाती है। यही कारण है कि ऐसा कहा गया है कि पंतगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं।

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Question 6:

निम्नलिखित पंक्तियों को पढ़ कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(क) छतों को भी नरम बनाते हुए

दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए

(ख) अगर वे कभी गिरते हैं छतों के खतरनाक किनारों से

और बच जाते हैं तब तो

और भी निडर होकर सुनहले सूरज के समान आते हैं।

❖ दिशाओं को मृदंग की तरह बजाने का क्या तात्पर्य है?

❖ जब पतंग सामने हो तो छतों पर दौड़ते हुए क्या आपको छत कठोर लगती है?

❖ खतरनाक परिस्थितियों का सामना करने के बाद आप दुनिया की चुनौतियों के सामने स्वयं को कैसा महसूस करते हैं?

Answer:

❖ बच्चे पतंग उड़ाते हुए छत में एक दिशा से दूसरी दिशा में यहाँ से वहाँ कूदते-फाँगते रहते हैं। इस कारण से उनके पैरों से ध्वनि होने लगती है। कवि ने इस स्थिति को मृदंग के समान बताया है। अर्थात जब बच्चे छत में यहाँ से वहाँ कूदते-फाँगते हैं, तो लगता है मानो वे मृदंग (छत) में हाथ (पैरों) से थाप पर रहे हैं। इस कारण से स्वर फूट रहे हैं, जो कवि को मृदंग बजाने के समान लगता है।
 

❖ जब पतंग सामने हो, तो हमें छत कठोर नहीं लगती। यह ऐसा समय होता है, जब बस पतंग को उड़ाने का मज़ा आ रहा होता है। तब सारी दुनिया से हमारा संपर्क समाप्त हो जाता है, बस पतंग और हम होते हैं। कोई कष्ट कोई दुख हमें छू नहीं पाता है।
 

❖ खतरनाक परिस्थितियों का सामना करने के बाद हम दुनिया की चुनौतियों के सामने स्वयं को निर्भीक और मज़बूत महसूस करते हैं। तब ये चुनौतियों मामूली-सी प्रतीत होती हैं। खतरनाक परिस्थितियाँ का सामना करने के बाद पता चलता है कि चुनौतियाँ होती क्या हैं। फिर तो अंदर सकारात्मकता और साहस भर जाता है। हम लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।

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Question 1:

आसमान में रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर आपके मन में कैसे खयाल आते हैं? लिखिए।

Answer:

रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर लगता है मानो हम भी पतंग के समान होते। सबका ध्यान हमारी ओर होता। हम हर दिशा में मज़े से उड़ पाते और जब दिल करता नीचे आ जाते। बहुत से बच्चों की खुशी और आनंद के हम कारण होते। हमारे कारण उनका जीवन उत्साह से भर जाता।

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Question 2:

'रोमांचित शरीर का संगीत' का जीवन के लय से क्या संबंध है?

Answer:

हमारा शरीर जब रोमांचित होता है, तभी हमारे हृदय से जीवन का सच्चा संगीत फूटता है। इसके कारण ही जीवन को लय प्रदान होती है। जब जीवन लय में होता है, तो आनंद अपने आप ही समा जाता है। यही आनंद हमारे शरीर को रोमांच से भर देता है। यह स्थिति हमें सोचने-समझने की सही दिशा प्रदान करती है और हम सही प्रकार से निर्णय ले पाते हैं। सही निर्णय हमारे अंदर सकारात्मकता का भाव पैदा करता है। इससे हमारा रोम-रोम रोमांचित होता हुआ संगीत उत्पन्न करता रहता है।

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Question 3:

'महज़ एक धागे के सहारे, पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ' उन्हें (बच्चों को) कैसे थाम लेती हैं? चर्चा करें।

Answer:

बच्चे पतंग को धागे के माध्यम से उड़ाते हैं। उनके हाथों में पतंग की डोर होती है। जैसे-जैसे वे डोर को ढीला छोड़ते हैं, पतंग ऊँचाई की ओर बढ़ती चली जाती है। बच्चे अपनी पतंग को ऊँचाइयों में देखकर रोमांचित हो उठते हैं। उन्हें लगता है कि वही पतंग हैं और ऊँचाइयों में उड़ते जा रहे हैं। उन्हें यह ख्याल ही नहीं रहता है कि वे पतंग नहीं हैं और आसमान में  नहीं उड़ रहे हैं। बस वे स्वयं को उड़ता हुआ महसूस करते हैं। इसलिए कहा गया है कि महज एक धागे के सहारे, पंतगों की धड़कती ऊँचाइयाँ' उन्हें (बच्चों को) थाम लेती है।

(मित्रों के साथ इस विषय में और बात करें।)

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Question 1:

हिंदी साहित्य के विभिन्न कालों में तुलसी, जायसी, मतिराम, द्विजदेव, मैथिलीशरण गुप्त आदि कवियों ने भी शरद ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। आप उन्हें तलाश कर कक्षा में सुनाएँ और चर्चा करें कि पतंग कविता में शरद ऋतु वर्णन उनसे किस प्रकार भिन्न हैं?

Answer:

(क) तुलसी द्वारा कृत एक रचना-

जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।

(ख) जायसी द्वरा कृत रचना का एक भाग-

भइ निसि, धनि जस ससि परगसी । राजै-देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद-ससि आवा । फेरि गगन रवि चाहै छावा॥

तुलसीदास जी ने शरत ऋतु में खंजन पक्षी का वर्णन किया है और जायसी ने शरद ऋतु के समय चाँद तथा रात का वर्णन किया है। पतंग कविता में जहाँ सुबह का वर्णन मिलता है, वहीं इस ऋतु में बच्चों का पतंग उड़ाने का दृश्य दृष्टिगोचर होता है। तीनों की कविता में अलग-अलग वर्णन हैं।
(मित्रों के साथ इस विषय में और बात करें।)

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Question 2:

आपके जीवन में शरद ऋतु क्या मायने रखती है?

Answer:

मेरे जीवन में शरद ऋतु बहुत मायन रखती है। शरद ऋतु में ग्रीष्म ऋतु की तरह अधिक गर्मी नहीं पड़ती। भादों के समान अधिक बारिश नहीं होती। इस समय ठंड होती है, जो बहुत अच्छी लगती है। वातावरण सुंदर तथा मस्ती से भरा होता है। धूप का मज़ा भी इस ऋतु में उठाया जाता है। शरद ऋतु अपने साथ त्यौहारों की बहार लेकर आती है। दीपावली, दशहरा, नवरात्र, दुर्गा पूजा, भईया दूज, क्रिसमिस इत्यादि इस ऋतु में आने वाले प्रमुख भारतीय त्यौहार हैं। इस ऋतु में खाने के लिए विभिन्न प्रकार की सब्ज़ियाँ उपलब्ध हो जाती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह ऋतु उत्तम होती है क्योंकि इस ऋतु में पाचन शक्ति मज़बूत होती है।

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Question 1:

इस कविता के बहाने बताएँ कि 'सब घर एक कर देने के माने' क्या है?

Answer:

सब घर एक देने के माने का अर्थ है कि सभी को अपना घर बना लेना। बच्चों के लिए अपना-पराया कुछ नहीं होता है। जहाँ उन्हें प्यार मिलता है, वे वहीं के हो जाते हैं। यही कारण है कि बच्चे पड़ोसियों के साथ भी वैसे ही रहते हैं, जैसे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं। वे किसी सीमा को नहीं समझते हैं। वे उन सीमाओं को तोड़कर एकता स्थापित कर देते हैं। ऐसे ही कविताएँ होती हैं। कविता यह नहीं देखती कि उसे हिन्दू पढ़ रहा है या अन्य कोई धर्म या जाति का व्यक्ति। वे सारी सीमाएँ तोड़कर प्रेम तथा एकता का सूत्र कायम कर देती हैं। वे समाज तथा सभी देशों की सीमाओं को एकसूत्र में पिरो देती हैं।

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Question 2:

'उड़ने' और 'खिलने' का कविता से क्या संबंध बनता है?

Answer:

पक्षी आकाश में उड़ते हैं तथा फूल जगह-जगह खिलते हैं। कविता में पक्षियों के समान उड़ने की तथा फूल के समान खिलने की विशेषता होती है। लेकिन ये विशेषताएँ उसे किसी सीमा में नहीं बाँधती। ये विशेषताएँ उसे गहराई तथा व्यापकता देती है। पक्षी एक समय तक ही उड़ सकते हैं तथा फूल खिलकर समाप्त हो जाते हैं लेकिन कविता में ऐसा नहीं होता है। वह अपने निर्माण के साथ ही उड़ान भरती है और सदियों तक इस उड़ान को कायम रखती है, वह फूल के समान स्वरूप पाकर खिलती है। उसका खिलना एक समय के लिए नहीं होता बल्कि वह भी सदियों तक खिलकर लोगों के हृदय को आनंदित करती है। इसलिए 'उड़ने' और 'खिलने' का कविता से गहरा संबंध बनता है।

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Question 3:

कविता और बच्चे को समानांतर रखने के क्या कारण हो सकते हैं?

Answer:

कविता और बच्चों में समानांतर रखने के निम्नलिखित कारण हैं-
(क) बच्चों के समान कविता में शब्दों की कोई सीमा नहीं होती है। जैसे बच्चे खेलते समय सारी सीमाएँ तोड़ देते हैं, वैसे ही कविता भी सारी सीमाएँ तोड़ देती है।
(ख) बच्चे किसी सीमा को नहीं मानते। उनके लिए कोई अपना-पराया नहीं होता है। सब उनके अपने होते हैं। ऐसे ही कविता के लिए कोई अपना-पराया नहीं होता है। वे सभी के लिए होती है।
(ग) जिस प्रकार बच्चों की कल्पनाएँ अनंत होती हैं, वैसे ही कवि की कल्पनाओं का अनंत रूप कविता होती है।

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Question 4:

कविता के संदर्भ में 'बिना मुरझाए महकने के माने' क्या होते हैं?

Answer:

फूल ही ऐसे हैं, जो महकते हैं। लेकिन उनका महकना तब तक कायम रहता है, जब तक उनका अस्तित्व विद्यमान है। कविता की स्थिति ऐसी नहीं है। कवि ने उसे खिलने तथा कभी न मुरझाने की शक्ति प्रदान की है। इस कारण उसकी महक सदैव बनी रहती है। उसे आप जब भी पढ़ो वह आपको नयी ही प्रतीत होती है। कविता का प्रभाव तथा अस्तित्व चिरस्थायी रहता है। इसलिए कविता को बिना मुरझाए महकने के लिए कहा है।

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Question 5:

'भाषा को सहूलियत' से बरतने से क्या अभिप्राय है?

Answer:

इसका अभिप्राय है कि हमें भाषा का प्रयोग उचित प्रकार से करना चाहिए। भाषा शब्दों का ताना-बाना है। उनके अर्थ प्रसंगगत होते हैं। अतः हमें उसका प्रयोग सही प्रकार से करना चाहिए। कई बार हम गलत शब्द का प्रयोग कर भाषा को पेचिदा बना देते हैं। इसलिए कहा गया है कि भाषा को सहूलियत के साथ बरतना चाहिए। जितना आवश्यक हो उतना ही बोलना चाहिए। अत्यधिक बोलना भी भाषा को विचित्रता दे देता है। हम बोलने में भूल ही जाते हैं कि हम क्या बोल रहे हैं। अतः बोलते समय अधिक सावधानी रखें।

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Question 6:

बात और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं, किंतु कभी-कभी भाषा के चक्कर में 'सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है' कैसे?

Answer:

यह सही है कि बात और भाषा आपस में जुड़े हुए हैं। जब हम किसी से बात करते हैं, तो भाषा ही वह माध्यम हैं, जिससे हम अपनी बात दूसरों को समझा सकते हैं। यदि भाषा नहीं है, तो हम बात नहीं कर सकते हैं। यदि हम किसी के साथ बात ही नहीं करेंगे, तो भाषा का प्रयोग नहीं होगा। अतः यह अटूट संबंध है। जब हम अपनी भाषा को सहजता से इस्तेमाल नहीं करते तो यह स्थिति आती है कि सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है। हर शब्द की विशेषता है कि उसका अपना अलग अर्थ होता है। फिर चाहे वह देखने में किसी के समान अर्थ देने वाले क्यों न लगे। उदाहरण के लिए-
तुम्हारा आचार सड़ गया है।
इस वाक्य में 'आचार' शब्द का गलत प्रयोग किया गया है। इस शब्द का अर्थ व्यवहार है। यह अचार के समान लगता है। लेकिन वाक्य को ध्यानपूर्वक देखा जाए, तो यहाँ पर आम, गोभी से बनने वाले व्यंजन की बात की जा रही है। लेकिन गलत शब्द का प्रयोग करके हमने सीधी बात को टेढ़ा बना दिया है।

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Question 7:

बात (कथ्य) के लिए नीचे दी गई विशेषताओं का उचित बिंबों/मुहावरों से मिलान करें।

बिंब/मुहावरा विशेषता
 (क) बात की चूड़ी मर जाना  कथ्य और भाषा सही सामंजस्य बनना
 (ख) बात की पेंच खोलना  बात का पकड़ में न आना
 (ग) बात का शरारती बच्चे की तरह खेलना  बात का प्रभावहीन हो जाना
 (घ) पेंच को कील की तरह ठोंक देना  बात में कसावट का न होना
 (ङ) बात का बन जाना  बात को सहज और स्पष्ट करना

Answer:

बिंब/मुहावरा विशेषता
 (क) बात की चूड़ी मर जाना  बात का प्रभावहीन हो जाना
 (ख) बात की पेंच खोलना  बात को सहज और स्पष्ट करना
 (ग) बात का शरारती बच्चे की तरह खेलना  बात का पकड़ में न आना
 (घ) पेंच को कील की तरह ठोंक देना  बात में कसावट का न होना
 (ङ) बात का बन जाना  कथ्य और भाषा सही सामंजस्य बनना

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Question 1:

❖ बात से जुड़े कई मुहावरे प्रचलित हैं। कुछ मुहावरों का प्रयोग करते हुए लिखें।

Answer:

क) बात बनना- काम बन जाना- कल लड़के वाले आए थे। लगता है नेहा की बात बन गई है।
ख) बात का बतंगड़ बनाना- छोटी बात को बड़ी बना देना- गगन ने तो बात का बतंगड़ बना दिया है।
ग) बात का धनी होना- जुबान का पक्का- रोहन बात का धनी है। जो बोल दिया वह करके रहता है।
घ) बातें बनाना- यहाँ की वहाँ लगाना- लोगों को तो हमेशा बातें बनाने के लिए मिलना चाहिए।
ङ) बात बिगड़ना- काम खराब होना- तुमने बनाई बात बिगाड़ दी।

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Question 1:

❖ ज़ोर ज़बरदस्ती से

बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।

Answer:

प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि कहना चाहता है कि हमें बोलते समय भाषा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। मात्र अपनी बात कहने के लिए कुछ भी नहीं कहना चाहिए। भाषा में अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करने से बात का महत्व समाप्त हो जाता है। इस तरह बात बिगड़ जाती है। एक पेंच को कसते समय हमारे द्वारा की गई ज़बरदस्ती पेंच की चूड़ी को खराब कर देता है, वैसे ही बात करते समय भाषा में किए गए अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से बात का सही अर्थ नहीं निकल पाता है। अपनी बात को समझाने के लिए हमें उचित शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। इस तरह हमारी बात प्रभावी बनती है और लोगों को समझ में आती है। लेकिन ज़बरदस्ती भाषा को प्रभावी बनाने के चक्कर में सही बात भी स्पष्ट नहीं हो पाती है।

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Question 1:

❖ आधुनिक युग में कविता की संभावनाओं पर चर्चा कीजिए?

Answer:

आधुनिक युग में कविताओं में संभावनाएँ-
(क) अभिव्यक्ति को सहज और सुंदर रूप से व्यक्ति करना।
(ख) कविताओं को यथार्थ से और भी समीप से जोड़ना।
(ग) कविता की भाषा शैली और शिल्प शैली में बदलाव करना।
(घ) कविता में अलंकारों और छंदों के स्वरूप में नए बदलाव।

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Question 2:

❖ चूड़ी, कील, पेंच आदि मूर्त्त उपमानों के माध्यम से कवि ने कथ्य की अमूर्त्तता को साकार किया है। भाषा को समृद्ध एवं संप्रेषणीय बनाने में, बिबों और उपमानों के महत्त्व पर परिसंवाद आयोजित करें।

Answer:

भाषा को समृद्ध एवं संप्रेषणीय बनाने में बिबों और उपमानों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है। ये ही कविता के स्वरूप को साकार करते हैं। इनके द्वारा ही कवि की बात प्रभावी बनती है और वह क्या कहना चाहता है, यह स्पष्ट होता है। 'बिंब' का अर्थ होता है, शब्दों के माध्यम से कविता में ऐन्द्रिय चित्र दर्शाना। कविता में इसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके द्वारा कवि अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग कर अपने सूक्ष्म विचारों को एक चित्र के रूप में दर्शाता है। यह चित्र कविता पढ़ते समय हमारी आँखों के आगे साकार हो जाता है। उपमान का प्रयोग करके कवि भाषा को सरल, सहज बना देता है। इससे भाषा में शब्दांडबर खत्म हो जाता है और कविता अपने उद्देश्य की पूर्ति कर लेती है।

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Question 1:

सुंदर है सुमन, विहग सुंदर
मानव तुम सबसे सुंदरतम।

पंत की इस कविता में प्रकृति की तुलना में मनुष्य को अधिक सुंदर और समर्थ बताया गया है 'कविता के बहाने' कविता में से इस आशय को अभिव्यक्त करने वाले बिंदुओं की तलाश करें।

Answer:

निम्नलिखित बिंदु दी गई कविता के आशय को अभिव्यक्त करते हैं-

(क) कविता के पंख लगा उड़ने के माने

चिड़िया क्या जाने?

(ख) बिना मुरझाए महकने के माने

फूल क्या जाने?

(ग) सब घर एक कर देने के माने

बच्चा ही जाने!

Page No 20:

Question 2:

प्रतापनारायण मिश्र का निबंध 'बात' और नागार्जुन की कविता 'बातें' ढूँढ़ कर पढ़ें।

Answer:

बात

यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्‍याख्‍या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल बात का वर्णन करते। किंतु इन दोनों विषयों में हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। इससे केवल उसी बात के ऊपर दो चार बात लिखते हैं जो हमारे सम्‍भाषण के समय मुख से निकल-निकल के परस्‍पर हृदयस्‍थ भाव प्रकाशित करती रहती है। सच पूछिए तो इस बात की भी क्या बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्‍त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफुल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी सी समझने योग्‍य बातें उच्‍चरित कर सकते हैं इसी से अन्‍य नभचारियों की अपेक्षा आद्रित समझे जाते हैं। फिर कौन न मान लेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्‍मा को सब लोग निराकार कहते हैं तौ भी इसका संबंध उसके साथ लगाए रहते हैं। वेद ईश्‍वर का बचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्‍लाह है, होली बाइबिल वर्ड आफ गाड है यह बचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं सो प्रत्‍यक्ष में मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलंबियों ने "बिन बानी वक्‍त बड़ योगी" वाली बात मान रक्‍खी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं।
यहाँ तक कि प्रेम सिद्धांती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकावैंगे। 'अपाणिपादो जवनो गृहीता' इत्‍यादि पर हठ करने वाले को यह कहके बात में उड़ावेंगे कि "हम लँगड़े लूले ईश्‍वर को नहीं मान सकते। हमारा प्‍यारा तो कोटि काम सुंदर श्‍याम बरण विशिष्‍ट है।" निराकार शब्‍द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी स्‍यामता को द्योतन करती है अथवा योगाभ्‍यास का आरंभ करने वाले कों आँखें मूँदने पर जो कुछ पहिले दिखाई देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है। सिद्धांत यह कि रंग रूप रहित को सब रंग रंजित एवं अनेक रूप सहित ठहरावेंगे किंतु कानों अथवा प्रानों वा दोनों को प्रेम रस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को बंचित न रहने देंगे।
जब परमेश्‍वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो "गात माहिं बात करामात है।" नाना शास्‍त्र, पुराण, इतिहास, काव्‍य, कोश इत्‍यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्‍य एक-एक ऐसी पाई जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अथच लोक परलोक में सब बात बनाने वाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइए तो ईश्‍वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइएगा।
बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढ़ी बात, खरी बात, खोटी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्‍यादि सब बात ही तो है? बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं। प्रीति बैर, सुख दु:ख श्रद्धा घृणा, उत्‍साह अनुत्‍साहादि जितनी उत्तमता और सहजतया बात के द्वारा विदित हो सकते हैं दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं। घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है।
हमारे तुम्‍हारे भी सभी काम बात पर निर्भर करते हैं - "बातहि हाथी पाइए, बातहि हाथी पाँव।" बात ही से पराए अपने और अपने पनाए हो जाते हैं। मक्‍खीचूस उदार तथा उदार स्‍वल्‍पव्‍ययी, कापुरुष युद्धोत्‍साही एवं युद्धप्रिय शांतिशील, कुमार्गी सुपथगामी अथच सुपंथी कुराही इत्‍यादि बन जाते हैं। बात का तत्‍व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्‍य जमाने योग्‍य बात बढ़ सकता भी ऐसों वैसों का साध्‍य नहीं है। बड़े-बड़े विज्ञवरों तथा महा-महा कवीश्‍वरों के जीवन बात ही के समझने समझाने में व्‍यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनंद के आगे सारे संसार तुच्‍छ जँचता है। बालाकों की तोतली बातें, सुंदरियों की मीठी-मीठी, प्‍यारी-प्‍यारी बातें, सत्‍कवियों की रसीली बातें, सुवक्‍ताओं की प्रभावशाली बातें जिसके जी को और का और न कर दें उसे पशु नहीं पाषाण खंड कहना चाहिए। क्‍योंकि कुत्ते, बिल्‍ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के 'तू तू' 'पूसी पूसी' इत्‍यादि बातें क दो तो भावार्थ समझ के यथा सामर्थ्‍य स्‍नेह प्रदर्शन करने लगते हैं। फिर वह मनुष्‍य कैसा जिसके चित्त पर दूसरे हृदयवान की बात का असर न हो।
बात वह आदणीय है कि भलेमानस बात और बाप को एक समझते हैं। हाथी के दाँत की भाँति उनके मुख से एक बार कोई बात निकल आने पर फिर कदापि नहीं पलट सकती। हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि "तन तिय तनय धाम धन धरनी। सत्‍यसंध कहँ तून सम बरनी"। अथच "प्रानन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक परान। ते दूनौ दसरथ तजे वचन न दीन्‍हों जान।" इत्‍यादि उनकी अक्षरसंवद्धा कीर्ति सदा संसार पट्टिका पर सोने के अक्षरों से लिखी रहेगी। पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रक्‍खा है कि 'मर्द की जबान (बात का उदय स्‍थान) और गाड़ी का पहिया चलता ही फिरता रहता है।'
आज और बात है कल ही स्‍वार्थांधता के बंश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलंब की संभावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है, पर कब? जात्‍योपकार, देशोद्धार, प्रेम प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए। एक हम लोग हैं जिन्‍हें आर्यकुलरत्‍नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है। किंतु हिंदुस्‍तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है।
इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहै चाहै यह समझे कि बात कहने का भी शउर नहीं है किंतु अपनी मति अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें कोई न कोई, किसी न किसी के वास्‍तविक हित की बात निकलती रहे। पर खेद है कि हमारी बातें सुनने वाले उँगलियों ही पर गिनने भर को हैं। इससे "बात बात में वात" निकालने का उत्‍साह नहीं होता। अपने जी को 'क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने' इत्‍यादि विदग्‍धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्‍छी बात है।

(प्रताप नारायण मिश्र)

 

बातें

हँसी में धुली हुईं
सौजन्य चंदन में बसी हुई
बातें–
चितवन में घुली हुईं
व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं
बातें–
उसाँस में झुलसीं
रोष की आँच में तली हुईं
बातें–
चुहल में हुलसीं
नेह–साँचे में ढली हुईं
बातें–
विष की फुहार–सी
बातें–
अमृत की धार–सी
बातें–
मौत की काली डोर–सी
बातें–
जीवन की दूधिया हिलोर–सी
बातें–
अचूक वरदान–सी
बातें–
घृणित नाबदान–सी
बातें–
फलप्रसू, सुशोभन, फल–सी
बातें–
अमंगल विष–गर्भ शूल–सी
बातें–
क्य करूँ मैं इनका?
मान लूँ कैसे इन्हें तिनका?
बातें–
यही अपनी पूंजी¸ यही अपने औज़ार
यही अपने साधन¸ यही अपने हथियार
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
बना लूँ वाहन इन्हें घुटन का, घिन का?
क्या करूँ मैं इनका?
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
स्तुति करूँ रात की, जिक्र न करूँ दिन का?
क्या करूँ मैं इनका?

(नागार्जुन)

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Question 1:

कविता में कुछ पंक्तियाँ कोष्ठकों में रखी गई हैं- आपकी समझ से इसका क्या औचित्य है?

Answer:

हमारी समझ से ये पंक्तियाँ कविता में आए संचालक द्वारा कही गई बातें हैं-

उदाहरण के लिए-

(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)

(हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा?)

(यह अवसर खो देंगे?)

(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)

(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे।)

(कैमरा बस करो नहीं हुआ रहने दो परदे पर वक्त की कीमत है)

(बस थोड़ी ही कसर रह गई)

कार्यक्रम का संचालक अपने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए अपंग व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से रुलाने का प्रयास करता है। वह कभी अपंग व्यक्ति, कभी दर्शकों तथा कभी कैमरामेन को बोलता है। इसके माध्यम से स्पष्ट हो जाता है कि कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए संचालक किस हद तक स्वयं को गिरा सकता है। इन पंक्तियों के माध्यम से उसका दोगला रूप दिखाई देता है। कार्यक्रम के सामाजिक उद्देश्य को पूरा करने के स्थान पर वह स्वयं के कार्यक्रम को सफल बनाने में लगा रहता है।

Page No 25:

Question 2:

कैमरे में बंद अपाहिज करुणा के मुखौटे में छिपी क्रूरता की कविता है- विचार कीजिए।

Answer:

यह बात कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से बहुत ही सुंदर रूप से व्यक्त की है। लोग अपंग लोगों के प्रति करुणा का भाव दिखाते हैं। समाज के समाने दिखावा करते हैं कि उन्हें अपंग लोगों से बहुत सहानुभूति है लेकिन जब अवसर पड़ता है, तो उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते हैं। एक कार्यक्रम जो सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, उसमें एक अपंग को बुलाया जाता है। कैमरे में उसका साक्षात्कार लिया जाता है,  उससे सहानुभूति तथा करुणा दिखाई जाती है।  लेकिन बार-बार उसे उसके अपंग होने का अहसास दिलाया जाता है। उसकी अपंगता को अपने कार्यक्रम की सफलता के लिए भुनाया जाता है। करुणा का मुखौटा पहनकर कार्यक्रम का संचालन जो क्रूरता करता है, उससे हृदय दुखी हो जाता है। यह वह सच्चाई है, जो आज इस प्रकार के कार्यक्रमों में दिखाई जाती है। आज धन का बोलबाल है, करुणा जैसे शब्द खोखले हो गए हैं।

Page No 25:

Question 3:

हम समर्थ शक्तिवान और हम एक दुर्बल को लाएँगे  पंक्ति के माध्यम से कवि ने क्या व्यंग्य किया है?

Answer:

यह व्यंग्य कवि ने उस मीडिया पर किया है, जो इस प्रकार के कार्यक्रमों का निर्माण करते हैं। समर्थ शक्तिवान कहकर वे उनकी उन शक्ति को प्रदर्शित करते हैं, जिसके माध्यम से वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसे लोग मानते हैं कि उनके पास इतनी शक्ति है कि वह कुछ भी कर सकने में समर्थ हैं। फिर वे चाहें, तो एक अपंग व्यक्ति की अपंगता को बेचकर भी पैसे कमा सकते हैं। करुणा तक को बेचने में उन्हें लज्जा का अनुभव नहीं होता है। हम एक दुर्बल को लाएँगे का तात्पर्य है कि हम ऐसे व्यक्ति को लाएँगे, जो शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप में भी कमज़ोर होगा। हम उसे अपने हाथ की कठपुतली बना लेंगे। उससे जो चाहे करवाना होगा करवाएँगे। वह अपनी कमज़ोरी के कारण इतना विवश होगा कि हमारे संकेत मात्र से नाचेगा। अतः कार्यक्रम के संचालक के संकेत मात्र से वह कुछ भी कर लेता है।

Page No 25:

Question 4:

यदि शारीरिक रूप से चुनौती का सामना कर रहे व्यक्ति और दर्शक, दोनों एक साथ रोने लगेंगे, तो उससे प्रश्नकर्ता का कौन-सा उद्देश्य पूरा होगा?

Answer:

प्रश्नकर्ता का उद्देश्य हैः अपने कार्यक्रम को सफल बनाना, दर्शकों के दिलों में जगह पाना तथा इसके माध्यम से अत्यधिक धन कमाना। यदि उसके कार्यक्रम से अपंग व्यक्ति और दर्शक दोनों साथ रोने लगेंगे, तो यह उसके कार्यक्रम की सफलता का सूचक है। वह सामाजिक उद्देश्य के लिए इस कार्यक्रम का निर्माण नहीं करता है। वह इसके माध्यम से अपने तीनों उद्देश्य सफल करना चाहता है। वह अपंग व्यक्ति की अपंगता को दिखाकर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ जाएगा, करुणा का सहारा लेकर वह दर्शकों तथा अपने कार्यक्रम के निर्माता के हृदय पर राज कर सकेगा।

Page No 25:

Question 5:

परदे पर वक्त की कीमत है कहकर कवि ने पूरे साक्षात्कार के प्रति अपना नज़रिया किस रूप में रखा है?

Answer:

कवि जानता है कि टी.वी. में जो भी कार्यक्रम दिखाए जाते हैं। उनका उद्देश्य समाज की भलाई करना नहीं है। उनका उद्देश्य अपने चैनल को प्रसिद्ध करना तथा धन कमाना है। अतः वहाँ पर एक-एक पल की कीमत पहले से तय होती है। अपंग व्यक्ति पर आधारित कार्यक्रम अपंग व्यक्ति का साक्षात्कार नहीं है अपितु उसकी अपंगता को देश के आगे रखकर प्रसिद्धि व धन कमाना है। उन्हें अपंग व्यक्ति के सुख-दुख से कोई लेना-देना नहीं है। अपने हितों को वे शीर्ष पर रखते हैं। उनकी करुणा तथा सहानुभूति सब नाटक होती है। अतः इस पंक्ति को कहकर कवि ऐसे कार्यक्रमों के प्रति अपनी नाराज़गी और क्रोध को व्यक्त करता है।

Page No 25:

Question 1:

यदि आपको शारीरिक चुनौती का सामना कर रहे किसी मित्र का परिचय लोगों से करवाना हो, तो किन शब्दों में करवाएँगी?

Answer:

मैं अपने ऐसे मित्र का परिचय इन शब्दों के माध्यम से करवाऊँगी।-

यह मेरा वह मित्र है, जिसने जीवन की चुनौतियों का डटकर ऐसा सामना किया कि खोए हुए अंग की कमी भी इसके इरादों को तोड़ नहीं पायी।

ऐसे समय में जब लोग किसी अंग के खोने पर हिम्मत छोड़े देते हैं, यह दूसरों की हिम्मत बनकर उभरा। इसने एक ऐसी मिसाल कायम की आज यह

हमारे सामने बेमिसाल बन गया है। हमारे लिए यह प्रेरणा स्रोत है। यह मेरा मित्र ............... है।

Page No 25:

Question 2:

सामाजिक उद्देश्य से युक्त ऐसे कार्यक्रम को देखकर आपको कैसा लगेगा? अपने विचार संक्षेप में लिखें।

Answer:

ऐसे कार्यक्रम को देखकर मेरा मन खिन्न हो जाएगा। मुझे हैरानी होगी ऐसे कार्यक्रम बनाने वालों पर। मैं प्रयास करूँगा कि इस कार्यक्रम की प्रस्तुति बंद करवा सकूँ। इस प्रकार के कार्यक्रम दर्शकों को आनंद दे या न दे लेकिन एक अपंग व्यक्ति को मानसिक रूप में अवश्य अपंग बना सकते हैं। अतः मैं इसका विरोध करूँगा।

Page No 26:

Question 3:

यदि आप इस कार्यक्रम के दर्शक हैं, तो टी.वी. पर ऐसे सामाजिक कार्यक्रम को देखकर एक पत्र में अपनी प्रतिक्रिया दूरदर्शन निदेशक को भेजें।

Answer:

पताः ..........
दिनाँकः ..............

सेवा में,
निदेशक,
दूरदर्शन,
आकाशवाणी मार्ग
नई दिल्ली।

विषयः डी.डी.वन में बुधवार दिनाँक .............. को प्रसारित होने वाला कार्यक्रम पर दुख जताते हुए शिकायती पत्र।

महोदय/महोदया,
बुधवार शाम 7 बजे आपके चैनल पर एक कार्यक्रम दिखाया गया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य सामाजिक था। इसमें एक अपंग व्यक्ति का साक्षात्कार लिया गया था। आपके इस कार्यक्रम को देखकर हमें बहुत दुख हुआ। इसमें अपंग व्यक्ति के साथ कार्यक्रम के संचालक ने जिस प्रकार का व्यवहार किया वह निंदनीय था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संचालक ने जान-बूझकर करुणापूर्ण शब्द बोलकर उसकी अपंगता का फायदा उठाने का प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त ऐसा जान पड़ रहा था कि संचालक व्यक्ति को बोलने ही नहीं दे रहे थे, बस अपनी बात कहने में उन्हें दिलचस्पी थी। यह एक प्रकार से शोषण सा प्रतीत हो रहा था।
आपसे विनम्र निवेदन है कि इस प्रकार के कार्यक्रम को रोक लगाएँ जाएँ ताकि भविष्य में अन्य व्यक्ति के साथ इस प्रकार का शोषण न हो।

भवदीय
मृदुल भारत

Page No 26:

Question 4:

नीचे दिए गए खबर के अंश को पढ़िए और बिहार के इस बुधिया से एक काल्पनिक साक्षात्कार कीजिए-

प्र २ कृति पूर्ण कीजिए कविता में प्रयुक्त खाद्यपदार्थ - pr 2 krti poorn keejie kavita mein prayukt khaadyapadaarth

(कक्षाः 12वीं आरोह नामक पुस्तक से लिया गया चित्र)

Answer:

प्रेरणा : नमस्कार बुधिया जी!  आप कैसे हैं?

