एकांकी का प्राण है, उसमें सहज-स्वाभाविक संवादों की योजना। इस एकांकी में मोहन राकेश ने अपनी आजमाई हुई तमाम सारी रंगमंचीय युक्तियों को छोड़कर अपने संवाद कौशल का चरमोत्कर्ष प्रकट किया है। नाटक या एकांकी के संवाद अत्यंत चुस्त-दुरुस्त और छोटे होने चाहिए, जिनसे पात्रों की मनोदशा भी अच्छी तरह व्यक्त हो सके। इसके साथ ही रंगशाला (थिएटर) में उपस्थित दर्शकों पर भी उनका पूरा प्रभाव पड़ना चाहिए। वे यह न समझें कि नाटक देख रहे हैं। जीवन में साक्षात उपस्थित वास्तविक क्रिया-कलाप की सच्ची अनुभूति दर्शक कर सकें - यह महत्वपूर्ण कार्य संवादों के माध्यम से ही पूरा हो पाता है। इस कौशल का परिचय लेखक ने एकांकी के आरंभ में इस प्रकार दिया है : Show 'परदा उठने पर राम भरोसे और श्याम भरोसे डेस्कों से धूल झाड़ रहे हैं।' श्याम भरोसे : (हाथ रोककर) राम भरोसे! राम भरोसे बिना सुने धूल झाड़ता रहता है। : ए राम भरोसे! राम भरोसे : (बिना हाथ रोके) क्या है? श्याम भरोसे : इतनी धूल क्यों झाड़ता है? आहिस्ता से नहीं झाड़ा जाता? रोज-रोज की धूल से फेफड़े पहले ही खाए हुए हैं। राम भरोसे : तो रोता क्यों है? जान पाँच बरस में नहीं जाएगी, चार बरस में चली जाएगी। इन संवादों की सहजता दर्शक को पूरी तरह अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम है। यह अशिक्षित कर्मचारियों की आपसी बातचीत है। मीटिंग में भाग लेने वाले शिक्षित पात्रों के संवाद उनके चरित्र को भी दर्शकों के सामने उद्घाटित कर देते हैं। इससे सम्बद्ध एक आरंभिक उदाहरण है: 'राम भरोसे और श्याम भरोसे दोनों दायीं तरफ के दरवाजे के बाहर बैठे हैं। राम भरोसे हाथ पर सुरती मलने लगता है। श्याम भरोसे ऊँघने की मुद्रा में टेक लगा लेता है। मनोरमा, संतोष और गुरप्रीत उसी दरवाजे से आती हैं। राम भरोसे आँखें उठाकर चिढ़ते हुए भाव से उन्हें आते देखता है।' मनोरमा : क्या बात है, शर्मा? पहरा क्यों बिठा रखा है बाहर? मीटिंग में मारधाड़ तो नहीं होने वाली है। शर्मा : (उठता हुआ) साढ़े पाँच बज गए आप लोगों के? मनोरमा : अभी कोई भी तो नहीं आया, सिवाय हमारे। शर्मा : साढ़े छह तक आराम से आएँगे लोग। वक्त की पाबंदी तो सिर्फ एक आदमी पर है। क्योंकि वह कमबख्त सेक्रेटरी है। संतोष : मैंने इसीलिए अपना नाम वापस ले लिया था। मुफ्त की सिरदर्दी। मनोरमा : तूने इसीलिए नाम वापस ले लिया था कि शर्मा के खिलाफ तुझे तीन वोट भी नहीं मिलते! अवर शर्मा इज ग्रेट। संतोष : लांग लिव शर्मा! मनोरमा : (गुरप्रीत से) तू इतनी गुप-चुप क्यों है? संतोष : शर्मा के सामने यह हमेशा गुप-चुप हो जाती है। गुरप्रीत : प्लीज! मंच पर उपस्थित होते ही यहाँ चारों पात्रों की नीयत और उनके चरित्र का पूर्वाभास दर्शक को हो जाता है, जो उनके विषय में अंत तक बरकरार रहता है। शिक्षित समुदाय में प्रचलित व्यवहार की भाषा में 'अवर शर्मा इज ग्रेट', 'लांग लिव शर्मा, 'प्लीज' आदि अंग्रेजी के शब्द अत्यंत स्वाभाविक हैं। मनोरमा और शर्मा के आरंभिक वाक्यों में हिंदी के वाक्य गठन, लहजे, और प्रश्न के उत्तर में प्रश्न संवाद की भाषा को अधिक व्यंजक बनाता है। इसके साथ ही कमरे के बाहर का यथार्थ वातावरण पूरे दृश्य को प्रामाणिक बनाने में सहायक है। इसका दर्शक पर अत्यंत अनुकूल असर पड़ेगा। आगे चलकर प्रेमप्रकाश, दीनदयाल, मोहन, रमेश, और सत्यपाल भी मंच पर उपस्थित होते हुए ही अपने संवाद या कार्यों द्वारा अपनी-अपनी नीयत और चरित्र का पूर्वाभास दर्शकों के सामने दे देते हैं। पूरे एकांकी में एकांकीकार ने अपने इस आरंभिक संकेत का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है। अनुपस्थित अध्यक्ष की निंदा करते हुए कपूर के रहस्योद्घाटन पर पात्रों के मध्य होने वाला संवाद इसका एक ज्वलंत उदाहरण है : कपूर : मैं पहले ही कहता था, इस आदमी को चेयरमैन नहीं बनाना चाहिए। आज छुट्टी का दिन है, वैसे भी ठंड है, घर में रजाई में दुबककर सो रहा होगा। सॉरी...