Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions Show पृथ्वी पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर प्रश्न 1. इस प्रक्रिया में उसे जो उपेक्षाएँ मिलती हैं तनाव मिलता है, सहानुभूति की जगह आलोचना मिलती है, उससे उसके भीतर आक्रोश-विद्रोह की ज्वाला भी धधकती है। कभी-कभी वह अपना संतुलन खो देती है और अपने ही संसार को बिखरने के कगार पर आ जाता है। किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने आक्रोश-विद्रोह की आग को शिवम् बनाकर, नया रूप देकर ऐसा कुछ सार्थक मूल्यवान प्रस्तुत करती है कि संसार चकित रह जाता है। यही सब कुछ पृथ्वी भी बड़े फलक पर करती है। यही कारण है कि कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. कवि के इस पंक्ति लक्ष्यार्थ है कि नारी अपने त्याग, अपनी तपस्या और बलिदान की अग्नि में साधारण पात्र को भी सुपात्र बना देती है। संसार में जितनी भी महान् विभूतियाँ हैं। सबका निर्माण माँ रूपी धधकती भट्ठी में ही हुआ है। स्त्रियों ने सारा दुःख गरल अपमान पीकर सहकर एक से बढ़कर एक नवरत्न उत्पन्न किए हैं। कोयले को हीरा अर्थात् मूर्ख को विद्वान बनाने की साधनात्मक कला स्त्रियों को ही आती है। प्रश्न 5. पृथ्वी के रहस्यों का समय-समय पर जनहित में कुछ महामानव (वैज्ञानिक) उद्घाटित करने का अंशतः प्रयास किया है। अनेकों रहस्यों से परिचित होने के बावजूद अभी भी पृथ्वी के सम्पूर्ण रहस्य को जानना एक अनछुआ पहलू, शोध का विषय है। कवि कहना चाहता है कि पृथ्वी के गर्भ से निकले रत्नों के गुण-दोष से हम परिचित हो जाते हैं परन्तु उसके हृदय के अन्दर व्याप्त रहस्यों का जटिलता से पूर्णत: परिचित होने में हम अब भी असफल हैं। प्रश्न 6. कवि के अनुसार नारी भी अपनी गृहस्थी के केन्द्र में गतिमान रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है। अपनी सेवा, त्याग, ममता, सहिष्णुता, स्नेह की बारिश अपने परिवार को पुष्पित एवं पल्लवित करती है। वह सदा पृथ्वी की तरह बिना थके हुए अपने कर्तव्य-पथ पर घूमती रहती है। कवि ने पृथ्वी और नारी के कर्तव्य निर्वहन को ‘घूमना’ से प्रतिबिंबित किया है। प्रश्न 7. पृथ्वी शीर्षक कविता समानान्तर चलने वाली दो कविताओं का संयोजन है। कवि को ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी में जितने गुण-अवगुण हैं उसी का लघु संस्करण एक आम स्त्री है। पृथ्वी की जो भी गतिविधियों हैं, जो भी अवदान है ठीक वैसी ही गतिविधियों स्त्री की भी हैं। पृथ्वी भी धारण करती है (इसीलिए इसका एक नाम धरती है) स्त्री भी धारण करती इसलिए इसका भी एक नाम है। पृथ्वी एक से बढ़कर एक अमूल्य-बहुमूल्य रत्न अपने गर्भ से निकाल कर धरणी दे चुकी है जिससे अपने संतान को उसका जीवन अधिक सुख-सुविधा सम्पन्न हो सका है। पृथ्वी जीवन के उपकरण साधन संसाधन उपलब्ध कराती है। पानी, वायुमंडल, प्राकृतिक सम्पदा सब कुछ पृथ्वी के अवदान हैं। एक स्त्री पृथ्वी की तरह मसृण भावनाओं संवेदनाओं को अपने हृदय में धारण करती है। आदर्श, सर्वोच्च जीवन मूल्यों की वह उत्पादिका, संरक्षिका और वाहिका है। सृष्टि का वस्तुजगत सत्य है जिसे स्त्री अपनी कल्पना, ममता, कठोरता, अनुशासन, उद्बोधन, प्रेरणा, सहायता, सहचरता आदि के द्वारा सत्यम, शिवम् और सुन्दरम में परिणत कर देती है। पृथ्वी की गतिद्वय सतत् है और इसी सातत्य के कारण जीवन शेष है जीवन प्रवाहमान है। एक स्त्री का तपसचर्या वाला जीवन भी सतत् है जिसके कारण सृष्टि का सृजन का महत् यज्ञ जारी है। इस प्रकार निश्चय ही पृथ्वी और स्त्री एक-दूसरे के बिम्ब प्रतिबिम्ब ही हैं। पृथ्वी भाषा की बात। प्रश्न 1.
