इस प्रवचन के दो उद्देश्य हैं।
पहला, गौ माता के भक्त उनके बारे में और थोड़ा जान लें।
वेदों में, पुराणों में, इतिहासों में, गौ माता की महिमा का उल्लेख अनंत है।
हम सिर्फ एक नजर डाल पाएंगे इन के ऊपर।
दूसरा, जो लोग गौ माता के भक्त नहीं हैं, उन्हें ये जानने के लिए कि गौ माता के प्रति भक्ति श्रद्धा का धार्मिक आधार क्या है?
और इसको समझते हुए, अपने सहजीवियों कि भावनाओं को महत्ता देते हुए, एक सहयोग का रास्ता कैसे अपनाना चाहिए।
गौ माता की उत्पत्ति कैसे हुई?
ब्रह्मवैवर्त पुराण में गौ माता की उत्पत्ति के बारे में कहा गया है।
इसे सुरभ्युपाख्यानम् कहते हैं।
नारद महर्षि भगवान श्रीमन्नारायण से बोले: हमने सुना है कि गौ माता गौ लोक से आई है।
उनकी कथा हमें कृपा करके सुनाइए।
भगवान श्रीमन्नारायण ने कहा: हां, सही है।
गौ वंश में सबसे पहली सुरभि नाम वाली गौ माता ही है और उन का उद्भव गोलोक में ही हुआ था।
उन का वृंदावन में कैसे जन्म हुआ, मैं सुनाता हूं।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण, राधा और गोपी जनों के साथ वृंदावन में गुप्त रूप से रहकर मनोरंजन कर रहे थे।
उन को दूध पीने की इच्छा हुई।
उन्हों ने अपने शरीर की बायें तरफ से बछड़े के साथ गौ माता को उत्पन्न किया।
यहां पर एक विशेष बात है।
श्रीमद् देवी भागवत नवम स्कंध में राधा के बारे में कहा है:
सर्वयुक्ता च सौभाग्यदायिनी गौरवान्विता।
वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसा समा।
यहां पर राधा को श्री हरि की वामांगार्धस्वरूपा कहा गया है।
मतलब श्री हरि के शरीर का बायां हिस्सा राधा का स्वरूप है और राधा सौभाग्यदायिनी और गुणों में और तेज में श्री हरी के समान है।
गौ माता भी श्री कृष्ण के शरीर के बायें हिस्से से उत्पन्न हुई हैं।
अब समझ में आता है कि गौ माता में इतनी शक्ति क्यों है।
क्योंकि गौ माता भगवान श्री कृष्ण के शरीर से उत्पन्न हुई।
उन के शरीर के बायें हिस्से से उत्पन्न हुई।
एक रत्न के पात्र में सुरभि का दोहन किया गया।
गुण में वह दूध अमृत से भी था श्रेष्ठ।
श्री हरि ने इस गरम दूध को पिया और उसके बाद किसी प्रकार से वह पात्र नीचे गिर गया।
और उस गिरे हुए दूध से, सौ योजन लंबा चौडा दूध का एक तालाब बन गया वृंदावन में।
उसका नाम था क्षीरसरोवर।
सुरभि के रोम रोम से करोड़ों में बछड़ों के साथ गायें उत्पन्न हुई।
इनका वंश ही सारी दुनिया में फैला।
सबसे पहले भगवान श्री कृष्ण ने ही गौ पूजा की थी।
ॐ सुरभ्यै नमः- यह गौ माता का मंत्र है।
इसे सिद्ध करने के लिए, एक लाख जप करना चाहिए।
सिद्ध होने पर यह मंत्र सब कुछ दे देता है।
दिया जलाकर, कलश में, गाय के सिर पर, गाय को बांधने वाले खंबे पर, सालग्राम के ऊपर, जल में या अग्नि में, पूजा की जा सकती है।
प्रार्थना की जाती है कि-
ऋद्धिदां वृद्धिदां चैव मुक्तिदां सर्वकामदाम्।
लक्ष्मीस्वरूपां परमां राधां सहचरीं पराम्।
गवामधिष्ठातृदेवीं गवामाद्यां गवां प्रसूम्।
पवित्ररूपां पूज्यां च भक्तानां सर्वकामदाम्।
यया पूतं सर्वविश्वं तां देवीं सुरभीं भजे।
जो व्यक्ति गौ पूजा करेगा वह खुद पूजनीय बन जाएगा।
गौ की अपार महिमा और दैवी गुणों से हिन्दू शास्त्रों के पृष्ठ भरे पड़े हैं। पुराणों में गौ के प्रभाव और उसकी श्रेष्ठता की ऐसी अनगिनत कथाएँ मिलती हैं जिन से विदित होता है कि हमारे पूर्वज गौ के महान भक्त थे और उसकी रक्षा करना अपना बहुत बड़ा धर्म समझते थे। गौ-रक्षा में प्राण अर्पण कर देना हिन्दू बड़े पुण्य की बात समझते थे और उसका पालन करना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती थी। गौ का महत्व यहाँ तक समझा जाता था कि उसके शरीर में उन 33 करोड़ देवताओं का निवास बतलाया गया और उसकी उत्पत्ति अमृत,लक्ष्मी आदि चौदह रत्नों के अंतर्गत मानी गई । यद्यपि ये कथायें एक प्रकार की रूपक हैं पर उनके भीतर बड़े-बड़े आध्यात्मिक तथा कल्याणकारी तत्त्व भरे हैं।
