भारतीय संविधान पर ब्रिटेन के संविधान का व्यापक प्रभाव है। ब्रिटेन के संविधान का अनुकरण करते हुए भारत में संविधान द्वारा संसदीय शासन की स्थापना की गयी है। जिस तरह ब्रिटेन में शासन की प्रमुख वहाँ की साम्राज्ञी होती है, उसी प्रकार से भारत में राज्य का प्रमुख राष्ट्रपति होता है। ब्रिटेन की साम्राज्ञी की तरह भारत का राष्ट्रपति राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और संघ की वास्तविक शक्ति संघ मन्त्रिमण्डल में निहित होती है। इन दोनों देशों के प्रमुखों में मूलभूत अन्तर यह है कि ब्रिटेन की साम्राज्ञी का पद वंशानुगत होता है, जबकि भारत का राष्ट्रपति एक निर्वाचित मण्डल द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इसी अन्तर के कारण भारत को प्रजातांत्रिक गणतन्त्र कहा जाता है। भारत में राष्ट्रपति का पद संविधान के अनुच्छेद 52 द्वारा उपबंधित है। भारत के राष्ट्रपतिभारत के राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक हैं, साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख सेनापति भी हैं। राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है पर कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल के नाम से भी जाना जाता है। राष्ट्रपति अधिकतम दो कार्यकाल तक ही पद पर रह सकते हैं। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो कार्यकाल पूरा किये हैं। महामहिम प्रतिभा पाटिल भारत की 12वीं तथा इस पद को सुशोभित करने वाली पहली महिला राष्ट्रपति हैं। उन्होंने 25 जुलाई, 2007 को पद व गोपनीयता की शपथ ली थी। पद की योग्यतासंविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार कोई भी व्यक्ति राष्ट्रपति होने के योग्य तब होगा, जब वह–
निर्वाचनराष्ट्रपति का चुनाव 'अप्रत्यक्ष निर्वाचन' के द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति पद के निर्वाचन में अभ्यर्थी होने के लिए आवश्यक है कि कोई व्यक्ति निर्वाचन के लिए अपना नामांकन करते समय 15,000 रुपये की धरोहर (ज़मानत धनराशि) निर्वाचन अधिकारी के समक्ष जमा करे और उसके नामांकन पत्र का प्रस्ताव कम से कम 50 मतदाताओं के द्वारा किया जाना चाहिए तथा कम से कम 50 मतदाताओं द्वारा उसके नामांकन पत्र का समर्थन भी किया जाना चाहिए। इन्हें भी देखें: उपराष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति नामांकन प्रक्रिया निर्वाचक मण्डलअनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसे निर्वाचक मण्डल के द्वारा किया जाएगा, जिसमें संसद (लोकसभा तथा राज्यसभा) तथा राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होंगे। राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संसद के मनोनीत सदस्य, राज्य विधान सभाओं के मनोनीत सदस्य तथा राज्य विधान परिषदों के सदस्य (निर्वाचित एवं मनोनीत दोनों) शामिल नहीं किये जाते। संघ राज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों को भी 70वें संविधान संशोधन के पूर्व राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल नहीं किया जाता था लेकिन 70वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था कर दी गयी है कि दो संघ राज्य क्षेत्रों, यथा पाण्डिचेरी तथा राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली की विधानसभाओं के सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल किये जायेंगे। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि केवल इन दोनों संघ राज्य क्षेत्रों में ही विधानसभा का गठन हुआ है। इन्हें भी देखें: राष्ट्रपति का अभिभाषण राष्ट्रपति के चुनाव पर प्रभावसंविधान सभा में राष्ट्रपति के निर्वाचन प्रक्रिया पर विचार करते समय यह ध्यान नहीं दिया गया था कि निर्वाचक मण्डल में से कोई स्थान रिक्त हो तो राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होगा? 1957 में जब राष्ट्रपति का चुनाव किया गया तो निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान ख़ाली थे। इसलिए राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गई कि निर्वाचक मण्डल में स्थान रिक्त होने के कारण राष्ट्रपति का चुनाव अवैध है। बाद में 1961 में ग्याहरवाँ संविधान संशोधन के तहत यह व्यवस्था की गयी कि निर्वाचक मण्डल में स्थान रिक्त होते हुए भी राष्ट्रपति का चुनाव कैसे कराया जा सकता है। निर्वाचन की पद्धतिराष्ट्रपति के निर्वाचन पद्धति के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 55 में प्रावधान किया गया है, जिसके अनुसार राष्ट्रपति के निर्वाचन में दो सिद्धान्तों को अपनाया जाता है– समरूपता तथा समतुल्यताइस सिद्धान्त, जो अनुच्छेद 55 के खण्ड (1) तथा (2) वर्णित हैं, के अनुसार राज्यों के प्रतिनिधित्व के मापमान में एकरूपता तथा सभी राज्यों और संघ के प्रतिनिधित्व में समतुल्यता होगी। