Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 14 पहलवान की ढोलक Textbook Exercise Questions and Answers. पाठ के साथ प्रश्न 1. ये शब्द हमारे मन में भी उत्साह भरते हैं और संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. परंतु सूर्यास्त होते ही सब लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में चले जाते थे। किसी की आवाज़ तक नहीं आती थी। रात के घने अंधकार में एक चुप्पी-सी छा जाती थी। बीमार लोगों के बोलने की शक्ति नष्ट हो जाती थी। माताएँ अपने मरते हुए पुत्र को ‘बेटा’ भी नहीं कह पाती थी। रात के समय पूरे गाँव में कोई हलचल नहीं होती थी। प्रश्न 7. (ख) कुश्ती या दंगल की जगह अब क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, वॉलीबॉल, फुटबॉल, घुड़दौड़ आदि खेल प्रचलित हो गए हैं। (ग) कुश्ती को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक उपाय अपनाए जा सकते हैं। गाँव की पंचायतें अखाड़े तैयार करके अनेक युवकों को इस ओर आकर्षित कर सकती हैं। दशहरा, होली, दीवाली आदि पर्यों पर कुश्ती आदि का आयोजन किया जा सकता है। सरकार की ओर से भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों को पर्याप्त धन-राशि तथा सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए। इसी प्रकार सेना, रेलवे, बैंक, एयर लाइंज आदि में भी पहलवानों को नौकरी देकर कुश्ती को बढ़ावा दिया जा सकता है। हाल ही में जिन पहलवानों ने मैडल जीते थे, उनको सरकार की ओर से अच्छी सरकारी नौकरियाँ दी गई हैं और अच्छी धन-राशि देकर सम्मानित किया गया है। प्रश्न 8. प्रश्न 9. 2. रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती….. पाठ के आसपास प्रश्न 1.
प्रश्न 2. प्रश्न 3. भाषा की बात प्रश्न
1. चिकित्सा-डॉक्टर, मैडीसन, अस्पताल, वार्ड ब्वाय, ओ०पी०डी०, नर्सिंग होम, ओव्टी०, मलेरिया औषधि
आदि। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रस्तुत पाठ में कुश्ती की भी कमेंट्री की गई है। दोनों में समानता यह है कि दर्शक अपनी-अपनी टीम के खिलाड़ियों के उत्साह वर्धन के लिए तालियाँ बजाते हैं और खूब चीखते-चिल्लाते हैं। प्रायः दर्शक दो भागों में बँट जाते हैं। परंतु दोनों की कमेंट्री में काफी अंतर दिखाई देता है। कुश्ती में कोई निश्चित कामेंटेटर नहीं होता और न ही कमेंट्री करने की कोई उचित व्यवस्था होती है। कुश्ती की कमेंट्री के प्रसारण की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं होती। इसलिए यह खेल अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया। HBSE 12th Class Hindi पहलवान की ढोलक Important Questions and Answersप्रश्न 1. आरंभ से ही लुट्टन एक भाग्यहीन व्यक्ति था। बचपन में ही उसके माता-पिता चल बसे, बाद में उसके दोनों बेटे महामारी का शिकार बन गए। यही नहीं, राजा श्यामानंद के स्वर्गवास होने पर उसकी दुर्दशा हो गई। परंतु लुट्टन ने गाँव में रहते हुए प्रत्येक परिस्थिति का सामना किया। उसने महामारी की विभीषिका का डटकर सामना किया और सारी रात ढोल बजाकर लोगों को महामारी से लड़ने के लिए उत्साहित किया। वह एक संवेदनशील व्यक्ति था, जो सुख-दुख में गाँव वालों का साथ देता रहा। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर 1. ‘पहलवान की ढोलक’ रचना के लेखक का नाम क्या है? 2. ‘पहलवान की ढोलक’ किस विधा की रचना है? 3. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म कब हुआ? 4. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म किस राज्य में हुआ? 5. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म बिहार के किस जनपद
में हुआ? 6. फणीश्वर नाथ रेणु किस प्रकार के कथाकार हैं? 7. रेणु के जन्म स्थान का नाम क्या
है? 8. रेणु ने किस वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया? 9. रेणु का निधन किस वर्ष हुआ? 10. रेणु किस विचारधारा के साहित्यकार थे? 11. किस उपन्यास के प्रकाशन से रेणु को रातों-रात ख्याति प्राप्त हो गई? 12. ‘मैला आँचल’ का प्रकाशन कब हुआ? 13. रेणु के उपन्यास ‘परती परिकथा’ का प्रकाशन कब हुआ? 14. रेणु के उपन्यास ‘दीर्घतपा’ का प्रकाशन वर्ष क्या है? 15. ‘कितने चौराहे’ किस विधा की रचना है? 16. ‘कितने चौराहे’ का प्रकाशन वर्ष क्या है? 17. ‘ठुमरी’ किस विधा की रचना है? 18. ‘ठुमरी’ का प्रकाशन कब हुआ? 19. रेणु जी का कौन-सा उपन्यास उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ? 20. ‘ऋण जल धन जल’ किस विधा की रचना है? 21. इनमें से कौन-सी रचना संस्मरण विधा की है? 22. रेणु की किस कहानी पर लोकप्रिय फिल्म बनी? 23. ‘नेपाली क्रांति कथा’ और ‘पटना की बाढ़’ किस विधा की रचनाएँ हैं? 24. ‘पहलवान की ढोलक’ मुख्य रूप से किसका वर्णन करती है? 25. लट्टन कितनी आयु में अनाथ हो गया था? 26. किस पहलवान को शेर का बच्चा कहा गया? 27. गाँव में कौन-से रोग फैले हुए थे? 28. ढोलक की आवाज़ गाँव में क्या करती थी? 29. ‘शेर के बच्चे के गुरु का नाम था- 30. लुट्टन पहलवान के कितने पुत्र थे? 31. लट्टन ने चाँद सिंह को कहाँ के दंगल में हराया था? 32. पंजाबी जमायत किसके पक्ष में थी? 33. पहलवान क्या बजाता था? 34. लुट्टन पहलवान अपने दोनों हाथों को दोनों ओर कितनी डिग्री की दूरी पर फैलाकर चलने लगा था? 35. लुट्टन को किसका आश्रय प्राप्त हो गया? 36. दंगल का स्थान किसने ले लिया था? 37. लुट्टन के दोनों पुत्रों की मृत्यु किससे हुई? 38. रात्रि की भीषणता को कौन ललकारती थी? 39. लट्टन पहलवान कितने वर्ष तक अजेय रहा? 40. लुट्टन सिंह ने दूसरे किस नामी पहलवान को पटककर हरा दिया था? पहलवान की ढोलक प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या [1] जाड़े का दिन। अमावस्या की रात-ठंडी और काली। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयात शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता! अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। [पृष्ठ-108] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी साहित्य के महान आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आंचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक मलेरिया तथा हैजे से पीड़ित गाँव की एक अमावस्या की रात का वर्णन करते हुए कहता है कि- व्याख्या-भयंकर सर्दी का दिन था। अमावस्या की घनी काली रात थी। ठंड इस काली रात को और अधिक काली बना रही थी। पूरा गाँव मलेरिया तथा हैजे से ग्रस्त था। संपूर्ण गाँव भय से व्यथित बच्चे के समान थर-थर काँप रहा था। गाँव का प्रत्येक व्यक्ति सर्दी का शिकार बना हआ था। पुरानी तथा उजड़ी हुई बाँस तथा घास-फूस से बनी झोंपड़ियों में अँधेरा छाया हुआ था, साथ ही मौन का राज्य भी उनमें मिला हुआ था। चारों ओर अंधकार तथा चुप्पी थी। कहीं किसी प्रकार की हलचल सुनाई नहीं देती थी। लेखक रात का मानवीकरण करते हुए कहता है कि ऐसा लगता था कि मानों अँधेरी काली रात चुपचाप रो रही है और अपनी चुप्पी को छिपाने का प्रयास कर रही है। ऊपर आकाश में टिमटिमाते हुए तारे अपनी रोशनी फैलाने का प्रयास कर रहे थे। ज़मीन पर कहीं रोशनी का नाम तक दिखाई नहीं दे रहा था। दुखी लोगों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए यदि कोई संवेदनशील तारा ज़मीन की ओर जाने का प्रयास भी करता था तो उसका प्रकाश और ताकत रास्ते में ही समाप्त हो जाती थी, जिससे आकाश में अन्य तारे उसकी असफल संवेदनशीलता पर मानों खिलखिलाकर हँसने लगते थे। भाव यह है कि उस घने के एक तारा टूट कर पृथ्वी की ओर गिरने का प्रयास कर रहा था। शेष तारे ज्यों-के-त्यों आकाश में जगमगा रहे थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) अमावस्या की ठंडी और काली रात के कारण गाँव में अंधकार और सन्नाटा फैला हुआ था। (ग) गाँव के लोग मलेरिया तथा हैजे से पीड़ित थे। (घ) गाँव में मलेरिया तथा हैजा फैला हुआ था तथा महामारी के कारण हर रोज लोग मर रहे थे। चारों ओर मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। इसलिए लेखक ने कहा है कि ऐसा लगता था कि मानों अँधेरी रात भी आँसू बहा रही थी। [2] सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़, ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘माँ-माँ’ पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में | बाधा नहीं पड़ती थी। कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे। [पृष्ठ-108] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से अवतरित है। इसके लेखक हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक मलेरिया तथा हैज़े से ग्रस्त गाँव की अमावस्या की काली रात का वर्णन करते हुए कहता है कि- व्याख्या-गाँव में अंधकार और चुप्पी का साम्राज्य फैला हुआ था। बीच-बीच में झोंपड़ियों से कभी-कभी बीमार लोगों की आवाज़ निकल आती थी। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए लेखक कहता है कि सियारों की चीख-पुकार तथा उल्लू की भयानक आवाजें उस मौन को भंग कर देती थीं। गाँव की झोंपड़ियों में बीमार लोग पीड़ा से कराहने लगते थे और कभी-कभी हैज़े के कारण उल्टी कर देते थे। बीच-बीच में हरे-राम, हे भगवान की आवाजें सुनने को मिल जाती थीं। भाव यह है कि गाँव के असंख्य लोग हैज़े और मलेरिया से ग्रस्त थे। कभी-कभी कमज़ोर बच्चे अपने कमज़ोर गलों से ‘माँ-माँ’ कहकर रोने लगते थे। इस प्रकार रात की चुप्पी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था, लेकिन कुत्तों में परिस्थितियों को पहचानने की विशेष योग्यता होती है क्योंकि वे जान चुके थे कि गाँव में अनावृष्टि और महामारी फैली हुई है इसलिए उन्हें खाने को कुछ नहीं मिलेगा। वे कूड़े के ढेर पर गठरी के रूप में सिकुड़ कर पड़ संध्या अथवा गहरी रात होते ही सब मिलकर रोने लगते थे अर्थात् वे भूख से व्याकुल होकर भौंकते और चिल्लाते थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) सियारों और उल्लुओं की आवाजें इसलिए डरावनी लग रही थीं, क्योंकि गाँव में महामारी फैली हुई थी। प्रतिदिन दो-तीन लोग मर रहे थे। ऐसे में सियार और उल्लू भी चीख-पुकार कर रो रहे थे, मानों वे एक-दूसरे को मौत का समाचार दे रहे हों। (ग) झोंपड़ियों से बीमार तथा कमज़ोर रोगियों के कराहने तथा रोने और उल्टियाँ करने की आवाजें भी आ रही थीं। कभी-कभी ये रोगी हे राम, हे भगवान कहकर ईश्वर को पुकार उठते थे और छोटे बच्चे माँ-माँ कहकर रोने लगते थे। (घ) कुत्ते आसपास के वातावरण में चल रहे खुशी और गमी को पहचानने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। महामारी के कारण उन्होंने जान लिया था कि लोग महामारी के कारण प्रतिदिन मर रहे हैं। किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता, इसलिए कुत्तों को भी खाने को कुछ नहीं मिलता वे कूड़े के ढेर पर दुबककर बैठे रहते थे और रात को मिलकर एक-साथ रोते थे। [3] लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे; लट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था। [पृष्ठ-110] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आंचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन पहलवान की बाल्यावस्था का यथार्थ वर्णन किया है। व्याख्या-लेखक कहता है कि लुट्टन नौ साल का हुआ, तब उसके माता-पिता चल बसे और वह अनाथ हो गया। परंतु यह एक अच्छी बात थी कि उसका विवाह हो चुका था, नहीं तो वह भी मृत्यु का शिकार बन जाता। उसकी सास विधवा थी। उसी ने उसका लालन-पालन किया। बचपन में वह गाय चराने जाया करता था। गाय तथा भैंसों के थनों से निकला ताजा दूध पीता था तथा खूब व्यायाम करता था। अकसर गाँव के लोग उसकी सास को अनेक कष्ट देकर उसे परेशान करते थे। इसीलिए लुट्टन ने यह फैसला कि वह व्यायाम करके पहलवान बनेगा और लोगों से बदला लेगा। वह हर रोज नियमानुसार व्यायाम करता था, इसलिए किशोरावस्था में ही उसकी छाती चौड़ी हो गई थी और भुजाएँ खूब पुष्ट और सुदृढ़ बन गई थीं। जैसे ही लुट्टन ने यौवन में कदम रखा तो लोगों ने समझ लिया कि यह गाँव का सबसे अच्छा पहलवान है। अब गाँव के लोग उससे डरने लग गए थे। वह अपने हाथों को दोनों तरफ 45 डिग्री के फासले पर फैलाकर चलता था, जिससे उसकी चाल पहलवानों जैसी थी। कभी-कभी वह अन्य पहलवानों से से कुश्ती भी लड़ लेता था। भाव यह है कि जवानी में कदम रखते ही लुट्टन एक अच्छा पहलवान बन चुका था और लोगों पर उसका प्रभाव छा गया था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) नौ वर्ष की आयु में लुट्टन के माता-पिता चल बसे और वह अनाथ हो गया था। (ग) गाँव के लोग लुट्टन की सास को तरह-तरह के कष्ट देते थे अतः लुट्टन के मन में आया कि वह उन लोगों से बदला ले जिन्होंने उसकी सास को तंग किया था। इसीलिए उसने अपना शरीर मज़बूत बनाने के लिए पहलवानी शुरू कर दी। (घ) लुट्टन बचपन में गाएँ चराकर और कसरत करके बड़ा हुआ। (ङ) लुट्टन अब एक नामी पहलवान बन चुका था। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट था। इसलिए लोग उससे डरने लगे थे। (च) इस पंक्ति का भाव यह है कि सौभाग्य से लुट्टन का विवाह हो चुका था। अगर उसका विवाह न हुआ होता तो उसकी देखभाल करने वाला कोई न होता। नौ वर्ष की आयु में उसके माता-पिता चल बसे तो उसकी सास ने ही उसका लालन-पालन किया। अन्यथा अपने माता-पिता की भाँति वह भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता। [4] एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। ‘शेर के बच्चे का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था। [पृष्ठ-110] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। यहाँ लेखक ने श्यामनगर के दंगल का वर्णन किया है, जिसमें पंजाब के पहलवान चाँद सिंह (शेर के बच्चे) ने सभी पहलवानों को कुश्ती के लिए ललकारा था। लेखक कहता है कि व्याख्या-एक बार लुट्टन श्यामनगर के मेले में आयोजित दंगल को देखने गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उसमें भी कुश्ती लड़ने की इच्छा उत्पन्न हुई। यौवनकाल की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसके अंदर प्रबल जोश भर दिया। वस्तुतः ढोल की आवाज़ सुनकर लुट्टन की नसों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती थी। पहलवानी का माहौल देखकर लुट्टन अपने आपको रोक नहीं पाया और उसने ‘शेर के बच्चे’ (चाँद सिंह) को कुश्ती के लिए ललकार दिया। शेर के बच्चे का मूल नाम चाँद सिंह था। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ पहली बार श्यामनगर के मेले में आया था। वह बड़ा ही हृष्ट-पुष्ट और सुंदर नौजवान था। उसके शरीर के प्रत्येक अंग से सौंदर्य टपकता था। तीन दिनों में ही उसने पंजाबी तथा पठान पहलवानों के समूह को तथा अपनी आयु के सभी पहलवानों को हरा दिया जिसके फलस्वरूप उसे ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि प्राप्त हुई। फलस्वरूप वह दंगल के मैदान में लँगोट कसकर चलता रहता था। वह एक विचित्र प्रकार की किलकारी भरता था और उछल-उछल कर चलता था। स्थानीय युवक पहलवान उससे कुश्ती करने में घबराते थे। कोई भी उसका मुकाबला करने को तैयार नहीं था। अपनी पदवी को सच्चा सिद्ध करने के लिए चाँद सिंह दहाड़कर अन्य पहलवानों को भयभीत करने का प्रयास करता था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) बिजली उत्पन्न करने का आशय है कि प्रबल जोश उत्पन्न करना। ढोल की आवाज़ सुनने से लुट्टन की नसों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती थी और उसके तन-बदन में एक बिजली-सी कौंधने लगती थी। (ग) ‘शेर का बच्चा’ पंजाब के पहलवान चाँद सिंह को कहा गया है। उसने श्यामनगर के मेले में तीन दिनों में ही पंजाबी तथा पठानों के गिरोह तथा अपनी उम्र के सभी पहलवानों को कुश्ती में हराकर यह पदवी प्राप्त की थी। (घ) ‘शेर का बच्चा’ अर्थात चाँद सिंह दंगल के मैदान में लँगोट कसकर सभी पहलवानों को खली चनौती दिया फिरता था। वह अपने-आपको शेर का बच्चा सिद्ध करने के लिए विचित्र प्रकार की किलकारी मारा करता था। वह छोटी-छोटी छलाँगें लगाकर उछलता-कूदता हुआ बीच-बीच में दहाड़ उठता था। [5] भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-“उसे लड़ने दिया जाए!” अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाज़ा उसे मिल गया था। विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी-“लड़ने दो!” [पृष्ठ-111] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ लेखक ने उस स्थिति का वर्णन किया है जब लुट्टन राजा साहब से कुश्ती लड़ने की आज्ञा माँग रहा था। व्याख्या-लेखक कहता है कि लोगों की भीड़ बेचैन होती जा रही थी। यहाँ तक कि बाजे बजने भी बंद हो गए थे। लुट्टन बार-बार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हआ राजा साहब से कश्ती लड़ने की आज्ञा माँग रहा था। दूसरी ओर, पंज समूह क्रोध के कारण पागल हो रहा था। वे सभी लुट्टन पहलवान को गालियाँ दे रहे थे। कुछ लोग लुट्टन का पक्ष लेकर चिल्लाते हुए कह रहे थे कि उसे लड़ने की आज्ञा दी जानी चाहिए। उधर अकेला चाँद सिंह मैदान में खड़ा हुआ बेकार में हँसने की कोशिश कर रहा था। पहली पकड़ में उसे अंदाजा हो गया था कि उसका विरोधी ताकतवर है। उसे हराना आसान नहीं है। आखिर राजा साहब ने लुट्टन को अपनी स्वीकृति दे दी और कहा कि उसे लड़ने दिया जाए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) पंजाबी पहलवानों की जमायत लुट्टन को इसलिए गालियाँ दे रही थी क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि लुट्टन चाँद सिंह के साथ कुश्ती करे। (ग) चाँद सिंह मैदान में खड़ा इसलिए व्यर्थ मुसकुराने की चेष्टा कर रहा था क्योंकि उसने पहली पकड़ में यह जान लिया था कि उसका विरोधी लुट्टन ताकतवर है और उसे हराना आसान नहीं है। (घ) अंत में मजबूर होकर राजा साहब ने लुट्टन को चाँद सिंह से कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी। [6] लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत
चाँद के पक्ष में था। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लट्टन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज़ थी, जिसकी ताल पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज़ सुनाई पड़ी- प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। इसमें लेखक ने अपनी आँचलिक रचनाओं के माध्यम से ग्रामीण लोक संस्कृति तथा लोकजीवन का लोकभाषा के माध्यम से प्रभावशाली वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन और चाँद सिंह की कुश्ती का वर्णन किया है। व्याख्या-लेखक कहता है कि चाँद सिंह ने लुट्टन को कसकर दबा लिया था जिस कारण लुट्टन थोड़ा कमज़ोर पड़ गया था। घबराहट के कारण उसकी आँखें बाहर निकलती नज़र आ रही थीं। उसकी छाती पर भी दबाव बढ़ता जा रहा था। राजा साहब के अधिकारी चाँद सिंह का समर्थन कर रहे थे। सभी उसे शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन का समर्थन करने वाला कोई नहीं था। केवल ढोल की आवाज़ की ताल पर लुट्टन अपनी ताकत और दाँव-पेंच को जाँच रहा था और अपना हौसला बढ़ा रहा था। भाव यह है कि ढोल की आवाज़ उसके लिए प्रेरणा का काम कर रही थी। अचानक उसे ढोल की बारीक-सी आवाज़ सुनाई पड़ी, मानों ढोल लुट्टन से कह रहा था कि चाँद सिंह के दाँव को काटो और बाहर निकल जाओ। लुट्टन ने ऐसा ही किया। . विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) राजमत और बहुमत चाँद सिंह के पक्ष में इसलिए था क्योंकि एक तो वह ‘शेर के बच्चे’ की पदवी प्राप्त कर चुका था और दूसरा वह क्षत्रिय पंजाब का नामी पहलवान था। इसलिए सब लोग चाँद सिंह को ही शाबाशी दे रहे थे। (ग) लुट्टन के पक्ष में केवल ढोल की आवाज़ थी। उसी आवाज़ पर लुट्टन अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था। (घ) ढोल की आवाज़ लुट्टन को स्पष्ट कह रही थी कि चाँद सिंह के दाँव को काटकर बाहर निकल जाओ। [7] पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह बिचकाया-“हुजूर! जाति का…… सिंह…!”, मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। ‘क्लीन-शेव्ड’ चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-“हाँ सरकार, यह अन्याय है!” [पृष्ठ-112] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। प्रस्तुत कहानी में गाँव, अंचल तथा संस्कृति का सजीव चित्रण किया गया है। जब लुट्टन पहलवान ने पंजाबी पहलवान चाँद सिंह को दंगल में चित्त कर दिया था तब राजा साहब ने उसे अपने दरबार में राज-पहलवान बना दिया था। व्याख्या-लेखक कहता है कि लुट्टन पहलवान ने पंजाबी पहलवान चाँद सिंह पर विजय प्राप्त कर ली। फलस्वरूप चाँद सिंह की आँखों में हार के आँस आ गए। उसके पंजाबी पहलवान साथी भी बहुत दुखी थे। वे सब मिलकर चाँद सिंह को सांत्वना दे रहे थे। दूसरी ओर, राजा साहब ने लट्टन को न केवल इनाम दिया, बल्कि उसे हमेशा के लिए अपने दरबार में राज-पहलवान बन चुका था। राजा साहब उसे लुट्टन सिंह के नाम से बुलाने लगे, परंतु राज पुरोहित उससे खुश नहीं हुए। उन्होंने मुँह बिचकाते हुए राजा से कहा कि महाराज! यह तो छोटी जाति का व्यक्ति है। इसे सिंह कहना कहाँ तक उचित है। राजा साहब का मैनेजर एक क्षत्रिय था। उससे भी यह सहन नहीं हुआ कि एक छोटी जाति वाला व्यक्ति राज-पहलवान बने। उसने दाढ़ी-मूंछ मुँडवा रखी थी तथा उसका चेहरा बड़ा सिकुड़ा हुआ था। वह बार-बार अपनी नाक के बाल उखाड़ता जा रहा था। अपनी नाक के एक बाल को रगड़ते हुए उसने महाराज से कहा कि हाँ सरकार, यह तो सरासर न्याय विरोधी कार्य है। मैनेजर साहब के कहने का यह अभिप्राय था कि एक छोटी जाति के व्यक्ति को राज-पहलवान नहीं बनाया जाना चाहिए। यह पदवी तो किसी क्षत्रिय पहलवान को ही मिलनी चाहिए। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) राजा साहब ने लुट्टन को हमेशा के लिए अपने दरबार में रख लिया और उसे इनाम दिया, चूँकि वह राज-पहलवान बन चुका था, इसलिए राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे थे। (ग) राजा साहब ने लुट्टन पहलवान को अपने दरबार में इसलिए रख लिया क्योंकि उसने ‘शेर के बच्चे’ चाँद सिंह को दंगल में हराया था। उसने सर्वश्रेष्ठ पहलवान बनकर अपनी मिट्टी की लाज को बचाया था। दूसरा, राजा साहब पहलवानों के प्रशंसक भी थे। (घ) राजपुरोहित तथा क्षत्रिय मैनेजर दोनों ने लुट्टन के राज पहलवान बनने का विरोध किया। पहले तो राज पंडित ने मुँह बिचकाते हुए इस बात का विरोध किया कि छोटी जाति के लुट्टन को लुट्टन सिंह कहकर दरबार में रखना ठीक नहीं है। इसी प्रकार क्षत्रिय मैनेजर चाहता था कि किसी क्षत्रिय को राज पहलवान नियुक्त किया जाना चाहिए। (ङ) प्राचीन काल में भारतीय समाज में जाति-पाति और ऊँच-नीच का काफी भेदभाव व्याप्त था। राजाओं के यहाँ बड़े-बड़े अधिकारी ऊँची जाति के होते थे और वे छोटी जाति के लोगों से घृणा करते थे। बल्कि वे छोटी जाति के प्रतिभा संपन्न लोगों को उभरने नहीं देते थे और उन्हें दबाकर रखते थे। [8] राजा साहब ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-“उसने क्षत्रिय का काम किया है।” उसी दिन से लट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुंघाकर आसमान दिखा दिया। काला खाँ के संबंध में यह बात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर ‘आ-ली’ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है लुट्टन ने उसको भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया। [पृष्ठ-112] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने अपने उपन्यासों, कहानियों तथा संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जीवन तथा लोक संस्कृति का सजीव वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने उस स्थिति का वर्णन किया है जब राजा साहब के क्षत्रिय मैनेजर तथा राज-पुरोहित द्वारा लुट्टन पहलवान को राज पहलवान बनाने का विरोध किया था। राजा साहब ने उनको दो टूक उत्तर दिया। व्याख्या-राजा साहब क्षत्रिय मैनेजर तथा राजपुरोहित द्वारा उठाई गई आपत्ति के फलस्वरूप मुस्कुराकर बोले कि लुट्टन ने चाँद सिंह पहलवान को धूल चटाकर एक क्षत्रिय का ही काम किया है। इसलिए यह कहना गलत होगा कि वह क्षत्रिय नहीं है। उस दिन के बाद लुट्टन सिंह पहलवान का यश चारों ओर फैलने लगा। दूर-दूर तक के लोग जान गए कि लुट्टन राज-दरबार का पहलवान बन गया है। अब उसे खाने के लिए पौष्टिक भोजन मिलता था। वह खूब कसरत भी करता रहता था। इस पर राजा साहब की कृपा-दृष्टि भी उस पर बनी हुई थी। इससे उसका यश और भी बढ़ गया। कुछ ही वर्षों में लुट्टन सिंह ने आस-पास के सभी मशहूर पहलवानों को पराजित कर दिया था, जिससे उसका नाम काफी प्रसिद्ध हो गया। भाव यह है कि लुट्टन सिंह ने आस-पास के सभी पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ दिया था। उस समय काले खाँ नाम का एक प्रसिद्ध पहलवान था। उसके बारे में मशहूर था कि जब वह लँगोट बाँधकर ‘आ-ली’ कहता हुआ अपने विरोधी पर हमला करता है तो उसके विरोधी को लकवा मार जाता है अर्थात् उसके द्वारा हमला करते ही विरोधी पहलवान धराशायी हो जाता है। लुट्टन ने उसे भी दंगल में पटकनी दे दी जिससे लोगों के मन में काले खाँ को लेकर जो गलतफहमी थी, वह दूर हो गई। भाव यह है कि लुट्टन ने दूर-दूर के सुप्रसिद्ध पहलवानों को हराकर अपनी धाक जमा ली थी। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लुट्टन ने पंजाब के प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को धूल चटाई जिससे लोगों में उसका नाम प्रसिद्ध हो गया। दूसरा, लुट्टन सिंह ने राजा श्यामानंद के दरबार में राज पहलवान का पद पा लिया। इसलिए उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। (ग) काला खाँ एक नामी पहलवान था। उसे कोई भी हरा नहीं पाया था। उसके बारे में यह बात प्रसिद्ध थी कि जैसे ही वह लँगोट बाँधकर ‘आ-ली’ कहता है तो उसके विरोधी को लकवा मार जाता है। लट्टन सिंह ने उसे हराकर सब लोगों के भ्रम को दूर कर दिया। (घ) ‘मिट्टी सुंघाकर आसमान दिखाना’ का आशय है कि अपने विरोधी पहलवान को धरती पर पीठ के बल पटक देना, ताकि उसकी पीठ ज़मीन से लग जाए। कुश्ती की शब्दावली में इसे चित्त करना (हरा देना) कहते हैं। [9] किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-कराए पर एक दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय शिथिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया। [पृष्ठ-114] प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से अवतरित है। इसके लेखक हिंदी के सप्रसिद्ध आँचलिक कथाकार तथा निबंधकार ‘फणीश्वर नाथ रेण’ हैं। लेखक ने अनेक संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जन-जीवन तथा लोक संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने लट्टन सिंह के जीवन में आए परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए लिखा है- व्याख्या-लुट्टन सिंह ने पहलवानी के क्षेत्र में जो शिक्षण-परीक्षण प्राप्त किया था और राज दरबार में अपना स्थान बनाया था, वह सबं समाप्त हो गया था। यहाँ तक कि अपने बच्चों को भावी पहलवान बनाने के सपने भी चूर-चूर हो गए, क्योंकि वृद्ध राजा श्यामनंद का देहांत हो गया था। नया राजकुमार विलायत से शिक्षा प्राप्त करके लौटा था। उसने आते ही राज्य व्यवस्था संभाल ली। राजा साहब के समय में राज्य व्यवस्था कुछ ढीली पड़ गई थी, परंतु राजकुमार ने आते ही सब कुछ ठीक कर दिया। उसने अनेक परिवर्तन किए। उन परिवर्तनों का एक धक्का लुट्टन पहलवान को भी लगा। अब राजकुमार ने कुश्ती दंगल में रुचि लेनी बंद कर दी और वह घोड़े की रेस में रुचि लेने लगा। भाव यह है कि राजदरबार से लुट्टन सिंह और उसके दोनों बेटों को निकाल दिया गया, क्योंकि राजकुमार पश्चिमी सभ्यता में पला नौजवान था और वह पहलवानों का खर्चा उठाना नहीं चाहता था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय राज्य व्यवस्था में काफी शिथिलता आ चुकी थी। राजकुमार ने इस शिथिलता को दूर किया और बहुत से परिवर्तन किए। उन्हीं परिवर्तनों में से एक धक्का पहलवान को भी लगा। (ग) राज्य परिवर्तन होने से किसी को लाभ होता है किसी को हानि। उदाहरण के रूप में जब राजकुमार राजा बना तो लुट्टन सिंह पहलवान को हानि हुई क्योंकि उसे राजदरबार से निकाल दिया गया। दूसरी ओर घुड़दौड़ से संबंधित कर्मचारियों को आश्रय मिल गया और उन्हें दरबार से धन मिलने लगा। (घ) प्रस्तुत कहानी को पढ़ने से पता चलता है कि राज दरबार में रहने के लिए राजाश्रय के साथ-साथ राजा के विश्वस्त मैनेजरों के साथ-साथ उसके सलाहकारों की कृपा दृष्टि भी बनी रहनी चाहिए, अन्यथा दरबार में राजाश्रित व्यक्ति का वही हाल होगा, जो लुट्टन सिंह का हुआ। [10] अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया। गाँव प्रायः सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज़ दो-तीन लाशें उठने लगी। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन में तो कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कूँखते कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे “अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन! जो गया सो तो चला गया, वह तुम्हारा नहीं था; वह जो है उसको तो देखो।” [पृष्ठ-114] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके लेखक हिंदी के सुप्रसिद्ध आँचलिक कहानीकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने अपने असंख्य उपन्यासों, कहानियों एवं संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक आँचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन करता है, तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत करता है। यहाँ लेखक ने गाँव में अनावृष्टि, मलेरिया तथा हैजे के प्रकोप का बड़ा ही संवेदनशील वर्णन किया है व्याख्या-लेखक कहता है कि अचानक गाँव पर बिजली गिर पड़ी। पहले तो वर्षा न होने के कारण सूखा पड़ा जिससे अन्न की भारी कमी हो गई और लोग भूख से मरने लगे। इसके बाद मलेरिया तथा हैजे के कारण गाँव के लोग मृत्य को प्राप्त धीरे-धीरे सारा गाँव सूना होता जा रहा था। अनेक घर तो खाली हो गए थे। प्रतिदिन गाँव से दो-तीन शव निकाले जाते थे जिससे लोगों में काफी घबराहट फैली हुई थी। कहने का भाव यह है कि हर रोज दो-चार मनुष्यों के मरने से गाँव के लोगों में खलबली मच गई थी। दिन में शोर-शराबा, हाय-हाय तथा हृदय को फाड़ने वाले विलाप की आवाजें आती थीं। फिर भी लोगों के चेहरों पर थोड़ा बहुत तेज दिखाई देता था। कारण यह है कि सूर्य के उदय होते ही उसकी रोशनी में लोग खाँसते और कराहते हुए अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसी तथा रिश्तेदारों को सांत्वना देते थे। वे रोती हुई स्त्री से कहते थे कि हे बहू! अब रोने से क्या लाभ है, जो इस संसार से चला गया, वह अब लौटकर आने वाला नहीं है। यूँ समझ लो कि वह तुम्हारा था ही नहीं। जो इस समय तुम्हारे पास जिंदा है, उसकी देखभाल करो। कहने का भाव यह है कि अनावृष्टि, मलेरिया तथा हैज़े के कारण पूरे गाँव में मृत्यु का तांडव नाच चल रहा था। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर- (ख) मलेरिया तथा हैजे की महामारी की चपेट में आने के कारण लोग मृत्यु का ग्रास बन रहे थे। प्रतिदिन गाँव से दो-तीन लाशें उठने लगी थीं, इसीलिए गाँव सूना होता जा रहा था। कुछ मकान तो खाली पड़े हुए थे। (ग) दिन के समय लोग काँखते-कूँखते-कराहते हुए अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और सगे-संबंधियों को सांत्वना देते थे। इससे उनके चेहरे पर प्रभा रहती थी। (घ) लोग अपने पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों को ढांढस बंधाते हुए कहते थे कि-अरी बहू! अब रोने का क्या लाभ है? जो इस संसार से चला गया, वह अब लौटकर आने वाला नहीं है। यूँ समझ लो कि वह तुम्हारा था ही नहीं। जो इस समय तुम्हारे पास जिंदा है, उसकी देखभाल करो। [11] रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूंदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे। [पृष्ठ-115] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके कहानीकार आँचलिक
कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने असंख्य उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आंचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि रात की भयानकता में पहलवान की ढोलक की आवाज़ आधे मरे हुए तथा दवाई-इलाज से रहित लोगों को संजीवनी शक्ति प्रदान करती थी। इसी स्थिति का वर्णन करते हुए लेखक कहता व्याख्या-मलेरिया और हैजे के कारण गाँव में निरंतर लोगों की मृत्यु हो रही थी। चारों ओर विनाश फैला हुआ था। दिन की अपेक्षा रात अधिक भयानक होती थी, परंतु पहलवान की ढोलक की आवाज़ इस भयानकता का सामना करती थी। लुट्टन पहलवान शाम से लेकर सवेरे तक, चाहे किसी भी विचार से ढोलक बजाता था, परंतु गाँव के मृतःप्राय तथा औषधि और इलाज रहित लोगों के लिए यह संजीवनी का काम करती थी अर्थात् ढोलक की आवाज़ बीमार तथा लाचार प्राणियों को थोड़ी-बहुत शक्ति देती थी। गाँव के बूढ़े-बच्चों एवं जवानों में निराशा छाई हुई थी, परंतु ढोलक की आवाज़ सुनकर उनकी आँखों के सामने दंगल का नज़ारा नाच उठता था। लोगों के शरीर की नाड़ियों में जो धड़कन और ताकत समाप्त हो चुकी थी ढोलक की आवाज़ सुनते ही मानों उनके शरीर में बिजली दौड़ जाती हो। इतना निश्चित है कि ढोलक की आवाज़ में ऐसा कोई गुण नहीं है जो मलेरिया के बुखार को दूर कर सके और न ही कोई ऐसी ताकत है जो महामारी से उत्पन्न विनाश की ताकत को रोक सकती थी। परंतु यह भी निधि कि ढोलक की आवाज़ सुनकर मरने वाले लोगों को कष्ट नहीं होता था और न ही वे मौत से डरते थे। भाव यह है कि ढोलक की आवाज़ सुनकर गाँव के अधमरे और मृतःप्राय लोग मृत्यु का आलिंगन कर लेते थे। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) रात की भयानकता के कारण लोगों में मौत का डर समाया रहता था, परंतु पहलवान की ढोलक की आवाज़ गाँव के सभी लोगों को सहारा देती थी। चाहे बीमार लोगों को कोई औषधि न मिलती हो, परंतु उन्हें उत्साह अवश्य मिलता था। (ग) पहलवान की ढोलक की आवाज़ सुनकर लोगों के निराश तथा मरे हुए मनों में भी उत्साह की लहरें उत्पन्न हो जाती थीं। उनकी आँखों के सामने दंगल का नजारा नाचने लगता था और वे मरते समय मृत्यु से डरते नहीं थे। (घ) ढोलक की आवाज़ गाँव के अधमरे, औषधि, उपचार तथा पथ्यहीन प्राणियों में संजीवनी का काम करती थी। [12] उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई। किंत, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज़, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा-“दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!” चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा-पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। [पृष्ठ-115] प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से उद्धृत है। इसके कहानीकार आँचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं। लेखक ने असंख्य उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आँचलिक जन-जीवन तथा लोक-संस्कृति का सजीव वर्णन किया है तथा पहलवानी को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ लेखक ने लुट्टन सिंह पहलवान के आखिरी क्षणों का संवेदनशील वर्णन किया है व्याख्या-लुट्टन सिंह पहलवान के दोनों बेटे भी महामारी का शिकार बन गए, परंतु पहलवान के चेहरे पर कोई दुख का भाव नहीं था। उस दिन उसने राजा श्यामानंद द्वारा दिया गया रेशमी जाँघिया पहना और सारे शरीर पर मिट्टी मली। तत्पश्चात् उसने खूब व्यायाम किया और दोनों बेटों की लाशों को अपने कँधों पर लादकर पास की नदी में प्रवाहित कर दिया। जब लोगों ने इस समाचार को सुना तो सभी हैरान रह गए। कुछ लोगों की तो हिम्मत टूट गई। उनका सोचना था कि दोनों बेटों के मरने के बाद पहलवान निराश हो गया होगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। हर रोज़ की तरह रात के समय पहलवान की ढोलक की आवाज़ सुनाई दे रही थी। इससे निराश लोगों की हिम्मत दोगुनी बढ़ गई। दुखी पिता और माताओं ने यह कहा कि भले ही लुट्टन पहलवान के दोनों बेटे मर गए हैं, परंतु उसमें बड़ी हिम्मत और हौंसला है। उसका दिल बड़ा मज़बूत है। ऐसा दिल आम लोगों के पास नहीं होता। लेकिन चार-पाँच दिन बीतने के बाद एक रात ऐसी आई कि ढोलक की आवाज़ बंद हो गई। ढोलक की आवाज़ सुनाई नहीं दी। सुबह पहलवान के कुछ उत्साही और बीमार शिष्यों ने जाकर देखा तो पहलवान की लाश ज़मीन पर चित्त पड़ी है अर्थात् उसकी लाश पीठ के बल पड़ी है। विशेष-
गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (ख) लोग पहलवान की हिम्मत के कारण हैरान थे। पिता होते हुए भी वह अपने बेटों की मौत पर नहीं रोया। मरते दम तक वह ढोल बजाता रहा। यही नहीं, अपने बेटों को बीमारी से लड़ने के लिए उत्साहित करता रहा। उनकी मृत्यु होने पर वह उन दोनों की लाशों को अपने कंधों पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया। (ग) लोगों ने देखा कि उन सबका उत्साह बढ़ाने वाले पहलवान के दोनों बेटे मर गए हैं और वह उनकी लाशों को अपने कंधों पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया था। इस घटना से लोगों की हिम्मत टूट गई थी। वे यह समझने लगे कि अब तो पहलवान बहुत ही निराश हो गया है। अतः वह अब ढोल नहीं बजाएगा। (घ) पहलवान ने अपने आखिरी दम तक ढोलक को बजाना जारी रखा। उसकी मृत्यु होने के बाद ही ढोलक बजनी बंद हो गई। (ङ) जब ढोलक का बजना बंद हो गया तो लोगों ने समझ लिया कि अब पहलवान भी संसार से विदा हो चुका है। (च) मौत के बारे में पहलवान की यह इच्छा थी कि उसके शव को चिता पर चित्त न लिटाया जाए क्योंकि वह जीवन में कभी भी किसी से चित्त नहीं हुआ था। इसलिए उसने अपने शिष्यों को कह रखा था कि उसके शव को चिता पर पेट के बल लिटाया जाए और मुखाग्नि देते समय ढोलक बजाई जाए। पहलवान की ढोलक Summary in Hindiपहलवान की ढोलक लेखक-परिचय प्रश्न-फणीश्वर नाथ रेणु का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। 2. प्रमुख रचनाएँ-रेणु जी मूलतः कथाकार हैं, लेकिन उन्होंने कुछ संस्मरण तथा रिपोर्ताज भी लिखे हैं।
3. साहित्यिक विशेषताएँ-फणीश्वर नाथ रेणु को अपने पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ से विशेष ख्याति मिली। इसकी कथा भूमि उत्तरी-बिहार के पूर्णिया अँचल की है। इसके बाद लेखक ने प्रायः आँचलिक उपन्यासों तथा कहानियों उन्होंने बिहार के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है। उनका साहित्य आँचलिक प्रदेश की लोक संस्कृति तथा लोक विश्वासों और लोगों के जीवन-क्रम पर पड़ने वाले प्रभावों को बड़ी आत्मीयता से उकेरता है। वस्तुतः मैला आँचल के प्रकाशन के शीघ्र बाद उन्हें रातों-रात एक महान साहित्यकार की उपाधि प्राप्त हो गई। जहाँ अन्य साहित्यकार स्वतंत्रता प्राप्ति को आधार बनाकर साहित्य की रचना करने लगे, वहाँ रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा अँचल की समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। ‘पहलवान की ढोलक’ रेणु जी की एक प्रतिनिधि कहानी है, जिसमें लेखक ने ग्रामीण अंचल की संस्कृति को बड़ी सजीवता के साथ अंकित किया है। उनके संपूर्ण कथा साहित्य में कथावस्तु, पात्रों का चरित्र-चित्रण, देशकाल, कथोपकथन, भाषा-शैली तथा उद्देश्य की दृष्टि से सर्वत्र आँचलिकता का ही आभास होता है। वे सच्चे अर्थों में आंचलिक कथाकार कहे जा सकते हैं। 