बुधियाः जी! अच्छा हूँ।

प्रेरणाः आप जानते हैं कि आज हम यहाँ आपके बारे में जानने के लिए एकत्र हुए हैं। अतः हम कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।

बुधियाः जी पूछिए।

प्रेरणाः आपकी विकलांगता कबसे है?

बुधियाः जी! जन्म से ही मैं विकलांग हूँ।

प्रेरणाः इसके कारण आपको किस प्रकार की समस्याओं का समान करना पड़ा?

बुधियाः जी! बच्चे मुझे अपने साथ खिलाते नहीं थे। यदि खिलाते तो दयाभाव दिखाते थे। ऐसे ही मेरे आस-पड़ोस के लोगों का व्यवहार था। मेरे प्रति दयाभाव रखना। मुझे अधिक सुरक्षा प्रदान करना। जैसे की मैं कुछ करने लायक नहीं हूँ। इन सबने मुझे अंदर से तोड़ दिया था। मैं स्वयं को अकेला महसूस करता था।

प्रेरणाः ऐसे समय में आपने स्वयं को कैसे संभाला?

बुधियाः मेरी माताजी ने मेरी बहुत सहायता की। वे मेरी मनोस्थिति को समझ गयीं। उन्होंने मेरी हिम्मत बढ़ायी। उन्होंने मुझे ऐसे ही पाला जैसे मेरे अन्य भाई-बहनों को पाला। वे मुझे बाज़ार से सौदा लाने भेजती। मुझे भाई-बहनों की देखभाल करने के लिए बोलती। उन्होंने मुझे इस तरह से सिखाया कि मैं स्वयं की देखभाल करने में सक्षम हो गया। उसके बाद तो में चाय, खिचड़ी, दाल चावल, भी स्वयं बना लेता हूँ।

प्रेरणाः आपके दिमाग में भागने का ख्याल कहाँ से आया?

बुधियाः मैंने जब बुधिया जी के बारे में सुना तो मुझे भी लगा कि मुझे भी दौड़ना चाहिए। मैं सबको दिखाना चाहता था कि मैं किसी से कम नहीं हूँ। मेरे अंदर भी सामान्य लोगों के समान ताकत, जोश तथा हिम्मत है।

प्रेरणाः यह तो आपने सही कहा। आपकी इस दौड़ ने यह साबित कर दिया है। अब आप आगे क्या करना चाहते हैं?

बुधियाः मैं कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पैदल यात्रा करना चाहता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ।

प्रेरणाः बुधिया! आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई है। हम आपके लिए प्रार्थना करेंगे कि आपके सभी सपने पूरे हों।

बुधियाः धन्यवाद।

Page No 32:

Question 1:

टिप्पणी कीजिएः गरबीली गरीबी, भीतर की सरिता, बहलाती सहलाती आत्मीयता, ममता के बादल।

Answer:

(क) गरबीली गरीबी- इसका बहुत गहरा अर्थ है। एक गरीब आदमी अपनी गरीबी से परेशान तथा हताश रहता है। उसे गरीबी पर दुख होता है। इस कारण उसमें आत्मविश्वास की कमी रहती है। निराशा उसके चारों तरफ रहती है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके लिए गरीबी दुख का कारण नहीं होती बल्कि अभिमान का कारण होती है। कवि ऐसे ही लोगों में से एक है। उसने गरीबी को गरबीली बोलकर उसका ही नहीं बल्कि हर गरीब व्यक्ति को सम्मान देने का प्रयास किया है। एक व्यक्ति गरीब अवश्य होगा, निराशा से भरा होगा, आत्मविश्वास से विहिन हो लेकिन अपनी गरीबी से तंग आकर वह ऐसा कार्य नहीं करता, जो उसे समाज का शत्रु बना दे। अतः उनकी गरीबी उन्हें बुरे मार्ग पर नहीं ले जाती है। वह ईश्वर का नाम लेकर जीवन जीते है। उनका यह जीवन गर्व करने लायक होता है।
 

(ख) भीतर की सरिता- भीतर की सरिता से कविता का तात्पर्य प्रेम रूपी भावना से है। यह प्रेम हृदय के अंदर नदी के समान प्रवाहित होता है। जैसे नदी मनुष्य के जीवन का पालन-पोषण करती है, वैसे ही प्रेम की भावना मनुष्य का तथा उसके आपसी संबंधों का पालन-पोषण करती है। इसी के प्रवाह को सरिता का नाम दिया गया है। यह ऐसी पवित्र नदी के समान है, जो संबंधों तथा लोगों में जीवनदान करती है।
 

(ग) बहलाती सहलाती आत्मीयता- कवि की प्रेमिका के साथ आत्मीय संबंध है। वह उसके साथ आत्मीय भरा व्यवहार करती है। उसे विभिन्न प्रकार से वह बहलाती है तथा सहलाती है। प्रेमिका के आत्मीयता से भरे व्यवहार को कवि ने ऐसा कहा है। लेकिन इन पंक्तियों में कवि के इस व्यवहार के प्रति शिकायती भाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कवि को हर समय प्रेमिका की  बहलाने और सहलाने वाला व्यवहार पसंद नहीं आता होगा।

Page No 32:

Question 2:

इस कविता में और भी टिप्पणी-योग्य पद-प्रयोग हैं। ऐसे किसी एक प्रयोग का अपनी ओर से उल्लेख कर उस पर टिप्पणी करें।

Answer:

मीठे पानी का सोता टिप्पणी-योग्य पद-प्रयोग है। इसमें कवि ने अपने हृदय के अंदर स्नेह तथा प्रेम की भावनाओं को मीठे पानी का सोता कहा है। उसने स्नेह तथा प्रेम की भावनाओं की झरने से तुलना की है।

Page No 32:

Question 3:

व्याख्या कीजिएः
जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ, भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

उपर्युक्त पंक्तियों की व्याख्या करते हुए यह बताइए कि यहाँ चाँद की तरह आत्मा पर झुका चेहरा भूलकर अंधकार-अमावस्या में नहाने की बात क्यों की गई है?

Answer:

कवि कहता है कि प्रिय तुम्हारा-मेरा संबंध बड़ा अजीब है। मुझे यह समझ नहीं आता है। इसकी गहराई इससे ही पता चलती है कि मैं जितना प्रेम तुम्हें देता हूँ उसके बाद भी वह फिर आ जाता है। अर्थात जितना प्रेम तुम पर उड़ेलता हूँ मैं फिर से प्रेममय हो जाता हूँ। कवि कहता है कि अपने हृदय की इस स्थिति से मैं विस्मित हूँ। मुझे समझ नहीं आता है कि यह सब क्या हो रहा है। मेरे हृदय में यह कहाँ से आ रहा है। मेरे हृदय में कब से यह मीठे पानी के झरने रूपी भावनाएँ संचारित हो रही हैं। इस झरने की विशेषता है कि यह कभी न समाप्त होने वाला है। इन सबके मध्य मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे हृदय में प्रेमरूपी जल का सोता बह रहा है और बाहर तुम मेरे जीवन में हो। तुम्हारा सुंदर खिलता हुआ चेहरा मेरे जीवन को इसी प्रकार प्रकाशित कर रहा है, जैसे चाँद रातभर धरती को प्रकाशित करता है। यहाँ चाँद की तरह आत्मा पर झुका चेहरा भूलकर अंधकार-अमावस्या में नहाने की बात की गई क्योंकि कवि जीवन के धरातल में व्याप्त सच्चाई को भली प्रकार से जानता है। उसके जीवन में जो भी खुशियों के पल हैं, वे सब उसकी प्रेमिका के संग के कारण हैं। यदि प्रेमिका का प्यार न रहे, तो जीवन में व्याप्त दुख उसे छिन्न-भिन्न कर दे। कवि ने दुख को अंधकार की संज्ञा दी है।

Page No 33:

Question 4:

तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।

(क) यहाँ अंधकार-अमावस्या के लिए क्या विशेषण इस्तेमाल किया गया है उससे विशेष्य में क्या अर्थ जुड़ता है?

(ख) कवि ने व्यक्तिगत संदर्भ में किस स्थिति को अमावस्या कहा है?

(ग) इस स्थिति से ठीक विपरीत ठहरने वाली कौन-सी स्थिति कविता में व्यक्त हुई है? इस वैपरीत्य को व्यक्त करने वाले शब्द का व्याख्यापूर्वक उल्लेख करें।

(घ) कवि अपने संबोध्य (जिसको कविता संबंधित है कविता का 'तुम') को पूरी तरह भूल जाना चाहता है, इस बात को प्रभावी तरीके से व्यक्त करने के लिए क्या युक्ति अपनाई है? रेखांकित अंशों को ध्यान में रखकर उत्तर दें।

Answer:

(क) यहाँ अंधकार-अमावस्या के लिए दक्षिणी ध्रुव विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे विशेष्य में व्याप्त जो कालिमा है, वह और भी काली प्रतीत होती है। दक्षिणी ध्रुव में 6 महीने तक सूर्योदय नहीं होता है। अतः वहाँ कभी न समाप्त होने वाला काला अंधकार व्याप्त रहता है।

(ख) कवि ने व्यक्तिगत संदर्भ में दुख के समय को अमावस्या कहा है। जिस प्रकार अंधकार पूरे संसार को ढक लेता है, वैसे ही दुख रूपी अंधकार कवि के शरीर तथा आत्मा को ढक लेना चाहता है।

(ग) वह रमणीय उजेला को झेले और उसी में नहा ले।– स्थिति का वर्णन पहले कविता में किया गया है। कविता की पंक्तियाँ जो प्रश्न में दी गई हैं, वहाँ पर अंधकार-अमावस्या की बात की गई है। लेकिन जो पंक्ति में उजेला शब्द है, वह इसके ठीक विपरीत स्थिति है। जिस प्रकार दुख रूपी अंधकार अमावस्या कवि के जीवन में व्याप्त है, वैसे ही लेखिका का सुंदर चेहरा उस प्रकाश के समान है, जो इस अंधेरे को उसके जीवन में गहराने नहीं देता है। प्रेमिका का सुंदर चेहरा उसे प्रकाशित करता रहता है।

(घ) कवि का यह 'तुम' लेखक की प्रेमिका है। अपनी प्रेमिका को भूल जाने के लिए कवि ने अपना बात को और भी प्रभावी रूप से इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की है। उसने भूल जाने की, उसके जीवन में प्रेमिका के प्रभाव को उतार लेने, उसे झेलने तथा नहा लेने रूपी युक्तियाँ अपनाई हैं।

Page No 33:

Question 5:

बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है- और कविता के शीर्षक सहर्ष स्वीकारा है  में आप कैसे अंतर्विरोध पाते हैं। चर्चा कीजिए।

Answer:

इसके अंदर व्याप्त अंतर्विरोध हम इस प्रकार पाते हैं। एक तरफ कवि अपनी प्रेमिका के आत्मीय संबंध से सुखी दिखाई देता है। उसे लगता है कि प्रेमिका का आत्मीयपन उसके जीवन में समा चूका है। उसके चेहरे मात्र से ही अपने जीवन को प्रकाशित मानता है। लेकिन दूसरे ही पल वह लेखिका की आत्मीयता को सह नहीं पाता। उसे प्रेमिका का अधिक बहलाना और सहलाना अखरने लगता है। उसे यह व्यवहार कष्ट देता है। लेकिन इसके बिना वह जी भी नहीं पाता। इस प्रकार की स्थिति को ही अंतर्विरोध कहते हैं। जहाँ किसी चीज़ के बिना मनुष्य रह नहीं सकता और फिर उससे कष्ट भी पाता है।

Page No 33:

Question 1:

अतिशय मोह भी क्या त्रास का कारक है? माँ का दूध छूटने का कष्ट जैसे एक ज़रूरी कष्ट है, वैसे ही कुछ और ज़रूरी कष्टों की सूची बनाएँ।

Answer:

बिलकुल अतिशय मोह भी त्रास का कारक होता है। जब हमें कोई वस्तु इतनी प्रिय लगती है कि हम उसे एक क्षण के लिए भी अपने सामने से हटा नहीं पाते हैं। उसकी जुदाई हमें दुख देने लगे, तो उसे अतिशय मोह कहते हैं। उस वस्तु के प्रति मोह हमें अत्यधिक कष्ट देने लगता है। उसके टूटने, खोने, चोरी होने, अलग होने, छोड़ देने के भय मात्र से ही हम चिंता की अग्नि में जल उठते हैं। अतः उस समय अतिशय मोह हमारे लिए त्रास की स्थिति पैदा कर देता है। ऐसे कुछ कष्टों की सूची दे रहे हैं, जिनका होना ज़रूरी है-

(क) बच्चे को माँ की गोद से निकालकर स्कूल भेजना।

(ख) अपने घर तथा परिवार को छोड़कर नौकरी के लिए किसी अन्य स्थान में चले जाना।

(ग) बीमारी में स्वादिष्ट भोजन के स्थान पर खिचड़ी तथा दलिया का सेवन करना।

(घ) बीमारी की अवस्था में कड़वी दवाइयाँ खाना या इंजेक्शन लगवाना।

(ङ) अपने वेतन का अधिक भाग किराए के रूप में दे देना।

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Question 2:

प्रेरणा शब्द पर सोचिए और उसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए जीवन के वे प्रसंग याद कीजिए जब माता-पिता, दीदी-भैया, शिक्षक या कोई महापुरुष/महानारी आपके अँधेरे क्षणों में प्रकाश भर गए।

Answer:

प्रेरणा वह स्रोत है, जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। यह वह भावना है, जो मन तथा हृदय में वास कर जाए, तो मनुष्य पहाड़ में भी छेद कर देता है। प्रेरणा ने ही बड़े-से-बड़े कार्य को संभव बनाया है। माँझी जिसे आज 'आयरन मेन' के नाम से जाना जाता है। उसकी पत्नी की मृत्यु ने उसे ऐसी प्रेरणा दी कि उसने गाँव के मध्य खड़े पहाड़ को भेद डाला। उसने आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसा रास्ता बना डाला कि किसी की मृत्यु उसकी पत्नी के समान न हो। यह प्रेरणा स्रोत ही तो है, जिसने हाड-माँस के मनुष्य को 'आयरन मेन' की उपाधि दिलवा डाली। प्रेरणा का अहसास जीवन की दिशा बदल सकता है। मृत्यु को जीवन में और कष्टों को सुख में बदल सकता है। अतः इसका महत्त्व जितना भी गाया, जाए कम है।
 

मेरे जीवन में बात उस समय की है, जब मैं परीक्षा से दो महीने पहले बीमार पड़ गया। पीलिया की बीमारी ने ऐसा घेरा की मेरे बिस्तर में से उठना कठिन हो गया। मेरी लापरवाही ने बीमारी को और भयंकर बना दिया। 15 दिन अस्पताल में और 30 दिन बिस्तर में पड़ा रहा। माता-पिता को मेरी चिंता थी। अपनी बीमारी के कारण में स्वयं को असहाय पाता था। आखिरकार मेरी कक्षा अध्यापिका का मुझसे मिलना हुआ। वे मुझे देखने घर पर आईं। उनके बोले कुछ शब्दों ने मेरे हृदय में प्रेरणा का स्रोत भर दिया। उनका कहना था कि तुम्हारे अंदर कुछ कर दिखाने का इरादा है और मैं यह जानती हूँ कि यह बीमारी तुम्हें नहीं रोक सकती है। जाने कैसा जादू किया उनके इन शब्दों ने और मैं उसी दिन से तैयारी में लग गया। माता-पिता नहीं चाहते थे कि मैं इस साल परीक्षा दूँ। डॉक्टर ने मुझे चार महीने तक पूरा आराम करने के लिए कहा था। मैं उनकी बात नहीं माना। बिस्तर में लेटे-लेटे ही मैं अपनी तैयारी पूरी करने लगा। पिताजी और माताजी मुझे साथ लेकर परीक्षा देने ले जाते थे। जब मेरा परीक्षा परिणाम सामने आया, तो अध्यापिका ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा- 'देखा तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।' उस साल मैंने दसवीं के बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। जितना दंग अन्य लोग थे, उतना मैं स्वयं दंग था। आज मैं बारहवीं कक्षा में हूँ और अपनी अध्यापिका के वचन कभी नहीं भूलता। उस समय उनके द्वारा मिली प्रेरणा ने मेरे जीवन की दिशा, तब बदल दी जब में हताशा हो चूका था।

(नोट: विद्यार्थी प्रयास करें कि इस प्रश्न में अपना अनुभव लिखें तभी इस प्रश्न का उत्तर पूर्ण हो पाएगा।)

Page No 33:

Question 3:

'भय' शब्द पर सोचिए। सोचिए कि मन में किन-किन चीज़ों का भय बैठा है? उससे निबटने के लिए आप क्या करते हैं और कवि की मनःस्थिति से अपनी मनःस्थिति की तुलना कीजिए।

Answer:

भय ऐसा भाव है, वह तब पैदा होता है, जब हम किसी स्थिति या वस्तु को पसंद नहीं करते या उसका सामना करना नहीं चाहते हैं। यह वह स्थिति होती है, जब हम भागते हैं। जब हमारे सामने वह उपस्थित हो जाता है, तो भय हमें आ घेरता है। इससे हर कोई बचना चाहता है क्योंकि सबके मन में किसी-न-किसी के लिए भय विद्यमान होता है। लोगों के मन में चूहे, कॉकरोज, छिपकली, भूत, ऊँचाई, अंधेरे इत्यादि का भय बैठा रहता है। मुझे अंधेरे से बहुत डर लगता था। बहुत समय तक मैं इसके कारण परेशान रहा। रात को घर में अकेले रहने में भी मुझे डर लगता था। एक दिन माँ की बहुत तबीयत खराब हो गई थी। पिताजी को उन्हें अस्पताल लेकर जाना पड़ा। उस दिन में घर पर अकेला रह गया। रात में बिजली चली गई। मेरी स्थिति बहुत खराब हो गई थी। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। दस मिनट तक मैं यूहीं बैठा रहा। भय से मेरी आँखें बंद हो रही थीं। मैंने देखा कि बंद आँखों में भी मुझे अंधकार दिख रहा था। मैंने सोचा कि मैं आँखें बंद होने पर जो अंधेरा देखता हूँ, उससे मुझे डर नहीं लगता। इस अंधेरे और उस अंधेरे में क्या अंतर है। बहुत सोचने पर जाना कि कुछ अंतर नहीं है। जैसे अचानक किसी ने मुझे झकझोर दिया और मैं उठकर मोमबत्ती ढूँढने लगा। मोमबत्ती को जलाते ही घर में प्रकाश हो गया और मेरा भय जाता रहा। अब मैं जब किसी वस्तु या स्थिति से डरने लगता हूँ तो स्वयं को समझाता हूँ। कुछ समय बाद में सहज महसूस करने लगता हूँ। कवि और मेरे मन की स्थिति बहुत अलग है। कवि का भय अपनी प्रेमिका के अतिशय प्रेम से उपजा है। उसे वह प्रेम पसंद भी है और वह उससे परेशान भी हो जाता है। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मैं ऐसी स्थिति में नहीं होता हूँ। मैं केवल अंधेरे से डरता था। मुझे अंधेरा कभी पसंद नहीं आया। आज मेरा भय पूर्ण रूप से चला गया है। मैं कवि की तरह दुविधा में नहीं जा रहा हूँ।

(नोट: विद्यार्थी प्रयास करें कि इस प्रश्न में अपना अनुभव लिखे तभी इस प्रश्न का उत्तर पूर्ण हो पाएगा।)

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Question 1:

कविता के किन उपमानों को देखकर यह कहा जाता है कि उषा कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्दचित्र है?

Answer:

निम्नलिखित उपमानों को देखकर कहा जाता है कि उषा कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्दचित्र है-

(क) राख से लीपा हुआ चौका

(ख) बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से

कि जैसे धुल गई हो

(ग) स्लेट पर या लाल खड़िया चाक

मल दी हो किसी ने

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Question 2:

भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

नयी कविता में कोष्ठक, विराम चिह्नों और पंक्तियों के बीच का स्थान भी कविता को अर्थ देता है। उपर्युक्त पंक्तियों में कोष्ठक से कविता में क्या विशेष अर्थ पैदा हुआ है? समझाइए।

Answer:

'अभी गीला पड़ा है'- इस पंक्ति को पढ़कर पता चल रहा है कि राख से लीपे चौके की लिपाई अभी-अभी समाप्त हुई है। इस पंक्ति को यदि भोर से जोड़ा जाए, तो पता चलता है कि सूर्य के उदय होने से पहले आसमान से रात की कालिमा हटने लगी है। अतः राख के समान आसमान का रंग स्लेटी हो गया है। सुबह की ओस ने इसे गीला कर दिया है। अर्थात वातावरण में अब भी नमी विद्यमान हैं। कवि ने गाँव में सुबह सवेरे औरतों द्वारा चूल्हा लीपने का जो चित्र भोर के साथ किया है, वह इसके कारण सुंदर जान पड़ा है। कोष्ठक में लिखे शब्द वातावरण की शुद्धता, पवित्रता तथा ठंडेपन को दर्शाते हैं।

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Question 1:

✽ अपने परिवेश के उपमानों का प्रयोग करते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त का शब्दचित्र खींचिए।

Answer:

सूर्योदय
सुबह का आकाश था गेरुआ,
मेरी माँ के माथे सा,
छाने लगी सिंदूरी आभा, जैसे माँ ने डिबिया से लगाने को बढ़ाया हाथ सा,
गेरूआ आकाश सिंदूरी हो गया, माँ का सिंदूर माथे पर गिर गया।
आकाश पर छा गया गोल लाल सूर्य ऐसे, माँ के माथे पर सज गई बिंदिया जैसे।

सूर्योस्त
चमकता दिन ढल रहा,
जैसे चेहरे से हँसी सिमट रही,
आकाश होने लगा स्लेटी,
जैसे मुख की आभा हो गई अंधेरी,
सूर्य हो गया अस्त रात घिर आई है,
मानो हँसी का सूर्य अस्त चिंता मुँह पर घिर आई है।

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Question 1:

❖ सूर्योदय का वर्णन लगभग सभी बड़े कवियों ने किया है। प्रसाद की कविता 'बीती विभावरी जाग री' और अज्ञेय की 'बावरा अहेरी' की पंक्तियाँ आगे बॉक्स में दी जा रही है। 'उषा' कविता के समानांतर इन कविताओं को पढ़ते हुए नीचे दिए गए बिंदुओं पर तीनों कविताओं का विश्लेषण कीजिए और यह भी बताइए कि कौन-सी कविता आपको ज़्यादा अच्छी लगी और क्यों?

❖ उपमान    ❖ शब्दचयन    ❖ परिवेश

बीती विभावरी जाग री!

अंबर पनघट में डुबो रही-  
तारा-घट ऊषा नागरी।  

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लतिका भी भर लाई-  
मधु मुकुल नवल रस गागरी  

अधरों में राग अमंद पिए,

अलकों में मलयज बंद किए-

तू अब तक सोई है आली  

आँखों में भरे विहाग री।  

-जयशंकर प्रसाद   

भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ, मँझोले परेवे, बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़,
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिकर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल धुस्सों वाली उपयोग-सुंदरी
बेपनाह काया कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुएँ को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि रूप-रेखा को
और दूर कचरा चलानेवाली कल की उद्दंड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को हरा देंगी।

- सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन 'अज्ञेय'  

Answer:

उपमान- हमने तीनों कविताओं का विश्लेषण किया है। जयशंकर प्रसाद की 'बीती विभावरी जाग री' कविता हमें बहुत अच्छी लगी है। इसके उपमान इस प्रकार हैं-
1. अंबर को पनघट के समान बताया गया है।
2. ऊषा को स्त्री के समान तथा तारों को घड़े के समान बताया गया है।
3. पत्तों से भरी डाली को आंचल के समान बताया है।
4. ओस से भरी लता को स्त्री की संज्ञा दी गई है
5. लता रूपी स्त्री फूलों रूपी गागर में पराग रूपी शहद भर लाई है।

जैसे उपमानों का प्रयोग कर प्रसाद जी ने कविता में जान डाल दी है। प्रकृति का जितना सुंदर मानवीकरण इस कविता में जान पड़ा है, वह बाकी दो कविता में जीवंत नहीं हो पाया है।

शब्दाचयन- प्रसाद जी ने जिस  प्रकार के शब्दों का चयन किया है, उसने कविता के सौंदर्य में चार चांद लगा दिए हैं। उदाहरण के लिए- बीती विभावरी, तारा-घट ऊषा नागरी, खग-कुल कुल-कुल सा, किसलय का अंचल, मधु मुकुल नवल रस गागरी, अमंद, अलकों, मलयज शब्दों का प्रयोग कर प्रसाद जी ने कविता में गेयता का गुण ही नहीं जोड़ा बल्कि पाठक का मन भी इनके साथ जोड़ दिया है। ऐसे बेजोड़ शब्द रचना बहुत ही कम कविताओं में देखने को मिलती है। बाकी कविताओं में इस प्रकार का शब्दाचयन देखने को नहीं मिलता है।

परिवेश- तीनों कविता में सुबह के परिवेश का ही वर्णन है। परन्तु स्थिति अलग-अलग है। 'उषा' कविता के कवि ने गाँव का चित्र चित्रित किया है। 'बीती विभावरी जाग री' के कवि ने पनघट, नदी तथा लता का चित्र चित्रित किया है। 'बावरा अहेरी' के कवि ने पक्षीवृंदों, मंदिर तथा बाग का चित्र चित्रित किया है। अतः बेशक भोर का  वर्णन हो लेकिन परिवेश भिन्न-भिन्न हैं।

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Question 1:

अस्थिर सुख पर दुख की छाया  पंक्ति में दुख की छाया किसे कहा गया है और क्यों?

Answer:

कवि ने समाज में पूँजीपतियों द्वारा किए गए अत्याचार तथा शोषण को दुख की छाया बताया है। इस शोषण का शिकार प्रायः मज़दूर तथा कमज़ोर वर्ग होते हैं। उनके पास सुख नाममात्र के हैं। इसलिए कवि ने उनके सुख को अस्थिर बताया है। यह सुख कुछ पल के लिए भी नहीं रूक पाता है क्योंकि शोषण तथा अत्याचार इन वर्ग के लोगों को जीने नहीं देते हैं। शोषण के कारण गरीब और गरीब होता जा रहा है।

Page No 43:

Question 2:

अशनि-पात से शापित उन्नत शत-शत वीर पंक्ति में किसकी ओर संकेत किया गया है?

Answer:

इस पंक्ति के माध्यम से कवि ने दो लोगों की ओर संकेत किया है। प्रथम में कवि उस पूँजीपति वर्ग को संबोधित कर रहा है, जो किसानों, मज़दूरों का शोषण करते हैं। उन्हें इस बात का अहंकार रहता है कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। दूसरे कवि बादल की ओर संकेत करता है। उसके अनुसार बादल क्रांति का आगाज़ करते हैं। कवि कहता है कि तुम्हारी एक गर्जना से बड़े-से-बड़ा योद्धा भी हार जाता है। अतः तुम क्रांति के कारण हो। तुम ही समाज में व्याप्त अत्याचारियों का वध कर सकते हो।

Page No 43:

Question 3:

विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते  पंक्ति में विप्लव-रव से क्या तात्पर्य है? छोटे ही है, शोभा पाते  ऐसा क्यों कहा गया है?

Answer:

'विप्लव-रव' से कवि का तात्पर्य क्रांति से है। कवि के अनुसार जब क्रांति होती है, तो गरीब लोगों में या आम जनता में जोश भर जाता है। यह वही वर्ग है, जो शोषण का शिकार होते हैं। अतः जब समाज में क्रांति होती है, तो इन्हीं से आरंभ होती है। यही क्रांति के जनक होते हैं। क्रांति का आगाज़ होते ही नए और सुनहरे भविष्य के सपने संजोने लगते हैं। यह प्रसन्नता इनके चेहरे में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। कहा गया है कि यही वर्ग क्रांति के समय शोभा पाता है।

Page No 43:

Question 4:

बादलों के आगमन से प्रकृति में होने वाले किन-किन परिवर्तनों को कविता रेखांकित करती है?

Answer:

बादलों के आगमन से आकाश बादलों से भर जाता है। आकाश में गर्जना होने लगती है तथा बिजली चमकने लगती है। चारों तरफ भयंकर आँधी आती है। बिजली की गर्जना पृथ्वी का हृदय कंपकपा देती है। इसके साथ ही मूसलाधार बारिश आरंभ होने लगती है। वर्षा का जल पाकर धरती के अंदर सुप्त बीजों में अंकुर फूट पड़ते हैं। छोटे पौधों में नई जान आ जाती है। हवा के ज़ोर से वह हिलने लगते हैं। किसान वर्षा का जल पाकर प्रसन्नता से भर जाता है।

Page No 43:

Question 1:

1. तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुख की छाया-
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया-

Answer:

1. व्याख्या- कवि बादलों को संबोधित करते हुए कहता है कि इस समीर रूपी सागर में तू तैरता है। अर्थात लोगों की इच्छा से युक्त उनकी नाव हवा रूपी सागर में तैरती है। संसार में व्याप्त सुख सदैव साथ नहीं रहते हैं। इसी कारण इन्हें अस्थिर कहा गया है अर्थात जो स्थिर न रहें। इन पर दुख की छाया हमेशा मंडराती रहती है। संसार के लोगों का हृदय दुखों के कारण दग्ध है। ऐसे हृदय पर क्रांति रूपी माया विद्यमान है। हे बादल! तुम आओ और इस दुखी हृदय वाले संसार को अपनी क्रांति रूपी गर्जना से आनंद प्रदान करो। अर्थात जैसे वर्षाकाल में बादलों की गर्जना सुनकर गर्मी से बेहाल लोगों को खुशी प्रदान होती है, वैसे ही शोषण तथा अत्याचार से परेशान लोगों को क्रांति से खुशी प्राप्त होती है।

Page No 43:

Question 2:

अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन
सदा पंक पर ही होता
जल-विलप्व-प्लावन

Answer:

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्ति में कवि पूँजीपतियों पर व्यंग्य कर रहा है। उसके अनुसार पूँजीपति लोग ऊँची-ऊँची इमारतों में रहते हैं। ये सारी उम्र गरीबों, किसानों तथा मज़दूरों पर अत्याचार करते हैं तथा उनका शोषण करते हैं। अतः उसके लिए पूँजीपतियों के रहने के मकान नहीं हैं, ये आतंक भवन हैं। जिनसे सारे अत्याचारों तथा शोषण का जन्म होता है। कवि आगे कहता है कि लेकिन यह भी स्मरणीय है कि क्रांति का आगाज़ हमेशा गरीबों में ही होता है। ये लोग ही शोषण का सबसे बड़ा शिकार होते हैं। कवि ने इन्हें जल प्लावन की संज्ञा दी है। वह कहता है कि क्रांति रूपी बारिश का पानी जब एकत्र होकर बहता है, तो वह कीचड़ से युक्त पृथ्वी को डूबो देने का सामर्थ्य रखता है। कवि ने पूंजीपतियों को कीचड़ तथा की संज्ञा दी है, जिसे क्रांति रूपी जल-प्लावन डूबो देता है।

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Question 1:

पूरी कविता में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। आपको कविता का कौन-सा मानवीय रूप पसंद आया और क्यों?

Answer:

पूरी कविता में प्रकृति का सुंदर मानवीकरण किया गया है। हमें इसमें निम्नलिखित पंक्तियों का मानवीय करण रूप पसंद है-
हँसते हैं छोटे पौधे लघु भार-
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
 

इस पंक्ति में छोटे पौधों को बच्चों के समान दिखाया गया है। जिस प्रकार बच्चे बात करते हुए हिलते हैं, हँसते हैं, हाथ हिलाते हैं और अपने माता-पिता को बुलाते हैं। उसे कवि ने बड़े सुंदर रूप से पौधे में दर्शाया है। पौधों का यह मानवीकरण दिल को छू जाता है। इसके साथ ही यह मानवीकरण बड़े सरल शब्दों में किया गया है। क्रांति का समर्थन करते ये पौधे मानो अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हों।

Page No 44:

Question 2:

कविता में रूपक अलंकार का प्रयोग कहाँ-कहाँ हुआ है? संबंधित वाक्यांश को छाँटकर लिखिए।

Answer:

कविता में समीर-सागर, रण-तरी तथा आतंक-भव के अंदर रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है। तिरती है समीर-सागर पर

अस्थिर सुख पर दुख की छाया-
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया-
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,

Page No 44:

Question 3:

इस कविता में बादल के लिए ऐ विप्लव के वीर!, ऐ जीवन के पारावार! जैसे संबोधनों का इस्तेमाल किया गया है। बादल राग कविता के शेष पाँच खड़ों में भी कई संबोधनों का इस्तेमाल किया गया है। जैसे- अरे वर्ष के हर्ष!, मेरे पागल बादल!, ऐ निर्बंध!, ऐ स्वच्छंद!, ऐ उद्दाम!, ऐ सम्राट!, ऐ विप्लव के प्लावन!, ऐ अनंत के चंचल शिशु सुकुमार!, उपर्युक्त संबोधनों की व्याख्या करें तथा बताएँ कि बादल के लिए इन संबोधनों का क्या औचित्य है?

