भक्तिन ने अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? - bhaktin ne apana vaastavik naam logon se kyon chhupaatee thee?

इसके पीछे भक्तिन की रूढ़ीवादी सोच है। भक्तिन का असली नाम लक्ष्मी है। लक्ष्मी धन की देवी को माना जाता है। विडंबना देखिए कि लक्ष्मी यानी की भक्तिन के जीवन में धन कहीं नहीं था। अतः उसे अपना नाम विरोधाभास प्रतीत होता है। लक्ष्मी नाम होने के बाद भी वह कंगाल है। लोगों द्वारा इस नाम को बुलाना उसे स्वयं का उपहास लगता है। अतः वह अपने असली नाम को छुपाना चाहती है। जब भक्तिन से लेखिका ने उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम तो बताया मगर साथ में लेखिका से निवेदन किया कि उसे उसके वास्तविक नाम से पुकारा नहीं जाए। लेखिका ने उसकी बात मान ली। भक्तिन ने गले में कंठी माला पहन रखी थी। उसकी संन्यासी जैसी छवि देखकर लेखिका ने उसको भक्तिन नाम दे दिया। भक्तिन को अपना यह नाम बहुत पसंद आया।

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Question 2:

दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भक्ति पुत्र-महिमा में अँधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चली है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत हैं?

Answer:

बिलकुल हम इस बात से सहमत है। इस समाज में एक स्त्री पुरुष के स्थान पर एक दूसरी स्त्री द्वारा किए गए शोषण का शिकार अधिक होती है। एक स्त्री को उसके पति द्वारा कम उसकी सास द्वारा अधिक प्रताड़ित किया जाता है। यह प्रताड़ना कभी पुत्र न होने पर, दहेज़ न लाने पर, गरीब घर की होने पर, सुंदर न होने, अच्छे से काम ने करने इत्यादि बातों पर होती है। स्वयं एक बेटी अपने घर में अपनी माँ का संपूर्ण प्यार इसलिए नहीं पा पाती है क्योंकि वह बेटी होती है। भारतीय समाज में स्त्रियों की दूर्दशा के लिए दूसरी स्त्री पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है।

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Question 3:

भक्तिन की बेटी पर पंचायात द्वारा ज़बरन पति थोपा जाना दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) इसकी स्वतंत्रता को कुचले रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?

Answer:

भक्तिन की बेटी विवाह नहीं करना चाहती थी। यही कारण है कि जब उसके ताऊओं द्वारा रिश्ता लाया गया, तो उसने साफ इनकार कर दिया। उन्हें यह इनकार पसंद नहीं आया और उन्होंने उस लड़की के खिलाफ षडयंत्र रचा। लड़के ने घर में लड़की को अकेला पाकर अंदर से दरवाज़ा बंद कर दिया। जब हल्ला हुआ, तो इस फैसले के लिए पंचायत बुलायी गई। पंचायत यह देख चुकी थी कि लड़की ने उस लड़के के मुख पर अपनी इनकार की मुहर पहले से दे दी है। इसके बाद भी उसकी नहीं सुनी गई। उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध करने का निर्णय पंचायत ने दे डाला। यह कहाँ का न्याय है। जब पंचायत ने बेकसूर लड़की को एक निकम्मे लड़के के साथ इसलिए शादी करने के लिए विवश किया क्योंकि वह उसके कमरे में घुस बैठा था। यह एक लड़की के अधिकारों का हनन ही तो है। लड़की की इच्छा के बिना उसका विवाह करने का निर्णय देने का अधिकार पंचायत को किसी ने नहीं दिया है। एक लड़की को पूर्ण अधिकार है कि वह किससे विवाह करे और किससे विवाह करने के लिए मना कर दे। यदि हम न्याय के अधिकारी कहलाते हैं, तो हमारा यह कर्तव्य बनाता है कि हम सही न्याय करें। इसके साथ ही दूसरों के अधिकारों की रक्षा बिना किसी जाति, लिंग तथा धार्मिक भेदभाव को दूर रखकर करें।

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Question 4:

भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं  लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा?

