प्लेटो की शिक्षा सिद्धांत उसके राजनीतिक सिद्धांत के लिए भी महत्वपूर्ण है। अपने गुरु सुकरात का अनुसरण करते हुए पेड़ों का सिद्धांत में विश्वास था कि ( virtue is knowledge) ‘सद्गुण ही ज्ञान है’, और लोगों को सद्गुणी बनाने के लिए उसने शिक्षा को भी बहुत शक्तिशाली साधन बनाया। प्लेटो का यह भी विश्वास था कि शिक्षा मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है और इसलिए व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए, उसकी प्राकृतिक क्षमताओं को बाहर निकलने के लिए यह आवश्यक है।
तत्कालीन समय में दो प्रकार की शिक्षा पद्धति प्रचलित थी। जिनका विवरण निम्नलिखित हैं-
एथेंस की शिक्षा पद्धति – एथेंस में केवल अमीर लोगों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। यहां के विद्यालय सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होते थे।
स्पार्टा की शिक्षा पद्धति– यहां की शिक्षा पद्धति पूर्णतः सरकारी थी। इसमें अमीर गरीब सभी को शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा महिलाओं को भी इसमें सम्मिलित किया गया था। यहां सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी।
प्लेटो की शिक्षा– प्लेटो की शिक्षा पद्धति पर एथेंस और स्पार्टा दोनों राज्यों का प्रभाव था। आरंभिक शिक्षा का पाठ्यक्रम दो भागों में विभाजित किया गया था- शरीर के प्रशिक्षण के लिए व्यायाम संबंधी और मस्तिष्क के प्रशिक्षण के लिए संगीत शिक्षा का प्रबंध था। प्रारंभिक शिक्षा समाज के सभी तीनों वर्गों के लिए थी।
20 वर्ष की आयु के पश्चात एक परीक्षा होती थी ,20 वर्ष की अवस्था के बाद जिन लोगों का उच्च शिक्षा के लिए चयन होना होता था वह लोग थे जिन्हें संरक्षक वर्ग (सैनिक और शासक) में 20 वर्ष से 35 वर्ष की आयु के बीच उच्च पदों पर कार्य करना था। इन दोनों वर्गों को व्यायाम तथा संगीत संबंधी शिक्षा अधिक दी जाती थी। व्यायाम संबंधी अधिक शिक्षा सैनिक वर्ग को दी जाती थी तथा संगीत संबंधी अधिक शिक्षा शासक वर्ग को। उनकी पाठ्य सामग्री के लिए प्लेटो ने केवल वैज्ञानिक अध्ययन गणित, खगोल विज्ञान और तर्कशास्त्र को ही चुना था।
35 वर्ष के बाद विद्यार्थी साहित्य, चिंतन तथा अनुभव हेतू विदेश भ्रमण को जाते थे। इस 50 वर्ष की शिक्षा को प्राप्त करने के बाद विद्यार्थी शासक बनने योग्य हो जाता था।
शिक्षा योजना की विशेषता-
1. उसकी शिक्षा की योजना संरक्षक वर्ग के लिए थी। उसने उत्पादक वर्ग पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया था।
2. उसकी पूरी शिक्षा योजना राज्य द्वारा नियंत्रित थी तथा इसका उद्देश्य मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक विकास था।
3. यह तीन चरणों को मिलाकर बनती थी- प्राथमिक शिक्षा 6 से 20 वर्ष की आयु में, उच्च शिक्षा 20 से 35 वर्ष की आयु में तथा प्रायोगिक शिक्षा 35 से 50 वर्ष की आयु तक।
4. इसका उद्देश्य शासकों को प्रशासनिक राज-कौशल सिखाना, सैनिकों को सैन्य कौशल सिखाना तथा उत्पादकों को भौतिक वस्तुओं के उत्पादन कौशल सिखाना था।
अपने आदर्श राज्य को न्याय पर आधारित करने हेतु प्लेटो ने शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया है। न्याय का अर्थ व्यक्तियों और वर्गों द्वारा अपने स्वभावानुकूल विशिष्ट कार्यों का सम्पन्न करना है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति को विशिष्ट कार्य का प्रशिक्षण देकर कुशल व दक्ष बनाया जा सकता है। प्लेटो न्याय की रक्षा के लिए भी शिक्षा को आवश्यक मानता है।
- नागरिकों को सदग्ग्ण्णी बनाना:
प्लेटो का शिक्षा-सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि “सदग् णा ही ज्ञान है “ यदि सद्गुण ज्ञान है तो उसे सिखाया जा सकता है। नागरिकों को सद्गुणी बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है ताकि समाज के तीनों वर्ग सद्गुणी बनकर अपने-अपने कर्त्तव्यों को स्वेच्छा से पूरा कर सकें।
- शिक्षा द्वारा व्यक्ति की आत्मा का विकास:
प्लेटो का मानना है कि मनुष्य की आत्मा में अनेक श्रेष्ठ तत्त्व निवास करते हैं। इन्हीं अन्तर्निहित तत्त्वों को बाहर निकाल कर सही दिशा में गतिमान करना ही प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जो आत्मा को अपने विकास के प्रत्येक स्तर पर सहायता करती है। शिक्षा के अभाव में मानव आत्मा पथभ्रष्ट हो सकती है, जो समाज और व्यक्ति दोनों के लिए घातक है।
- शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक बनाती है:
शिक्षा व्यक्ति के हृदय में समष्टि का भाव भरती है और उसे आत्मसंयम का पाठ पढ़ाती है। यह व्यक्ति को सत्यवादी और आज्ञाकारी होने की सीख देती है तथा अहंकार व स्वार्थ को त्याग कर परमार्थ की ओर प्रेरित करती है। शिक्षा व्यक्ति की सामाजिक चेतना को जगाकर विभिन्न वर्गों में सामंजस्य व एकता स्थापित करती है।
- शिक्षा का राजनीतिक महत्त्व:
शिक्षा के द्वारा शासक व सैनिक वर्ग को प्रशिक्षण प्राप्त होता है और दार्शनिक शासक का जन्म होता है। शिक्षा लोगों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने के योग्य बनाती है। राज्य के प्रत्येक वर्ग को उसके कर्त्तव्य से अवगत कराती है। यह व्यक्ति के राजनीतिक जीवन को परिशुद्ध कर राज्य को एकता के सूत्रा में बाँधती है।
- शिक्षा का दार्शनिक महत्त्व:
शिक्षा अपने आप में एक अच्छाई है। इसका अन्तिम लक्ष्य उस चरम सत्य की खोज करना है जो काल और स्थान से परे है, जो सृष्टि की सभी वस्तुओं का मूल कारण है, जो अपनी विभूति से सदा देदीप्यमान होता है एवं जिसकी ज्योति से समस्त चराचर प्रकाशित होता रहता है। इसी चिरंतन, शाश्वत और अटल सत्य की खोज कर व्यक्ति पार्थिव जीवन की सीमाओं से ऊपर उठने का प्रयास करता है।