Answer:

निम्नलिखित संबोधनों की व्याख्या इस प्रकार हैं-

(क) अरे वर्ष के हर्ष!- बादलों को ऐसा संबोधन दिया गया है क्योंकि बादल वर्ष में एक बार आते हैं। जब आते हैं, तो पूरी पृथ्वी को बारिश रूपी सौगात दे जाते हैं। वर्षा का जल पाकर किसान, लोग, धरती तथा जीव-जन्तु सब हर्ष से भर जाते हैं।
 

(ख) मेरे पागल बादल!- बादल मतवाले होते हैं। जहाँ मन करता है, वहीं बरस जाते हैं। पागल व्यक्ति के समान गर्जना करते हैं, हल्ला मचाते हैं और यहाँ से वहाँ घूमते-रहते हैं। इसलिए उन्हें पागल कहा गया है।

(ग) ऐ निर्बंध!- बादल बंधन से मुक्त होते हैं। इन्हें कोई बंधन में नहीं बांध सकता है। जहाँ इनका मन होता है, वहाँ जाते हैं और वर्षा करते हैं।

(घ) ऐ स्वच्छंद!- बादल स्वच्छंद होते हैं। इन्हें कोई कैद में नहीं रख सकता है। स्वच्छंदतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।

(ङ) ऐ उद्दाम!- बादल बहुत क्रूर तथा प्रचण्ड होते हैं। वर्षा आने से पूर्व यह आकाश में कोहराम मचा देते हैं। मनुष्य को आकाश में अपने होने की सूचना देते हैं। तेज़ आंधी तथा तूफान चलने लगता है। मनुष्य इनकी उपस्थिति को नकार नहीं सकता है।

(च) ऐ सम्राट!- बादल सम्राट हैं। वे किसी की नहीं सुनते हैं, स्वतंत्रतापूर्वक घूमते हैं, अपनी शक्ति से लोगों को डरा देते हैं, बंधन मुक्त होते हैं, लोगों का पोषण करने वाले हैं, सारे संसार में  विचरण करते हैं। उनके इन गुणों के कारण उन्हें सम्राट कहा गया है।

(छ) ऐ विप्लव के प्लावन!- प्रलयकारी हैं। बादल में ऐसी शक्ति हैं कि वे चाहे तो प्रलय ला सकते हैं। जब बादले फट जाते हैं, तो चारों तरफ भयंकर तबाही मच जाती है। इसी कारण उन्हें ऐ विप्लव के प्लावन कहा गया है।

(ज) ऐ अनंत के चंचल शिशु सुकुमार!- बादल ऐसे सुकुमार शिशु हैं, जो सदियों से हमारे साथ हैं। अपने सुंदर-सुंदर रुपों से ये हमें बच्चे के समान जान पड़ते हैं। इनका यह स्वरूप सदियों से चला आ रहा है।

Page No 44:

Question 4:

कवि बादलों को किस रूप में देखता है? कालिदास ने मेघदूत काव्य में मेघों को दूत के रूप में देखा। आप अपना कोई काल्पनिक बिंब दीजिए।

Answer:

मैं बादलों को मित्र के रूप में देखती हूँ। उदासी के क्षणों में बादलों को देखकर ऐसा लगता है मानो कोई मित्र मुझे हँसाने के लिए विभिन्न स्वांग रच रहा हो।

Page No 44:

Question 5:

कविता को प्रभावी बनाने के लिए कवि विशेषणों का सायास प्रयोग करता है जैसे- अस्थिर सुखसुख के साथ अस्थिर विशेषण के प्रयोग ने सुख के अर्थ में विशेष प्रभाव पैदा कर दिया है। ऐसे अन्य विशेषणों को कविता से छाँटकर लिखें तथा बताएँ कि ऐसे शब्द-पदों के प्रयोग से कविता के अर्थ में क्या विशेष प्रभाव पैदा हुआ है?

Answer:

कविता में निम्नलिखित विशेषणों का प्रयोग किया गया है।-
1. दग्ध हृदय- हृदय के आगे दग्ध विशेषण लिखकर उसके दुख को बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है।
2. निर्दय विप्लव- विप्लव के क्रूर स्वरूप को दिखाने के लिए निर्दय शब्द से प्रभाव पड़ता है।
3. ऊँचा कर सिर- इसमें ऊँचा विशेषण शब्द लगाकर प्रभाव पड़ता है। इससे उनका गौरवशाली स्वरूप उभरकर आता है।
4. अचल शरीर- शरीर के आगे अचल शब्द लगाकर उसके स्वरूप को स्थायी बताया गया है।
5. आतंक भवन- भवन के स्वरूप को भयानक बताने के लिए आतंक शब्द लगाया गया है। यहाँ आतंक का जन्म होता है और यही वह पलता है।
6. सुकुमार शरीर- इनका शरीर बहुत कोमल होता  है। अतः उसे बताने के लिए सुकुमार शब्द लगाया गया है। इससे बहुत प्रभाव पड़ता है।
7. जीर्ण बाहु- बाहों की कमज़ोरी को दर्शाने के लिए जीर्ण शब्द लगाया गया है। 
8. जीर्ण शरीर- शरीर के कमज़ोर स्वरूप को दर्शाने के लिए जीर्ण शब्द लगाया गया है।

Page No 51:

Question 1:

कवितावली में उद्धृत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।

Answer:

इनमें व्याप्त उद्धृत छंदों में तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमताओं की बहुत अच्छी समझ है। इसमें उन्होंने इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। समाज में भूखमरी की स्थिति है। लोग बेरोज़गार घूम रहे हैं। लोग पेट पालने के अलग-अलग कार्य कर रहे हैं। लोग भीख माँग रहे हैं, व्यापार कर रहे हैं, छोटा-मोटा अभिनय करके पेट पालने का प्रयास करते हैं, कोई लोगों को मूर्ख बना रहा है, तो कोई अमीरों के तलवे चाट रहा है। अतः इसमें बेरोज़गारी के कारण उत्पन्न दशा का चित्रण मिलता है। इसके अंदर किसानों की हीन दशा का मार्मिक वर्णन भी मिलता है। किसानों की दशा बहुत हीन थी। शायद प्रकृति की मार व राजाओं के शोषण ने उन्हें आत्महत्या तथा संतानों को बेचने के लिए विवश कर दिया था। गरीब और गरीब होता जा रहा था।

Page No 51:

Question 2:

पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है- तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।

Answer:

आज के समय में यह युग-सत्य नहीं है। पेट की आग ही आज सभी कष्टों का आरंभ करता है। तभी कहा गया है कि भूखे पेट हरी भजन नहीं होता है। लेकिन जो लोग ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ पा गए हैं, उनके लिए पेट रूपी आग का शमन करना कोई कठिन काम नहीं है। ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ अपने शीतल जल से पेट की आग को पल में ही शांत कर देता है। यह बात भक्त पर निर्भर करती है। जो भक्ति तथा ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, उनके लिए पेट की आग बहुत भयंकर होती है। अतः उनके लिए भूख बहुत बड़ा बाधक है प्रभु भक्ति में। यदि उनके पेट भरे हैं, तो वो भक्ति करते हैं अन्यथा भगवान को कोसते रहते हैं। अतः आज के समय में यह काव्य-सत्य आज के समय का युग-सत्य नहीं है।

Page No 51:

Question 3:

तुलसी ने यह कहने की ज़रूरत क्यों समझी?

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ/ काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ। इस सवैया में काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब  कहते तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?

Answer:

तुलसी ने यह अपने विषय में स्पष्ट किया है। उनके अनुसार लोग उनके बारे में विभिन्न प्रकार की बातें करते हैं। अतः वह स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि यदि कोई मुझे धूर्त कहता है, कोई सत्यपुरुष कहता है, कोई मुझे राजपूत कहता है, तो कोई मुझे जुलाहा भी कहता है। जिसको जो कहना है कहे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है। न ही मेरी कोई संतान है कि किसी की बेटी से अपने बेटे का विवाह करवाकर उसकी जाति बिगाड़ दूँ।
इसका पंक्ति पर ध्यान दिया जाए, तो इससे सामाजिक अर्थ में यह परिवर्तन आता है कि उस समय समाज में दूसरी जातियों में विवाह हुआ करते थे। लेकिन उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। यदि किसी का बेटा अन्य जाति की बेटी से विवाह कर लेता था, तो उसे जाति बिगाड़ने वाला समझा जाता था। अतः लड़की तथा लड़के के माता-पिता चाहते थे कि उनकी संतान का विवाह उन्हीं की जाति में हो।

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Question 4:

धूत कहौ.... वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसी की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?

Answer:

इस छंद को पढ़कर ही पता चल जाता है कि तुलसी बहुत ही स्वाभिमानी भक्त हैं। उन्हें लोगों के कहने से दुख होता है। जब लोग उनकी भक्ति के विषय में भला बुरा कहते हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि लोग उनके विषय में क्या कहते हैं। बात तब उन्हें खराब लगती है, जब लोग उनकी भक्ति को ही बुरी दृष्टि से देखते हैं। शायद यही कारण है कि वे इस पंक्ति के माध्यम से लोगों के आक्षेप का जवाब देते हैं। वह स्पष्ट कर देते हैं कि लोग उन्हें किस जाति का समझते हैं, उससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता है। उनका लोगों से कोई मतलब नहीं है। ना ही उन्हें अपनी संतान का विवाह किसी भी व्यक्ति की संतान से करना है। वह मात्र राम की भक्ति करना जानते हैं और यही उनकी पहचान हैं। राम की भक्ति उनका स्वाभिमान है। अतः कोई इसे खंड़ित करने का प्रयास करेगा, तो वह उसे जवाब अवश्य देगें।

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Question 5:

व्याख्या करें-

(क) मम हित लागि जतेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।

जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

(ख) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।

(ग) माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

(घ) ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।।

Answer:

(क) प्रस्तुत पक्तियों में राम अपने मूर्छित भाई के प्रेम का वर्णन करते हुए बोलते हैं कि ऐसा भाई मिलना बहुत कठिन है। इसने मेरे लिए माता-पिता तक को त्याग दिया। मेरी खातिर यह वन में रहा, वहाँ कि तेज़ हवाओं तथा ठंड तक का सामना किया। अगर मैं यह जानता कि मेरी वजह से लक्ष्मण से अलग होना पड़ेगा, तो मैं पिता के वचनों का पालन ही नहीं करता। अर्थात अगर जानता की लक्ष्मण की दशा इतनी खराब हो जाएगी कि उससे अलग होने की स्थिति बन जाएगी, तो मैं वनवास के लिए नहीं आता।
 

(ख) राम विलाप करते हुए लक्ष्मण के बिना अपनी दशा का वर्णन करते हुए बताते हैं कि जैसे पक्षी पंख के बिना उड़ नहीं सकते हैं, साँप मणि के बिना अधूरा है और हाथी सूँड के बिना अधूरा है, वैसे ही राम भी लक्ष्मण के बिना अधूरे हैं। अर्थात लक्ष्मण के बिना वह स्वयं की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
 

(ग) प्रस्तुत पंक्ति में तुलसीदास की स्थिति का पता चलता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं माँगकर ही खाता हूँ, मंदिर के अंदर ही सोता हूँ। मेरा किसी से कोई मतलब नहीं है। अर्थात मेरा जीवन बहुत ही सरल है। मैं माँग कर खाता हूँ, मंदिर ही मेरा सोने का स्थान है। इसके अतिरिक्त मेरा किसी से कोई संबंध नहीं है।
 

(घ) प्रस्तुत पंक्तियों में तत्कालीन समाज की दुर्दशा का पता चलता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि बेकारी के कारण लोगों की दशा बहुत बुरी है। लोग अच्छे-बुरे काम करने को विवश हैं, वे अधर्म करने से भी नहीं चूकते हैं, पेट की आग से विवश होकर वे अपनी संतानों को तक बेच देते हैं। भाव यह है कि बेकारी ने लोगों को हर प्रकार के काम करने लिए मजबूर कर दिया है। जब भूख लगती है, तो उससे परेशान होकर वे अपने बेटा तथा बेटी तक को बेच डालते हैं।

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Question 6:

भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में रचा है। क्या आप इससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।

Answer:

हम इस कथन से बिलकुल सहमत है कि प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में रचा है। राम अपने भाई की दशा देखकर एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप करते हैं। वे प्रभु की तरह लीला नहीं रचते बल्कि एक बड़े भाई की तरह छोटे भाई के प्रेम में विहल हो उठते हैं। उनकी महानता, आदर्श तथा गुण भाई के विलाप में कहीं खो जाते हैं। वे भाई के प्रेम को याद कर करके रोते हैं। उनकी विवशता उनके मुँह से स्पष्ट रूप से अभिलक्षित होती है।

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Question 7:

शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव क्यों कहा गया है?

Answer:

हनुमान मूर्छित लक्ष्मण के लिए हिमालय से संजीवनी लाने के लिए गए हुए हैं। राम उनके इंतज़ार में हैं। अपने मूर्छित भाई की दुर्दशा देखकर वे विहल हो उठते हैं और विलाप करने लगते हैं। उनके विलाप से सारी सेना भी दुखी है। राम नाना प्रकार से विलाप करते हुए दुखी हो रहे हैं। उनका यही विलाप करुण रस को उत्पन्न करता है। युद्धस्थल में चारों और इस रस का प्रवाह हो रहा है। इस समय हनुमान आते हैं। वह अपने हाथ में पूरा पर्वत उठा लाते हैं। हनुमान को देखकर सभी हैरत में हैं। उनका यह कार्य अद्भुत है। सभी में उन्हें देखकर उत्साह जाग्रत हो जाता है। इस तरह करुण रस के स्थान पर वीर रस का संचार होने लगता है। चारों ओर आनंद छा जाता है। हनुमान के अवतरण को इसलिए करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव कहा है।

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Question 8:

जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं।। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप-वचन में स्त्री के प्रति कैसा सामाजिक दृष्टिकोण संभावित है?

Answer:

प्रस्तुत दृष्टिकोण से पता चलता है कि उस समय स्त्रियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण अच्छा नहीं था। उस समय बहु विवाह प्रचलित थे। राजा तो अनेक शादियाँ कर सकता था। अतः स्त्री के प्रति ऐसा दृष्टिकोण होना स्वभाविक ही होगा। अतः एक स्त्री (पत्नी) के लिए भाई को खोना बुरी माना जाता होगा। इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि स्त्री चली जाए उससे पति को कोई खास दुख नहीं होता है। पुरुष दोबारा विवाह कर सकता है परन्तु खून के संबंधों को चोट नहीं आनी चाहिए। खून के संबंध विवाह संबंधों से बड़े माने जाते थे। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि समाज में स्त्री के प्रति संकीर्ण और उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण विद्यमान था। उस समय एक विवाहित स्त्री के लिए मयाके तथा ससुराल दोनों ही अपने नहीं थे। 

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Question 1:

कालिदास के रघुवंश  महाकाव्य में पत्नी (इंदुमती) के मृत्यु-शोक पर अज तथा निराला की सरोज-स्मृति  में पुत्री (सरोज) के मृत्यु-शोक पर पिता के करुण उद्गार निकले हैं। उनसे भ्रातृशोक में डूबे राम के इस विलाप की तुलना करें।

Answer:

राम का भ्रातृशोक बाकि दोनों शोकों से बिलकुल अलग है। राम के पास एक आशा की किरण हनुमान विद्यमान है। वे जानते हैं कि हनुमान यदि समय पर आ जाए, तो उनके भाई को बचाया जा सकता है। अतः वह शोक तो मानते हैं लेकिन बेहोश भाई की दशा को देखकर। इंदुमती का शोक और पुत्री सरोज का शोक एक श्रद्धाजंलि और कभी लौटकर ना आ सकने की पीड़ा को दर्शाता है। एक पति तथा एक पिता अपनी अमूल्य संपति को खो चूके हैं। उनके पास मात्र सुंदर यादें विद्यमान हैं। उन यादों को सहारा बनाकर वे वियोग करते हैं लेकिन इस वियोग में वापिस पा सकने की आशा कहीं नहीं है। बस उनके लिए कुछ न कर सकने की पीड़ा विद्यमान है। अतः ये बिलकुल अलग शोक हैं।

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Question 2:

पेट ही पचत, बेचत बेटा-बेटकी तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य है। भुखमरी में किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय-विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों और तुलसी के युग की तुलना करें।

Answer:

यदि प्रस्तुत पंक्ति को पढ़े तो पाएंगे कि किसानों में गरीबों की स्थिति तब से लेकर अब तक नहीं बदली है। पहले भी किसान प्रकृति की मार से बेबस था, आज भी प्रकृति की मार से बेबस है।  किसान कितनी भी मेहनत करे, उसकी मेहनत प्रकृति पर निर्भर करती है। यदि प्रकृति उस पर मेहरबान है, तो वह कुछ समय के भोजन का इंतज़ाम कर सकता है लेकिन प्रकृति ज़रा-सी नाराज़ हो गई, तो उसकी मेहनत का नाश होने में कुछ पल नहीं लगते हैं। इस कारण उसे महाजन या सरकार से कर्ज़ उठाना पड़ता है। यदि कर्ज़ ले लिया, तो यह तय है कि उसका सर्वनाश निश्चित है। भूख और गरीबी से बेबस या तो वह मौत को गले से लगा लेता है या फिर अपनी संतान को बेचकर कुछ समय के लिए गुज़ारा करने पर विवश हो जाता है। यह स्थिति शायद आने वाले युगों में भी न बदले। हम कितनी तरक्की कर लें। लेकिन इस दिशा में हमारी उपेक्षा साफ अभिलक्षित होती है। किसान को मजबूर होकर इस प्रकार के कदम उठाने पड़ते हैं।

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Question 3:

तुलसी के युग की बेकारी के क्या कारण हो सकते हैं? आज की बेकारी की समस्या के कारणों के साथ उसे मिलाकर कक्षा में परिचर्चा करें।

Answer:

तुलसी के समय में बेकारी के बहुत कारण रहे होगें। वे इस प्रकार हैं-

(क) अत्यधिक लगान

(ख) प्रकृति प्रकोप (सूखा या बाढ़)

(ग) मुस्लिम शासकों द्वारा लगाए गए अनैतिक कर

(घ) मंत्रियों द्वारा शोषण

आज के समय में बेकारी की समस्या के पीछे निम्नलिखित कारण हैं-

(क) शिक्षा का अभाव

(ख) कृषि के प्रति लोगों में उपेक्षा भाव

(ग) प्रकृति का प्रकोप (सूखा या बाढ़)

(घ) अत्यधिक कर्ज

(ङ) मशीनों का अत्यधिक प्रयोग जिसके कारण फैक्टरी में लोगों की आवश्यकता कम हो जाना

(नोटः विद्यार्थी ऐसे कारणों को सोचे और कक्षा में परिचर्चा करें)

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Question 4:

राम कौशल्या के पुत्र थे लक्ष्मण सुमित्रा के। इस प्रकार वे परस्पर सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे) नहीं थे। फिर, राम ने उन्हें लक्ष्य कर ऐसा क्यों कहा- ''मिलइ न जगत सहोदर भ्राता''? इस पर विचार करें।

Answer:

राम और लक्ष्मण सगे भाई नहीं थे। वे सौतले भाई थे लेकिन उनके मध्य जो प्रेम था, वे सगे भाइयों से भी बढ़कर था। लक्ष्मण सदैव राम के साथ छाया के समान बने रहे। राम को जब वनवास मिला, तो वह चुपचाप राम के साथ हो लिए। उन्होंने अपनी पत्नी तथा माता-पिता तक का त्याग कर दिया। बस राम की सेवा को ही अपना कर्तव्य समझा। राम उनके लिए भाई नहीं बल्कि स्वामी के समान थे। अपने सौतेले भाई के प्रेम के कारण ही राम ने ऐसे शब्द कहे। इस प्रकार का प्रेम तो सगा भाई भी नहीं कर सकता, जैसा सौतेले भाई ने किया था। अतः राम उन्हें सगा ही मानते थे। शायद अपने भाई के इसी प्रेम को और भली प्रकार से बताने के लिए उन्होंने ऐसा कहा होगा।

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Question 5:

यहाँ कवि तुलसी के दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, सवैया- ये पाँच छंद प्रयुक्त हैं। इसी प्रकार तुलसी साहित्य में और छंद तथा काव्य-रूप आए हैं। ऐसे छंदों व काव्य-रूपों की सूची बनाएँ।

Answer:

तुलसीदासजी ने इसके अतिरिक्त बरवै, हरिगीतिका तथा छप्पय जैसे छंदों का भी प्रयोग किया है। इसी प्रकार तुलसीदासजी ने प्रबंध काव्य के रूप में रामचरितमानस, मुक्तक काव्य रूप में विनयपत्रिका तथा गेय पद शैली में कृष्ण गीतावली, गीतावली तथा विनयपत्रिका की रचना की है।

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Question 1:

शायर राखी के लच्छे को बिजली की चमक की तरह कहकर क्या भाव व्यंजित करना चाहता है?

Answer:

शायर राख के लच्छे को बिजली की चमक कहकर भाई-बहन के संबंध की घनिष्टता को व्यक्त करना चाहता है। भाई-बहन को शायर बादल की घटा तथा बिजली के रूप में अभिव्यक्त करता है। राखी उसी घनिष्टता का प्रतीक है, जो प्रत्येक भाई के हाथ में राखी के धागे के रूप में दिखाई देता है। यह दोनों के मध्य प्रेम तथा पवित्रता का सूचक है।

Page No 60:

Question 2:

खुद का परदा खोलने से क्या आशय है?

Answer:

खुद का परदा खोलने का तात्पर्य है कि अपना असली चेहरा दूसरों को दिखा देते हैं। शायर कहता है कि जब हम किसी की बुराई कर रहे होते हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि हम सामने वाले को अपना असली चेहरा दिखा देते हैं। उससे पहले हमारे बारे में कोई भी राय क्यों न कायम की हो। जैसे ही हम किसी की बुराई करते हैं, उसे पता चल जाता है कि हम अच्छे इंसान नहीं है। बुराई करना कोई अच्छी बात नहीं है। दूसरे से किसी ओर की बुराई करना, तो और भी बुरी बात है। अतः हमें चाहिए कि किसी के लिए भला-बुरा बोलने से पहले यह जान ले कि हम स्वयं की छवि को कितना नुकसान पहुँचा रहे हैं।

Page No 60:

Question 3:

किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं- इस पंक्ति में शायर की किस्मत के साथ तना-तनी का रिश्ता अभिव्यक्त हुआ है। चर्चा कीजिए।

Answer:

इस पंक्ति से पता चलता है कि शायर को उसकी किस्मत ने कभी कुछ नहीं दिया है। उसने जो पाया है, अपने परिश्रम से पाया है। भाग्य के हाथों तो वह हमेशा खाली हाथ लौटा है। प्रायः मनुष्य कुछ अपने परिश्रम के हाथों और कुछ भाग्य के हाथों पाता है। शायर के साथ ऐसा नहीं हुआ है। किस्मत की तरफ से  उसने हमेशा मार खाई है। अतः वह कहता है कि किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं।

Page No 60:

Question 1:

टिप्पणी करें

(क) गोदी के चाँद और गगन के चाँद का रिश्ता।

(ख) सावन की घटाएँ व रक्षाबंधन का पर्व।

Answer:

(क) गोदी का चाँद शिशु को कहा गया है। वह माँ के लिए चाँद के समान है। जिस प्रकार लोगों को आसमान में चमकने वाला चाँद प्रिय होता है, ऐसे ही माँ को अपनी गोदी में खेलता अपना बच्चा प्रिय होता है। अतः इनमें गहरा संबंध है। इसके अतिरिक्त एक अन्य संबंध इन दोनों के मध्य है। प्रायः छोटे बच्चों को चाँद प्रिय होता है। वे अपनी माँ से चाँद की माँग किया करते हैं। अतः माँ आईने में बच्चे को उसकी परछाई दिखाकर, उसे ही चाँद बता देती है। इस तरह जहाँ बच्चा स्वयं को चाँद मानकर प्रसन्न हो जाता है, वहीं माँ का दिल भी प्रसन्न हो जाता है।
 

(ख) सावन के महीने में रक्षाबंधन का त्योहार आता है। अतः कवि ने इन दोनों को बहुत ही सुंदर तरीके से आपस में जोड़ा है। उसके अनुसार इस त्योहार में प्रायः आसमान में बदलियाँ घिर जाती हैं। उनके बीच में बिजली दमकना आरंभ हो जाती है। जैसे घटाओं का संबंध बिजली से होता है, वैसे ही एक भाई का संबंध अपनी बहन से होता है। इनके मध्य प्रेम भाई के हाथ में बिजली के समान चमकती रोशनी है।

Page No 60:

Question 1:

इन रुबाइयों से हिंदी, उर्दू और लोकभाषा के मिले-जुले प्रयोगों को छाँटिए।

Answer:

रुबाइयों में हिंदी, उर्दू और लोकभाषा के मिले-जुले प्रयोग इस प्रकार हैं-

(क) लोता देती है

(ख) घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े

(ग) गेसुओं में कंघी करके

(घ) रूपवती मुखड़े पै इक नर्म दमक

(ङ) ज़िदयाया है

(च) रस की पुतली

(छ) आईने में चाँद उतर आया है

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Question 2:

फ़िराक ने सुनो हो, रक्खो हो आदि शब्द मीर की शायरी के तर्ज़ पर इस्तेमाल किए हैं। ऐसे ही मीर की कुछ गज़लें ढूँढ़ कर लिखिए।

Answer:

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा

जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा

जाने है

लगने न दे

बस हो

तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा

जाने है

आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा

जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा

जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा

जाने है

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा

जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा

जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा

जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा

जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा यअनि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा

जाने है

तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा

जाने हैमीरे के कुछ शेर

1. दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके

पछताओगे सुनो हो , ये बस्ती उजाड़कर

2. मैं रोऊँ तुम

हँसो हो

, क्या जानो 'मीर' साहब

दिल आपका किसू से शायद लगा नहीं है

(नोटः सभी गज़लों के स्थान पर हम एक गज़ल तथा दो शेर दे रहे हैं।)

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Question 1:

कविता में एक भाव, एक विचार होते हुए भी उसका अंदाज़े बयाँ या भाषा के साथ उसका बर्ताव अलग-अलग रूप में अभिव्यक्ति पाता है। इस बात को ध्यान रखते हुए नीचे दी गई कविताओं को पढ़िए और दी गई फ़िराक की गज़ल-रुबाई में से समानार्थी पंक्तियाँ ढूँढ़िए।

 

(क) मैया मैं तो चंद्र खिलौनो लैहों।

सूरदास 

(ख) वियोगी होगा पहला कवि

आह से उपजा होगा गान

उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान

सुमित्रानंदन पंत 

(ग) सीस उतारे भुईं धरे तब मिलिहैं करतार

कबीर 

Answer:

(क) मैया मैं तो चंद्र खिलौनो लैहों। (सूरदास)

पाठ से मिलती पंक्तियाँ-
आँगन में ठुनक रहा है ज़िदयाया है
बालक तो हई चाँद पै ललचाया है

(ख) वियोगी होगा पहला कवि (सुमित्रानंदन पंत)

आह से उपजा होगा गान
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान
पाठ से मिलती पंक्तियाँ-
आबो-ताब अश्आर न पूछो तुम भी आँखें रक्खो हो
ये जगमग बैतों की दमक है या हम मोती रोले हैं।

(ग) सीस उतारे भुईं धरे तब मिलिहैं करतार (कबीर)

पाठ से मिलती पंक्तियाँ-
ये कीमत भी अदा करे हैं हम बदुरुस्ती-ए-होशो-हवास
तेरा सौदा करने वाले दीवाना भी हो ले हैं

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Question 1:

छोटे चौकोने खेत को कागज़ का पन्ना कहने में क्या अर्थ निहित है?

Answer:

चौकोने खेत तथा कागज़ के पन्ने में कवि को बहुत-सी समानताएँ दिखाई देती हैं। दोनों का आकार चौकोना है। अर्थात दोनों के चार कोने होते हैं। एक की जुताई होती है तथा एक में लिखाई होती है। एक में बीज डाले जाते हैं, तो दूसरे में शब्द लिखे जाते हैं। एक में बीज से फसल स्वरूप लेती है, तो दूसरे में रचना रूपी फसल होती है। यही कारण है कि छोटे चौकोने खेत को कागज़ के पन्ने के समान बताया गया है।

Page No 66:

Question 2:

रचना के संदर्भ में अंधड़ और बीज क्या हैं?

Answer:

रचना के संदर्भ में बीज कवि के मन में उत्पन्न होने वाला विचार है तथा इस विचार से उत्पन्न आँधी को ही अँधड़ कहा गया है। रचना का निर्माण करते समय एक कवि के मन में विचार उत्पन्न होता है। यह विचार बीज के समान कविता में उतरता है। जब एक शब्द दूसरे शब्द से मिलता है, तो यह रचना का रूप ले लेता है। इसी विचारों की आँधी को अंधड़ कहा गया है, तो कुछ भी कर गुजरने में सक्षम है।

Page No 66:

Question 3:

रस का अक्षयपात्र  से कवि ने रचनाकर्म की किन विशेषताओं की और इंगित किया है?

Answer:

कवि के अनुसार कोई भी रचना को पढ़कर, उसका आनंद कभी समाप्त नहीं होता है। यह रचना रूप में सदियों तक लोगों के दिलों, मुख तथा भाषा के इतिहास रूप में हमेशा जीवित रहती है। इनका अस्तित्व सदैव विद्यमान रहता है। किसी भी युग के पाठक इसका आनंद बिना किसी कठिनाई के ले सकते हैं। ये प्रसन्नता और आनंद दोनों देती हैं।  आप जितनी बार उसे पढ़ते जाओगे, इसका रस समाप्त होने में नहीं आएगा। यह रस देती जाएगी। यह द्रौपदी के अक्षयपात्र के समान है। सूर्य ने द्रौपदी को ऐसा अक्षयपात्र दिया था, जिसमें भोजन कभी समाप्त नहीं होता था। अतः कवि ने रचना के रस की तुलना अक्षयपात्र से की है।

Page No 66:

Question 4:

व्याख्या करें-
1. शब्द के अंकुर फूटे,

पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।

2. रोपाई क्षण की,

कटाई अनंतता की

लुटते रहने से ज़रा भी नहीं कम होती।

Answer:

1. कवि कहता है कि एक रचना के निर्माण में शब्दों का विशेष महत्व होता है। कागज़ रूपी खेत में शब्द बीज के समान फूटते हैं। ये शब्द हृदय से होकर पन्नों पर चित्रित हो जाते हैं। अंकुर से निकला पौधा नए-नए पत्तों तथा फूलों के भार से झुकने लगता है। इसके साथ ही वह एक नया स्वरूप पाता है। इस तरह एक रचना अपना आकार पाती है।
 

2.  कवि यहाँ रचना की विशेषता बताता है कि रचना के निर्माण करते समय बस एक बार विचार करके लिखने की आवश्यकता होती है। जब यह विचार शब्दों के रूप में अंकुरित की तरह फूट पड़ते हैं और रचना का रूप धारण कर लेते हैं और धीरे-धीरे फसल का आकार लेते हैं। तब ये लोगों को जो रसास्वादन करवाते हैं कि सदियों-सदियों तक लोगों के दिलों, समाज तथा विश्व में प्रसारित हो जाती हैं। ये साहित्य के रूप में बदलकर सदैव के लिए अमर हो जाते हैं। इसे जितना भी पढ़ो यह समाप्त नहीं होती।

Page No 66:

Question 1:

शब्दों के माध्यम से जब कवि दृश्यों, चित्रों, ध्वनि-योजना अथवा रूप-रस-गंध को हमारे ऐन्द्रिक अनुभवों में साकार कर देता है तो बिंब का निर्माण होता है। इस आधार पर प्रस्तुत कविता से बिंब की खोज करें।

Answer:

प्रस्तुत कविता में 'नभ में पाँति बाँधे बगुलों के पंख' में बिंब साकार हुआ है।

Page No 66:

Question 2:

जहाँ उपमेय में उपमान का आरोप हो, रूपक कहलाता है। इस कविता में से रूपक का चुनाव करें।

Answer:

निम्नलिखित पंक्तियों में रूपक का प्रयोग हुआ है–

(क) छोटा मेरा खेत चौकोना

(ख) कागज का एक पन्ना

(ग) शब्द के अंकुर फटे

(घ) कल्पना के रसायनों को पी

Page No 66:

Question 1:

• बगुलों के पंख कविता को पढ़ने पर आपके मन में कैसे चित्र उभरते हैं? उनकी किसी भी अन्य कला माध्यम में अभिव्यक्ति करें।

Answer:

प्रस्तुत कविता को पढ़कर हमारे मन में इस प्रकार के चित्र उभरते हैं-

(क) सुबह का चित्र मन में उभर पड़ता है, जब बगुलों की पंक्तियाँ आकाश में उड़ रही हो।

(ख) कलाकार की तुलिका दिखाई देती है, जो प्रकृति को कागज़ पर उभार देती है।

Page No 81:

Question 1:

भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्तिन को यह नाम किसने और क्यों दिया होगा?

Answer:

इसके पीछे भक्तिन की रूढ़ीवादी सोच है। भक्तिन का असली नाम लक्ष्मी है। लक्ष्मी धन की देवी को माना जाता है। विडंबना देखिए कि लक्ष्मी यानी की भक्तिन के जीवन में धन कहीं नहीं था। अतः उसे अपना नाम विरोधाभास प्रतीत होता है। लक्ष्मी नाम होने के बाद भी वह कंगाल है। लोगों द्वारा इस नाम को बुलाना उसे स्वयं का उपहास लगता है। अतः वह अपने असली नाम को छुपाना चाहती है। जब भक्तिन से लेखिका ने उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम तो बताया मगर साथ में लेखिका से निवेदन किया कि उसे उसके वास्तविक नाम से पुकारा नहीं जाए। लेखिका ने उसकी बात मान ली। भक्तिन ने गले में कंठी माला पहन रखी थी। उसकी संन्यासी जैसी छवि देखकर लेखिका ने उसको भक्तिन नाम दे दिया। भक्तिन को अपना यह नाम बहुत पसंद आया।

Page No 81:

Question 2:

दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भक्ति पुत्र-महिमा में अँधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चली है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत हैं?