4. भाषा-शैली-रेणु जी ने अपनी रचनाओं में प्रायः आँचलिक भाषा का ही प्रयोग किया है। भले ही उनकी रचनाओं की भाषा हिंदी है, परंतु उसमें यत्र-तत्र आँचलिक शब्दों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। लेखक ने अपनी प्रत्येक रचना में सहज एवं सरल, हिंदी भाषा का प्रयोग करते समय तत्सम, तद्भव तथा आँचलिक शब्दों का सुंदर मिश्रण किया है। कहीं-कहीं वे अंग्रेज़ी शब्दों का देशीकरण भी कर लेते हैं और कहीं-कहीं मैनेजर, क्लीन-शेव्ड, होरीबुल, टैरिबुल आदि अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते। उनकी रचनाएँ विशिष्ट भाषा प्रयोग के लिए प्रसिद्ध हैं। एक उदाहरण देखिए-“लुट्टन पहलवान ने चाँद सिंह को ध्यान से देखा फिर बाज़ की तरह उस पर टूट पड़ा। देखते-ही-देखते पासा पलटा और चाँद सिंह चाहकर भी जीत न सका। राजा साहब की स्नेह दृष्टि लुट्टन पर पड़ी, बस फिर क्या था, उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लग गए। जीवन सुख से कटने लगा। पर दो पहलवान पुत्रों को जन्म देकर उसकी स्त्री चल बसी।” संक्षेप में हम कह सकते हैं कि फणीश्वर नाथ रेणु की साहित्यिक रचनाएँ कथ्य तथा शिल्प दोनों दृष्टियों से उच्च कोटि की आँचलिक रचनाएँ हैं। उन्होंने बिहार के जन-जीवन का जो यथार्थपरक वर्णन किया है, वह बेमिसाल बन पड़ा है। वे प्रायः वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, प्रतीकात्मक तथा संवादात्मक शैलियों का सफल प्रयोग करते हैं। पहलवान की ढोलक पाठ का सार प्रश्न- 2. बाल्यावस्था में लुट्टन का विवाह लुट्टन की शादी बचपन में ही हो गई थी। नौ वर्ष का होते-होते उसके माता-पिता का देहांत हो गया। सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। वह अकसर गाय चराने जाता था, ताजा दूध पीता था और खूब व्यायाम करता था, परंतु गाँव के लोग उसकी सास को तकलीफ पहुँचाते रहते थे। इसी कारण वह पहलवान बन गया और कुश्ती लड़ने लगा। धीरे-धीरे वह आसपास के गाँवों में नामी पहलवान बन गया था, परंतु उसकी कश्ती ढोल की आवाज के साथ जुड़ी हुई थी। 3. श्यामनगर के दंगल का आयोजन एक बार श्यामनगर में दंगल का आयोजन हुआ। लुट्टन भी दंगल देखने गया। इस दंगल में चाँद सिंह नामक पहलवान अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ आया था। उसने लगभग सभी पहलवानों को हरा दिया, जिससे उसे “शेर के बच्चे” की उपाधि मिली। किसी पहलवान में यह हिम्मत नहीं थी कि वह उसका सामना करता। श्यामनगर के राजा चाँद सिंह को अपने दरबार मे रखने की सोच ही रहे थे कि इसी बीच लुट्टन ने चाँद सिंह को चुनौती दे डाली। लुट्टन ने अखाड़े में अपने लंगोट लगाकर किलकारी भरी। लोगों ने उसे पागल समझा। कुश्ती शुरू होते ही चाँद सिंह लुट्टन पहलवान पर बाज की तरह टूट पड़ा। यह देखकर राजा साहब ने कुश्ती रुकवा दी और लुट्टन को समझाया कि वह चाँद सिंह से कुश्ती न लड़े। लेकिन लुट्टन ने राजा साहब से कुश्ती लड़ने की आज्ञा माँगी। इधर राजा साहब के मैनेजर और सिपाहियों ने भी उसे बहुत समझाया, लेकिन लुट्टन ने कहा कि यदि राजा साहब उसे लड़ने की अनुमति नहीं देंगे तो वह पत्थर पर अपना सिर मार-मार मर जाएगा। भीड़ काफी बेचैन हो रही थी। पंजाबी पहलवान लुट्टन को गालियाँ दे रहे थे और चाँद सिंह मुस्कुरा रहा था, परंतु कुछ लोग चाहते थे कि लुट्टन को कुश्ती लड़ने का मौका मिलना चाहिए। आखिर मजबूर होकर राजा साहब ने लुट्टन को कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी। 4. लट्टन और चाँद सिंह की कुश्ती-ज़ोर-ज़ोर से बाजे बजने लगे। लुट्टन का अपना ढोल भी बज रहा था। अचानक चाँद सिंह ने लुट्टन पर हमला किया और उसे कसकर दबा लिया। उसने लुट्टन की गर्दन पर कोहनी डालकर उसे चित्त करने की कोशिश की। दर्शक चाँद सिंह को उत्साहित कर रहे थे। उसका गुरु बादल सिंह भी चाँद सिंह को गुर बता रहा था। ऐसा लग रहा था कि लुट्टन की आँखें बाहर निकल आएँगी। उसकी छाती फटने को हो रही थी। सभी यह सोच रहे थे कि लुट्टन हार जाएगा। केवल ढोल की आवाज़ की ताल ही एक ऐसी शक्ति थी जो लुट्टन को हिम्मत दे रही थी। 5. लुट्टन की विजय-ढोल ने “धाक धिना”, “तिरकट तिना” की आवाज़ दोहराई। लुट्टन ने इसका अर्थ यह लगाया कि चाँद सिंह के दाँव को काटकर बाहर निकल जा। सचमुच लुट्टन बाहर निकल गया और उसने चाँद सिंह की गर्दन पर कब्जा कर लिया। ढोल ने अगली आवाज़ निकाली “चटाक् चट् धा” अर्थात् उठाकर पटक दे और लुट्टन ने चाँद सिंह को उठाकर धरती पर दे मारा। अब ढोलक ने “धिना-धिना धिक धिना” की आवाज़ निकाली। जिसका यह अर्थ था कि लुट्टन ने चाँद सिंह को चारों खाने चित्त लक ने “धा-गिड-गिड” वाह बहादर की ध्वनि निकाली। लट्टन जीत गया था। लोग माँ दुर्गा, महावीर तथा राजा श्यामानंद की जय-जयकार करने लग गए। लुट्टन ने श्रद्धापूर्वक ढोल को प्रणाम किया और फिर राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब ने लुट्टन को शाबाशी दी और उसे हमेशा के लिए अपने दरबार में रख लिया। 6. राज-दरबार में लुट्टन का काल-पंजाबी पहलवान चाँद सिंह के आँसू पोंछने लगे। बाद में राज-पंडित तथा क्षत्रिय मैनेजर ने नियुक्ति का विरोध भी किया। उनका कहना था कि राज-दरबार में केवल क्षत्रिय पहलवान की ही नियुक्ति होनी चाहिए, परंतु राजा साहब ने उनका समर्थन नहीं किया। शीघ्र ही राज्य की ओर से लुट्टन के लिए सारी व्यवस्था कर दी गई। कुछ दिनों में लुट्टन ने आसपास के सभी पहलवानों को पराजित कर दिया। यहाँ तक कि काले खाँ पहलवान भी लुट्टन से हार गया। राज-दरबार का आसरा मिलने के बाद लुट्टन घुटने तक लंबा चोगा पहने अस्त-व्यस्त पगड़ी पहने हुए मेलों में हाथी की चाल चलते हुए घूमता था। हलवाई के कहने पर वह दो सेर, रसगुल्ले खा जाता था। यहाँ तक कि आठ दस पान एक-ही बार मुँह में रखकर चबा जाता था, परंतु उसके शौक बच्चों जैसे थे। वह आँखों पर रंगीन चश्मा लगाता था। हाथ में खिलौने नचाता था और मुँह से पीतल की सीटी बजाता था। 7. लुट्टन का प्रभाव-लुट्टन हर समय हँसता रहता था। दंगल में कोई भी उससे कुश्ती करने की हिम्मत नहीं करता था। यदि कोई उससे कुश्ती करना भी चाहता तो राजा साहब उसे अनुमति नहीं देते थे। इस प्रकार राजदरबार में रहते हुए लुट्टन ने पंद्रह वर्ष व्यतीत कर दिए। लुट्टन की सास और पत्नी दोनों मर चुके थे। उसके दो बेटे थे। वे दोनों अच्छे पहलवान थे। लोग कहते थे कि ये दोनों लड़के बाप से भी अच्छे पहलवान निकलेंगे। शीघ्र ही दोनों को राजदरबार के भावी पहलवान घोषित कर दिया गया। तीनों का भरण-पोषण राजदरबार की तरफ से हो रहा था। लुट्टन अपने लड़कों से कहा करता था कि मेरा गुरु कोई मनुष्य न होकर, ढोल है। मैं इसे ही प्रणाम करके अखाड़े में उतरता हूँ। तुम दोनों भी इसी को प्रणाम करके अखाड़े में उतरना। शीघ्र ही उसने अपने बेटों को पहलवानी के सारे गुर सिखा दिए। 