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि सभी राज्यों की विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व का मान निकालने के लिए एक ही प्रक्रिया अपनायी जाएगी तथा सभी राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मत मूल्य का योग संसद के सभी सदस्य के मत मूल्य के योग के समतुल्य अर्थात् समान होगा। राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मतमूल्य तथा संसद के सदस्यों के मतमूल्य को निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाएगी। विधानसभा के सदस्य के मत मूल्य का निर्धारणप्रत्येक राज्य की विधानसभा के सदस्य के मतों की संख्या निकालने के लिए उस राज्य की कुल जनसंख्या (जो पिछली जनगणना के अनुसार निर्धारित है) को राज्य विधानसभा की कुल निर्वाचित सदस्य संख्या से विभाजित करके भागफल को 1000 से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार भजनफल को एक सदस्य का मत मूल्य मान लेते हैं। यदि उक्त विभाजन के परिणामस्वरूप शेष संख्या 500 से अधिक आये, तो प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या में एक और जोड़ दिया जाता है। राज्य विधान सभा के सदस्यों का मूल्य निम्न प्रकार निकाला जाता है– राज्य की विधानसभा के एक सदस्य का मत मूल्य = राज्य की कुल जनसंख्या / राज्य विधानसभा के निर्वाचित X 1 / 1000 सदस्यों की कुल संख्या संसद सदस्य के मत मूल्य का निर्धारणसंसद सदस्य का मत मूल्य निर्धारित करने के लिए राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के मत मूल्यों को जोड़कर संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों के योग का भाग दिया जाता है। संसद सदस्य का मत मूल्य निम्न प्रकार निकाला जाता है– संसद सदस्य का मत मूल्य = कुल राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्यों का योग / संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों का योग इस प्रकार राष्ट्रपति के चुनाव में यह ध्यान रखा जाता है कि सभी राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्य का योग संसद के निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्य का योग बराबर रहे और सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्य का निर्धारण करने के लिए एक समान प्रक्रिया अपनायी जाए। इसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त भी कहते हैं। एकल संक्रमणीय सिद्धान्तइस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि यदि निर्वाचन में एक से अधिक उम्मीदवार हों, तो मतदाताओं द्वारा मतदान वरीयता क्रम से दिया जाए। इसका आशय यह है कि मतदाता मतदान पत्र में उम्मीदवारों के नाम या चुनाव चिह्न के समक्ष अपना वरीयता क्रम लिखेगा। मतगणनाराष्ट्रपति के चुनाव के बाद उसी व्यक्ति को निर्वाचित घोषित किया जाता है, जो डाले गये कुल वैध मतों में से आधे से अधिक मत प्राप्त करे। जब राष्ट्रपति के निर्वाचन के बाद मतों की गणना प्रारम्भ होती है, तो सर्वप्रथम अवैध मतपत्रों को निरस्त करके शेष वैध मत पत्रों का मत मूल्य निकाला जाता है और निकाले गए मत मूल्य में 2 का भाग देकर भागफल में एक जोड़कर निर्वाचित घोषित किये जाने वाले उम्मीदवार का कोटा निकाला जाता है। यदि मतगणना के प्रथम दौर में किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के बराबर मत मूल्य प्राप्त हो जाता है, तो उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि किसी उम्मीदवार को नियम कोटा के बराबर मत मूल्य नहीं प्राप्त होता है, तो मतगणना का दूसरा दौर प्रारम्भ होता है। दूसरे दौर के मतगणना में जिस उम्मीदवार को प्रथम वरीयता का सबसे कम मत मिला होता है, उसको गणना से बाहर करके उसके द्वितीय वरीयता के मत मूल्य को अन्य उम्मीदवारों को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। यदि द्वितीय दौर की गणना में भी किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के बराबर मत मूल्य नहीं प्राप्त होता है, तो तीसरे दौर की गणना होती है। तीसरे दौर की गणना में उस उम्मीदवार को गणना से बाहर कर दिया जाता है, जो कि दूसरे दौर की गणना में सबसे कम मूल्य पाता है और इस उम्मीदवार के तृतीय वरीयता मत मूल्य को शेष उम्मीदवारों के पक्ष में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक अपनायी जाती है, जब तक कि किसी उम्मीदवार को नियत किये गये कोटा के मत मूल्य के बराबर मत मूल्य प्राप्त नहीं हो जाता है। भारत में राष्ट्रपति का चुनावभारत में राष्ट्रपति चुनाव का तरीक़ा भारत में अब तक 14 व्यक्ति राष्ट्रपति का पद ग्रहण कर चुके हैं, जिनमें से प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 2 बार इस पद को सुशोभित किया है। राष्ट्रपति की पदावधि 5 वर्ष की होती है। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद 10 वर्ष से अधिक की अवधि तक राष्ट्रपति का पद धारण किये था। इसका कारण यह था कि 1952 में राष्ट्रपति के प्रथम चुनाव के पूर्व ही 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के द्वारा राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद का चुनाव कर लिया गया था। संविधान के प्रवर्तन की तिथि अर्थात् 26 जनवरी, 1950 से लेकर 12 मई, 1952 तक राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के पद पर रहे। भारत में अब तक 15 बार राष्ट्रपति के चुनाव हुए हैं, जिनमें से एक बार, अर्थात् 1977 में, नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गये थे। शेष 14 बार राष्ट्रपति पद के चुनाव में एक से अधिक उम्मीदवार थे। अब तक केवल डॉ. राजेंद्र प्रसाद, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, नीलम संजीव रेड्डी तथा ज्ञानी ज़ैल सिंह को छोड़कर अन्य सभी राष्ट्रपति पूर्व में उपराष्ट्रपति के पद को सुशोभित कर चुके थे। डॉ. एस. राधाकृष्णन लगातार दो बार उपराष्ट्रपति तथा एक बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में वी.