Answer:

बिलकुल हम इस बात से सहमत है। इस समाज में एक स्त्री पुरुष के स्थान पर एक दूसरी स्त्री द्वारा किए गए शोषण का शिकार अधिक होती है। एक स्त्री को उसके पति द्वारा कम उसकी सास द्वारा अधिक प्रताड़ित किया जाता है। यह प्रताड़ना कभी पुत्र न होने पर, दहेज़ न लाने पर, गरीब घर की होने पर, सुंदर न होने, अच्छे से काम ने करने इत्यादि बातों पर होती है। स्वयं एक बेटी अपने घर में अपनी माँ का संपूर्ण प्यार इसलिए नहीं पा पाती है क्योंकि वह बेटी होती है। भारतीय समाज में स्त्रियों की दूर्दशा के लिए दूसरी स्त्री पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है।

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Question 3:

भक्तिन की बेटी पर पंचायात द्वारा ज़बरन पति थोपा जाना दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) इसकी स्वतंत्रता को कुचले रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?

Answer:

भक्तिन की बेटी विवाह नहीं करना चाहती थी। यही कारण है कि जब उसके ताऊओं द्वारा रिश्ता लाया गया, तो उसने साफ इनकार कर दिया। उन्हें यह इनकार पसंद नहीं आया और उन्होंने उस लड़की के खिलाफ षडयंत्र रचा। लड़के ने घर में लड़की को अकेला पाकर अंदर से दरवाज़ा बंद कर दिया। जब हल्ला हुआ, तो इस फैसले के लिए पंचायत बुलायी गई। पंचायत यह देख चुकी थी कि लड़की ने उस लड़के के मुख पर अपनी इनकार की मुहर पहले से दे दी है। इसके बाद भी उसकी नहीं सुनी गई। उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध करने का निर्णय पंचायत ने दे डाला। यह कहाँ का न्याय है। जब पंचायत ने बेकसूर लड़की को एक निकम्मे लड़के के साथ इसलिए शादी करने के लिए विवश किया क्योंकि वह उसके कमरे में घुस बैठा था। यह एक लड़की के अधिकारों का हनन ही तो है। लड़की की इच्छा के बिना उसका विवाह करने का निर्णय देने का अधिकार पंचायत को किसी ने नहीं दिया है। एक लड़की को पूर्ण अधिकार है कि वह किससे विवाह करे और किससे विवाह करने के लिए मना कर दे। यदि हम न्याय के अधिकारी कहलाते हैं, तो हमारा यह कर्तव्य बनाता है कि हम सही न्याय करें। इसके साथ ही दूसरों के अधिकारों की रक्षा बिना किसी जाति, लिंग तथा धार्मिक भेदभाव को दूर रखकर करें।

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Question 4:

भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं  लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा?

Answer:

लेखिका भक्तिन के साथ वर्षों से रह रही थी। वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानती थी। उसमें विभिन्न के प्रकार दुर्गुण विद्यमान थे। वे बिना पूछे पैसे उठाकर रख लेती थी। उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता था। वह झूठ बहुत बोलती थी। लेखिका की मुख मुद्रा के अनुसार लोगों के साथ बातचीत करती थी। अर्थात लेखिका को जो पसंद नहीं आता, उससे ढंग से बात नहीं करती थी और जो लेखिका को अच्छा लगता था, उससे ही अच्छी तरह से बात करती थी। अपनी गलत बात को सही करने के हज़ारों तर्क सामने रख देती थी। वह लेखिका की सुविधा नहीं देखती थी, हर बात को वह अपनी सुविधा अनुसार करती थी। यही कारण है लेखिका ने कहा होगा कि भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं।

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Question 5:

भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?

Answer:

लेखिका के अनुसार भक्तिन शास्त्र के प्रश्न को अपनी सुविधा से सुलझा लेती है। उदाहरण के लिए भक्तिन द्वारा यह कहना कि तीरथ गए मुँडाए सिद्ध। लेखिका भक्तिन के इस जवाब में कुछ नहीं कह पाती। लेखिका भक्तिन को मना करती है कि वह अपना सिर नहीं मुँडवाए। भक्तिन को लेखिका की यह बात अच्छी नहीं लगती है। अतः अपने सिर मुँडवाने की बात को सही साबित करने के लिए वह शास्त्र का सहारा लेती है। लेखिका जब अपनी जिज्ञासा जानने के लिए उससे पूछती है कि क्या लिखा है, तो वह यह बात कह देती है कि तीरथ गए मुँडाए सिद्ध। लेखिका उसकी इस बात का विरोध नहीं कर पाती। लेखिका भी इस विषय में असमंजस की स्थिति में पड़ जाती है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है कि भक्ति द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेती है।

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Question 6:

भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?

Answer:

भक्तिन के प्रभाव में आकर लेखिका देहाती हो गई थीं। दोनों एक साथ बहुत समय तक रहीं लेकिन भक्तिन लेखिका के प्रभाव में न आ सकी। यह अवश्य हुआ कि लेखिका को भक्तिन के प्रभाव में आना पड़ा। देहाती खाने की अनेक प्रकार की विशेषताएँ बता-बताकर देहाती खाने का आदी बना दिया। लेखिका की वह शहरी भाषा नहीं सीख पायी लेकिन लेखिका उसकी देहाती भाषा सीख गई थी। लेखिका ने उसके अनुसार जीना सीख लिया था।

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Question 1:

आलो आँधारि की नायिका और लेखिका बेबी हालदार और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते हैं?

Answer:

इन दोनों में बहुत प्रकार की समानताएँ विद्यमान थीं। वे इस प्रकार हैं-

(क) दोनों ही शिक्षा के मामले में कमज़ोर थी। भक्तिन अशिक्षित थी तथा बेबी हालदार ने सातवीं तक पढ़ाई की थी।

(ख) दोनों का जीवन कष्टों से भरा हुआ था।

(ग) दोनों को ही सेविका का काम करना पड़ रहा था।

(घ) दोनों को ही परिवार की तरफ से सहारा नहीं मिला। उन्हें परिवार से उपेक्षा और तिरस्कार प्राप्त हुआ।

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Question 2:

भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फ़ैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं है। अखबारों या टी.वी. समाचारों में आनेवाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।

Answer:

भारत गाँवों का देश है। यहाँ प्राचीनकाल से पंचायती राज रहा है। यहाँ पर पंचायत न्यायाधीश के समान कार्य करती है। छोटे-मोटे मामले पंचायत में हल कर लिए जाते हैं। पंचों का स्थान परमेश्वर के समान माना जाता है। लेकिन आज यह स्थिति नहीं है। पंचों का फैसला अजीब और रूढ़िवादी सोच से ओत-प्रोत होता है। ऐसा ही फैसला भक्तिन की बेटी के मामले में पंचायत का होता है। वह उसकी बेगुनाह बेटी को उस व्यक्ति से विवाह करने के लिए मज़बूर कर देती है, जो एक षड्यंत्र के तहत उसके कमरे में आया था। ऐसा ही फैसला आज भी सुनाई देता है। अभी पिछले दिनों पंचायत की इस प्रकार के फैसले देखने को मिले। जिसे सुनकर और पढ़कर समझ नहीं आता कि यह फैसला था या न्याय व्यवस्था के साथ मज़ाक-

(क) खाप पंचायत ने एक लड़की के साथ दुर्व्यवहार करने वाले युवकों को मात्र पंचायत के समाने sorry शब्द बुलवाकर छोड़ दिया।
 

(ख) ऐसे ही एक मामले में खाप पंचायत ने लड़के को 20 हज़ार रुपए का मामूली जुर्माना लगाकर छोड़ दिया।
 

(ग) एक मामले में वर पक्ष ने जब मंगनी के बाद विवाह करने से मना कर दिया, तो पंचायत ने सज़ा के तौर पर 75 पैसे का जुर्माना लगाया।
 

(घ) ऐसे ही यू.पी. के गाँव की पंचायत ने एक बच्ची के साथ हुए गैंगरेप के आरोपियों को 5 जूते की सज़ा मारकर छोड़ दिया।
 

(ङ) एक ऊँची जात की लड़की एक निचली जाति के लड़के के साथ भाग गई। इस पर फैसला सुनाते हुए पंचायत ने उस लड़के की दोनों बहनों को गाँव भर में नंगा घुमाने की सज़ा सुनाई।

यह कैसी पंचायत है, जिसने न्याय का ऐसा मज़ाक बनाया हुआ है, जिसे देखकर हम शर्मसार हो जाते हैं।

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Question 3:

पाँच वर्ष की वय में ब्याही जानेवाली लड़कियाँ में सिर्फ़ भक्तिन नहीं है, बल्कि आज भी हज़ारों अभागिनियाँ हैं। बाल-विवाह और उम्र के अनमेलपन वाले विवाह की अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर दोस्तों के साथ परिचर्चा करें।

Answer:

भारत जैसे देश में यह आम बात है। सरकार की तरफ से बहुत प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। भारत जैसे देश में लड़कियों को बोझ समझा जाता है। यहाँ पर बेटी होने का अर्थ है, दहेज की बड़ी रकम और लड़कों वालों के आगे हाथ बाँधकर खड़े रहना। अतः लोग बेटी चाहते ही नहीं है और यदि हो जाती है, तो उसे जानबुझकर छोटी उम्र में ब्याह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है।

मैं दिल्ली की निवासी हूँ और आर. के. पुरम. में रहती हूँ। प्रायः मैं जब मोती बाग की रेड-लाइट से होकर गुजरती हूँ, तो मुझे वहाँ एक लड़की दिखाई देती है। वह बहुत प्यारी थी। राजस्थानी भाषा में फूल बेचने के लिए मेरी कार के पास आ जाया करती थी। बात करने पर पता चला कि वह राजस्थान के एक गाँव से अपने पति के साथ यहाँ आई है। उसकी आयु मात्र 14 साल की एक थी। उसका विवाह तब करवा दिया गया था, जब 6 महीने की थी। उनके यहाँ सामूहिक विवाह होता है। जिसमें सभी माता-पिता बिना अधिक खर्चा किए विवाह कर दिया करते हैं। फिर एक वर्ष बाद मेरा वहाँ से जाना हुआ। मैं यह देखकर हैरान रह गई कि उसकी गोद में दो महीने का बच्चा था। उसकी दशा देखकर में दंग रह गई। वह बहुत कमज़ोर हो चुकी थी। एक 14 साल की बच्ची अब स्वयं एक बच्चे की माँ थी।

यदि इस प्रकार की घटना अब भी होती है, तो आप सोचिए भारत का भविष्य कैसा होगा?

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Question 4:

महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु- पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु-पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढकर पढ़ें। जो मेरा परिवार  नाम से प्रकाशित है।

Answer:

सोना

सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिता ने लिखा है :
'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।
'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी हूँगी, क्योंकि आप जानती हैं, मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भली भाँति देखभाल हो सकेगी।'
कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया कि अब हिरन नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।
सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्तु वह तब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग के रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा-सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती थी तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी। उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर आँखों में कौंध जाती थी।
सब उसके सरल शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए।
परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य निष्ठुरता गढ़ती है। वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की।
निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अत: उनकी स्थिति में परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता। परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवनकथा का तत्व है।
जिन्होंने हरीतिमा में लहराते हुए मैदान पर छलाँगें भरते हुए हिरनों के झुंड को देखा होगा, वही उस अद्भुत, गतिशील सौन्दर्य की कल्पना कर सकता है। मानो तरल मरकत के समुद्र में सुनहले फेनवाली लहरों का उद्वेलन हो। परन्तु जीवन के इस चल सौन्दर्य के प्रति शिकारी का आकर्षण नहीं रहता।
मैं प्राय: सोचती हूँ कि मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊर्जा को निष्क्रिय और जड़ बनाने के कार्य को मनोरंजन कैसे कहता है।
मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपवित्र भी मानता है। उसके प्रियतम आत्मीय जन का शव भी उसके निकट अपवित्र, अस्पृश्य तथा भयजनक हो उठता है। जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती।
आकाश में रंगबिरंगे फूलों की घटाओं के समान उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दवादन (आर्केस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुन्दर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गई है, किसी के पीले सुन्दर पंजे टेढ़े हो गए हैं और किसी के इन्द्रधनुषी पंख बिखर गए हैं। क्षतविक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु गातों में न अब संगीत है; न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारनेवाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।
पक्षिजगत में ही नही, पशुजगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशुजगत में हिरन जैसा निरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति और मृत्यु के प्रति इतना मोह और इतना आकर्षण क्यों?
बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण अपने अरण्य-परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।
प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ मृग समूह शिकारियों की आहट से चौंककर भागा, तब सोना की माँ सद्य:प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य:जात मृगशिशु तो भाग नहीं सकता था, अत: मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।
पता नहीं, दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपटे हुए शावक को जीवित उठा लाए। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला-पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।
सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
उसका मुख इतना छोटा-सा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आँखों से उसे ऐसे देखने लगती, मानो वह कोई सजीव मित्र हो।
उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाँ गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा होते ही वह मेरे कमरे में पलंग के पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही बाहर निकलती।
उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई, जिसके बिना उनका किसी काम में मन नहीं लगता था।
दूध पीकर और भीगे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्तुलित कर चौकड़ी भरती। फिर वह छात्रावास पहुँचती और प्रत्येक कमरे का भीतर, बाहर निरीक्षण करती। सवेरे छात्रावास में विचित्र-सी क्रियाशीलता रहती है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धोती है, कोई बालों में कंघी करती है, कोई साड़ी बदलती है, कोई अपनी मेज की सफाई करती है, कोई स्नान करके भीगे कपड़े सूखने के लिए फैलाती है और कोई पूजा करती है। सोना के पहुँच जाने पर इस विविध कर्म-संकुलता में एक नया काम और जुड़ जाता था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका लगा देती, कोई गले में रिबन बाँध देती और कोई पूजा के बताशे खिला देती।
मेस में उसके पहुँचते ही छात्राएँ ही नहीं, नौकर-चाकर तक दौड़ आते और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिलाने को उतावले रहते, परन्तु उसे बिस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदार्थ पसन्द थे।
छात्रावास का जागरण और जलपान अध्याय समाप्त होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चरती और कभी उस पर लोटती रहती। मेरे भोजन का समय वह किस प्रकार जान लेती थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्तु वह ठीक उसी समय भीतर आ जाती और तब तक मुझसे सटी खड़ी रहती जब तक मेरा खाना समाप्त न हो जाता। कुछ चावल, रोटी आदि उसका भी प्राप्य रहता था, परन्तु उसे कच्ची सब्जी ही अधिक भाती थी।
घंटी बजते ही वह फिर प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती और उसके समाप्त होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीतर-बाहर चक्कर लगाना आरम्भ करती।
उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छ्लाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। सरकस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती।
मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्लाँग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्राय: देखनेवालों को भय होता था कि उसके पैरों से मेरे सिर पर चोट न लग जावे, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती थी और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।
भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती। डाँटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों में ऐसी अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती।
कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी-मृग-शावक आदि को इतना महत्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है।
पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बेझिल नहीं बनाता। यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा।
सम्भवत: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर किए गए आघातों और सार्थक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भाषाहीन जीवों की स्नेह तरल दृष्टि का चन्दन लेप लगाकर स्वस्थ और आश्वस्त होना चाहता है।
सरस्वती वाणी से ध्वनित-प्रतिध्वनित कण्व के आश्रम में ऋषियों, ऋषि-पत्नियों, ऋषि-कुमार-कुमारिकाओं के साथ मूक अज्ञान मृगों की स्थिति भी अनिवार्य है। मन्त्रपूत कुटियों के द्वार को नीहारकण चाहने वाले मृग रुँध लेते हैं। विदा लेती हुई शकुन्तला का गुरुजनों के उपदेश-आशीर्वाद से बेझिल अंचल, उसका अपत्यवत पालित मृगछौना थाम लेता है।
यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंडगुदीनां
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
श्यामाकमुष्टि परिवर्धिंतको जहाति
सो यं न पुत्रकृतक: पदवीं मृगस्ते॥
                   - अभिज्ञानशाकुन्तलम्
शकुन्तला के प्रश्न करने पर कि कौन मेरा अंचल खींच रहा है, कण्व कहते हैं :
कुश के काँटे से जिसका मुख छिद जाने पर तू उसे अच्छा करने के लिए हिंगोट का तेल लगाती थी, जिसे तूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पाला है, जो तेरे निकट पुत्रवत् है, वही तेरा मृग तुझे रोक रहा है।
साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पर्शिता में भी मृगों का विशेष योगदान रहता है।
पशु मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया।
अनेक विद्यार्थिनियों की भारी-भरकम गुरूजी से सोना को क्या लेना-देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी, जिन्होंने यत्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी।
यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।
कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्वामी की स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है।
पर हिरन यह अन्तर नहीं जानता, अत: उसका अपने पालनेवाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जावे तो वह अपनी चकित आँखों में और अधिक विस्मय भरकर पालनेवाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा - मानो पूछता हो, क्या यह उचित है? वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति जताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।
मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते-बिल्ली उस पर उछलते-कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते, तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते।
वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण शावक से हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी। परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि में मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जल कोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी, मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।
सम्भवत: अब उसमें वन तथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जागने लगा था। प्राय: सूने मैदान में वह गर्दन ऊँची करके किसी की आहट की प्रतीक्षा में खड़ी रहती। वासन्ती हवा बहने पर यह मूक प्रतीक्षा और अधिक मार्मिक हो उठती। शैशव के साथियों और उनकी उछ्ल-कूद से अब उसका पहले जैसा मनोरंजन नहीं होता था, अत: उसकी प्रतीक्षा के क्षण अधिक होते जाते थे।
इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसे इतने लघु जीवों से घिरा देख कर उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गई।
एक दिन देखा, फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिन्त लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा, हेमन्त, वसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी, परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।
सम्भवत: वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी। पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर के आरपार चौकड़ी भरती रही। पर कुछ दिनों के उपरान्त जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ गया, तब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रतीक्षा की स्तब्ध घड़ियाँ फिर लौट आईं।
उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कार्यक्रम बना। प्राय: मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास कम करती हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप (नौकर) आदि तो साथ जाने वाले थे ही, पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चिय किया, क्योंकि वह मेरे बिना रह नहीं सकती थी।
छात्रावास बन्द था, अत: सोना के नित्य नैमित्तिक कार्य-कलाप भी बन्द हो गए थे। मेरी उपस्थिति का भी अभाव था, अत: उसके आनन्दोल्लास के लिए भी अवकाश कम था।
हेमन्त-वसन्त मेरी यात्रा और तज्जनित अनुपस्थिति से परिचित हो चुके थे। होल्डाल बिछाकर उसमें बिस्तर रखते ही वे दौड़कर उस पर लेट जाते और भौंकने तथा क्रन्दन की ध्वनियों के सम्मिलित स्वर में मुझे मानो उपालम्भ देने लगते। यदि उन्हें बाँध न रखा जाता तो वे कार में घुसकर बैठ जाते या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन तक जा पहुँचते। परन्तु जब मैं चली जाती, तब वे उदास भाव से मेरे लौटने की प्रतीक्षा करने लगते। सोना की सहज चेतना में मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था, नप्रत्यावर्तन का; इसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।
पैदल जाने-आने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। 2 जुलाई को लौटकर जब मैं बँगले के द्वार पर आ खड़ी हुई, तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।
गोधूली कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्त-वसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों में मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यों वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छ्लाँग नहीं लगाती? सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोंछने लगा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने लगे। वे लोग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।
ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाती थी। इतनी बड़ी हिरनी को पालनेवाले तो कम थे, परन्तु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।
एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूलकर बहुत ऊचाँई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।
सब उस सुनहले रेशम की गठरी के शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आए और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ। सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन ही पालना पड़ रहा है।

(नोटः यह मेरा परिवार नामक पुस्तक से ली गई है। इसकी लेखिका महादेवी वर्मा हैं।)

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Question 1:

नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ- छवि स्पष्ट कीजिए-

(क) पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले

(ख) खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी

(ग) अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण

Answer:

(क) पहली कन्या के जैसे दिखने वाली और दो कन्याओं का जन्म हुआ। लेखिका ने ऐसा इसलिए लिखा है क्योंकि किसी कहानी का पहला संस्करण निकलने के बाद उसके अन्य संस्करण निकाले जाते हैं। वह होते ठीक पहले के समान हैं। ऐसे ही भक्तिन की पहली कन्या के समान अन्य दो कन्याओं का जन्म हुआ।
 

(ख) ऐसी पत्नी जो ससुराल की नज़रों में खोटे सिक्के की टकसाल के समान थी। यहाँ  पर खोटे सिक्के कन्याओं को बताया गया है। भक्तिन ने बेटे को जन्म नहीं दे पायी थी। अतः वह खोटे सिक्के की टकसाल के समान थी। यदि वह बेटों को जन्म दे पाती, तो वह कभी खोटे सिक्के वाली टकसाल नहीं कही जाती। बेटी पैदा करना उसका सबसे बड़ा अवगुण था।
 

(ग) ऐसी बातें जो बार-बार सुनाई दी जा रही थीं लेकिन वे इतने धीरे बोली जा रही थीं कि साफ़ तौर पर पता नहीं चल रहा था कि बात किस विषय में है। इसके साथ ही जो लोग धीरे-धीरे बोल रहे थे उनकी बातें सुनने में न आए लेकिन उनके चेहरे पर एक सहानुभूति साफ़ रूप से देखी जा सकती थी। मानो कह रहे हों कि हम इस दुख की घड़ी में तुम्हारे हैं।

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Question 2:

'बहनोई' शब्द 'बहन (स्त्री.)+ओई' से बना है। इस शब्द में हिंदी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुई है। पुंलिंग शब्दों में कुछ स्त्री-प्रत्यय जोड़ने से स्त्रीलिंग शब्द बनाने की एक समान प्रकिया कई भाषाओं में दिखती है, पर स्त्रीलिंग शब्द में कुछ पुं. प्रत्यय जोड़कर पुंलिंग शब्द बनाने की घटना प्रायः अन्य भाषाओं में दिखलाई नहीं पड़ती है। यहाँ पुं. प्रत्यय 'ओई' हिंदी की अपनी विशेषता है। ऐसे कुछ और शब्द उनमें लगे पुं. प्रत्ययों की हिंदी तथा और भाषाओं में खोज करें।

Answer:

ये ऐसे शब्द हैं, जिनमें एय प्रत्यय लगाकर पुल्लिंग शब्दों का निर्माण हुआ।

(क) 'राधेय' कर्ण का दूसरा नाम है। कर्ण की पालक माता का नाम राधा था। कर्ण उनके नाम से राधेय कहलाए।

राधा+एय = राधेय

(ख) गांगेय भीष्म पितामह का दूसरा नाम है। अपनी माता के नाम से वह गांगेय नाम से जाने गए।

गंगा+एय = गांगेय

(ग) 'कौन्तेय' कर्ण का तीसरा नाम है। कुन्ती का पुत्र होने के कारण वह कौन्तेय भी कहलाए।

कुन्ती+एय = कौन्तेय

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Question 3:

पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझ कर इन्हें खड़ी बोली हिंदी में ढाल कर प्रस्तुत कीजिए।

(क) ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँघ लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है, आउर बाकी का रहा।

(ख) हमारे मालकिन तौ रात-दिन कितबयिन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।

(ग) ऊ बिचारअउ तौ रात-दिन काम माँ जुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घमती-फिरती हौ, चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।

(घ) तब ऊ कुच्छौ करिहैं-धरिहैं ना-बस गली-गली गाउत-बजाउत फिरिहैं।

(ङ) तुम पचै का का बताईययहै पचास बरिस से संग रहित हैं।

(च) हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।

Answer:

(क) यह कौन-सी बड़ी बात है। रोटी बनाना जानती हूँ, दाल बना लेती हूँ, साग-सब्जी छौंक सकती हूँ, और बाकी क्या रह गया है।

(ख) हमारी मालकिन तो रात-दिन किताबों में गड़ी रहती है। अब मैं ही पढ़ने लगी तो घर-गृहस्थी कौन देखेगा-सुनेगा।

(ग) वह बेचारी तो रात-दिन काम में लगी रहती हैं, और तुम पीछे-पीछे घुमती-फिरती हो, चलो थोड़ा हाथ बटा दो।

(घ) तब वह कुछ करता-धरता नहीं था, बस गली-गली गाता-बजाता फिरता था।

(ङ) तुमको क्या-क्या बताऊँ- यह पचास वर्ष से साथ रहती हैं।

(च) मैं कुत्तिया-बिल्ली नहीं हूँ, अगर हमारा मन चाहेगा, तो हम दूसरे के पास जाएँगे नहीं तो मैं सबकी छाती पर चने भूनूँगी और राज करूँगी, सब समझ लो।

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Question 4:

भक्तिन पाठ में पहली कन्या के दो संस्कर जैसे प्रयोग लेखिका के खास भाषाई संस्कार की पहचान कराता है, साथ ही ये प्रयोग कथ्य को संप्रेषणीय बनाने में भी मददगार हैं। वर्तमान हिंदी में भी कुछ अन्य प्रकार की शब्दावली समाहित हुई है। नीचे कुछ वाक्य दिए जा रहे हैं जिससे वक्ता की खास पसंद का पता चलता है। आप वाक्य पढ़कर बताएँ कि इमें किन तीन विशेष प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है? इन शब्दावलियों या इनके अतिरिक्त अन्य किन्हीं विशेष शब्दावलियों का प्रयोग करते हुए आप भी कुछ वाक्य बनाएँ और कक्षा में चर्चा करें कि ऐसे प्रयोग भाषा की समृद्धि में कहाँ तक सहायक है?
अरे! उससे सावधान रहना! वह नीचे से ऊपर तक वायरस से भरा हुआ है। जिस सिस्टम में जाता है उसे हैंग कर देता है।
घबरा मत! मेरी इनस्वींगर के सामने उसके सारे वायरस घुटने टेकेंगे। अगर ज़्यादा फ़ाउल मारा तो रेड कार्ड दिखा के हमेशा के लिए पवेलियन भेज दूँगा।
जानी टेंसन नई लेने का वो जिस स्कूल में पढ़ता है अपुन उसका हैडमास्टर है।

Answer:

–पहले वाक्य में वायरस, सिस्टम तथा हैंग अंग्रेज़ी भाषा के शब्द हैं।
–इनस्वींगर, वायरस, फ़ाउल, रेड कार्ड पवेलियन अंग्रेज़ी भाषा के शब्द हैं।
–जानी, टेंसन अंग्रेज़ी भाषा के शब्द हैं। हैडमास्टर में 'हैड' अंग्रेज़ी भाषा का शब्द है तथा मास्टर हिन्दी भाषा का। 'अपुन' शब्द मुम्बइया भाषा में प्रयोग में लाया जाता है।

इस प्रकार के शब्द भाषा को रोचक बना देते हैं। बोलने तथा सुनने वाले दोनों को समझ में आता है। अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषा के शब्द हिन्दी में रच-बस गए हैं। इनसे भाषा की व्यापकता बढ़ती है। भाषा समृद्ध होती है। हिन्दी में तो ऐसे शब्दों की भरमार है। यही कारण है कि आज यह विश्व में तीसरे स्थान में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं।-
1. रेलगाड़ी चल रही है। (इस वाक्य में रेल अंग्रेज़ी का शब्द है और गाड़ी हिन्दी का।)
2. मुझे कोल्ड हो रहा है। डॉक्टर के पास जाकर चैकअप करवा आता हूँ। (इस वाक्य में कोल्ड, डॉक्टर तथा चैकअप अंग्रेज़ी शब्द हैं।)

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Question 1:

बाज़ार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?

Answer:

बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर निम्नलिखित असर पड़ता है-

चढ़ने पर असर

-

(क) मन का संतुलन खो जाता है और हम स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। बाज़ार में हर वस्तु को खरीदने का मन करता है।

(ख) हम आवश्यकता से अधिक सामान खरीद कर ले आते हैं।

(ग) जेब में रखा सारा पैसा उड़ जाता है।

उतरने पर असर

-

(क) बाद में खरीदारी करने पर अपनी गलती का पता चलता है कि क्या अनावश्यक सामान खरीद लिया है।

(ख) पैसों के अनावश्यक खर्च से आर्थिक संकट गहरा जाता है।

(ग) नियंत्रण शक्ति पर काबू समाप्त हो जाता है।

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Question 2:

बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति-स्थापित करने में मददगार हो सकता है?

Answer:

भगत जी बाज़ार में जाकर विचलित नहीं होते हैं। उनका स्वयं में नियंत्रण है। उनके अंदर गज़ब का संतुलन देखा जा सकता है। यही कारण है कि बाज़ार का आकर्षित करता जादू उनके सिर चढ़कर नहीं बोलता है। उन्हें भली प्रकार से पता है कि उन्हें क्यों और क्या लेना है? वे बाज़ार में जाकर आश्चर्यचकित नहीं रह जाते हैं। अतः इस आधार पर कह सकते हैं कि वे दृढ़-निश्चयी तथा संतोषी स्वभाव के व्यक्ति हैं। उनका स्वयं पर तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। संतोषी स्वभाव के कारण उनमें लालच की भावना विद्यमान नहीं है। एक लालच ही ऐसा भाव है, जो असंतोष, क्रोध आदि दुर्भावनाओं को जन्म देता है। इसके कारण ही भ्रष्टाचार, चोरी-चकारी, हत्या जैसे अपराध समाज में बढ़ रहे हैं। मनुष्य दृढ़-निश्चयी है, तो वह नियंत्रणपूर्वक इस लालच को रोके रखता है। संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो ऐसी वस्तुओं से प्रभावित न हो। लेकिन जिसके अंदर दृढ़-निश्चय और संतोष है, वह कभी गलत मार्ग में नहीं बढ़ेगा और समाज में शांति-स्थापित करने में मददगार साबित होगा।

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Question 3:

'बाज़ारूपन' से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें है?