Answer:

लेखिका भक्तिन के साथ वर्षों से रह रही थी। वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानती थी। उसमें विभिन्न के प्रकार दुर्गुण विद्यमान थे। वे बिना पूछे पैसे उठाकर रख लेती थी। उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता था। वह झूठ बहुत बोलती थी। लेखिका की मुख मुद्रा के अनुसार लोगों के साथ बातचीत करती थी। अर्थात लेखिका को जो पसंद नहीं आता, उससे ढंग से बात नहीं करती थी और जो लेखिका को अच्छा लगता था, उससे ही अच्छी तरह से बात करती थी। अपनी गलत बात को सही करने के हज़ारों तर्क सामने रख देती थी। वह लेखिका की सुविधा नहीं देखती थी, हर बात को वह अपनी सुविधा अनुसार करती थी। यही कारण है लेखिका ने कहा होगा कि भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं।

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Question 5:

भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?

Answer:

लेखिका के अनुसार भक्तिन शास्त्र के प्रश्न को अपनी सुविधा से सुलझा लेती है। उदाहरण के लिए भक्तिन द्वारा यह कहना कि तीरथ गए मुँडाए सिद्ध। लेखिका भक्तिन के इस जवाब में कुछ नहीं कह पाती। लेखिका भक्तिन को मना करती है कि वह अपना सिर नहीं मुँडवाए। भक्तिन को लेखिका की यह बात अच्छी नहीं लगती है। अतः अपने सिर मुँडवाने की बात को सही साबित करने के लिए वह शास्त्र का सहारा लेती है। लेखिका जब अपनी जिज्ञासा जानने के लिए उससे पूछती है कि क्या लिखा है, तो वह यह बात कह देती है कि तीरथ गए मुँडाए सिद्ध। लेखिका उसकी इस बात का विरोध नहीं कर पाती। लेखिका भी इस विषय में असमंजस की स्थिति में पड़ जाती है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है कि भक्ति द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेती है।

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Question 6:

भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?

Answer:

भक्तिन के प्रभाव में आकर लेखिका देहाती हो गई थीं। दोनों एक साथ बहुत समय तक रहीं लेकिन भक्तिन लेखिका के प्रभाव में न आ सकी। यह अवश्य हुआ कि लेखिका को भक्तिन के प्रभाव में आना पड़ा। देहाती खाने की अनेक प्रकार की विशेषताएँ बता-बताकर देहाती खाने का आदी बना दिया। लेखिका की वह शहरी भाषा नहीं सीख पायी लेकिन लेखिका उसकी देहाती भाषा सीख गई थी। लेखिका ने उसके अनुसार जीना सीख लिया था।

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Question 1:

आलो आँधारि की नायिका और लेखिका बेबी हालदार और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते हैं?

Answer:

इन दोनों में बहुत प्रकार की समानताएँ विद्यमान थीं। वे इस प्रकार हैं-

(क) दोनों ही शिक्षा के मामले में कमज़ोर थी। भक्तिन अशिक्षित थी तथा बेबी हालदार ने सातवीं तक पढ़ाई की थी।

(ख) दोनों का जीवन कष्टों से भरा हुआ था।

(ग) दोनों को ही सेविका का काम करना पड़ रहा था।

(घ) दोनों को ही परिवार की तरफ से सहारा नहीं मिला। उन्हें परिवार से उपेक्षा और तिरस्कार प्राप्त हुआ।

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Question 2:

भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फ़ैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं है। अखबारों या टी.वी. समाचारों में आनेवाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।

Answer:

