तेज़ बारिश के बाद बाढ़ की स्थिति बन गई और कम से कम सात लोगों की मौत हो गई. एक इलाका ऐसा भी था जहां एक ही दिन में उतनी बारिश हो गई जितनी पूरे साल में नहीं होती.
यूएई ने जब से बारिश बढ़ाने के लिए कृत्रिम तरीके आज़माना शुरू किया है तब से इस तरह के दृश्य आम हो चले हैं. हालांकि जुलाई 2022 में हुई बारिश में इसकी कितनी भूमिका है, अभी ये जानकारी सामने नहीं आई है.
मौसम में बदलाव की कोशिश करने वाला यूएई अकेला देश नहीं है. कई और देश ऐसा करते रहे हैं. इन तरीकों को लेकर विवाद हुआ है. नतीजों और मकसद पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं.
अब सवाल है कि क्या हम मौसम को काबू कर सकते हैं?
बीबीसी ने इसका जवाब पाने के लिए चार एक्सपर्ट से बात की.
मौसम विज्ञानी डॉक्टर रॉबर्ट थॉम्पसन कहते हैं, " मौसम कैसे तय होता है. ये समझना आसान है. हमारी धरती सूर्य के ज़रिए गर्म होती है. इससे बहुत सारी ऊर्जा मिलती है."
डॉक्टर रॉबर्ट थॉम्पसन बताते हैं, "सूरज धरती की सारी सतह को एक बराबर गर्म नहीं करता."
उनके मुताबिक गर्माहट में अंतर की वजह से मौसम बदलता है. तापमान तय करने में वातावरण का दबाव, नमी और बादल बनने की स्थिति की भी भूमिका होती है.
डॉक्टर रॉबर्ट बताते हैं, "बादलों के अधिकांश हिस्से में हवा होती है. इनमें पानी या बर्फ की बूंदें भी होती हैं. जब बूंदें बड़ी हो जाती हैं तो वो टपकने लगती हैं. बारिश ऐसे ही कराई जाती है."
तेज़ तीव्रता वाले तूफ़ान की वजह होता है समुद्र का गर्म पानी. इसके संपर्क से गर्म हुई हवा तेज़ी से ऊपर उठती है. ऊपर की ठंडी हवा और नीचे से उठती गर्म हवा के टकराव से जो ऊर्जा पैदा होती है, उससे तूफ़ान आगे बढ़ता है.
डॉक्टर रॉबर्ट कहते हैं, "बीते सालों में हमने जितनी उम्मीद लगाई, निश्चित ही उससे कहीं ज़्यादा तूफ़ान उठते देखे गए. कुछ मौकों पर प्रभावित इलाकों में ऐसी जगह भी थीं, जहां तूफ़ान आना असामान्य माना जाता है. मौसम का बदलता मिज़ाज यकीनन हैरान करने वाली बात है."
डॉक्टर रॉबर्ट कहते हैं कि वातावरण के गर्म होने का असर कई इलाकों में दिख रहा है. वो याद दिलाते हैं कि ब्रिटेन में पहली बार तापमान 40 डिग्री तक पहुंच गया. स्पेन और दक्षिणी फ्रांस में भी ज़्यादा तापमान रहा.
डॉक्टर रॉबर्ट कहते हैं, "पश्चिमी यूरोप के अधिकांश हिस्से और दक्षिणी यूरोप में तापमान काफी ज़्यादा रहा. गर्मियों में हम जितने तापमान की उम्मीद लगाते हैं, उससे कहीं ज़्यादा. हमने दुनिया के दूसरे इलाकों में भी ऐसा देखा है. बीते साल कनाडा में तापमान के पुराने सभी रिकॉर्ड टूट गए. ऑस्ट्रेलिया में आग लगने की कई घटनाएं देखी गईं."
मौसम का बिगड़ा रूप सिर्फ़ बढ़े तापमान के रूप में ही सामने नहीं आ रहा है. डॉक्टर रॉबर्ट याद दिलाते हैं कि बीते साल गर्मियों में जर्मनी और बेल्जियम में ज़बरदस्त बाढ़ देखने को मिली.
वो कहते हैं कि बाढ़ चेतावनी दे रही है. जलवायु परिवर्तन की वजह से दिक्कतें बढ़ सकती हैं. गर्म हवा जब तूफ़ान का रूप ले लेती है तो ज़्यादा ज़ोरदार और ख़तरे में डालने वाली बारिश हो सकती है.
वो कहते हैं कि आप किसी एक घटना की वजह जलवायु परिवर्तन को नहीं बता सकते लेकिन आप ये बता सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी घटनाओं की आशंका बढ़ गई है.
