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उजाला कम ना हो:अपने अंदर के मंगल पांडेय को सदैव रखना होगा जीवित
मनोज मुंतशिर6 महीने पहले
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बैरकपुर छावनी में बना मंगल पांडेय का स्मारक।
जब कोई क्रांति-पथ पर बलिदान हो जाता है, तो वो व्यक्ति नहीं रहता, स्वयं ‘क्रांति’ हो जाता है। राष्ट्र के लिए प्राण देने वाला स्वयं ‘राष्ट्र’ हो जाता है। मंगल पांडेय भी कोई व्यक्ति नहीं थे, वो स्वयं ‘क्रांति’ थे, ‘राष्ट्र’ थे, इसलिए उनका परिचय देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंगल पांडेय भारतवर्ष के माथे पर लगा हुआ वो ‘रक्त तिलक’ हैं, जो बलिदान होकर भी पूरी दुनिया को अमर होना सिखाता है।
स्थान- बैरकपुर छावनी, बंगाल, तारीख़- 8 अप्रैल 1857. ये वही तारीख़ है जो ब्रिटिश हुकूमत ने क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय को फांसी देने के लिए तय की थी। छावनी के बाक़ी भारतीय सैनिकों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को बटालियन के बाक़ी सैनिकों के सामने ख़ुलेआम फांसी देने का निर्णय लिया था। छावनी के बीचो-बीच मैदान में फांसी का फंदा लटक रहा है। आस-पास सैकड़ों की संख्या में भारतीय सिपाही खड़े हुए हैं। बंदूकों से लैस अंग्रेज़ी सिपाही चारों ओर पहरा दे रहे हैं। सांस को छोड़ कर किसी को भी आने-जाने की कोई आज्ञा नहीं है। तभी इस सन्नाटे को तोड़ते हुए, हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़े महान क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय को फांसी के फंदे तक लाया जाता है। मंगल पाण्डेय ने पहले मुस्कुराते हुए चारों ओर देखा। सारे सैनिक सर झुकाए हुए खड़े थे। सब कुछ शांत था। बस जेलर की उस घड़ी को छोड़ कर, जो अपनी टिक-टिक के साथ ‘मंगल’ को, राष्ट्र पर बलिदान होने के ‘मंगल यज्ञ’ की ओर आगे लिए जा रही थी। जेलर के डेथ वारंट पढ़ते ही, मंगल पांडेय ने ‘हल्ला-बोल’ का गगनभेदी नारा लगाया और फिर वे फांसी के फंदे पर झूल गए।
मंगल पाण्डेय ने आज से 165 साल पहले अपने प्राणों की आहुति दी थी, लेकिन कभी विचार कीजिएगा कि इस बलिदान के पीछे उनका दर्शन क्या था? उनका उद्देश्य क्या था? मंगल पांडेय को पता था कि ये वही भारतवर्ष है जो कभी ग़ुलाम नहीं रहा। जिसने दुनिया के सभी सताए हुए लोगों को शरण दी है। इन अंग्रेजों ने भी कभी हमारे राजाओं के दरबार में नाक रगड़कर व्यापार की अनुमति मांगी थी और हमने ‘अतिथि देवो भव’ का अनुसरण करते हुए इनके लिए अपनी बांहें खोल दी थीं। ये वही भारतवर्ष है, जिसके आदि पिता ‘भरत’ शेरों के साथ खेलते हैं, जिसके बेटे ‘श्री राम’ और ‘लक्ष्मण’ आतताइयों का सर्वनाश कर देते हैं। जिस भारतवर्ष ने संसार को मर कर भी अमर होना सिखाया है, वो कभी ग़ुलाम नहीं हो सकता। ‘स्वतंत्रता’ और ‘सह अस्तित्व’ का विराट दर्शन हमने ही दुनिया को दिया है। हमने ही संसार को कर्मयोग सिखाया है और आज हमारी ही स्वतंत्रता का अपहरण किया जा रहा है। लेकिन इस क्रांति का बिगुल बजाएगा कौन? भारत माता के पैरों में जकड़ी हुई बेड़ियों को तोड़ेगा कौन? मंगल पांडेय ने तय कर लिया था कि वे ही इस क्रांति की गौरवशाली मशाल को प्रज्वलित करेंगे। अब उन्हें इंतज़ार था बस सही मौक़े का, सही समय का।
29 मार्च 1857 को समय आ ही गया। ‘34वीं बंगाल नेटिव इंफैंट्री’ के सैनिक मंगल पांडेय ने ‘लेफ्टिनेट बाग’ और ‘मेज़र ह्यूसन’ पर गोली चला कर ‘1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ का शंखनाद कर दिया। बहुत ही कम समय में ये क्रांति मेरठ, दिल्ली, कानपुर, बरेली, झांसी और अवध होते हुए पूरे देश में जंगल की आग की तरह फैल गई और जनक्रांति का रूप ले लिया था। सबकी ज़ुबान पर क्रांतिकारी मंगल पांडेय का ही नारा था- 'मारो फ़िरंगी को'। इस क्रांति की धमक इतनी व्यापक थी कि भारत सहित ब्रिटिश ताज भी इससे थर्रा उठा था।
मंगल पाण्डेय तो बलिदान हो गए थे लेकिन उनका बोया हुए ‘क्रांति बीज’ अक्षय रहा। आगे चलकर इसी ‘क्रांति बीज’ को भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों अपने रक्त से सींच कर स्वतंत्रता का वटवृक्ष बना दिया। लेकिन स्वतंत्रता कोई एक घटना नहीं, एक सतत प्रक्रिया है। इसलिए हमें हमारी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, राष्ट्रीय और व्यक्तिगत अस्मिता और अखंडता के लिए, अपने अंदर के मंगल पांडेय को सदैव जीवित रखना होगा। मंगल पाण्डेय का ये बलिदान भारतवर्ष के माथे पर सूर्य की भांति सदैव चमकता रहेगा और हमें हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के ख़ातिर मर मिटने के लिए सदैव प्रेरित करता रहेगा।