भारत गाँवों का देश है। यहाँ प्राचीनकाल से पंचायती राज रहा है। यहाँ पर पंचायत न्यायाधीश के समान कार्य करती है। छोटे-मोटे मामले पंचायत में हल कर लिए जाते हैं। पंचों का स्थान परमेश्वर के समान माना जाता है। लेकिन आज यह स्थिति नहीं है। पंचों का फैसला अजीब और रूढ़िवादी सोच से ओत-प्रोत होता है। ऐसा ही फैसला भक्तिन की बेटी के मामले में पंचायत का होता है। वह उसकी बेगुनाह बेटी को उस व्यक्ति से विवाह करने के लिए मज़बूर कर देती है, जो एक षड्यंत्र के तहत उसके कमरे में आया था। ऐसा ही फैसला आज भी सुनाई देता है। अभी पिछले दिनों पंचायत की इस प्रकार के फैसले देखने को मिले। जिसे सुनकर और पढ़कर समझ नहीं आता कि यह फैसला था या न्याय व्यवस्था के साथ मज़ाक-

(क) खाप पंचायत ने एक लड़की के साथ दुर्व्यवहार करने वाले युवकों को मात्र पंचायत के समाने sorry शब्द बुलवाकर छोड़ दिया।

(ख) ऐसे ही एक मामले में खाप पंचायत ने लड़के को 20 हज़ार रुपए का मामूली जुर्माना लगाकर छोड़ दिया।

(ग) एक मामले में वर पक्ष ने जब मंगनी के बाद विवाह करने से मना कर दिया, तो पंचायत ने सज़ा के तौर पर 75 पैसे का जुर्माना लगाया।

(घ) ऐसे ही यू.पी. के गाँव की पंचायत ने एक बच्ची के साथ हुए गैंगरेप के आरोपियों को 5 जूते की सज़ा मारकर छोड़ दिया।

(ङ) एक ऊँची जात की लड़की एक निचली जाति के लड़के के साथ भाग गई। इस पर फैसला सुनाते हुए पंचायत ने उस लड़के की दोनों बहनों को गाँव भर में नंगा घुमाने की सज़ा सुनाई।

यह कैसी पंचायत है, जिसने न्याय का ऐसा मज़ाक बनाया हुआ है, जिसे देखकर हम शर्मसार हो जाते हैं।

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Question 3:

पाँच वर्ष की वय में ब्याही जानेवाली लड़कियाँ में सिर्फ़ भक्तिन नहीं है, बल्कि आज भी हज़ारों अभागिनियाँ हैं। बाल-विवाह और उम्र के अनमेलपन वाले विवाह की अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर दोस्तों के साथ परिचर्चा करें।

Answer:

भारत जैसे देश में यह आम बात है। सरकार की तरफ से बहुत प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। भारत जैसे देश में लड़कियों को बोझ समझा जाता है। यहाँ पर बेटी होने का अर्थ है, दहेज की बड़ी रकम और लड़कों वालों के आगे हाथ बाँधकर खड़े रहना। अतः लोग बेटी चाहते ही नहीं है और यदि हो जाती है, तो उसे जानबुझकर छोटी उम्र में ब्याह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है।

मैं दिल्ली की निवासी हूँ और आर. के. पुरम. में रहती हूँ। प्रायः मैं जब मोती बाग की रेड-लाइट से होकर गुजरती हूँ, तो मुझे वहाँ एक लड़की दिखाई देती है। वह बहुत प्यारी थी। राजस्थानी भाषा में फूल बेचने के लिए मेरी कार के पास आ जाया करती थी। बात करने पर पता चला कि वह राजस्थान के एक गाँव से अपने पति के साथ यहाँ आई है। उसकी आयु मात्र 14 साल की एक थी। उसका विवाह तब करवा दिया गया था, जब 6 महीने की थी। उनके यहाँ सामूहिक विवाह होता है। जिसमें सभी माता-पिता बिना अधिक खर्चा किए विवाह कर दिया करते हैं। फिर एक वर्ष बाद मेरा वहाँ से जाना हुआ। मैं यह देखकर हैरान रह गई कि उसकी गोद में दो महीने का बच्चा था। उसकी दशा देखकर में दंग रह गई। वह बहुत कमज़ोर हो चुकी थी। एक 14 साल की बच्ची अब स्वयं एक बच्चे की माँ थी।

यदि इस प्रकार की घटना अब भी होती है, तो आप सोचिए भारत का भविष्य कैसा होगा?