वी. गिरी ऐसे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, जिन्होंने कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत होते हुए भी उसके उम्मीदवार को पराजित किया था। अब तक नीलम संजीव रेड्डी एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हुए हैं, जो एक बार चुनाव में पराजित हुए तथा बाद में निर्विरोध निर्वाचित हुए। मतदान स्थलराष्ट्रपति के चुनाव में राज्य विधान सभाओं के सदस्य अपने-अपने राज्यों की राजधानियों में मतदान करते हैं और संसद सदस्य दिल्ली में या अपने राज्य की राजधानी में मतदान कर सकते हैं। यदि कोई संसद सदस्य अपने राज्य की राजधानी में मतदान करना चाहता है तो उसे इसकी सूचना 10 दिन पूर्व ही चुनाव आयोग का देनी चाहिए। चुनाव का समयसंविधान के अनुच्छेद 62 में केवल यह अपेक्षा की गई है कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्धारित समय के अन्दर सम्पन्न करा लिया जाना चाहिए। निर्वाचन की प्रक्रिया को पाँच वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने के बाद स्थगित नहीं रखा जा सकता है। राष्ट्रपति का चुनाव कब कराया जाएगा, इसके सम्बन्ध में संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान में अनुच्छेद 71 (3) में केवल यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित या संसक्त किसी विषय का विनियमन संसद विधि द्वारा कर सकेगी। इस शक्ति का प्रयोग करके संसद ने राष्ट्रपतीय तथा उपराष्ट्रपतीय निर्वाचन अधिनियम, 1952 पारित करके यह प्रावधान किया है कि राष्ट्रपति का चुनाव निवर्तमान राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही कराया जाना चाहिए। किसी राज्य की विधानसभा भंग होने की स्थिति में राष्ट्रपति चुनावकिसी राज्य की विधानसभा भंग होने की स्थिति में भी राष्ट्रपति का चुनाव सम्पन्न होता है। इस सन्दर्भ में 11वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1961 में यह स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि निर्वाचक मण्डल में कोई स्थान रिक्त था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह निर्णय दिया है कि बिना किसी विधानसभा के ही राष्ट्रपति का चुनाव कराया जा सकता है। राष्ट्रपति चुनाव में एक विधायक के मत का मूल्यमत डालने वाले सांसदों और विधायकों के मत का मूल्य अलग-अलग होता है। दो राज्यों के विधायकों के मत का मूल्य भी अलग होता है। यह मत मूल्य जिस तरह तय किया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं। विधायक के मत का मूल्यविधायक के मामले में जिस राज्य का विधायक हो, उस राज्य की आबादी देखी जाती है। इसके साथ उस राज्य के विधानसभा सदस्यों की संख्या को भी ध्यान में रखा जाता है। मत मूल्य निकालने के लिए राज्य की जनसंख्या को निर्वाचित विधायक की संख्या से भाग दिया जाता है। इस तरह जो नंबर मिलता है, उसे फिर 1000 से भाग दिया जाता है। अब जो आंकड़ा हाथ लगता है, वही उस राज्य के एक विधायक के वोट का मूल्य होता है। 1000 से भाग देने पर अगर शेष 500 से ज्यादा हो तो मत मूल्य में 1 जोड़ दिया जाता है। एक विधायक के मत के मूल्य का फार्मूला = राज्य की कुल जनसंख्या / राज्य विधानसभा के निर्वाचित विधायकों की संख्या / 1000 एक सांसद के मत का मूल्यसांसदों के मतों के मूल्य का गणित अलग है। सबसे पहले सभी राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य के वोटों का मूल्य जोड़ा जाता है। अब इस सामूहिक मूल्य को राज्यसभा और लोकसभा के निर्वाचित सदस्य की कुल संख्या से भाग किया जाता है। इस तरह जो नंबर मिलता है, वह एक सांसद के वोट का मूल्य होता है। अगर इस तरह भाग देने पर शेष 0.5 से ज्यादा बचता हो तो मूल्य में एक का इजाफा हो जाता है।
एक सांसद के मत के मूल्य का फार्मूला = राज्य के कुल मतों का मूल्य यानी 5,49,474 / कुल सांसदों की संख्या यानी 778 = 708.085 यानी 708 सांसदों के कुल मतों का मूल्य, 708×776 = 5,49,408 वर्ष 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने वाले कुल मतदाताओं की संख्या = कुल विधायक (4120) + कुल सांसद (776) = 4896 सभी मतदाताओं के कुल मतों का मूल्य = 5,49,474+5,49,408 = 10,98,882[1] सम्बन्धित विवाद का विनिश्चयअनुच्छेद 7 के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव से सम्बन्धित विवाद का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाएगा। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होकर पद ग्रहण कर लेता है और बाद में उसका चुनाव उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जाता है, तो राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए भी उसके द्वारा किया गया कार्य या की गयी घोषणा अविधिमान्य नहीं होगी। पुननिर्वाचन के लिए योग्यताअनुच्छेद 57 के अनुसार भारत के राष्ट्रपति पद पर पदस्थ व्यक्ति दूसरे कार्यकाल के लिए भी चुनाव में उम्मीदवार बन सकता है। वैसे संविधान में यह व्यवस्था नहीं की गयी है कि राष्ट्रपति पद पर पदस्थ व्यक्ति दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचन में भाग ले सकता है या नहीं, लेकिन सामान्यत: यह परम्परा बन गयी है कि राष्ट्रपति पद के लिए कोई व्यक्ति एक ही बार निर्वाचित किया जाता है। इसका अपवाद राजेन्द्र प्रसाद रहे हैं, जो दो बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे। इसके अतिरिक्त दो राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन तथा फ़खरुद्दीन अली अहमद, जिनकी कार्यकाल के दौरान ही मृत्यु हो गई थी, के सिवाय सभी राष्ट्रपति अपने एक कार्यकाल के बाद दूसरी बार राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार नहीं बने। राष्ट्रपति पद का चुनाव तथा विजयी एवं द्वितीय स्थान प्राप्त उम्मीदवारों की सूची