प्रश्न 2. अन्य उदाहरण-कभी-कभी, हाथों-हाथ, दिनों-दिन, रातों-रात, कोठे-कोठे, आप-ही-आप, एका-एक, मुहाँ-मुँह आदि। प्रश्न 3.
प्रश्न 4. कतिपय उदाहरण-
प्रश्न 5. क्या तुम पढ़ रहे हो? तुम क्या पढ़ रहे हो? संकेत वाचक वाक्य का ही उदाहरण है “पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो”। संकेत वाचक वाक्य में कोई संकेत या शर्त सूचित होता है। यदि बचाया होता तो आज मजा करते। प्रश्न 6. अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर पृथ्वी दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. पृथ्वी को नारी मानकर कवि ने धरती पर उगे पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं तथा बसे हुए नगरों तथा गाँवों के सम्मिलित रूप को उसकी गृहस्थी कहा है। इसी तरह नारी भीतर-बाहर तरल होती है। लेकिन कभी-कभी प्रचण्ड रूप धारण कर अपने अग्निगर्भा होने का प्रमाण देती है। ज्वालामुखी मों फूटनेवाली पृथ्वी भी अग्निगर्भा है। धरती रत्नगर्भ है। अनेक रत्न उसे खोदने पर प्राप्त होते है।। स्त्री भी एक से एक तेजस्वी और मूल्यवान संतानों को जन्म देने के कारण रत्नगर्भा है। इन तीन विशेषताओं के आलोक में हम कह सकते हैं कि कवि ने स्त्री और पृथ्वी में साम्य अनुभव कर पृथ्वी को नारीरूप माना है। प्रश्न 2. पृथ्वी की तुलना कवि ने एक स्त्री से की है, और एक कटु सत्य का अन्वेषण किया है। कवि का दृष्टिकोण आस्थामूलक दिशा की खोज करने का है। स्त्री में जिजीविषा है, आस्था है, वह अपने मन की गहराइयों में उठनेवाली आकुल तरंगों को रोक कर जीवन के सारे प्रश्नों को हल करती है। पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जल है, और नीचे भी जल है, लेकिन उसके गर्भ में, गर्भ के केन्द्र में अग्नि है, यही अग्नि उसे उपादेय बनाती है। वस्तुतः इसी ताप और आर्द्रता से कोयले को हीरे में बदलने की क्षमता होती है। कवि ने कविता में पृथ्वी की तुलना नारी से की है, जो नर को शक्तिवान बनाती है, जिसमें ममता, वात्सल्य, के लिए त्याग, कोमलता एवं मधुरता की मात्रा पुरुषों की उपेक्षा अधिक होती है। स्त्री हमें पुत्ररत्न देती है। वह जीवन की प्रत्येक धड़कनों से कल्याणकारिणी होती है उसका हृदय पृथ्वी की तरह ही रहस्यों से भरा रहता है। प्रश्न 3. पृथ्वी लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. पृथ्वी तो मानो एक भारतीय नारी है, जिसके बाहर भी (आँखों में) जल है और सतह के नीचे भी जल है, लेकिन नारी अग्निगर्भा भी है। पृथ्वी के नीचे जैसे आग है, वैसे ही भारतीय नारी के भीतर आग है जो रत्नों को उत्पन्न करती है। नारी में अगर कोमलता, महणता है, जो कठोरता भी है। पठित कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि पृथ्वी की तरह स्त्री भी अद्भुत गरिमा एवं गौरव से परिपूर्ण होती है। पृथ्वी अति लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. पृथ्वी वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. पृथ्वी कवि परिचय – नरेश सक्सेना (1939) नरेश सक्सेना का जन्म 1939 ई. में ग्वालियर मध्य प्रदेश में हुआ है। वे बीसवीं शदी के सातवें दशक में एक अच्छे और विश्वसनीय कवि के रूप में जाने जाते हैं। जिस कवि ने आजादी के 20 वर्षों के बाद का भारत देखा हो, पहली बार उस कवि की कविताओं में कल्पना का