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Question 4:

महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु- पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु-पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढकर पढ़ें। जो मेरा परिवार  नाम से प्रकाशित है।

Answer:

सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिता ने लिखा है :
'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।
'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी हूँगी, क्योंकि आप जानती हैं, मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भली भाँति देखभाल हो सकेगी।'
कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया कि अब हिरन नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।
सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्तु वह तब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग के रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा-सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती थी तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी। उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर आँखों में कौंध जाती थी।
सब उसके सरल शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए।
परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य निष्ठुरता गढ़ती है। वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की।
निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अत: उनकी स्थिति में परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता। परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवनकथा का तत्व है।
जिन्होंने हरीतिमा में लहराते हुए मैदान पर छलाँगें भरते हुए हिरनों के झुंड को देखा होगा, वही उस अद्भुत, गतिशील सौन्दर्य की कल्पना कर सकता है। मानो तरल मरकत के समुद्र में सुनहले फेनवाली लहरों का उद्वेलन हो। परन्तु जीवन के इस चल सौन्दर्य के प्रति शिकारी का आकर्षण नहीं रहता।
मैं प्राय: सोचती हूँ कि मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊर्जा को निष्क्रिय और जड़ बनाने के कार्य को मनोरंजन कैसे कहता है।
मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपवित्र भी मानता है। उसके प्रियतम आत्मीय जन का शव भी उसके निकट अपवित्र, अस्पृश्य तथा भयजनक हो उठता है। जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती।
आकाश में रंगबिरंगे फूलों की घटाओं के समान उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दवादन (आर्केस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुन्दर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गई है, किसी के पीले सुन्दर पंजे टेढ़े हो गए हैं और किसी के इन्द्रधनुषी पंख बिखर गए हैं। क्षतविक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु गातों में न अब संगीत है; न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारनेवाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।
पक्षिजगत में ही नही, पशुजगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशुजगत में हिरन जैसा निरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति और मृत्यु के प्रति इतना मोह और इतना आकर्षण क्यों?
बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण अपने अरण्य-परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।
प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ मृग समूह शिकारियों की आहट से चौंककर भागा, तब सोना की माँ सद्य:प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य:जात मृगशिशु तो भाग नहीं सकता था, अत: मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।
पता नहीं, दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपटे हुए शावक को जीवित उठा लाए। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला-पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।
सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
उसका मुख इतना छोटा-सा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आँखों से उसे ऐसे देखने लगती, मानो वह कोई सजीव मित्र हो।
उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाँ गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा होते ही वह मेरे कमरे में पलंग के पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही बाहर निकलती।
उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई, जिसके बिना उनका किसी काम में मन नहीं लगता था।
दूध पीकर और भीगे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्तुलित कर चौकड़ी भरती। फिर वह छात्रावास पहुँचती और प्रत्येक कमरे का भीतर, बाहर निरीक्षण करती। सवेरे छात्रावास में विचित्र-सी क्रियाशीलता रहती है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धोती है, कोई बालों में कंघी करती है, कोई साड़ी बदलती है, कोई अपनी मेज की सफाई करती है, कोई स्नान करके भीगे कपड़े सूखने के लिए फैलाती है और कोई पूजा करती है। सोना के पहुँच जाने पर इस विविध कर्म-संकुलता में एक नया काम और जुड़ जाता था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका लगा देती, कोई गले में रिबन बाँध देती और कोई पूजा के बताशे खिला देती।
मेस में उसके पहुँचते ही छात्राएँ ही नहीं, नौकर-चाकर तक दौड़ आते और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिलाने को उतावले रहते, परन्तु उसे बिस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदार्थ पसन्द थे।
छात्रावास का जागरण और जलपान अध्याय समाप्त होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चरती और कभी उस पर लोटती रहती। मेरे भोजन का समय वह किस प्रकार जान लेती थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्तु वह ठीक उसी समय भीतर आ जाती और तब तक मुझसे सटी खड़ी रहती जब तक मेरा खाना समाप्त न हो जाता। कुछ चावल, रोटी आदि उसका भी प्राप्य रहता था, परन्तु उसे कच्ची सब्जी ही अधिक भाती थी।
घंटी बजते ही वह फिर प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती और उसके समाप्त होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीतर-बाहर चक्कर लगाना आरम्भ करती।
उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छ्लाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। सरकस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती।
मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्लाँग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्राय: देखनेवालों को भय होता था कि उसके पैरों से मेरे सिर पर चोट न लग जावे, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती थी और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।
भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती। डाँटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों में ऐसी अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती।
कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी-मृग-शावक आदि को इतना महत्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है।
पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बेझिल नहीं बनाता। यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा।
सम्भवत: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर किए गए आघातों और सार्थक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भाषाहीन जीवों की स्नेह तरल दृष्टि का चन्दन लेप लगाकर स्वस्थ और आश्वस्त होना चाहता है।
सरस्वती वाणी से ध्वनित-प्रतिध्वनित कण्व के आश्रम में ऋषियों, ऋषि-पत्नियों, ऋषि-कुमार-कुमारिकाओं के साथ मूक अज्ञान मृगों की स्थिति भी अनिवार्य है। मन्त्रपूत कुटियों के द्वार को नीहारकण चाहने वाले मृग रुँध लेते हैं। विदा लेती हुई शकुन्तला का गुरुजनों के उपदेश-आशीर्वाद से बेझिल अंचल, उसका अपत्यवत पालित मृगछौना थाम लेता है।
यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंडगुदीनां
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
श्यामाकमुष्टि परिवर्धिंतको जहाति
सो यं न पुत्रकृतक: पदवीं मृगस्ते॥
                   - अभिज्ञानशाकुन्तलम्
शकुन्तला के प्रश्न करने पर कि कौन मेरा अंचल खींच रहा है, कण्व कहते हैं :
कुश के काँटे से जिसका मुख छिद जाने पर तू उसे अच्छा करने के लिए हिंगोट का तेल लगाती थी, जिसे तूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पाला है, जो तेरे निकट पुत्रवत् है, वही तेरा मृग तुझे रोक रहा है।
साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पर्शिता में भी मृगों का विशेष योगदान रहता है।
पशु मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया।
अनेक विद्यार्थिनियों की भारी-भरकम गुरूजी से सोना को क्या लेना-देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी, जिन्होंने यत्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी।
यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।
कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्वामी की स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है।
पर हिरन यह अन्तर नहीं जानता, अत: उसका अपने पालनेवाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जावे तो वह अपनी चकित आँखों में और अधिक विस्मय भरकर पालनेवाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा - मानो पूछता हो, क्या यह उचित है? वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति जताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।
मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते-बिल्ली उस पर उछलते-कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते, तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते।
वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण शावक से हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी। परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि में मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जल कोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी, मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।
सम्भवत: अब उसमें वन तथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जागने लगा था। प्राय: सूने मैदान में वह गर्दन ऊँची करके किसी की आहट की प्रतीक्षा में खड़ी रहती। वासन्ती हवा बहने पर यह मूक प्रतीक्षा और अधिक मार्मिक हो उठती। शैशव के साथियों और उनकी उछ्ल-कूद से अब उसका पहले जैसा मनोरंजन नहीं होता था, अत: उसकी प्रतीक्षा के क्षण अधिक होते जाते थे।
इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसे इतने लघु जीवों से घिरा देख कर उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गई।
एक दिन देखा, फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिन्त लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा, हेमन्त, वसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी, परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।
सम्भवत: वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी। पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर के आरपार चौकड़ी भरती रही। पर कुछ दिनों के उपरान्त जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ गया, तब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रतीक्षा की स्तब्ध घड़ियाँ फिर लौट आईं।
उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कार्यक्रम बना। प्राय: मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास कम करती हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप (नौकर) आदि तो साथ जाने वाले थे ही, पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चिय किया, क्योंकि वह मेरे बिना रह नहीं सकती थी।
छात्रावास बन्द था, अत: सोना के नित्य नैमित्तिक कार्य-कलाप भी बन्द हो गए थे। मेरी उपस्थिति का भी अभाव था, अत: उसके आनन्दोल्लास के लिए भी अवकाश कम था।
हेमन्त-वसन्त मेरी यात्रा और तज्जनित अनुपस्थिति से परिचित हो चुके थे। होल्डाल बिछाकर उसमें बिस्तर रखते ही वे दौड़कर उस पर लेट जाते और भौंकने तथा क्रन्दन की ध्वनियों के सम्मिलित स्वर में मुझे मानो उपालम्भ देने लगते। यदि उन्हें बाँध न रखा जाता तो वे कार में घुसकर बैठ जाते या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन तक जा पहुँचते। परन्तु जब मैं चली जाती, तब वे उदास भाव से मेरे लौटने की प्रतीक्षा करने लगते। सोना की सहज चेतना में मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था, नप्रत्यावर्तन का; इसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।
पैदल जाने-आने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। 2 जुलाई को लौटकर जब मैं बँगले के द्वार पर आ खड़ी हुई, तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।
गोधूली कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्त-वसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों में मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यों वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छ्लाँग नहीं लगाती? सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोंछने लगा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने लगे। वे लोग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।
ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाती थी। इतनी बड़ी हिरनी को पालनेवाले तो कम थे, परन्तु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।
एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूलकर बहुत ऊचाँई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।
सब उस सुनहले रेशम की गठरी के शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आए और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ। सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन ही पालना पड़ रहा है।