राष्ट्रपति के द्वारा शपथराष्ट्रपति या कोई व्यक्ति, जो किसी कारण से राष्ट्रपति के कृत्यों के निर्वहन के लिए नियुक्त होता है, अपना पद ग्रहण करने के पूर्व अनुच्छेद 60 के तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश या उसकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय में उपलब्ध वरिष्ठतम न्यायधीश के समक्ष अपने पद के कार्यपालन की शपथ लेता है। राष्ट्रपति के शपथ पत्र का प्रारूप निम्नलिखित रूप में होता है– मैं, अमुक ईश्वर की शपथ लेता हूँ सत्य निष्ठा से प्रतिज्ञाण करता हूँ कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यपालन (अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन) करूँगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूँगा। राष्ट्रपति द्वारा लिया जाने वाला शपथ या प्रतिज्ञण उपराष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के शपथ से इस मामले में भिन्न है कि राष्ट्रपति संविधान और विधि के परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण का शपथ लेता है। राष्ट्रपति की पदावधिअनुच्छेद 56 के अनुसार राष्ट्रपति अपने पदग्रहण की तिथि से पाँच वर्ष की अवधि तक अपने पद पर बना रहता है, लेकिन इस पाँच वर्ष की अवधि के पूर्व भी वह उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है या उसे पाँच वर्ष की अवधि के पूर्व संविधान के उल्लंघन के लिए संसद द्वारा लगाये गये महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति द्वारा उपराष्ट्रपति को सम्बोधित त्यागपत्र की सूचना उसके द्वारा (उपराष्ट्रपति के द्वारा) लोकसभा के अध्यक्ष को अविलम्ब दी जाती है। राष्ट्रपति अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल के पूरा करने के बाद भी तब तक राष्ट्रपति के पद पर बना रहता है, जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण नहीं कर लेता है। भारतीय संविधान में प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के पद के कार्यों का निर्वहन करेगा और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति दोनों के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या दोनों की अनुपस्थिति में भारत का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति के पद के कृत्यों का निर्वहन करेगा। इसी कारण जब 3 मई, 1969 को तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु हुई, तब तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी॰ वी॰ गिरि कार्यकारी राष्ट्रपति नियुक्त किये गये लेकिन उन्होंने राष्ट्रपति पद के चुनाव में उम्मीदवार होने के लिए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। तब भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति मोहम्मद हिदायतुल्ला ने राष्ट्रपति के पद का निर्वहन तब तक किया, जब तक निर्वाचित होकर वी॰ वी॰ गिरि ने राष्ट्रपति पद का कार्यभार ग्रहण नहीं कर लिया। अब तक तीन उपराष्ट्रपति वी॰ वी॰ गिरि (राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के कारण), बी.डी. जत्ती (राष्ट्रपति फ़खरुद्दीन अली अहमद की मृत्यु के कारण), तथा मोहम्मद हिदायतुल्ला (राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह की अनुपस्थिति के कारण) और एक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ती मोहम्मद हिदायतुल्ला राष्ट्रपति के पद के कृत्यों का निर्वहन कर चुके हैं। भारत के राष्ट्रपति एवं उनका कार्यकालभारत के राष्ट्रपति पद के कृत्यों का निर्वहन करने वाले व्यक्ति
विभिन्न चुनावों में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को मिले मत
वेतन और भत्तेराष्ट्रपति को नि:शुल्क शासकीय निवास उपलब्ध होता है। वह ऐसी परिलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का हक़दार होता है, जो संसद विधि के द्वारा अवधारित करें और जब तक संसद ऐसी विधि पारित नहीं करती है उनकी परिलब्धियाँ या भत्ते वही होगें जो संविधान की दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। 1990 में राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ बढ़ाकर 20,000 रुपये, 4 अगस्त, 1998 को इसे बढ़ाकर 50,000 रुपये और 10 जनवरी, 2008 को राष्ट्रपति की परिलब्धियों में एक बार फिर पुन: संशोधन करते हुए इसे बढ़ाकर 1.50 लाख रुपये प्रति माह कर दिया गया। यह वृद्धि जनवरी, 2006 से प्रभावी की गई है। राष्ट्रपति को पद त्याग देने के पश्चात् या पदावधि समाप्ति पर उनके वेतन का 50 प्रतिशत पेंशन का प्रावधान है। इस प्रकार पद विमुक्ति के पश्चात् पूर्व राष्ट्रपति को 9,00,000 रुपये वार्षिक पेंशन देय है। पूर्व राष्ट्रपति को एक अतिरिक्त निजी सचिव के अलावा एक कर्मचारी की भी सुविधा का प्रावधान है। उन्हें मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट और ब्राडबैंड का कनेक्शन भी उपलब्ध कराया जाएगा। उनके कार्यालय के रख-रखाव पर पूर्व में 12 हज़ार रुपये वार्षिक ख़र्च का प्रावधान था, जिसे बढ़ाकर अब 60,000 रुपये कर दिया गया है। पदावधि के दौरान राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने पर उसे पारिवारिक पेंशन, सुसज्जित आवास, कर्मचारी, कार, टेलीफ़ोन, यात्रा