8. राजा साहब की मृत्यु और लुट्टन का बेटों सहित गाँव लौटना अचानक राजा साहब का स्वर्गवास हो गया। नया राजकुमार विलायत से पढ़कर लौटा था। शीघ्र ही उसने राजकाज को सँभाल लिया। उसने राज प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिए अनेक प्रयत्न किए जिससे लुट्टन और उसके बेटों की छुट्टी कर दी गई। लुट्टन अपने बेटों को साथ लेकर और ढोल कंधे पर रखकर गाँव लौट आया। गाँव के लोगों ने उनके लिए एक झोंपड़ी बना दी। जहाँ लुट्टन गाँव के नौजवानों और ग्वालों को कुश्ती की शिक्षा देने लगा। खाने-पीने का खर्च भी गाँव वाले उठा रहे थे, परंतु यह व्यवस्था अधिक दिन तक नहीं चल पाई। गाँव के सभी नौजवानों ने अखाड़े में आना बंद कर दिया। अब लुट्टन केवल अपने दोनों लड़कों को ही कुश्ती के गुर सिखा रहा था। 9. लुट्टन के जीवन तथा परिवार का अंत-अचानक गाँव पर भयानक संकट आ गया। पहले तो गाँव में सूखा पड़ गया, जिससे गाँव में अनाज की भारी कमी हो गई। शीघ्र ही मलेरिया और हैजे का प्रकोप फैल गया। गाँव में एक के बाद एक घर उजड़ने लगे। प्रतिदिन दो-तीन मौतें हो जाती थीं। लोग रोते हुए एक-दूसरे को सांत्वना देते थे। दिन छिपते ही लोग अपने घरों में छिप जाते थे। चारों ओर मातम छाया रहता था। केवल पहलवान की ढोलक बजती रहती थी। गाँव के बीमार कमजोर तथा अधमरे लोगों के लिए ढोलक की आवाज़ संजीवनी शक्ति का काम कर रही थी। एक दिन तो पहलवान पर भी वज्रपात हो गया। उसके दोनों बेटे भी मृत्यु का ग्रास बन गए। लुट्टन ने लंबी साँस लेते हुए यह कहा कि “दोनों बहादुर गिर पड़े।” उस दिन लुट्टन ने राजा साहब द्वारा दिया रेशमी जांघिया पहना और शरीर पर मिट्टी मलकर खूब कसरत की। फिर वह दोनों बेटों को कंधे पर लादकर नदी में प्रवाहित कर आया। यह घटना देखकर गाँव वालों के भी हौंसले पस्त हो गए। चार-पाँच दिन बाद एक रात को ढोलक की आवाज बंद हो गई। लोग समझ गए कि कोई अनहोनी हो गई है। सुबह होने पर शिष्यों ने झोंपड़ी में जाकर देखा कि लुट्टन पहलवान की लाश चित्त पड़ी थी। शिष्यों ने गाँव वालों को बताया कि उनके गुरु लुट्टन ने यह इच्छा प्रकट की थी कि उसके शव को चिता पर पेट के बल लिटाया जाए क्योंकि वह जिंदगी में कभी चित नहीं हुआ और चिता को आग लगाने के बाद ढोल बजाया जाए। गाँव वालों ने ऐसा ही किया। कठिन शब्दों के अर्थ अमावस्या = चाँद रहित अंधेरी रात। मलेरिया = एक रोग जो मच्छरों के काटने से फैलता है। हैजा = प्रदूषित पानी से फैलने वाला रोग। भयार्त्त = भय से व्याकुल। शिशु = छोटा बच्चा। सन्नाटा = चुप्पी। निस्तब्धता = चुप्पी, मौन। चेष्टा = कोशिश। भावुक = कोमल मन वाला व्यक्ति। ज्योति = प्रकाश। शेष होना = समाप्त होना। क्रंदन = चीख-पुकार। पेचक = उल्लू । कै करना = उल्टी करना। मन मारना = थक कर हार जाना। टेर = पुकार । निर्बल = कमज़ोर। कंठ = गला। ताड़ना = भाँपना। घूरा = गंदगी का ढेर। संध्या = सांझ। भीषणता = भयंकरता। ताल ठोकना = चुनौती देना, ललकारना। मृत = मरा हुआ। संजीवनी = प्राण देने वाली बूटी। होल इंडिया = संपूर्ण भारत । अनाथ = बेसहारा। अनुसरण करना = पीछे-पीछे चलना। धारोष्ण = गाय-भैंस के थनों से निकलने वाला ताजा दूध । नियमित = हर रोज। सुडौल = मज़बूत। दाँव-पेंच = कुश्ती लड़ने की युक्तियाँ। बिजली उत्पन्न करना = तेज़ी उत्पन्न करना। चुनौती = ललकारना। अंग-प्रत्यंग = प्रत्येक अंग। पट्टा = पहलवान। टायटिल = पदवी। किलकारी = खुशी की आवाज़। दुलकी लगाना = उछलकर छलांग लगाना। किंचित = शायद। स्पर्धा = मुकाबला। पैंतरा = कुश्ती का दांव-पेंच। गोश्त = माँस । अधीर = व्याकुल । जमायत = सभा। उत्तेजित = भड़कना। प्रतिद्वंद्वी = मुकाबला करने वाला। विवश = मजबूर। हलुआ होना = पूरी तरह से कुचला जाना। चित्त करना = पीठ लगाना, हराना। आश्चर्य = हैरानी। जनमत = लोगों का साथ। चारों खाने चित्त करना = पूरी तरह से हरा देना। सन-जाना = भर जाना। आपत्ति करना = अस्वीकार। गद्गद् होना = प्रसन्न होना। पुरस्कृत करना = इनाम देना। मुँह बिचकाना = घृणा करना। संकुचित = सिकुड़ा हुआ। कीर्ति = यश। पौष्टिक = पुष्ट करने वाला। चार चाँद लगाना = शान बढ़ाना। आसमान दिखाना = हरा देना, चित्त करना। टूट पड़ना = आक्रमण करना। लकवा मारना = पंगु हो जाना। भ्रम दूर करना = संदेह को दूर करना। दर्शनीय = देखने योग्य । अस्त-व्यस्त = बिखरा हुआ। मतवाला = मस्त। चुहल = शरारत। उदरस्थ = पेट में डालना। हुलिया = रूप-सज्जा। अबरख = रंगीन चमकीला कागज़। वृद्धि = बढ़ोतरी। देह = शरीर । अजेय = जो जीता न जा सके। अनायास = अचानक। भरण-पोषण = पालन-पोषण। प्रताप = शक्ति। पानी फिरना = समाप्त होना। विलायत = विदेश। शिथिलता = ढिलाई । चपेटाघाट = लपेट में लेकर प्रहार करना। टैरिबल = भयानक। हौरिबल = अत्यधिक भयंकर। छोर = किनारा । चरवाहा = पशु चराने वाला। अकस्मात = अचानक। वज्रपात होना = वज्र का प्रहार होना, बहुत दुख होना। अनावृष्टि = सूखा पड़ना। कलरव = शोर। हाहाकार = रोना-पीटना। हृदय-विदारक रुदन = दिल को दहलाने वाला रोना। प्रभा = प्रकाश। काँखते-कूँखते = सूखी खाँसी करते हुए। आत्मीय = अपने प्रिय। ढाढ़स देना = तसल्ली देना। विभीषिका = भयानक स्थिति। अर्द्धमृत = आधे मरे हुए। औषधि = दवाई। पथ्य-विहीन = औषधि रहित। संजीवनी शक्ति = जीवन देने वाली ताकत। स्पंदन-शक्ति-शून्य = धड़कन रहित। स्नायु = नसें। आँख मूंदना = मरना। क्रूर काल = कठोर मृत्यु। असह्य वेदना = ऐसी पीड़ा जो सहन न की जा सके। दंग रहना = हैरान होना। हिम्मत टूटना = निराश होना। संतप्त = दुखी। डेढ़ हाथ का कलेजा = बहुत बड़ा कलेजा। रुग्ण = बीमार। लुट्टन पहलवान ने ढोल को अपना गुरु क्यों माना?लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है? उत्तर:- लुट्टन ने कुश्ती के दाँव-पेंच किसी गुरु से नहीं बल्कि ढोल की आवाज से सीखे थे। ढोल से निकली हुई ध्वनियाँ उसे दाँव-पेच सिखाती हुई और आदेश देती हुई प्रतीत होती थी।
लुट्टन ने ऐसा क्यों कहा कि मेरा गुरु कोई और नहीं यह ढोल है?44 लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा, ढोल कह रहा था - " दाँव काटो, बाहर हो जा दाँव काटो, बाहर हो जा !! "
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