संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
संथालों के विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे:
- संथालों ने जिस जंगली भूमि को अत्यधिक परिश्रम करके कृषि योग्य बनाया था, वह इस्तमरारी बंदोबस्त के कारण उनके हाथों से निकलने लगी थी। महेशपुर और पाकुड़ के पड़ोसी राजाओं ने संथालों के गावों को आगे छोटे ज़मींदारों व साहूकारों को पट्टे पर दे दिया। वे मनमाना लगान वसूल करने लगे।
- लगान अदा न कर पाने की स्थिति में संथाल किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हुए। इससे शोषण व उत्पीड़न का चक्र शुरू हुआ। साहूकार उनके ऋण पर बहुत ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे।
- अंग्रेज अधिकारियों ने संथालों के नियंत्रित प्रदेशों और भू-भागों में मूल्यवान पत्थरों और खनिजों को खोजने की कोशिश की। उन्होंने लौह-खनिज, अभ्रक, ग्रेनाइट और साल्टपीटर से संबंधित सभी स्थानों की जानकारी प्राप्त कर ली। यही नहीं, उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ नमक बनाने और लोहा निकालने की संथालों और स्थानीय पद्धतियों का निरीक्षण किया। इन सबसे संथाल बहुत चिढ़ गए।
- संथाल अपनी दुर्दशा के लिए ब्रिटिश प्रशासन को उत्तरदायीं समझते थे। अतः वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करके अपने लिए एक ऐसे आदर्श संसार का निर्माण करना चाहते थे जहाँ उनका अपना शासन हो। इन सब कारणों ने संथालों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार कर दिया।
ज़मींदार लोग अपनी जमींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे?
जमींदार द्वारा अपने ज़मींदारियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाते गए:
- जमींदारों के एजेंट नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ की नीति को अपनाते थे। अपनी भू-संपदा की बिक्री के समय उनके अपने ही आदमी ऊँची बोली लगाकर ज़मींदारी (भू-संपदा) को खरीद लेते थे। बाद में वे खरीद की राशि चुकाने से इनकार कर देते थे। इस प्रकार ज़मींदारी जमींदार के नियंत्रण में ही रहती थी।
- ज़मींदार ज़मींदारी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए फ़र्ज़ी बिक्री का सहारा लेते थे। फ़र्ज़ी बिक्री के कारण ज़मींदारी को बार-बार बेचना पड़ता था। बार-बार बोली लगाने से सरकार तथा बोली लगाने वाले दोनों ही थक जाते थे। जब कोई भी बोली लगता था, तो सरकार को वह ज़मींदारी पुराने जमींदार को ही कम कीमत पर बेचनी पड़ती थी।
- जमींदार अपनी जमींदारियों के कुछ भाग परिवार की महिलाओं के नाम कर देते थे, क्योंकि कम्पनी की नीति में महिलाओं की सम्पत्ति न छीनने का प्रावधान था। ऐसा करने से भी जमींदार अपनी ज़मींदारी पर नियंत्रण बनाए रखते थे।
- ज़मदार अपनी ज़मींदारी पर किसी अन्य व्यक्ति का कब्ज़ा सरलतापूर्वक नहीं होने देते थे। जब कोई नया खरीददार ज़मींदारी खरीद लेता था, तो पुराने जमींदार के 'लठियाल' मारपीट कर उसे भगा देते थे। कभी-कभी स्वयं रैयत नए खरीददार को ज़मीन में नहीं घुसने देते थे।
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
दक्कन के रैयत निम्नलिखित कारणों से ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध थे:
- 1870 ई के आस-पास दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति अत्यधिक क्रुद्ध थे। ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार किए जाने पर, रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। किसानों को लगता था की ऋणदाता इतना संवेदनहीन हो गए है जो उनकी हालत पर तरस नहीं खाता।
- ऋणदाता लोग देहात के प्रथागत मानकों यानी रूढ़ि रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे। उदाहरण के लिए ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता था। परन्तु ऋणदाता इस मानक की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। एक मामले में ऋणदाता ने 100 रु.के मूलधन पर 2000 रु. से भी अधिक ब्याज लगा रखा था।
- बिना चुकाई गई ब्याज की राशि को नए बंधपत्रों में शालिम कर लिया जाता था, ताकि ऋणदाता कानून के शिकंजे से बचा रहे और उसकी राशि भी न डूबे।
- साहूकार अथवा ऋणदाता किसानों को अनेक प्रकार से ठगते रहते थे; ऋण का भुगतान किए जाने के समय वे रैयत को उसकी रसीद नहीं देते थे, अनुबंध पत्रों में जाली आँकड़ों को भर लिया जाता था, किसानों की फसलों का दाम बहुत कम आँका जाता था और अंत में उनकी धन-संपदा पर ही अधिकार जमा लिया जाता था।
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई?
पहाड़िया लोग बाहर से आने वाले लोगों को संदेह तथा अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। बाहरी लोगों का आगमन पहाड़ियां लोगों के लिए जीवन का संकट बन गया
था। उनके पहाड़ व जंगलों पर कब्जा करके खेत बनाए जा रहे थे। पहाड़ी लोगों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों के आक्रमणों में तेजी आती गई। अनाज व पशुओं की लूट के साथ इन्होने अंग्रेजों की कोठियों, ज़मींदारों की कचहरियों तथा महाजनों के घर-बारों पर अपने मुखियाओं के नेतृत्व में संगठित हमले किए और लूटपाट की।
वही दूसरी तरफ़, ब्रिटिश अधिकारियों ने दमन की नीति को अपनाया। उन्हें बेरहमी से मारा-पीटा गया परंतु पहाड़ियां लोग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में जाकर बाहरी लोगों (ज़मींदारों व जोतदारों) पर
हमला करते रहे। ऐसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के सैन्य बलों के लिए भी इनसे निपटना आसान नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने शांति संधि के प्रयास शुरू किए जिसमें उन्हें सालाना भत्ते की पेशकश की गई। बदले में उनसे यह आश्वासन चाहा कि वे शांति व्यवस्था बनाए रखेंगे। उल्लेखनीय हैं कि अधिकतर मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। जिन कुछ मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था, उन्हें पहाड़िया लोगों ने पसंद नहीं किया।
ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
ग्रामीण बंगाल में बहुत-से इलाकों में जोतदार काफ़ी शक्तिशाली थे। वे ज़मींदारों से भी अधिक प्रभावशाली थे उनके शक्तिशाली होने के निम्नलिखित कारण थे:
- उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते, जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े रकबे, जो कभी-कभी तो कई हजार एकड़ में फैले थे, अर्जित कर लिए थे।
- स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी उनका नियंत्रण था और इस प्रकार वे उस क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे।
- गाँवों में, जोतोदारों की शक्ति, जमींदारों की ताकत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती थी। जमींदार के विपरीत जो शहरी इलाकों में रहते थे, जोतदार गाँवों में ही रहते थे और गरीब ग्रामवासियों के काफी बड़े वर्ग पर सीधे अपने नियंत्रण का प्रयोग करते थे।
- जोतदार ग्राम में ज़मींदारों के लगान वृद्धि के प्रयासों का विरोध करते थे। वे ज़मींदारी अधिकारीयों को अपने लगान वृद्धि को लागू करने से सम्बन्धित कर्तव्यों का पालन नहीं करने देते थे।