Answer:

बाज़ारूपन से लेखक का तात्पर्य है कि बाज़ार को अपनी आवश्यकता के अनुरूप नहीं बल्कि दिखाने के लिए प्रयोग में लाना। इस प्रकार हम अपने सामर्थ्य से अधिक खर्च करते हैं और अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लाते हैं, तो हम बाज़ारूपन को बढ़ावा देते हैं। हमें वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती है, बस हम दिखाने का प्रयास करते हैं कि हम यह खरीद सकते हैं। हमारी यह आदत हमें बाज़ार का सही प्रयोग नहीं करने देती है। बाज़ार को सार्थकता वही व्यक्ति दे सकते हैं, जो जानते हैं कि हमें क्या और क्यों खरीदना है? बाज़ार का निर्माण ही इसलिए हुआ है कि हमारी आवश्यकताओं को हमें दे सके। अतः जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को जानकर ही वस्तु खरीदते हैं और बाज़ार से उसे ही लेकर चले आते हैं सही मायने में वही बाज़ार को सार्थकता देते हैं।

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Question 4:

बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

Answer:

लेखक का लिखा हुआ कथन यह आभास अवश्य करवाता है कि इस प्रकार से सामाजिक समता की रचना होती है। हम इससे बिलकुल सहमत नहीं है। बाज़ार सामाजिक समता को नहीं बल्कि बटुवे के भार को देखता है। जिसके बटुवे में नोट हैं और वे नोट खर्च कर सकता है केवल वही इसका लाभ उठा सकते हैं। तब बाज़ार आदमी-औरत, छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, हिन्दु-मुस्लिम तथा गाँव-शहर का भेद नहीं देखता है। वह बस नोट देखता है। तो यह सामाजिक समता का सूचक नहीं बल्कि समाज को बाँटने में अधिक विनाशक शक्ति के रूप में कार्य करता है। धन का भेदभाव ऐसा है जब आता है, तो यह लिंग, जाति, धर्म तथा क्षेत्र को भी बाँटने से हिचकिचाता नहीं है।

यह कथन आज चरितार्थ हो रहा है 'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया'। बाज़ार के लिए भी रुपया बड़ा है, व्यक्ति नहीं।

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Question 5:

आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें-

(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।

(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।

Answer:

(क) बात उस समय की है, जब मैं अपने पिताजी के साथ कार खरीदने गया हुआ था। मेरे पिताजी सरकारी कर्मचारी हैं और ऊँचे पद पर कार्यरत हैं। पिताजी के पहनावे इत्यादि को देखकर शोरूमवालों ने उनकी आवभगत आरंभ कर दी। हमने एक कार भी पसंद कर ली। बस कागज़ी कार्यवाही के लिए काम चल रहा था क्योंकि हमने कार लोन पर लेनी थी। इसी बीच एक गाँव का सा दिखने वाला व्यक्ति आया। उसने गाँव में रहने वाले लोगों जैसा पहनावा पहना हुआ था। वह भाषा से हरियाणा का लग रहा था। उसके कंधों में कपड़े के पुराने टुकड़ों से बने हुए दो बड़े-से थैले लटक रहे थे। वहाँ बहुत से सेल्समेन बैठे हुए थे। उससे किसी ने भी बात करने की जहमत नहीं उठाई। वह कार लेने आया हुआ था। उसने बहुतों से बात करने की कोशिश की पर सब उसकी उपेक्षा कर रहे थे। उसे सभी सेल्समेन पर गुस्सा आया। वह एक खाली टेबल पर गया और उसने अपने थैले उल्टा दिया। सब देखते दंग रह गए। उसमें तकरीबन आठ-नौ लाख रुपए थे। यह देखते ही सारे सेल्समेन उसकी तरफ लपके। हम हैरान थे कि हमारा सेल्समेन भी उसकी तरफ भागा। फिर क्या था उसके लिए पानी, चाय-काफी, ठंडा यहाँ तक की नाश्ता भी आ गया। उसके पैसे की ताकत ने सबको उसके पीछे भागने पर विवश कर दिया। फिर किसी को उसके कपड़ों और अनपढ़ होने से फर्क नहीं पड़ा। सब उसकी आवभगत करने लगे। देखते ही देखते उसने पद्रंह मिनट में बड़ी गाड़ी पसंद कर ली और चला गया। हमारा आधा दिन वहाँ खराब हुआ। पैसे की पावर देखकर में दंग रह गया।
 

(ख) बात उन दिनों की है, जब मैं दशरथ पुरी में रहता था। वहाँ पर अंदर जाने की गलियाँ तंग है। अतः लोग जहाँ पर भी गाड़ी पार्किंग की जगह मिल जाए, वहीं गाड़ी लगाकर आगे का रास्ता पैदल ही तय कर लेते हैं। एक दिन हमारे यहाँ एक बिजनेसमेन का आना हुआ। वह अपनी बड़ी गाड़ी में आया हुआ था। उसे यहाँ एक स्वामी जी के पास आना पड़ा। उसे वहाँ के लोगों ने पहले ही मना कर दिया था कि आगे गाड़ी न ले जाएँ। वे मुसीबत में फंस सकते हैं। पता नहीं वे किस घमंड में थे कि कुछ सोच ही नहीं पाए। अपनी गाड़ी तंग गली में ले आए। एक जगह पर ऐसे हालात बन गए कि उनकी गाड़ी फंस गई। आगे पानी की पाइप लाइन डालने का काम चल रहा था और उनकी गाड़ी के पीछे कई स्कूटर तथा साइकिल आकर खड़े हो गए। एक घंटे तक जाम रहा। स्कूटर, साइकिल वाले तो निकल गए लेकिन उनकी गाड़ी को बैक करने के लिए जगह ही नहीं मिली। आखिर तंग आकर उन्हें आगे पैदल जाना पड़ा। गाड़ी को जिस हालत में बाहर निकाला उसका कबाड़ा हो गया। उनके पैसे की ताकत काम नहीं आई और वे चिल्लाते रह गए।

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Question 1:

बाज़ार दर्शन पाठ में बाज़ार जाने या न जाने के संदर्भ में मन की कई स्थितियों का ज़िक्र आया है। आप इन स्थितियों से जुड़े अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए।

(क) मन खाली हो

(ख) मन खाली न हो

(ग) मन बंद हो

(घ) मन में नकार हो

Answer:

(क) मन खाली न- जब मुझे पता होता है कि मुझे कुछ नहीं खरीदना होता है, तो मैं बाज़ार से खाली हाथ ही आता हूँ। माँ ने एक बार मुझे काली मिर्च लाने भेजा। उसके लिए हमारे यहाँ शनि बाज़ार लगता है। मैं अपने लोकल बाज़ार में गया मगर वहाँ काली मिर्च नहीं मिली। उसके बाद में शनि बाज़ार भी गया। वहां जाकर मुझे काली मिर्च मिली। जब मैं घर पहुँचा, तो भाई से पता चला कि वहाँ पर बड़े मज़ेदार खाने के स्टॉल लगे थे। लेकिन मुझे पता ही नहीं चला।

(ख) मन खाली न हो- तो मैं कुछ न कुछ बाज़ार से जाकर ले आता हूँ। एक बार मैं बाज़ार में चॉकलेट खरीदने गया था। लेकिन जब वापस आया तो अपने साथ चॉकलेट, टॉफी, आइसक्रीम, रोल, चाउमीन इत्यादि उठा लाया। इसका परिणाम यह हुआ कि मैं सब खा नहीं पाया और माँ से मार पड़ी अलग।

(ग) मन बंद हो- मेरा मन बंद होता है, तो मैं किसी चीज़ की तरफ़ आकर्षित नहीं होता हूँ। ऐसा तब हुआ था, जब मैं माँ के साथ बाज़ार गया था। माँ मुझे जन्मदिन का उपहार दिलाना चाहती थी लेकिन मैंने लेने से इंकार कर दिया। मैं कुछ भी खरीद कर नहीं लाया।
 

(घ) मन में नकार हो- यह ऐसा समय होता है, जब मन उदास हो। तब किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षण का भाव नहीं रहता है। ऐसा तब हुआ था, जब मेरा दोस्त प्रवीण लंदन रहने चला गया था। बहुत समय तक मुझे बाज़ार तथा उसमें विद्यमान वस्तुओं के लिए नकार भाव उत्पन्न हो गया था।

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Question 2:

बाज़ार दर्शन पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?

Answer:

बाज़ार दर्शन में दो चार प्रकार के ग्राहकों के बारे में बात हुई है। पहले ऐसे ग्राहक हैं, जो अपनी आर्थिक सपन्नता का प्रदर्शन बाज़ार में जाकर करते हैं। दूसरे ऐसे ग्राहक हैं, जो बाज़ार में जाकर संयमी होते हैं और बुद्धिमता पूर्वक सामान खरीदते हैं। तीसरे ऐसे ग्राहक हैं, जो मात्र बाज़ारूपन को बढ़ावा देते हैं और चौथे ऐसे किस्म के ग्राहक होते हैं जो मात्र आवश्यकता के अनुरूप सामान खरीदते हैं। मैं स्वयं को संयमी तथा बुद्धिमता पूर्वक सामान खरीदने वाला ग्राहक मानता हूँ। मैं बाज़ार में जाकर आकर्षित नहीं होता हूँ। सोच-समझकर ही सामान खरीदता हूँ।

Page No 92:

Question 3:

आप बाज़ार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाज़ार और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेज़िंग पावर आपको किस तरह के बाज़ार में नज़र आती है?

Answer:

मॉल, सामान्य बाज़ार तथा हाट की संस्कृति में बहुत अंतर हैं। मॉल में आपको हर वस्तु ब्रैंडिड मिलती है। इनके मूल्य बहुत अधिक होते हैं। यह मात्र व्यवसायी, उच्च पदों आदि जैसे लोगों के लिए उपयुक्त है। निम्न मध्यवर्गीय तथा निम्न वर्गीय लोगों के लिए इन्हें खरीदना कठिन होता है। सामान्य बाज़ार में हर प्रकार के लोगों द्वारा खरीदारी की जाती है। यहाँ हर वर्ग का व्यक्ति अपनी सुविधा अनुसार सामान खरीदता है। हाट की संस्कृति शहरों के लिए कम उपयुक्त है। यह गाँव के लिए हैं। यह सप्ताह में एक बार लगता है और लोगों द्वारा यहाँ पर आवश्यकता अनुसार ही सामान खरीदा जाता है। पर्चेज़िंग पावर मात्र मॉल संस्कृति के लिए उपयुक्त है। यहाँ पर आप अपनी इस पावर के दम पर उच्चब्रांड की वस्तुएँ खरीद सकते हैं।

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Question 4:

लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

Answer:

हम इस विचार से सहमत हैं कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। इसका स्पष्ट उदाहरण तब दृष्टिगोचर होता है, जब आपको बच्चों के लिए स्कूल से मँगाई कोई सामग्री लेनी होती है। दुकानदार आपकी मज़बूरी को भाँप जाता है और उस वस्तु के लिए आपसे मुँह माँगी कीमत वसुलता है। तब बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण बन जाती है और 20 रुपए की वस्तु हमें 200 रुपए में खरीदने के लिए विवश होना पड़ता है।

Page No 93:

Question 5:

स्त्री माया न जोड़े यहाँ माया शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति प्रदत्त नहीं, बल्कि परिस्थितिवश है। वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती है?

Answer:

यहाँ पर 'माया' शब्द से संकेत धन की ओर किया गया है। स्त्रियाँ पर घर चलाने की ज़िम्मेदारी परिस्थितिवश होती है। उन्हें विवाह के बाद घर का खर्च चलाने तथा पूंजी जमा करने की ज़िम्मेदारी से दबा दिया जाता है। इन दबावों के चलते हुए वह माया जोड़ने पर विवश हो जाती है। क्योंकि वह जानती है कि यदि वह खुल्ला खर्च करेंगी, तो भविष्य में इसके नुकसान उसे तथा उसके परिवार को ही झेलने पड़ेंगे। अतः घर के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए वह माया जोड़ने के लिए विवश हो जाती है।

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Question 1:

ज़रूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है- भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए-

 

चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह
जाके कुछ न चाहिए सोई सहंसाह।

कबीर

Answer:

भगत जी के स्वभाव में कबीर जी की ये पंक्तियाँ बिलकुल सही बैठती हैं। यह सारा खेल संतोष रूपी भावना से है। संतोष सबसे बड़ा भाव है। जिस मनुष्य में संतोष है, वह हर प्रकार से धनी है। कोई वस्तु उसे आकर्षित नहीं कर सकती है न उसमें लालच पैदा कर सकती है। जब मन में किसी को पाने की चाह, आकर्षण तथा लालच विद्यमान नहीं है, तो वह सुखी है। उसमें इन भावनाओं के न रहने से वह चिंता मुक्त हो जाता है। चिंता उसे सबसे अलग बना देती है और वह सुखी हो जाता है।

Page No 93:

Question 2:

विजयदान देथा की कहानी 'दुविधा' (जिस पर 'पहेली' फ़िल्म बनी है) के अंश को पढ़ कर आप देखेंगे/देखेंगी कि भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गड़रिए की जीवन-दृष्टि है, इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं?

गड़रिया बगैर कहे ही उस के दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाड़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला- 'मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अँगूठी मेरे किस काम की! न यह अँगुलियों में आती ह, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।'

–विजयदान देथा

Answer:

इससे हमारे मन में यह भाव जागते हैं कि हमें संतुष्ट रहना चाहिए। हमें किसी भी चीज़ के लालच तथा मोह में नहीं फंसना चाहिए। हमारे अंदर जितना अधिक संतुष्टी का भाव रहेगा, हम उतने ही शांत और सुखी बने रहेंगे। जीवन में कोई लालसा हमें सता नहीं पाएगी। हम परम सुख को भोगेंगे और शांति कायम कर पाएँगे।

Page No 93:

Question 3:

बाज़ार पर आधारित लेख नकली सामान पर नकेल ज़रूरी का अंश पढ़िए और नीचे दिए गए बिंदुओं पर कक्षा में चर्चा कीजिए।

(क) नकली सामान के खिलाफ़ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?

(ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व हैं?

(ग) ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए?

प्र २ कृति पूर्ण कीजिए कविता में प्रयुक्त खाद्यपदार्थ - pr 2 krti poorn keejie kavita mein prayukt khaadyapadaarth

Answer:

(क) नकली सामान की जागरुकता के लिए हम आवाज़ उठा सकते हैं। यदि हमें कहीं पर नकली सामान बिकता हुआ दिखाई देता है, तो हम उसकी शिकायत सरकार से कर सकते हैं। सतर्क रह सकते हैं। प्रायः हम ही नकली सामान की खरीद-फरोक्त में शामिल होते हैं। लापरवाही से सामान खरीदना हमारी गलती है। अतः हमें चाहिए कि इस विषय में स्वयं जागरूक रहें और अन्य को भी जागरूक करें।

(ख) उपभोक्ताओं के हित को मद्देनज़र रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का नैतिक दायित्व है कि वह सामान की क्वालिटी में ध्यान दें। एक उपभोक्ता कंपनी को उसके सामान की तय कीमत देता है। अतः कंपनी को चाहिए कि वह उपभोक्ता के स्वास्थ्य और ज़रूरत को ध्यान में रखकर अच्छा सामान दे और उसे उपलब्ध करवाए। अपने सामान की समय-समय पर जाँच करवाएँ। उनके निर्माण के समय साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।

(ग) आज के समय में ब्रांडेड सामान खरीदकर मनुष्य अपनी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति को दर्शाना चाहता है। इसके अतिरिक्त यह मान लिया जाता है कि एक ब्रांडेड सामान की गुणवत्ता ही अच्छी है। आज ब्रांडेड सामान दिखावे का हिस्सा बन गया है। फिर वह सामान नकली हो या उधार पर लिया गया हो लेकिन लोग इन्हें पहनकर अपनी ऊँची हैसियत दिखाना चाहते हैं। इसके लिए वह माँगकर पहनने से भी नहीं हिचकिचाते।

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Question 4:

प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के हामिद और उसके दोस्तों का बाज़ार से क्या संबंध बनता है? विचार करें।

Answer:

प्रेमचंद की कहानी ईदगाह से हामिद और उसके दोस्तों का बाज़ार से ग्राहक और दुकानदार का रिश्ता बनता है। वे बाज़ार से अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार खरीदारी करते हैं। सब अपनी हैसियत के अनुसार खरीदते हैं और बाज़ार संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। इसमें हामिद एक समझदार ग्राहक बनता है, जो ऐसा समान खरीदता है, जो उसकी दादी की आवश्यकता को पूर्ण करता है। उसके अन्य मित्र ऐसे ग्राहक बनते हैं, जो अपनी जेब की क्षमता के अनुसार खर्च करते हैं और बाद में पछताते हैं।

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Question 1:

आपने समाचारपत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता है, नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात से सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया।

1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय-वस्तु

2. विज्ञापन में आए पात्र व उनका औचित्य

3. विज्ञापन की भाषा

Answer:

मैंने मैगी के विज्ञापन को देखा। उसे देखकर मुझे लगा कि यह विज्ञापन मेरी भूख रूपी ज़रूरत को कम समय में पूरा करने में सक्षम है। यह मज़ेदार और सस्ता है, जो मैं स्वयं ही बनाकर खा सकती हूँ। इसमें मुझे माँ पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं है।
 

1. विज्ञापन में मैगी कंपनी ने अपने पैकेट को दिखाया है। इस विज्ञापन की विषय वस्तु माँ तथा उसके दो बच्चों पर है। ये अपनी माँ से भूख को दो मिनट में शांत करने के लिए कहते हैं।
 

2. विज्ञापन में तीन पात्र हैं, जिसमें एक माँ तथा उसके दो बच्चे (एक लड़का तथा लड़की) हैं। इनका औचित्य बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है। बच्चे माँ से अचानक कुछ कम समय में बना लेने की माँग करते हैं। मैगी ऐसा माध्यम है कि कम समय में बनने वाला व्यंजन है और बच्चों की भूख को भी तुरंत शांत कर देता है।
 

3. विज्ञापन की भाषा सरल और सहज है। इसमें संगीत्मकता गुण प्रधान है। बच्चें गाकर माँ को अपनी भूख के बारे में समझाते हैं।

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Question 2:

अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए। आप स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो।

Answer:

आज अपने सामान की बिक्री के लिए मज़ेदार विज्ञापनों, फ्री सेंप्लिंग होर्डिंग बोर्ड, प्रतियोगिता, मुफ्त उपहार, मूल्य गिराकर, एक साथ एक मुफ्त देकर आदि तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है। इससे सामान की बिक्री में तेज़ी आती है। ये तरीके बहुत ही कारगर हैं। हम अपने उत्पाद की बिक्री के लिए पहले फ्री सेंप्लिंग देगें। इससे हम उपभोक्ता को अपने उत्पाद की गुणवत्ता दिखाकर उनका भरोसा जीतेंगे।

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Question 1:

विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है, तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।

Answer:

औपचारिक भाषा-

(क) मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है।

(ख) इस सिलसिले में एक और भी महत्त्व का तत्त्व है।

(ग) मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है।

अनौपचारिक भाषा-

(क) पैसा पावर है।

(ख) ऐसा सजा-सजाकर माल रखते हैं कि बेहया ही हो जो न फँसे।

(ग) नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़ है।

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Question 2:

पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता है कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है। सीधे तौर पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं?

Answer:

(क) लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चहाइए।

(ख) कहीं आप भूल न कर बैठिएगा।

(ग) यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ।

(घ) पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए।

(ङ) यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं।

ऐसे संबोधन पाठकों में रोचकता बनाए रखते हैं। पाठकों को लगता है कि लेखक प्रत्यक्ष रूप में न होते हुए भी उनके साथ जुड़ा हुआ है। उन्हें लेख रोचक लगता है और वे आगे पढ़ने के लिए विवश हो जाते हैं।

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Question 3:

नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए।

(क) पैसा पावर है।

(ख) पैसे की उस पर्चेज़िंग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।

(ग) मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया।

(घ) पेशगी ऑर्डर कोई नहीं लेते।

ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेज़ी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्सिंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या प्रभाव पड़ता है।

Answer:

(क) परंतु इस उदारता के

डाइनामाइट

ने क्षण भर में उसे उड़ा दिया।

(ख) भक्ति

इंस्पेक्टर

के समान

क्लास

में घूम-घूमकर।

(ग)

फ़िजूल

सामान को

फ़िजूल

समझते हैं।

(घ) इससे अभिमान की

गिल्टी

की और

खुराक

ही मिलती है।

(ङ) माल-

असबाब

मकान-कोठी तो अनेदेखे भी दिखते हैं।

ऊपर दिए गए शब्दों में रेखांकित शब्द आगत शब्द हैं। इनके स्थान पर यदि हिंदी पर्यायों का प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर दूसरा ही प्रभाव पड़ता है। वाक्य अधूरा-सा लगता है। बात स्पष्ट नहीं हो पाती है तथा लेखक का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। यही कारण है कि कोड मिक्सिंग ने भाषा में अपनी जगह बना ली है। उदाहरण के लिए देखिए-

(क) परंतु इस उदारता के

विस्फोटक

ने क्षण भर में उसे उड़ा दिया।

(ख) भक्ति

पर्यवेक्षक

के समान

कक्षा

में घूम-घूमकर।

(ग)

व्यर्थ

सामान

व्यर्थ

समझते हैं।

(घ) इससे अभिमान की

दोषी

की और

अंश

ही मिलती है।

(ङ) माल-सामान मकान-कोठी तो अनेदेखे भी दीखते हैं।

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Question 4:

नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढ़िए-

(क) निर्बल ही धन की ओर झुकता है।

(ख) लोग संयमी भी होते हैं।

(ग) सभी कुछ तो लेने को जी होता था।

ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश 'ही', 'भी', तो निपात हैं जो अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे-

मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे  महत्त्वपूर्ण है।)
मुझे किताब भी चाहिए। (किताब  महत्त्वपूर्ण है।)
आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का निर्माण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों।

Answer:

'ही' से बनने वाले तीन वाक्य-
(क) भरत को ही बुलाना है।
(ख) मंदिर में मुझे ही जाना है।
(ग) बाज़ार से गुलाब ही खरीदना है।

'भी' से बनने वाले तीन वाक्य-
(क) नेहा को भी ले आते।
(ख) कपड़ों को भी भीगा देते।
(ग) गुलाब के पौधे भी लगवा देते।

'तो' से बनने वाले तीन वाक्य-
(क) घर तो टूट गया
(ख) मैंने तो खाना खा लिया।
(ग) जंगल में तो जानवर ही मिलेंगे।

'ही, भी, तो' तीनों से बनने वाले दो वाक्य-
(क) बाज़ार से ही तो घी भी लेना था।
(ख) जलेबी ने ही मुझे तो समझाया कि शर्मा जी को भी बुला लो।
(ग) घर से निकला ही था, तो देखा कि सूरज भी साथ चल रहा है।

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Question 1:

पर्चेंज़िंग पावर से क्या अभिप्राय है?

बाज़ार की चकाचौंध से दूर पर्चेज़िंग पावर  का साकारात्मक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद क लिए संकेत दिया जा रहा है-

(क) सामाजिक विकास के कार्यों में।

(ख) ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में......।

Answer:

पर्चेज़िंग पावर का अभिप्राय हैः पैसे खर्च करने की क्षमता होना। हम सामाजिक विकास के कार्यों में अपनी इस क्षमता का प्रयोग कर सकते हैं। जैसे की हम ऐसे सामान खरीद सकते हैं, जो कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प तथा लघु उद्योगों को बढ़ावा दें। इस प्रकार हम न केवल समाज का विकास करेंगे अपितु हम ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ बना सकते हैं। प्रायः ग्रामीण प्रदेशों में कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प उद्योग तथा लघु उद्योग फलते-फूलते हैं। इसके माध्यम से हम दोनों को मज़बूत और विकसित बना सकते हैं।

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Question 1:

लोगों ने लड़कों की टोली को मेढक-मंडली नाम किस आधार पर दिया? यह टोली अपने आपको इंदर सेना  कहकर क्यों बुलाती थी?

Answer:

लड़कों की टोली घर-घर जाकर पानी की माँग किया करते थे। लोग अपने घरों से पानी निकालकर इनके ऊपर डाला करते थे। इनके दो नाम थे मेंढक मंडली तथा इंदर सेना। जिन लोगों को इन बच्चों का चीखना-चिल्लाना, उछलना-कूदना तथा इनके कारण होने वाले कीचड़ से चिढ़ थी, उन्होंने इन्हें मेढक-मंडली का नाम दिया था।
इनके कारण बादलों के राजा इंद्र प्रसन्न होते थे। लोगों से जा-जाकर यह इंद्र से प्रार्थना करने के लिए विवश करते थे। यही कारण था कि यह स्वयं को इंदर सेना कहकर बुलाती थी।

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Question 2:

जीजी ने इंदर सेना पर पानी फेंके जाने को किस तरह सही ठहराया?

Answer:

जीजी के अनुसार मनुष्य के पास जो चीज़ ना हो और वह उसका त्याग करके किसी और को देता है, तो उसका बहुत अच्छा फल मिलता है। इंदर सेना ऐसे समय में पानी की माँग करती थी, जब लोगों के पास स्वयं पानी नहीं हुआ करता था। लोग अपने घरों से निकाल-निकालकर पानी देते थे। लेखक को पानी की यह बर्बादी पसंद नहीं थी। वह अपनी जीजी को ऐसा करने से मना करता था। तब जीजी ने समझाया कि मनुष्य जब स्वयं त्याग करता है, तो वह ईश्वर को विवश कर देता। ईश्वर उसके त्याग से प्रसन्न होकर उसे इनाम देते हैं।

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Question 3:

पानी दे, गुड़धानी दे मेघों से पानी के साथ-साथ गुड़धानी की माँग क्यों की जा रही है?

Answer:

पानी से गुड़धानी का बहुत गहरा संबंध है। पानी मात्र पीने की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है। वह अनाज उगाने के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। किसान जब खेतों में धान, गेहूँ, ज्वार, गन्ना, बाज़रा इत्यादि के बीज डालता है, तो वह मेघों से पानी की आस लगता है। खेतों में जब वर्षा होती है, तो फसल लहलहाती है। इसी फसल से हमें विभिन्न प्रकार की फसलें प्राप्त होती हैं। गुड़धानी चावल तथा गुड़ से बनता है। अतः पानी के साथ-साथ गुड़धानी भी खाने को मिलती है। इसलिए पानी के साथ-साथ गुड़धानी की माँग की गई है।

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Question 4:

गगरी फूटी बैल पियासा इंदर सेना के इस खेलगीत में बैलों के प्यासा रहने की बात क्यों मुखरित हुई है?

Answer:

यहाँ पर ग्रामीण लोगों तथा जीव-जन्तुओं की गर्मी में दशा का वर्णन मिलता है। बच्चे कहते हैं कि मेघ अभी तक तुम्हारे द्वारा बारिश नहीं हुई है। चारों तरफ पानी के लिए हाहाकर मचा हुआ है। पानी की कमी के कारण गगरी की दशा फूटी जैसे हो गई है। अर्थात जैसे फूटी गगरिया में पानी नहीं रहता, ऐसे हालात गर्मी ने बना दिए हैं। किसी के भी घर गगरिया में पानी शेष नहीं बचा है। किसान तथा उसके बैल पानी के लिए तरस रहे हैं। यदि पानी नहीं बरसेगा तो बैल मर जाएँगे। बैलों के बिना खेती संभव नहीं है। किसान तो प्यास और बैलों दोनों के अभाव में ही मर जाएगा। अतः खेलगीत में बैलों का नाम मुखरित होता है।

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Question 5:

इंदर सेना सबसे पहले गंगा मैया की जय क्यों बोलती है? नदियों का भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में क्या महत्त्व है?

Answer:

गंगा लोगों के लिए पवित्र है। वह नदी नहीं माँ के समान पूजी जाती है। अतः पहले गंगा मैया की जय बोला जाता है ताकि उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की जा सके। भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में नदियों का बहुत महत्त्व है। एक नदी मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नदियों के कारण मनुष्य को उपजाऊ भूमि प्राप्त होती है, जिससे मनुष्य जाति फलती-फूलती है। मनुष्य के दैनिक जीवन में पानी का महत्वपूर्ण स्थान है। उसे पीने से लेकर नहाने तक में पानी की आवश्कता होती है। पानी के कारण ही वह जीवित रहता है। यह मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि जीव-जन्तु तथा पेड़-पौधों के लिए भी आवश्यक तत्व है। इसकी आपूर्ति नदियों से ही होती है। भारत में तो नदियों के इसी गुण के कारण उसे माता की संज्ञा दी गई है। माता जिस तरह से बच्चे का लालन-पालन करती है, नदी भी वैसे ही मनुष्य का लालन-पालन करती है। मनुष्य के मुंडन से लेकर उसकी मृत्यु तक नदी कहीं न कहीं माँ के समान उसके साथ रहती है। अतः उसे भारतीय सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश से अलग करना असंभव है।

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Question 6:

रिश्तों में हमारी भावना-शक्ति का बँट जाना विश्वासों के जंगल में सत्य की राह खोजती हमारी बुद्धि की शक्ति को कमज़ोर करती है। पाठ में जीजी के प्रति लेखक की भावना के संदर्भ में इस कथन के औचित्य की समीक्षा कीजिए।

Answer:

लेखक अपनी जीजी से बहुत प्रेम करता है। वह उन पर विश्वास भी बहुत करता है लेकिन जब दीदी उसके मना करने पर भी इंदर सेना रूपी बच्चों पर घर का बचा पानी डाल देती है, तो वह परेशान हो जाता है। वह जीजी के इस कार्य को पसंद नहीं करता है। वह स्वयं ऐसा कार्य नहीं करता है और जीजी को भी ऐसा करने के लिए मना करता है। जीजी उसे ऐसे तर्क देती है कि वह हार जाता है। वह ऐसे  कार्य तथा बातों को मानने के लिए विवश हो जाता है, जिस पर उसे स्वयं विश्वास नहीं है। अतः लेखक की इस दुविधा को दिखाने हेतु लेखक ने यह पंक्ति कही है।

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Question 1:

क्या इंदर सेना आज के युवा वर्ग का प्रेरणास्रोत हो सकती है? क्या आपके स्मृति-कोश में ऐसा कोई अनुभव है जब युवाओं ने संगठित होकर समाजोपयोगी रचनात्मक कार्य किया हो, उल्लेख करें।

Answer:

इंदर सेना आज के युवा वर्ग का प्रेरणास्रोत नहीं हो सकता है। इंदर सेना स्वयं कुछ नहीं करती है। बल्कि वह पुरानी परंपराओं को आधार बनाकर यह कार्य करते हैं। अतः इसमें उद्देश्य बेशक बारिश करवाने का रहा हो लेकिन यह समाज की भलाई के स्थान पर बर्बादी ही था। लेखक स्वयं इसकी पुष्टि करता है। यदि सारे बच्चे मिलकर लोगों के लिए पानी का इंतज़ाम करते, तो हम इसे प्रेरणा स्रोत मान सकते हैं।

मुझे एक अनुभव याद है, जब हम बच्चों ने मिलकर सही में समाज उपयोगी कार्य किया था। हमारी गली के बाहर ऐसा स्थान था, जहाँ पर खुदाई का काम चला था। काम समाप्त होने के बाद उसे ऐसे ही छोड़ दिया। इस कारण सबको बहुत प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। आखिरकार हम बच्चों ने मिलकर फैसला किया कि हम इस समस्या का निपटारा करेंगे। हमने मिलकर वहाँ से मलबा उठाना आरंभ किया। पूरे दिन की मेहनत लगाकर उस स्थान को साफ़ कर दिया। इसके अतिरिक्त पैसे मिलाकर कुछ पौधे खरीदे के लाए और वहाँ रोप दिए। आज वहाँ पर चार पेड़ खड़े हैं। सबने हमारी तारीफ की और हमें पूरी सोसाइटी के लिए सम्मानित किया गया।

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Question 2:

तकनीकी विकास के दौर में भी भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है। कृषि-समाज में चैत्र, वैशाख सभी माह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं पर आषाढ़ का चढ़ना उनमें उल्लास क्यों भर देता है?

Answer:

हिन्दू-पंचाग में आषाढ़ चौथा मास होता है। यह महीना जून तथा जुलाई महीने में होता है। इसमें वर्षा का आगमन होता है। इस महीने में धरती, खेत-खलियान, नदी-नाले, जीव-जन्तु तथा मनुष्य सभी वर्षा के जल से खिल उठते हैं। गर्मी से राहत मिलती है।
कृषि समाज के लिए तो यह हर्षोल्लास का प्रतीक माना जाता है। खेतों को भरपूर पानी मिलता है तथा किसान फसल की तैयारी करने लग जाता है। खेतों को नवजीवन मिलता है। प्यासे खेत पानी पाकर लहलहा उठते हैं। अंकुर धरती का सीना चीरकर बाहर आ जाते हैं और उन्हें देखकर किसान छूम उठता है। यही फसल उसका भविष्य निर्धारित करती है। फसल उसकी जीविका का साधन है। जितनी अच्छी फसल होगी, उसे उतना धन मिलेगा। यह उसके लिए शुभ संकेत है। आषाढ़ का महीना चूंकि जून तथा जुलाई का होता है। अतः वर्षा जमकर होती है।खेतों की इस समय अच्छी सिंचाई होती है।

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Question 3:

पाठ के संदर्भ में इसी पुस्तक में दी गई निराला की कविता बादल-राग पर विचार कीजिए और बताइए कि आपके जीवन में बादलों की क्या भूमिका है?

