कृष्ण की चेतावनी शीर्षक कविता में कवि ने कृष्ण को असाध्य क्यों कहा गया? - krshn kee chetaavanee sheershak kavita mein kavi ne krshn ko asaadhy kyon kaha gaya?

रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताएँ बचपन से मन को उद्वेलित करती रही हैं। पर स्कूल की पुस्तकों में उनके लिखे महाकाव्य कुरुक्षेत्र व रश्मिरथी के कुछ बेहद लोकप्रिय अंश ही रहा करते थे । स्कूल के दिनों में उनकी   दो लोकप्रिय कविताएँ शक्ति और क्षमा व हिमालय हमने नवीं  और दसवीं में पढ़ी थीं जो कुरुक्षेत्र का ही हिस्सा थीं। कुरुक्षेत्र तो महाभारत के शांति पर्व पर आधारित थी वहीं रश्मिरथी दानवीर कर्ण पर ! रश्मिरथी का शाब्दिक अर्थ वैसे व्यक्ति से है जिसका जीवन रथ किरणों का बना हो। किरणें तो ख़ुद ही सुनहरी व उज्ज्वल होती हैं। कर्ण के लिए ऐसे उपाधि का चयन दिनकर ने संभवतः उनके सूर्यपुत्र और पुण्यात्मा होने की वज़ह से किया हो।

कृष्ण की चेतावनी शीर्षक कविता में कवि ने कृष्ण को असाध्य क्यों कहा गया? - krshn kee chetaavanee sheershak kavita mein kavi ne krshn ko asaadhy kyon kaha gaya?

रश्मिरथी के अंशों को मैंने शुरुआत में टुकड़ों में पढ़ा इस बात से अनजान कि ये पुस्तक बचपन से ही घर में मौज़ूद रही। रश्मिरथी यूँ तो 1952 में प्रकाशित हुई पर 1980 में जब करीब सवा सौ पन्नों की ये पुस्तक मेरे घर आई तो जानते हैं इसका मूल्य कितना था? मात्र ढाई रुपये!

जब किताब हाथ में आई तो समझ आया कि ये काव्य तो एक ऐसी रोचक कथा की तरह चलता है जिसे एक बार पढ़ना शुरु किया तो फिर बीच में इसे छोड़ना संभव नहीं। दिनकर, महाभारत के पात्र कर्ण की ये गाथा सात सर्गों यानि खंडों में कहते हैं। दिनकर की भाषा इतनी ओजमयी है कि शायद ही कोई उनके इस काव्य को बिना बोले हुए पढ़ सके।  आज जन्माष्टमी के अवसर पर मैं आपको इस महाकाव्य के तीसरे सर्ग का वो हिस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसमें बारह वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास को काटने के बाद पांडवों ने कौरवों से सुलह के लिए भगवान कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा जो कौरवों की राजधानी हुआ करती थी। इस अंश को कई जगह कृष्ण की चेतावनी के रूप में किताबों में प्रस्तुत किया गया।


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

 हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

कृष्ण की चेतावनी शीर्षक कविता में कवि ने कृष्ण को असाध्य क्यों कहा गया? - krshn kee chetaavanee sheershak kavita mein kavi ne krshn ko asaadhy kyon kaha gaya?

 यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
परिधि-बन्ध :  क्षितिज , मैनाक-मेरु : दो पौराणिक पर्वत

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य, सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
दृग : आँख,  शत कोटि : सौ करोड़

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
जिष्णु : विष्णु के अवतार

भूलोक अटल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन, यह देख महाभारत का रण 
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान,  कहाँ इसमें तू है

अंबर में  कुंतल जाल देख, पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं
कुंतल : तारा

जिह्वा से कढ़ती ज्वाला सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता  हूँ लोचन
छा जाता चारो ओर  मरण
लोचन : आँख

बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 वह्नि : अग्निपुंज

भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बँद से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।
 वायस : कौआ,  श्रृगाल : सियार

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

विदुर तो पहले से ही कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्हें प्रभु के विकराल रूप के दर्शन हुए। पर ऐसी कथा है कि विदुर ने जब धृतराष्ट्र से कहा कि आश्चर्य है कि भगवान अपने विराट रूप में विराज रहे हैं। इसपर धृतराष्ट्र ने अपने अंधे होने का पश्चाताप किया। पश्चाताप करते ही भगवन के इस विराट रूप देखने तक के लिए उनको दृष्टि मिल गयी।

मुझे तो इस कविता को पढ़ना और अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करना आनंदित कर गया। रश्मिरथी का ये अंश और पूरी किताब आपको कैसी लगती है ये जरूर बताएँ। तीसरे सर्ग के इस अंश का कुछ हिस्सा अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गुलाल में भी इस्तेमाल किया था। उन अंशों को अपनी आवाज़ से सँवारा था पीयूष मिश्रा ने।

यहाँ कृष्ण को असाध्य क्यों कहा गया है?

रक्खो अपनी धरती तमाम। परिजन पर असि न उठायेंगे! जो था असाध्य, साधने चला। पहले विवेक मर जाता है।

कृष्ण की चेतावनी पाठ में ऐसा क्यों कहा गया है कि वायस और श्रगाल सुख लूटेंगे?

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। हिंसा का पर, दायी होगा। थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े। केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कृष्ण की चेतावनी कविता के कवि कौन हैं?

यह प्रसंग राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य-संग्रह 'कृष्ण की चेतावनी' से लिया गया है।

कृष्ण कहाँ और किसे चेतावनी दे रहे हैं?

पांडव का संदेशा लाये। तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। परिजन पर असि न उठायेंगे!