अब सवाल है कि आने वाले समय में क्या देखने को मिल सकता है, इस सवाल के जवाब में डॉक्टर रॉबर्ट थॉम्पसन कहते हैं, " बुरी खबरें. जलवायु परिवर्तन और सिस्टम में बढ़ती ऊर्जा की स्थिति बनी रही तो हम मौसम के बिगड़े मिज़ाज का सामना करते रहेंगे. यूके में जितनी बारिश होती है, हम उस मात्रा में कोई बड़ा अंतर आने की उम्मीद नहीं करते हैं लेकिन ये बारिश किस तरह होगी, हमें लगता है कि इसका तरीका अलग हो सकता है. हमारा अनुमान है ज़्यादातर मौकों पर ज़ोरदार बारिश होगी और लंबा अर्सा ऐसा होगा जब बारिश नहीं हो रही होगी."
डॉक्टर रॉबर्ट कहते हैं कहते हैं कि अब मौसम से जुड़े खतरों को लेकर ज़्यादा जागरूक और सतर्क रहने की ज़रूरत है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोलोराडो की प्रोफ़ेसर कैटिया फ्रीडरिक कहती हैं, "जब हम क्लाउड सीडिंग करते हैं तब हम एक बादल से बर्फ या पानी की बूंदें टपकाने की कोशिश कर रहे होते हैं.
कैटिया फ्रीडरिक के रिसर्च का विषय है 'क्लाउड माइक्रो फिजिक्स'.
सीडिंग एक तरह से मौसम में बदलाव की कोशिश है. आपको इसके लिए उपयुक्त बादल की ज़रूरत होती है.
कैटिया बताती हैं, " हम कई बार एक एयरक्रॉफ्ट इस्तेमाल करते हैं. हम उन बादलों के बीच से गुजरते हैं और उनमें सिल्वर आयोडाइड डालते हैं. सिल्वर आयोडाइड से पानी की बूंदें जम जाती हैं. उसके बाद बर्फ़ के टुकड़े दूसरे टुकड़ों के साथ चिपक जाते हैं और बर्फ के गुच्छे बन जाते हैं. ये बर्फ के गुच्छे ज़मीन पर गिरते हैं."
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क्लाउड सीडिंग से मनचाहे नतीजे मिल सकते हैं, ये साबित करने में वैज्ञानिकों को कई दशक तक संघर्ष करना पड़ा.
साल 2017 में संयुक्त राष्ट्र के मौसम से जुड़े संगठन ने अनुमान ज़ाहिर किया कि 50 से ज़्यादा देश क्लाउड सीडिंग को आजमा चुके हैं. इनमें ऑस्ट्रेलिया, जापान, इथियोपिया, जिंबाब्वे, चीन, अमेरिका और रूस शामिल हैं.
क्लाउड सीडिंग का पहला प्रयोग 1940 के दशक में हुआ था. तब से वैज्ञानिकों पर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगता रहा है.
कैटिया फ्रीडरिक कहती हैं, "लोग सोचते हैं कि आप वातावरण में कुछ ऐसे तत्व मिला रहे हैं, जो वहां नहीं होने चाहिए. इसके जवाब में मैं कहती हूं कि हर एक बार जब आप कार में या विमान में सवार होते हैं तब आप हवा में ऐसे चीजें मिला देते हैं जो वहां नहीं होनी चाहिए. "
कैटिया फ्रीडरिक कहती हैं कि क्लाउड सीडिंग साल के कुछ ही महीनों में की जा सकती है. अगर परिस्थितियां माकूल हों तब भी नतीजों को लेकर कोई गारंटी नहीं दी जा सकती.
कैटिया कहती हैं, " जल प्रबंधन करने वालों से मैं सुनती रहती हूं कि हर बूंद अहम है. ऐसे में इसके ज़्यादा मायने नहीं हैं कि ये ज़्यादा प्रभावी नहीं है. ज़रा कल्पना कीजिए कि पानी नहीं होने की वजह से अगर कैलिफोर्निया की अर्थव्यवस्था चरमरा जाए तो इसका कितना बड़ा असर होगा. इसी से तय होता है कि क्लाउड सीडिंग अभियान को तेज़ी देने के लिए कितने लोग लगाने होंगे."
कैटिया कहती हैं कि सूखे की समस्या हल करने के लिए बड़ी योजना बनाई जानी चाहिए. क्लाउड सीडिंग से मदद मिल सकती है लेकिन समाधान के लिए दूसरे औज़ार भी होने चाहिए.
ग्रीनहाउस गैसें सूरज से आने वाली गर्मी को जकड़ लेती हैं और धरती का तापमान बढ़ने लगता है. पूरी दुनिया इस दिक्कत से चिंतित है और जलवायु परिवर्तन का असर कम करने वाले उपाय तलाशे जा रहे हैं.