अंश, मनोरंजन का अंश आ ही नहीं सकता। पाकिस्तान का दो-दो बार हमला करना, चीन का भारत पर हमला करना, भुखमरी, अकाल सबको देखने, भोजने वाले नरेश मेहता को मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न होती है और मानवीय मूल्यों, आदर्शों का उत्स नारी है। नारी का हृदय है तो वे नाम की वर्तमान विपन्न विषण्ण स्थिति को देखकर क्षुब्ध हो उठते हैं। आरम्भिक दौर में नरेश सक्सेना काव्यान्दोलन से जुड़े। किन्तु समय की कटु कठोर सच्चाइयों ने इन्हें बाध्य किया और ये अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिकता, वैचारिकता और संवेदनशीलता के साथ कविता रचने लगे। समकालीन घटनाओं पर इनकी लेखनी खूब चली। कोई घटना, अनछुई नहीं रह सकी। सक्सेना जी ने “मैं” को अपने काव्य का उपजीव्य नहीं बनाया। ये पूर्णतः निर्वैयक्तिक और वस्तुपरक होकर, तटस्थ होकर लिखते हैं। उन्हें कवि कर्म और उत्पाद के बीच के सम्बन्ध पर संदेह है। “जैसे चिड़ियों की उड़ान में क्या कविताएँ होंगी मुसीबत में हमारे साथ? कवि को लगता है कि कविताओं से जीवन को नहीं चलाया जा सकता। कविता के सहारे संघर्ष नहीं किया जा सकता। नरेश सक्सेना को अपनी रचनाओं से राग, मोह नहीं है। कवि की प्रतीक्षा आगे के कई विषय करते मिलते हैं। आज का जीवन कितना संघर्षपूर्ण प्रतियोगितात्मक है, इसे स्वयं नरेश सक्सेना ने भोगा। जल निगम के उपप्रबंधक पत्रिकाओं के सम्पादक और टेलीविजन रंगमंच के लेखक के रूप में चुनौतियों से दो-चार होना आज भी जारी है। फिर भी उनका हृदय कटु भावनाओं से भरा नहीं है, बल्कि उनमें मानवीय संवेदनाएँ भरी पड़ी हैं। वस्तुतः ये दृष्टिकोण के विस्तार और संवेदनाओं की प्रगाढ़ता के भीतर ही युगधर्म के प्रचलित सरोकारों यथा, राजनीति, सामाजिकता एवं प्रतिबद्धताओं और उनके वास्तविक अर्थपूर्ण रुख, रुझानों को अपना बनाते चलते हैं। अभियंता का जीवन जीने वाला जब कवि कर्म को अपनाता है तो उसकी रचना दृष्टि ज्यादा तथ्यपरक होती है। वस्तु को वह वस्तुपरक ढंग से रखता है। भाषा नपी-तुली होती है। कविता में ज्ञान-विज्ञान के तथ्यों का – समायोजन एक कठोर संयमित साधना का ही प्रतिफलन है। नरेश मेहता का काव्य संसार ठोस साक्ष्यों पर आधारित है। किन्तु प्रभाव में वही मसृणता . प्राप्त होता है। मेहता भी बिम्बों के सृजनहार है। मुक्त छंद तो आजादी के बाद का कविता धर्म ही बन गया। किन्तु मुक्त छंद में भी बातें प्रभावशाली बन जाती हैं, मारक क्षमता प्राप्त कर लेती हैं। मेहता जी का मुक्त छंद भी हमें नई वैचारिक भूमि उपलब्ध कराता है। वास्तव में समसामयिक जीवन की समस्याओं और संघर्षों से नरेश का गहरा लगाव स्पष्ट होता है। ऐसा करते हुए उनका दृष्टिकोण संवेदना मानवीय पक्ष का उजागर करता है। पृथ्वी कविता का सारांश नरेश सक्सेना रचित ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता समसामयिक जीवन की समस्याओं और संघर्षों से हमारा अद्भुत तरीके से साक्षात्कार करती है। प्रस्तुत कविता में कवि पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए उसकी भौगोलिक बनावट, उसकी नियति, उसके आक्रोश आदि का लेखा-जोखा तो लेता ही है। कवि पृथ्वी के बहाने नारी, स्त्री जीवन की उच्चता और विडंबना को भी प्रस्तुत करता है। भूगोल और विज्ञान के सत्य के साथ कवि पृथ्वी से कहता है कि तुम घुमती