घर में नहीं होगा, वह होगा आज उसके यहाँ...। संतोष : किसके यहाँ? गुरप्रीत : प्लीज! संतोष : नाम तो जान लेने दे। गुरप्रीत : प्लीज! प्लीज! प्लीज! कपूर : गुरप्रीत जी नाम जानती हैं। संतोष : जानती है तू? गुरप्रीत : मैं इसीलिए आप लोगों की मीटिंग में नहीं आना चाहती। यहाँ दम तो कुछ होता नहीं, बस इसी तरह की बातें होती रहती कपूर : गुरप्रीत जी की सहेली है वह। संतोष : अच्छा... वह? कपूर : हाँ, वहीं। संतोष : यह कब से? कपूर : कब से? दो साल से तो मैं ही जानता हूँ। संतोष : पर वह तो पहले...। कपूर : आप बहुत पुरानी बात कर रही हैं। लगता है, आप शहर में नहीं रहतीं। संतोष : (गुरप्रीत से) सच बात है यह? गुरप्रीत : (शर्मा से) मैं जान सकती हूँ. मीटिंग कब शुरू होगी? उपर्युक्त संवादों के माध्यम से 'लो पेड वर्कर्स वेलफेयर सोसाइटी' के सदस्यों के वैचारिक स्तर, उनकी मानसिकता, छिछलेपन और दायित्वहीनता का बोध दर्शक को अच्छी तरह हो जाएगा। इसके साथ ही यहाँ संवाद की भाषा की एक विशिष्ट प्रकृति का भी पूरा परिचय मिलता है। बातचीत के लहजे, दो शब्दों के बीच का अंतराल, बलाघात, शब्द या वाक्य के अंत का रिक्त स्थान, संबोधन वाचक, प्रश्न वाचक चिह्नों आदि के समुचित प्रयोग द्वारा संवादों को अधिक चुस्त-दुरुस्त और भाषा को अत्यंत व्यंजक बनाने का प्रयास इस एकांकी में किया गया है। उक्त संवादों में प्रश्न चिह्न (?) कहीं प्रश्न का बोध कराता है तो कहीं आश्चर्य का, कहीं उपेक्षा का तो कहीं जिज्ञासा का। इससे स्पष्ट है कि संवाद-कौशल के साथ ही इस एकांकी द्वारा मोहन राकेश की भाषा संबंधी गहरी परख और अभिधा, लक्षणा, व्यंजना जैसी शब्द-शक्तियों के समुचित प्रयोग की सामर्थ्य भी उद्घाटित हुई है। उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के बाद हम कह सकते हैं कि 'बहुत बड़ा सवाल' शीर्षक एकांकी अपने संवाद-कौशल के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने सामाजिक- राजनीतिक परिवेश के प्रति लेखक की मानसिकता का स्वरूप चाहे जैसा हो, जीवन के प्रति उसकी दृष्टि, रुख रुझान चाहे जैसा हो, लेकिन उसकी रंगमंचीय समझ और उसके संवाद-कौशल की दृष्टि से 'बहुत बड़ा सवाल' एक सफल एकांकी है। पात्रों की मानसिकता के साथ एकांकीकार की मानसिकता का तादात्म्य संवादों को स्वाभाविकता ही नहीं जीवन्तता भी प्रदान करता है। बहुत बड़ा सवाल एकांकी का उद्देश्य क्या है?> 'बहुत बड़ा सवाल' एकांकी में देश के कार्यालयों की स्थितियों का चित्रण। किया गया है। आज देश को अनेक समस्याओं, उलझनओं एवं प्रश्नों का सामना करना पड़ता है। का निर्णय भी होता हैपर इसका कोई उचित परिणाम नहीं मिल पाता।
एकांकी के तत्व कौन कौन से हैं?एकांकी के चरित्र चित्रण मे स्वाभाविकता, यथार्थता और मनोवैज्ञानिकता का ध्यान रखना आवश्यक होता है। प्रत्येक पात्र के क्रिया-कलाप मे कार्य कारण भाव अवश्य सांकेतिक होना चाहिए। एकांकी का तीसरा तत्व भाषा और शैली हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं की भाषा-शैली अलग-अलग होती है।
एकांकी किसे कहते हैं एकांकी के कितने तत्व होते हैं?एक अंक वाले नाटकों को एकांकी कहते हैं। अंग्रेजी के 'वन ऐक्ट प्ले' शब्द के लिए हिंदी में 'एकांकी नाटक' और 'एकांकी' दोनों ही शब्दों का समान रूप से व्यवहार होता है।
लेखक के नजरिये से एकांकी में सबसे बड़ा सवाल क्या है?इस प्रक्रिया में हमने देखा था कि शिक्षित निम्न मध्यवर्ग के सामने उपस्थित बड़े-बड़े सवाल लेखक के सामने उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना बड़ा सवाल उस वर्ग का स्वयं का चरित्र है। इस चरित्र का उद्घाटन ही एकांकी का मूल प्रतिपाद्य है, जिसे एकांकीकार ने शिक्षित निम्न मध्यवर्गीय पात्रों की वार्ता के माध्यम से सम्पन्न किया है।
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