गौ की उत्पत्ति की पुराणों में कई प्रकार की कथायें मिलती हैं। पहली तो यह है कि जब ब्रह्मा एक मुख से अमृत पी रहे थे तो उनके दूसरे मुख से कुछ फेन निकल गया और उसी से आदि-गाय सुरभि की उत्पत्ति हुई। दूसरी कथा में कहा गया है कि दक्ष प्रजापति की साठ लड़कियाँ थीं उन्हीं में से एक सुरभि भी थी। तीसरे स्थान पर यह बतलाया गया है कि सुरभि अर्थात् स्वर्गीय गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों के साथ ही हुई थी। सुरभि से सुनहरे रंग की कपिला गाय उत्पन्न हुई। जिसके दूध से क्षीर सागर बना।
प्राचीन काल से आर्य-जाति गौ की बहुत अधिक महिमा मानती आई है। ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में भी गौ के गुणानुवाद के सैकड़ों मंत्र भरे पड़े हैं। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा है कि ‘गौओं में कामधेनु मैं हूँ।” गाय के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि धन की देवी लक्ष्मी जी पहले गाय के रूप में आयी और उन्हीं के गोबर से विल्व वृक्ष की उत्पत्ति हुई।
कपिल मुनि के शाप से जले हुये अपने साठ हजार पूर्वजों की राख का पता जब राजा रघु नहीं लगा सके तब वे गुरु वशिष्ठ जी के पास आये। गुरुजी ने दया करके उनकी आँखों में नन्दिनी गाय का मूत्र आँज दिया, जिससे रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई और वे पृथ्वी में दबी हुई अपने पुरखों की राख का पता लगाने में समर्थ हो सके।
गंगाजी को पहले पहल जब संसार (मृत्यु लोक) में आने को कहा तो वे बहुत दुखी हुई और आना कानी करने लगीं। उन्होंने कहा कि “पृथ्वी पर पापी लोग मुझ में स्नानादि करके अपवित्र किया करेंगे, इसलिये मैं मृत्युलोक में न जाऊँगी। तब पितामह ब्रह्माजी ने समझाया कि “लोग तुमको कितना भी अपवित्र करें किन्तु फिर भी गौ का पैर लगने से तुम पवित्र होती रहोगी।” इससे भी गौ और गंगा के हिन्दू धर्म से विशेष सम्बन्ध होने पर प्रकाश पड़ता है।
रामचन्द्र जी पूर्वज महाराज दलीप की गौ-सेवा का उदाहरण बड़ा महत्वपूर्ण है। उन्होंने एक दिन मार्ग में जाती हुई नन्दिनी को देखकर प्रणाम नहीं किया, इस पर उसके महाराज को पुत्रहीन होने का शाप दे दिया। इससे दुखी होकर वे गुरु वशिष्ठ के पास गये और शाप से मुक्ति पाने के लिए बड़ी विनय करने लगे। वशिष्ठ जी ने नन्दिनी गाय उनको दे दी और उसका भली प्रकार से पूजन और सेवा करने को कहा। उनके आदेशानुसार राजा और रानी दोनों मिलकर उसकी सेवा करने लगे। राजा गाय को वन में चराने ले जाते। वे नन्दिनी के चलने पर चलते थे, उसके बैठने पर बैठ जाते थे। एक दिन राजा का ध्यान जरा देर के लिए वन के दृश्य की तरफ चला गया कि नन्दिनी बड़े जोर से चिल्लाई। राजा ने देखा कि एक सिंह गाय को दबोच कर खाना चाहती है। उन्होंने तुरन्त अपना धनुष उठाकर तीर चलाना चाहा, पर दैवी मायावश तीर छूट न सका। तब राजा ने विवश होकर नन्दिनी गाय के बदले अपना शरीर सिंह को देने के लिये चुपचाप उसके सामने पड़ गये। पर जब कुछ देर तक पड़े रहने पर भी सिंह ने उनको नहीं खाया तो उन्होंने मस्तक उठाकर देखा। उस समय वह माया रूपी सिंह गायब हो चुका था और केवल नन्दिनी खड़ी प्रसन्न हो रही थी। राजा की इस अनुपम भक्ति से वह संतुष्ट हो गई और उसने राजा को पुत्र होने का वरदान दे दिया।
प्रसिद्ध देशभक्त महादेव गोविन्द रानाडे के जन्म के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात सुनने में आई है। उनके माता पिता के कोई पुत्र न था और वे वृद्ध हो चले थे। एक दिन कोई संत उनके दरवाजे पर भिक्षार्थ आ गए। दंपत्ति ने उनकी बड़ी सेवा की । साधु ने उन्हें उदास देखकर कारण पूछा और निस्सन्तान होने की बात सुनकर कहा-तुम एक दूध देने वाली सवत्सा काली गाय रखो। उसको साबुत गेहूँ खिलाओ, जो गोबर के साथ निकल आवें। उन्हीं दानों को धोकर, साफ करके आटा तैयार करो। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर उसी की रोटी खाओ। छह मास तक ऐसा करने से तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो सकेगी। दंपत्ति ने वैसा ही किया और फलस्वरूप उनको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ काली गाय से पुत्र प्राप्त होने की बात भारतवर्ष में सर्वत्र प्रसिद्ध है।