These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड). Show जीवन-परिचय एवं कृतियाँ प्रश्न 1. जीवन-परिचय–दिनकर जी का जन्म सन् 1908 ई० में बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया’ नामक ग्राम में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रवि सिंह तथा माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी था। अल्पायु में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की और इच्छा होते हुए भी पारिवारिक कारणों से आगे न पढ़ सके और नौकरी में लग गये। कुछ दिनों तक इन्होंने माध्यमिक विद्यालय मोकामाघाट में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य किया। फिर सन् 1934 ई० में बिहार के सरकारी विभाग में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी की। इसके बाद (UPBoardSolutions.com) प्रचार विभाग में उपनिदेशक के पद पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद तक कार्य करते रहे। सन् 1950 ई० में इन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। सन् 1952 ई० में ये राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। इसके बाद इन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार के गृहविभाग में हिन्दी सलाहकार और आकाशवाणी के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1962 ई० में भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की मानद उपाधि प्रदान की। सन् 1972 ई० में इनकी काव्य-रचना ‘उर्वशी’ पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी साहित्य-गगन का यह दिनकर 24 अप्रैल, सन् 1974 ई० को हमेशा के लिए अस्त हो गया। रचनाएँ–साहित्य के क्षेत्र में ‘दिनकर’ जी का उदय कवि के रूप में हुआ था। बाद में गद्य के क्षेत्र में भी वे आगे आये। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नवत् हैं|
साहित्य में स्थान-क्रान्ति का बिगुल बजाने वाले दिनकर जी कवि ही (UPBoardSolutions.com) नहीं अपितु एक सफल गद्यकार भी थे। इनकी कृतियों में इनका चिन्तक एवं मनीषी रूप प्रतिबिम्बित होता है। राष्ट्रीय भावनाओं से संकलित इनकी कृतियाँ हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि हैं, जो इन्हें हिन्दी साहित्याकाश का दिनकर सिद्ध करती हैं। “गद्यांशों पर आधारित प्रश्न प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
[ ईष्र्या = दूसरों से जलन, डाह। दंश मारना = डंक मारना। दाह = जलन। वेदना = पीड़ा। ] (ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत अंश में लेखक ने बताया है कि ईष्र्या अपने भक्त को एक विचित्र प्रकार का वरदान देती है और वह सदैव दु:खी रहने का वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है, वह अकारण ही कष्ट भोगता है। वह अपने पास विद्यमान अनन्त सुख-साधनों के उपभोग द्वारा भी आनन्द नहीं उठा पाता; क्योंकि वह दूसरों की वस्तुओं को देख-देखकर मन में जलता रहता है। द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का कहना है कि जब ईष्र्यालु मनुष्य यह देखता है कि कोई वस्तु किसी अन्य के पास है लेकिन उसके पास नहीं है तो उसके मन में पनपी यह अभाव की भावना सदैव उसे डंक मारती रहती है। लेखक का कहना है कि डंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करना उचित नहीं है। लेकिन ईष्र्यालु मनुष्य कष्ट को सहन करने के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकता।
प्रश्न 2.
[ ईर्ष्यालु = वह व्यक्ति जो दूसरे के सुख को देखकर दुःखी होता है। अभाव = कमी। उद्यम = कार्य, रोजगार।] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि उत्थान-पतन, जीवन-मृत्यु; ये सब ईश्वर अर्थात् उस अदृश्य शक्ति के अधीन हैं। हमें उसके लिए प्रयास करना चाहिए, लेकिन दिन-रात उसके बारे में चिन्तामग्न रहकर अपने जीवन को दु:खमय और कष्टों से युक्त नहीं बनाना चाहिए। सृष्टि की रचना-प्रक्रिया को भूलकर मनुष्य दिन-रात दूसरे की ईष्र्या
में समय गॅवाता है और उद्यम करना छोड़ देता है। वह इसी मन्थन में लगा रहता है कि मैं अमुक व्यक्ति को किस प्रकार हानि पहुँचा सकता हूँ। इसी कार्य को वह अपने जीवन का श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है, जो कि एक संकीर्ण विचारधारा है। इससे ऊपर उठकर व्यक्ति को सबके हित की सोच रखनी चाहिए।
प्रश्न
3.
उत्तर (स)
प्रश्न 4.
उत्तर (स)
प्रश्न 5.
[ श्रोता = सुनने वाला। सुकर्म = अच्छा कर्म, यहाँ पर लक्षणा (शब्द-शक्ति) से दुष्कर्म। अपव्यय = निरर्थक व्यय।] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक ने ऐसे व्यक्तियों को दयनीय समझते हुए कहा है कि यदि ऐसे व्यक्तियों पर ध्यान दें और उनके सन्दर्भ में यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें कि जब से उन्होंने ईष्र्या में जलना प्रारम्भ किया है तब से वे स्वयं कितना आगे बढ़े हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उनकी अवनति ही हुई है। यदि वे निन्दा-कार्य
में समय नष्ट न करके स्वयं उन्नति के मार्ग पर बढ़ते तो निश्चित ही प्रगति कर गये होते। लेखक का मत है कि ऐसे लोग अपनी शक्ति का अपव्यय कर अपनी ही हानि करते हैं।
प्रश्न 6.