Answer:

बादल-राग कविता के माध्यम से निराला जी ने बादलों के महत्व का वर्णन किया है। वे बादलों को उनके गुणों के कारण महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। उनका मानना है कि बादल मनुष्य जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन करने का सामर्थ्य रखते हैं। इस धरती को नवजीवन देने का भी सामर्थ्य उनके अंदर है। हमारे जीवन में बादलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यदि बादल न हो, तो हमें जल की आपूर्ति न हो। गर्मी के कारण पूरी पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर उठती है, ऐसे में बादल अपने शीतल जल से ठंडक प्रदान करते हैं। किसानों के लिए तो बादल नवजीवन हैं। यदि बादल न हो, तो किसान के लिए कृषि का कोई महत्व नहीं है। उसकी फसल को स्वरूप और आकार बादलों द्वारा किए गए पानी से ही मिलता है।

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Question 4:

त्याग तो वह होता...... उसी का फल मिलता है। अपने जीवन के किसी प्रसंग से इस सूक्ति की सार्थकता समझाइए।

Answer:

त्याग का भाव ही महान होता है। सभी धर्म इसलिए त्याग के लिए प्रेरित करते हैं। त्याग क्या है? किसी की भलाई के लिए अपने स्वार्थ को छोड़कर किसी ओर को दे देना का भाव ही त्याग है। यह भावना जिस व्यक्ति के अंदर है, वह मानवता की जिंदा मिसाल है।

हमारे घर के पास एक रिटायर्ड शर्मा अंकल रहते हैं। उन्होंने अपने घर के बाहर चार बड़े मटके रखे हुए हैं। वह सुबह उठकर उन्हें साफ करते हैं और उनमें पानी भर देते हैं। उस स्थान की साफ़-सफ़ाई का वे स्वयं ध्यान रखते हैं। वहाँ पर गंदगी का नामोनिशान नहीं होता। पेड़ की छाँव में ठंडा पानी मिलना अपने में सुखद अनुभव है। पूरे दिन वहाँ से लोग आते-जाते हुए पानी पीते हैं। हमारे यहाँ सीधी पानी की सप्लाई नहीं है। हम सप्ताह में एक बार कई टैंक पानी मँगवाते हैं और उनसे हमारे यहाँ की मुख्य पानी की टंकी में पानी डाल दिया जाता है। उससे ही हमारे घरों में पानी की सप्लाई होती है। अंकल के द्वारा पानी के मटके भरकर रखने में कई लोगों को इतराज़ था। अतः अंकल ने अपने लिए एक छोटा टैंक मँगवाना आरंभ कर किया। अंकल इसके लिए अलग से पैसे स्वयं दिया करते थे। उनका परिवार इस बात से बहुत नाराज़ था। हमें बाद में पता चला कि अंकल गर्मी में स्वयं दूर-दूर का सफ़र साइकिल से सिर्फ इसलिए किया करते थे कि पानी के टैंक के पैसे खर्च न हो जाएँ। लोग गर्मी में उनके रखे मटकों से पानी पीते और धन्यवाद करते। कोई नहीं जानता था कि इसके लिए वह कितना बड़ा त्याग कर रहे हैं। एक बार हमारे यहाँ के एम.एल.ए. आए। उन्हें पानी की आवश्यकता थी कुछ संजोग ऐसा बन पड़ा कि उनकी गाड़ी वहीं रूकी। एम.एल.ए. साहब चूंकि स्वयं ग्राम भूमि से जुड़े हुए थे, तो मटके से जल पीने के लिए लालायित हो उठे। मटकों से पानी पीकर उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। वह यह जानने के उत्सुक हो गए कि किसने इस प्रकार की व्यवस्था की हुई है। तब पता चला कि यह व्यवस्था शर्मा अंकल ने की है। जब उन्हें पता चला कि अंकल अपनी जेब से इसके इंतज़ाम के लिए पैसा खर्च करते हैं, तो उन्होंने अंकल के लिए अलग से एक पानी के टैंक की व्यवस्था करवा दी। उसका सारा खर्चा उन्होंने स्वयं वहन करना स्वीकार किया। आज उस स्थान पर अंकल के नाम से एक पक्का प्याऊ बनवाया गया है। जहाँ पर और भी मटके हैं। हमारे यहाँ के लोगों ने अपने व्यवहार के लिए अंकल से माफी माँगी। आज वह स्थान अंकल के नाम से जाना जाता है। अंकल के त्याग ने उन्हें फल के रूप में सुंदर उपहार दिया।

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Question 5:

पानी का संकट वर्तमान स्थिति में भी बहुत गहराया हुआ है। इसी तरह के पर्यावरण से संबद्ध अन्य संकटों के बारे में लिखिए।

Answer:

मनुष्य ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रकृति का बहुत अनिष्ट किया है। इस कारण पर्यावरण असंतुलन विद्यमान हो गया है और बहुत प्रकार के संकट उपस्थित हो रहे हैं। इस समय में प्लास्टिक संकट गहराया हुआ है। प्लास्टिक कचरे ने सारे संसार में विकट स्थिति पैदा कर दी है। इसे न जलाया जा सकता है और न ही यह स्वयं नष्ट होता है। यह जहाँ रहता है, वहाँ कोई वस्तु पनप ही नहीं पाती है। इस कारण से यह संकट बना हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग एक दूसरी विकट संकट है। इसके कारण ध्रुवों में स्थित बर्फ तेज़ी से पिघल रही है। यदि यही स्थिति रही, तो सभी समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा।

Page No 104:

Question 6:

आपकी दादी-नानी किस तरह के विश्वासों की बात करती हैं? ऐसी स्थिति में उनके प्रति आपका रवैया क्या होता है? लिखिए।

Answer:

मेरी दादी बिल्ली रास्ता काट जाए, तो वहाँ से आगे नहीं जाती है। उनके इस विश्वास के कारण हमें कई बार देर हो जाती है। हम परेशान हो जाते हैं, उन पर गुस्सा करते हैं। वह हमारी एक नहीं सुनती। मेरी नानी वीरवार को किसी को न साबुन लगाने देती है और न ही घर में कपड़े धुलवाती है। इससे बड़ी परेशानी होती है। सर्दियों में तो चल जाता है। गर्मियों में यह खराब लगता है। अतः हम गर्मियों में नानी के घर में जाने से हिचकते हैं।

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Question 1:

बादलों से संबंधित अपने-अपने क्षेत्र में प्रचलित गीतों का संकलन करें तथा कक्षा में चर्चा करें।

Answer:

इस विषय पर विद्यार्थियों को स्वयं ही प्रयास करने की आवश्यकता है।

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Question 2:

पिछले 15-20 सालों में पर्यावरण से छेड़-छाड़ के कारण भी प्रकृति-चक्र में बदलाव आया है, जिसका परिणाम मौसम का असंतुलन है। वर्तमान बाड़मेर (राजस्थान) में आई बाढ़, मुंबई की बाढ़ तथा महाराष्ट्र का भूकंप या फिर सुनामी भी इसी का नतीजा है। इस प्रकार की घटनाओं से जुड़ी सूचनाओं, चित्रों का संकलन कीजिए और एक प्रदर्शनी का आयोजन कीजिए, जिसमें बाज़ार दर्शन पाठ में बनाए गए विज्ञापनों को भी शामिल कर सकते हैं। और हाँ ऐसी स्थितियों से बचाव के उपाय पर पर्यावरण विशेषज्ञों की राय को प्रदर्शनी में मुख्य स्थान देना न भूलें।

Answer:

इस विषय पर विद्यार्थी ही अपना योगदान दे सकते हैं। अतः सब मिलकर अपनी अध्यापिका के साथ काम करें।

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Question 1:

कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ में आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।

Answer:

कुश्ती के समय जब ढोल की आवाज़ सुनाई देती थी, तो लुट्टन रोमांचित हो जाता था। ढोल की आवाज़ उसके लहू में जोश भर देता थी। पहली बार जब उसने कुश्ती लड़ी, तो यही ढोल साथी की तरह उसके साथ बज रहा था। ढोल में पड़ती हर थाप मानो उसे प्रेरणा दे रही हो।
मेरे मन में ढोल की आवाज़ लुट्टन के समान रोमांचित कर देती है और वह मुझे कहता है कि सब भूल जा नाच। वह मुझे तड़-तड़ धा, कहकर मानो लय दे रहा होता है, नाचे के लिए। मैं प्रसन्नता से झूम जाता हूँ।

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Question 2:

कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?

Answer:

कहानी के आरंभ में लुट्टन के माता-पिता चल बसे। सास ने उसका पालन-पोषण किया। कहानी के मध्य में किशोर अवस्था में दंगल जीतकर वह मशहूर पहलवान बन गया। उसकी इस ख्याति ने उसके जीवन को सरल बना दिया। अब हर प्रकार की सुख-सुविधा उसके पास थी। दो जवान बेटों का पिता बन चूका था परन्तु पत्नी स्वर्ग सिधार गई। राजा जी के मरते ही उनके बेटे ने उन्हें अपने यहाँ से जाने के लिए कह दिया। अब जीविका का एकमात्र साधन हाथ से निकल गया। गाँव आकर उसने बेटों के साथ जीना चाहा, तो हैज़े ने गाँव को चपेट में ले लिया। कहानी के अंत में हैज़े की बीमारी से उसके दोनों बेटे मृत्यु को प्राप्त हो गए। आखिर में वह स्वयं भी इस बीमारी का शिकार होकर संसार से चला गया।

Page No 116:

Question 3:

लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?

Answer:

लुट्टन पहलवान जब पहली बार पहलवानी करने दंगल में जाता है, तो एकमात्र ढोल की आवाज़ होती है, जो उसे अपना साहस बढ़ाती नज़र आती है। ढोल की हर थाप में वह एक निर्देश सुनता है, जो उसे अगला दाँव खेलने के लिए प्रेरित करती है। यही कारण है कि लुट्टन पहलवान ढोल को अपना गुरु मानता है।

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Question 4:

गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लुट्टन पहलवान का ढोल क्यों बजाता रहा?

Answer:

'ढोल' लुट्टन को प्रेरणा स्रोत लगता है। यही कारण है कि लुट्टन अपने बेटों को भी पहलवानी सिखाते समय ढोल बजाता है ताकि उसी की भांति वे भी ढोल से प्रेरणा लें। जब उसके गाँव में महामारी फैलती है, तो लोगों की दयनीय स्थिति उसे झकझोर देती है। वह ऐसे समय में ढोल बजाता है, जब मौत की अँधेरी छाया लोगों को भयभीत करके रखती है। रात का समय ऐसा होता है, जब गाँव में अशांति, भय, निराशा और मृत्यु का शोक पसरा रहता है। ऐसे में लुट्टन लोगों के जीवन में प्रेरणा भरता है। अपने बेटों की मृत्यु के समय तथा उनकी मृत्यु के बाद भी गाँव में ढोल बजाता है। उसकी ढोल की आवाज़ लोगों में जीवन का संचार करती है। उन्हें सहानुभूति का अनुभव होता है।

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Question 5:

ढोलक की आवाज़ का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?

Answer:

ढोलक की आवाज़ सुनकर लोगों को प्रेरणा तथा सहानुभूति मिलती थी। मृत्यु के भय से आक्रांत लोग, अर्धचेतन अवस्था में पड़े लोग, जिदंगी से हारे लोग ढोलक की आवाज़ से जी उठते थे। रात की विभीषिका उन्हें आक्रांत नहीं कर पाती थी। जब तक ढोल बजता था उनकी अश्रु से भरी आँखें उसे सुनकर चमक उठती थी। मृत्यु का भय इस आवाज़ से चला जाता था और जीवन का संचार होता था।

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Question 6:

महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में क्या अंतर होता था?

Answer:

सूर्योदय के बाद लोग चाहे कितने दुखी क्यों न हो, मृत्यु का भय उन्हें चाहे सता रहा हो लेकिन एक-दूसरे से बातचीत करते थे। इस हाहाकार में वे एक-दूसरे को सहानुभूति देते तथा मदद करते थे। गाँव में चहल-पहल दिखाई देती थी। बीमारी से ग्रस्त होने के बाद भी दिन का प्रकाश उनके रक्त में संचार भर देता था। सूर्यास्त के बाद दृश्य ठीक इसके विपरीत हो जाता था। सब अपने घरों में चले जाते थे। किसी के बोलने का शब्द नहीं होता था। लोग मरते हुए अपने संबंधी को दो शब्द भी बोल नहीं पाते थे। एकमात्र लुट्टन का ढोल उस विभीषिका को चुनौती देता प्रतीत होता था।

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Question 7:

कुश्ती या दंगल पहले लोगों और राजाओं का प्रिय शौक हुआ करता था। पहलवानों को राजा लोगों के द्वारा विशेष सम्मान दिया जाता था-

(क)  ऐसी स्थिति अब क्यों नहीं है?

(ख) इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है?

(ग) कुश्ती को फिर से प्रिय खेल बनाने के लिए क्या-क्या कार्य किए जा सकते हैं?

Answer:

(क) क्योंकि अब राजाओं का राज नहीं है। अब ऐसे दंगल भी नहीं होते हैं।

(ख) इसकी जगह अब क्रिकेट, कुश्ती, हॉकी इत्यादि ने ले ली है।

(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में इसे बढ़ावा देने के प्रयास किए जाने चाहिए। पहलवानों को विकसित करने के लिए उन्हें आवश्यक सुविधाएँ देनी चाहिए।

Page No 116:

Question 8:

आशय स्पष्ट करें-
आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।

Answer:

लुट्टन के गाँव में महामारी फैल गई थी। इस कारण उनके गाँव में रात भी बहुत भयानक प्रतीत होती थी। ऐसे समय में लेखक ने रात के दृश्य का वर्णन किया है। लेखक कहता है कि रात में आकाश में तारों का टूटना स्पष्ट दिखाई देता है। यदि आकाश से कोई तारा टूटकर गिरता है, तो अँधेरे के साम्राज्य में उसका प्रकाश तथा शक्ति समाप्त हो जाती थी। ऐसा जान पड़ता था कि मानो बाकी तारे उसके प्रयास में उसका मज़ाक उड़ा रहे हों।

Page No 116:

Question 9:

पाठ में अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। पाठ में से ऐसे अंश चुनिए और उनका आशय स्पष्ट कीजिए।

Answer:

मानवीकरण के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

(क) मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था।

गाँव भर में मलेरिया तथा हैज़ा फैला पड़ा था। लोग मर रहे थे।

(ख) अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी।

ऐसा लगता था मानो रात रो रही हो।

(ग) आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा

तारे को मनुष्य के समान भावुक दिखाया है। तारे का टूटकर गिरने का वर्णन है।

(घ) अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।

यहाँ तारों को मज़ाक उड़ाते दिखा गया है।

(ङ) रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती

रात्रि को मनुष्य के समान चलता हुआ दिखा गया है।

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Question 1:

पाठ में मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव की दयनीय स्थिति को चित्रित किया गया है। आप किसी ऐसी अन्य आपद स्थिति की कल्पना करें और लिखे कि आप ऐसी स्थिति का सामना कैसे करेंगी/करेंगे?

Answer:

मैं पिछले महीने अपने चाचा की शादी के लिए काशीपुर में आई थी। जून का अंतिम सप्ताह था। गर्मी का मौसम था। हमने सोचा भी नहीं था कि इस मौसम में बारिश होगी। परन्तु हमारे पहुँचने के बाद यहाँ लगातार अट्ठारह घंटे वर्षा होने लगी इस वर्षा ने गंगा का जलस्तर बढ़ा दिया। गंगा नदी में बाढ़ आ गई। इसका परिणाम यह हुआ की गंगा का पानी बहकर काशीपुर में घुस गया। हम चूंकि नदी के किनारे बसे मकानों पर नहीं रहे थे। इसलिए हम बच गए। वर्षा लगातार होने से गंगा का जल स्तर कम नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे पानी नदी के तटबंधों को तोड़ता हुआ शहर में घुसना आरंभ हो गया। हम पहले से ही सुरक्षित स्थानों में थे। गंगा का पानी विकराल रूप धारण करता हुआ बढ़ रहा था। उसके रास्ते में जो भी आ रहा था, वह उसे भयानक राक्षस की तरह निगल रहा था। पानी ने धीरे-धीरे किनारे में खड़ी सारी इमारतों  को निगलना आरंभ किया। उसे देखकर देखने वालों की साँसे थम गई। पानी का भयानक रूप इससे पहले कभी किसी ने नहीं देखा था। वह स्थिति प्रलय से कम नहीं थी। हम इस दृश्य को देखते ही रह गए। लगातार वर्षा ने हमारे शहर को पूरे देश से काट दिया। एक महीने तक हम यहाँ फंसे रह गए। इन दिनों में यहाँ के हालात बहुत ही खराब हो चुके थे। नदी ने शहर के बाहरी हिस्सों को नष्ट कर डाला था। दुकानें और होटल बह चुके थे। लोग आर्थिक हानी से परेशान बैठे रो रहे थे। पानी के कम होने के बाद चारों ओर कीचड़ तथा गंदगी का राज था। नदी के साथ लाशें बहकर आई थीं। उनके जगह-जगह ढेर लग गए। चारों तरफ बदबू का वातावरण था। मच्छर, मक्खी आदि का प्रकोप फैला हुआ था। मलेरिया, डेंगू, डायरिया इत्यादि ने शहर में पकड़ बना ली थी। ऐसे में पिताजी ने स्थिति भाँप ली थी। अतः वे आवश्यक दवाइयाँ तथा सामान ले आए थे। हमने पूरे कपड़े पहने तथा पैरों में जुराबें पहनकर रखी। इस तरह हमने डेंगू तथा मलेरिया से बचाव किया। खाना बनाते समय विशेष ध्यान रखते थे। घर की सफ़ाई रखते। मच्छरों से बचने के लिए हमने गली की सफाई करवाई तथा दवाई डालवाई।

Page No 116:

Question 2:

ढोलक की थाप मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी- कला से जीवन के संबंध को ध्यान में रखते हुए चर्चा कीजिए।

Answer:

कला मनुष्य के साथ आज से ही नहीं आरंभ काल से ही विद्यमान है। यही कारण है कि आप किसी पुरानी जन-जाति को ही ले लें। उनके अपने नृत्य तथा संगीत विद्यमान है। कला जीवन के कठिन समय में राहत देती है। मनुष्य का खाली समय कला साधना में ही बितता है। वह ऐसा कुछ सुनना चाहता है, तो उसकी आत्मा तक के तारों को झनझना दे। कला जीवन में प्रेरणा, आनंद तथा रोमांच भर देती है। कुछ लोग तो जीवन भर कला की साधना करने में निकाल देते हैं। कला के विभिन्न रूप हैं। एक में हम चित्रकारी, मूर्तिकारी आदि करते हैं। दूसरी संगीत साधना कला कहलाती है। इसमें हम वाद्य यंत्र, संगीत तथा नृत्य करते हैं। यह किसी न किसी रूप में हमें आनंद का अनुभव कराती है।

Page No 116:

Question 3:

चर्चा करें- कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का मोहताज़ नहीं है।

Answer:

बहुत सुंदर पंक्ति है कि कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का मोहताज़ नहीं है। कला मनुष्य के हृदय का बहुत भीतरी अंग है। इसे मनुष्य ने कहीं से सीखा नहीं है बल्कि स्वयं ही मनुष्य के दुखी या आनंदित हृदय से उपजी है। अतः जब मनुष्य सभ्य नहीं था, तब भी यह मनुष्य के साथ थी। कला को व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए तो बस लगन की आवश्यकता है। सच्चे भाव की आवश्यकता है। जहाँ भाव होता है, यह वहीं विकसित हो जाती है। यह तो आज के मनुष्य ने इसे व्यवस्था में बाँधने की कोशिश की है। यदि गौर करें, तो यह स्वयं पैदा हो जाती है।

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Question 1:

हर विषय, क्षेत्र, परिवेश आदि के कुछ विशिष्ट शब्द होते हैं। पाठ में कुश्ती से जुड़ी शब्दावली का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उन शब्दों की सूची बनाइए। साथ ही नीचे दिए गए क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाले कोई पाँच-पाँच शब्द बताइए-

चिकित्सा
क्रिकेट
न्यायालय
या अपनी पसंद का कोई क्षेत्र

Answer:

• चिकित्सा- बीमारी, जाँच, औषधि, चिकित्सक, परीक्षण
• क्रिकेट- रन, विकेट, आउट, कैच, किल्ली
• न्यायालय- वकील, अपराधी, केस, पेशी, कारावास
• शिक्षा-  छात्र-छात्राएँ, विद्यालय, पुस्तकालय, पढ़ाई, अध्यापक।

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Question 2:

पाठ में अनेक अंश ऐसे हैं जो भाषा के विशिष्ट प्रयोगों की बानगी प्रस्तुत करते हैं। भाषा का विशिष्ट प्रयोग न केवल भाषाई सर्जनात्मकता को बढ़ावा देता है बल्कि कथ्य को भी प्रभावी बनाता है। यदि उन शब्दों, वाक्यांशों के स्थान पर किन्हीं अन्य का प्रयोग किया जा तो संभवतः वह अर्थगत चमत्कार और भाषिक सौंदर्य उद्घाटित न हो सके। कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं-

• फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा।
• राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए।
• पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी।

इन विशिष्ट भाषा-प्रयोगों का प्रयोग करते हुए एक अनुच्छेद लिखिए।

Answer:

गोपाल ने कुश्ती के मैदान पर अपने विरोधी को पहले स्नेह-दृष्टि से देखा और प्रणाम किया। सीटी बजते ही वह प्रतिद्ंवद्वि पर बाज़ की तरह टूट पड़ा। उसने अपने विरोधी को इस प्रकार पछाड़ा कि इस जीत से उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लग गए। उसे इस जीत की प्रसन्नता तो थी परन्तु दुख भी था क्योंकि उसकी यह प्रसिद्धि सुनने से पहले उसकी माताजी स्वर्ग सिधार गई।

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Question 3:

जैसे क्रिकेट की कमेंट्री की जाती है वैसे ही कुश्ती की कमेंट्री की गई है? आपको दोनों में क्या समानता और अंतर दिखाई पड़ता है?

Answer:

समानता- क्रिकेट में बल्लेबाज़ पर सबकुछ निर्धारित रहता है। अतः कुश्ती में भी पहलवान पर सबका ध्यान रहता है। कुश्ती कमेंट्री करते समय पहलवान के बारे में बताया जाता है, क्रिकेट में बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ के बारे में बताया जाता है। कुश्ती में उसके चेहरे के भाव और उठाए गए कदम के बारे में बताया जाता है, क्रिकेट में बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ के चेहरे और भाव के बारे में बताया जाता है।

अंतर- क्रिकेट में जब बल्लेबाज़ बॉल को मार देता है, तो फिर खेल बॉल पर निर्भर करती है। अतः कमेंट्री में गेंद और अन्य खिलाड़ी जो उसके पीछे भागते हैं, उनकी प्रतिक्रिया बतायी जाती है। लेकिन कुश्ती करते हुए पहलवान के दाँव-पेच पर निर्भर होता है। वह जैसा दाँव मारेगा वैसा ही उसे फल मिलेगा। अतः यहाँ कमेंट्री दोनों पर ही आधारित होती है। अन्य किसी के बारे में नहीं बताया जाता है।

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Question 1:

लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा?

Answer:

चार्ली चैप्लिन अपने समय के ऐसे कलाकार थे, जिनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यह उनकी महानता का सूचक है कि इतने वर्षों में भी लोग उन्हें देखना और उनके बारे में जानना पसंद करते हैं। एक सदी बीत जाने पर भी लोग उनके बारे में कहते रहे हैं, कहते रहेंगे। अब भी ऐसा बहुत कुछ है, जो उनके बारे में कहने के लिए लोगों को विवश करता है। उनके ऐसे कार्य के बारे में बीते वर्षों में और बहुत सी जानकारियाँ प्राप्त हुईं, जो किसी को नहीं थीं। इनके विषय में जाँच-पड़ताल की जाएगी। लोगों को अब और बहुत कुछ कहने के लिए मिलेगा। इसलिए लेखक ने कहा है कि आने वाले 50 वर्षों तक उनके बारे में बहुत कुछ कहा जाएगा।

Page No 125:

Question 2:

चैप्लिन ने न सिर्फ़ फ़िल्म-कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा। इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने का और वर्ण-व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है? क्या आप इससे सहमत हैं?

Answer:

चैप्लिन की फ़िल्में ऐसी थीं, जो हर वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गईं और हर दर्शक की पहुँच उस फ़िल्म तक संभव थी। जिस कारण इनकी फिल्मों से हर वर्ग जुड़ता चला गया। इसमें गरीब, मज़दूरों तथा निम्नवर्गों के लोगों को केंद्रित किया गया। उनकी समस्याओं, दुखों, खुशियों इत्यादि को इन फ़िल्मों में स्थान मिला। इस तरह फ़िल्म उच्चवर्ग का मनोरंजन का साधन मात्र नहीं रह गई थी। इसने आम जनता को भी मिलाया और लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास किया। इनकी फ़िल्मों ने वर्ण व्यवस्था को हटाने का पूरा प्रयास किया। अतः हम कह सकते हैं कि इनकी फ़िल्में लोकतांत्रिक बनाने और वर्ण-व्यवस्था को तोड़ने में सफल रही थी। यदि ऐसी फ़िल्में नहीं बनती तो आज भी समाज में असमानता कायम रहती। ये ऐसी सफल फ़िल्में थी, जिनसे उच्चवर्ग, मध्यमवर्ण तथा निम्नवर्ग को सोचने पर विवश किया। समाज में व्याप्त असमानता, विसंगतियों, भेदभावों पर प्रहार कर समाज में लोकतंत्र स्थापित किया और उसे जीने योग्य बनाया।

Page No 125:

Question 3:

लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण किसे कहा और क्यों? गांधी और नेहरू ने भी उनका सान्निध्य क्यों चाहा?

Answer:

लेखक ने राजकूपर को चार्ली का भारतीयकरण कहा है। राजकूपर ने चार्ली से प्रभावित होकर मेरा नाम जोकर, आवारा जैसी फ़िल्में बनाईं। इन्होंने न केवल चार्ली जैसे किरदार को परदे पर पुनः जीवंत किया बल्कि उसे सफल भी बनाया। भारतीय दर्शकों द्वारा इसे प्रसन्नता से स्वीकार किया गया। चार्ली ऐसे व्यक्ति थे, जिनमें लोगों को हँसाने और प्रसन्न रखने का गुण विद्यमान था। यही कारण था कि नेहरू तथा महात्मा गाँधी जैसे लोग भी उनका सान्निध्य चाहते थे।

Page No 125:

Question 4:

लेखक ने कलाकृति और रस के संदर्भ में किसे श्रेयस्कर माना है और क्यों? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जहाँ कई रस साथ-साथ आए हों?

Answer:

लेखक के अनुसार रस अधिक श्रेयस्कर होते हैं। वह एक कलाकृति को जीवंत बना देते हैं। यदि रस किसी कलाकृति में विद्यमान नहीं है, तो कलाकृति बेजान हो जाती है। अतः रस श्रेयस्कर हैं। कालिदास की रचना अभिज्ञानशकुन्तलम् ऐसी ही एक कृति हैं, जिसमें कई रस एक साथ आकर इसे सुंदर और विशिष्ट बना देते हैं। इसमें श्रृंगार, वीर, शांत, करुण, रौद्र इत्यादि रसों का समावेश है। अपनी इसी कृति के कारण कालिदास सदा के लिए अमर हो गए हैं।

Page No 125:

Question 5:

जीवन की जद्दोजहद न चार्ली के व्यक्तित्व को कैसे संपन्न बनाया?

Answer:

चार्ली का जीवन बचपन से ही विषमताओं और कष्टों से भरा हुआ था। उनके पिता ने उन्हें बहुत ही छोटी उम्र में छोड़ दिया था। माँ मानसिक रोगी थीं। उनके पागलपन ने उन्हें अचानक ही कष्टों के मध्य ला खड़ा किया। एक तरफ़ गरीबी तथा दूसरी तरफ़ पागल माँ। शीघ्र ही उन्हें उस समय व्याप्त पूंजीपति वर्ग द्वारा किए गए शोषण का भी शिकार होना पड़ा। उनकी नानी खानाबदोश थी और पिता यहूदी थे। इन विशेषताओं के कारण वह घुमंतू स्वभाव के बने थे और जीवन को नजदकी से देखा। जीवन में जटिलता बचपन से ही थी, जो आगे चलकर बढ़ती चली गई। लेकिन इनसे चार्ली पर बुरा असर नहीं पड़ा और उनका व्यक्तित्व ऐसे ही निखरता गया जैसे सोना घिसकर चमक जाता है। कष्टों ने उन्हें जीवन की बहुत अच्छी समझ दी। इसका यह प्रभाव पड़ा कि उनमें जीवन मूल्य कूट-कूटकर विद्यमान हो गए। आगे चलकर इन्हीं जीवन मूल्यों ने उनके व्यक्तित्व को संपन्न बनाया।

Page No 125:

Question 6:

चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में निहित त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की  परिधि में क्यों नहीं आता?

Answer:

भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में त्रासदी और करुणा को जीवन का अभिन्न अंग माना जाता है। यह सही भी है। त्रासदी और करुणा हर किसी के जीवन में विद्यमान होती है। हास्य मात्र मनोरंजन का साधन होता है, जो कभी कभार जीवन में आकर उसे हल्का बना देता है। यही कारण है कि इसे हमारी रचनाओं में दूसरों को हँसाने मात्र का साधन ही माना गया है। जब हम प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, तो हमें त्रासदी और करुणा का सामंजस्य तो देखने को मिलता है लेकिन हास्य का समावेश मात्र विदूषक तक रह जाता है। वह अपनी चेष्टाओं से कुछ क्षण के लिए लोगों में हास्य का भाव पैदा करता है लेकिन कथा पुनः त्रासदी और करुणा के भाव में डूब जाती है। हम हास्य को जीवन का अंग नहीं मानते क्योंकि हम दूसरों या स्वयं पर हँसना श्रेयकर नहीं समझते हैं। यही कारण है कि त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य हमारे यहाँ देखने को नहीं मिलता है।

Page No 125:

Question 7:

चार्ली सबसे ज़्यादा स्वयं पर कब हँसता है?

Answer:

चार्ली स्वयं पर हँसकर लोगों को यह बताता है कि वह अपना मज़ाक नहीं उड़ा रहा है। वह अपनी गर्व की भावना, अपने प्रति सम्मान की भावना, अपनी सफलता, अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति प्रेम तथा अपनी श्रेष्ठता को दूसरों को दिखाने के उद्देश्य से स्वयं पर हँसता है। उसकी हँसी मज़ाक का कारण नहीं है, उसकी हँसी सम्मान का कारण है। प्रायः लोग दूसरों पर तब हँसते हैं, जब वह मज़ाक उड़ाते हैं। लेकिन चार्ली तब हँसता है, जब वह अपने श्रेष्ठता सिद्ध कर देता है। वह इस हँसी के माध्यम से उन सभी मानदंडों तो धराशायी कर देता है, जो मनुष्य को उपहास का कारण बना डालते हैं।

Page No 125:

Question 1:

आपके विचार से मूक और सवाक् फ़िल्मों में से किसमें ज़्यादा परिश्रम करने की आवश्यकता है और क्यों?

Answer:

हमारे विचार से मूक फ़िल्मों में ज़्यादा परिश्रम करने की आवश्यकता होती है। प्रायः हम अपने भावों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर देते हैं। इससे भावों को पहचानने में सफलता मिलती है। लेकिन मूक फ़िल्मों में ऐसा नहीं होता है। यहाँ दर्शकों को अपने चेहरे में उठने वाले भावों से समझाना होता है कि अभिनेता या अभिनेत्री क्या कहना चाहते हैं। यहाँ अपने चेहरे पर उठने वाले भावों तथा अपनी शारीरिक चेष्टाओं के माध्यम से दर्शकों को समझाना होता है। अतः इसमें परिश्रम अधिक लगता है।

Page No 125:

Question 2:

सामान्यतः व्यक्ति अपने ऊपर नहीं हँसते, दूसरों पर हँसते हैं। कक्षा में ऐसी घटनाओं का ज़िक्र कीजिए जब-

(क) आप अपने ऊपर हँसे हों;

(ख) हास्य करुणा में या करुणा हास्य में बदल गई हो।

Answer:

(क) बात उस समय की है, जब हम कक्षा में अध्यापिका का जन्मदिन मनाने के लिए केक लेकर आए थे। मैंने किसी को केक लेकर नहीं जाने दिया कि कहीं कोई केक गिरा न दे। बात तब हास्यपद बन गई, जब  मैं स्वयं केक लेकर गिर पड़ा। केक जमीन पर गिरा ही नहीं बल्कि में भी उसके ऊपर गिर पड़ा। सारा केक मेरे मुँह और कपड़ों में लग गया। यह ऐसा किस्सा था कि जब मैं खड़ा हुआ तो स्वयं ही ज़ोर-ज़ोर की हँसने लगा।

(ख) हम सब मित्र एक चुटकुले पर हँस रहे थे। हमारे एक मित्र के हाथ पर नुकीली पेंसिल थी। हँसते-हँसते पता नहीं क्या हुआ मेरे मित्र का हाथ उसके मुँह में चला गया और पेंसिल उसके गाल में घुस गई। उसका गाल लहुलूहान हो गया। सारा माहौल हास्य से करुणा में बदल गया।

Page No 125:

Question 3:

चार्ली हमारी वास्तिवकता है, जबकि सुपरमैन स्वप्न आप इन दोनों में खुद को कहाँ पाते हैं?

Answer:

मैं स्वयं को चार्ली में पाता हूँ। जीवन में करुणा और त्रासदी का खेल चलता रहता है। हम कभी परेशानियों के समय पर रोते हैं, तो कभी हँसते हैं। सुपरमैन टी.वी. पर देखने में अच्छा लगता है लेकिन असल ज़िदगी से उसका कोई लेना-देना नहीं है। चार्ली जीवन के बहुत समीप है। वह हमारी तरह हँसता है, रोता है, परेशान होता है, समस्याओं का हल निकालने का प्रयास करता है, कभी-कभी तंग आकर बैठ जाता है और फिर हिम्मत बटोर कर उठ खड़ा होता है। सुपरमैन में हर घटना तथा स्थिति कल्पना के आधार पर बनाई जाती है। असल ज़िंदगी से इनका कोई वास्ता नहीं है।

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Question 4:

भारतीय सिनेमा और विज्ञापनों ने चार्ली की छवि का किन-किन रूपों में उपयोग किया है? कुछ फ़िल्में (जैसे आवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर, मिस्टर इंडिया और विज्ञापनों (जैसी चैरी ब्लॉकसम)) को गौर से देखिए और कक्षा में चर्चा कीजिए।

Answer:

भारतीय सिनेमा और विज्ञापनों ने चार्ली को विभिन्न रुपों में चित्रित किया है। यहाँ कहीं चार्ली जोकर  है, तो कहीं आवारा आदमी है, तो कहीं दूसरों की सहायता करने वाला अदृश्य व्यक्ति है।

Page No 126:

Question 5:

आजकल विवाह आदि उत्सव, समारोहों एवं रेस्तराँ में आज भी चार्ली चैप्लिन का रूप धरे किसी व्यक्ति से आप अवश्य टकराए होंगे। सोचकर बताइए कि बाज़ार ने चार्ली चैप्लिन का कैसा उपयोग किया है?

Answer:

मुझे एक बार मॉल में जाने का अवसर मिला था। मैं अपनी माँ के साथ चल रहा था कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ा। मैं उसे देखकर घबरा गया। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक दुकान की ओर ले गया। वह जुतों की बहुत बड़ी दुकान थी, जहाँ चार्ली ने मुझे अपने जूते दिखाए और जूते खरीदने का अनुरोध किया। दुकानदार ने चार्ली का उपयोग जुते बेचने के लिए किया था। इस तरह लोग बहुत प्रकार से चार्ली का प्रयोग करते हैं। रेस्टोरेंट इत्यादि के बाहर भी आपको ये मिल जाएँगे। लोगों ने एक प्रसिद्ध व्यक्ति को सामान बेचने वाला बना दिया है। चार्ली के साथ यह अन्याय है। चार्ली सामान बेचने के साधन नहीं है। यह वह पात्र है, जो दुखी चेहरे में हँसी के भाव ला सकता है। लोग इसे व्यवसायिक तौर पर प्रयोग करके पैसा कमा रहे हैं।

Page No 126:

Question 1:

........ तो चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है। वाक्य में चार्ली शब्द की पुनरुक्ति से किस प्रकार की अर्थ-छटा प्रकट होती है? इसी प्रकार के पुनरुक्त शब्दों का प्रयोग करते हुए कोई तीन वाक्य बनाइए। यह भी बताइए कि संज्ञा किन स्थितियों में विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगती है?

Answer:

(क) मैं शर्म से पानी-पानी हो गया।

(ख) मैं डाल-डाल तू पात-पात।

(ग) घर-घर की यही कहानी है।

Page No 126:

Question 2:

नीचे दिए वाक्यांशों में हुए भाषा के विशिष्ट प्रयोगों को पाठ के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

(क) सीमाओं से खिलवाड़ करना

(ख) समाज से दुरदुराया जाना

(ग) सुदूर रूमानी संभावना

(घ) सारी गरिमा सुई-चुभे गुब्बारे जैसे फुस्स हो उठेगी।

(ङ) जिसमें रोमांस हमेशा पंक्चर होते रहते हैं।

Answer:

(क) हमें सीमाओं में रहना चाहिए, उनके साथ छेड़छाड़ करना अच्छा नहीं होता है।

(ख) चार्ली चेप्लिन को समाज के द्वारा दुरदुराया गया।

(ग) चार्ली के बारे में जानने के लिए सुदूर रूमानी संभावना व्यक्त हुई है।

(घ) सारा गर्व ऐसे निकल गया मानो किसी ने गुब्बारे में सुई मार दी गई हो और फुस्स करके उसकी सारी हेकड़ी निकल गई हो।

(ङ) रोमांस हमेशा समाप्त हो जाता है।

Page No 126:

Question 1:

(क) दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है।

(ख) कला में बेहतर क्या है- बुद्धि को प्रेरित करने वाली भावना या भावना को उकसाने वाली बुद्धि?