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड कीथ एक ऐसी कंपनी के संस्थापक हैं जो वातावरण में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड जमा करने की तकनीक मुहैया कराती है.
वो बताते हैं कि सोलर जियो इंजीनियरिंग की जिस थ्योरी पर वो काम कर रहे हैं, उसे अभी आज़माया नहीं गया है,
डेविड कीथ कहते हैं, "अभी प्रयोग नहीं हुआ है लेकिन ये नया विचार नहीं है. अमेरिकी राष्ट्रपति को पहली बार 1965 में इसके बारे में जानकारी दी गई थी. उन्हें बताया गया था कि ये जलवायु परिवर्तन के ख़तरे रोकने का एक तरीका है. अभी ये विचार बातचीत के स्तर पर ही है. इसके कम से कम कुछ हिस्सों को अच्छी तरह समझ लिया गया है. कुछ लोगों को भरोसा है कि अगर इसे आज़माने का फैसला हो तो आगे कुछ हासिल भी हो सकता है."
सोलर जियो इंजीनियरिंग का मकसद सूर्य की रोशनी के कुछ हिस्से को अंतरिक्ष में वापस प्रतिबिंबित करना है. लेकिन ये होगा कैसे?
डेविड कीथ बताते हैं, " अभी तक जिस तरीके का सबसे ज़्यादा अध्ययन हुआ है, उसमें छोटे से कण जिन्हें एरोसोल कहा जाता है, उन्हें स्ट्रैटोस्फियर में पहुंचाया जाए. आम विमान जिस ऊंचाई पर उड़ान भरता है, ये उससे दोगुनी ऊंचाई है. इसके लिए विमान का इस्तेमाल किया जा सकता है. ये एरोसोल कुछ हद तक हीरे जैसे दिखेंगे. ये रोशनी को प्रतिबिंबित करेंगे."
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इससे जुड़ा दूसरा विचार ये है कि कुछ खास किस्म के बादलों को चमकीला बनाया जाए या ज़्यादा ऊंचाई पर मौजूद बादलों की 'क्लाउड थिनिंग' हो ताकि रोशनी पार हो सके. एक सुझाव सूर्य और धरती के बीच एक बड़ी सी शील्ड लगाने का है. लेकिन डेविड कीथ को लगता है कि अगले पचास साल तक ये बात व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है.
डेविड कीथ मानते हैं कि ये प्रक्रिया तापमान नियंत्रण से आगे जा सकती है और ख़राब मौसम की आशंका पैदा करने वाली ऊर्जा को बाहर कर सकती है.
हालांकि वो बताते हैं कि 'क्लाइमेट मॉडल' के ज़रिए जानकारी मिली है कि ये प्रक्रिया मौसम से जुड़ी ज़्यादातर आपदाओं जैसे कि बहुत ज़्यादा तापमान या प्रचंड वेग वाले तूफ़ान की तीव्रता में कमी ला सकती है.
डेविड कीथ बताते हैं कि सोलर इंजीनियरिंग से कई विवाद भी जुड़े रहे हैं. कई लोग आशंका ज़ाहिर करते हैं कि तमाम देश और कंपनियां इसकी आड़ में उत्सर्जन घटाने की प्रक्रिया से कन्नी काट सकते हैं. लेकिन अब इसके उपाय तलाशे जा रहे हैं.
अमेरिका में व्हाइट हाउस शोध की योजना तैयार कर रहा है ताकि इस क्षेत्र में काम करने वाले वैज्ञानिकों के लिए मानदंड और दिशानिर्देश तय किए जा सकें.
इससे जुड़े खतरों की भी बात होती है.
डेविड कीथ कहते हैं, " हमने देखा है कि वो ख़तरे क्या हो सकते हैं. वो अपेक्षाकृत छोटे जोखिम हैं. उदाहरण के लिए एक ख़तरा ये है कि एरोसोल डालने से ओज़ोन की पर्त को नुक़सान हो सकता है. लेकिन आपको इसके फायदे भी देखने होंगे. इससे हीट वेव की वजह से होने वाली मौत घटेंगी. ख़तरे के मुक़ाबले ये सौ से हज़ार गुना तक फायदेमंद रहेगा. ऐसे नतीजों ने इस बारे में मेरी सोच को काफी बदला है."
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डेविड कीथ कहते हैं, " ये कोई जादुई समाधान नहीं है. जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल समस्या का कोई एक समाधान नहीं हो सकता है. मूल बात ये है कि इंसानों और उद्योगों को हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड घोलना बंद करना होगा. दिक्कत इसे करने और न करने के जोखिमों के बीच संतुलन बनाने की है. देखने की ज़रूरत ये भी है कि फैसले किस तरह लिए जाते हैं."