और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध हैं। संविधान के अनुच्छेद 59 के अनुसार राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ और उसके भत्ते उसके कार्यकाल में घटाये नहीं जा सकते। राष्ट्रपति के वेतन एवं भत्ते को आयकर से छूट प्राप्त हैं। महाभियोग की प्रक्रियाराष्ट्रपति को उसके पद से अनुच्छेद 61 के तहत महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया तब संचालित की जा सकती है, जब उसने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन किया हो। राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग चलाने का संकल्प संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है, लेकिन जिस सदन में महाभियोग का संकल्प पेश किया जाना हो, उसके एक चौथाई सदस्यों के द्वारा हस्ताक्षरित आरोप पत्र राष्ट्रपति को 14 दिन पूर्व दिया जाना आवश्यक है। राष्ट्रपति को आरोप पत्र दिये जाने के 14 दिन बाद ही सदन में महाभियोग का संकल्प पेश किया जा सकता है। जिस सदन में संकल्प पेश किया जाए, उसके सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से संकल्प पारित किया जाना चाहिए। जिस सदन में संकल्प पेश किया गया है, उसके द्वारा पारित किये जाने के बाद संकल्प दूसरे सदन को भेजा जाएगा और दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों की जाँच करेगा। जब दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों की जाँच कर रहा हो, तब राष्ट्रपति या तो स्वयं या तो अपने वकील के माध्यम से लगाये गये आरोपों के सम्बन्ध में अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा और स्पष्टीकरण देगा। यदि दूसरा सदन राष्ट्रपति पर लगाये गये आरोपों को सही पाता है तथा अपनी संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत पहले सदन द्वारा पारित संकल्प का अनुमोदन कर देता है, तो महाभियोग की कार्रवाई पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार राष्ट्रपति अपना पद त्याग करने के लिए बाध्य हो जाता है। राष्ट्रपति भवनराष्ट्रपति भवन, दिल्ली राष्ट्रपति भवन वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। इस भवन के निर्माण की सोच सर्वप्रथम 1911 में उस समय उत्पन्न हुई जब दिल्ली दरबार ने निर्णय किया कि भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानान्तरित की जाएगी। इसी के साथ में यह भी निर्णय लिया गया कि नई दिल्ली में ब्रिटिश वायसराय के रहने के लिए एक आलीशान भवन का निर्माण किया जाएगा। राष्ट्रपति के अंगरक्षकराष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए अंगरक्षकों की व्यवस्था है। इस अंगरक्षक दस्ते का गठन सर्वप्रथम 1773 में गवर्नर जनरल हेस्टिग्स ने बनारस में किया था। प्रारम्भ में इस दस्ते में 50 जवान और 50 घोड़े शामिल किये गये थे। बाद में बनारस के राजा चेत सिंह द्वारा इस दस्ते में 50 जवान और 50 घोड़े शामिल कर लिये जाने के बाद इनकी संख्या 100 हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व यह संख्या 1845 थी, जो कालान्तर में बढ़कर 1929 हो गई। वर्तमान में राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्ते में 4 अधिकारी, 14 जूनियर कमीशंड अधिकारी और 161 जवानों की टुकड़ी शामिल है। राष्ट्रपति के सुरक्षा बलों को 1784 तक गवर्नर जनरल का बाडीगार्ड कहा जाता था। 1858 में इसे वायसराय का बाडीगार्ड कहा जाने लगा। 1944 तक आते-आते इसका नाम '44वीं डिवीजन निगरानी स्कवॉड्रन' पड़ गया। 1947 में एक बार फिर इस दस्ते को 'गवर्नर जनरल बाडीगार्ड' कहा जाने लगा। लेकिन 21 जनवरी, 1950 को भारत को गणतंत्र घोषित किये जाने के साथ ही इस दस्ते को 'राष्ट्रपति का अंगरक्षक' के रूप में नामांकित कर दिया गया। राष्ट्रपति के अंगरक्षक के दस्ते के रेजीमेंट का रंग नीला और गाढ़ा लाल (मैरून) है। इस दस्ते का अमर वाक्य 'भारत माता की जय' है। वर्तमान में राष्ट्रपति के अंगरक्षक दस्तें में सिक्ख, जाट और राजपूत सहित लगभग सभी रेजीमेंट के जवान और अधिकारी कार्यरत हैं। शक्तियाँ तथा अधिकारभारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रपति को निम्नलिखित शक्तियाँ तथा अधिकार प्रदान किये गये हैं– कार्यपालिका शक्तियाँसंविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है और वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से करता है। यहाँ अधीनस्थ प्राधिकारी का तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से है। राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है– मंत्रिपरिषद का गठनअनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति संघ की कार्यपालिका शक्ति के संचालन में सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद का गठन करता है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। सामान्यत: राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है जो कि लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। इस प्रकार नियुक्त किये गये प्रधानमंत्री की सलाह पर वह मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। साथ ही वह प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य को बर्ख़ास्त कर सकता है। सामान्यत: यह प्रथा रही है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य होता है, क्योंकि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, लेकिन राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि यदि लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल किसी ऐसे व्यक्ति को अपना नेता चुनता है, जो लोकसभा का सदस्य नहीं है या राज्यसभा का सदस्य है, तो राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है, लेकिन इस प्रकार नियुक्त किये गये व्यक्ति को 6 माह के अंतर्गत संसद का सदस्य होना पड़ता है। इसी तरह प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को मंत्रिपरिषद में शामिल कर सकता है, जो कि संसद का सदस्य नहीं है। यदि ऐसा व्यक्ति मंत्रिपरिषद में शामिल किया जाता है तो उसे छ: माह के अंतर्गत संसद के किसी सदन का सदस्य बनना पड़ता है। जब कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो कि लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले या लोकसभा में पेश किये गये अविश्वास प्रस्ताव के पारित होने के कारण मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़े, तो राष्ट्रपति किस व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करेगा, इस सम्बन्ध में संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। यहाँ पर राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है, जिसके सम्बन्ध में उसे विश्वास हो कि वह लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करता है। इस सम्बन्ध में कुछ हद तक राष्ट्रपति को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इसी विशेषाधिकार के प्रयोग में राष्ट्रपति ने 1979 में चरण सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। चरण सिंह की प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती दी गयी थी कि विश्वास मत प्राप्त करने पर ही उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए था, किन्तु न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति के सम्बन्ध में यह पूर्ववर्ती शर्त नहीं है कि लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया जाये। इसी तरह 1989 में वी. पी. सिंह, 1991 में पी. वी. नरसिंहराव, 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी और 1996 में ही एच डी देवगौड़ा तथा 1997 में इन्द्रकुमार गुजराल को प्रधानमंत्री पर पर नियुक्त किया गया था। बाद में 1998 में 12वीं लोकसभा के गठन के बाद राष्ट्रपति ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया था। नियुक्ति सम्बन्धी शक्तिसंविधान द्वारा राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह संघ से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ करें। राष्ट्रपति इस शक्ति के प्रयोग में कई पदाधिकारियों, जैसे- महान्यायवादी, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक, वित्त आयोगों के सदस्यों, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों, संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, अन्य निर्वाचन आयुक्तों, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधाशों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्षों तथा सदस्यों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राज्यों के राज्यपालों, संघ राज्यक्षेत्रों के उपराज्यपालों या प्रशासकों की नियुक्ति कर सकता है। राष्ट्रपति ये नियुक्तियाँ मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है। वह अपने द्वारा नियुक्त प्राधिकारियों तथा अधिकारियों को पदमुक्त कर सकता है। आयोगों का गठनराष्ट्रपति को आयोगों को गठित करने की शक्तियाँ भी प्रदान की गई हैं। यह भारत के राज्य क्षेत्र में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की दशाओं का अन्वेषण करने के लिए आयोग, राजभाषा पर प्रतिवेदन देने के लिए आयोग, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन पर रिपोर्ट देने के लिए तथा राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी क्रियाकलापों पर रिपोर्ट देने के लिए आयोग का गठन कर सकता है। सैनिक शक्तिसंघ के रक्षाबलों का समादेश राष्ट्रपति में निहित होता है। वह रक्षा बलों का प्रमुख होता है। राष्ट्रपति अपने में निहित रक्षा बलों का समादेश उस विधि के अनुसार प्रयुक्त करता है, जिसे संसद बनाये। वह रक्षा बलों के प्रमुखों को भी नियुक्त करता है। राजनयिक शक्तियाँअन्य देशों के साथ में भारत का संव्यवहार राष्ट्रपति के नाम से किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में राष्ट्रपति भारत का प्रतिनिधित्व करता है। अन्य देशों में भेजे जाने वाले राजदूत तथा उच्चायुक्त राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त जाते हैं। साथ ही अन्य देशों से भारत में नियुक्ति पर आने वाले राजदूतों व उच्चायुक्तों का स्वागत भी राष्ट्रपति के द्वारा किया जाता है। जब अन्य देश के राजदूत या उच्चायुक्त भारत में नियुक्त होकर आते हैं, तो वे अपना 'प्रत्यय पत्र' राष्ट्रपति के समक्ष पेश करते हैं। समस्त अंतर्राष्ट्रीय क़रार और सन्धियाँ राष्ट्रपति के नाम से की जाती हैं, लेकिन राष्ट्रपति अपनी राजनयिक शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है। विधायी शक्तियाँ एवं कार्यसंविधान द्वारा राष्ट्रपति को व्यापक विधायी शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं, जिन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है- संसद से सम्बन्धित शक्तिराष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है, क्योंकि संसद का गठन राष्ट्रपति और लोकसभा तथा राज्यसभा से मिलकर होता है। संसद से सम्बन्धित राष्ट्रपति की शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