(ग) दरअसल मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, क्लाउन, जोकर या साइड किक है।

(घ) सत्ता, शक्ति, बुद्धिमता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्ष में जब हम आईना देखते हैं, तो चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है।

(ङ) मॉर्डन टाइम्स द ग्रेट डिक्टेटर आदि फ़िल्में कक्षा में दिखाई जाएँ और फ़िल्मों में चार्ली की भूमिका पर चर्चा की जाए।

Answer:

(क) कला का जन्म पहले होता है। उसक बाद उसके सिद्धांत बनते हैं। सिद्धांत पहले बनाकर कला को विकसित नहीं किया जा सकता है। कला तो मनुष्य के हृदय के भावों से उपजी है। वह पहले विकसित होती है तथा बाद में अपने सिद्धांतों को स्वयं बनाती है।

(ख) कला में बेहतर है भावना को उकसाने वाली बुद्धि। क्योंकि कला का संबंध भावना से है।

(ग) मनुष्य को ईश्वर ने अपना जोकर बनाकर भेजा है।

(घ) बिलकुल सही है। एक ऐसा मनुष्य जिसके पास सत्ता हो, उसे चलाने की शक्ति विद्यमान हो, बुद्धि का साथ हो, इसके अतिरिक्त वह प्रेम और पैसे से संपन्न हो, तब हम स्वयं को चार्ली के रूप में देखते हैं। वह ऐसी स्थिति में हँसता है।

(ङ) चार्ली की भूमिका स्वयं एक शिक्षा है, जो हमे सिखाती है कि कठिन से कठिन समय में हमें कैसे चलना चाहिए। जीवन में संघर्ष और कठिनाइयाँ विद्यमान है। यदि हम उस समय स्वयं को संयंत करने नहीं चलेंगे, तो मुँह की खाएँगे। उनकी फ़िल्में हमें सचाई और उस सचाई को सहना तथा उसमें प्रसन्नतापूर्वक जीना सिखाती है।

Page No 137:

Question 1:

सफ़िया के भाई ने नमक की पुड़िया ले जाने से क्यों मना कर दिया?

Answer:

साफ़िया के भाई के अनुसार लाहौरी नमक पाकिस्तान से बाहर ले जाना कानून जुर्म था। अतः वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते थे, जिसे कानून गलत ठहराए। उन्होंने इसी कारण से अपनी बहन को नमक ले जाने से मना किया। वह नहीं चाहते थे कि उनकी बहन पर किसी तरह की मुसीबत आए।

Page No 137:

Question 2:

नमक की पुड़िया ले जाने के संबंध में सफ़िया के मन में क्या द्वंद्व था?

Answer:

सफ़िया को जब पता चला कि पाकिस्तान से नमक ले जाना कानून जुर्म है, तो वह द्वंद्व में पड़ गई। एक तरफ़ नमक उसके लिए ले जाना आवश्यक था। दूसरी तरफ़ वह कानून की मुज़रिम नहीं बनना चाहती थी। उसके लिए यह नमक एक माँ के लिए प्रेम की सौगात थी। वह उसे छिपाकर नहीं ले जाना चाहती थी। वह प्रेम की सौगात को जुर्म के रूप में नहीं बल्कि सम्मान के साथ ले जाना चाहती थी। उसे लग रहा था कि इतना-सा नमक ले जाना जुर्म नहीं है यदि वह बता दे, तो शायद उसे ले जाने दिया जाएगा। दूसरे ही पल उसे लगता था कि यदि वह उसे मना कर दें, तो वह एक माँ का दिल तोड़ देगी। इस बात को लेकर उसके मन में द्वंद्व की स्थिति बन गई।

Page No 137:

Question 3:

जब सफ़िया अमृतसर पुल पर चढ़ रही थी तो कस्टम ऑफ़िसर निचली सीढ़ी के पास सिर झुकाए चुपचाप क्यों खड़े थे?

Answer:

सफ़िया की बातों ने उन्हें अपना वतन याद दिला दिया था। वे सफ़िया को जाते देख रहे थे। उसके रूप में वे स्वयं को वतन जाते देख रहे थे। सफ़िया उनके वतन की यादों के रूप में उनके साथ जा रही थी। अतः उसे जाता हुआ देखकर वे चुपचाप सिर झुकाए खड़े हुए थे।

Page No 137:

Question 4:

लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा या मेरा वतन ढाका है  जैसे उद्गार किस सामाजिक यथार्थ का संकेत करते हैं।

Answer:

यह वह सामाजिक यथार्थ की ओर संकेत दे रहे हैं, जिनके कारणों से एक मनुष्य को विस्थापन के दर्द से गुजरना पड़ता है। किसी-न-किसी कारण से लोगों को विस्थापन का दर्द लेकर उम्रभर गुजरना पड़ता है। अपने निवासस्थान को छोड़ने का कारण राजनैतिक रहा हो या कोई ओर लेकिन इसका दर्द आम इंसान के ही हिस्से आता है। यदि यह कार्य किसी प्रकृति आपदा के कारण आया हो, तो मनुष्य इस दर्द से छुटकारा पा सकता है। लेकिन जब यह मनुष्यों द्वारा ही किया जाए, तो उसका दर्द उन्हें उम्रभर सताता रहता है।

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Question 5:

नमक ले जाने के बारे में सफ़िया के मन में उठे द्वंद्वों के आधार पर उसकी चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।

Answer:

नमक ले जाने के बारे में सफ़िया के मन में द्वंद्व की स्थिति बन गई थी। इससे उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताओं का पता चलता है-

(क) ईमानदार- सफ़िया एक ईमानदार स्त्री थी। वह अपने प्रेम की सौगात को पूरे सम्मान से साथ ले जाना चाहती थी। उसके लिए प्रेम की वस्तु के साथ गलत कार्य करना उचित नहीं था।

(ख) कानून के प्रति सम्मान- सफ़िया कानून का आदर करती थी। यही कारण है कि वह अपने साथ पुड़िया छिपाकर ले जाने में हिचकिचा रही थी। वह चाहती थी कि वह गलत नहीं कर रही है। अतः कानून उसकी भावनाओं को समझेगा। यही कारण है कि वह नमक की पुड़िया को अफसरों के सामने रख देती है।

(ग) विचारशील- वह एक विचारशील स्त्री थी। सही-गलत के मायने उसे पता थे। वह कार्य को करने से पहले उसके विषय में यह निश्चित कर लेना चाहती थी कि वह जो कर रही है, वह सही है या नहीं है।

(घ) ज़ुबान की पक्की- सफ़िया ज़ुबान की पक्की स्त्री थी। अपनी ज़ुबान की बात को वह झुठला देने में विश्वास नहीं रखती थी। वह अफ़सरों के सामने भी अपनी बात रखने से नहीं डरती। अपने वादे को पुरा करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती थी।

(ङ) दृढ़ निश्चयी- सफ़िया एक दृढ़-निश्चयी स्त्री थी। भाई द्वारा कानून का डर दिखाए जाने पर भी वह अपने निश्चय से हिलती नहीं है।

(च) निर्भीक- सफ़िया एक निर्भीक स्त्री थी। वह अपने वादे को पूरा करने के लिए निर्भीक होकर अफ़सरों के सामने खड़ी हो जाती है। वह जानती है कि वह कोई गलत काम नहीं कर रही है। अतः उसे डरने की आवश्यकता नहीं है।

(छ) रिश्तों के प्रति संवेदनशील- सफ़िया रिश्तों के प्रति संवेदनशील स्त्री है। वह रिश्तों की अहमियत को समझती है और उनको निभाने के लिए किसी भी हद तक जाती है।

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Question 6:

मानचित्र पर एक लकीर खींच देने भर से ज़मीन और जनता बँट नहीं जाती है- उचित तर्कों व उदाहरणों के ज़रिये इसकी पुष्टि करें।

Answer:

यह बहुत सुंदर पंक्ति है कि मानचित्र पर एक लकीर खींच देने भर से ज़मीन और जनता बँट नहीं जाती है। लकीर मानचित्र पर पड़ती है दिलों पर नहीं। दिल लकीर को नहीं  मानता वह तो बस प्रेम, लगाव तथा अपनेपन को मानता है। प्रस्तुत पाठ में सिख बीबी, पाकिस्तान के कस्टम अफ़सर तथा अमृतसर के कस्टम अफ़सर इस बात का प्रमाण है। वे सब उन स्थानों को अपना मानते हैं, जहाँ आज वे रहते नहीं हैं। उनका दिल तो वहीं पर रह गया है, जहाँ उनका जन्म हुआ, जहाँ उन्होंने अपना बचपन तथा जवानी निकाली थी। सिख बीबी आज भारत में थी लेकिन अपना दिल पाकिस्तान के लाहौर में छोड़ आई थीं। वे सीमाओं को नहीं मानती। आज भी पाकिस्तान में मिलने वाले लाहौरी नमक में उनकी आत्मा बस गई है। नमक तो शायद भारत में भी मिल सकता था लेकिन उनके लिए असली नमक तो लाहौर में मिलने वाला था। ऐसे ही पाकिस्तान के कस्टम अफ़सर अवश्य पाकिस्तान में रह रहे थे लेकिन उनके लिए उनका असली वतन देहली था। सिख बीबी को बुजुर्ग माना जा सकता है लेकिन पाकिस्तान के कस्टम अफ़सर तो इतने बुजुर्ग नहीं थे। ऐसे ही अमृतसर के कस्टम अफ़सर के लिए उनका असली वतन ढाका था। इन सभी बातों से पता चलता है कि मानचित्र पर लकीर खींच देने से सही में जनता तथा जमीन नहीं बँट जाते हैं। वह दिलों में तथा स्थानों में यादें बनकर रह जाती हैं।

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Question 7:

नमक कहानी में भारत व पाक की जनता के आरोपित भेदभावों के बीच मुहब्बत का नमकीन स्वाद घुला हुआ है, कैसे?

Answer:

हम अगर बाहरी आवरण को देखें, तो हम पाएँगे कि भारत व पाक की जनता में भेदभाव की भावना विद्यमान है। यह सच्चाई नहीं है। कुछ स्वार्थी लोगों ने अपने स्वार्थों के लिए यहाँ की जनताओं पर यह भेदभाव आरोपित किया हुआ है। हकीकत ठीक इसके विपरीत है। देश के विभाजन के समय लोगों को विवश होकर जाना पड़ा था। उनके गली-मोहल्ले, पड़ोसी, मित्र, घर, खेत-खलिहान सब पीछे छूट गए थे। उनकी यादें उनके मन में हमेशा विद्यमान रहीं। सिख बीबी, पाकिस्तान तथा अमृतसर के कस्टम अफ़सर इसका प्रमाण हैं। उनके दिलों में आज भी मुहब्बत का नमकीन स्वाद घुला हुआ है। जब तक वे जिंदा रहेंगे, वह ऐसे ही विद्यमान रहेगा। उसे कोई असामाजिक ताकत मिटा नहीं सकती है।

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Question 1:

क्या सब कानून हुकूमत के ही होते हैं, कुछ मुहब्बत, मुरौवत, आदमियत, इंसानियत के नहीं होते?

Answer:

ऐसा इसलिए कहा गया है ताकि यह बताया जा सके कि कानून सब कुछ नहीं होते हैं। कानून से बढ़कर भी मुहब्बत तथा इंसानियत होती है। जिसमें एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के लिए कुछ करने को प्रेरित हो जाता है। लेखिका का भाई जब अपनी बहन को लाहौरी नमक यह कहकर ले जाने के लिए मना कर देता है कि यह कानून जुर्म है, तो लेखिका उसे यह बात बताती है। वह भाई को समझना चाहती है कि मनुष्य मात्र कानून का गुलाम नहीं है। कानून का आदर-सम्मान सबको करना चाहिए। लेकिन जब बात प्रेम और इंसानियत की हो तो उसे इन्हें छोड़ देना चाहिए।

Page No 138:

Question 2:

भावना के स्थान पर बुद्धि धीरे-धीरे उस पर हावी हो रही थी।

Answer:

लेखिका सिख बीबी के प्रेम के वशीभूत होकर नमक पाकिस्तान से भारत ले जाने को विवश थी। भाई द्वारा यह बताए जाने पर कि लाहौरी नमक भारत ले जाना अपराध है, लेखिका उसे अपने तर्कों से चुप करवा देती है। लेकिन जब वह इस विषय पर सोचती है, तो पाती है कि भाई सही कह रहा है। 'भावना' बुद्धि के तर्कों के आगे दबने लगती है। अब वह समझ जाती है कि नमक को सामने से ले जाना कठिन हो जाएगा। अतः वह नमक को छिपा कर ले जाने की सोचती है। अतः इससे पता चलता है कि भावना के स्थान पर वह बुद्धि का प्रयोग करने लगती है।

Page No 138:

Question 3:

मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह से गुज़र जाती है कि कानून हैरान रह जाता है।

Answer:

यह वाक्य कानून की मुहब्बत के आगे अहमियत दर्शाने के लिए किया गया। पाकिस्तान कस्टम अॉफ़िसर के माध्यम से यह बताया गया है। मुहब्बत की अहमियत इतनी है कि यह किसी कानून को नहीं देखती है। पाकिस्तान कस्टम अॉफ़िसर लेखिका को नमक ले जाने देता है। वह कानून को भूल जाता है। बस उसे याद रहता है तो लेखिका का ज़स्बा और अपना वतन देहली। जहाँ प्रेम हो, वहाँ कानून की पूछ न के बराबर रह जाती है। क्योंकि कानून का काम दोषियों को सज़ा देना है और मुहब्बत का काम दिलों को मिलाना है।

Page No 138:

Question 4:

हमारी ज़मीन हमारे पानी का मज़ा ही कुछ और है!

Answer:

अमृतसर का कस्टम अॉफ़िसर अपने वतन के बारे में उल्लेख करता हुआ यह पंक्ति कहता है। अमृतसर का कस्टम अॉफ़िसर एक हिन्दू है लेकिन उसके प्राण उसके वतन ढाका में अटके हुए हैं। विभाजन के बाद वह भारत में आकर बस गया है लेकिन अपना दिल वह ढाका में छोड़ आया है। अतः अपने वतन की विशेषता बताते हुए कहता है। इससे पता चलता है कि वतन का संबंध सीमाओं से नहीं है। वतन का संबंध तो दिल से है।

Page No 138:

Question 1:

फिर पलकों से कुछ सितारे टूटकर दूधिया आँचल में समा जाते हैं।

Answer:

लेखिका ने सिख बीबी के आँखों से निकले आँसूओं का उल्लेख बड़े सुंदर रूप में किया है। सिख बीबी जब अपने वतन लाहौर को याद करती है, तो उनकी आँखों से आँसू निकलकर उनके आँचल में गिर जाते हैं। यह आँसू उनकी यादों का प्रतीक है, जो निकलकर आँचल में समा जाते हैं।

Page No 138:

Question 2:

किसका वतन कहाँ है- वह जो कस्टम के इस तरफ़ है या उस तरफ़।

Answer:

यह पंक्ति एक बहुत गहरी बात को व्यक्त करने के लिए कही गई है।  लेखिका पाकिस्तान तथा अमृतसर के कस्टम अॉफ़िसर की बात सुनकर हैरत में है। उसके अनुसार मानचित्र पर भारत तथा पाकिस्तान विभाजित हो चुके हैं। लेकिन लोगों के दिलों में इस विभाजन का नाम नहीं है। अतः वह हैरान हो जाती है और सोच में पड़ जाती है कि यह बता पाना कठिन है कि किसका वतन कहाँ है? जो दिलों के अंदर है या जो मानचित्र पर स्थित है।

Page No 138:

Question 1:

नमक कहानी में हिंदुस्तान-पाकिस्तान में रहने वाले लोगों की भावनाओं, संवेदनाओं को उभारा गया है। वर्तमान संदर्भ में इन संवेदनाओं की स्थिति को तर्क सहित स्पष्ट कीजिए।

Answer:

वर्तमान संदर्भ में ये संवेदनाएँ ऐसी की ऐसी ही बनी हुई हैं। आज भी दोनों देशों के लोगों के मध्य प्रेम का संबंध है। इसका उदाहरण आज भारत में जिंदगी चैनल में आने वाले कार्यक्रम हैं, जिन्होंने भारतीयों दिलों में खास पैठ बनाई हुई है। ऐसे ही भारत के कार्यक्रम तथा फ़िल्में हैं, जो पाकिस्तान के लोगों में खास जगह बनाई हुई हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान में रहने वाले लोगों की भावनाएँ और संवेदनाएँ जैसे पहले थीं, वैसे ही आज भी हैं।

Page No 138:

Question 2:

सफ़िया की मनःस्थिति को कहानी में एक विशिष्ट संदर्भ में अलग तरह से स्पष्ट किया गया है। अगर आप सफ़िया की जगह होते/होतीं तो क्या आपकी मनःस्थिति भी वैसी ही होती? स्पष्ट कीजिए।

Answer:

बिलकुल यदि में सफ़िया की जगह होती, तो मेरी भी मनःस्थिति बिलकुल उसकी जैसी होती। क्योंकि मेरे अंदर भी लोगों के प्रति ऐसा ही प्रेम और इंसानियत है। मेरे लिए प्रेम सबसे ऊपर है। प्रेम के आगे में किसी कानून को तथा किसी विभाजित देश के बंधन को नहीं मानती हूँ। मेरे लिए पाकिस्तान में रहने वाले भी मेरे अपने हैं और भारत में रहने वाले भी मेरे अपने ही हैं।

Page No 138:

Question 3:

भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों को सुधारने के लिए दोनों सरकारें प्रयासरत हैं। व्यक्तिगत तौर पर आप इसमें क्या योगदान दे सकते/सकती हैं?

Answer:

यह सही है कि दोनों देशों की सरकारें भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंध सुधारने में प्रयासरत हैं। मैं इसके लिए बहुत से प्रयास कर रही हूँ। मैं इसके लिए वहाँ की संस्कृति तथा परंपराओं का अध्ययन करती। वहाँ इंटरनेट के माध्यम से मित्र बनाती। मैंने जब से पाकिस्तानी कार्यक्रम देखने आरंभ किए हैं मैं वहाँ के कलाकारों की प्रशंसक बन गई हूँ। मैंने वहाँ की फ़िल्में जैसे 'बोल' तथा 'खुदा के लिए' देखी है। इसके अतिरिक्त वहाँ के कलाकार जैसे फवाद खान मेरे प्रिय कलाकार हैं। वहाँ की महिलाओं द्वारा पहने जाना वाला परिधान मेरे पंसदीदा हैं। ऐसे ही परिधान में भारत में अपने लिए बनवाए हैं। इस तरह में अपने आसपास के लोगों को भी उनके विषय में परिचित करवाती रहती हूँ। इस तरह से मैं व्यक्तिगत तौर पर अपना योगदान दे रही हूँ।

Page No 138:

Question 4:

लेखिका ने विभाजन से उपजी विस्थापन की समस्या का चित्रण करते हुए सफ़िया व सिख बीबी के माध्यम से यह भी परोक्ष रूप से संकेत किया है कि इसमें भी विवाह की रीति के कारण स्त्री सबसे अधिक विस्थापित है। क्या आप इससे सहमत हैं?

Answer:

यह सही है कि प्रत्येक स्त्री को अपने जीवन में विवाह करने के बाद विस्थापन से गुजरना पड़ता है। जिन माता-पिता के घर वह पली बड़ी होती है, विवाह के पश्चात उसे छोड़ना पड़ता है। सिख बीबी और स्वयं सफ़िया उन्हीं में से एक हैं। सिख बीबी और सफ़िया को विवाह के पश्चात अपने परिवार से अलग होना पड़ता है। लेखिका अपने भाइयों से मिलने पाकिस्तान जाती है और कई वर्षों तक उनसे नहीं मिल पाती है। ऐसे ही सिख बीबी की स्थिति भी होती है। यह अवश्य है कि पति का साथ स्त्री को इस विस्थापन से उभार लाता है। लेकिन एक स्त्री इस विस्थापन से अवश्य गुजरती है।

Page No 138:

Question 5:

विभाजन के अनेक स्वरूपों में बँटी जनता को मिलाने की अनेक भूमियाँ हो सकती हैं- रक्त संबंध, विज्ञान, साहित्य व कला। इनमें से कौन सबसे अधिक ताकतवर है और क्यों?

Answer:

इनमें से सबसे अधिक ताकतवर साहित्य व कला है। रक्त संबंध एक छोटे दायरे तक सीमित रहते हैं। विज्ञान लोगों को सुविधा दे सकता है लेकिन मिला नहीं सकता है। हम एक-दूसरे की तकनीक का उपयोग करते हैं लेकिन उससे मिलाना संभव नहीं है। साहित्य व कला है, जो लोगों के दिलों में घर कर जाता है। इससे हर वर्ग के लोगों के दिलों में जगह पायी जा सकती है। सबसे प्रेम पाया जा सकता है और उन्हें प्रेम दिया जा सकता है। साहित्य व कला के माध्यम से ही लोगों के मध्य बैरभाव को मिटाया जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो पाकिस्तान के कलाकार भारत में और भारत के कलाकार पाकिस्तान के लोगों के दिलों में जगह नहीं पाते। साहित्य व कला को जंजीरों में जकड़ा नहीं जा सकता है। ये तो पक्षियों के समान पंख फैलाकर लोगों के दिलों में घर कर जाते हैं।

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Question 1:

मान लीजिए आप अपने मित्र के पास विदेश जा रहे/रही हैं। आप सौगात के तौर पर भारत की कौन-सी चीज़ ले जाना पसंद करेंगे/करेंगी और क्यों?

Answer:

मैं विदेश में रह रही अपनी मित्र के लिए भारत के शास्त्रीय संगीत तथा चित्रकारी ले जाना चाहूँगी। ये ऐसी सौगात है, जो उसे किसी भी प्रकार से नापसंद नहीं आ सकती है। क्योंकि संगीत तथा चित्रकारी के रूप में मैं और मेरा देश उसके साथ रहेगा।

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Question 1:

नीचे दिए गए वाक्यों को ध्यान में पढ़िए-

(क) हमारा वतन तो जी लाहौर ही है।

(ख) क्या सब कानून हुकूमत के ही होते हैं?

सामान्यतः 'ही' निपात का प्रयोग किसी बात पर बल देने के लिए किया जाता है। ऊपर दिए गए दोनों वाक्यों में 'ही' के प्रयोग से अर्थ में क्या परिवर्तन आया है? स्पष्ट कीजिए। 'ही' का प्रयोग करते हुए दोनों तरह के अर्थ वाले पाँच-पाँच वाक्य बनाइए।

Answer:

(क)
(i) हमारा घर तो जी पहाड़ों में ही है।
(ii) मेरी माँ तो जी गाँव की ही है।
(iii) मेरे लिए तो जी माता-पिता ही महत्वपूर्ण हैं।
(iv) आप तो जी हमारे ही मेहमान हैं।
(v) तुम तो जिद्दी ही हो।

(ख)
(i) क्या आप ही यहाँ रहते हो?
(ii) क्या साड़ियाँ औरतें ही पहनती हैं?
(iii) क्या तुम्हारी बातें सभी ही मानते हैं?
(iv) क्या जीवन में इन बातों का ही महत्त्व है?
(v) क्या तुम्हें कल ही जाना है?

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Question 2:

नीचे दिए गए शब्दों के हिंदी रूप लिखिए-

मुरौवत, आदमियत, अदीब, साडा, मायने, सरहद, अक्स, लबोलहजा, नफीस

Answer:

मुरौवत- संकोच

आदमियत- मनुष्यता

अदीब- साहित्य

साडा- हमारा

मायने- अर्थ

सरहद- सीमा

अक्स- परछाई

लबोलहजा- बोलचाल का तरीका

नफीस- सुरुचिपूर्ण

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Question 3:

पंद्रह दिन यों गुज़रे कि पता ही नहीं चला- वाक्य को ध्यान से पढ़िए और इसी प्रकार के (यों, कि, ही से युक्त पाँच वाक्य बनाइए।)

Answer:

(क) कल तुम यों बोले कि हम देखते ही रह गए।
(ख) पिता ने यों मारा कि हम हैरान ही हो गए।
(ग) माली ने यों लिखना आरंभ किया कि सब उसे ताकते ही रह गए।
(घ) सीता ने यों झटका कि टैंट गिरते ही चले गए।
(ङ) मोटर ने यों मारा कि मास्टर साहब उछलकर गिर पड़े। 

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Question 1:

'नमक' कहानी को लेखक ने अपने नज़रिये से अन्य पुरुष शैली में लिखा है। आप सफ़िया की नज़र से/उत्तम पुरुष शैली में इस कहानी को अपने शब्दों में कहें।

Answer:

मुझे एक बार सिख बीबी नामक स्त्री के यहाँ जाना हुआ। पता चला कि पहले वे लाहौर में रहती थीं। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं पाकिस्तान जा रही हूँ, तो उनके लिए वहाँ से क्या लाऊँ? वे बोली- ''मेरे लिए लाहौरी नमक ले आना। मैं उनको यह वादा कर आई। मैं कुछ दिन बाद अपने भाइयों के पास पाकिस्तान पहुँची और बहुत प्यार से रही। जाने से एक दिन पहले मैंने भाई को बताया कि मैं लाहौरी  नमक लेकर जाना चाहती हूँ। भाई ने बताया कि मैं पाकिस्तान से नमक नहीं ले जा सकती हूँ क्योंकि ऐसा करना गैरकानूनी है। मैंने उसकी बात नहीं मानी और किन्नू की टोकरियों में नमक छिपा दिया। मैं जब पाकिस्तान कस्टम अफ़सर के पास पहुँची तो मुझे प्रेम की सौगात छिपाकर ले जाना अच्छा नहीं लगा और मैंने यह बात उस कस्टम अफ़सर को बता दी। मेरी भावनाओँ का सम्मान करते हुए उसने आज्ञा दे दी। यही मैंने अमृतसर कस्टम अफ़सर को भी बता दिया। मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए उसने भी मुझे आदर सहित जाने दिया। मेरे लिए यह सच्चाई और प्रेम की विजय थी। अंत मैं लाहौरी नमक भारत ले आयी।

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Question 1:

लेखक शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?

Answer:

लेखक को शिरीष के फूल में कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह समानता दिखाई देती है। एक कालजयी संन्यासी काल, विषय-वासनाओं, क्रोध, मोह इत्यादि से स्वयं को अलग कर देते हैं। ऐसे ही शिरीष को लेखक ने माना है। उस पर काल का प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रचंड गर्मी में भी वह फलता-फूलता है। प्रचंड गर्मी में फलने वाला पेड़ बहुत कम देखने को मिलता है। वह जला देने वाली गर्मी तथा परेशान करने देने वाली उमस में भी अविचल खड़ा रहता है। उसी समय में अपने फूलों की सुंगध से लोगों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। वह हमें उसी कालजयी अवधूत (संन्यासी) के समान मुसीबत से कभी न हारने के लिए प्रेरित करता है।

Page No 148:

Question 2:

हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी ज़रूरी हो जाती है- प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

Answer:

शिरीष के विषय में लेखक मनुष्य को एक सीख देता है। लेखक के अनुसार जिस प्रकार शिरीष को कोमल मानकर कवि उसे पूरा ही कोमल मान लेते हैं, तो यह उसके साथ अन्याय है। इसके फल उतने ही कठोर तथा सख्त होते हैं। लेखक कहता है कि हमें इनसे सीख लेनी चाहिए कि अपने हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता कभी-कभी ज़रूरी हो जाती है। यदि हम अपना व्यवहार कभी कठोर कर लेते हैं, तो लोगों से ठगे जाने का खतरा कम हो जाता है।

Page No 148:

Question 3:

द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।

Answer:

शिरीष ऐसे समय में फलता-फूलता है, जब गर्मी प्रचंड रूप से पड़ रही होती है। मनुष्य का जीवन संघर्षों तथा कष्टों से भरा हुआ है। यहाँ पर लेखक ने गर्मी की प्रचंडता को जीवन के संघर्ष से जोड़ा है। शिरीष का वृक्ष इतनी प्रचंडता को बड़े आराम से झेलता ही नहीं है बल्कि अपने कोमल फूलों को खिलाकर यह सिद्ध कर देता है कि विकट परिस्थतियों में भी मनुष्य जीने की इच्छा को बनाए रखकर उससे पार पा सकता है। यह निर्भर करता है मनुष्य की जीने की इच्छा पर और अपने अस्तित्व के लिए किए जाने वाले संघर्ष पर। अगर मनुष्य लड़ना ही छोड़ दे और विकट परिस्थितियों से घबरा जाए, तो वह जी नहीं सकता है। वह तो टूट कर रह जाएगा। ठीक ऐसे समय में शिरीष का पेड़ हमें  प्रेरणा देता है कि कोलाहल व संघर्ष से भरे जीवन-स्थितियों में भी अविचल कर जिजीविषु बना रहा जा सकता है। बस ज़रूरी है, हिम्मत की और एक प्रयास की।

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Question 4:

हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?

Answer:

प्राचीन भारत में सदैव से ही आत्मबल पर ध्यान रखने के लिए कहा गया है। हमारा मानना है कि जिस मनुष्य की आत्मा प्रबल है, वह इस संसार के हर कष्ट से परे है। वे संतोषी है और जीवन में हर प्रकार की सुख-सविधाएँ तथा कष्ट उसके लिए निराधार है। आत्मबल के माध्यम से वह इंद्रियों से लेकर मन तक को अपने वश में कर लेता है। इस तरह वह महात्मा हो जाता है। यहाँ पर अवधूत ही ऐसे व्यक्ति के लिए कहा गया है, जिसने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। आज के समय में ऐसे लोग देखने को नहीं मिलते हैं।  आज हर किसी के अंदर देह-बल का वर्चस्व छाया हुआ है। सब शारीरिक बल को लोग अधिक महत्व देते हैं और इसका प्रयोग भी कर रहे हैं। यह हमारी सभ्यता का पतन का मार्ग है। क्योंकि कोई सभ्यता देह-बल से फली-फूली नहीं है। उसके फलने-फूलने का कारण आत्मबल है। देह-बल में शक्ति का प्रदर्शन होता है। अपने विरोधी को परास्त कर उसे गुलाम बनाना होता है। लेकिन आत्मबल में हम अपने शत्रु यानी कि मोह, काम, क्रोध, वासना, अहंकार इत्यादि पर विजय प्राप्त करते हैं और शांति का प्रसार करते हैं।  यह समाज को देता ही है लेता नहीं है। पर आज ऐसी स्थिति दिखाई नहीं देती है।

Page No 148:

Question 5:

कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।

Answer:

लेखक ने कवि के लिए जो मानदंड निर्धारित किया है, वह सही मायने में बहुत ऊँचा है। सही मायने में यही विशेषताएँ एक व्यक्ति को कवि या साहित्यकार बनाती है। उसकी रचना उसके हृदय में उमड़ने वाली भावनाओं तथा मन में उठने वाले विचारों का आईना है। ये भावनाएँ तथा विचार समाज के विकास तथा प्रगति के लिए अति आवश्यक होते हैं। यदि एक कवि समाज में व्याप्त समस्याओं तथा विसंगति को समझने में सक्षम नहीं होगा, तो वह एक अच्छा कवि या साहित्यकार नहीं कहला सकता है। एक कवि एक योगी के समान वस्तुओं तथा भोग-विलास के प्रति आसक्त होगा, तो वह योगी नहीं कहलाएगा। वह भोगी कहलाएगा। भोगी समाज को देते नहीं है, अपितु लेते ही हैं। एक योगी विषय वस्तुओं के प्रति अनसाक्त होता है। उसकी बुद्धि चंचल नहीं होती। वह स्थिर होती है। अतः वह गंभीरता से किसी विषय पर सोच सकता है। इसके अतिरिक्त कवि में एक प्रेमी के समान विरह में तड़पता हुआ हृदय भी होना चाहिए। एक तड़पता हृदय किसी अन्य हृदय की तकलीफ को सरलता से समझ सकता है। यही तड़प उसे शुद्ध सोना बनाती है। इन गुणों से वह महान कवि या साहित्यकार बनकर समाज को उचित दिशा प्रदान कर सकता है। ये ऐसे मानदंड है, जो अनुकरणीय हैं।

Page No 148:

Question 6:

सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

Answer:

यह सत्य सब जानते हैं कि काल से कोई नहीं बच पाया है। देवता से लेकर दानव तक इसकी मार से बच नहीं पाएँ हैं। ऐसे में सबको अपना ग्रास बनाने वाले काल की मार से बचने के लिए हमें चाहिए कि अपने स्वभाव की जड़ता को समाप्त कर दें। जड़ता मनुष्य को प्रगति नहीं करने देती है। जड़ता मनुष्य को चूर-चूर कर देती है। जड़ता ने ही मनुष्य को तबाह किया है। जो समय के अनुसार परिवर्तन को स्वीकार कर लेते हैं, वही लंबे समय तक अपने अस्तित्व को बचा पाते हैं। भारतीय संस्कृति इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। आज हमें कितनी ही सभ्यताओं के साक्ष्य मिलें हैं, जो पहले अस्तित्व में थी लेकिन आज उनके मात्र खंडहर शेष हैं। ऐसे में भारतीय संस्कृति ने न स्वयं को खड़ा किए हुए है बल्कि अपने अस्तित्व को भी बचाए हुए हैं। ऐसे ही लेखक ने शिरीष के फल का उदाहरण दिया है। इसके फल तब तक पेड़ से चिपके रहते हैं, जब तक नए फूल व पत्ते उन्हें ज़बदस्ती गिरा न दें। अतः हमें चाहिए कि समय के अनुसार स्वयं को बदले और इस परिवर्तनशील समय के साथ पैर से पैर मिलाएँ।

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Question 7:

आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।

(ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेख-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?..... मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।

(ग) फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।

Answer:

(क) जीवन और काल का आपस में संघर्ष सदियों से चलता रहा है। अर्थात जीवन स्वयं को काल से बचाने के लिए हमेशा से संघर्ष करता रहा है। इस संघर्ष में कुछ लोग मूर्ख कहलाते हैं। इनकी मूर्खता का प्रमाण है, उनकी सोच। वे सोचते हैं कि काल की मार से बचने के लिए उनकी जैसी सोच है, वही सही है। इस प्रकार की सोच उन्हें लंबे समय तक काल या समय की मार से बचाकर रखेगी। यह उनकी मूर्खता है। लेखक कहता है कि वे भोले हैं। उन्हें चाहिए कि उन्हें हमेशा प्रयास करते रहना चाहिए, एक स्थान पर टिक कर नहीं रहना चाहिए, हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए, तब जाकर वह काल रूपी कोड़े की मार से बच सकते हैं। एक स्थान पर टिककर रहने का तात्पर्य है कि मरना। भाव यह है कि हमें किसी एक विचार या कार्य पर कायम नहीं रहना चाहिए। समय बदल रहा है यदि हम समय के अनुसार प्रयास नहीं करेंगे, तो पीछे रह जाएँगे। यह हमारे पतन का कारण बन सकता है।
 

(ख) लेखक के अनुसार एक कवि की कुछ विशेषताएँ होती हैं।  वे हैं वह अनासक्त रहे अर्थात उसमें लगाव का भाव नहीं होना चाहिए। जहाँ उसे लगाव हुआ मानो कि वह विषय से भटक गया। उसमें फक्कड़पन का भाव होना भी आवश्यक है। जो कवि फांकों के समय में मस्त नहीं रह सकता, वह कविता क्या करेगा। कविता सच्चे दिल की पुकार होती है। कवि की योग्यता है कि वह फांकों में भी आशा की एक किरण खोज लेता है और जीवन को जीने योग्य बना देता है। लेखा-जोखा का हिसाब रखने वाला साहूकार तो बन सकता है परन्तु सच्चा कवि तो अनासक्त तथा फक्कड़ व्यक्ति ही बन सकता है।  
 

(ग) लेखक फूल तथा पेड़ का संकेत करता हुआ कहता है कि इन्हें हमें समाप्त नहीं मान लेना चाहिए। मात्र इनसे सबकुछ नहीं है। जिस प्रकार से पेड़ एक फूल को जन्म देता है, फूल एक बीज को जन्म देता है, वैसे ही जीवन में सब क्रमपूर्वक चलता रहता है। इसका कारण है कि फिर एक बीज से एक पेड़ का जन्म होता है और पेड़ से एक फूल का जन्म होता है। यह क्रम सदियों से चलता रहा है। यह तो मात्र संकेत है, जिसे समझकर हमें आगे बढ़ना चाहिए।

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Question 1:

शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की  प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?