मंगल पांडे को नमन, जानिए क्रांतिकारी का जीवन परिचय
जन्म- 19 जुलाई 1827
मृत्यु- 8 अप्रैल 1857
आजादी की लड़ाई में भागीदारी करने वाले क्रांतिकारी मंगल पांडे (mangal pandey) का जन्म एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में 19 जुलाई 1827 को बलिया जिले के नगवा गांव में हुआ था। उनके पिता दिवाकर पांडे तथा माता का नाम अभय रानी था। मंगल पांडे शरीर से स्वस्थ और अपनी बहादुरी, साहस, एक अच्छे सैनिक के गुण और गंभीरता के लिए जाने जाते हैं।
मंगल पांडे का नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी योद्धाओं के रूप में लिया जाता है, उनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला ने ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन बुरी तरह से हिला दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी, जोकि भारत में व्यापारियों के रूप में आई थी, उसने जब भारत को अपने अधीन कर लिया तो लंदन में बैठे उनके आकाओं ने शायद यह उम्मीद भी नहीं की होगी कि एक दिन मंगल पांडेय रूपी कोई तूफान ऐसी खलबली मचा देगा, जो इतिहास में भारत की आजादी की पहली लड़ाई कही जाएगी। सन् 1849 में मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हुए और बैरकपुर की सैनिक छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री यानी बीएनआई की 34वीं रेजीमेंट के पैदल सेना के सिपाही रहे।
मंगल पांडे के मन में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वार्थी नीतियों के कारण अंग्रेजी हुकुमत के प्रति पहले ही नफरत थी। जब सेना की बंगाल इकाई में ‘एनफील्ड पी.-53’ राइफल में नई कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो इन कारतूसों को बंदूक में डालने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था। सैनिकों के बीच ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों को बनाने में गाय तथा सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता है, जो कि हिन्दू और मुसलमानों दोनों के लिए गंभीर और धार्मिक विषय था। तब हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के सैनिकों के मन में अंग्रजों के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया।
इसके बाद 9 फरवरी 1857 को जब यह कारतूस देशी पैदल सेना को बांटा गया, तब मंगल पांडेय ने उसे न लेने को लेकर विद्रोह (Indian rebellion of 1857) जता दिया। इस बात से गुस्साए अंग्रेजी अफसर द्वारा मंगल पांडे से उनके हथियार छीन लेने और वर्दी उतरवाने का आदेश दिया, जिसे मानने से मंगल पांडे ने इनकार कर दिया। और रायफल छीनने आगे बढ़ रहे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण किया तथा उसे मौत के घाट उतार दिया, साथ ही उनके रास्ते में आए दूसरे एक और अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट बॉब को भी मौत के घात उतार दिया।
इस तरह मंगल पांडेय ने बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया, अत: उन्हें आजादी की लड़ाई के अगदूत भी कहा जाता है।भारतीय इतिहास में इस घटना को ‘1857 का गदर’ नाम दिया गया।
इसके घटना के बाद मंगल पांडे को अंग्रेज सिपाहियों ने गिरफ्तार किया गया तथा उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाया और फांसी की सजा सुना दी गई। कोर्ट के फैसले के अनुसार उन्हें 18 अप्रैल 1857 को फांसी दी जानी थी, लेकिन अंग्रेजों द्वारा 10 दिन पूर्व ही यानी 8 अप्रैल सन् 1857 को ही मंगल पांडे को फांसी दे दी गई।
मंगल पांडे द्वारा किया गया यह विद्रोह ही भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जा सकता है, जिसमें सैनिकों के साथ-साथ राजा-रजवाड़े, किसान, मजदूर एवं अन्य सभी सामान्य लोग भी शामिल हुए। अत: इस विद्रोह के बाद भारत पर राज्य करने का अंग्रेजों का सपना उन्हें कमजोर होता दिखाई दिया। मंगल पांडे आजादी के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनके सामने गर्दन झुकाकर जल्लादों ने फांसी देने से इनकार कर दिया था।
अत: 1857 की आजादी के क्रांति (Indian soldier) के सबसे पहले नायक मंगल पांडे ही है, उस समय अंग्रेजों को फिरंगी के नाम से भी जाना जाता है और मंगल पांडे ने ही सबसे पहले 'मारो फिरंगी को' नारा दिया था।
Mangal Pandey
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