(नोटः यह मेरा परिवार नामक पुस्तक से ली गई है। इसकी लेखिका महादेवी वर्मा हैं।)

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Question 1:

नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ- छवि स्पष्ट कीजिए-

(क) पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले

(ख) खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी

(ग) अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण

Answer:

(क) पहली कन्या के जैसे दिखने वाली और दो कन्याओं का जन्म हुआ। लेखिका ने ऐसा इसलिए लिखा है क्योंकि किसी कहानी का पहला संस्करण निकलने के बाद उसके अन्य संस्करण निकाले जाते हैं। वह होते ठीक पहले के समान हैं। ऐसे ही भक्तिन की पहली कन्या के समान अन्य दो कन्याओं का जन्म हुआ।

(ख) ऐसी पत्नी जो ससुराल की नज़रों में खोटे सिक्के की टकसाल के समान थी। यहाँ  पर खोटे सिक्के कन्याओं को बताया गया है। भक्तिन ने बेटे को जन्म नहीं दे पायी थी। अतः वह खोटे सिक्के की टकसाल के समान थी। यदि वह बेटों को जन्म दे पाती, तो वह कभी खोटे सिक्के वाली टकसाल नहीं कही जाती। बेटी पैदा करना उसका सबसे बड़ा अवगुण था।

(ग) ऐसी बातें जो बार-बार सुनाई दी जा रही थीं लेकिन वे इतने धीरे बोली जा रही थीं कि साफ़ तौर पर पता नहीं चल रहा था कि बात किस विषय में है। इसके साथ ही जो लोग धीरे-धीरे बोल रहे थे उनकी बातें सुनने में न आए लेकिन उनके चेहरे पर एक सहानुभूति साफ़ रूप से देखी जा सकती थी। मानो कह रहे हों कि हम इस दुख की घड़ी में तुम्हारे हैं।

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Question 2:

'बहनोई' शब्द 'बहन (स्त्री.)+ओई' से बना है। इस शब्द में हिंदी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुई है। पुंलिंग शब्दों में कुछ स्त्री-प्रत्यय जोड़ने से स्त्रीलिंग शब्द बनाने की एक समान प्रकिया कई भाषाओं में दिखती है, पर स्त्रीलिंग शब्द में कुछ पुं. प्रत्यय जोड़कर पुंलिंग शब्द बनाने की घटना प्रायः अन्य भाषाओं में दिखलाई नहीं पड़ती है। यहाँ पुं. प्रत्यय 'ओई' हिंदी की अपनी विशेषता है। ऐसे कुछ और शब्द उनमें लगे पुं. प्रत्ययों की हिंदी तथा और भाषाओं में खोज करें।