डेविड कहते हैं कि ये प्रक्रिया कितना बड़ा बदलाव ला सकती है, इसका जवाब इस बात से मिलेगा कि नीति कैसे तय होती हैं. ये विज्ञान से तय नहीं होगा.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ नेब्रास्का में एसोसिएट प्रोफ़ेसर एलिज़ाबेथ चलेकी कहती हैं, "मौसम और पर्यावरण से जुड़ी स्थितियों पर काबू पाने को लेकर हमेशा से संघर्ष का इतिहास रहा है."
वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका ने मौसम को हथियार की तरह इस्तेमाल किया. मानसून के मौसम को लंबा खींचने के लिए 'टॉप सीक्रेट' योजना बनाई गई.
इसे नाम दिया गया 'पॉपआई'. सड़कों पर बाढ़ की स्थिति बना दी गई जिससे सैन्य साज़ोसामान की आपूर्ति न हो सके.
एलिज़ाबेथ बताती हैं कि अमेरिका ने क्लाउड सीडिंग कराने की कोशिश की. ताकि स्थानीय लोगों को मौसम का लाभ नहीं मिल सके. इसे कई लोगों ने पसंद नहीं किया.
वियतनाम युद्ध ख़त्म होने के एक साल बाद 1976 में अंतरराष्ट्रीय संधि का मसौदा तैयार किया गया. 'एनमॉड' नाम की ये संधि 1978 में प्रभावी हुई. इसके तहत युद्ध के लिए तकनीक के ज़रिए मौसम में बदलाव की कोशिश पर पाबंदी लगा दी गई लेकिन शांति काल में इसके इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाई गई.
एलिज़ाबेथ कहती हैं, " किसी भी रणनीतिक कार्रवाई की तरह मौसम में बदलाव की तकनीक का भी दोहरा असर देखने को मिल सकता है. ये आपको अच्छे नतीजे दे सकता है और आपके प्रतिस्पर्धी को नुक़सान भी पहुंचा सकता है. आप कह सकते हैं कि मेरा इरादा तो अच्छा करने का था. अगर बुरे नतीजे मिलते हैं तो प्रभावित देश शिकायत कर सकता है. अभी तक ऐसा हुआ नहीं है."
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जियो इंजीनियरिंग पड़ोसी देशों के बीच तनाव की वजह बन सकती है और इस मामले पर नए नज़रिए से गौर करने की ज़रूरत है. अभी इसे रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई सटीक नियम नहीं है.
सवाल ये है कि इस पर नज़र रखने के लिए नए संगठन की ज़रूरत है या फिर मौजूदा तंत्र ही इसे देखे?
एलिज़ाबेथ कहती हैं, "मुझे लगता है कि जियो इंजीनियरिंग से जुड़े किसी भी तंत्र का आधार संयुक्त राष्ट्र होना चाहिए. चाहे नया संगठन बनाना हो या फिर मौजूदा संगठन को ज़िम्मेदारी देनी हो. इस बात में कोई शक नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र के अपने कानून हैं लेकिन विश्वसनीयता की कमी है. इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि हम इस पर नियंत्रण कैसे करेंगे."
वो कहती हैं कि परमाणु हथियार से जुड़े सेक्टर या फिर इंटरनेट इंडस्ट्री से सबक लिए जा सकते हैं.
एलिज़ाबेथ कहती हैं, "मुझे लगता है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या 21वीं सदी में मानवता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. मैं यही उम्मीद कर सकती हूं कि दुनिया भर के नेता ये समझ रखते हैं कि मां स्वरूप प्रकृति से हम छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं."
लौटते हैं उसी सवाल पर कि क्या हम मौसम को काबू कर सकते हैं?
हम जानते हैं कि सूखा, बाढ़, हीट वेव, जंगल की आग और तूफ़ान लोगों की जान ले सकते हैं और अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकते हैं.
इनसे प्रभावित होने वाले देश समाधान तलाशने के लिए बेताब हैं. इस दिशा में जो उपाय आजमाए जा सकते हैं, वो प्रयोग के दौर में हैं.
इनके साथ कई नैतिक, भू राजनीतिक और प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियां हैं.
क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया जटिल है. इसके जरिए हर बार मनचाहे नतीजे भी नहीं मिलते. सोलर जियो इंजीनियरिंग का वैज्ञानिक तौर पर परीक्षण नहीं हुआ है. ये भी अनिश्चित सी तकनीक है और जैसा कि हमारे एक्सपर्ट ने बताया कि इनमें से कोई भी समाधान जादुई नहीं है.