Answer:

इसके गुण के कारण इसे शीतपुष्प कहा जाता है। यह ज्येष्ठ की प्रंचड गरमी में फलता-फूलता है, जोकि असंभव बात है। ऐसे गर्मी जिसमें प्रत्येक प्राणी झुलस रहा है, वहाँ ये खड़ा ही नहीं है बल्कि कोमल फूलों को उत्पन्न करता है। यह मनुष्य को ठंडक प्रदान करते हैं। इसे देखकर भयंकर परिस्थितियों में जीने की राह मिलती है। जो कि शीतलता की तरह काम करती है। इसकी मौसम के प्रति सहनशीलता ही ने इसे शीतपुष्प की संज्ञा देने पर विवश किया है। ऐसा पेड़ जो हर बदलते मौसम के साथ स्वयं को बनाए नहीं रखता बल्कि फूलता भी है, उसे शीतपुष्प कहना ही उचित है।

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Question 2:

कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।

Answer:

लेखक ने गांधीजी में कोमल और कठोर दोनों भावों का समावेश बताया है। गांधीजी ने अपने जीवन में सत्य, प्रेम, अहिंसा जैसे भावों को अपने जीवन का आधार बनाया। उन्होंने इनके पालन में कठोरता से काम लिया है। ये तीनों भाव जितने कोमल है, उनके पालन के लिए उतना ही कठोर अनुशासन अपना होता है। जहाँ आप इससे हठे आपके कोमल भाव समाप्त हो जाते हैं। एक मनुष्य सारे जीवनभर सत्य का आचरण करे यह संभव नहीं है। उसे परिस्थिति सत्य का आचरण न करने के लिए विवश करती है लेकिन गांधी जी ने ऐसा नहीं किया। वहीं दूसरी ओर जहाँ कदम-कदम पर मनुष्य हिंसक हो जाता है, वहाँ पर अहिंसा का पालन करना संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त जहाँ लोगों में दूसरे के प्रति प्रेम भाव की कमी है, वहाँ भी लोगों से प्रेम करना असंभव सा प्रतीत होता है। गांधीजी ने अपने कठोर वर्त के माध्यम से इन्हें जीवनभर अपनाए रखा।

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Question 3:

आजकल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्ज़ी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती को ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-वाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।

Answer:

समय बदल रहा है। अतः किसानों को भी उसके साथ बदलना पड़ रहा है। पहले किसान साग-सब्ज़ी व अन्न के उत्पादन को ही अपना सबकुछ मानता था। वे इसके जीवन के आधार थे। जीवन का आधार जीवन को सुचारू रूप से न चलाए पाएँ, तो वह किसी काम का नहीं है। आज का किसान साग-सब्ज़ी व अन्न का उत्पादन करके भी कुछ नहीं पाता है। उसका स्वयं का जीवन भी कठिनाई से चलता है। जो दूसरों का पेट पालता हो, वह स्वयं भूखा रह जाए तो यह विडंबना ही है। एक किसान स्वयं तो भूखा रह सकता है लेकिन अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता। साग-सब्ज़ी व अन्न उसे वह नहीं दे रहे हैं, जो उसे फूलों की खेती दे रही है। इसके लिए मेहनत कम और फल अधिक मिलता है। इसी कारण उसके बच्चे अच्छी शिक्षा, भरपूर पेट भोजन और एक अच्छी जीवन शैली जी पा रहे हैं।

एक किसान जन्मदाता कहा जाता है। उसे ही रक्षक माना जाता है यदि रक्षक ही भक्षक बन जाए, तो बाकी लोगों का क्या होगा। ऐसा हर किसान वर्ग के साथ नहीं हो रहा है। इस प्रकार का नुकसान छोटे किसान भोग रहे हैं। एक संपन्नशाली किसान यदि साग-सब्ज़ी व अन्न को छोड़कर फूलों की खेती करेगा, तो देश तथा विश्व की जनता जीवित कैसी रहेगी। यह भावना उचित नहीं है।

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Question 4:

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्त्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं- कुटज, आम फिर बौरा गए, अशोक के फूल, देवदारु आदि। शिक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए।

Answer:

अशोक के फूल
(हज़ारी प्रसाद द्वारा लिखित)

अशोक के फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ़ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।

लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्तुओं को हतभाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ। बताता हूँ।
भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्यापार है। ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परंतु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था! उस प्रवेश में नववधू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएक मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में भी लेते थे; पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला वह अपूर्व था। सुंदरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था। वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप से निकल जाता है। क्यों ऐसा हुआ? कंदर्प देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों हैं। अरविंद को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ा गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका?
नवमल्लिका की अवश्य ही अब विशेष पूछ नहीं है; किंतु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी भी नहीं। भुलाया गया है अशोक। मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साधना के पिछले हज़ारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़ थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी? कविता क्या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में 'अशोक' कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।
लेकिन मेरे मानने-न-मानने से होता क्या है? ईस्वी सन् के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुत महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों के परिचित यक्षों और गंधर्वों ने भारतीय धर्म-साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाया है कि 'गंधर्व' और 'कंदर्प' वस्तुत: एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न उच्चारण हैं। कंदर्प देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक आर्येतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, वज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प यद्यपि कामदेवता का नाम हो गया है, तथापि है वह गंधर्व का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु से डरते थे और बुद्धदेव से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प देवता हार माननेवाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नए-नए अस्त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था। बौद्ध धर्म को इस नए अस्त्र से उन्होंने घायल कर दिया, शैव मार्ग को अभिभूत कर दिया और शाक्त-साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल-साधना इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है।
रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानव समुद्र' कहा है। विचित्र देश है यह! असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए - न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हमें हिंदू रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है। एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी अपनी स्मृति परंपरा है। आम की भी है, बकुल की है, चंपे की भी है। सब क्या हमें मालूम है? जितना मालूम है, उसी का अर्थ क्या स्पष्ट हो सका है? न जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था? शरीर जलकर राख हो गया और 'वामन-पुराण' (षष्ठ अध्याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्थान रुक्म-मणि से बना था, वह टूटकर धरती पर गिरा और चंपे का फूल बन गया! हीरे का बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसिरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया! अच्छा ही हुआ। इंद्रनील मणियों का बना हुआ कोटि देश भी टूट गया और सुंदर पाटल पुष्पों में परिवर्तित हो गया। यह भी बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुंदर बात यह हुई कि चंद्रकांत-मणियों का बना हुआ मध्य देश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई, स्वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष, जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया! स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं!
परंतु मैं दूसरी बात सोच रहा हूँ। इस कथा का रहस्य क्या है? यह क्या पुराणकार की सुकुमार कल्पना है या सचमुच ये फूल भारतीय संसार में गंधर्वों की देन हैं? एक निश्चित काल के पूर्व इन फूलों की चर्चा हमारे साहित्य में मिलती भी नहीं! सोम तो निश्चित रूप से गंधर्वों से खरीदा जाता था। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विधि में यह विधान सुरक्षित रह गया है। ये फूल भी क्या उन्हीं से मिले?
कुछ बातें तो मेरी मस्तिष्क में बिना सोचे ही उपस्थित हो रही हैं। यक्षों और गंधर्वों के देवता -कुबेर, सोम, अप्सराएँ - यद्यपि बाद के ब्राह्मण ग्रंथों में भी स्वीकृत है, तथापि पुराने साहित्य में आप देवता के रूप में ही मिलते हैं। बौद्ध साहित्य में तो बुद्धदेव को ये कई बार बाधा देते हुए बताए गए हैं। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएँ आती हैं जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के पास संतान-कामिनी होकर जाया करती थीं! यक्ष और यक्षिणी साधारणत: विलासी और उर्वरता-जनक देवता समझ जाते थे। कुबेर तो अक्षय निधि के अधीश्वर भी हैं। 'यक्ष्मा' नामक रोग के साथ भी इन लोगों का संबंध जोड़ा जाता है। भरहुत, बोधगया, सांची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्राय: नग्न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है। सुंदरियों के चरण-ताड़न से उसमें दोहद का संचार होता है और परवर्ती धर्मग्रंथों से यह भी पता चलता है कि चैत्र शुक्ल अष्टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से स्त्री की संतान-कामना फलवती है। अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं - सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है। इन सारी बातों का रहस्य क्या है? मेरा मन प्राचीन काल के कुंझटिकाच्छन्न आकाश में दूर तक उड़ना चाहता है। हाय, पंख कहाँ हैं?
यह मुझे प्राचीन युग की बात मालूम होती है। आर्यों का लिखा हुआ साहित्य ही हमारे पास बचा है। उसमें सबकुछ आर्य दृष्टिकोण से ही देखा गया है। आर्यों से अनेक जातियों का संघर्ष हुआ। कुछ ने उनकी अधीनता नहीं मानी, वे कुछ ज़्यादा गर्वीली थीं। संघर्ष खूब हुआ। पुराणों में इसके प्रमाण हैं। यह इतनी पुरानी बात है कि सभी संघर्षकारी शक्तियाँ बाद में देवयोनी-जात मान ली गईं। पहला संघर्ष शायद असुरों से हुआ। यह बड़ी गर्वीली जाति थी। आर्यों का प्रभुत्व इसने कभी नहीं माना। फिर दानवों, दैत्यों और राक्षसों से संघर्ष हुआ। गंधर्वों और यक्षों से कोई संघर्ष नहीं हुआ। वे शायद शांतिप्रिय जातियाँ थीं। भरहुत, सांची, मथुरा आदि में प्राप्त यक्षिणी मूर्तियों की गठन और बनावट देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये जातियां पहाड़ी थीं। हिमालय का देश ही गंधर्व, यक्ष और अप्सराओं की निवास-भूमि हैं। इनका समाज संभवत: उस स्तर पर था, जिसे आजकल के पंडित 'पुनालुअन सोसाइटी' कहते हैं। शायद इससे भी अधिक आदिम! परंतु वे नाच-गान में कुशल थे। यक्ष तो धनी भी थे। वे लोग वानरों और भालुओं की भांति कृषिपूर्व स्थिति में भी नहीं थे और राक्षसों और असुरों की भांति व्यापार-वाणिज्यवाली स्थिति में भी नहीं।वे मणियों और रत्नों का संधान जानते थे, पृथ्वी के नीचे गड़ी हुई निधियों की जानकारी रखते थे और अनायास धनी हो जाते थे। संभवत: इसी कारण उनमें विलासता की मात्रा अधिक थी। परवर्तीकाल में यह बहुत सुखी जाति मानी जाती थी। यक्ष और गंधर्व एक ही श्रेणी के थे, परंतु आर्थिक स्थिति दोनों की थोड़ी भिन्न थी। किस प्रकार कंदर्प देवता को अपनी गंधर्व सेना के साथ इंद्र का मुसाहिब बनना पड़ा, वह मनोरंजक कथा है। पर यहाँ वे सब पुरानी बातें क्यों रटी जाँय? प्रकृत यह है कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था। जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा। असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं। परवर्ती हिंदू समाज इन सबको बड़ी अद्भुत शक्तियों का आश्रय मानता है, सब में देवता-बुद्धि का पोषण करता है।
अशोक वृक्ष की पूजा इन्हीं गंधर्वों और यक्षों की देन है। प्राचीन साहित्य में इस वृक्ष की पूजा के उत्सवों का बड़ा सरस वर्णन मिलता है। असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्ठाता कंदर्प देवता की होती थी। इसे 'मदनोत्सव' कहते थे। महाराज भोज के 'सरस्वती-कंठाभरण' से जान पड़ता है कि यह उत्सव त्रयोदशी के दिन होता था। 'मालविकाग्निमित्र' और 'रत्नावली' में इस उत्सव का बड़ा सरस, मनोहर वर्णन मिलता है। मैं जब अशोक के लाल स्तबकों को देखता हूँ तो मुझे वह पुराना वातावरण प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है। राजघरानों में साधारणत: रानी ही अपने सनूपुर चरणों के आघात से इस रहस्यमय वृक्ष को पुष्पित किया करती थीं। कभी-कभी रानी अपने स्थान पर किसी अन्य सुंदरी को नियुक्त कर दिया करती थीं। कोमल हाथों में अशोक-पल्लवों का कोमलतर गुच्छ आया, अलक्तक से रंजित नूपुरमय चरणों के मृदु आघात से अशोक का पाद्र-देश आहत हुआ - नीचे हलकी रूनझुन और ऊपर लाल फूलों का उल्लास! किसलयों और कुसुम-स्तबकों की मनोहर छाया के नीचे स्फटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुंदरियाँ अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्प-संभार से पहले कंदर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसंत पुष्पों की अंजलि बिखेर देती थीं। मैं सचमुच इस उत्सव को मादक मानता हूँ। अशोक के स्तबकों में वह मादकता आज भी है, पर पूछता कौन है। इन फूलों के साथ क्या मामूली स्मृति जुड़ी हुई है! भारतवर्ष का सुवर्ण युग इस पुष्प के प्रत्येक दल में लहरा रहा है।
कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद अशोक से उसका स्वार्थ नहीं सधा। क्यों उसे वह याद रखती? सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु हैं वह उस विशाल सामंत-सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक, जो साधारण प्रजा के परिश्रमों पर पली थीं, उसके रक्त के ससार कणों को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा से जो समृद्ध हुई थी, वे सामंत उखड़ गए, समाज ढह गए, और मदनोत्सव की धूमधाम भी मिट गई। संतान-कामिनियों को गंधर्वों से अधिक शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा - पीरों ने, भूत-भैरवों ने, काली-दुर्गा ने यक्षों की इज़्ज़त घटा दी। दुनिया अपने रास्ते चली गई, अशोक पीछे छूट गया।
मुझे मानव जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हज़ारों वर्षों का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबकुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सबकुछ बह जाते हैं। जितना कुछ इस जीवन-शक्ति को समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक दिया जाता है। धन्य हो महाकाल, तुमने कितनी बार मदनदेवता का गर्व-खंडन किया है, धर्मराज के कारागर में क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया है, विधाता के सर्वकर्तृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है! आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है, उसमें का कितना भाग तुम्हारे कुंठनृत्य से ध्वस्त हो जाएगा, कौन जानता है! मनुष्य की जीवन-धारा फिर भी अपनी मस्तानी चाल से चलती जाएगी। आज अशोक के पुष्प-स्तबकों को देखकर मेरा मन उदास हो गया है, कल न जाने किस वस्तु को देखकर किस सहृदय के हृदय में उदासी की रेखा खेल उठेगी! जिन बातों को मैं अत्यंत मूल्यवान समझ रहा हूँ और जिनके प्रचार के लिए चिल्ला-चिल्लाकर गला सुखा रहा हूँ, उनमें कितनी जिएँगी और कितनी बह जाएँगी, कौन जानता है! मैं क्या शोक से उदास हुआ हूँ। माया काटे कटती नहीं। उस युग के साहित्य और शिल्प मन को मसले दे रहे हैं। अशोक के फूल हो नहीं, किसलय भी हृदय को कुरेद रहे हैं। कालिदास जैसे कल्पकवि ने अशोक के पुष्प को ही नहीं, किसलयों को भी मदमत्त करनेवाला बताया था - अवश्य ही शर्त यह थी कि वह दयिता (प्रिया) के कानों में झूम रहा हो - 'किसलय प्रसवोपि विलासिनां मदयिता दयिता श्रवणार्पित:।' परंतु शाखाओं में लंबित, वायु-ललित किसलयों में भी मादकता है। मेरी नस-नस से आज करुण उल्लास की झंझा उत्थित हो रही है। मैं सचमुच उदास हूँ।
आज जिसे हम बहुमूल्य संस्कृति मान रहे हैं, वह क्या ऐसी ही बनी रहेगी? सम्राटों-सामंतों ने जिस आचार-निष्ठा को इतना मोहक और मादक रूप दिया था वह लुप्त हो गई, धर्माचार्यों ने जिस ज्ञान और वैराग्य को इतना महार्घ समझा था, वह लुप्त हो गया; मध्य युग के मुसलमान रईसों के अनुकरण पर जो रस-राशि उमड़ी थी, वह वाष्प की भाँति उड़ गई, क्या वह मध्य युग के कंकाल में लिखा हुआ व्यावसायिक युग का कमल ऐसा ही बना रहेगा? महाकाल के प्रत्येक पदाघात में धरती धसकेगी। उसके कुंठनृत्य की प्रत्येक चारिका कुछ-न-कुछ लपेटकर ले जाएगी। सब बदलेगा, सब विकृत होगा - सब नवीन बनेगा।
भगवान बुद्ध ने मार-विजय के बाद वैरागियों की पलटन खड़ी की थी। असल में 'मार' मदन का ही नामांतर है। कैसा मधुर और मोहक साहित्य उन्होंने दिया। पर न जाने कब यक्षों के वज्रपाणि नामक देवता इस वैराग्यप्रवण धर्म में घुसे और बोधिसत्वों के शिरोमणि बन गए। फिर वज्रयान का अपूर्व धर्म मार्ग प्रचलित हुआ। त्रिरत्नों में मदन देवता ने आसन पाया। वह एक अजीब आंधी थी। इसमें बौद्ध बह गए, शैव बह गए, शाक्त बह गए। उन दिनों 'श्री सुंदरीसाधनतत्पराणां योगश्च भोगश्च करस्थ एव' की महिमा प्रतिष्ठित हुई। काव्य और शिल्प के मोहक अशोक ने अभिचार में सहायता दी। मैं अचरज से इस योग और भोग की मिलन-लीला को देख रहा हूँ। ग्रह भी क्या जीवनी-शक्ति का दुर्दम अभियान था! कौन बताएगा कि कितने विध्वंस के बाद इस अपूर्व धर्म-मत की सृष्टि हुई थी? अशोक-स्तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा ढोए आ रहा है। कैसा झबरा-सा गुल्म है!
मगर उदास होना भी बेकार है। अशोक आज भी उसी मौज में हैं, जिसमें आज से दो हज़ार वर्ष पहले था। कहीं भी तो कुछ नहीं बिगड़ा है, कुछ भी तो नहीं बदला है। बदली है मनुष्य की मनोवृत्ति। यदि बदले बिना वह आगे बढ़ सकती तो शायद वह भी नहीं बदलती। और यदि वह न बदलती और व्यावसायिक संघर्ष आरंभ हो जाता - मशीन का रथ घर्घर चल पड़ता - विज्ञान का सावेग धावन चल निकलता, तो बड़ा बुरा होता। हम पिस जाते। अच्छा ही हुआ जो वह बदल गई। पूरी कहां बदली है? पर बदल तो रही है। अशोक का फूल तो उसी मस्ती में हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखनेवाला उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है - जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेज़ी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। वह उस अवस्था में उदास भी नहीं करती। कहाँ! अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है। कितनी मस्ती में झूम रहा है! कालिदास इसका रस ले चुके थे - अपने ढंग से। मैं भी ले सकता हूँ - अपने ढंग से। उदास होना बेकार है।     
(नोटः विद्यार्थी इसी तरह बाकी लेख स्वयं ढूँढकर पढ़ने का प्रयास करें। आपको यह सामग्री पुस्तकालय से प्राप्त हो जाएगी।)

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Question 5:

द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय? इसका मूल्यांकन करें।

Answer:

मेरा प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है। यही कारण है कि मैंने इस रचना को न केवल पढ़ा बल्कि इस वृक्ष को ढूँढ भी निकाला। अब मैं इसी तर्ज पर फूलों, वृक्षों उनके गुणों इत्यादि पर जानकारी एकत्र कर रहा हूँ। मैं अपने पिता के साथ अपने दादाजी के गढ़वाल भी जाता हूँ। मेरा गाँव गढ़वाल में है। वहाँ पर प्रकृति के मध्य रहना मुझे अच्छा लगता है। दादा-दादी के साथ मैं रोज़ सुबह निकल जाता हूँ और प्रकृति का सानिध्य भी पाता हूँ। मैंने पर्वतीय प्रदेश की वनस्पतियों के बारे में भी बहुत सी जानकारियाँ एकत्र की हैं। वहाँ के पशु तथा पक्षियों के चित्र लिए हैं। इन सबकी मैंने एक पुस्तक बनाई है।

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Question 1:

दस दिन फूले और फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।

Answer:

पाठ में लोकोक्ति तथा वाक्यांश इस प्रकार हैं-
(क) ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले।
(ख) पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है।
(ग) जो फरा, सो झरा।
(घ) जमे कि मरे।
(ङ) न ऊधो का लेना, न माधो का देना।

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Question 1:

अशोक वृक्ष- भारतीय साहित्य में बहुचर्चित एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से मिलते हैं। वसंत-ऋतु में इसके फूल लाल-लाल गुच्छों के रूप में आते हैं। इसे कामदेव के पाँच पुष्पवाणों में एक माना गया है। इसके फल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्कृतिक महत्त्व का अच्छा चित्रण हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंध अशोक के फूल में किया है। भ्रमवश आज एक दूसरे वृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूल पेड़  (जिसका वानस्पतिक नाम सराका इंडिका है।) को लोक भूल गए हैं। इसकी एक जाति श्वेत फूलों वाली भी होती है।
अरिष्ठ वृक्ष- रीठा नामक वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। फल को सुखाकर उसके छिलके का चूर्ण बनाया जाता है, बाल धोने एवं कपड़े साफ करने के काम में आता है। पेड़ की डालियों व तने पर जगह-जगह काँटे उभरे होते हैं, जो बाल और कपड़े धोने के काम भी आता है।
आरग्वध वृक्ष- लोक में उसे अमलतास कहा जाता है। भीषण गरमी की दशा में जब इसका पड़े पत्रहीन  ठूँठ सा हो जाता है, पर इस पर पीले-पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्थित करते हैं। इसके फल लगभग एक डेढ़ फुट के बेलनाकार होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं।
शिरीष वृक्ष- लोक में सिरिस नाम से मशूहर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल होता है पर पत्ते बहुत छोटे-छोटे होते हैं। इसके फूलों में पंखुड़ियों की जगह रेशे-रेशे होते हैं।

Answer:

(क) अशोक वृक्ष

      (ख) अरिष्ठ वृक्ष

(ग) आरग्वध वृक्ष (अमलतास)

(शिरीष वृक्ष)

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Question 1:

जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

Answer:

आंबेडकर जी ने जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे ये तर्क दिए हैं-
(क) जाति प्रथा श्रम का ही विभाजन नहीं करती बल्कि यह श्रमिक को भी बाँट देती है। आंबेडकर जी के अनुसार एक सभ्य समाज में इस प्रकार का विभाजन सही नहीं है। इसे मान्य नहीं कहा जा सकता।

  (ख) जाति प्रथा में श्रम का जो विभाजन किया गया है, वह व्यक्ति की रुचि को ध्यान में रखकर नहीं किया गया है। उनके अनुसार जाति प्रथा में यह गलत सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है कि किसी अन्य व्यक्ति की रुचि, योग्तयता तथा क्षमता को अनदेखा कर उसके लिए जीविका के साधन को किसी और व्यक्ति द्वारा निर्धारित करना।

  (ग) जाति प्रथा में पेशे का निर्धारण एक मनुष्य को जीवनभर के लिए दे दिया जाता है। फिर चाहे वह पेशा मनुष्य की व्यक्तिगत ज़रूरत पूरी न करता हो। इसका परिणाम यह होता है कि उस मनुष्य को घोर गरीबी का सामना भी करना पड़ सकता है।

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Question 2:

जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?

Answer:

जाति प्रथा में प्रत्येक समुदाय या वर्ग के लिए अलग-अलग कार्य तथा पेशे का निर्धारण किया गया है। जैसे ब्राह्मण जाति के लोग पूजा-पाठ करते हैं। हर वर्ग के लिए पूजा पाठ कराने का अधिकार और पेशा इन्हीं का है। क्षत्रिय जाति के लोगों को युद्ध करने का अधिकार था। अतः उनके लिए सेना में नौकरियाँ निश्चित थीं। ऐसे ही वैश्य लोग व्यापार करते थे। निम्नवर्ग में लुहार, सुनार, चर्मकार, बढ़ई, धुनई, कसाई, कुम्हार इत्यादि कार्य निश्चित किए गए थे। इन वर्ग के लोगों को केवल यही कार्य करने की अनुमति थी। इन्हीं के कामों के आधार पर इनकी जाति का निर्धारण होता था। इन्हें अन्य कार्य की अनुमति नहीं थी। अतः कुछ पेशों में हर समय धन की प्राप्ति नहीं होती थी। इससे उनका गुज़ारा चलना कठिन हो जाता था। मौसम या ज़रूरत के आधार पर इन्हें कमाई होती थी। वरना अन्य समय ये बेरोजगार होते थे। इस तरह हर समय काम उपलब्ध न होने के कारण इन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ता था। समाज द्वारा यही दबाव पड़ता था कि एक बढ़ई का बेटा बढ़ई ही बने। उसे सुनार या लुहार बनने का अधिकार नहीं। आज के समय में बहुत बदलाव आया है। आज लोग जाति के आधार पर नहीं अपनी योग्यता, क्षमता और शिक्षा के आधार पर पेशा चुनते हैं। शिक्षा ने लोगों की सोच और समाज में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं।

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Question 3:

लेखक के मत से 'दासता' की व्यापक परिभाषा क्या है?

Answer:

लेखक के आधार पर दासता की व्यापक परिभाषा एक व्यक्ति का पेशा चुनने का अधिकार न देना है। इस तरह आमुक व्यक्ति को हम दासता में बाँधकर रख देते हैं। जब किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति के पेशे, कार्य तथा कर्तव्य निर्धारित किए जाते हैं, तो ऐसी स्थिति को भी दासता कहा जाता है। स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः किसी अन्य व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के पेशे, कार्य तथा कर्तव्य को निर्धारित करे।

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Question 4:

शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर 'समता' के एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

Answer:

यह सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः प्रत्येक मनुष्य को यह भी अधिकार है कि वह समाज में रहते हुए अपनी क्षमता का पूरा विकास करे। हमें चाहिए कि सबके साथ इस आधार पर समानता का व्यवहार किया जाए। यह समाज में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। इस तरह हम समाज का उचित निर्माण ही नहीं करते बल्कि समाज का विकास भी करते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति के साथ समाज में समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है, इससे सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो सकती है। इस तरह समाज में असंतोष, निराशा तथा अशांति का भाव व्याप्त हो सकता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता तथा योग्यता के आधार पर जीने तथा पेशा चुनने का अधिकार होगा, तो समाज प्रगति ही नहीं करेगा बल्कि खुशहाल भी होगा। अतः आंबेडकर जी 'समता' के एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह करते हैं।

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Question 5:

सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसका प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया गया है। क्या इससे आप सहमत हैं?

Answer:

हम इस कथन से सहमत हैं। भावनात्मक समत्व के लिए आवश्यक है कि भौतिक स्थिति और जीवन-सुविधाएँ प्रत्येक मनुष्य को समान रूप से प्राप्त हों। यदि प्रत्येक मनुष्य की भौतिक स्थिति और जीवन-सुविधाएँ समान होगीं, तो उनमें भावनात्मक समत्व बढ़ेगा ही नहीं बल्कि उसे स्थापित भी किया जा सकेगा। यदि हम चाहते हैं कि समाज में यह स्थापित हो, तो इसके लिए अति आवश्यक है कि जातिवाद का उन्मूलन हो। जातिवाद में जाति के अनुसार व्यक्ति के साथ व्यवहार किया जाता है, जो भावनात्मक समत्व के मार्ग में बाधा है।

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Question 6:

आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक 'भ्रातृता' को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस 'भ्रातृता' शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी?

Answer:

लेखक ने स्वतंत्रता, समता तथा भ्रातृता को आदर्श समाज के आवश्यक तत्व बताएँ हैं। लेखक ने इस लेख में अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया है। हम 'भ्रातृता' शब्द से सहमत नहीं है। यहाँ पर बात मात्र जाति प्रथा की हो रही है। समाज में स्त्रियों की बात नहीं की गई है। स्त्री फिर किसी भी वर्ग की क्यों नो हो, उसे लिंग के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पूरे लेख में लेखक ने जाति प्रथा पर निशाना साधा है। यहाँ पर स्त्रियों की बात ही नहीं की गई है। हम इसके लिए दूसरा नाम बंधुत्व रखेंगे।

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Question 1:

आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है- उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' पर पुनर्विचार कीजिए।

Answer:

'गलता लोहा' कहानी बहुत से मुद्दों पर प्रकाश डालती है। इसमें दो बालक हैं। एक का नाम धनराम है, जो लुहार का बेटा है। दूसरा लड़का मोहन है, जो ब्राह्मण का बेटा है। यहाँ मास्टर धनराम को शिक्षा ग्रहण करने के लायक नहीं मानता है। वह यह मान लेता है कि लुहार का बेटा होने के कारण शिक्षा इसके लिए नहीं बनी है और वह धनराम के मन में भी यह बात बिठा देते हैं। उसे अपनी लुहार जाति होने के कारण शिक्षा के स्थान पर लुहार के कार्य को ही अपनाना पड़ता है। यही सख्त व्यवहार धनराम को शिक्षित नहीं बनने देता है। आंबेडकर जी ने यही बात कही है। यदि धनराम पर ध्यान दिया जाता, तो वह अपने पैतृक व्यवसाय से बाहर आ सकता था। इस तरह वह दूसरा व्यवसाय कर सकता था। मोहन परिस्थिति वश लुहार का कार्य करने के लिए विवश होता है।

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Question 2:

कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का प्रभाव  विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।

Answer:

कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक चित्रकार का बेटा अच्छा चित्रकार हो या एक व्यापारी का बेटा अच्छा व्यापारी हो। हर व्यक्ति की अपनी जन्मजात योग्यता तथा क्षमता होती हैं। एक चित्रकार का बेटा अच्छा व्यापारी बन सकता है और एक व्यवसायी का बेटा अच्छा चित्रकार। अतः हमें यह अधिकार होना चाहिए कि व्यक्ति को उसकी कार्य कुशलता के आधार पर पेशे चुनने का अधिकार हो। न कि जाति प्रथा के आधार पर किसी मनुष्य का पेशा निर्धारित किया जाए। जाति प्रथा ने लंबे समय तक लोगों का शोषण ही नहीं किया है बल्कि उनकी योग्यताओं तथा क्षमताओं का भी गला घोंटा है। यह उचित नहीं है।

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Question 1:

✽ आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।

Answer:

(विद्यार्थी यह संवाद को ढूँढकर इस प्रश्न का उत्तर दीजिए।)

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Question 2:

हिंद स्वराज  नामक पुस्तक में गांधी जी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।

Answer:

(विद्यार्थी यह पुस्तक पढ़कर इस प्रश्न का उत्तर दीजिए।)

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