Answer:

ये ऐसे शब्द हैं, जिनमें एय प्रत्यय लगाकर पुल्लिंग शब्दों का निर्माण हुआ।

(क) 'राधेय' कर्ण का दूसरा नाम है। कर्ण की पालक माता का नाम राधा था। कर्ण उनके नाम से राधेय कहलाए।


(ख) गांगेय भीष्म पितामह का दूसरा नाम है। अपनी माता के नाम से वह गांगेय नाम से जाने गए।
(ग) 'कौन्तेय' कर्ण का तीसरा नाम है। कुन्ती का पुत्र होने के कारण वह कौन्तेय भी कहलाए।

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Question 3:

पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझ कर इन्हें खड़ी बोली हिंदी में ढाल कर प्रस्तुत कीजिए।

(क) ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँघ लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है, आउर बाकी का रहा।

(ख) हमारे मालकिन तौ रात-दिन कितबयिन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।

(ग) ऊ बिचारअउ तौ रात-दिन काम माँ जुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घमती-फिरती हौ, चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।

(घ) तब ऊ कुच्छौ करिहैं-धरिहैं ना-बस गली-गली गाउत-बजाउत फिरिहैं।

(ङ) तुम पचै का का बताईययहै पचास बरिस से संग रहित हैं।

(च) हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।

Answer:

(क) यह कौन-सी बड़ी बात है। रोटी बनाना जानती हूँ, दाल बना लेती हूँ, साग-सब्जी छौंक सकती हूँ, और बाकी क्या रह गया है।

(ख) हमारी मालकिन तो रात-दिन किताबों में गड़ी रहती है। अब मैं ही पढ़ने लगी तो घर-गृहस्थी कौन देखेगा-सुनेगा।

(ग) वह बेचारी तो रात-दिन काम में लगी रहती हैं, और तुम पीछे-पीछे घुमती-फिरती हो, चलो थोड़ा हाथ बटा दो।

(घ) तब वह कुछ करता-धरता नहीं था, बस गली-गली गाता-बजाता फिरता था।

(ङ) तुमको क्या-क्या बताऊँ- यह पचास वर्ष से साथ रहती हैं।

(च) मैं कुत्तिया-बिल्ली नहीं हूँ, अगर हमारा मन चाहेगा, तो हम दूसरे के पास जाएँगे नहीं तो मैं सबकी छाती पर चने भूनूँगी और राज करूँगी, सब समझ लो।

भक्ति ने अपना नाम लोगों से क्यों छुपाती है?

उत्तर:- भक्तिन का वास्तविक नाम लक्ष्मी था, हिन्दुओं के अनुसार लक्ष्मी धन की देवी है। चूँकि भक्तिन गरीब थी। उसके वास्तविक नाम के अर्थ और उसके जीवन के यथार्थ में विरोधाभास होने के कारण निर्धन भक्तिन सबको अपना असली नाम लक्ष्मी बताकर उपहास का पात्र नहीं बनना चाहती थी इसलिए वह अपना असली नाम छुपाती थी।

भक्ति का वास्तविक नाम क्या था?

भक्तिन का वास्तविक नाम है-लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। लक्ष्मी नाम समृद्धि का सूचक माना जाता है। भक्तिन को यह नाम विरोधाभासी प्रतीत होता है। भक्तिन बहुत समझदार है अत: वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताना नहीं चाहती।

भक्तिन का नामकरण किसने किया और क्यों?

भक्तिन को यह नाम लेखिका ने दिया। भक्तिन का असली नाम लक्ष्मी था। वह अपने नाम को छिपाना चाहती थी क्योंकि उसके पास धन नहीं था। लेखिका ने उसके गले में कॅठीमाला देखकर यह नामकरण कर दिया।