निम्नलिखित विधेयक राष्ट्रपति की सिफ़ारिश के बिना संसद में पेश नहीं किये जा सकते-
राज्य विधान मण्डल द्वारा बनायी जाने वाली विधि के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं-
संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का वही प्रभाव होता है, जो संसद द्वारा पारित तथा राष्ट्रपति के द्वारा अनुमोदित अधिनियम को होता है, लेकिन अन्तर यह होता है कि अधिनियम का प्रभाव तब तक स्थायी होता है, जब तक की संसद के द्वारा या राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा निरस्त न कर दिया जाए, इसके विपरीत अध्यादेश केवल 6 मास तक ही प्रवर्तन में रहता है। राष्ट्रपति के द्वारा अध्यादेश संसद के विश्रान्तिकाल में उस समय जारी किया जाता है, जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसके अनुसार अविलम्ब कार्रवाई करना आवश्यक है। राष्ट्रपति के द्वारा जारी अध्यादेश का प्रभाव केवल 6 मास तक ही रहता है यदि 6 मास के अन्दर संसद द्वारा अनुमोदित न कर दिया जाए। संसद द्वारा अनुमोदित किये जाने पर वह राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त करने के बाद अधिनियम हो जाता है। यदि संसद के अधिवेशन के प्रारम्भ के बाद पहले जारी किये गये अध्यादेश को संसद द्वारा अनुमोदित किये जाने के लिए 6 मास के अन्दर संसद में पेश नहीं किया जाता है, तो अध्यादेश प्रभावहीन हो जाता है। यदि संसद के एक सदन का सत्र चल रहा है और दूसरे सदन का सत्र स्थगित हो, तब भी अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि संसद का एक सदन कोई विधेयक पारित कर उसे क़ानून बनाने के लिए सक्षम नहीं है। राष्ट्रपति को निम्नलिखित के सम्बन्ध में क़ानून बनाने की शक्ति है-
राष्ट्रपति की वीटो शक्तिसंविधान द्वारा राष्ट्रपति को स्पष्टत: वीटो की शक्ति प्रदान नहीं की गयी है लेकिन संविधान के अनुसार किये गये कार्यों तथा स्थापित परम्पराओं के अनुसार यह माना जाता है कि राष्ट्रपति को निम्नलिखित तीन प्रकार की वीटो शक्तियाँ प्राप्त हैं- पूर्ण वीटो-जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति नहीं देता है तो यह कहा जाता है कि राष्ट्रपति ने पूर्ण वीटो की शक्ति का प्रयोग किया है। राष्ट्रपति इस वीटो की शक्ति का प्रयोग गैर सरकारी विधेयक पर अनुमति न प्रदान करके कर सकता है या ऐसे विधेयक पर अनुमति न प्रदान करके कर सकता है जो ऐसी सरकार के द्वारा पारित किया गया हो, जो विधेयक पर अनुमति देने के पूर्व ही त्यागपत्र दे दे और नयी सरकार विधेयक पर अनुमति न देने की सिफ़ारिश करे। निलम्बनकारी वीटोजब राष्ट्रपति किसी विधेयक के प्रभाव को निलम्बित रखने के लिए अनुमति देने हेतु अपने पास प्रेषित विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजता है, तो यह कहा जाता है कि उन्होंने निलम्बनकारी वीटो का प्रयोग किया है। जेबी वीटो-इस पॉकेट वीटो भी कहा जाता है। जब राष्टपति संसद द्वारा पारित करके अनुमति के लिए भेजे गए विधेयक पर न तो अनुमति देता है और न ही उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजता है तो यह कहा जाता है कि राष्ट्रपति ने जेबी या पॉकेट वीटो का प्रयोग किया है। इस वीटो का प्रयोग राष्ट्रपति (ज्ञानी ज़ैल सिंह) ने 1986 में संसद द्वारा पारित भारतीय डाक (संशोधन) अधिनियम के सन्दर्भ में किया है। राष्ट्रपति ने न तो इस पर अपनी अनुमति दी है और न ही इसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजा है। वित्तीय शक्तियाँराष्ट्रपति को संविधान द्वारा कई वित्तीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। धन विधेयक तथा वित्त विधेयक को तभी लोकसभा में पेश किया जाता है जब राष्ट्रपति उसकी सिफ़ारिश करे। जिस विधेयक को प्रवर्तित किये जाने पर भारत की संचित निधि में व्यय करना पड़े, उस विधेयक को संसद द्वारा तभी पारित किया जाएगा, जब राष्ट्रपति उस विधेयक पर विचार-विमर्श करने की सिफ़ारिश संसद से करें। जिस कराधान में राज्य का हित सम्बद्ध है, उस कराधान से सम्बन्धित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति से ही लोकसभा में पेश किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति प्रत्येक वर्ष वित्तमंत्री के माध्यम से वर्ष का बजट लोकसभा में पेश करवाता है तथा प्रत्येक पाँच वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन करता है। राष्ट्रपति वित्त आयोग द्वारा की गयी प्रत्येक सिफ़ारिश को, उस पर किये गये स्पष्टीकरण ज्ञापन सहित संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाता है। न्यायिक शक्तियाँसंविधान द्वारा राष्ट्रपति को तीन प्रकार की न्यायिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार से है- न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्तिअनुच्छेद 124 के अनुसार राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करने के लिए राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करेगा, जिनसे परामर्श करना वह आवश्यक समझे। मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूर्व वह मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करेगा। लेकिन संविधान में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान नहीं किया गया है कि राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से बाध्य होंगे या नहीं। लेकिन 6 अक्टूबर, 1993 को दिये गये एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि
राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों को नियुक्त करता है। उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को नियुक्त करते समय राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राज्य के राज्यपाल से परामर्श करता है, जबकि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय वह भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल तथा सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है। 6 अक्टूबर, 1993 को दिये गये निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति ऐसी नियुक्तियाँ करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीशों की राय को वरीयता देने के लिए बाध्य है। राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण कर सकता है। क्षमादान की शक्तिसंविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को क्षमा तथा कुछ मामलों में दण्डादेश के निलम्बन, परिहार या लघुकरण की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति को निम्नलिखित मामले में क्षमा, तथा दोषसिद्धि के निलम्बन, परिहार या लघुकरण की शक्ति प्राप्त है-
क्षमा का तात्पर्य अपराध के दण्ड से मुक्ति प्रदान करना है। प्रतिलम्बन का तात्पर्य विधि द्वारा विहित दण्ड के स्थायी स्थगन से है। परिहार के अंतर्गत दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना दण्ड की मात्रा को कम किया जाना है। लघुकरण का अर्थ दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन करना है। राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है और राष्ट्रपति द्वारा यदि इस शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो उसका न्यायिक पुनर्विलोकन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकारअनुच्छेद 143 के अनुसार जब राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की सम्भावना है, जो ऐसी प्रकृति का और व्यापक महत्त्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तब वह उस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय की राय मांग सकता है। आपातकालीन शक्तिराष्ट्रपति को निम्नलिखित आपातकालीन शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
राष्ट्रपति का विशेषाधिकारसंविधान द्वारा राष्ट्रपति को यह विशेषाधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने पद के किसी कर्तव्य के निर्वहन तथा शक्तियों के प्रयोग में किये जाने वाले किसी कार्य के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा। संवैधानिक स्थितिसंविधान की भावना तथा संविधान सभा में इसके सदस्यों द्वारा किये गये विचारों के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्र का केवल औपचारिक प्रधान होगा, लेकिन मूल संविधान के अनुच्छेद 74 (1) में यह प्रावधान किया गया था कि राष्ट्रपति को उसके कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। इसका यह अर्थ लगाया जाता था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है और वह अपने विवेक से भी संविधान के प्रावधानों के अनुसार अपने कृत्यों का निर्वहन कर सकता है। इसी प्रावधान के कारण प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बीच हिन्दू कोड तथा चीन से सम्बन्ध आदि मामलों में काफ़ी मतभेद था, जिससे दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। इसके बावजूद 1976 तक संविधान के इस प्रावधान को क़ायम रखा गया, परन्तु 42वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 74 (1) में संशोधन करके यह व्यवस्था की गयी कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा और इस प्रकार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया गया, किन्तु 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 74 (1) में यह व्यवस्था कर दी गयी कि यदि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद द्वारा कोई सलाह दी जाती है तो वह मंत्रिपरिषद की दी गयी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है। इस प्रकार मंत्रिपरिषद द्वारा पुनर्विचार के बाद की गयी सलाह पर राष्ट्रपति कार्य करने के लिए बाध्य है। पन्ने की प्रगति अवस्था
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
भारत का प्रथम राष्ट्रपति कब बना?भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। डॉ राजेन्द्र प्रसाद (3 दिसम्बर 1884 – 28 फरवरी 1963) भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे।
भारत का पहला राष्ट्रपति कौन थे?राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से भी एक थे। पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या देशरत्न कहकर पुकारा जाता था। बिहार के सीवान जिले के एक छोटे से गांव जीरादेई में 3 दिसम्बर, 1884 में राजेन्द्र प्रसाद का जन्म हुआ था।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति महिला कौन है?Sundaram Singh. प्रतिभा देवीसिंह पाटिल स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली महिला राष्ट्रपति हैं।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति कौन है?भारत के उपराष्ट्रपतियों की सूची. |