[ प्रचण्ड = तीव्र। बदतर = अधिक बुरी। कुंठित = मन्द, प्रभावहीन।] (स)
प्रश्न 7. प्रश्न 8.
[ प्रत्युत = वरन्, अपितु। मद्धिम = हल्का।]
प्रश्न 9.
[ प्रतिद्वन्द्वी = विरोधी।]
प्रश्न 10.
उत्तर
प्रश्न 11.
[ पक्ष = पहलू। समकक्ष = समान। समकालीन = अपने समय के।] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री दिनकर जी का कहना है कि प्राय: ऐसा ही देखने में आता है कि किसी प्रतिद्वन्द्वी को देखकर व्यक्ति अपनी योग्यता, गुण, कौशल अथवा साधनों की वृद्धि अथवा विकास करने के स्थान पर दूसरों में ही उनके अभावों की कामना करने लगता है। उसे ईष्र्यावश दूसरे की समर्थता और अपनी असमर्थता की ही अनुभूति होती रहती है। उसे यह बोध ही नहीं हो पाता कि वह दूसरों की समृद्धि से ईष्र्या करने के स्थान पर अपने अभावों की पूर्ति किस प्रकार करे। अपनी अभावावस्था पर दु:खी और क्रोधित होकर तथा किसी भी व्यक्ति को अपने से अधिक उत्तम मानकर, वह उससे ईष्र्या करने लग जाता है, जबकि सम्भव है कि जिस व्यक्ति से वह ईर्ष्या कर रहा है, वह भी अपने किसी अभाव के कारण स्वयं से सन्तुष्ट न हो। (स)
प्रश्न 12.
[ नीत्से = यूरोप का एक प्रसिद्ध दार्शनिक, विद्वान् व लेखक।
शोहरत = यश, प्रसिद्धि।] द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी कहते हैं कि ईर्ष्यालु लोगों के साथ रहकर श्रेष्ठ रचना, नये सामाजिक मूल्यों को निर्माण अथवा कोई भी महान् कार्य नहीं किया जा सकता है। रचनात्मक महान् कार्य भीड़ से दूर रहकर ही किये जाते हैं। महान् कार्य करने के लिए प्रसिद्धि के लोभ को छोड़ना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज के नये मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे बाजार जैसे प्रतिस्पर्धा के स्थानों से दूर रहते हैं। नीत्से के अनुसार एकान्त स्थान वही है,
जहाँ ये बाजार की मक्खियाँ (ईर्ष्यालु लोग) नहीं होती हैं।
प्रश्न 13.
[ मानसिक अनुशासन = मन पर नियन्त्रण। जिज्ञासा = जानने की इच्छा।]
व्याकरण एवं रचना-बोध प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 निम्नलिखित शब्दों का वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट कीजिए- प्रतिद्वन्द्वी-प्रतिद्वन्द्विता, मूर्ति-मूर्त, जिज्ञासा-जिज्ञासु, चरित्र-चारित्रिक। उत्तर प्रतिद्वन्द्वी-प्रतिद्वन्द्विता–स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें प्रतिद्वन्द्वी एक-दूसरे से ईर्ष्या न करते हों। | मूर्ति-मूर्त-मूर्तिकार अपनी कल्पना को अपनी (UPBoardSolutions.com) मूर्ति में मूर्त रूप प्रदान करता है। जिज्ञासा-जिज्ञासु-अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए जिज्ञासु पता नहीं कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरता है। चरित्र-चारित्रिक–समाज के चारित्रिक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र को पवित्र बनाये रखना चाहिए। We hope the UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से (गद्य खंड), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. ईर्ष्या से बचने के विषय में लेखक ने क्या उपाय बताए हैं?ईष्र्या से बचने के लिए व्यक्ति को अपने आपको मानसिक अनुशासन के अन्तर्गत बाँध लेना चाहिए। । जिस दिन ईष्र्यालु व्यक्ति को यह पता चल जाएगा कि किस अभाव के कारण वह ईष्र्यालु बन गया है और उस अभाव की पूर्ति का सकारात्मक उपाय क्या है, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर सकता है।
ईर्ष्या की बड़ी बेटी किसे और क्यों कहा गया है?ईर्ष्या की बेटी निंदा को कहा गया है,क्योंकि यह उसी के मन में जन्म लेती है,जिसके हृदय में ईर्ष्या का वास होता है।
ईर्ष्या का क्या काम है इससे प्रभावित व्यक्ति किसके समान है?ईर्ष्या एक भावना है, और शब्द आम तौर पर विचारों और असुरक्षा की भावना को दर्शाता है। ईर्ष्या अक्सर क्रोध, आक्रोश, अपर्याप्तता, लाचारी और घृणा के रूप में भावनाओं का एक संयोजन होता है। ईर्ष्या मानवीय रिश्तों में एक विशिष्ट अनुभव है।
ईर्ष्या को अनोखा वरदान क्यों कहा गया है ?`?Answer: ईर्ष्या का अनोखा वरदान यह है कि ईष्र्यालु व्यक्ति उन वस्तुओं से आनन्द नहीं उठाता जो उसके पास हैं, वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। ईष्र्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या के कारण उन वस्तुओं से आनन्द नहीं मिलता जो उसके पास हैं वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।
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