हो और लगातार। बिना रुके अपने केन्द्र पर तो तुम घूर्णन करती ही हो एक अन्य बाह्य केन्द्र (सूर्य) के परितः पर चक्रण करती है। एक ही साथ दो अलग प्रकृति के घुमाव से क्या तुम्हें चक्कर नहीं आते? तुम्हारी आँखों के आगे अंधेरा नहीं छाता? तुम हमेशा दो विपरीत प्रकृतियों को साथ लिए चलती है। तुम्हारे आधे भाग में सूर्य के कारण उजाला और आधे भाग में तुम्हारी बनावट के कारण अँधेरा होता है। तुम रात-दिन एक करते हुए दिन को रात और रात को दिन में बदलने के लिए गतिमान रहती हो। अनथक परिश्रम रत रहती हो। तुम्हें हमने कभी चक्कर खाकर गिरते नहीं देखा। हाँ कभी-कभी तुम कॉपती हो जब तुम्हारी आन्तरिक बनावट में कोई विक्षोभ उत्पन्न होता है। तब लगता है कि सम्पूर्ण अस्ति को नास्ति में बदलकर ही दम लोगी। तुमने अपनी गृहस्थी को सजाने-संवारने के लिए पेड़, पर्वत, नदी, गाँव, टीले की व्यवस्था की है लगता है भूकंप की स्थिति में तु अति क्रोध में आकर इन्हें नष्ट करने पर उद्धत हो प्रतिबद्ध हो गई हो। तुम्हारा सारा स्वभाव एक स्त्री से मिलता है। क्या तुम भी स्त्री हो। स्त्री के भी कम-से-कम दो व्यक्तित्व होते हैं। वह भी पूरे जीवन नर्तन घूर्णन चक्रण में व्यस्त रहती है वह भी विन्यास करती है और आक्रोश की पराकाष्ठा पर वह भी अपने ही संसार को नष्ट करने पर उतारू हो जाती है। पृथ्वी तुम्हारी सतह पर जीवन के लिए अपरिहार्य तत्त्व जल प्रचुरता में उपलब्ध है। यह जल तत्व तुम्हारी सतह के नीचे भी है जो शीतलता संचरण संतुलन में लगा है। किन्तु तुम्हारे भी केन्द्र में एक स्त्री की तरह केवल आग दहकता है। क्या तुम्हें भी सदियों से उपेक्षा, तिरस्कार का सामना करना पड़ रहा है जो आक्रोश का पूँजीभूत रूप अग्नि बन गया है। पृथ्वी तुम एक स्त्री की तरह तपस्या साधना करने वाली हो। एक स्त्री अपने कठोर अनुशासन और मसृण ममत्व के बल पर अपने बच्चे को सर्वगुण सम्पन्न बना देती है। वैसे ही तुम भी अपने क्रोड के चरम ताप, दाब और जल तत्त्व के आर्द्रगुण के सहयोग से वह भी बिना किसी विज्ञापन के कष्टकर जटिल प्रक्रियाओं से गुजर कर कोयले को हीरा बना देती हो। तुम्हारे गर्भ में हृदय में हीरा ही नहीं अन्य अनेक असंख्य रत्न, धातु संरक्षित हैं। उनका रहस्यमय संसार तुम्हारे हृदय की रहस्यमयता को कई गुणा बढ़ा देता है। ठीक जैसे एक स्त्री के असली और सम्पूर्ण भावों की कोई लाख कोशिका करके नहीं पकड़ सकता, पढ़ना-समझना तो बहुत दूर की बात है। पृथ्वी तुम अपनी अनंत रहस्यमयता के साथ एक स्त्री की तरह ही लगातार सतत् चलायमान हो, घूर्णनरत हो। कवि ने विज्ञान के सायों को मानवीय भावनाओं, क्रियाओं की संगति में रखकर स्वयं एक स्त्री के श्वेत-श्याम पक्ष को सतर्क ढंग से प्रस्तुत किया है। एक स्त्री का सम्पूर्ण दाम त्यागमय है, गरिमामय है। किन्तु बदले से उसे क्या मिला है? और चाहकर भी, चिड़चिड़ा कर भी एक स्त्री अपने ही घरौंदे को क्यों नहीं रौंदती। शायद इसी लिए कि एक स्त्री का ही वृहत् रूप पृथ्वी. है सकल जीव जड़ चेतन की माँ है। पृथ्वी कवि की प्रस्तुति बेजोड़ है। आधुनिक कविता में अलंकारों का वैसे भी कोई महत्त्व नहीं है। जहाँ वैचारिकता का प्रधान्य हो वहाँ तो अलंकार भार स्वरूप ही लगते हैं। फिर भी अनायास रूप से अनुप्रास, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकार ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता में प्राप्त हो ही जाते हैं। वास्तव में इस कविता में कवि ने पृथ्वी और स्त्री का तुलनात्मक विवेचन करते हुए भारतीय स्त्री के आत्मसंघर्ष, आत्मदान और त्याग को त्याग पर प्रकाश डाला है। पृथ्वी कठिन शब्दों का अर्थ आर्द्रता-नमी। गृहस्थी-गृह-व्यवस्था। सतह-ऊपरी तल। प्रक्रिया-किसी काम को करने की प्रणाली। पृथ्वी काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 1. पृथ्वी तुम घूमती हो ……… नहीं आते। 2. कभी-कभी काँपती हो……… कोई स्त्री हो। इस काँपने के कारण कवि को लगता है कि यह एक ऐसी स्त्री का क्रोध में काँपना है जो क्रोध के आवेग में अपनी ही गृहस्थी को नष्ट-भ्रष्ट करती है। यहाँ कवि ने पेड़, पर्वत, नदी, टीले गाँव, शहर आदि के सम्मिलित रूप को पृथ्वी की गृहस्थी माना है और पृथ्वी को गृहस्थिन नारी। मानवीकरण की इस संभावना के बीच कवि प्रश्न करता है कि क्या तुम एक स्त्री हो? स्पष्टतः कवि की दृष्टि में पृथ्वी का आचरण तक तेजस्विनी अग्नि गुण प्रधान नारी का है। 3. तुम्हारी सतह पर कितना जल है …….. सिर्फ अग्नि। कवि की दृष्टि में स्त्री ऊपर से भी जल की तरह तरल है और हृदय के स्तर पर भीतर भी भावनाओं के कारण तरल है। लेकिन उसमें भीतर अग्नि-तत्त्व भी प्रबल है जो प्रायः विशेष परिस्थितियों में उसे ज्वालामुखी बनता देती है और वह चण्डी बन जाती है। इस तरह सभी पृथ्वी में समानता तलाशते हुए कवि पृथ्वी से पूछता है-“क्या तु कोई स्त्री हो?” 4. कितने ताप कितने दबाव ……………… कोई स्त्री हो। अतः कवि मानता है कि एक चतुर स्त्री की तरह चुपचाप पृथ्वी विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर रत्नों का निर्माण कर लेती है। अतः रत्नों से ज्यादा रत्नों की रचना से रहस्य से पृथ्वी का हृदय भरा है। यही स्थिति नारी की होती है वह भी रहस्यमय हृदयवाली होती है। अतः कवि विश्वासपूर्वक जिज्ञासा करता है-“पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो?” कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह क्यों लगती है?14.2.5 अंश - 5 आइए, कविता की अंतिम पाँच पंक्तियाँ फिर से पढ़ लेते हैं। इन पंक्तियों में कवयित्री ने पृथ्वी को बूढ़ी औरत के रूप में प्रस्तुत करते हुए उसके दुख को प्रकट किया है।
स्त्री की तरह क्यों लगती है वर्णन करें?'सिंदूर' शब्द सुनते ही सबसे पहले दो दृश्य आंखों के सामने उपस्थित होने लगते हैं, एक स्त्री की मांग और दूसरा लाल या पीला रंग। यह लाल रंग एक स्त्री की खुशियां, ताकत, स्वास्थ्य, सुंदरता आदि से सीधे जुड़ा है।
6 कवि को पृथ्वी कैसे लगती है?हो सकता है पास, तुम्हारे है अपनी कुछ धरती हो फूल- - फलों से लदे बगीचे और अपनी धरती हो । कभी मत उस दुनिया को खोना पेड़ों को मत कटने देना, मत चिड़ियों को रोना।
पृथ्वी के काँपने का क्या अर्थ है ?`?पृथ्वी के अचानक कांपने या थरथराने को कहते हैं। Solution : भूकंप पृथ्वी की सतह को हिलाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी के लिथोस्फीयर में ऊर्जा अचानक उत्सर्जित होती है जो भूकंपनीय तरंगें पैदा करती है। पृथ्वी की सतह पर, भूकंप जमीन को हिलाने और विस्थापित करके | या विरुपित करके खुद को प्रकट करते हैं।
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